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Wednesday 10 December 2014

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य
सामान्य रूप से ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग अर्थशास्त्र से जुड़ा हुआ होता है और अर्थशास्त्रीय कार्य-व्यवहारों में ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग किसी वस्तु की भौतिक उपादेयता को भौतिक रूप से ही प्रकट करने या सिद्ध करने के अर्थ में होता है। दर्शन के धरातल पर मूल्य का अर्थ अर्थशास्त्रीय ‘मूल्य’ से एकदम अलग और व्यापक होता है।
दर्शन के क्षेत्र में मूल्य को उसके व्यापक अर्थों में परिभाषित और व्याख्यायित करने की परंपरा पाश्चात्य दर्शन के प्रभाव से भारत में विकसित हुई है। भारतीय दर्शन जिन आदर्श तत्त्वों की स्थापना की बात कहता है, उनकी उपादेयता का मूल्यांकन करके पाश्चात्य दर्शन ‘मूल्यवाद’ की अवधारणा को स्थापित करता है। इतना ही नहीं, पाश्चात्य दर्शन पारलौकिक या अभौतिक तत्त्वों के साथ ही लौकिक या भौतिक तत्त्वों की उपादेयता का विचार भी करता है और उन्हें अलग-अलग वर्गों में विभक्त करके मानव तथा मानवता के लिए उपयुक्तता के क्रम का निर्धारण भी करता है। इस प्रकार मूल्यवाद के अंतर्गत वे सभी तत्त्व एवं पदार्थ समाहित हो जाते हैं, जो मानव की इच्छाओं से पूर्णतः या अंशतः जुड़े हुए होते हैं।
दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में ‘मूल्य’ के व्याख्याता अर्बन ने इसी आधार पर मूल्यों के निम्न प्रकार बताए हैं।
1.         शारीरिक मूल्य- जिससे शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है; अन्न, भोजन आदि।
2.         आर्थिक मूल्य- धन, संपत्ति आदि।
3.         मनोरंजन का मूल्य- खेल आदि मन लगाने की वस्तुएँ।
4.         साहचर्य का मूल्य- मित्रता आदि।
5.         चारित्रिक मूल्य- सच्चाई, ईमानदारी आदि।
6.         सौंदर्य संबंधी मूल्य- कला, सुंदरता, चित्रकारी आदि।
7.         बौद्धिक मूल्य- ज्ञान।
8.         धार्मिक मूल्य- ईश्वर, आत्मा आदि।
इनमें से शारीरिक मूल्य, आर्थिक मूल्य और मनोरंजन का मूल्य जैविक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। साहचर्य का मूल्य और चारित्रिक मूल्य सामाजिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। सौंदर्य संबंधी मूल्य, बौद्धिक मूल्य और धार्मिक मूल्य आध्यात्मिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं।1
इन सभी मूल्यों के अंतर्गत मानवीय कार्य-व्यवहारों से लेकर समाज और विश्व तक की गतिविधियाँ, कार्य-व्यवहार और दिशा-दशा संचालित होती है, नियंत्रित होती है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ‘मूल्य’ को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि, “हमारे आचरणों और व्यवहारों का समूहीकरण ही ‘मूल्य’ नामक धारणा के रूप में स्थापित होता है। ये धारणाएँ ही हमारे व्यवहारों का निर्देशन करतीं और आदर्शों की स्थापना करती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य अच्छे-बुरे और सही-गलत की पहचान और घोषणा करता है। इसीलिए जीवन की परिस्थितियों में परिवर्तन होने के साथ-साथ मूल्यों में भी परिवर्तन होता है।”2 जीवन के साथ साहित्य के समानुपातिक संबंध होते हैं और इसीलिए मूल्यों का यह परिवर्तन साहित्य में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है।
साहित्य समाज का दर्पण है, यह उक्ति साहित्य साथ समाज के संबंधों को व्याख्यायित करने के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त होती रही है और आज भी प्रयोग की जाती है। यदि इस आधार पर देखा जाए तो मूल्यवाद  के साथ साहित्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है। इसके साथ ही साहित्य समाज का दीपक होता है, इस उक्ति पर विचार किया जाए तो निस्संदेह स्वीकार करना होगा कि जब समाज मूल्यों से विलग होकर अपनी ऊर्जा को मानवताविरोधी गतिविधियों में लगाना प्रारंभ कर देता है, तब साहित्य उदात्त मानवीय मूल्यों की दुहाई देकर दीपक की भाँति समाज को सही रास्ता दिखाने का कार्य करता है। इस प्रकार मूल्यवाद  के साथ साहित्य के घनिष्ठ अंतर्संबंधों को जाना-समझा जा सकता है।
मूल्यवाद  की अवधारणा हिंदी साहित्य में घोषित तौर पर दिखाई नहीं देती, इसके बावजूद हिंदी साहित्य के इतिहास के युग निर्धारण में साहित्य के साथ जुड़े मानवीय मूल्यों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हिंदी साहित्येतिहास के आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल का कालनिर्धारण कालखंड विशेष में प्रचलित मूल्यों का प्रतिनिधि प्रतीत होता है। हिंदी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल में भी मूल्य की यह अवधारणा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की शुरुआत भारतेंदु युग से होती है। हिंदी साहित्येतिहासकारों ने सन् 1857 की प्रथम स्वाधीनता क्रांति को आधार बनाकर हिंदी साहित्य के आधुनिक युग के प्रारंभ का कालखंड निर्धारित किया है। सन् 1850 में भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म और उनके साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखकर आधुनिक युग के प्रथम उपविभाजन, सन् 1857 से सन् 1900 ई. को भारतेंदु युग की संज्ञा दी गई है। अर्बन द्वारा निर्धारित किए गए मानवीय मूल्यों के आधार पर भारतेंदु युग का मूल्यांकन इस युग की साहित्यिक विशिष्टताओं को जानने-समझने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
सन् 1857 की क्रांति भारतीय समाज के लिए एकदम अभूतपूर्व घटना थी। इस क्रांति ने भारतीय समाज की दिशा और दशा को परिवर्तित किया। समाज के साथ ही साहित्य में, विचारों में बदलाव के एक नए दौर की शुरुआत हुई। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि, “अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक, शैक्षणिक और प्रशासनिक नीतियों में परिवर्तन किया। इस देश के लोग भी नये संदर्भ में कुछ नया सोचने और करने के लिए बाध्य हुए। साहित्य मनुष्य के बृहत्तर सुख-दुःख के साथ पहली बार जुड़ा। यह प्रक्रिया भारतेंदु के समय में हुई, वह भी गद्य के माध्यम से। आधुनिक जीवन-चेतना की जैसी चिनगारियाँ गद्य में दिखायी पड़ीं, वैसी पद्य में नहीं।”3
भारतेंदु युग में गद्य के माध्यम से विकसित हुई आधुनिक जीवन-चेतना और नवीन वैचारिकता की सीधा संबंध बौद्धिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य, साहचर्य का मूल्य और सौंदर्य संबंधी मूल्य से है। भारतेंदु युग के पूर्ववर्ती रीतिकाल में साहित्य जिस प्रकार मनोरंजन के मूल्य, शारीरिक मूल्य और आर्थिक मूल्य से जुड़कर अनुत्पादक हो चुका था, उस परंपरा को त्यागकर भारतेंदु युग में साहित्य का पुनर्जागरण हुआ। भारतेंदु युगीन काव्य एवं गद्य साहित्य की प्रवृत्तियों का मूल्यांकन इस तथ्य को प्रभावी रूप से स्थापित करने हेतु महत्त्वपूर्ण होगा।
राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत आदर्शवादी काव्य-चेतना का प्रारंभ भारतेंदु युग से होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र इस काव्य-चेतना के प्रवर्तक कवि थे। “उन्होने अपनी विभिन्न रचनाओं में धार्मिक पाखंडों, सामाजिक दुराचारों एवं राजनीतिक पराधीनता का दिग्दर्शन स्पष्ट रूप में करवाया है।”4 भारतेंदु युग में राष्ट्र का अर्थ छोटे-छोटे रजवाड़ों, रियासतों में बँटे भारत को एक सूत्र में बाँधने के आशय से था। वीरगाथा कालीन प्रवृत्तियों से अलग हटकर और क्षेत्रीय संकीर्णता को त्यागकर समूचे भारत को एक राष्ट्र की दृष्टि से देखने की यह नई शुरुआत आदर्श मानवीय मूल्यों की स्थपना का सर्वथा नवीन आयाम है। इसी से जुड़ा हुआ पक्ष राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य भाषा का है। बुंदेली, बघेली, अवधी, ब्रज आदि क्षेत्रीय बोलियों में बँटे संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र को एक सूत्र में बाँधने का कार्य भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों ने किया। समूचे देश को जोड़ने और आपसी वैमनस्य को समाप्त करके अंग्रेजों के खिलाफ संगठित करने में भारतेंदु युगीन साहित्य का योगदान एक ओर अभूतपूर्व और मूल्यवान है तो दूसरी ओर साहचर्य का मूल्य साहित्य के माध्यम से समाज में स्थापित करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
बौद्धिक मूल्य के स्तर पर भी भारतेंदु युगीन साहित्य खरा उतरता है। जहाँ एक ओर अंग्रेजों के विरोध में उस युग के साहित्यकार लगे हुए थे, वहीं दूसरी ओर खुले हृदय से अंग्रेजी भाषा के साहित्य की विशिष्टताओं को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात् भी कर रहे थे। संस्कृत साहित्य के साथ ही अंग्रेजी साहित्य का हिंदी अनुवाद भारतेंदु युग की अपनी विशेषता है। भारतेंदु मंडल के कवि श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों का खड़ीबोली हिंदी और ब्रजभाषा में अनुवाद किया। बौद्धिक मूल्य के साथ ही सौंदर्य संबंधी मूल्य और मनोरंजन का मूल्य भारतेंदु युग में प्रचलित समस्यापूर्ति की काव्य पद्धति में देखने को मिलता है। “कवियों की प्रतिभा और रचनाकौशल को परखने के लिए कविगोष्ठियों और कवि-समाजों में कठिन-से-कठिन विषयों पर समस्यापूर्ति करायी जाती थी। भारतेंदु द्वारा काशी में स्थापित कविता-वर्द्धिनी-सभा, कानपुर का रसिक समाज, बाबा सुमेर सिंह द्वारा निज़ामाबाद (ज़िला आज़मगढ़) में स्थापित कवि-समाज आदि ऐसे मंच थे, जहाँ नियमित रूप से कवि गोष्ठियाँ होती थीं और समस्यापूरण को प्रतियोगिता के रूप में प्रोत्साहन दिया जाता था। प्रतिष्ठित कवि इसमें भाग लेने में संकोच नहीं करते थे और नये कवियों का इससे यथेष्ट उत्साहवर्द्धन होता था।”5
भारतेंदु युगीन हास्य-व्यंग्य भले ही मनोरंजन के मूल्य से जुड़ा हुआ हो, मगर इसमें भी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रदर्शन इतनी गहराई के साथ उभरता है कि हास्य-व्यंग्य में सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। प्रस्तुत है एक बानगी-
जग  जानैं  इंगलिश  हमैं,  वाणी  वस्त्रहिं  जोय।
मिटै बदन कर श्याम रंग-जन्म सुफल तब होय।।
और
मुँह जब लागै तब नहिं छूटे, जाति  मान  धन सब  कुछ  लूटे।
पागल कर मोहिं करे खराब, क्यों सखि सज्जन? नहीं सराब।।
भारतेंदु युगीन साहित्य में परिलक्षित धार्मिक मूल्यों पर साहचर्य के मूल्यों, चारित्रिक मूल्यों और बौद्धिक मूल्यों का समावेश मिलता है। भारतेंदु युगीन भक्ति-भावना कड़े धार्मिक बंधनों में जकड़ी हुई नहीं थी, वरन् सभी धर्मों, मतों पंथों के समन्वय से; व्यावहारिकता और खुलेपन से तथा देश के प्रति अनुराग से जुड़कर विकसित हुई थी। फलतः ऐसी भक्ति-भावना ने समाज को जोड़ने का कार्य किया और भक्ति से जोड़कर राष्ट्रप्रेम की अलख जगाने का कार्य किया। भारतेंदु युगीन भक्ति भावना ने धार्मिक पाखंडों, कुरीतियों का भी जमकर विरोध किया। इस प्रकार भारतेंदु युगीन काव्य की भक्ति-भावना विषयक प्रवृत्ति भी उच्चतम मूल्यों की स्थापना के मापदण्ड पर खरी उतरती है।
भारतेंदु युगीन कवियों ने रीतिकालीन दरबारी काव्य परंपरा को त्यागकर जनता की समस्याओं का निरूपण व्यापक रूप में किया है। भारतेंदु युगीन काव्य की सामाजिक चेतना नारी-शिक्षा, विधवाओं की दुर्दशा, छुआछूत, भेदभाव जैसी सामाजिक समस्याओं के विरोध में खड़ी होती है। इस बदलाव के संदर्भ में डॉ. साधना शाह लिखती हैं कि, “अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण चीजों को देखने-परखने के हमारे रवैये में अंतर आया। सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गई। परंपरागत धार्मिक साहित्य और नवीन औद्योगिक युग के बीच अंतर्विरोध सामने आया। हमने महसूस किया कि हम जिस तरह का जीवन जी रहे हैं। वह अप्रगतिशील और दकियानूसी है। परिणामतः सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में हमारे मध्ययुगीन बोध के खिलाफ जनमत बनने लगा। लोग आधुनिक मूल्यों के प्रति आकृष्ट होने लगे।”6
भारतेंदु युगीन गद्य साहित्य में नवीन मूल्यों की स्थापना की प्रवृत्ति काव्य की अपेक्षा सशक्त रूप में दृष्टिगत होती है। इसका प्रमुख कारण गद्य की यथार्थ से निकटता और अभिव्यक्ति की सशक्तता है। भारतेंदु युग में हिंदी नाटकों से ही गद्य की शुरुआत होती है। इस तथ्य के पीछे नाटकों की सामाजिकता, सम्प्रेषण की प्रभावोत्पादकता और नाटकों के मंचन का सांगठनिक कौशल (Unity of Action, Time & Place) कार्य करता है। “ब्राह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज  और आगे चलकर स्वयं भारतेंदु द्वारा संस्थापित तदीय समाज के नामकरण, और उनके कार्यक्रम इस मान्यता को भली-भाँति पुष्ट करते हैं। इधर नाटक सभी साहित्य और कला-माध्यमों के बीच अपनी प्रकृति में सर्वाधिक सामाजिक है। रंगमंच पर उसका प्रस्तुतीकरण अनेक प्रकार के कलाकारों के सहयोग से होता है, वैसे ही उसका आस्वादन समाज के रूप में किया जाता है।”7 मनोरंजन के मूल्य के साथ ही साहचर्य के मूल्य की स्थापना का साहित्य में और समाज में इससे बढ़कर कोई दूसरा उदाहरण खोज पाना असंभव की हद तक कठिन होगा।
भारतेंदु युग को हिंदी उपन्यासों की शुरुआत का युग भी माना जाता है। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में भारतेंदु मंडल के लेखक ठाकुर जगन्मोहन सिंह के उपन्यास श्यामा स्वप्न का उल्लेख करना प्रासंगिक और समीचीन होगा। “जिस नवोदित उत्तर भारतीय मध्य वर्ग की आशा-आकांक्षाओं और जीवन मूल्यों के बहुविध तनावों की दृष्टि से हिंदी उपन्यास का उदय हुआ, श्यामा स्वप्न  उस प्रक्रिया को स्थगित और निलंबित करने वाला उपन्यास है।”8 संभवतः इसी कारण श्यामा स्वप्न  की तीव्र-तीक्ष्ण आलोचना उस युग में हुई और यह क्रम वर्तमान में भी जारी है। तत्कालीन समाज में प्रचलित मूल्यों से अलग हटने पर साहित्य को भी आलोचना का शिकार बनना पड़ता है। इससे अलग हिंदी के पहले उपन्यासकार की प्रतिष्ठा प्राप्त लाला श्रीनिवास दास के उपन्यास परीक्षा गुरु  में तत्कालीन समय और समाज की स्थितियों का, बदलते मानव-मूल्यों का सटीक प्रस्तुतीकरण हुआ है। लाला श्रीनिवास दास परीक्षा गुरु  की भूमिका में इसका खुलासा कर देते हैं- “इस पुस्तक के रचनेमैं मुझको महाभारतादि संस्कृत, गुलिस्ताँ वगैरे फ़ारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकन, गोल्डस्मिथ, विलियम कूपर आदिके पुराने लेखों और स्त्रीबोध आदिके बर्तमान रिसालौंसे बड़ी सहायता मिली है। इसलिए इन सबका मैं बहुत उपकार माना हूँ...”9
कमोबेश ऐसे ही तथ्य तत्कालीन निबंध साहित्य और नवोदित कहानी विधा के साथ जुड़े हैं। पुनर्जागरण के प्रभाव के फलस्वरूप समाज में प्रतिष्ठित होते जा रहे उदात्त मानवीय मूल्य भारतेंदु युगीन साहित्य में प्रतिष्ठित होकर समाज को एक नई दिशा और नवीन वैचारिक शक्ति प्रदान करने का कार्य कर रहे थे। अर्बन द्वारा बताए गए शारीरिक और आर्थिक मूल्यों की, अर्थात् साहित्य सृजन के माध्यम से जीविका चलाने और साहित्य को अर्थार्जन का माध्यम बनाने की प्रवृत्ति तत्कालीन साहित्याकारों में नहीं थी।
तर्कबुद्धिवादी दार्शनिक नीत्शे ने मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की बात कही है। “उसने समस्त मूल्यों के मूल्यांकन पर बल दिया है। उनमें यदि प्राचीन मूल्य शक्ति उपार्जन की कसौटी पर खरे उतरें तो उन्हें वर्तमान समय के लिए भी मूल्यवान माना जा सकता है। यह मानव मूल्यों का परीक्षण है।”10 भारतेंदु युगीन साहित्य में नीत्से की इस अवधारणा को भी देखा जा सकता है, जो पूर्ववर्ती साहित्यिक युगों से भारतेंदु युग में आई है।
समग्रतः, हिंदी का भारतेंदु युगीन साहित्य उत्कृष्टतम मानवीय मूल्यों की स्थापना के मानदण्ड पर खरा उतरता है। अपनी पूर्ववर्ती युगीन प्रवृत्तियों को त्यागकर, समय और समाज की आवश्यकता के अनुरूप सार्थक मूल्यों को आत्मसात कर भारतेंदु युगीन साहित्य ने ज्ञान के प्रति मानवीय आग्रह को न केवल तृप्त किया है, वरन् इसी आधार पर हिंदी के आधुनिक युग की आधारशिला रखकर हिंदी साहित्य को नई दिशा देने का सार्थक प्रयास भी किया है।

संदर्भ:
1.   नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 206
2.   स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1996, पृ॰ 31
3.   हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 401
4.   हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खण्ड, डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त, लोकभारती, इलाहाबाद, सं. 2004, पृ॰ 18
5.   हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 446-447
6.   हिंदी कहानी : संरचना और संवेदना, डॉ. साधना शाह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ॰ 14
7.  हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहबाद, 1996, पृ॰ 130
8.  श्यामा स्वप्न : समय, समाज और सामाजिक से उदासीन आख्यान, मधुरेश, कथाक्रम,लखनऊ, अप्रैल-जून 2008, पृ॰ 12
9.  वेब रेफ़रेंस, www.hindisamay.com/upanyas/pariksha_guru.htm
10.  नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 213
डॉ. राहुल मिश्र

Sunday 17 August 2014

सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान


सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान
सआदत हसन मंटो उर्दू के सर्वाधिक विवादास्पद, चर्चित और महत्त्वपूर्ण लेखक के रुप में जाने जाते हैं। मुंशी प्रेमचंद के बाद उर्दू कहानी को एक नया आयाम देने और अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से उर्दू कहानियों में नए आयाम सृजित करने का कार्य सआदत हसन मंटो ने किया। मंटो की खूबी यह है कि वे अपने जीवनकाल में जितने चर्चित रहे, उतने ही चर्चित और प्रासंगिक आज भी हैं। मंटो का रचनाकाल आज के दौर से एकदम अलग था। उस समय साहित्य से अपेक्षाएँ थीं कि साहित्य अपने माध्यम से देश की आजादी की लड़ाई के लिए योगदान दे, किंतु मंटो ने इस भूमिका को अलग अंदाज में निभाया। उन्होंने समाज के उस क्रूर और कटु यथार्थ को, उस हकीकत को तरजीह दी, जो उस जमाने में वर्जित हुआ करती थी। इसी कारण वे जीवन-भर विवादों में रहे। उन पर आरोप भी लगे, उन्हें ताने-उलाहने भी मिले और उन पर मुकदमे भी चले। मंटो की रचनाओं में जितनी विविधता, जितना संघर्ष और जितनी सपाटबयानी नज़र आती है, वही सब उनकी जिंदगी में भी देखने को मिलती है।
उर्दू जुबान के इस नामचीन अफ़सानानिगार का जन्म पंजाब के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1911 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के खानदान में हुआ था। उनके वालिद गुलाम हसन नामचीन बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था। मंटो उन्हें बीबीजान कहा करते थे। उनके पिता जितने सख्तमिजाज थे, उनकी माता उतनी ही नर्म स्वभाव वाली थीं। मंटो अपने माता-पिता के बारे में एक जगह लिखते हैं कि- उनके वालिद, ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तग़ीर थे, और उनकी वालिदा बेहद नर्मदिल। इन दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाज़ा आप कर सकते हैं। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार थे और शरारती भी थे। उर्दू में कमजोर होने के कारण एंट्रेंस इम्तिहान में दो बार फेल होने के बाद मंटो को अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में दाखिला मिला। इन्ही दिनों मंटो ने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक मंडली बनाई। इस नाटक मंडली ने आगा हश्र के एक नाटक के मंचन की तैयारी भी शुरू कर दी। एक खानदानी बैरिस्टर को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था कि उसका बेटा नाच-गाने जैसी निम्न और समाज में बुरी नज़र से देखी जाने वाली गतिविधि में शामिल हो, लिहाजा मंटो के वालिद साहब ने एक रोज़ मंटो के हारमोनियम और तबले फोड़ दिए। इसके बाद नाटक मंडली ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। मंटो के वालिद ने उन्हें तीखे अल्फाज़ में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शगल उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। इसके बावजूद मंटो की रचनाधर्मिता थमी नहीं। सन् 1931 में मंटो का दाखिला हिंदू महासभा कॉलेज में हुआ। उन दिनों देश की आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। 1919 के जलियाँवाला बाग की घटना ने सात वर्ष के बालक मंटो के दिल और दिमाग पर गहरा प्रभाव डाला था। अपने आसपास क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर, इंकलाब जिंदाबाद के नारे सुनकर मंटो की इच्छा भी होती थी कि वह क्रांतिकारी गतिविधियों में शरीक हो जाए, मगर हर बार वालिद की सख़्तगीरी आड़े आ जाती थी। पिता के सख्त विरोध के बावजूद मंटो अदब से मुखातिब हुए और उनका पहला अफ़साना ‘तमाशा’ नाम से तैयार हो गया। इस कहानी में मंटो ने सात वर्ष के बालक खालिद की मानसिक स्थिति के जरिए जलियाँवाला बाग की घटना को अंजाम देने वाली विनाशक-क्रूर ताकतों की बर्बरता को पेश किया। सन् 1934 में 22 वर्ष की उम्र में मंटो ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, तब उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई। प्रगतिशील विचारधारा और देश की आजादी की लड़ाई की प्रेरणा से सन् 1935 में उनकी दूसरी कहानी- इनक़िलाब पसंद आई, जो अलीगढ़ मैगजीन में प्रकाशित हुई। मंटो की एक और कहानी- 1919 की बात में भी यही संदर्भ देखने को मिलता है। इस कहानी में इतिहास के जरिए कहानी बुनने के हुनर को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को कहानी में पिरोकर कहने की परंपरा मुंशी प्रेमचंद के जमाने में थी। मंटो ने भी ऐसा ही किया, मगर अपने खास अंदाज में। देश की आजादी की लड़ाई को मंटो ने अपनी कई कहानियों में अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया है। नया कानून कहानी में मंगू कोचवान के जरिए मंटो ने आजादी के दिनों की आम आदमी की मानसिकता को व्यक्त किया है। स्वराज्य के लिए कहानी में मंटो की क्रांतिकारी-साम्यवादी विचारधारा का गांधीवाद के साथ विरोध प्रकट होता है। इस कहानी के पात्रों- गुलाम अली और निगार के बीच संबंधों के जरिए आजादी की लड़ाई में शामिल दो अलग-अलग विचारधाराओं की पड़ताल की गई है। दो कौमें, एक ख़त, दो गड्ढे, नारा, यजीद और खाली बोतलें खाली डिब्बे कहानियों में मंटो ने राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों को बड़ी शिद्दत से व्यक्त किया है।
मंटो को अफ़सानानिगार बनने की प्रेरणा रूसी साम्यवादी साहित्य और फ्रांसीसी साहित्य के अनुवाद कार्य करने से मिली। अब्दुल वारी नामक एक पत्रकार की प्रेरणा से मंटो ने अपने लेखन की शुरुआत अनुवाद के माध्यम से की थी। सन् 1932 में मंटो के वालिद का इंतकाल हो गया था, उन्ही दिनों भगत सिंह को फाँसी की सजा दी गई थी, लिहाजा मंटो ने अपने कमरे में अपने वालिद की फोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखकर कमरे के बाहर ‘लाल कमरा’ लिख दिया था। मंटो की इस साम्यवादी वैचारिक पृष्ठभूमि ने उनके लेखन की नींव डालने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मंटो की कहानियों में राजनीतिक और सामाजिक पड़ताल के नजरिए का विकास उनकी साम्यवादी चिंतनधारा और प्रगतिशील वैचारिकता के कारण हुआ।
राजनीति और समाज के अलावा मंटो ने अपनी कहानियों के जरिए धर्म और साहित्य की हकीकतों का पर्दाफाश भी किया है। शहीद साज़ और शहदौले का चूहा कहानियों में मंटो ने अंधविश्वासों में जकड़े समाज की ऐसी कड़वी हकीकत को साझा किया है, जिसे सभ्य समाज द्वारा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कहानियों में मंटो ने सभ्य कहे जाने वाले समाज की भ्रष्टता को बड़ी कलात्मकता और व्यंग्य के साथ उभारा है। खुदा की कसम कहानी के जरिए मंटो ने उन साहित्यकारों की खबर ली है, जो अपने समय और समाज की हकीकतों से दूर ख्वाबों की दुनिया में मशगूल रहते थे। साहित्य की समाज और सच्चाई से दूरी को मंटो ने न केवल महसूस किया, वरन् इस संकट का डटकर मुकाबला भी किया। मंटो के द्वारा लीक से हटकर चलने की इस कोशिश ने उर्दू कहानी को भी एक नई दिशा दी। आज की उर्दू कहानी अगर समय की सच्चाई से, समाज की हकीकत से और कथ्य की प्रभावोत्पादकता से जुड़ी है, तो इसे मंटो का योगदान ही माना जाएगा।
 मंटो ने अपने आसपास की जिंदगी को, अपने समय की सच्चाई को खुली आँखों से न केवल देखा था, वरन् उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके अफसाना बनाया था। उस दौर की एक और कड़वी सच्चाई थी, देश का विभाजन और विभाजन के बाद होने वाले दंगे। गंगा-जमुनी तहजीब को लहूलुहान कर देने वाला यह जख़्म मंटो की कहानियों में लगातार रिसता रहा। मंटो के लिए विभाजन की त्रासदी को सह पाना बहुत कठिन था। इसी कारण दंगों के दुष्प्रभाव और विकृत स्थितियों का जितना मार्मिक चित्रण मंटो की कहानियों में देखने को मिलता है, उसे कहीं और ढूँढ़ पाना बहुत कठिन है। मंटो की बहुचर्चित कहानी- टोबा टेकसिंह इसी तासीर की बहुत मार्मिक कहानी है। कहानी में दो देशों के बीच की जगह में चीख-चीखकर अपनी जान दे देने वाला टोबा टेकसिंह राजनीति की क्रूरता के सामने दम तोड़ने वाली गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है। इसी तरह टिटवाल का कुत्ता कहानी में  विभाजित देश की सीमाओं में एक ओर तैनात सूबेदार हिम्मत खाँ और दूसरी ओर तैनात जमादार हरनाम सिंह की गोलियों से छलनी होकर मरने वाला टिटवाल का कुत्ता उस आम आदमी की प्रतीक है, जिसे कभी हिंदुस्तानी होकर तो कभी पाकिस्तानी होकर राजनीतिक वहशीपन का शिकार होना पड़ता है। ठंडा गोश्त, खोल दो और नंगी आवाजें कहानियों को लेकर मंटो के ऊपर अश्लीलता के आरोप लगे थे और उन पर मुकदमा भी चला था। इन कहानियों को भले ही अश्लील कहकर मंटो पर आरोप लगाए जाएँ, मगर दंगों की भयावहता के बीच मानवता को शर्मसार करने वाली स्थितियों को जितनी शिद्दत के साथ इन कहानियों में प्रकट किया गया है, उसे कहीं और देख पाना संभव नहीं है। गुरमुख सिंह की वसीयत, शरीफन, रामखेलावन और मोजेल भी ऐसी ही कहानियाँ हैं, जिनके जरिए देश विभाजन के वक्त दंगों की भयावहता को और दंगों के पीछे काम कर रही क्रूर मानसिकता को समझा जा सकता है। दंगों पर ही केंद्रित कहानी- सहाय में मंटो लिखते हैं कि- वे लोग बेवकूफ हैं, जो समझते हैं कि बंदूकों से मजहब शिकार किए जा सकते हैं- मजहब, दीन, ईमान, धर्म, यकीन, विश्वास- ये जो कुछ भी हैं हमारे जिस्म में नहीं, आत्मा में होते हैं- छुरे, चाकू और गोली से ये कैसे फ़ना हो सकते हैं। मंटो का यह विचार इंसानियत के प्रति असीमित आस्था को, उनके मानवीय दृष्टिकोण को प्रकट करता है। आज के वैश्विक संदर्भ में मंटो का यह कथन एकदम सही और सटीक लगता है।
सआदत हसन मंटो की कहानियों में जिस तरह की हकीकत और बेचैनी यक्साँ है, वैसी ही उनके जीवन में भी दिखती है। मंटो 1935 में अलीगढ़ से लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने पारस अखबार में काम किया और मुसव्विर का संपादन भी किया। वे कुछ दिन बाद ही मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने फिल्मों की पटकथाएँ लिखने और फिल्म-जगत् की पत्रिकाओं में लेखन कार्य किया। मुंबई में चार साल गुजारने के बाद मंटो दिल्ली आ गए और और लगभग डेढ़ वर्षों तक आकाशवाणी में काम किया। यहीं पर उन्होंने बेहतरीन रेडियो-नाटक लिखे, जो आओ, मंटो के ड्रामे, जनाज़े और तीन औरतें संग्रहों में प्रकाशित हुए। दिल्ली प्रवास के दौरान ही मंटो का लेख-संग्रह- मंटो के मज़ामीन प्रकाशित हुआ। दिल्ली से एक बार फिर मंटो मुंबई चले गए। मुंबई के अपने प्रवास के दौरान मंटो ने अपनी नगरिया, आठ दिन और मिर्जा गालिब फिल्मों की पटकथाएँ लिखीं।
मंटो को भले ही अफ़सानानिगार के रूप में पहचान मिली हो, मगर मंटो बेहतरीन नाटककार भी थे। मंटो ने खासतौर पर रेडियो-नाटक लिखे हैं, मगर उनके नाटकों में मानसिकता की पड़ताल, समय और समाज की हकीकत और मानवीय संबंधों की जटिलता को उसी तल्खी के साथ देखा जा सकता है, जैसी उनके अफ़सानों में नज़र आती है। कबूतरी, नीली रगें, कमरा नंबर 9, रणधीर पहलवान, माचिस की डिबिया, रासपुतिन की मौत, नेपोलियन की मौत और चंगेज खाँ की मौत आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।
मंटो ने अपने जीवन में अनेक संघर्षों को झेलते हुए, अश्लीलता के आरोपों में अदालतों के चक्कर लगाते हुए, समाज की विकृतियों से विचलित होकर भटकते हुए बदकिस्मती को भोगते हुए सारा जीवन गुजार दिया। यह अजीब इत्तेफ़ाक था कि जिस दिन मंटो ने लाहौर में आखिरी साँस ली थी, उस दिन मंटो की लिखी फिल्म मिर्जा ग़ालिब दिल्ली में हाउसफुल चल रही थी। अंतोव चेखव के बाद मंटो ही ऐसे कहानीकार थे, जो अपनी कहानियों के बूते ही प्रसिद्ध हो गए। यह अलग बात है कि उनके जीते-जी उनका उचित मूल्यांकन नहीं हो सका। हिंदी और उर्दू के वर्तमान साहित्य में मंटो जितने चर्चित हुए हैं, उतनी चर्चा किसी दूसरे साहित्यकार की नहीं हुई है। हिंदी और उर्दू के आधुनिक कथा-साहित्य में मंटो की बराबरी करने वाला कोई साहित्यकार नज़र नहीं आता है। वर्तमान साहित्य यथार्थ और समय की हकीकत से जुड़ रहा है, इस कारण मंटो के लेखन को देखने का नया नजरिया विकसित हुआ है।  
उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौक़ी के मुताबिक- दुनिया अब मंटो को समझ रही है। भारत और पाकिस्तान में उन पर बहुत शोध-कार्य हो रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिए सौ वर्ष भी कम हैं। वे लिखते हैं कि- शुरुआत में मंटो को दंगों, फिरकावाराना वारदातों और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य-सा साहित्यकार माना जाता था, लेकिन मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाटबयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं।
मंटो ने अपने 19 साल के साहित्यिक जीवन में लगभग 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द-चित्र और 70 लेखों की रचना की। अपने छोटे-से साहित्यिक जीवन में उर्दू और हिंदी साहित्य को नई दिशा देने और कालजयी रचनाओं के जरिए समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू कराने वाला यह अफ़सानानिगार तमाम जिल्लतें, अनेक ताने-उलाहने, ढेरों मुसीबतें और अभाव से भरी हुई जिंदगी को अपने बेबाक-बिंदास अंदाज में जीते हुए 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में हमें अलविदा कह गया।   

 डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 अगस्त, 2014 को प्रातः 0830 बजे प्रसारित)





Monday 19 May 2014

सुमित्रानंदन पंत : व्यक्तित्व और कृतित्व



सुमित्रानंदन पंत : व्यक्तित्व और कृतित्व

भारत माता
ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी
भारत माता
ग्राम वासिनी
और
धरती का आँगन इठलाता
शस्य श्यामला भू का यौवन
अंतरिक्ष का हृदय लुभाता
जौ गेहूँ की स्वर्णिम बाली
भू का अंचल वैभवशाली
इस अंचल से चिर अनादि से
अंतरंग मानव का नाता...
जैसी सुंदर और मनमोहक कविताएँ लिखने वाले, प्रकृति की सुंदरता को कविताओं में उतारने वाले सुमित्रानंदन पंत हिंदी के जाने-माने कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में 20 मई, सन् 1900 ई. को हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। उनकी दादी ने उनका पालन-पोषण किया। वे सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता गंगादत्त कौसानी में एक चाय बागान के प्रबंधक थे। उनके बचपन का नाम गुसाई दत्त था। उनकी प्राथमिक शिक्षा कौसानी के वर्नाक्युलर स्कूल में हुई। वे ग्यारह वर्ष की आयु में अल्मोड़ा आ गए, जहाँ गवर्नमेंट कॉलेज में उन्होंने हाईस्कूल में प्रवेश लिया। उन दिनों अल्मोड़ा में साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ लगातार चलती रहती थीं। पंत जी उनमें भाग लेने लगे। उन्होंने अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाली हस्तलिखित पत्रिका सुधाकर और अल्मोड़ा अखबार के लिए रचनाएँ लिखना शुरू कर दिया। वे सत्यदेव जी द्वारा स्थापित शुद्ध साहित्य समिति नामक पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ते, जिससे उन्हें भारत के विभिन्न विद्वानों के साथ ही विदेशी भाषाओं के साहित्य के अध्ययन का अवसर सुलभ हो गया था। वे शुरुआत में अपने परिचितों और संबंधियों को कविता में चिट्ठियाँ भी लिखा करते थे। अल्मोड़ा में उनका परिचय हिंदी के प्रसिद्ध नाटककार गोविंद वल्लभ पंत से हुआ। इसके साथ ही वे श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचंद्र जोशी और हेमचंद्र जोशी के संपर्क में आए। इन साहित्यकारों के संपर्क में आकर सुमित्रानंदन पंत के व्यक्तित्व का विकास हुआ। अल्मोड़ा में पंत जी को ऐसा साहित्यिक वातावरण मिला, जिसमें उनकी वैचारिकता का विकास हुआ। वैचारिकता के विकास के इस क्रम में उन्होंने सबसे पहले अपना नाम बदला। रामकथा के किरदार लक्ष्मण के व्यक्तित्व से, लक्ष्मण के चरित्र से प्रभावित होकर उन्होंने अपना नाम गुसाई दत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। बाद में पंत जी ने नेपोलियन बोनापार्ट के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर लंबे और घुंघराले बाल रख लिए।
 सन् 1918 में वे अपने भाई के साथ वाराणसी आ गए और क्वींस कॉलेज में अध्ययन करने लगे। क्वींस कॉलेज से माध्यमिक की परीक्षा पास करके वे इलाहाबाद आ गए और म्योर कॉलेज में इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद आकर वे गांधी जी के संपर्क में आए। सन् 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने म्योर कॉलेज को छोड़ दिया और आंदोलन में सक्रिय हो गए। वे घर पर रहकर और अपने प्रयासों से हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करने लगे।
सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति के उपासक और प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करने वाले कवि के रूप में जाना जाता है। पंत जी को ऐसी कविताएँ लिखने की प्रेरणा उनकी अपनी जन्मभूमि से ही मिली। जन्म के छह-सात घंटे बाद ही माँ से बिछुड़ जाने के दुख ने पंत जी को प्रकृति के करीब ला दिया था। प्रकृति की रमणीयता ने, प्रकृति की सुंदरता ने पंत जी के जीवन में माँ की कमी को न केवल पूरा किया, बल्कि अपनी ममता भरी छाँह में पंत जी के व्यक्तित्व का विकास किया। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत जीवन-भर प्रकृति के विविध रूपों को, प्रकृति के अनेक आयामों को अपनी कविताओं में उतारते रहे। पंत जी का जीवन-दर्शन, उनकी विचारधारा, उनकी मान्यताएँ और उनकी स्थापनाएँ प्रकृति के विभिन्न रूपों को साथ लेकर पनपती और विकसित होती रहीं। बर्फ से ढके पहाड़ों और उनके नीचे पसरी कत्यूर घाटी की हरी-भरी चादर; पर्वतों से निकलते झरनों; नदियों; आड़ू, खूबानी, चीड़ और बांज के सुंदर पेड़-पौधों और चिड़ियों-भौंरों के गुंजार से भरी-पूरी उनकी मातृभूमि कौसानी ने उन्हें माँ की गोद का जैसा नेह-प्रेम दिया। इन सबके बीच पंत जी का प्रकृति-प्रेमी कवि अपनी अभिव्यक्ति पाया। जिस तरह एक बच्चे के लिए उसकी माँ ही सबकुछ होती है, उसी तरह पंत जी के लिए प्रकृति ही सबकुछ थी। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है। प्रकृति-प्रेम का ही प्रभाव था कि जब वे चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तब सात वर्ष की उम्र में ही कविताएँ रचने लगे थे। गिरजे का घंटा, बागेश्वर का मेला, वकीलों के धनलोलुप स्वभाव और तंबाकू का धुआँ आदि उनकी शुरुआती दौर की कविताएँ हैं।
सुमित्रानंदन पंत को हिंदी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख कवि के रूप में जाना जाता है। 18वीं शती. के अंत में परंपरावाद की प्रतिक्रिया के रूप में स्वच्छंदतावाद या रोमेंटिसिज़्म का जन्म हुआ। यूरोप में स्वच्छंदतावाद रूसो, वाल्टेयर, गेटे, कीट्स और शैली आदि के द्वारा रचे गए लिरिकल बैलेड्स के माध्यम से विकसित हुआ। अंग्रेजी साहित्य के रोमेंटिसिज़्म का प्रभाव गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के माध्यम से बांग्ला साहित्य पर पड़ा। बांग्ला साहित्य से होता हुआ यह प्रभाव हिंदी साहित्य में आया। रोमेंटिसिज़्म का यह प्रभाव सुमित्रानंदन पंत की काव्य-साधना पर पड़ा। पंत जी के साथ ही जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की काव्य-साधना पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी साहित्य के रोमेंटिसिज़्म ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना के साथ मिलकर हिंदी में एक नए युग की शुरुआत की। सन् 1918 से 1938 तक के कालखंड में हिंदी साहित्य में अपना व्यापक प्रभाव डालने वाला यह युग छायावाद के नाम से जाना जाता है। छायावाद के प्रतिनिधि कवि के रूप में सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में भारतीय सांस्कृतिक चेतना का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इसके साथ ही स्वतंत्रता पाने की तीव्र इच्छा, बंधनों से मुक्ति, विद्रोह के स्वर और अपनी बात कहने के नए तरीकों को पंत जी की कविताओं में देखा जा सकता है। छायावाद के अन्य कवियों; जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की तरह सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में प्रकृति-प्रेम के माध्यम से सौंदर्यवाद और मानववाद की भावनाओं को देखा जा सकता है। पंत जी जब अपनी कविताओं में भारत के ग्रामीण समाज का चित्रण करते हैं, तब वे भारत के ग्रामीण समाज के दुखों, कष्टों, भेदभावों और गाँव के लोगों के सुख-सुविधाविहीन जीवन को भी प्रकट करते हैं। वे अमीर और गरीब के बीच के भेद को मिटाने की बात भी कहते हैं। वे सामाजिक समरसता की स्थापना की बात अपनी कविताओं में कहते हैं। वे अमीर और गरीब का भेद भी मिटाते हैं। वे कहते हैं-
अस्थि  मांस  के इन जीवों का ही यह जग घर,
आत्मा का अधिवास न यह, यह सूक्ष्म अवश्वर।
न्योछावर   है   आत्मा  नश्वर   रक्त   मांस  पर,
जग  का  अधिकारी  है  वह,  जो  है  दुर्बलतर।
पंत जी आज के अभावग्रस्त, शोषित, दलित और साधनविहीन समाज के दुखों और कष्टों को बड़ी गहराई तक उतरकर देखते हैं। इन सबके बीच वे अपराध और आतंक से भरी देश की स्थितियों को भी प्रकट करते हैं। उनकी यह भावधारा राष्ट्रीय स्तर पर भी है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है। पंत जी की इस भावधारा के पीछे उनके मार्क्सवादी चिंतन को देखा जा सकता है। वे जीवन के विकास के लिए एकता, समता, श्रद्धा, परिश्रमशीलता और मन की निर्मलता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे इसके लिए ऐसी क्रांति की बात करते हैं, जो मानवता के धरातल पर विकसित हो। वे ऐसी क्रांति की बात करते हैं, जो विभिन्न प्रकार के मतभेदों को भुलाकर नेह-प्रेम से भरे देश का और साथ ही सारे संसार का निर्माण कर सके। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत के काव्य-संसार को सत्यं, शिवं, सुंदरम् की साधना का काव्य कहा जाता है।
छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताओं में जिस प्रकार का रहस्यवाद और बौद्ध-दर्शन का प्रभाव है, वैसा भले ही पंत जी की कविताओं में न दिखता हो, फिर भी भारतीय सांस्कृतिक चेतना के रूप में इनकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति पंत जी की कविताओं में दिखाई पड़ती है। सत्य, शांति, अहिंसा, दया, क्षमा और करुणा जैसे मानवीय गुणों की चर्चा बौद्ध धर्म-दर्शन में प्रमुख रूप से होती है। इन्हें पंत जी की कविताओं में भी देखा जा सकता है। वे लिखते हैं-
बिना दुख के सब सुख निस्सार, बिना आँसू के जीवन भार, 
      दीन  दुर्बल  है  रे  संसार,  इसी  से  दया,  क्षमा और प्यार।
इसके साथ ही दो लड़के नामक कविता में वे लिखते हैं-
क्यों न एक हो  मानव मानव सभी परस्पर,
मानवता  निर्माण  करे  जग  में  लोकोत्तर!
जीवन  का  प्रासाद  उठे  भू  पर  गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने,--मानवहित निश्चय।
सुमित्रानंदन पंत ने अध्यात्म और दर्शन के साथ विज्ञान के समन्वय की बात अपनी कविताओं में कही है। इनके आपसी समन्वय के माध्यम से वे मानवता के कल्याण की कामना करते हैं। उनका मानना है कि ये युग-शक्तियाँ हैं और युग-उपकरण हैं, जिनका प्रयोग अगर मानवता के कल्याण के लिए किया जाएगा तो सारे विश्व का कल्याण होगा, दीन-दुखियों और जरूरतमंदों का कल्याण होगा। वे लिखते हैं-
नम्र शक्ति वह, जो सहिष्णु हो, निर्बल को बल करे प्रदान,
मूर्त प्रेम, मानव मानव हों  जिसके लिए  अभिन्न  समान!
वह  पवित्रता, जगती  के  कलुषों  से जो  न  रहे  संत्रस्त,
वह  सुख,  जो   सर्वत्र  सभी   के   लिए   रहे   संन्यस्त!
रीति नीति, जो विश्व प्रगति में बनें नहीं जड़ बंधन-पाश,
--ऐसे उपकरणों  से  हो भव-मानवता का पूर्ण विकास!
सुमित्रानंदन पंत अपनी युवावस्था में ही गांधी जी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गए थे। उनकी काव्य-यात्रा में गांधी-दर्शन का प्रभाव इसी कारण प्रमुख रूप से दिखाई देता है। सन् 1964 में पंत द्वारा रचित लोकायतन प्रबंध-काव्य गांधी दर्शन और चिंतन को बड़े ही भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। 12 मार्च, 1930 से शुरू हुए गांधी जी के नमक सत्याग्रह ने पंत जी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। वे गांधी जी को आधुनिक युग का ऐसा मसीहा मानते थे, जिनके जरिए देश में नई क्रांति आ सकती थी, जिनसे सारे देश को उम्मीद थी। लगभग सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य पंत जी ने अपने पिता को समर्पित किया। इस महाकाव्य पर उन्हें सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार मिला और उन्हें उत्तरप्रदेश शासन द्वारा भी सम्मानित किया गया। सुमित्रानंदन पंत अपने जीवन में कई दार्शनिकों-चिंतकों के संपर्क में आए। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और श्री अरविंद के प्रति उनकी आस्था थी। वे अपने समकालीन कवियों- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और हरिवंशराय बच्चन से भी प्रभावित हुए। हरिवंशराय बच्चन के पुत्र और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को अपना यह नाम भी पंत जी से ही मिला था।
पंत जी की रचनाओं में विचारधारा, दर्शन और चिंतन के स्तर पर ऐसी प्रगतिशीलता नजर आती है, जिसमें प्रकृति के बदलावों की तरह एक नयापन देखा जा सकता है। समकालीन कविता के क्षेत्र में वे एकमात्र कवि हैं, जिनका प्रकृति-चित्रण अनूठा है। उनका प्रकृति-चित्रण प्रगतिशीलता को साथ लेकर चलता है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, उत्तरा, युगपथ, चिदंबरा, कला और बूढ़ा चाँद तथा गीतहंस आदि काव्य-कृतियों के साथ ही पंत जी ने कुछ कहानियाँ भी लिखीं हैं। उन्होंने हार शीर्षक से एक उपन्यास की रचना भी की है। इसके साथ ही साठ वर्ष : एक रेखांकन नाम से पंत जी ने आत्मकथा भी लिखी है। सुमित्रानंदन पंत को 1961 में पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। सन् 1968 में चिदंबरा काव्य-कृति पर पंत जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से पंत जी को सम्मानित किया गया। उन्होंने सन् 1950 से 1957 तक आकाशवाणी, इलाहाबाद में हिंदी चीफ प्रोड्यूसर के रूप में अपनी सेवाएँ दीं। इसके बाद वे साहित्य सलाहकार के रूप में आकाशवाणी से जुड़े रहे। इसी दौरान 15 सितंबर, सन् 1959 को भारत में टेलिविजन इंडिया नाम से भारत में टेलिविजन प्रसारण शुरू हुआ। इसे दूरदर्शन नाम देने वाले भी सुमित्रानंदन पंत ही थे।
हिंदी साहित्य के विलियम वर्ड्सवर्थ और प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में प्रसिद्ध सुमित्रानंदन पंत ने लगभग पचास वर्षों की अपनी साहित्य-सेवा के माध्यम से हिंदी के काव्य-जगत् को समृद्ध किया। आबशारों, नदियों, पेड़-पर्वतों और प्रकृति के ऐसे ही तमाम सुंदर चित्रों के बीच समन्वय, सौहार्द, मानवता, क्रांति और नवजागरण की आवाज उठाने वाले इस ऊर्जावान, युग प्रवर्तक, भावुक और संवेदनशील कवि ने 28 दिसंबर सन् 1977 को इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश) में  हमसे हमेशा के लिए विदाई ले ली। सुमित्रानंदन पंत का हिंदी साहित्य में ही नहीं, बल्कि विश्व साहित्य में भी अद्वितीय स्थान है। सुमित्रानंदन पंत की काव्य-चेतना आशा और आस्था के साथ विकास की नई दिशा देने और बिना डरे हुए मानवता के कल्याण की प्रेरणा देती रहेगी।      
नव आशा से कुसुमित हो मग,
नव अभिलाषा से मुखरित पग
नव विकासमय, नवल प्रगतिमय,
निर्भय चरण धरो!
प्राणों में निखरो!


डॉ. राहुल मिश्र

(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 19. 05. 2014, प्रातः 0830 बजे)

Sunday 20 April 2014

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी

महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी
हिमालय के साथ जुड़ा राहुल सांकृत्यायन का नेह-प्रेम जगजाहिर है। उन्होंने ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र अर्थात् लदाख, तिब्बत और चीन तक कई बार यात्राएँ की हैं और यहाँ के धर्म, संस्कृति तथा ज्ञान को सारी दुनिया के लिए सुलभ बनाने में योगदान दिया है। राहुल जी का जितना लगाव ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र से रहा है, उतना ही लगाव निचले हिमालयी परिक्षेत्र से भी रहा है। देश-दुनिया में आते बदलावों के कारण परिवर्तन की तेज लहर जितनी धीमी गति से हिमालय के ऊपरी परिक्षेत्र में आई, उतनी ही तेजी के साथ परिवर्तन की बयार निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आई और उसे प्रभावित किया। निचले हिमालयी परिक्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का कुछ भाग और दार्जिलिंग-कलिङपोंग का इलाका आता है। इन क्षेत्रों में अंग्रेज हुक्मरानों के आगमन के साथ ही आधुनिकता का विकास हुआ, जो अंग्रेजों के जाने के बाद भी लगातार चलता ही रहा।
राहुल सांकृत्यायन ने ऊपरी हिमालय परिक्षेत्र में फैले ज्ञान के अध्ययन के अतिरिक्त निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आते सांस्कृतिक एवं सामाजिक बदलावों का गहन अध्ययन भी किया है। उनका यह अध्ययन उनकी कहानियों में उतरा है। निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से जुड़ा उनका कहानी-संग्रह है- बहुरंगी मधुपुरी । उनके इस कहानी-संग्रह में इक्कीस कहानियाँ संग्रहीत हैं।
कहानी-संग्रह का शीर्षक ही इन कहानियों की तासीर को बताने के लिये पर्याप्त है। इस संग्रह की प्रत्येक कहानी का अपना अलग रंग है। इन कहानियों में कहीं अमीर लोगों के रहन-सहन को, उनके ऐशो-आराम और विलासिता को प्रकट किया गया है तो कहीं इस क्षेत्र के लोगों के जीवन को प्रकट किया गया है।
मधुपुरी शब्द हिमालय की तराई की प्राकृतिक सुंदरता को, उसकी मधु सदृश मिठास को बताने का काम करता है। राहुल जी ने अपने कहानी-संग्रह बहुरंगी मधुपुरी  की भूमिका में अपनी कथा-भूमि को विलासपुरी भी कहा है। उनके द्वारा यह संबोधन दिया जाना काफी हद तक सही और प्रासंगिक सिद्ध हो जाता है, जब हम उनकी कहानियों को पढ़ते हैं।
भारत में जब अंग्रेज हुक्मरान आए तो उन्हें यहाँ की गर्मी ने बहुत सताया। इसी संकट ने मधुपुरी या विलासपुरी अर्थात् निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सौंदर्य से, यहाँ की शीतल-मंद-सुगंधित बयार से अंग्रेज हुक्मरानों को जोड़ दिया। इस तरह अंग्रेज अफसरों ने भारत में भी एक इंग्लैण्ड को पा लिया था और इसी कारण वे इस समूचे क्षेत्र को एक मिनी इंग्लैण्ड की तरह विकसित करने लगे थे। अंग्रेजों की देखा-देखी भारत के अमीर-सेठ-साहूकार और राजे-महाराजे भी इस क्षेत्र की तरफ आकर्षित हुए और इस तरह से यह क्षेत्र विलासपुरी के तौर पर विकसित हो गया। राहुल जी ने अपनी सभी कहानियों में इस स्थिति को पूरे कथा-रस के साथ, रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है।
दूसरी ओर इन कहानियों में इस क्षेत्र के मूल निवासी भी हैं, जो अमीरों के अजीबोगरीब शौकों को देखते हैं, कभी-कभी उनका शिकार भी बनते हैं। अपमानित भी होते हैं और धन भी कमाते हैं।
ब्रिटिश भारत जैसे-जैसे आजादी की राह पर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे यह क्षेत्र भी अपना महत्त्व बढ़ा रहा था। विकास के नए-नए आयाम खुलते जा रहे थे। विकास की यह गति बहुरंगी मधुपुरी  की हर-एक कहानी में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चलती दिखाई देती है। फिर एक दिन ऐसा भी आता है, जब अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ता है। अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाते हैं और भारत में देशी अंग्रेज रह जाते हैं। वे उसी पुरानी परंपरा को चलाना चाहते हैं। कहानी-संग्रह भी अपने अंत पर पहुँचता है। आखिरी कहानी काठ का साहब  देशी अंग्रेजों की मानसिकता पर आधारित है। इस कहानी में भ्रष्टाचार भी है, शाही-रईसी शौक भी हैं और अमीर गरीब का भेद भी है। इस तरह आखिरी कहानी में हमें निचले हिमालयी क्षेत्र का वर्तमान देखने को मिलता है। वास्तव में यह कहानी-संग्रह इतिहास, संस्कृति और समाज में आते बदलाव को तो बतलाता ही है, साथ ही समाज की कड़वी हकीकत को भी हमारे सामने स्पष्ट कर देता है।
डॉ. राहुल मिश्र