Sunday 25 September 2011

अज्ञेय जन्मशती


         सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का हिंदी साहित्य में योगदान

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का जन्म 07 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद के ऐतिहासिक स्थान कुशीनगर में हुआ था। अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी जीवन जीते हुए इन्होने श्रीवत्स, कुट्टिचातन, समाजद्रोही नं.1, डॉ. अब्दुल लतीफ और अज्ञेय आदि छद्म नामों से रचनाएं कीं। इनमें से अज्ञेय उपनाम को इतनी प्रसिद्धि मिली कि हिंदी साहित्य में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को अज्ञेय उपनाम से ही जाना जाने लगा। बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्यकारों में अज्ञेय ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होने सबसे अधिक विधाओं में उत्कृष्ट साहित्य लिखा है।
भग्नदूत और चिंता नामक काव्य-संग्रहों से अपनी काव्य-यात्रा शुरू करने वाले अज्ञेय ने सन् 1943 में तारसप्तक का संपादन करके आधुनिक हिंदी काव्य में एक नए अध्याय की शुरुआत की, जिसे प्रयोगवाद के रूप में जाना जाता है। प्रयोगवाद मध्यमवर्गीय व्यक्ति के जीवन की जटिलताओं, संघर्षों, निराशा, दुखों और कष्टों को कविता के माध्यम से प्रकट करने की भावना पर केंद्रित था। इस प्रकार अज्ञेय द्वारा चलाए गए प्रयोगवाद ने कविता में उन नवीन प्रयोगों की स्थापना की, जिनसे आधुनिक कविता अछूती थी।
इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, अरी ओ करुणामय प्रभा, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार और सन्नाट बुनता हूँ आदि अज्ञेय के चर्चित काव्य-संग्रह हैं। इन काव्य-संग्रहों में अज्ञेय ने शहरी और ग्रामीण जीवन की अनुभूतियों को, व्यक्ति एवं समाज की संवेदना को तथा बौद्धिकता एवं दार्शनिकता को सटीक अभिव्यक्ति दी है। अज्ञेय ने एक ओर औद्योगिक नगरों-महानगरों की जटिलता भरी दौड़ती-भागती, लुटती-पिटती जिंदगी को पूरी तीव्रता के साथ अपनी कविताओं में उतारा है तो दूसरी ओर ग्रामीण जीवन की सुंदरता को, प्रकृति की निकटता को और उसके सौंदर्य की मादक अनुभूति को अपनी कविताओं में बड़ी कुशलता के साथ उतारा है। अज्ञेय की कविताओं में जीवन के तमाम रंग इतनी बारीकी से उतरे हैं कि संवेदना और विचार के स्तर पर कुछ भी छूटने की संभावना ही नहीं रह जाती। अज्ञेय से पहले हिंदी कविता इतने विस्तृत फलक पर समय और समाज के साथ नहीं जुड़ी थी। हिंदी की प्रचलित काव्य-धारा के विपरीत एकदम अलग और नई स्थापनाएँ देने के कारण विरोधों और आलोचनाओं के बावजूद अज्ञेय के प्रशंसक ही नहीं, कटु आलोचकों ने भी उनकी काव्य-प्रतिभा को सराहा है। सन् 1964 में आँगन के पार द्वार काव्य-संग्रह पर अज्ञेय को साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन् 1979 में कितनी नावों में कितनी बार काव्य संग्रह पर अज्ञेय को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अज्ञेय को अच्छा कवि कहा जाय या गद्यकार, यह समझ पाना भी बहुत कठिन है। सन् 1941 में अज्ञेय का पहला उपन्यास- शेखर : एक जीवनी प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद कई आलोचकों ने उन्हें गद्यकार ही घोषित कर दिया था। यह उपन्यास कथ्य, शिल्प और भाषा की दृष्टि से हिंदी उपन्यास विधा में एक नए प्रयोग की तरह था। आज आधुनिकता के रूप में जिस जीवन-शैली को परिभाषित किया जाता है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को आधुनिकता के प्रतीक के रूप में जिस तरह से देखा जाता है, उसे बहुत पहले ही अज्ञेय ने  देख लिया था और अपने उपन्यास शेखर : एक  जीवनी में प्रकट कर दिया था। नदी के द्वीप और अपने-अपने अजनबी उनके दूसरे उपन्यास हैं। अज्ञेय के तीन उपन्यास ही प्रकाशित हुए हैं। अलग-अलग तासीर वाले इन तीनों उपन्यासों में विचारों की गंभीरता भी है, भावनाओं की विविधता भी है, विरोधी तत्वों को बड़ी कुशलता के साथ जोड़ देने की क्षमता भी है, कथा-भाषा के विविध प्रयोग भी हैं और अनेक रंग भी हैं। एक कुशल उपन्यासकार के रूप में अज्ञेय ने केवल तीन उपन्यास देकर ही हिंदी की उपन्यास विधा को सशक्त भी किया और हिंदी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत भी कर दी।
विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल और अमर वल्लरी आदि अज्ञेय के प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं। अपनी कहानियों में अज्ञेय ने व्यक्ति के अपने नैतिक संघर्ष तथा व्यक्ति और समाज के बीच होने वाले टकराव को, संघर्ष को शुद्ध देशी अंदाज में प्रकट किया है। उनकी कहानियों में एक ओर फक्कड़पन है तो दूसरी ओर विचारों की गंभीरता भी है। अज्ञेय ने अपनी कहानियों में प्रतीकों और नाटकीय स्थितियों के चित्रण के माध्यम से उस यथार्थ को आधुनिक हिंदी कहानियों के साथ जोड़ा है, जो हिंदी कहानियों के लिए एकदम नया और अभूतपूर्व था। अज्ञेय द्वारा लिखी गई गैंग्रीन और पठार का धीरज आदि कहानियों को आज की यथार्थ केंद्रित कहानियों की प्रारंभिक अवस्था के रूप में देखा जा सकता है।        
अज्ञेय को हिंदी साहित्य में कुशल निबंधकार के रूप में भी जाना जाता है। आत्मनेपद, हिंदी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल, भवन्ति और लिखि कागद कोरे आदि अज्ञेय के निबंध संग्रह हैं। इन निबंध संग्रहों में अज्ञेय ने समय, समाज और साहित्य से जुड़े अपने अनुभवों को विचारों और चिंतन में बाँधकर प्रस्तुत किया है। अज्ञेय के निबंधों में उनके निजी अनुभव हैं, फिर भी उनका निजीपन समाज और साहित्य की हकीकत को खुली आँखों से देखने वाला है, इसी कारण उनके वैचारिक निबंधों ने आधुनिक हिंदी की दिशा और दशा का निर्धारण करने में अमूल्य योगदान दिया है। अज्ञेय को मानव-मन का विश्लेषण करने वाले कुशल समीक्षक के रूप में भी जाना जाता है। उनके निबंध-संग्रह त्रिशंकु में फ्रायड और युंग के सिद्धांतों का प्रभाव भी दिखता है और मानव- मन को पूरी गहराई तक उतरकर समझ लेने की क्षमता का अद्भुत विस्तार भी दिखाई देता है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन की तरह अज्ञेय की पहचान भी यायावर, घुमक्कड़ साहित्यकार के रूप में होती है। उन्होने देश-भर की ही नहीं, बल्कि विदेशों की भी अनेक यात्राएँ की थीं। अज्ञेय ने नई-नई जानकारियों के साथ इन यात्राओं के रोचक वर्णन अपने यात्रा-साहित्य में किए हैं। एक बूँद सहसा उछली उनका चर्चित यात्रा-वृतांत है, जिसमें अज्ञेय ने रोम, पेरिस, बर्लिन, फिरेंजे आदि स्थानों के साथ जुड़ी अपनी यादों को समेटा है। यह यात्रा-साहित्य रोचक भी है और ज्ञानवर्धक भी है। इसी तरह असम से लेकर पश्चिमी सीमा प्रांत तक भारत में की गई यात्रा का वर्णन उन्होने अपनी पुस्तक अरे यायावर रहेगा याद में किया है। इस पुस्तक में अज्ञेय ने किसी स्थान का केवल बाहरी वर्णन ही नहीं किया, बल्कि उस स्थान को देखकर मन में उठने वाले विचारों को भी स्थान दिया है। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं को पूरी हकीकत के साथ प्रकट करने की दृष्टि से अज्ञेय के यात्रा-वृत्त अरे यायावर रहेगा याद का अपना विशेष महत्व है। इस तरह यात्रा-साहित्य के माध्यम से अज्ञेय ने हिंदी साहित्य को न केवल समृद्ध किया है, बल्कि एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक की तरह से उन समस्याओं को भी प्रकट किया है, जो भौगोलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक चुनौतियों के रूप में ज्वलंत राष्ट्रीय समस्याओं से ताल्लुक रखती हैं।
अज्ञेय कुशल संपादक भी थे। उन्होने तार सप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक के साथ ही सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, नया प्रतीक और नवभारत टाइम्स का संपादन किया।
समग्रतः अज्ञेय का रचना-संसार हिंदी गद्य की प्रचलित विधाओं के साथ ही रेखाचित्र, इंटरव्यू, संस्मरण और आलोचना जैसी नई साहित्यिक विधाओं तक फैला हुआ है। जितना व्यापक उनका रचना-संसार है उतनी ही व्यापकता उनके ज्ञान-भण्डार में भी है। उर्दू, बंगाली, गुजराती, तमिल आदि भारतीय भाषाओं के साथ ही अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन भाषाओं पर उनकी अच्छी पकड़ थी। इसके साथ ही शिल्प, स्थापत्य, नृत्य-संगीत, नाटक, फोटोग्राफी, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीतिविज्ञान, जीवविज्ञान और वनस्पतिविज्ञान का उन्हें अच्छा ज्ञान था। अज्ञेय ने विज्ञान और अंग्रेंजी साहित्य का अध्ययन किया था। अज्ञेय के अध्ययनक्षेत्र की इस व्यापकता का सीधा लाभ हिंदी साहित्य को मिला है।
हिंदी साहित्य में अज्ञेय को क्रांतिकारी साहित्यकार माना जाता है। यदि उनके प्रारंभिक साहित्य को देखें तो यह धारणा सही भी प्रतीत होती है। इसके बावजूद उनकी क्रांति और क्रांतिकारिता के संबंध में धारणा एकदम अलग थी। उनका मानना था कि क्रांति के बाद क्रांति और बदलाव-दर-बदलाव से ही गतिशीलता आती है। अगर विरोधी विचारों के प्रति शत्रुतापूर्ण भाव रखे जाते हैं तो समाज की स्वाभाविक प्रगति में रुकावट पैदा हो जाती है। समाज की गति को एकपक्षीय बनाकर नहीं रोका जाना चाहिए। क्रांति के प्रति ऐसी अवधारणा के कारण ही वे संभवतः धर्म और आध्यात्म की ओर अग्रसर हुए। अज्ञेय धर्म और आध्यात्म को व्यापार का नहीं बल्कि आत्मा की शांति का, कर्म के प्रति समर्पण का और सत्कर्म का माध्यम मानते थे। धर्म और आध्यात्म की इस भूमिका को समाज में स्थापित करने के लिए सन् 1980 में उन्होने वत्सल निधि की स्थापना भी की और उसका संचालन भी किया। वत्सल निधि के माध्यम से अज्ञेय ने तमाम नए-पुराने साहित्यिकों को और जिज्ञासु लोगों को पुरातन भारतीय ज्ञान-संपदा से, भारतीय साहित्य से परिचित कराने का कार्य किया। अज्ञेय ने अपने संदर्भ में भले ही सीधे तौर पर बौद्ध धर्म-दर्शन की चर्चा नहीं की हो, किंतु उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व दोनों में ही परस्पर विरोधी तत्त्वों का जैसा सुंदर तालमेल दिखाई देता है, जैसा संतुलन प्रकट होता है वह कहीं न कहीं बौद्ध दर्शन के मध्यम मार्ग से प्रेरित नजर आता है। इसी कारण उनका व्यक्तित्व और कृतित्व, उनका समग्र जीवन उस कैनवस की तरह से है, जिसमें परस्पर विरोधी रंगों को इस तरह से भरा गया है, जो विरोध को त्यागकर एक-दूसरे के पूरक बने हुए प्रतीत होते हैं।
युवाओं जैसी ऊर्जा और कर्मठता के साथ समर्पित भाव से अपनी योजनाओं में लगे रहने वाले अज्ञेय खुद को एक साहित्यकार से ज्यादा अपने परिवेश का, अपने समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा मानते थे और उसी जिम्मेदारी को पूरा करने को महत्व भी देते थे। जिम्मेदारियों का यही एहसास अज्ञेय जैसे महान रचनाकार को सरलता और सहजता के धरातल पर इस तरह उतार देता है कि वे एक साहित्यकार ही नहीं रह जाते, बल्कि साहित्यकारों के सर्जक भी बन जाते हैं। अज्ञेय ने अपनी महानता के ऊपर अपनी इन्ही जिम्मेदारियों को स्थापित करके तमाम नए रचनाकारों को प्रोत्साहित भी किया और उनको सही राह भी दिखाई। जिस किसी में उन्हें रचनाधर्मिता नजर आती, संभावना नजर आती, उसे प्रोत्साहित करने में, प्रेरित करने में और निखारने में वे जी-जान से जुट जाते थे। इसी का परिणाम है कि अज्ञेय के सानिध्य में, उनके दिशा-निर्देशन में रचनाधर्मिता की नसीहतें लेने वाले आज हिंदी साहित्य जगत में बहुत ऊँचाई पर पहुँचे हैं। अज्ञेय जैसा उदारमना व्यक्तित्व और अज्ञेय जैसी सहजता आज के साहित्य जगत में खोज पाना बहुत कठिन है।
 हिंदी साहित्य को अपनी उपस्थिति से चमत्कृत कर देने वाला, रचनात्मक स्तर पर हिंदी में एक नए दौर की शुरुआत करने वाला यह देदीप्यमान नक्षत्र 04 अप्रैल, सन् 1987 को लुप्त हो गया। जादुई और बहुरंगी व्यक्तित्व वाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के लिए उनकी ही लिखी हुई यह पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं—
मैं सभी ओर से खुला हूँ.
वन-सा, वन-सा अपने में बंद हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी।
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।

     (रेडियो काश्मीर-लेह से दिनांक 11 जुलाई, 2011 को प्रातः 8 बजे प्रसारित ) 
                                                                                   डॉ. राहुल मिश्र

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