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Tuesday 27 September 2016


लदाख का धार्मिक नृत्य- छम


हिमालय के उच्चतम शिखरों में फैली बौद्ध धर्म की महायान परंपरा अपनी अनूठी धार्मिक विशिष्टताओं और इन विशेषताओं के साथ मिलकर विकसित हुई अनूठी संस्कृति के कारण युगों-युगों से धर्मभीरुओं को, श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करती रही है। हिमालय में फैली बौद्ध धर्म की महायान परंपरा का जीवित-जीवंत केंद्र लदाख है, जहाँ पर आज भी इस अनूठी संस्कृति की, इसकी धार्मिक व्यवस्था की झलक देखी जा सकती है। यह परंपरा जहाँ एक ओर भारत के गौरवपूर्ण अतीत को अपने में समेटे हुए है, वहीं दूसरी ओर तिब्बत से आने वाली सांस्कृतिक-धार्मिक व्यवस्था यहाँ पर जीवंत हो उठी है। लदाख अपने अतीत से ही देश-दुनिया के लिए जिज्ञासाओं के भंडार की तरह रहा है। देश-दुनिया में होते आधुनिकीकरण से बेखबर लदाख अंचल अपनी अनूठी धार्मिक व्यवस्था को, धार्मिक व्यवस्था में निहित विशेषताओं को बचाए रहा है। लदाख की सामाजिक व्यवस्था आज भी धार्मिक परंपराओं में बँधी हुई है और लदाख का समाज आज भी धर्मभीरु है। धर्म के प्रति आस्था और इस आस्था की दृढ़ता अपनी निरंतर गतिशीलता के साथ आज भी देश-दुनिया के पर्यटकों को, श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है। लदाख में विभिन्न तिथियों में होने वाले धार्मिक आयोजनों, अनुष्ठानों और पर्वों-त्योहारों की लंबी सूची है। महायान बौद्ध परंपरा के सिद्धांतों का भौतिक पक्ष इन अनुष्ठानों, पर्वों और त्योहारों में देखा जा सकता है। लदाख के गृहस्थ बौद्ध धर्मानुयायियों के दैनिक पूजा-कर्म के साथ ही बौद्ध मठों-मंदिरों, अर्थात् गोनपाओं में आयोजित होने वाले पूजा-अनुष्ठानों का अपना विशेष महत्त्व है। लदाख की गोनपाएँ यहाँ की धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि की प्रतीक हैं। वैसे तो इन गोनपाओं में वर्ष-पर्यंत पूजा-अनुष्ठान होते रहते हैं, मगर वार्षिक अनुष्ठानों का अपना विशेष महत्त्व होता है। लदाख की कुछ प्राचीन और विशिष्ट गोनपाओं में वार्षिक पूजा-अनुष्ठान के दौरान होने वाला धार्मिक नृत्य श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र होता है। इस नृत्य को छम कहा जाता है। यह धार्मिक नृत्य गोनपाओं के भिक्षुओं द्वारा किया जाता है और इसमें प्रशिक्षित भिक्षुगण विभिन्न प्रकार के मुखौटे लगाकर नृत्य करते हैं। इस कारण इस धार्मिक नृत्य को मुखौटा नृत्य भी कहा जाता है।
छम नृत्य मूल रूप से तांत्रिक अनुष्ठान के अंतर्गत होने वाला नृत्य होता है। यह तांत्रिक नृत्यानुष्ठान महायान बौद्ध परंपरा का विशिष्ट अंग है। महयान परंपरा में वर्णित धर्मरक्षकों, धर्मपालों, देव-देवियों, डाकिनियों और अन्य दैवीय स्वरूपों के प्रतीक के रूप में बने हुए मुखौटे और वस्त्र धारण करके इस विशिष्ट तांत्रिक नृत्यानुष्ठान को संपन्न किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि छम नृत्य की उत्पत्ति भगवान बुद्ध के समय उनके द्वारा ही हुई थी। धर्मग्रंथों में वर्णित है कि कर्नाटक में स्थित श्रीधान्यकटक नामक तीर्थक्षेत्र में भगवान बुद्ध ने महायान परंपरा के विनेयजनों को उपदेश दिया। अपने उपदेश में उन्होंने अनुत्तरयोग तंत्र भूमि-पूजा, जिसे त्सई-छो-ग कहा जाता है, के बारे में बताते हुए नृत्य करने की विधि बताई। यह नृत्य सामान्य नृत्य नहीं, वरन् शत्रु-नाश के लिए देव, डाकिनी, धर्मरक्षकों आदि के मुखौटे एवं वस्त्र धारण करके किया जाने वाला तांत्रिक नृत्यानुष्ठान था। भगवान बुद्ध द्वारा दिए गए उपदेश के अनुरूप राजा इंद्रबोधि ने इस नृत्यानुष्ठान की विधि का प्रचार-प्रसार किया। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान आर्य नागार्जुन के कर्मक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध कर्नाटक के नागार्जुनकोंडा नामक स्थान में हुए उत्खनन में नृत्य के लिए बने प्रांगण के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि तांत्रिक नृत्यानुष्ठान की, छम की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इसी कालखंड में जैन परंपरा में भी धार्मिक नृत्यानुष्ठान की परंपरा प्रचलित हुई थी। जैन संन्यासी मंदिरों में रात-रातभर नृत्यानुष्ठान किया करते थे। जैन परंपरा में प्रचलित रासग्रंथों में वर्णित कथाओं का नृत्याभिनय जैन परंपरा में साधना-पद्धति के रूप में प्रचलित था। कमोबेश इसी प्रकार की परंपरा छम में देखी जा सकती है। अंतर केवल इतना ही है कि जैन मंदिरों में होने वाला रास तांत्रिकनृत्य नहीं होता, जबकि बौद्ध धर्म की महायान परंपरा में होने वाला छम तांत्रिक नृत्य होता है।
कर्नाटक के श्रीधान्यकटक और नागार्जुनकोंडा से चलकर छम नृत्य की परंपरा तिब्बत में विकसित हुई। नौवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में तिब्बत के शासक ठ्रिसङ्-दे-च़न के आमंत्रण पर आचार्य शांतिरक्षित भारत से तिब्बत गए और वहाँ पर महयान बौद्ध परंपरा का विस्तार करने हेतु एक बौद्ध विहार के निर्माण की शुरुआत की, मगर विहार के निर्माण में अनेक प्रकार की बाधाएँ पैदा होने लगीं। तब उन्होंने गुरु पद्मसंभव को आमंत्रित करने हेतु धर्मराज ठ्रिसङ्-दे-च़न से अनुरोध किया। गुरु पद्मसंभव तंत्रविद्या के प्रकांड विद्वान थे। गुरु पद्मसंभव ने आमंत्रण स्वीकार किया और तिब्बत में पहुँचकर दोर्जे-गुर-छम नामक तांत्रिक नृत्यानुष्ठान करके विहार के निर्माण में बाधक तत्त्वों को समाप्त किया। इस प्रकार तिब्बत में समये नामक बौद्ध विहार की स्थापना हुई, जो तिब्बत में छम नृत्य के विकास का पहला केंद्र बना। कालांतर में संस्कृत ग्रंथों के तिब्बती भाषा में हुए अनुवाद के माध्यम से तिब्बत में छम नृत्यानुष्ठान की विधियों का, इसकी बारीकियों और इसके प्रयोजन का अध्ययन सुलभ हुआ।
लदाख में तिब्बत से आने वाली महायान बौद्ध परंपरा के साथ ही छम या मुखौटा नृत्य की परंपरा प्रचलित हुई। ऐसी मान्यता है कि गुरु पद्मसंभव का लदाख में आगमन हुआ था और उन्होंने वर्तमान करगिल जनपद के जङ्स्कर क्षेत्र में स्थित कनिका स्तूप के निकट तांत्रिक साधना की थी। संभव है कि उन्होंने इस स्थान की नकारात्मक शक्तियों को नष्ट करने के लिए तांत्रिक नृत्यानुष्ठान भी किया हो। इस प्रकार लदाख की विभिन्न प्राचीन गोनपाओं में छम की परंपरा प्रचलित हुई। लदाख की सभी प्रमुख गोनपाओं में वार्षिक पूजा-अनुष्ठान के समय भिक्षुओं द्वारा धर्मरक्षकों, धर्मपालों, रक्षकों, देव, डाकिनियों आदि के मुखौटे लगाकर, उनके हस्त-प्रतीकों को धारण करके छम नृत्यानुष्ठान करने की प्राचीन परंपरा देखने को मिलती है। छम नृत्य की विभिन्न मुद्राएँ धार्मिक कार्यों में बाधा पहुँचाने वाले शत्रुओं को, नकारात्मक शक्तियों का शमन करने की प्रक्रिया प्रदर्शित करती हैं। इनमें नकारात्मक शक्तियों को बाँधना, कुचलना, काटना आदि शामिल होता है। बौद्ध धर्म की महायान साधना परंपरा में चार प्रकार के संप्रदाय हैं। इन्हें सा-क्या, कर्ग्युद, ञिङमा और गेलुग के नाम से जाना जाता है। इन चारों संप्रदायों में सामान्य भिन्नताएँ होती हैं। लदाख में इन चारों संप्रदायों के विशिष्ट जनों द्वारा, रिनपोछे द्वारा छम का प्रारंभ किया गया। लदाख में प्रत्येक संप्रदाय से संबद्ध प्रमुख गोनपाओं में होने वाले छम नृत्यों में भी सामान्य विभेद होता है। यह भिन्नता मुखौटों, नृत्य के दौरान पद संचालन, नर्तकों के आगे-पीछे मुड़ने की विधि, पदचाल की संख्या और वाद्य यंत्रों के प्रयोग की विधियों में होता है। ये विभिन्नताएँ सामान्य दर्शकों को समझ में नहीं आ सकतीं।
लदाख की गोनपाओं में छम नृत्यानुष्ठान प्रायः कृष्णपक्ष की अठारहवीं से उनीसवीं तिथियों में या अठाईसवीं से उनतीसवीं तिथियों में आयोजित किए जाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि जिस तरह कृष्णपक्ष में चंद्रमा की रोशनी क्रमशः घटती जाती है, उसी तरह छम के प्रभाव से नकारात्मक शक्तियों की, धर्मशासन को हानि पहुँचाने वाले शत्रुओं की शक्ति भी क्रमशः घटती जाती है। लदाख में स्थित विभिन्न प्रमुख गोनपाओं में आयोजित होने वाले छम की तिथियाँ अलग-अलग होती हैं, साथ ही छम में प्रदर्शित होने वाले दैवीय स्वरूपों में भी अंतर होता है। भोटी पंचांग के अनुसार पाँचवें माह की नवमी एवं दशमी तिथियों को हेमिस छेसचू के अवसर पर हेमिस गोनपा में छम का आयोजन होता है। हेमिस गोनपा में गुरु छ़नग्यद (अष्टगुरु पद्मसंभव) के साथ ही देव, डाकिनी और धर्मरक्षकों का नृत्यानुष्ठान होता है। भोटी पंचाङ के छठे मास की नवमी एवं दशमी तिथियों में डगथोग गोनपा में छेसचू या दशमी उत्सव के अवसर पर वज्रपाणि तथा गुरु छनग्यद का छम होता है। चेमड़े गोनपा में भोटी पंचाङ के नौवें माह की अट्ठाइसवीं एवं उनतीसवीं तिथि पर वङछोग अनुष्ठान के अवसर पर महाकाल एवं अन्य धर्मरक्षकों का छम होता है। इन्हीं तिथियों में डगथोग गोनपा में होने वाले वङ्छोग अनुष्ठान में वज्रकुमार, युमखोर लोग्यद दनमा, दस रौद्र और ल्हमो आदि का छम होता है। इस तरह लदाख की विभिन्न गोनपाओं में धर्मराज महाकाल के माता-पिता का छम, षड्भुज महाकाल, श्वेत महाकाल, वैश्रवण, हिरण और चमरी आदि का छम होता है। छम नृत्यानुष्ठान में पाई जाने वाली ये विविधताएँ अलग-अलग कथा-सूत्रों के माध्यम से श्रद्धालुओं की धर्मपिपासा को शांत करती हैं।
छम नृत्यानुष्ठान में मुखौटों का विशेष महत्त्व होता है, क्योंकि मुखौटों के माध्यम से ही स्वरूपों का पता चलता है। छम में प्रयुक्त होने वाले मुखौटे लकड़ी या मिट्टी के बने होते हैं। मुखौटों के रंग और उनके आकार धर्मरक्षक, देव, डाकिनी और अन्य दैवीय स्वरूपों के अनुसार होते हैं। मुखौटे प्रायः नीले, पीले, सफेद और लाल रंग के होते हैं। धर्मरक्षकों के लिए कंकाल के आकार वाले मुखौटे और वस्त्र होते हैं। छम नृत्य करने वाले भिक्षुओं के लिए वस्त्र भी विशेष प्रकार के होते हैं। रेशमी छम-वस्त्रों को पङखेब कहा जाता है। छम नृत्य के दौरान तलवार, कपाल, त्रिशूल, कील और धनुष-बाण आदि भी धारण किए जाते हैं। छम के दौरान काली टोपी धारण करने वाले साधक के प्रतीक होते हैं, जो शत्रु-नाशक कपाल के माध्यम से नकारात्मक शक्तियों का विनाश करते हुए दिखते हैं। छम नृत्यानुष्ठाने के लिए संगीत-ध्वनियाँ भी विशिष्ट होती हैं और साथ ही वाद्य-यंत्र भी अलग होते हैं। छम नृत्य के लिए प्रयोग होने वाला रगदोङ ताँबे से बना लंबा-सा तुरहीनुमा वाद्ययंत्र होता है, जिसे दो या तीन हिस्सों में अलग किया जा सकता है। रगदोङ को बजाने के लिए विधिवत् शिक्षा लेनी पड़ती है और परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी पड़ती है। रगदोङ की छम नृत्य में मुख्य भूमिका होती है, क्योंकि इसकी धुन पर ही छम नृत्य का संचालन होता है। बुगजल बड़े आकार के मंजीरे या खतल के समान होता है। स्ङा बड़े आकार की गोलाकार लकड़ी का बना हुआ वाद्ययंत्र होता है और इसे एक लंबी धनुषाकार लकड़ी द्वारा बजाया जाता है।
छम नृत्यानुष्ठान गोनपा के विशाल प्रांगण में खुले आसमान के नीचे किया जाता है। यह प्रांगण प्रायः मुख्य मंदिर के सम्मुख होता है। छम नृत्य के दौरान प्रायः उन देवी-देवताओं या धर्मरक्षकों के थङ्का चित्र भी प्रदर्शित किए जाते हैं, जिनका छम होता है। खुले आसमान के नीचे होने वाले इस तांत्रिक अनुष्ठान में प्राकृतिक आपदाएँ, जैसे- बरसात, आँधी आदि न आएँ, इसके लिए भी पूजा की जाती है, तत्पश्चात छम का प्रारंभ होता है। गोनपाओं में आयोजित होने वाले छम नृत्यानुष्ठान को देखने के लिए तमाम श्रद्धालुगण एकत्रित होते हैं। यह नृत्य मनोरंजन के लिए नहीं, वरन् तांत्रिक अनुष्ठान के लिए होता है, इस कारण इसके दर्शन-मात्र से ही व्यक्ति की सारी विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं। छम नृत्य को देखना शुभ माना जाता है। इस कारण आस्थावान श्रद्धालु छम नृत्यानुष्ठान के दर्शन-लाभ के लिए उमड़ पड़ते हैं और खुले आसमान के नीचे श्रद्धाभाव से करबद्ध होकर अपने कल्याण की कामना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि देवों और धर्मरक्षकों के मुखौटों के दर्शन से ही जीवन में विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं और चित्त को असीमित शांति मिलती है।
लदाख अंचल की गोनपाओं में अलग-अलग तिथियों में आयोजित होने वाले धार्मिक अनुष्ठान लदाख की धर्मभीरु जनता के लिए जीवन के संघर्षों को, जीवन की जटिलताओं और मुसीबतों को झेलने की ताकत देते हैं। छम नृत्यानुष्ठान के दर्शन-लाभ से उनकी आस्था की पुष्टि ही नहीं होती, वरन् उन्हें जीवन जीने की नई दिशा भी मिलती है। विश्व के कल्याण का भाव, सभी जीवों के कल्याण का बोध; सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा और करुणा जैसे उदात्त गुणों का विकास भी होता है। संभवतः इसी कारण छम नृत्य के प्रति पर्यटकों की जिज्ञासा भी देखने को मिलती है और प्रतिवर्ष अनेक देशी-विदेशी पर्यटक छम नृत्यानुष्ठान का दर्शन करने के लिए लदाख की यात्रा करते हैं। भारत की पुरातन धार्मिक आध्यात्मिक परंपरा के संरक्षित स्वरूप के साथ ही हिमालय अंचल की विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के रूप में लदाख में प्रचलित छम नृत्य का अपना अतुलनीय स्थान है।  
कार्यकारी संपादक- नूतनवाग्धारा

       (दूरदर्शन केंद्र, लेह द्वारा वृत्तचित्र निर्माण एवं दिनांक 01 अप्रैल, 2016 को 1730 से 1800 बजे तक प्रसारित।) 

Sunday 25 September 2016

लदाख की थङ्का चित्रकला

लदाख की थङ्का चित्रकला

हिमालय के ऊँचे-ऊँचे पहाड़, आसमान को छूते हुए। पहाड़ों की चोटियों पर चमकती सफेद बर्फ। साफ, धुले हुए जैसे दिखने वाले नीले गगन में तैरते रूई के गोलों जैसे बादलों के झुंड। सूरज की रोशनी में लालिमा से भरी बादलों की टुकड़ियाँ। प्रकृति के इस मनमोहक नजारे को लदाख की धरती पर देखा जा सकता है। लदाख में प्रचलित चित्रकलाओं में प्रकृति के ऐसे नज़ारे देखने को मिलते हैं। लदाख धर्म और साधना की भूमि रही है, इसलिए यहाँ की अधिकांश चित्रकला भी धार्मिक आस्था से जुड़ी हुई है। धार्मिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाले चित्र इस क्षेत्र में बहुत पुराने समय से प्रचलित रहे होंगे, इसलिए लदाख की गोनपाओं में सुशोभित पट्टचित्र, जिन्हें स्थानीय भाषा में थङ्का कह जाता है, उनमें ऐसे प्राकृतिक सौंदर्य को देखा जा सकता है। मोटे कपड़े में बने हुए बुद्ध, बोधिसत्व, तांत्रिक देवी-देवताओं और तांत्रिक मंडलों आदि के चित्रों को थङ्का कहा जाता है। अगर अतीत में उतरकर देखें, तो इन पट्टचित्रों या थङ्काओं में लदाख के अतीत की झाँकी देखने को मिलती है।
लदाख के इस प्राकृतिक सौंदर्य के बीच जीवन की जटिलता भी कम नहीं है। आवागमन के साधनों की, संसाधनों की और दैनिक जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं की कमी यहाँ के जीवन को जटिल बना देती है। जब जीवन कठिन हो जाता है और जीवन की कठिनाइयों से जूझने के लिए कोई बाहरी रास्ता नज़र नहीं आता, तब एक ही रास्ता बचता है- आस्था का। अतीत में, जब जीवन की जटिलताएँ बहुत ज्यादा थीं, उस समय आस्था भी प्रबल थी। इसी कारण पूजा और साधना के लिए विविध माध्यमों का विकास हुआ। साधकों और तपस्वियों के लिए साधना के अलग रूप हो सकते हैं, मगर आम जनता के लिए उन कठिन रास्तों को अपनाना कठिन होता है। शायद इसी जरूरत ने आम जनता के लिए आस्था के फलने-फूलने के माध्यमों का विकास किया। बौद्ध धर्म में इसी कारण मूर्तियों, स्तूपों, चित्रों, देवालयों और मठों को पूजा एवं साधना में विशेष स्थान मिला। संस्कृत में श्लोक है-
संबुद्धचित्र-  मूर्त्यादिस्तूपसद्धर्मसंमुखः ।
पुष्पैः धूपैः पदार्थैश्च यथाप्राप्तैः सुपूजयेत् ।।
अर्थात्, भगवान् बुद्ध के चित्र, मूर्ति, स्तूप आदि सद्धर्म के प्रतिरूप हैं। इनके समक्ष अपनी भक्ति-भावना को प्रकट करना ही सच्चा धर्म है। इसलिए पुष्प, धूप और अन्य पूजा-सामग्री के साथ पूरी आस्था के साथ इनकी पूजा करनी चाहिए। इससे पुण्य का लाभ होता है। इसी कारण भगवान् बुद्ध की मूर्तियाँ, उनके चित्र और स्तूप आदि की पूजा का विशेष विधान लदाख अंचल में देखने को मिलता है। विभिन्न परंपराओं तथा शैलियों से संपन्न ये कलाएँ  बोधिप्राप्ति के लिए उपयोगी बनकर लदाख के जनजीवन में गहराई तक उतरी हुई हैं। बौद्ध धर्म में शमथ, अर्थात् मन की शांति पाने का प्रयास ही साधना के प्रथम चरण में होता है। इस प्रकार शमथ या मन की शांति ही साधना की पहली सीढ़ी है, जिसे पाने के बाद अभिज्ञा बल, अर्थात् समझने-विचारने की शक्ति प्राप्त होती है। इस अभिज्ञा बल की साधना से सम्बोधि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार सम्बोधि के स्तर तक पहुँचने के लिए साधकों को शमथ की पहली सीढ़ी चढ़नी होती है, जो मूर्ति तथा चित्रकलाओं के माध्यम से पाई जा सकती है। आचार्य दीपांकर श्रीज्ञान अतिशा ने इसी कारण शमथ की साधना हेतु मूर्ति तथा चित्रकलाओं के महत्त्व पर बल दिया है।
लदाख अंचल अपने अतीत से ही बौद्ध साधना का प्रमुख केंद्र रहा है और यहाँ पर अनेक कलाओं का विकास भी होता रहा है, जिनका महत्त्व बौद्ध धर्म की साधनाओं में, विभिन्न साधना-पद्धतियों में है। स्तूपों, मूर्तियों और भित्तिचित्रों के साथ ही लदाख अंचल में प्रचलित थङ्का चित्रकला इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखती है। लदाख में थङ्का चित्रकला के विकास का इतिहास भी बहुत रोचक और विविधता से भरा हुआ है। भोट भाषा में एक धर्मशासक जिग-तुल का उल्लेख मिलता है, जिन्हें भारतीय परंपरा में राजा भयजित के रूप में जाना जाता है। राजा भयजित ने एक ब्राह्मण के दिवंगत बेटे को पुनः जीवित करने के लिए ब्रह्मा जी के कहने पर ब्राह्मण के बेटे का चित्र बनाया और ब्रह्मा जी ने उसे जीवन दिया। इस प्रकार राजा भयजित को संसार के पहले चित्रकार के रूप में जाना गया। राजा भयजित या जिग-तुल से ब्रह्मा जी ने कहा कि जिस तरह पर्वतों में मेरु श्रेष्ठ है, पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ है, उसी तरह विभिन्न कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ है, इसलिए चित्रकला को प्रोत्साहित करो। इसके उपरांत ही ब्रह्मलोक के राजा और विश्वकर्मा जी ने चित्रकला की शिक्षा उपलब्ध कराई और इसके लाभ को, इससे होने वाले धर्मार्थ को जनता के लिए सुलभ कराया। चित्रकला की उत्पत्ति एवं विकास से संबंधित इस लोककथा का वर्णन बौद्ध ग्रंथ तंग्युर में मिलता है। एक अन्य लोककथा के अनुसार चित्रकला का उद्भव वर्तमान बिहार के मगध राज्य में हुआ। यहाँ के राजा बिंबिसार और राजा उत्तायण घनिष्ठ मित्र थे और एक-दूसरे को बहुमूल्य उपहार भेजा करते थे। एक बार उत्तायण ने बहुमूल्य मणि बिबिंसार को भेजी। बदले में बिंबिसार ने उन्हें भगवान बुद्ध का चित्र भेजना सुनिश्चित किया। भगवान बुद्ध की अलौकिक छवि से ऐसी विलक्षण किरणें निकलने लगीं कि चित्रकारों को चित्र बनाना ही कठिन हो गया और तब भगवान बुद्ध ने कहा कि कपड़े पर पड़ रही मेरी छाया को ही रंग दो। इस तरह बने हुए चित्र को बिंबिसार ने अपने मित्रको उपहारस्वरूप भेजा और यहीं से चित्रकला की शुरुआत हुई। बौद्ध ग्रंथों में भी भगवान बुद्ध के चित्र बनाने की कला का वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में विनय सूक्त, मंजुश्री मूलकल्प और समवरोदया तंत्र आदि का उल्लेख किया जा सकता है। लदाख में थङ्का चित्रकला के विकास को इन कथाओं और ग्रंथों में देखा जा सकता है।


लदाख में थङ्का चित्रकला के विस्तार की एक धारा कश्मीर से आई। कहा जा सकता है कि लदाख अंचल में चित्रकला का प्रारंभिक आगमन कश्मीर से ही हुआ। कश्मीर में हर्ष के समय से ही कुछ ऐसे चित्रकार थे, जिन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त था। कश्मीर में नाग शैली के साथ ही गौड़ीय और कोंकणी शैली भी प्रचलित थी, जो लदाख अंचल के निचले इलाकों में प्रचलित हुई। लदाख में थङ्का चित्रकला की दूसरी धारा तिब्बत से आई। तिब्बत में थङ्का चित्रकला की परंपरा नेपाल और चीन से पहुँची। सातवीं शताब्दी में तिब्बत के राजा स्रोंङ्-चेन-गम्पो ने नेपाल की राजकुमारी भृकुटी देवी और चीन की राजकुमारी कोंग-जोङ् से विवाह किया था। इन दोनों के साथ ही नेपाली चित्रकला शैली और चीनी चित्रकला शैली का तिब्बत में विस्तार हुआ। इस कारण दोनों रानियों को तारादेवी के अवतार के रूप में प्रतिष्ठा भी प्राप्त हुई है। नेपाली और चीनी चित्रकला परंपरा मूलतः भारतीय ही थी, जो स्थान और समय के अनुरूप अपने परिवर्तित रूप में तिब्बत में विकसित हुई। ग्यारहवीं शताब्दी में तिब्बत के प्रख्यात अनुवादक लोचावा रिंचेन जङ्पो के साथ कश्मीरी चित्रकला परंपरा भी तिब्बत पहुँची। इस तरह तिब्बत में कश्मीरी, पाल, चीनी, नेपाली, मंगोलियाई और खोतानी चित्रकलाओं के संगम से एक नई चित्रकला परंपरा का उदय हुआ। तिब्बत में विकसित हुई इस चित्रकला परंपरा में दो प्रमुख पद्धतियाँ प्रचलित हुईं। इनमें मन्-रिस् चित्रकला परंपरा का विकास नेपाल की शैली के प्रभाव में हुआ। इसमें नीले, हरे और सुनहरे चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है। करमा-गरङिस् या गरचित्र परंपरा का विकास चीनी शैली से हुआ। इसमें हलके रंगों का प्रयोग होता है। तिब्बत का त्सङ् नामक स्थान थङ्का चित्रकला के अध्ययन-अध्यापन एवं निर्माण के लिए प्रसिद्ध था और यहाँ पर विकसित हुई थङ्का चित्रकला शैली को स्थान-नाम के अनुसार त्सङ्-रिस् नाम मिला। लदाख के भिक्षुगणों ने प्रायः यहीं से अध्ययन करके लदाख में त्सङ्-रिस् नामक चित्रकला शैली को विकसित किया। इस कारण लदाख में त्सङ्-रिस् थङ्का चित्रकला अपेक्षाकृत अधिक देखने को मिलती है।    
जिस समय कश्मीर सहित दुनिया के तमाम देशों में बौद्ध धर्म की महायान परंपरा का अस्तित्व सिमट रहा था, उस समय तिब्बत में यह परंपरा फल-फूल रही थी। लदाख अंचल के अनेक भिक्षु और बौद्ध विद्वान ज्ञानार्जन के लिए तिब्बत जाते थे। लदाख से तिब्बत आवागमन का यह क्रम तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के आसपास अपने चरम पर था। चूँकि महायान साधना पद्धति में चित्रकला का महत्त्वपूर्ण स्थान था, इस कारण लदाख के भिक्षुओं को चित्रकला का ज्ञान अनिवार्य रूप से प्राप्त करना होता था। वे लदाख लौटते समय थङ्का चित्रों के साथ ही इनके निर्माण का ज्ञान भी अपने साथ लाए और कालांतर में लदाख में थङ्का चित्रकला की उस परंपरा का विकास हुआ, जिसे आज हम जीवंत रूप में लदाख की धार्मिक परंपराओं और रिवाजों में देखते हैं। लदाख में विभिन्न कलाओं का विकास पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में हुआ। इसी अवधि में लदाख में थङ्का चित्रकला भी विकसित हुई। लदाख की अनेक गोनपाओं में इस अवधि के थङ्का चित्रों को देखा जा सकता है। इनमें से कई थङ्का चित्र अत्यंत दुर्लभ हैं और धार्मिक महत्त्व के साथ ही यहाँ के निवासियों की कलाप्रियता को भी प्रदर्शित करते हैं।
थङ्का चित्रों को बनाना अत्यंत पुनीत और धार्मिक कार्य माना जाता है। इस कारण थङ्का चित्रकारों को बौद्ध धर्म में बताए गए शील और विनय का पालन करना अनिवार्य होता है। बदलते परिवेश में भले ही नियमों में शिथिलता आई हो, गमर आज भी तङ्का चित्रकार बड़ी सरल और विनम्र जीवन-शैली व्यतीत करते देखे जा सकते हैं। थङ्का चित्रों को बनाने के लिए जिस मोटे कपड़े का प्रयोग होता है, उसे काशिका कहा जाता है। काशी से आने के कारण ही संभवतः इसे काशिका कहा जाता है। कपड़े को चित्रांकन के लिए तैयार करने से पहले गुनगुने पानी में गोंद और चूना मिलाकर भिगोया जाता है, फिर उसे लकड़ी के बने साँचे में कस दिया जाता है। इसे धूप में सुखाने के बाद चूने का पानी छिड़ककर घिसा जाता है। कड़ी मेहनत के बाद यह चित्रांकन के लिए तैयार होता है। थङ्का चित्रों के निर्माण के लिए शास्त्रीय विधि से माप और रंगों का चयन किया जाता है। देवी-देवताओं, धर्मपालों और मंडलों के चित्र-निर्माण हेतु निश्चित माप और रंग-संयोजन होता है। माप और रंग-संयोजन के आधार पर थङ्का चित्र कई प्रकार के होते हैं। लदाख में विभिन्न प्रकार के थङ्का चित्रों को बनाने का प्रचलन है। इनमें त्सोन-थङ् थङ्का विभिन्न प्रकार के तैलीय रंगों को सफेद पृष्ठभूमि में उकेरकर करके बनाई जाती है। सेर-थङ् थङ्का में सोने की परत पर सिंदूरी रंग से चित्रण किया जाता है। ङुल-थङ् में छोन-थङ् और सेर-थङ् का मिश्रण होता है। नग-थङ् थङ्का का निर्माण सफेद कपड़े पर काले रंग की पृष्ठभूमि देकर सुनहरे रंग के साथ रंगकर किया जाता है। थग-डुब थङ्का का निर्माण सोने और चाँदी के धागों से किया जाता है। छ़ेम-डुब थङ्का का निर्माण अनेक धागों की कढ़ाई के द्वारा किया जाता है। रेशमी वस्त्र पर गोस-डु थङ्का का निर्माण होता है, जबकि लेन-देबस् थङ्का में सफेद कपड़े पर कपड़ों के रंग-बिरंगे टुकड़ों को चिपकाकर चित्राकृति दी जाती है। तैलीय रंगों के प्रयोग की सुगमता के कारण वर्तमान में त्सोन-थङ् थङ्का के निर्माण का प्रचलन देखा जा सकता है।
थङ्का निर्माण की प्रकिया में सबसे पहले खाका बनाने का काम होता है, जिसे नक्-च्यत् कहा जाता है। खाके में रंग भरने के काम को त्सोन कहते हैं। रंगों के संयोजन और उनके विस्तार को शिब-छा कहते हैं। चित्र में रंगों को गहरा करके छाया दर्शाने का काम कम-म्दंग्स (skam mdangs) कहलाता है। चित्र में सोने की जैसी चमक पैदा करने हेतु ग्जी (gzi) और सुनहरे रंग से किनारा करने के लिए सेर-च्यत् का कार्य संपन्न किया जाता है और अंत में आँखों के निर्माण स्च्यन-फस के साथ चित्र अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। बने हुए चित्र को उपयोग के लिए तैयार करने और सुरक्षित रखने हेतु सुंदर-से रंग-बिरंगे आयताकार कपड़े कोङ्-शम् में बीचोबीच सिल दिया जाता है। कपड़े के दोनों किनारों पर सुंदर नक्काशीदार बेलनाकार लकड़ी लगाई जाती है, जिस पर कपड़े को लपेटा जा सके। इस प्रकार थङ्का चित्र तैयार हो जाता है।

लदाख की धार्मिक परंपराओं में थङ्का चित्रों का बहुत महत्त्व होता है। इन्हें गोनपाओं में प्रदर्शित किया जाता है। लदाख की अनेक प्रमुख प्राचीन गोनपाओं में अनेक बहुमूल्य थङ्काएँ हैं। इनमें से कई थङ्काएँ पाँच से दस मीटर तक लंबी भी हैं। ये प्राचीन बहुमूल्य थङ्काएँ गोनपाओं के वार्षिक पूजा-अनुष्ठान के समय श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ प्रदर्शित की जाती हैं। बेशकीमती थङ्काओं के साथ ही विभिन्न देवी-देवताओं, अर्हतों, धर्मपालों, तांत्रिक मंडलों की अनेक थङ्काएँ भी गोनपाओं में श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ प्रदर्शित की जाती हैं। लदाख की लोकपरंपरा में थङ्का चित्रकलाओं को जीवित-जीवंत रखने के लिए अनूठी व्यवस्था की गई है। समाज के धनी व्यक्ति अकसर गंभीर बीमारियों से बचने के लिए या किसी गंभीर बीमारी से बच जाने पर थङ्का चित्र का निर्माण कराकर गोनपा में भेंट करते हैं। इसके साथ ही अपने दिवंगत प्रियजन की आत्मा की शांति के लिए भी लोग थङ्का चित्रों का निर्माण कराते हैं और उन्हें गोनपाओं में चढ़ाते हैं। लोकपरंपरा में जीवित रहने के कारण थङ्का चित्रों के निर्माण की पुरानी परंपरा आज भी जीवित है। लदाख अंचल में थङ्का चित्रकला को संरक्षित एवं सवर्द्धित करने हेतु जम्मू-कश्मीर के हस्तशिल्प विभाग द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है। आजकल परंपरागत थङ्का चित्रकला के साथ चित्रांकन की आधुनिक पद्धतियों के संयोजन से चित्रांकन की नई तकनीक विकसित हुई है, जिसकी आजकल बहुत माँग है। लदाख में आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को भी थङ्का चित्र बहुत प्रभावित करते हैं और वे भी अत्यंत आस्था के साथ इन्हें खरीदते हैं।
इस प्रकार लदाख अंचल में थङ्का चित्रकला अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ लदाख में बौद्ध धर्म की अपनी अनूठी धार्मिक पहचान को सहेजे हुए है। लदाख की थङ्का चित्रकला के माध्यम से एक ओर भारतीय चित्रकला संरक्षित है, तो दूसरी ओर यह थङ्का चित्रकला देश-दुनिया को अपने अनोखे आध्यात्मिक ज्ञान से आलोकित भी कर रही है।
कार्यकारी संपादक- नूतनवाग्धारा


      (दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख द्वारा वृत्तचित्र-निर्मा एवं दिनांक 13 नवंबर, 2015 को 1800 बजे प्रसारित)
(एक तिब्बती थङ्का चित्रकार)
                   

Thursday 28 May 2015

हिंदी आलोचना का विकास-क्रम और भविष्य की दिशा-दशा




हिंदी आलोचना का विकास-क्रम और भविष्य की दिशा-दशा

आलोचना शब्द की उत्पत्ति लुच् धातु से हुई है। इसका अर्थ होता है, देखना। समाज और साहित्य के मध्य स्थापित संबंधों को देखने का कार्य आलोचना के माध्यम से होता है। साहित्य की सामाजिक प्रासंगिकता को स्थापित करते हुए पाठकों के बीच साहित्य को ले जाना और इस संबंध को उत्तरोत्तर विकसित करते जाना आलोचना की बुनियादी प्राथमिकता होती है। इस कारण आलोचना स्वतंत्र साहित्यिक विधा होती है। भारतीय साहित्य में आलोचना की दीर्घ एवं विकसित परंपरा काव्य-तत्त्व के अनुसंधान की जिज्ञासा को तृप्त करने हेतु विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से संपृक्त रहकर निरंतर प्रवाहित होती रही है। इस कारण उसका स्वरूप शास्त्रीय एवं सैद्धांतिक रहा है। भारतीय आलोचना रचनाओं के परीक्षण या मूल्यांकन मात्र तक सीमित नहीं रही। संभवतः इन्ही कारणों से भारतीय आलोचना को ‘अलंकार-शास्त्र’ या ‘काव्य-शास्त्र’ जैसे स्वतंत्र शास्त्र के रूप में, स्वतंत्र विधा के रूप में जाना जाता है।
रस-सिद्धांत की स्थापना करने वाली आचार्य भरत मुनि की रचना नाट्यशास्त्र (लगभग 150 ई.) को भारतीय साहित्य में आलोचना की सर्वप्रथम कृति माना जाता है। भरत मुनि ने इस सिद्धांत की स्थूल रूप-रेखा ही प्रस्तुत की थी, किंतु परवर्ती विद्वानों- भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, धनंजय, विश्वनाथ प्रभृति- ने इसके विभिन्न पक्षों का और अधिक विश्लेषण-विवेचन प्रस्तुत करते हुए इसे पर्याप्त स्पष्ट एवं विकसित रूप प्रदान किया है। वस्तुतः रस-सिद्धांत भारतीय साहित्यशास्त्र की सर्वोत्तम एवं गौरवपूर्ण उपलब्धि है, जिस पर परवर्ती युग का अधिकांश आलोचनात्मक साहित्य आधारित है।1
अलंकार सिद्धांत, रीति सिद्धांत, ध्वनि सिद्धांत, वक्रोक्ति सिद्धांत आदि के निरूपण, व्याख्या, समन्वय और संशोधन का क्रम भरत मुनि से लेकर सत्रहवीं शती के अंत तक चलता रहा। उदाहरण या सूक्ति के माध्यम से कुछ विशिष्ट कृतियों के सामान्य गुण-दोषों की स्फुट चर्चा के अतिरिक्त विस्तृत समीक्षा इस कालखंड में प्राप्त नहीं होती है। संस्कृत के ‘काव्यशास्त्र’ या ‘क्रियाकल्प’ से रस-संचय करके प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के साहित्यकारों ने इस विधा को समृद्ध किया। हिंदी-काव्य के विकास के कालखंड में, मध्यकाल में केशव, चिंतामणि, भिखारीदास आदि कवियों ने संस्कृत काव्यशास्त्र के कुछ प्रमुख एवं प्रचलित सिद्धांतों को लेकर ग्रंथों की रचना की। हिंदी के आधुनिक काल की शुरुआत के पूर्व हिंदी पद्य में रचे गए काव्यशास्त्रीय ग्रंथ भले ही मौलिक न रहे हों और संस्कृत काव्यशास्त्र के पद्यानुवाद तक सीमित रह गए हों, तथापि भारतीय साहित्य की काव्यशास्त्रीय परंपरा को हिंदी के आधुनिक युग से जोड़ने की कड़ी का दायित्व इन ग्रंथों ने निभाया है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
हिंदी के आधुनिक युग की शुरुआत के साथ साहित्य में अनेक बदलाव परिलक्षित होते हैं। आधुनिक युग में गद्य का विस्तार और विकास भी होता है। हिंदी साहित्य के आधुनिक स्वरूप के उदय एवं इसके विस्तार में भारतेंदु हरिश्चंद्र का अमूल्य योगदान है। आधुनिक हिंदी साहित्य के जन्मदाता एवं पोषक विराट् साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी साहित्य के सभी उपेक्षित अंगों का विकास किया था, अतः आलोचना साहित्य भी उनके युग-परिवर्तनकारी करों के स्पर्श से वंचित कैसे रह सकता था। यदि संस्कृत के प्रथम आचार्य भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ लिखा तो आधुनिक हिंदी के जनक बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘नाटक’ की रचना की।2  सन् 1883 में प्रकाशित इस कृति में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने प्राचीन भारतीय नाट्यशास्त्र के साथ ही यूरोप के नाट्यसाहित्य का उल्लेख करते हुए पाश्चात्य समीक्षा-साहित्य का समन्वय भारतीय साहित्य-शास्त्र के साथ किया। यह ऐसा प्रस्थान-बिंदु कहा जा सकता है, जहाँ से आधुनिक आलोचना विधा की शुरुआत मानी जाती है। प्रारंभिक हिंदी आलोचना संस्कृत आलोचना पर ही आधारित थी। जब तक खड़ीबोली का उदय हुआ तब तक विदेशी साहित्य से हम प्रभावित होने लगे थे। खासकर हिंदी गद्य साहित्य के साथ ऐसा हुआ और उसके लिए जिस आलोचना का उदय हुआ, वह कई मामलों में पश्चिम की हू-ब-हू नकल था। साहित्य और आलोचना दोनों पर पश्चिम के साहित्य और आलोचना के न केवल प्रभाव को देखा जा सकता है, वरन् कई बार पूरे-पूरे अनुवाद को हम पाते हैं।3 भारतेंदु युग में विकसित हुई साहित्यिक विधाओं का पोषण प्रायः अनूदित साहित्य के माध्यम से हुआ। इस कारण आलोचना की नवोदित धारा पर भी इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। यदि सकारात्मक पक्ष को देखा जाए तो आलोचना के क्षेत्र में नवीन संभावनाओं के सृजन हेतु भारतेंदु और उनकी परंपरा में चलने वाले बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट, गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, और अंबिकादत्त व्यास आदि ने अमूल्य योगदान दिया। आनंद कादंबिनी और हिंदी प्रदीप पत्रिकाओं में प्रकाशित आलोचनाओं को हिंदी आलोचना की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है।
हिंदी आलोचना के विकास का दूसरा चरण द्विवेदी युग से शुरू होता है। सरस्वती के संपादक के रूप में सन् 1930 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अवतरण हुआ। उन्होंने संस्कृत के कई कवियों की समीक्षा की। उनके द्वारा रचित ‘विक्रमांकदेव चरित’ ‘नैषधचरित चर्चा’ और ‘कालिदास की निरंकुशता’ आदि निबंध कृतियों के परिचय के साथ ही कृति और कवि, दोनों के गुण-दोषों का निष्पक्ष विवेचन करते हैं। ‘कवि और कविता’ नामक निबंध में द्विवेदी जी ने कवि-कर्म और कवि-कर्म की परिणति, दोनों की स्पष्ट, व्यावहारिक और सामयिक आलोचना करके जो निष्कर्ष दिए हैं, वे वर्तमान में भी प्रासंगिक बने हुए हैं। द्विवेदी युग के अन्य प्रसिद्ध आलोचकों में मिश्र बंधु (गणेशबिहारी मिश्र, श्यामबिहारी मिश्र और शुकदेवबिहारी मिश्र), पं. पद्मसिंह शर्मा, कृष्णबिहारी मिश्र और लाला भगवानदीन का नाम आता है। मिश्र बंधु द्वारा रचित हिंदी नवरत्न, मिश्र बंधु विनोद; पद्मसिंह शर्मा द्वारा रचित बिहारी सतसई की भूमिका; कृष्णबिहारी मिश्र द्वारा रचित देव और बिहारी तथा लाला भगवानदीन द्वारा रचित बिहारी और देव आदि ग्रंथ हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अपना महत्त्व रखते हैं। वस्तुतः द्विवेदी-युगीन साहित्य भारतेंदु-युगीन साहित्य की ही भाँति प्रेरणा देने का कार्य अधिक करता है। उस काल की प्रधान दृष्टि यही थी,  आलोचना भी इस दृष्टि से प्रभावित थी। आचार्य द्विवेदी इसका प्रतिनिधित्व करते थे। चूँकि पुनर्जागरणकालीन भारत आगे बढ़ने के लिए कृत संकल्प था, अतः रीतिकालीन प्रवृत्तियों पर नई यानि वैज्ञानिक और सामाजिक प्रवृत्तियाँ हावी हो रहीं थीं। भारतेंदु द्वारा प्रारंभ किए हुए कार्य को आचार्य द्विवेदी ने आगे बढ़ाया- मुख्यतः आलोचना और संपादन के क्षेत्र में।4
हिंदी साहित्य के शुरुआती कालखंड में, भारतेंदु युग में रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों की परंपरा में सैद्धांतिक आलोचना के अतिरिक्त ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली गद्य में लिखी गई टीकाओं और इतिहास ग्रंथों में कवि-परिचय के रूप में लिखी गई परिचयात्मक आलोचना का सूत्रपात हुआ। द्विवेदी युग में सैद्धांतिक आलोचना, परिचयात्मक आलोचना के अतिरिक्त तुलनात्मक एवं मूल्यांकनपरक आलोचना, अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक आलोचना तथा व्याख्यात्मक आलोचना का विकास हुआ। द्विवेदी युग के परवर्ती छायावाद युग में साहित्य की अन्य विधाओं के नए दौर में प्रवेश करने के साथ ही हिंदी आलोचना में भी एक नए युग का सूत्रपात हुआ। उपन्यास और कहानी विधाओं के विकास के साथ ही कविता और नाटक में उदित होती नवीन प्रवृत्तियों के विवेचन और विश्लेषण हेतु आलोचना विधा की अनिवार्यता नए ढंग से स्थापित हुई और आलोचना विधा का विकास-विस्तार सामयिक आवश्यकता बनकर उभरा। इसके साथ छायावादी काव्य-प्रवृत्ति अपने अनूठेपन के कारण आलोचना के केंद्र में आई और इसके पक्ष-विपक्ष में प्रकाशित हुई आलोचनाओं ने आलोचना विधा के विस्तार में अप्रत्याशित योगदान दिया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कालखंड में सैद्धांतिक आलोचना को भारतीय साहित्य-चिंतन परंपरा और पाश्चात्य साहित्य चिंतन परंपरा के समन्वय से समृद्ध करके गांभीर्य और वैविध्य प्रदान किया। आचार्य शुक्ल ने गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास और जायसी के काव्य-गुणों के विवेचन के साथ ही हिंदी साहित्य का इतिहास और चिंतामणि आदि ग्रंथों का सृजन करके सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही ऐतिहासिक और व्यावहारिक आलोचना के विकास में योगदान दिया। शुक्ल जी की परंपरा में चलते हुए कृष्णशंकर शुक्ल, विश्वनाथप्रसाद मिश्र, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, डॉ. गुलाबराय, आचार्य बलदेव उपाध्याय और रामदहिन मिश्र आदि आलोचकों ने अपने प्रयासों से हिंदी आलोचना को समृद्ध किया।
डॉ. नगेंद्र भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल से प्रभावित थे। वे मूलतः रसवादी आलोचक माने जाते हैं। डॉ. नगेंद्र ने सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही व्यावहारिक और मनोविश्लेषणात्मक आलोचना के क्षेत्र में योगदान दिया। भारतीय साहित्यशास्त्र के साथ पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के समन्वय और इनके समन्वित रूप को प्रकाश में लाने का अभूतपूर्व कार्य डॉ. नगेंद्र ने किया। डॉ. नगेंद्र को छायावाद के पक्षधर आलोचक के रूप में भी जाना जाता है। डॉ. नगेंद्र के साथ ही आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावाद का पक्ष लिया। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी छायावादी, स्वच्छंदतावादी, रसवादी, सौष्ठववादी और अध्यात्मवादी समीक्षक माने जाते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी कृति, हिंदी साहित्य की भूमिका(1940 ई.) के माध्यम से ऐतिहासिक आलोचना को स्थापित किया। कबीर, सूर और तुलसी आदि के मूल्यांकन में द्विवेदी जी की मानवतावादी और समाजकेंद्रित आलोचनात्मक दृष्टि देखने को मिलती है। बाबू गुलाबराय ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की सैद्धांतिक आलोचना का अनुसरण करने के साथ ही व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के परवर्ती युग में हिंदी आलोचना का क्षितिज व्यापक होता गया। आलोचना की विविध पद्धतियों और अलग-अलग दिशाओं में अनेक आलोचक सक्रिय हुए। अनेक आलोचकों को किसी एक वर्ग में रख पाना भी शुक्लोत्तर युग में संभव नहीं रहा। अब तक चली आ रही आलोचनात्मक पद्धतियों से हटकर मार्क्सवादी आलोचना, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना, शैलीवैज्ञानिक आलोचना और नई आलोचना जैसी नवीन पद्धतियों का विस्तार हुआ। शिवदानसिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त और डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचना के प्रतिनिधि आलोचक माने जाते हैं। डॉ. देवराज, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी और देवराज उपाध्याय दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते हैं। मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद जैसी आलोचना की ऐतिहासिक पद्धतियों का निषेध कर ‘नयी आलोचना’ पनपने लगी। साहित्य में रूपवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, संरचनावादी, नयी समीक्षा से भाषावादी आलोचना का तुमुलनाद गूँज उठा। इस बीच अच्छी बात यह हुई कि अब आलोचना केवल कविता-केंद्रित आलोचना न रहकर उपन्यास, कहानी, नाटक, रंगमंच, निबंध, रेखाचित्र आदि सभी गद्य विधाओं को साथ लेकर बढ़ने व पनपने लगी। इस स्थिति ने हिंदी-आलोचना का सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर क्षेत्र काफी विस्तृत कर दिया है।5  
साहित्य की विविध विधाओं की आलोचना के प्रकाश में आने के साथ ही आलोचना विधा में सक्रिय विद्वानों की संख्या भी तीव्र गति से बढ़ी है। उन सभी का उल्लेख कर पाना भी संभव नहीं है, किंतु इतना अवश्य है कि आलोचना के क्षेत्र-विस्तार का यह सुखद पक्ष है। नाटक और रंगमंच सहित गद्य की विविध विधाओं से जुड़े साहित्यकारों की हिंदी आलोचना में उपस्थिति ने विविधता का, विचारों का फैलाव किया है। साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान भी हिंदी आलोचना के विकास में अभूतपूर्व है। सरस्वती, प्रतीक, आलोचना आदि पत्रिकाओं के बाद नये पत्ते, नयी कविता, निकष, कखग, पहल, दस्तावेज, पूर्वग्रह और समास आदि पत्रिकाओं ने साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से आलोचना को सर्वथा नवीन आयाम दिया है। साहित्यिक पत्रकारिता के साथ अंतरक्रिया में, और उससे स्वतंत्र भी, हिंदी आलोचना ने यों एक लंबी यात्रा की है। भारतेंदु तथा प्रेमघन के साथ शास्त्रीय और गुण-दोष कथन शैली से आरंभ करके आलोचना मिश्र बंधुओं के साथ निर्णयात्मक, और पद्मसिंह शर्मा के साथ तुलनात्मक दौर में आती है। फिर रामचंद्र शुक्ल के माध्यम से अपने व्याख्यात्मक-विवेचनात्मक रूप में एकबारगी वयस्क होकर वह विकास की कई नई दिशाओं को एकसाथ उद्घाटित करती है। और इसी क्रम में आगे अर्थ संवर्धन की या कि सर्जनात्मक भूमिका अपनाकर अपने रूप में गुणात्मक परिवर्तन लाती है।6 हिंदी आलोचना के इस विस्तार और तथाकथित नई आलोचना को ‘विश्वग्राम’ की अवधारणा के मानदंड पर खरा उतरते हुए भी अनुभूत किया जा सकता है।
हिंदी आलोचना के भविष्य की दशा-दिशा का विवेचन करने के पूर्व आलोचना के वर्तमान, अर्थात् नई आलोचना की प्रवृत्ति का मूल्यांकन करना समीचीन होगा। प्रगतिवादी आलोचना के बाद अस्तित्व में आई नई आलोचना में व्यक्तिवाद और पूँजीवाद की प्रबलता है। इस आलोचना में भारतीय काव्यशास्त्र लगभग पूर्णतः उपेक्षित हो गया है और वह पश्चिमी चिंतन और आलोचना पर पूर्णतः निर्भर हो गई है। ‘नई आलोचना’ ही नहीं, स्वातंत्र्योत्तर काल की नई लगभग संपूर्ण हिंदी आलोचना एक ओर पश्चिमी आलोचकों, दूसरी ओर अस्तित्ववाद, मानववाद, यथार्थवाद, अतियथार्थवाद, प्रभाववाद, आधुनिकतावाद, उत्तरआधुनिकतावाद, संरचनावाद इत्यादि वादों और तीसरी ओर ‘नई आलोचना’, नवअरस्तूवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, समाजशास्त्रीय आलोचना आदि पश्चिमी आलोचना-पद्धतियों का लगभग पूर्णतः अनुसरण करने लग गई है।7 पश्चिम के विचार और वस्तुओं का अनुकरण करना और पाश्चात्य अंधानुकरण में पड़कर अपने संसाधनों को गौण मानना आजकल की प्रवृत्ति बन गई है और आधुनिकता का, उत्तर आधुनिकता का पर्याय बन गई है। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में भी यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि आज के वैश्वीकृत समाज में आलोचना के पुराने मानदंड बड़े काम के नहीं सिद्ध हो सकते। किसी भी आलोचना-पद्धति का स्थिर और जड़ होना गतिशील साहित्य का अवरोधक होता है, परंतु ‘आलोचना के पुराने औजार बाक्स’ में कुछ उपकरण हो सकते हैं, जो थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ भारतीय उत्तर-आधुनिक आलोचना को नया रूप दे सकने में समर्थ हों।8
हिंदी आलोचना के क्षेत्र में पुरानी पीढ़ी के आलोचकों की सक्रियता ही सम्प्रति दिखाई देती है। युवा पीढ़ी के आलोचकों की संख्या लगभग नहीं के बराबर है। उनकी उपस्थिति भी जो है, उन्हें आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर और संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। दूसरी तरफ साहित्यिक अनुशासन और साहित्यिक लगाव की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है। अखबारों में साहित्य के लिए जगह नहीं। पत्रकार और रचनाकार का जैसा रचनात्मक संबंध पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के बरसों में निर्मित हुआ था, वह पूरी तरह विघटित हो चुका है। उनके बीच अपाट्य खाई खुद गई है। अनियतकालीन पत्रिकाओं की बाढ़ वास्तविक सर्जक या आलोचकीय प्रतिभा की पहचान या प्रतिष्ठा को सुनिश्चित करने में असमर्थ है। ‘अपनी डफली अपना राग’ वाला मुहावरा हू-ब-हू चरितार्थ हो रहा है।9 पश्चिमी साहित्य ने अतिवाद से बचते हुए साहित्य के अनुशासन को इस तरह से स्थापित किया है कि उनका आलोचनाशास्त्र श्रेष्ठ विधा के रूप में विकसित हुआ। हिंदी में यह काम हुआ, किंतु बहुत बाद में और अत्यंत मंथर गति से। वाद, विमर्श और समाजशास्त्रीय दर्शन की परिधियों को तोड़कर आलोचना-बोध के सर्वमान्य प्रादर्श के निर्माण की महती आवश्यकता वर्तमान में है। इस कमी के कारण साहित्य और पाठक के बीच की दूरी बढ़ रही है। हालाँकि इसका एक बड़ा कारण हिंदीभाषी क्षेत्रों में व्याप्त अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी और ऐसे ही कई सामाजिक कारण भी हैं, इसके बावजूद आलोचना के दायित्व को भुलाया नहीं जा सकता है। सामयिक साहित्य यदि सामान्य हिंदी पाठक के लिए बोधगम्य नहीं होता तो इसका बहुत बड़ा उत्तरदायित्व हिंदी आलोचना पर है। साहित्य में बढ़ती हुई दुरूहता, दुर्बोधता, सूक्ष्मता, प्रतीकात्मकता और बिंब-विधान की प्रमुखता आदि के कारण आज का साहित्य- विशेषतः कविता, नाटक और कहानी- सामान्य पाठक के लिए अलंघ्य पर्वत शिखर बनता जा रहा है। आलोचना उसकी सहायता नहीं कर रही। आलोचना में भी असाधारण शब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। पाठक का दिग्भ्रमित होना आलोचना की विफलता है।10  
वर्तमान आलोचना के साथ ‘चौककवाद’ का पक्ष भी जुड़ा है। बहुत सारे साहित्यकार अपनी प्रसिद्धि के लिए, चर्चा में बने रहने के लिए प्रायः उन बातों का जिक्र करते हैं, जो साहित्य की मर्यादा के एकदम विपरीत होती हैं। इसके अतिरिक्त स्वयं को स्थापित करने के लिए दूसरे को अपमानित करने, लांछन लगाने की हद तक भी कई साहित्यकार, आलोचक पहुँच जाते हैं। मूल्यहीनता की यह स्थिति भी हिंदी आलोचना के वर्तमान एवं भविष्य के लिए घातक है।
समग्रतः, भारतीय साहित्यशास्त्र की समृद्ध परंपरा से रस-संचय कर विकसित हुई हिंदी आलोचना अपने उद्भव के साथ ही साहित्य और समाज के मध्य सेतु बनकर, साहित्य की स्वीकार्यता का मानदंड बनकर अपने दायित्वों का सम्यक् पालन करती रही है। ‘विश्वग्राम’ की संकल्पना के साहित्यिक पक्ष के रूप में पाश्चात्य चिंतनधारा को आत्मसात् करते हुए भारतीय साहित्यशास्त्र के साथ सामंजस्य बैठाकर हिंदी आलोचना के भविष्य को समृद्ध किया जा सकता है। हिंदी आलोचना के सफल, सार्थक भविष्य के लिए पुरानी पीढ़ी के आलोचकों द्वारा युवा आलोचकों को प्रोत्साहन देना और संसाधन उपलब्ध कराना अपेक्षित है तो युवा आलोचकों को मूल्यहीनता, अनुशासनहीनता, चौककवाद और विचारों की संकीर्णता से ऊपर उठकर पक्षपात रहित होकर आलोचना के दायित्व का निर्वहन करना होगा। इन प्रयासों के माध्यम से हिंदी आलोचना के भविष्य की दिशा भटकाव से बचते हुए समृद्धि की ओर उन्मुख होगी और हिंदी आलोचना विधा अपनी सार्थकता के साथ स्थापित हो सकेगी।
संदर्भ-
1.                       हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, गणपतिचंद्र गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, वर्ष 2004, पृ. 475
2.                       वही, पृ. 476
3.                       वेब रेफ़रेंस www.srijangatha.com/mulyankan13 july2011
4.                       हिंदी आलोचना, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दसवीं आवृत्ति वर्ष 2007, पृ. 31
5.                       हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा (उप्र), वर्ष 2011, पृ. 786
6.                       हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, वर्ष 2002, पृ. 220
7.                       हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा (उप्र), वर्ष 2011,  पृ. 801-802
8.                       समकालीन आलोचना का दायित्व, भवदेव पांडेय, मित्र : एक, संपा. मिथिलेश्वर, अंक-1 वर्ष 2003, पृ. 73
9.                       बदलते परिप्रेक्ष्य में आलोचना की अपेक्षित भूमिका, रमेशचंद्र शाह, मित्र : एक, संपा. मिथिलेश्वर, अंक-1 वर्ष 2003, पृ. 92

10.                   स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, वर्ष 1996, पृ. 207

डॉ. राहुल मिश्र

(प्रताप महाविद्यालय, अमलनेर, जलगाँव (महाराष्ट्र) में आयोजित नगेंद्र और समकालीन आलोचना की दिशाएँ,  राष्ट्रीय परिसंवाद, दिनांक 03-04 मार्च, 2014 में प्रस्तुत शोध-पत्र)


Monday 20 April 2015

हिंदीतर साहित्यानुवाद : अनिवार्यता, संभावना और चुनौती


हिंदीतर साहित्यानुवाद : अनिवार्यता, संभावना और चुनौती

अनुवाद/मात्र भाषान्तर नहीं/वह सेतु है!
एक मन को दूसरे से/जोड़ने का,/परस्पर अजनबीपन तोड़ने का!
विश्व-मानव के/शिथिल सम्बन्ध-सूत्रों को/पिरोने और कसकर बाँधने का,/आत्म-हित में/दृढ़ अटूट प्रगाढ़/मैत्री साधने का!
अनुवाद-/साधन है/देशान्तरों के व्यक्तियों के/बीच निर्मित/अतल गहराइयों में/पैठने का,/निःशंक हो/द्विविधा रहित/मिल बैठने का
लाखों-करोड़ों मानवों के मध्य सह-संवाद है/अनुवाद
अनजान मानव-लोक के/बाहर व भीतर व्याप्त/गहरे अँधेरे का/दमकती रोशनी में/सफल रूपांतर/नहीं है/मात्र भाषान्तर!
माध्यम है-/अपरिचय को/गहन आत्मीयता में बदलने का,/हर संकीर्णता से मुक्त हो/बाहर निकलने का!
सभ्यता-संस्कार है!/अनुवाद
भाषिक चेतना का/शक्त एक प्रतीक है,/सम्प्रेषण विधा का/एक रूप सटीक है!
अनुवाद-/मानव-विवेक/प्रतिष्ठ सार्थक केतु है!
अनुवाद-/मात्र भाषान्तर नहीं;/वह सेतु है।1
डॉ. महेंद्र भटनागर की कविता की उपरोक्त पंक्तियाँ अनुवाद के वैशिष्ट्य को रेखांकित करतीं हैं। अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तन मात्र नहीं है, बल्कि देश-दुनिया के अंतराल को पाटकर एक-दूसरे के नजदीक लाने, एक-दूसरे की संस्कृति-ज्ञान-विज्ञान को जानने-समझने का माध्यम होता है। अनुवाद संवाद की उस शक्ति को धारण करता है, जो सभ्यता के क्रमिक विकास को, भाषाई चेतना को और संप्रेषण विधा को गति देता है। अपने इसी वैशिष्ट्य के कारण अनुवाद को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है, अनुवाद को विज्ञान कहा जाता है।
विश्व की विभिन्न भाषाओं में रचे गए उत्कृष्ट साहित्य के अनुवाद का क्रम मध्यकाल से अनवरत जारी है। भाषाओं का क्रमिक विकास मानव के सांस्कृतिक विकास से संबद्ध है। हम जिन भाषाओं से आज परिचित हैं, वे चाहे संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, सीरियाई, फारसी, चीनी में से कोई भी भाषा हो, वे सभी उन्नत भाषाएँ हैं। भाषिक प्रतीकों और उनके रूढ़ अर्थों के लिए एक सामुदायिक जीवन का अस्तित्व अनिवार्य है। इसी से जैसे-जैसे अलग-अलग समुदाय अस्तित्व में आते गए होंगे, उनके थोड़े-बहुत भेदों के साथ अपनी-अपनी भाषाएँ भी विकसित होती गई होंगी और परस्पर संपर्क के लिए उनमें अनुवाद की आवश्यकता भी पड़ने लगी होगी। इस प्रकार यही कहा जा सकता है कि अनुवाद की परंपरा बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही होगी।2  संस्कृत साहित्य, विशेषकर रामकथा साहित्य के अरबी-फारसी भाषाओं सहित विश्व की अन्य भाषाओं भोटी, मंदारिन आदि भाषाओं में और भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद इसी आवश्यकता के परिणामस्वरूप हुए, जो आज भी अपना साहित्यिक महत्त्व रखते हैं। तत्कालीन संसाधनों के उपयोग के माध्यम से अनुवाद की जटिल प्रक्रिया को संपन्न करके विविध भाषाओं के साहित्य-भंडार को समृद्ध करने के प्रयास उस समय के साहित्यकारों के अद्भुत जीवट को भी प्रकट करते हैं। भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में अनुवाद विज्ञान का दूसरा युग अंग्रेजी औपनिवेशिक काल में उदित होता है।
भारत के उपनिवेशीकरण के दौरान भारतीय समाज, कानून, संस्कृति, परंपरा, इतिहास और धर्म-दर्शन को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात् करने की तीव्र प्रक्रिया की शुरुआत हुई। इसकी दो धाराएँ थीं। पहली धारा भारतीयता से युक्त थी और दूसरी धारा अंग्रेजी और अन्य यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से चंद भारतीयों की औपनिवेशिक भारतीय निष्ठा को तुष्ट कर रही थी। इस धारा के माध्यम से हुए अनुवाद को भारत और भारतीयता विषयक ज्ञान का मूल स्रोत मानने के कारण एकांतिक और अनुकरणपरक भारतीयता का निर्माण हुआ। अनुवाद की मूल भावना, आत्मसातीकरण के पीछे छूट जाने के कारण साहित्य के क्षेत्र में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हुईं। इसके विरोध में एक लहर सन् 1857 के बाद के हिंदी साहित्य में देखने को मिलती है। हिंदीतर साहित्य के हिंदी अनुवाद की विशुद्ध राष्ट्रवादी धारा का सृजन भी इसी कालखंड में हुआ। इस धारा के अग्रणी साहित्कारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का नाम आता है।
उपनिवेशवादियों ने अनुवाद को भारतीय परंपरा और मानस पर कब्जा करने का साधन बनाया था तो भारतीय नवजागरण के विचारकों ने अनुवाद को अपनी परंपरा की मुक्ति और स्वत्व की पहचान का माध्यम बनाया। भारतीय लेखक अनुवाद को औपनिवेशिक प्रभावों के विरुद्ध प्रतिरोध के साधन के रूप में विकसित कर रहे थे। साथ ही वे आधुनिक चिंतन और ज्ञान-विज्ञान से भारतीय समाज को परिचित कराने के लिए भी अनुवाद का काम कर रहे थे।.....
हिंदी नवजागरण के दौरान हिंदी में सबसे अधिक अनुवाद बांग्ला से हुआ; रचनात्मक साहित्य और राजनीतिक-सामाजिक चिंतन की पुस्तकों का भी।3
हिंदीतर साहित्य के हिंदी में अनुवाद ने हिंदी के विकास और विस्तार की दिशा में अभूतपूर्व योगदान दिया। भारतीय नवजागरण के साहित्यिक अवदान का बड़ा पक्ष अनुवाद के माध्यम से साहित्यिक समृद्धि और समाज को संघर्ष करने की नई दिशा देने के लिए जाना जाता है। देश की आजादी के बाद के वर्षों में देखा जाए तो हिंदीतर साहित्यानुवाद अपनी मंथर गति से चलता रहा। विश्व-साहित्य के अनुवाद की दिशा में अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, रूसी, जर्मन, चीनी और इटालियन आदि भाषाएँ अग्रणी रहीं हैं। विश्व-साहित्य की प्रमुख और चर्चित पुस्तकें, विशेषकर अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें स्फुट रूप से हिंदी में अनूदित होती रहीं। दूसरी और भारतीय भाषाओं में लिखे गए उत्कृष्ट एवं चर्चित साहित्य का हिंदी में अनुवाद भी हुआ। हिंदी साहित्य के भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद की स्थिति भी कमोबेश सामान्य ही रही है।
हिंदीतर साहित्यानुवाद के नए दौर की शुरुआत सूचना-संचार क्रांति के आगमन के साथ होती है। वैज्ञानिक आविष्कारों एवं सूचना क्रांति के इस दौर में ज्यों-ज्यों विश्व दृष्टि का निर्माण होने लगा है, मानवीय जीवन के सरोकार एक सीमित क्षेत्र से बाहर निकलकर विश्वव्यापी स्तर पर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि संसार के विभिन्न वर्गों के समस्त लोग एक-दूसरे को जानने-पहचानने के लिए उत्सुक हों। इसके परिणामस्वरूप चिकित्सा, तकनीकी, वैज्ञानिक-दार्शनिक एवं साहित्यिक आदान-प्रदान होने के कारण मानव के जीवन-मूल्यों एवं अंतरराष्ट्रीय सोच के परस्पर संवाद से अजनबीपन का कोहरा छँटने लगा है। भौगोलिक सीमाओं के आर-पार एक परिचित एवं आत्मीय वातावरण बनने लगा है। एक देश अथवा संस्कृति की भाषा अपनी साहित्यिक एवं तकनीकी उपलब्धियों को किसी दूसरे देश, भाषा आथवा संस्कृति तक पहुँचाने के लिए अनुवाद का ही सहारा लेते हैं। और एक नई सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा चल पड़ी।4
सूचना-क्रांति के इस दौर में स्थापित हुई ‘विश्वग्राम’ की अवधारणा का साहित्यिक पक्ष बहुत रोचक है। आज विश्व-साहित्य को पढ़ने की ललक नए ढंग से बढ़ी है। इस कारण विश्व-भर में साहित्यिक अनुवाद की माँग भी बढ़ रही है। भारत जैसे बहुभाषी और विविध संस्कृतियों वाले देश में सांस्कृतिक समन्वय, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और एकता को बढ़ावा देने की दिशा में भी साहित्यिक अनुवाद का अमूल्य योगदान है। अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, चीनी एवं अरबी के अतिरिक्त हिंदी, स्पेनिश आदि भाषाओं का महत्त्व अनुवाद के क्षेत्र में लगातार बढ़ रहा है। विश्व की प्रमुख और प्रभावी भाषा के रूप में हिंदी के वर्चस्व की स्थापना के साथ ही हिंदीतर साहित्य के हिंदी में अनुवाद का महत्त्व नए सिरे से स्थापित हुआ है। ऐसे में हिंदी का और हिंदी के साहित्यकारों को दायित्व भी बढ़ा है। विश्व की प्रमुख भाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने के लिए और विश्व-भर में फैले हिंदीभाषी लोगों को विश्व-ज्ञान के विविध आयामों से जोड़ने के लिए अनुवाद के सशक्त माध्यम की उपयोगिता स्वतः प्रमाणित है।
बीबीसी, लंदन के हिंदी प्रभाग द्वारा वर्ष 2013 के समापन पर साल-भर में हिंदी में प्रकाशित पुस्तकों का लेखा-जोखा तैयार किया गया और पुस्तकों की समीक्षा करके निष्कर्ष दिया गया है कि वर्ष 2013 में मौलिक पुस्तकों की अपेक्षा अनूदित पुस्तकों की उपस्थिति प्रभावपूर्ण और सार्थक रही है।5 बीबीसी द्वारा जारी किया गाया यह सर्वेक्षण हिंदीतर साहित्यानुवाद की संभावनाओं के सुखद पक्ष को उद्घाटित करता है। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं, विशेषकर अनुवाद, नया ज्ञानोदय, मित्र, वागर्थ और आजकल ने हिंदीतर साहित्यानुवाद की अनिवार्यता और आवश्यकता को जानते-समझते हुए विश्व-साहित्य के साथ ही भारतीय भाषाओं के साहित्य के अनुवादों को प्रकाशित करने का कार्य किया है। वर्ष-भर में हिंदी में प्रकाशित होने वाली अनूदित पुस्तकों की संख्या भी पर्याप्त होती है।
कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि साहित्यिक विधाओं के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान की अन्य विधाओं तथा नवीनतम तकनीकी, नवीनतम शोध और लुप्तप्राय साहित्य के अनुवाद की दिशा में कार्य करने की असीमित संभावनाएँ अभी भी शेष हैं। सूचना-संचार क्रांति के इस दौर में ज्ञान की और सूचनाओं की अपरिमित उपलब्धता के बीच ‘मल्टी डिसिप्लिनरी स्टडी’ का पक्ष तेजी से उभरा है। ऐसी स्थिति में बेहतर अनुवाद रचने के लिए अनुवादकों का नवीनतम ज्ञान से युक्त होना अनिवार्य हो गया है। इंटरनेट पर उपलब्ध विविध संसाधनों (सॉफ्टवेयर, एप्लीकेशंस आदि) के उपयोग द्वारा हिंदीतर साहित्यानुवाद में नवोदित असीमित संभावनाओं को मूर्त रूप दिया जा सकता है।
हिंदीतर साहित्यानुवाद में निहित संभावनाओं के साथ ही चुनौतियों का पक्ष भी गहराई से जुड़ा हुआ है। स्वतः सुखाय या जीविकोपार्जन हेतु अनुवाद कार्य के प्रति समर्पित होने वाला अनुवादक अब परकाया-प्रवेश की प्रक्रिया से गुजरने लगा है। इस प्रक्रिया से गुजरने का धैर्य और क्षमता किसी साधक के पास ही हो सकती है। अनुवाद करने की मूलभूत शर्त है- ईमानदारी और निष्ठा। यदि अनुवादक को हम एक सेतु निर्माण करने वाले के रूप में देखें तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूरी ईमानदारी से पुख्ता और चिरस्थाई सेतु का निर्माण करे।6 
साहित्य, विज्ञान, वाणिज्य, जनसंचार और तकनीकी आदि के हिंदी अनुवाद के लिए योग्यता और दक्षता भी भिन्न होती है। इनके लिए वांछित ईमानदारी, निष्ठा,धैर्य और समर्पण के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान की प्रत्येक धारा में अनुवाद के लिए अलग-अलग जटिलताएँ और चुनौतियाँ हैं। कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि रचनाओं के अनुवादक के भीतर दो भाषाओं की टकराहट, अनुवाद विशेष का व्यक्तित्व, उसकी संवेदना और भाषायी समझ, मूल रचना का सौंदर्यपरक वैशिष्ट्य तथा उनका सर्जनात्मक रूपांतरण अपनी विशिष्ट अलग-अलग भूमिका निभाते हैं। इससे रचना अपनी विषयवस्तु से अलग होकर एक काव्यवस्तु बन जाती है। इसलिए साहित्यिक अनुवाद बड़ा ही दुष्कर और जटिल कार्य है, जिसके लिए असाधारण प्रतिभा, क्षमता और अभ्यास, तीनों की अपेक्षा रहती है।7  
वैज्ञानिक साहित्य के अनुवादकों का अभाव भी एक गंभीर समस्या है। वैज्ञानिक अनुवादक से यह अपेक्षा रहती है कि वह भाषाविद् के साथ-साथ विषयविद् भी हो। वैज्ञानिक विषय के जानकार अंग्रेजी में अधिक हैं तो हिंदी में नगण्य और हिंदी भाषा के विद्वान हैं तो विषय में प्रायः शून्य।8 विज्ञान-साहित्य के हिंदी अनुवाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती तकनीकी और पारिभाषिक शब्दावली के अभाव की है। यद्यपि भारत सरकार के वैज्ञानिक एवं तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली आयोग ने इस दिशा में सकारात्मक कार्य किया है, तथापि अभाव की स्थिति आज भी बनी हुई है। अंग्रेजी और विश्व की अन्य भाषाओं में विज्ञान-लेखन की पर्गति बहुत तीव्र गति से हो रही है। नए-नए आविष्कार और नवीनतम ज्ञान को अनुवाद के माध्यम से हिंदी में उपलब्ध कराने के लिए तेज-तर्रार और समर्पित युवाओं की बड़ी कमी है। इसके साथ ही नए लोगों द्वारा इस क्षेत्र में किए गए कार्यों को प्रोत्साहित करने, उन्हें मंच प्रदान करने और आगे बढ़ने के लिए संसाधन उपलब्ध कराने की सबसे बड़ी कमी भी है, जो इस दिशा की प्रगति को बड़े बर्बर तरीके से बाधित कर देती है। विज्ञान-साहित्य की तरह वाणिज्यिक-साहित्य के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट और पर्याप्त अनुवाद की कमी है।
जनसंचार के क्षेत्र में परंपरागत माध्यमों, यथा- लोक रंगमंच, लोकगीत, उत्सव, लोकनाट्य आदि के अनुवाद तथा आधुनिक माध्यमों, यथा- टेलिविजन, रेडियो, इंटरनेट, समाचार पत्र आदि के अनुवाद के लिए अलग अपेक्षाएँ होती हैं, क्योंकि इनका संबंध समाज के सभी वर्गों (शिक्षित, अशिक्षित, बूढ़े, बालक, महिलाएँ, अमीर-गरीब आदि) से होता है। इसलिए जनसंचार का अनुवाद शब्दानुवाद की अपेक्षा भावानुवाद पर अधिक बल देता है। इसके अतिरिक्त संप्रेषणीयता, बोधगम्यता, सहजता, रोचकता और सर्वजन सुलभता के गुण भी वांछित होते हैं।
एक भाषा से उसकी आत्मा निकालकर दूसरी भाषा में सुरक्षित रूप से प्रत्यारोपित करने का दुष्कर कार्य अनुवादक को करना पड़ता है। लेखक के विचारों और उसके भावों का अनुवाद में आत्मसातीकरण करना जटिल कार्य होता है। मराठी के प्रसिद्ध नाटककार और रंगकर्मी मामा वरेरकर (भार्गवराम विट्ठल वरेरकर) की उक्ति- लेखक होना आसान है, किंतु अनुवादक होना अत्यंत कठिन है, इस संदर्भ में सर्वथा उपयुक्त और सटीक प्रतीत होती है। हिंदीतर साहित्यानुवाद के परंपरागत स्वरूप से आगे बढ़ते हुए सूचना-संचार क्रांति के वर्तमान युग में हिंदी अनुवादकों के लिए एक ओर जहाँ संभावनाओं का असीमित विस्तार हुआ है, वहीं दूसरी ओर चुनौतियाँ भी बढ़ी हैं। हिंदीतर साहित्यानुवाद की वर्तमान में प्रासंगिकता और अनिवार्यता को अनुभूत करते हुए इस दिशा में जिस गति से प्रगति हुई है, उसे यदि संतोषजनक नहीं कहा जा सकता तब भी भविष्य की सुखद संभावनाओं के सफल-सार्थक लक्षण के रूप में अवश्य देखा जा सकता है।
संदर्भ-
1. वेब रेफरेंस www.kavitakosh.org/kk/अनुवाद :एक सेतु/महेंद्र भटनागर
2. साहित्यानुवाद : संवाद और संवेदना, संपा. डॉ. आरसु, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृ. 30
3. वेब रेफ़रेंस hi.wikipedia.org/wiki/अनुवाद
4. वेब रेफ़रेंस anuvaadak.blogpost.in/2010102/blog-post.html
6. वेब रेफ़रेंस anuvaadak.blogpost.in/2010102/blog-post.html
7. अनुवाद विज्ञान की भूमिका, कृष्णकुमार गोस्वामी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,2008, पृ. 302
8. वही, पृ. 309

(हमदर्द पब्लिक लाइब्रेरी, बीड, महाराष्ट्र में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 08 से 09 फरवरी, 2014 में प्रस्तुत)

डॉ. राहुल मिश्र