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Friday 12 February 2016

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब

वृत्तचित्र, दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब
भारतमाता के मुकुट कहे जाने वाले हिमालय की बर्फ से ढकी उज्ज्वल पर्वत श्रेणियों के बीच लदाख अंचल स्थित है। लदाख अंचल को भारतमाता के मुकुट में सुशोभित सुंदर मणि कहा जाता है। एक ओर हिमालय, तो दूसरी ओर कराकोरम की पर्वतश्रेणियों के बीच स्थित लदाख से होकर सिंधु नदी गुजरती है। भारतीय संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली पवित्र सिंधु नदी-घाटी में बसा लदाख अंचल अपने अतुलनीय-अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात है। लदाख का शाब्दिक अर्थ दर्रों की भूमि है। दूर-दूर तक नजरों में समाते, कभी ऊँचे उठते, कभी झुकते-जैसे आसमान को छूते विविधवर्णी पर्वतों के बीच नीले रंग के स्वच्छ आकाश में विचरण करते रुई के जैसे बादलों की अद्भुत छटा को समेटे लदाख अंचल अपने प्राकृतिक सौंदर्य से हर आने वाले का मन मोह लेता है। पूर्णिमा की चाँदनी रात में शीतलता से भरी दूधिया रोशनी में चमकती धरती का आकर्षण हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। चारों ओर फैली असीमित शांति के बीच सिंधु के जल का कल-कल निनाद महानगरीय जीवन की आपाधापी से थककर आए पर्यटकों को असीमित सुख देता है, अपरिमित शांति देता है। 
अपनी अनूठी प्राकृतिक विशिष्टता के साथ लदाख अंचल का अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी है। हिंदुस्तान को अपना यह नाम भी यहाँ प्रवाहित होने वाली सिंधु नदी से मिला है। लदाख अंचल हमारे पूर्वजों, आदि मानवों के जीवन का गवाह भी है। लदाख में कई स्थानों पर शिलालेख और पत्थरों पर अंकित पाषाणकालीन चित्र मिलते हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि यह स्थान नव-पाषाणकाल से स्थापित है। पहली शताब्दी के आसपास लदाख कुषाण राज्य का हिस्सा हुआ करता था। लदाख के प्राचीन निवासी मोन और दरद लोगों का वर्णन हेरोडोट्स, नोर्चुस, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी आदि प्रसिद्ध यात्रियों द्वारा लिखे इतिहास में भी मिलता है। सातवीं शताब्दी में बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र का वर्णन किया है। इस तरह लदाख अंचल अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है।
लदाख का मुख्यालय लेह शहर है। लेह भी ऐतिहासिक महत्त्व का नगर रहा है। लेह में यारकंदी व्यापारियों के साथ ही चीनी, तिब्बती और नेपाली व्यापारियों का आवागमन होता रहा है। लेह में पूर्व से आने वाले तिब्बती प्रभाव को, और मध्य एशिया से आए चीन के प्रभाव को देखा जा सकता है। पश्चिम की ओर से कश्मीर और शेष भारत के साथ लेह शहर का जुड़ाव रहा है, जिनका प्रभाव भी यहाँ पर देखा जा सकता है। पुराने समय में यह शहर सिल्क रूट के तौर पर भी जाना जाता था। व्यापारिक गतिविधियों के साथ ही लेह के साथ विभिन्न धर्म-संस्कृतियों का संपर्क भी रहा है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में बोन धर्म का प्रभाव रहा। यहाँ पर हिंदू और फिर बौद्ध धर्म का प्रभाव कायम हुआ। लेह के उत्तर में स्थित कैलास मानसरोवर हिंदुओं की आस्था से जुड़ा तीर्थस्थान है। कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए प्रति वर्ष हजारों तीर्थयात्रियों का यहाँ आना-जाना रहता था। इस कारण अनेक धर्मगुरुओं, संत-महात्माओं का प्रभाव लदाख अंचल में हमेशा बना रहा है। इसी कारण लेह में विविध धर्म-संस्कृतियों के प्रतीक आज भी देखे जा सकते हैं।
तिब्बती विद्वान रिंचेन जंग्पो और महायान बौद्ध परंपरा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु पद्मसंभव के साथ ही विभिन्न धर्माचार्यों, संतों ने अपने आगमन के माध्यम से इस क्षेत्र को कृतार्थ किया है। लदाख की यात्रा में आने वाले धर्माचार्यों में सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक का नाम भी आता है। ऐसी मान्यता है कि तिब्बत और फिर मानसरोवर से होते हुए गुरु नानक लेह पधारे थे और यहाँ से करगिल, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम, श्रीनगर होते हुए करतारपुर गए थे।
लेह शहर के मुख्य बाजार में शाही मसजिद के बगल में गुरुद्वारा दातून साहब स्थित है। इसके साथ ही लेह शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित निम्मू गाँव के पास गुरुद्वारा पत्थर साहब है। गुरुद्वारा पत्थर साहब की स्थापना की कथा गुरु नानक की इस यात्रा के प्रसंग के साथ जुड़ी है। गुरुद्वारा पत्थर साहब के अस्तित्व में आने की बड़ी रोचक कथा है। सन् 1970 में लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण सेना और सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जा रहा था। उस समय निम्मू गाँव के पास लेह-निम्मू सड़क निर्माण के दौरान बौद्ध प्रार्थना ध्वजों में लिपटा एक बड़ा पत्थर रास्ते में आ गया। सड़क निर्माण के काम में लगे बुलडोजर के ड्राइवर ने पत्थर को रास्ते से हटाने की पूरी कोशिश की और अपनी मशीन पर पूरा जोर दे दिया। ऐसा करने के बावजूद पत्थर अपनी जगह से नहीं हिला, लेकिन बुलडोजर का ब्लेड जरूर टूट गया। इसके बाद, उसी रात बुलडोजर के ड्राइवर ने एक सपना देखा। ड्राइवर ने सपने में एक आवाज सुनी। उसमें ड्राइवर को पत्थर से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने को कहा गया। अगली सुबह ड्राइवर ने अधिकारियों को अपने सपने के बारे में बताया। अधिकारियों ने उसे इस बात को भूल जाने को कहा और पत्थर को डायनामाइट से उड़ा देने का आदेश दिया। इसके बाद, रात को संबंधित अधिकारियों ने भी ऐसा ही सपना देखा और आवाज सुनी। अगली सुबह रविवार का दिन था। अधिकारियों ने पत्थर से जुड़े तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने के लिए कुछ लामाओं को बुलाया। उन लामाओं ने पत्थर वाली जगह का दौरा किया और बताया कि पत्थर पर संत नानक लामा के कंधे का निशान है। इस तरह पत्थर को हटाने का काम बंद हो गया और वहाँ पर पूजा-अर्चना की शुरुआत हो गई।
पत्थर को देखने पहुँचे लामाओं ने पत्थर से जुड़ी कथा भी बताई। जनश्रुतियों में प्रचलित कथा के अनुसार जिस समय गुरु नानक लेह में आए हुए थे, उस समय एक शैतान राक्षस का वहाँ पर बहुत आतंक था। वह लोगों को पकड़कर मार डालता था। उसके कारण लोगों में डर व्याप्त था। उस शैतान राक्षस ने क्षेत्र में ऐसी अशांति मचा रखी थी कि लोगों का जीना दूभर हो गया था। इसी वक्त 1517 में गुरु नानक ने इस स्थान का दौरा किया। गुरु नानक सिक्किम, नेपाल, मानसरोवर झील और तिब्बत का दौरा कर श्रीनगर के रास्ते से पंजाब जा रहे थे। रास्ते में ध्यान लगा रहे गुरु नानक पर उस राक्षस ने पत्थर फेंका। गुरु के संपर्क में आते ही पत्थर ऐसे पिघल गया, मानो वह मोम का बना हो। इसके बाद गुरु के कंधे का निशान उस पत्थर में बन गया। मान्यताओं के अनुरूप और लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर जिस पत्थर की कथा लामाओं द्वारा बताई गई, खुदाई में पत्थर का आकार कुछ वैसा ही मिला। इसी जगह पर सेना ने पत्थर साहब गुरुद्वारा का निर्माण कराया और उसके संरक्षण का जिम्मा भी लिया। इस गुरुद्वारे के साथ बौद्ध समुदाय की आस्था भी जुड़ी हुई है।
गुरु नानक की यात्रा के साथ जुड़ी गुरुद्वारा पत्थर साहब की कथा विश्वसनीय भी लगती है, क्योंकि गुरु नानक ऐसे संत थे, जिन्होंने किसी गुफा-कंदरा में बैठकर तपस्या करने के स्थान पर घूम-घूमकर लोगों को सीख दी और मानव-सेवा के माध्यम से अपनी साधना को पूर्ण किया। गुरु नानक के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में 28 वर्षों तक केवल यात्राएँ कीं और निरंतर पैदल चलकर देश-दुनिया का भ्रमण किया। अगर इतिहास में देखें, तो इब्ने बतूता के बाद इतनी लंबी पदयात्रा करने वाले गुरु नानक ही थे। गुरु नानक की तुलना लगातार दो वर्षों तक यात्रा करने वाले कोलंबस और तीन वर्षों तक लगातार यात्रा करने वाले वास्को डी गामा से भी होती है। लेकिन इब्ने बतूता, कोलंबस और वास्को डि गामा की यात्राएँ किसी धार्मिक उद्देश्य के लिए या मानवता की सेवा के उच्च आदर्श पर आधारित नहीं थीं।
सिखों के आदि गुरु की जीवनी बड़ी प्रेरणापरक है। जब उन्होंने अपना घर छोड़कर देशाटन का फैसला लिया, तब उनकी माँ को बड़ा दुःख हुआ। नानक के घर छोड़ने से पहले उनकी माँ ने उनसे पूछा कि देशाटन करने से क्या हासिल होगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि  देशाटन से कुछ भी नहीं होगा, मगर समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करने के लिए किसी गुफा-कंदरा में बैठकर साधना करने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि ऐसा करने पर संसार के उन लोगों का कल्याण नहीं होगा, जो अज्ञानता में पड़े हैं, जिन्हें सच्चा ज्ञान देना जरूरी है। इसके लिए हमें अपने शरीर को ही मंदिर बनाना पड़ेगा। अपने दिमाग को माया के बंधन से मुक्त करना होगा। बुराइयों से मुक्ति पानी होगी। इसके लिए घूम-घूमकर, लोगों के बीच में जाकर उन्हें जागरूक करना होगा, उन्हें नसीहत देनी होगी और उन्हें सच्ची राह दिखानी होगी। अपने इसी उद्देश्य के साथ सत्य का संदेश फैलाने के लिए गुरु नानक ने तीन दशकों में 28 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। हर स्थान पर वह किस्से छोड़ते गए, लोगों को अपने व्यावहारिक ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते गए। उनकी यात्राओं से जुड़ी अनेक कहानियाँ श्जनम साखीश् में संकलित हैं और आज भी सुनाई जाती हैं।
गुरु नानक जी के इस महान उद्देश्य में उनका साथी बना मरदाना नाम का उनका शिष्य, जो उनका मित्र भी था और उनका सहयोगी भी था। मरदाना रबाब बजाते चलता और गुरु नानक उसके साथ देश-दुनिया को अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते जाते। उन्होंने अपने शिष्य मरदाना के साथ पाँच बड़ी यात्राएँ कीं, जिन्हें पाँच उदासी (प्रमुख यात्राएँ)  के नाम से जाना जाता है। अपनी पाँच उदासी में उन्होंने करीब 60 शहरों का भ्रमण किया। इन उदासी में उन्होंने दो उप-महाद्वीपों का भ्रमण किया। पहली उदासी में उन्होंने उत्तरी और पूर्वी भारत का भ्रमण किया। दूसरी उदासी के दौरान श्रीलंका और दक्षिण भारत और तीसरी उदासी में उन्होंने तिब्बत, सुमेरु पर्वत, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम और श्रीनगर सहित लेह का भ्रमण किया। चौथी उदासी में गुरु नानक मक्का, मदीना, येरुशलम, दमश्कस, अलेप्पा, पर्सिया, तुर्की, काबुल, पेशावर और बगदाद पहुँचे। नानक जी की आखिरी उदासी 1530 में खत्म हुई, इसमें वह दिल्ली और हरिद्वार जैसे उत्तर भारतीय शहरों में गए। नानक जी जिस जगह पर जाते थे, वहाँ की तहजीब में ढल जाते थे, वहाँ उसी ढंग के परिधान भी धारण करते थे। जब वे बनारस गए तो वहाँ माथे पर चंदन का तिलक लगाए नजर आए और जब वे मक्का-मदीना की यात्रा में गए, तब उन्होंने मुस्लिम परिधानों को धारण किया। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य यह संदेश देना था कि परिधान पहनने से जाति-धर्म नहीं बदलता है और जाति-धर्म का भेदभाव न करना ही सच्ची मानवता है। सत्य का संदेश देने के लिए उन्होंने व्यापक तौर पर यात्राएँ कीं। उनका पहला संदेश यही था- न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान। अपने उपदेशों में नानक जी ने तीन संदेश दिए। पहला- ईमानदारी से कमाई करना (किरत करना), दूसरा- भगवान की प्रार्थना करना (नाम जपना) और तीसरा- ईमानदारी से कमाया गया धन जरूरतमंदों के साथ साझा करना (वंड चकना)।
गुरु नानक दार्शनिक, योगी, धर्मसुधारक, समाजसुधारक और सर्वेश्वरवादी थे। उन्होंने रूढ़ियों, आडंबरों का विरोध किया और आंतरिक साधना के माध्यम से, उच्च मानवीय गुणों के पालन के माध्यम से मानवता की सेवा को ही सच्ची भक्ति माना। गुरु नानक जब तिब्बत की यात्रा में गए, उस समय वहाँ पर महायान बौद्ध परंपरा का प्रभाव था। महायान परंपरा भी मानवता की सेवा को, सबके कल्याण की साधना को ही श्रेष्ठ मानती है। संभवतः इसी कारण गुरु नानक के प्रति बौद्ध संतों का आकर्षण उत्पन्न हुआ और उन्हें तिब्बत में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। ऐसी मान्यता है कि महायान परंपरा के निंगमा संप्रदाय में गुरु नानक को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी कारण गुरु नानक के लेह आगमन पर महायान परंपरा से अनुप्राणित लद्दाख अंचल में उन्हें अपार मान-सम्मान मिला और उन्हें संत नानक लामा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
गुरु नानक सन् 1517 में लेह पधारे थे। गुरुद्वारा दातूनसाहब के बारे में मान्यता है कि उन्होंने वहाँ पर अपनी दातून को जमीन में गाड़ दिया था, जिसने कालांतर में विशालकाय पवित्र वृक्ष का रूप ले लिया। वह वृक्ष आज भी है और उसकी शीतल छाया अद्भुत सुख-शांति का अहसास कराती है। अगर लद्दाख की वनस्पतियों को देखें, तो यहाँ पर पेड़ों की कई प्रजातियाँ कलम लगा देने पर तैयार हो जाती हैं। इस तरह लोकप्रचलित मान्यता को पुष्ट होने का एक आधार मिल जाता है। सन् 1517 में गुरु नानक के आगमन के समय लेह विविध संस्कृतियों के समन्वय के जीवंत साक्ष्य के रुप में समृद्ध था। वक्त गुजरने के साथ सांस्कृतिक विविधताएँ सिमटती गईं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्थितियों ने बहुत कुछ बदल दिया, परिधियाँ सिकुड़ गईं और अलग-अलग दायरे बँधने लगे। शायद इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब का इतिहास लोगों के सामने नहीं आ पाया। सन् 1970 में सड़क निर्माण के कार्य के साथ लद्दाख के साथ जुड़े उस अतीत का खुलासा हुआ, जिसे वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब के रूप में देख पाने का सौभाग्य आज हमारे साथ है।
इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब धार्मिक आस्था का केंद्र मात्र नहीं है, वरन् हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रेणियों के बीच गुरु नानक के उपदेशों का जीवंत साक्ष्य है। यह हमारी धरोहर है, जो हमारे पूर्वजों की सहिष्णुता को, उनके द्वारा स्थापित किए गए उच्च मानवीय मूल्यों को, आदर्शों को अपने अस्तित्व से साकार कर रही है। यह ऐसा ऐतिहासिक स्थल भी है, जो रक्तरंजित, आहत हिमालय परिक्षेत्र के वर्तमान को गर्व के साथ बता रहा है कि हम मानवता को पाशविकता से, क्रूरता से ऊपर रखने वाले अतीत के वंशज हैं।
वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब की व्यवस्था और देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय सेना के पास है। मान्यता के अनुसार जिस पहाड़ी से शैतानी राक्षस ने पत्थर फेंका था, उस पहाड़ी को नानक पहाड़ी कहा जाता है। सेना ने वहाँ तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई हैं, और लोग उस पहाड़ी में दर्शनार्थ जाते हैं, साथ ही वहाँ से आसपास के सुंदर दृश्यों का आनंद भी उठाते हैं। गुरुद्वारा पत्थर साहब के दाहिनी ओर गुरुगद्दी बनी है। सेना द्वारा यहाँ तक पहुँचने के लिए भी सुगम मार्ग बनाया गया है। ऐसी मान्यता है कि गुरुगद्दी में गुरु नानक एकांतिक साधना करते थे। इसी कारण गुरुगद्दी में पहुँचकर असीमित शांति का अनुभव होता है। भारतीय सेना के सहयोग और अनथक प्रयास के कारण धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता और उच्च मानवीय मूल्यों का प्रकाश देने वाला यह स्थान स्थानीय लोगों के लिए ही नहीं, वरन्, देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है, उन्हें नसीहत देता है। शैतान राक्षस जैसी प्रवृत्तियाँ किसी भी व्यक्ति के अंदर हो सकती हैं। जिस तरह गुरु नानक के प्रभाव में आकर शैतान राक्षस अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को त्यागकर भला-सच्चा व्यक्ति बन गया था, वैसी ही धारणा, वैसे ही विचार सबके बनें, सभी मानवता के कल्याण के लिए तमाम भेदभावों को भुलाकर आपसी स्नेह-सद्भाव भाईचारे के साथ रहना सीखें, इसकी नसीहत देने के लिए यह स्थान अतुलनीय है। दूसरी ओर भारतीय सेना के सामाजिक सद्भाव और जन-जुड़ाव का अनूठा पक्ष भी यहाँ पर देखने को मिलता है। सेना के जवानों को उच्च आदर्शों की सीख देने, सेवा और सद्भाव की नसीहत देने के लिए भी इस स्थान का अपना महत्त्व है।



डॉ. राहुल मिश्र
(दूरदर्शन केंद्र, लेह से दिनांक 13 जुलाई, 2015 को सायं 05.30 पर वृत्तचित्र के रूप में प्रसारित)













Saturday 3 January 2015

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष ऐसी प्रक्रिया है, जो समाज की छोटी से छोटी इकाई से लगाकर बड़ी से बड़ी इकाई तक, स्वयं में सामाजिक इकाई बनकर रह गए आज के व्यक्ति तक इस तरह चलती है, जो कभी असंतोष, असहमति, पीड़ा, विद्रोह को जन्म देती है तो कभी जीवन को गति और सार्थकता देती है। यह प्रक्रिया मानव-मात्र में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में व्याप्त है, युगों-युगों से। संघर्ष की अभिव्यक्ति के विविध माध्यम संघर्ष की सार्थकता के प्रतिमान बनते हैं। जीवन के इस गुण-धर्म से साहित्यकार का वास्ता भी युगों-युगों का है। ऐसे में आज के साहित्यकार का संघर्ष की प्रक्रिया से गहरा जुड़ाव होना स्वतः-स्वाभाविक है।
संघर्ष के साथ आज की कविता का संबंध वर्तमान युगबोध के सापेक्ष है। जीवन की यातनाओं को, भोगे हुए यथार्थ को, समाज की विसंगतियों को और परिवर्तित होते मूल्यों के संक्रमण को कविता में उसी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करने, प्रकट करने का सार्थक प्रयास अमृतसर (पंजाब) निवासी शुभदर्शन की काव्य-कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ में हुआ है। एक जागरूक पत्रकार अपने समय के यथार्थ को, अपने परिवेश को विविध आयामों से देखता भी है, विश्लेषण भी करता है और सत्यान्वेषण की कामना से संप्रेषित भी करता है। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ कृति के रचनाकार शुभदर्शन एक पत्रकार होने के नाते स्वयं को इन्ही विशिष्टताओं के साथ कवि-कर्म में उतारते हैं। इसी कारण शुभदर्शन का समीक्ष्य काव्य-संग्रह एक जरूरी दस्तावेज़ भी बन जाता है और यथार्थ को परखने का एक मानदंड भी बन जाता है।
‘संघर्ष बस संघर्ष’ में कवि-पत्रकार शुभदर्शन की सैंतीस कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की पहली कविता- घुटन के पैबंद में ही व्यवस्था की विद्रूपताओं के बीच घुटते रहने की पीड़ा फूट पड़ती है-
कब खुलेगा दरवाजा/कब देगा कोई दस्तक/उलाहनों की संकरी गली में/लगी उम्मीदों की हाट पर।। (पृ.19)
भोली थी माँ कविता में माँ के बहाने आधी दुनिया के उस दर्द को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसे भोगते रहना कभी मजबूरी लगता है, कभी सरल स्वभाव लगता है तो कभी भावनाओं का व्यापार लगता है। भोली-सी माँ जख्म़ों की चारदीवारी और दुख की छत को घर समझते हुए सबकुछ सहती जाती है। कभी परिवार के लिए, कभी बच्चों की खातिर अपने जीवन को गलाते हुए जब माँ रूपी सुरक्षा कवच टूट जाता है, तब उपजने वाली रिक्तता अहसास दिलाती है कि माँ का होना जीवन में कितनी अहमियत रखता है। वसीयत से मनफी, तस्वीर में अहसास नहीं होता, जड़ उखड़ने से और संघर्ष की विरासत कविताओं में माँ के साथ जुड़कर यथार्थ के विविध आयाम इस तरह प्रस्तुत होते हैं कि एक-एक शब्द चलचित्र के एक-एक दृश्य की तरह दौड़ता नज़र आता है। एक ओर माँ है, सबकुछ न्योछावर करती हुई और दूसरी ओर आज के युग का कृष्णा है-
कृष्ण की खाल में/आ चुका है कंस/कैसे निभेगा/गोपियों का साथ/बलात्कार व सैक्स हिंसा में/बदल गईं हैं--अठखेलियाँ/भारी हो गया है/पाप का गोवर्धन/पूतना का दूध पीते-पीते/अब मथुरा नहीं जाएगा कृष्ण/न ही करेगा वध/किसी कंस का/वह तो व्यस्त है/भरने तिजोरी/स्विस बैंकों के चेस्ट।। (कब बड़े होगे कृष्णा, पृ.123)
माँ के बहाने कवि ने घटती संवेदना, जड़ से उखड़ते जाने की त्रासदी, संस्कारों के संक्रमण, पलायन, गँवई-गाँव की विरासत के बिखराव और मानवीय मूल्यों के विघटन की स्थितियों को परखा है। संस्कार का सॉफ्टवेयर! कविता कंप्यूटर के युग में इन्ही स्थितियों का मार्मिक चित्रण करती है।
शुभदर्शन की कविताओं में गौरैया चिड़िया के रूप में एक और प्रतीक है। गाँवों के घरों में, लोगों के आपसी मेल-मिलाप और सद्भाव के बीच गौरैया का भी स्थान है। वह मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की संवाहक है। शहरीकरण, आधुनिकीकरण और सबसे ज्यादा मानवीय मूल्यों का संक्रमण उस गौरैया के लिए घातक बन जाता है। शहर की ओर गौरैया और सैय्याद गौरैया कविताएँ इस प्रतीक को साथ लेकर ऐसा ताना-बाना बुनतीं हैं कि समाज की मानसिकता में आ रहे बदलाव की पूरी तसवीर नज़रों के सामने आ जाती है। इस बदलाव से टकराता कवि अभिशप्त अभिमन्यु बनकर हारने को विवश हो जाता है, फिर भी उसके हाथ में गांडीव थमा दिया जाता है, संघर्षरत रहने के लिए। इसी संघर्ष को, हारकर भी निरंतर संघर्षरत रहने की विवशता को, या अनिवार्यता को कवि अपने लोगों के साथ बाँटता भी है और समाज की मानसिकता का पर्दाफाश भी करता है-
इतने उतावले क्यों हो/दोस्त/इत्मीनान रखो/तुमसे वादा किया है/सच बताने का/--बताऊँगा/जरा रुको/अभी मुझे पूरी करनी है/--आत्मकथा/शायद वहीं से मिल जाएं तुम्हें/उन सवालों के उत्तर/जो/समय-समय पर/तुमने उछाले थे/भरी सभा में/मुझे जलील करने। (आत्मकथा, पृ.89)
समीक्ष्य कृति में कवि का संघर्ष वर्तमान के यथार्थ की विकृतियों के साथ भी होता है और वैचारिकता के स्तर पर जीवन जीने के दर्शन-पक्ष पर उभरती विकृतियों के स्तर पर भी होता है। इसमें सबसे अधिक कचोटने वाली स्थिति संवेदनहीनता की बनती है, जब व्यक्ति अपने परिवेश में घटित होने वाली घटनाओं से इस प्रकार विलग हो जाता है, मानो वह संज्ञाशून्य हो-
भागम-दौड़ के युग में/खिलौना बने संस्कार/चलती-फिरती मूरतें/क्या फर्क है--दोनों में /सोचता है राजा
वे भागदौड़ कर रहे हैं/और हम बिसात पर बैठे निभा रहे हैं/--फ़र्ज/नचा रहे हैं लोगों को/वे भी संवेदनहीन/--हम भी।। (संवेदनाहीन, पृ.86-87)
कवि निहायत दार्शनिक अंदाज़ में कहता है-
संवेदना रिश्तों में होती है/संवेदना घर में होती है/मानवता में भी होती है/--संवेदना/पर दोस्त/जब तन जाती है/अवसादों की भृकुटी/तो मजबूर हो जाता है/--आदमी/उसी संवेदना का गला दबाने/जिसके दावे करते/नहीं थकती जुबान।। (संवेदना और व्यवहार, पृ.88)
समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ दैनंदिन जीवन की, अपने आस-पास की अनेक स्थूल-सूक्ष्म घटनाओं का तार्किक-भावुक परीक्षण-अन्वेषण करतीं हैं। इनके साथ ही दर्शन का पक्ष भी जुड़ा है, जो सहजता के साथ रास्ता दिखाने का प्रयास भी करता है, बिना उपदेशात्मक प्रपंच का परचम उठाए हुए। बहुआयामी-बहुविध संघर्ष का स्वरूप कविताओं में ऐसा है, जिसे बदलाव की उम्मीद है, जिसमें सकारात्मक वैचारिकी का ऐसा पक्ष है, जो पाठक के मन को उद्वेलित किए बिना नहीं छोड़ता। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ की कविताएँ पाठक की संवेदना को झंकृत कर संघर्ष की ओर उन्मुख कर देतीं हैं। गहन मंथन के लिए प्रेरित कर देतीं हैं।
समीक्ष्य कृति की शुरुआत में ही डॉ. रमेश कुंतल मेघ द्वारा किया गया विश्लेषण है। इसके जरिए पुस्तक की प्रभावोत्पादकता में बढ़ोत्तरी हो जाती है। ब्लर्ब पर डॉ. पांडेय शशिभूषण शीतांशु और डॉ. हुकुमचंद राजपाल की टिप्पणियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी को मिलाकर पुस्तक को पढ़ने से पहले पाठक के मन में एक वैचारिक माहौल बन जाता है और पुस्तक अपने उद्देश्य तक सहृदय पाठक को पहुँचाने में सफल हो जाती है। शुभदर्शन की कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ इसी कारण हिंदी साहित्य के लिए, समय के इतिहास के लिए और वर्तमान के संदर्भ के लिए महत्त्वपूर्ण भी है, संग्रहणीय भी है।
(संघर्ष बस संघर्ष, शुभदर्शन, युक्ति प्रकाशन, दिल्ली-85, वर्ष- 2011, मूल्य- 250/-)

डॉ. राहुल मिश्र

Wednesday 10 December 2014

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य
सामान्य रूप से ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग अर्थशास्त्र से जुड़ा हुआ होता है और अर्थशास्त्रीय कार्य-व्यवहारों में ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग किसी वस्तु की भौतिक उपादेयता को भौतिक रूप से ही प्रकट करने या सिद्ध करने के अर्थ में होता है। दर्शन के धरातल पर मूल्य का अर्थ अर्थशास्त्रीय ‘मूल्य’ से एकदम अलग और व्यापक होता है।
दर्शन के क्षेत्र में मूल्य को उसके व्यापक अर्थों में परिभाषित और व्याख्यायित करने की परंपरा पाश्चात्य दर्शन के प्रभाव से भारत में विकसित हुई है। भारतीय दर्शन जिन आदर्श तत्त्वों की स्थापना की बात कहता है, उनकी उपादेयता का मूल्यांकन करके पाश्चात्य दर्शन ‘मूल्यवाद’ की अवधारणा को स्थापित करता है। इतना ही नहीं, पाश्चात्य दर्शन पारलौकिक या अभौतिक तत्त्वों के साथ ही लौकिक या भौतिक तत्त्वों की उपादेयता का विचार भी करता है और उन्हें अलग-अलग वर्गों में विभक्त करके मानव तथा मानवता के लिए उपयुक्तता के क्रम का निर्धारण भी करता है। इस प्रकार मूल्यवाद के अंतर्गत वे सभी तत्त्व एवं पदार्थ समाहित हो जाते हैं, जो मानव की इच्छाओं से पूर्णतः या अंशतः जुड़े हुए होते हैं।
दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में ‘मूल्य’ के व्याख्याता अर्बन ने इसी आधार पर मूल्यों के निम्न प्रकार बताए हैं।
1.         शारीरिक मूल्य- जिससे शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है; अन्न, भोजन आदि।
2.         आर्थिक मूल्य- धन, संपत्ति आदि।
3.         मनोरंजन का मूल्य- खेल आदि मन लगाने की वस्तुएँ।
4.         साहचर्य का मूल्य- मित्रता आदि।
5.         चारित्रिक मूल्य- सच्चाई, ईमानदारी आदि।
6.         सौंदर्य संबंधी मूल्य- कला, सुंदरता, चित्रकारी आदि।
7.         बौद्धिक मूल्य- ज्ञान।
8.         धार्मिक मूल्य- ईश्वर, आत्मा आदि।
इनमें से शारीरिक मूल्य, आर्थिक मूल्य और मनोरंजन का मूल्य जैविक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। साहचर्य का मूल्य और चारित्रिक मूल्य सामाजिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। सौंदर्य संबंधी मूल्य, बौद्धिक मूल्य और धार्मिक मूल्य आध्यात्मिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं।1
इन सभी मूल्यों के अंतर्गत मानवीय कार्य-व्यवहारों से लेकर समाज और विश्व तक की गतिविधियाँ, कार्य-व्यवहार और दिशा-दशा संचालित होती है, नियंत्रित होती है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ‘मूल्य’ को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि, “हमारे आचरणों और व्यवहारों का समूहीकरण ही ‘मूल्य’ नामक धारणा के रूप में स्थापित होता है। ये धारणाएँ ही हमारे व्यवहारों का निर्देशन करतीं और आदर्शों की स्थापना करती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य अच्छे-बुरे और सही-गलत की पहचान और घोषणा करता है। इसीलिए जीवन की परिस्थितियों में परिवर्तन होने के साथ-साथ मूल्यों में भी परिवर्तन होता है।”2 जीवन के साथ साहित्य के समानुपातिक संबंध होते हैं और इसीलिए मूल्यों का यह परिवर्तन साहित्य में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है।
साहित्य समाज का दर्पण है, यह उक्ति साहित्य साथ समाज के संबंधों को व्याख्यायित करने के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त होती रही है और आज भी प्रयोग की जाती है। यदि इस आधार पर देखा जाए तो मूल्यवाद  के साथ साहित्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है। इसके साथ ही साहित्य समाज का दीपक होता है, इस उक्ति पर विचार किया जाए तो निस्संदेह स्वीकार करना होगा कि जब समाज मूल्यों से विलग होकर अपनी ऊर्जा को मानवताविरोधी गतिविधियों में लगाना प्रारंभ कर देता है, तब साहित्य उदात्त मानवीय मूल्यों की दुहाई देकर दीपक की भाँति समाज को सही रास्ता दिखाने का कार्य करता है। इस प्रकार मूल्यवाद  के साथ साहित्य के घनिष्ठ अंतर्संबंधों को जाना-समझा जा सकता है।
मूल्यवाद  की अवधारणा हिंदी साहित्य में घोषित तौर पर दिखाई नहीं देती, इसके बावजूद हिंदी साहित्य के इतिहास के युग निर्धारण में साहित्य के साथ जुड़े मानवीय मूल्यों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हिंदी साहित्येतिहास के आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल का कालनिर्धारण कालखंड विशेष में प्रचलित मूल्यों का प्रतिनिधि प्रतीत होता है। हिंदी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल में भी मूल्य की यह अवधारणा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की शुरुआत भारतेंदु युग से होती है। हिंदी साहित्येतिहासकारों ने सन् 1857 की प्रथम स्वाधीनता क्रांति को आधार बनाकर हिंदी साहित्य के आधुनिक युग के प्रारंभ का कालखंड निर्धारित किया है। सन् 1850 में भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म और उनके साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखकर आधुनिक युग के प्रथम उपविभाजन, सन् 1857 से सन् 1900 ई. को भारतेंदु युग की संज्ञा दी गई है। अर्बन द्वारा निर्धारित किए गए मानवीय मूल्यों के आधार पर भारतेंदु युग का मूल्यांकन इस युग की साहित्यिक विशिष्टताओं को जानने-समझने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
सन् 1857 की क्रांति भारतीय समाज के लिए एकदम अभूतपूर्व घटना थी। इस क्रांति ने भारतीय समाज की दिशा और दशा को परिवर्तित किया। समाज के साथ ही साहित्य में, विचारों में बदलाव के एक नए दौर की शुरुआत हुई। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि, “अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक, शैक्षणिक और प्रशासनिक नीतियों में परिवर्तन किया। इस देश के लोग भी नये संदर्भ में कुछ नया सोचने और करने के लिए बाध्य हुए। साहित्य मनुष्य के बृहत्तर सुख-दुःख के साथ पहली बार जुड़ा। यह प्रक्रिया भारतेंदु के समय में हुई, वह भी गद्य के माध्यम से। आधुनिक जीवन-चेतना की जैसी चिनगारियाँ गद्य में दिखायी पड़ीं, वैसी पद्य में नहीं।”3
भारतेंदु युग में गद्य के माध्यम से विकसित हुई आधुनिक जीवन-चेतना और नवीन वैचारिकता की सीधा संबंध बौद्धिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य, साहचर्य का मूल्य और सौंदर्य संबंधी मूल्य से है। भारतेंदु युग के पूर्ववर्ती रीतिकाल में साहित्य जिस प्रकार मनोरंजन के मूल्य, शारीरिक मूल्य और आर्थिक मूल्य से जुड़कर अनुत्पादक हो चुका था, उस परंपरा को त्यागकर भारतेंदु युग में साहित्य का पुनर्जागरण हुआ। भारतेंदु युगीन काव्य एवं गद्य साहित्य की प्रवृत्तियों का मूल्यांकन इस तथ्य को प्रभावी रूप से स्थापित करने हेतु महत्त्वपूर्ण होगा।
राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत आदर्शवादी काव्य-चेतना का प्रारंभ भारतेंदु युग से होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र इस काव्य-चेतना के प्रवर्तक कवि थे। “उन्होने अपनी विभिन्न रचनाओं में धार्मिक पाखंडों, सामाजिक दुराचारों एवं राजनीतिक पराधीनता का दिग्दर्शन स्पष्ट रूप में करवाया है।”4 भारतेंदु युग में राष्ट्र का अर्थ छोटे-छोटे रजवाड़ों, रियासतों में बँटे भारत को एक सूत्र में बाँधने के आशय से था। वीरगाथा कालीन प्रवृत्तियों से अलग हटकर और क्षेत्रीय संकीर्णता को त्यागकर समूचे भारत को एक राष्ट्र की दृष्टि से देखने की यह नई शुरुआत आदर्श मानवीय मूल्यों की स्थपना का सर्वथा नवीन आयाम है। इसी से जुड़ा हुआ पक्ष राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य भाषा का है। बुंदेली, बघेली, अवधी, ब्रज आदि क्षेत्रीय बोलियों में बँटे संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र को एक सूत्र में बाँधने का कार्य भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों ने किया। समूचे देश को जोड़ने और आपसी वैमनस्य को समाप्त करके अंग्रेजों के खिलाफ संगठित करने में भारतेंदु युगीन साहित्य का योगदान एक ओर अभूतपूर्व और मूल्यवान है तो दूसरी ओर साहचर्य का मूल्य साहित्य के माध्यम से समाज में स्थापित करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
बौद्धिक मूल्य के स्तर पर भी भारतेंदु युगीन साहित्य खरा उतरता है। जहाँ एक ओर अंग्रेजों के विरोध में उस युग के साहित्यकार लगे हुए थे, वहीं दूसरी ओर खुले हृदय से अंग्रेजी भाषा के साहित्य की विशिष्टताओं को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात् भी कर रहे थे। संस्कृत साहित्य के साथ ही अंग्रेजी साहित्य का हिंदी अनुवाद भारतेंदु युग की अपनी विशेषता है। भारतेंदु मंडल के कवि श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों का खड़ीबोली हिंदी और ब्रजभाषा में अनुवाद किया। बौद्धिक मूल्य के साथ ही सौंदर्य संबंधी मूल्य और मनोरंजन का मूल्य भारतेंदु युग में प्रचलित समस्यापूर्ति की काव्य पद्धति में देखने को मिलता है। “कवियों की प्रतिभा और रचनाकौशल को परखने के लिए कविगोष्ठियों और कवि-समाजों में कठिन-से-कठिन विषयों पर समस्यापूर्ति करायी जाती थी। भारतेंदु द्वारा काशी में स्थापित कविता-वर्द्धिनी-सभा, कानपुर का रसिक समाज, बाबा सुमेर सिंह द्वारा निज़ामाबाद (ज़िला आज़मगढ़) में स्थापित कवि-समाज आदि ऐसे मंच थे, जहाँ नियमित रूप से कवि गोष्ठियाँ होती थीं और समस्यापूरण को प्रतियोगिता के रूप में प्रोत्साहन दिया जाता था। प्रतिष्ठित कवि इसमें भाग लेने में संकोच नहीं करते थे और नये कवियों का इससे यथेष्ट उत्साहवर्द्धन होता था।”5
भारतेंदु युगीन हास्य-व्यंग्य भले ही मनोरंजन के मूल्य से जुड़ा हुआ हो, मगर इसमें भी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रदर्शन इतनी गहराई के साथ उभरता है कि हास्य-व्यंग्य में सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। प्रस्तुत है एक बानगी-
जग  जानैं  इंगलिश  हमैं,  वाणी  वस्त्रहिं  जोय।
मिटै बदन कर श्याम रंग-जन्म सुफल तब होय।।
और
मुँह जब लागै तब नहिं छूटे, जाति  मान  धन सब  कुछ  लूटे।
पागल कर मोहिं करे खराब, क्यों सखि सज्जन? नहीं सराब।।
भारतेंदु युगीन साहित्य में परिलक्षित धार्मिक मूल्यों पर साहचर्य के मूल्यों, चारित्रिक मूल्यों और बौद्धिक मूल्यों का समावेश मिलता है। भारतेंदु युगीन भक्ति-भावना कड़े धार्मिक बंधनों में जकड़ी हुई नहीं थी, वरन् सभी धर्मों, मतों पंथों के समन्वय से; व्यावहारिकता और खुलेपन से तथा देश के प्रति अनुराग से जुड़कर विकसित हुई थी। फलतः ऐसी भक्ति-भावना ने समाज को जोड़ने का कार्य किया और भक्ति से जोड़कर राष्ट्रप्रेम की अलख जगाने का कार्य किया। भारतेंदु युगीन भक्ति भावना ने धार्मिक पाखंडों, कुरीतियों का भी जमकर विरोध किया। इस प्रकार भारतेंदु युगीन काव्य की भक्ति-भावना विषयक प्रवृत्ति भी उच्चतम मूल्यों की स्थापना के मापदण्ड पर खरी उतरती है।
भारतेंदु युगीन कवियों ने रीतिकालीन दरबारी काव्य परंपरा को त्यागकर जनता की समस्याओं का निरूपण व्यापक रूप में किया है। भारतेंदु युगीन काव्य की सामाजिक चेतना नारी-शिक्षा, विधवाओं की दुर्दशा, छुआछूत, भेदभाव जैसी सामाजिक समस्याओं के विरोध में खड़ी होती है। इस बदलाव के संदर्भ में डॉ. साधना शाह लिखती हैं कि, “अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण चीजों को देखने-परखने के हमारे रवैये में अंतर आया। सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गई। परंपरागत धार्मिक साहित्य और नवीन औद्योगिक युग के बीच अंतर्विरोध सामने आया। हमने महसूस किया कि हम जिस तरह का जीवन जी रहे हैं। वह अप्रगतिशील और दकियानूसी है। परिणामतः सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में हमारे मध्ययुगीन बोध के खिलाफ जनमत बनने लगा। लोग आधुनिक मूल्यों के प्रति आकृष्ट होने लगे।”6
भारतेंदु युगीन गद्य साहित्य में नवीन मूल्यों की स्थापना की प्रवृत्ति काव्य की अपेक्षा सशक्त रूप में दृष्टिगत होती है। इसका प्रमुख कारण गद्य की यथार्थ से निकटता और अभिव्यक्ति की सशक्तता है। भारतेंदु युग में हिंदी नाटकों से ही गद्य की शुरुआत होती है। इस तथ्य के पीछे नाटकों की सामाजिकता, सम्प्रेषण की प्रभावोत्पादकता और नाटकों के मंचन का सांगठनिक कौशल (Unity of Action, Time & Place) कार्य करता है। “ब्राह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज  और आगे चलकर स्वयं भारतेंदु द्वारा संस्थापित तदीय समाज के नामकरण, और उनके कार्यक्रम इस मान्यता को भली-भाँति पुष्ट करते हैं। इधर नाटक सभी साहित्य और कला-माध्यमों के बीच अपनी प्रकृति में सर्वाधिक सामाजिक है। रंगमंच पर उसका प्रस्तुतीकरण अनेक प्रकार के कलाकारों के सहयोग से होता है, वैसे ही उसका आस्वादन समाज के रूप में किया जाता है।”7 मनोरंजन के मूल्य के साथ ही साहचर्य के मूल्य की स्थापना का साहित्य में और समाज में इससे बढ़कर कोई दूसरा उदाहरण खोज पाना असंभव की हद तक कठिन होगा।
भारतेंदु युग को हिंदी उपन्यासों की शुरुआत का युग भी माना जाता है। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में भारतेंदु मंडल के लेखक ठाकुर जगन्मोहन सिंह के उपन्यास श्यामा स्वप्न का उल्लेख करना प्रासंगिक और समीचीन होगा। “जिस नवोदित उत्तर भारतीय मध्य वर्ग की आशा-आकांक्षाओं और जीवन मूल्यों के बहुविध तनावों की दृष्टि से हिंदी उपन्यास का उदय हुआ, श्यामा स्वप्न  उस प्रक्रिया को स्थगित और निलंबित करने वाला उपन्यास है।”8 संभवतः इसी कारण श्यामा स्वप्न  की तीव्र-तीक्ष्ण आलोचना उस युग में हुई और यह क्रम वर्तमान में भी जारी है। तत्कालीन समाज में प्रचलित मूल्यों से अलग हटने पर साहित्य को भी आलोचना का शिकार बनना पड़ता है। इससे अलग हिंदी के पहले उपन्यासकार की प्रतिष्ठा प्राप्त लाला श्रीनिवास दास के उपन्यास परीक्षा गुरु  में तत्कालीन समय और समाज की स्थितियों का, बदलते मानव-मूल्यों का सटीक प्रस्तुतीकरण हुआ है। लाला श्रीनिवास दास परीक्षा गुरु  की भूमिका में इसका खुलासा कर देते हैं- “इस पुस्तक के रचनेमैं मुझको महाभारतादि संस्कृत, गुलिस्ताँ वगैरे फ़ारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकन, गोल्डस्मिथ, विलियम कूपर आदिके पुराने लेखों और स्त्रीबोध आदिके बर्तमान रिसालौंसे बड़ी सहायता मिली है। इसलिए इन सबका मैं बहुत उपकार माना हूँ...”9
कमोबेश ऐसे ही तथ्य तत्कालीन निबंध साहित्य और नवोदित कहानी विधा के साथ जुड़े हैं। पुनर्जागरण के प्रभाव के फलस्वरूप समाज में प्रतिष्ठित होते जा रहे उदात्त मानवीय मूल्य भारतेंदु युगीन साहित्य में प्रतिष्ठित होकर समाज को एक नई दिशा और नवीन वैचारिक शक्ति प्रदान करने का कार्य कर रहे थे। अर्बन द्वारा बताए गए शारीरिक और आर्थिक मूल्यों की, अर्थात् साहित्य सृजन के माध्यम से जीविका चलाने और साहित्य को अर्थार्जन का माध्यम बनाने की प्रवृत्ति तत्कालीन साहित्याकारों में नहीं थी।
तर्कबुद्धिवादी दार्शनिक नीत्शे ने मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की बात कही है। “उसने समस्त मूल्यों के मूल्यांकन पर बल दिया है। उनमें यदि प्राचीन मूल्य शक्ति उपार्जन की कसौटी पर खरे उतरें तो उन्हें वर्तमान समय के लिए भी मूल्यवान माना जा सकता है। यह मानव मूल्यों का परीक्षण है।”10 भारतेंदु युगीन साहित्य में नीत्से की इस अवधारणा को भी देखा जा सकता है, जो पूर्ववर्ती साहित्यिक युगों से भारतेंदु युग में आई है।
समग्रतः, हिंदी का भारतेंदु युगीन साहित्य उत्कृष्टतम मानवीय मूल्यों की स्थापना के मानदण्ड पर खरा उतरता है। अपनी पूर्ववर्ती युगीन प्रवृत्तियों को त्यागकर, समय और समाज की आवश्यकता के अनुरूप सार्थक मूल्यों को आत्मसात कर भारतेंदु युगीन साहित्य ने ज्ञान के प्रति मानवीय आग्रह को न केवल तृप्त किया है, वरन् इसी आधार पर हिंदी के आधुनिक युग की आधारशिला रखकर हिंदी साहित्य को नई दिशा देने का सार्थक प्रयास भी किया है।

संदर्भ:
1.   नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 206
2.   स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1996, पृ॰ 31
3.   हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 401
4.   हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खण्ड, डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त, लोकभारती, इलाहाबाद, सं. 2004, पृ॰ 18
5.   हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 446-447
6.   हिंदी कहानी : संरचना और संवेदना, डॉ. साधना शाह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ॰ 14
7.  हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहबाद, 1996, पृ॰ 130
8.  श्यामा स्वप्न : समय, समाज और सामाजिक से उदासीन आख्यान, मधुरेश, कथाक्रम,लखनऊ, अप्रैल-जून 2008, पृ॰ 12
9.  वेब रेफ़रेंस, www.hindisamay.com/upanyas/pariksha_guru.htm
10.  नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 213
डॉ. राहुल मिश्र