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Tuesday 1 July 2014

IMPORTANCE OF KALACHAKRA कालचक्र का महत्व

कालचक्र का महत्त्व
कालचक्र अनुष्ठान का बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा में अपना विशेष स्थान है। भारत की पुरातन पूजा परंपरा में कालचक्र का विशेष महत्त्व रहा है। कालचक्र संस्कृत भाषा का शब्द है। भोट भाषा में इसे दुस-खोर-वङ-छेन कहा जाता है। काल का सरल अर्थ समय होता है और चक्र का अर्थ निरंतर गतिमान रहने वाला पहिया होता है। इस तरह कालचक्र का सीधा सा अर्थ समय का चक्र होता है। कालचक्र या समय का चक्र प्रकृति से अपना संबंध बनाए रखते हुए ज्योतिषशास्त्र के द्वारा विचार करके सूक्ष्म आंतरिक ऊर्जा के विकास और आध्यात्मिक चेतना को जगाने के अभ्यास के मेल से बनने वाला तांत्रिक ज्ञान होता है।
बौद्ध धर्म में चार प्रकार की तांत्रिक साधनाएँ बताई गईं हैं। चर्यातंत्र और क्रियातंत्र मूल रूप से तांत्रिक साधनाएँ नहीं हैं, जबकि योगतंत्र और अनुत्तरयोगतंत्र में तांत्रिक साधना होती है। अनुत्तरयोगतंत्र के तीन उपविभाजन होते हैं। इनमें पहला मातृतंत्र या प्रज्ञातंत्र है, दूसरा पितृतंत्र या योगतंत्र है और तीसरा अद्वयतंत्र है। कालचक्रतंत्र अद्वयतंत्र का मूल ग्रंथ माना जाता है। कालचक्रतंत्र के विषय की व्यापकता को देखते हुए इसे कालचक्रयान नाम भी दिया गया है। कालचक्रतंत्र का मूल ग्रंथ संस्कृत में है, जो पाँच खंडों में विभाजित है। बौद्ध तंत्रों में मूलतंत्र, भाष्यतंत्र और लघुतंत्रों की परंपरा मिलती है। कालचक्रतंत्र के अनेक भाष्यतंत्र और लघुतंत्र वर्तमान में उपलब्ध हैं। आचार्य अभयाकर गुप्त, आचार्य धर्माकरशांति, आचार्य विमलप्रभाकर और आचार्य नारोपाद द्वारा कालचक्र पर भाष्यग्रंथ और टीकाएँ लिखी गईं हैं, जिन्हें कालचक्रतंत्र के ज्ञान के लिए प्रमाणिक माना जाता है।
ईसा की तीसरी और छठवीं शताब्दी के बीच बौद्ध धर्म में इन तांत्रिक साधनाओं का उदय हुआ। इन साधनाओं का जन्म दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश के श्रीधान्यकटक क्षेत्र में हुआ। वर्तमान में यह क्षेत्र गुंटूर जिले के अमरावती और धरनीकोटा नामक शहरों के द्वारा जाना जाता है। इसी क्षेत्र में स्थित श्रीपर्वत तांत्रिक साधना का प्रमुख केंद्र बना। संभवतः इसी क्षेत्र में प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का जन्म हुआ था। नागार्जुन ने बौद्ध तांत्रिक साधनाओं पर अनेक भाष्य लिखे, अनेक रचनाएँ कीं। महायान परंपरा की शिक्षाओं की अपेक्षा तंत्र साधना की शिक्षा अत्यंत गुप्त रूप से दी जाती थी, और पात्र-अपात्र का विचार करके इन शिक्षाओं को दिया जाता था, इस कारण इसे गुह्यसमाजतंत्र नाम मिला। गुह्यसमाजतंत्र की उत्पत्ति दक्षिण भारत में हुई और दक्षिण भारत के सातवाहन शासकों के साथ ही महा-मेघवाहन, मौर्य, इक्ष्वाकु, पल्लव, सालकायना, विष्णु-कुंदिन, चालुक्य और विजयनगर शासकों ने गुह्यसमाजतंत्र साधना के विस्तार के लिए संसाधन उपलब्ध कराने और पर्याप्त संरक्षण प्रदान करने का कार्य किया। सातवाहन वंश के राजा हाल ने द्वितीय शताब्दी में आर्य नागार्जुन के लिए श्रीपर्वत शिखर पर एक विहार बनवाया था। कृष्णा और गोदावरी नदियों के किनारे बसे नागार्जुनकोंडा, अमरावती और धरनीकोटा नगरों में गुह्यसमाजतंत्र साधना का विस्तार हुआ। नागार्जुनकोंडा में मिले एक अभिलेख से पता चलता है कि इस क्षेत्र में स्थाविरों के संघ बने थे, जिनके माध्यम से कश्मीर, गांधार, चीन, किरात (वर्तमान तिब्बत और उसके आसपास हिमालय की तराई का इलाका), तोसलि (वर्तमान ओडिशा), यवन (वर्तमान अफगानिस्तान) और ताम्रपर्णी द्वीप (वर्तमान श्रीलंका) में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ। ऐसी मान्यता है कि श्रीधान्यकटक क्षेत्र से ही मूल कालचक्र ज्ञान प्रसारित हुआ था। प्रसिद्ध तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार भगवान् बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को श्रीधान्यकटक के महान स्तूप के पास ही कालचक्र का ज्ञान प्रसारित किया था। उन्होंने इसी स्थान पर कालचक्र मंडलों का सूत्रपात भी किया था। संभवतः इसी कारण जापान के बुश्शोकाई फाउंडेशन और नोरबूलिंगका इंस्टीट्यूट के अनुरोध पर परमपावन दलाई लामा ने भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण की 2550 वीं जयंती पर सन् 2006 में श्रीधान्यकटक में 31 वीं कालचक्र पूजा आयोजित की थी।
श्रीधान्यकटक से गुह्यसमाजतंत्र साधना और कालचक्र पूजा-साधना का विस्तार उत्तर भारत की ओर हुआ। ईसा की आठवीं शताब्दी के मध्य से नौवीं शताब्दी के मध्य तक कालचक्र पूजा-साधना आधुनिक पाकिस्तान की स्वात घाटी के ओड्डियान (उर्ग्यान) तक विकसित हो गई। इसी अवधि में पाल शासकों के संरक्षण में नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों में तंत्र-साधना के अध्ययन की शुरुआत हुई। ईसा की दसवीं शताब्दी के मध्य में कालचक्रतंत्र ग्रंथ की रचना हुई। आठवीं और बारहवीं शताब्दी के मध्य मठों और विश्वविद्यालयों से निकलकर चौरासी सिद्धों के माध्यम से तंत्र-साधना का विकास हुआ। इसी कालखंड में समूचे हिमालय परिक्षेत्र में गुह्यसमाजतंत्र साधना के अंतर्गत कालचक्र पूजा-साधना का विकास हुआ। कालांतर में दक्षिण भारत सहित उत्तर भारत और हिमालयी परिक्षेत्र के अतिरिक्त अन्य हिस्सों में प्रचलित वज्रयान बौद्ध परंपरा सिमटने लगी। जिस समय देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तंत्र-साधना का प्रभाव कम होता जा रहा था, उस समय तिब्बत के धर्मभीरु शासक इस परंपरा को संरक्षण प्रदान कर रहे थे। लदाख अंचल समेत हिमालय की गोद में बसे भारतीय क्षेत्रों और नेपाल-भूटान आदि देशों में इस परंपरा का प्रभाव बना रहा।
बौद्ध ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सारा ब्रह्माण्ड या संसार एक चक्र में बँधा हुआ होता है। यह चक्र चार स्थितियों- शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस से मिलकर बना होता है। कालचक्र तीन प्रकार का होता है। बाहरी, आंतरिक और वैकल्पिक कालचक्र। इन तीनों प्रकार के कालचक्र में शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस की स्थितियाँ होती हैं।
कालचक्र का बाहरी स्वरूप समय के मापन पर आधारित होता है। ग्रहों, नक्षत्रों की गति से हम समय के चक्र को जान सकते हैं। इसी तरह जन्म, जीवन और मरण की स्थितियों में काल की गति या समय चक्र चलता है। इस संसार में प्रत्येक जीवधारी काल, अर्थात् समय की गति से बँधा होता है। संसार के अन्य जीवधारियों की तुलना में मनुष्य सबसे अधिक समझदार, ज्ञानवान और विवेकवान होता है। मानव-सभ्यता का विकास भी इसी कारण हुआ है। मानव-सभ्यता के विकास-क्रम में बाहरी परिवेश और आंतरिक स्थितियों को जानने-समझने की चेतना का विकास भी हुआ। अंतरिक्ष विज्ञान और समय की गति को जानने की उत्सुकता भी मानव-सभ्यता के विकास के साथ ही उत्पन्न हुई। सौरमंडल की गति के वैज्ञानिक पक्ष और दार्शनिक पक्ष को कई तरीकों से व्याख्यायित किया गया। इसी से कालचक्र या समयचक्र की अवधारणा का विकास भी हुआ। सूरज का एक नाम कालचक्र भी होता है। सौरमंडल में सूरज के इर्द-गिर्द ग्रहों-उपग्रहों की चक्राकार गति चलती रहती है। सौरमंडल के ग्रहों-नक्षत्रों की गति की तरह सजीव और साथ ही निर्जीव वस्तुओं की गति चलती रहती है। उनकी उत्पत्ति के लिए एक वातावरण का निर्माण होता है, फिर उन्हें उत्पन्न होना होता है, उन्हें एक निश्चित अवधि तक सक्रिय रहना होता है और फिर उन्हें नष्ट हो जाना होता है। कालचक्रतंत्र की शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस की स्थितियों को कालचक्र के बाहरी स्वरूप में देखा जा सकता है। जन्म, बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था और मृत्यु का यह चक्र भौतिक जगत् में दिखाई पड़ता है। कालचक्र के बाहरी विधान के अनुरूप हम मौसम के बदलावों का अनुभव करते हैं। मौसम के बदलने के कारण शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभावों का हम अनुभव करते हैं।
संसार में कालचक्र की आंतरिक गति मानव-मन के अलग-अलग भावों और विचारों के लगातार बदलने पर आधारित होती है। आंतरिक जगत् में भी गति होती है। यह गति मानव-मन और विचारों में होती है। बचपन से लगाकर वृद्धावस्था तक ज्ञान, विवेक और समझ के अलग-अलग स्तर इसी गति को प्रकट करते हैं। इसी तरह राग, द्वेष, मद, लोभ, मोह, अहंकार, लालच, क्रोध आदि चित्तवृत्तियाँ भौतिक जगत् की स्थितियों के सापेक्ष मानव-मन में समय-समय पर उत्पन्न होती रहती हैं और नष्ट होती रहती हैं। कालचक्र की आंतरिक गति हमारे कर्मों के प्रभाव से परिवर्तित होती है और उसे हम महसूस करते हैं। इसी तरह मन, वाणी, कर्म की परिशुद्धि करके सम्यक् संबोधि प्राप्त करना भी कालचक्र की आंतरिक गति का लक्षण होता है। काल की इस गति को समझने की चेतना का विकास करने वाले साधक परिवर्तन की प्रक्रिया को जान-समझ पाते हैं। सामान्य मनुष्य इस गति को, इस चक्र को नहीं समझ पाते हैं।
काल के इस चक्र में परस्पर विरोधी तत्त्व शामिल होते हैं। इसमें कल्याणकारी तत्त्व भी होते हैं और अकल्याणकारी तत्त्व भी होते हैं। इन तत्त्वों का प्रभाव और व्यक्ति-विशेष में इन तत्त्वों की उपस्थिति उसके कर्मों के कारण होती है। कर्म का संयोग मन और वाणी से होता है। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली तत्त्व मानव-मन होता है। काल के चक्र को समझकर अगर मानव-मन की, आंतरिक जगत् के चक्र की परिशुद्धि कर दी जाए तो वाणी और कर्म की परिशुद्धि का मार्ग सुलभ हो जाता है। कालचक्र की वैकल्पिक गति बाहरी और आंतरिक कालचक्र के बीच तालमेल बनाने और मन, वाणी, कर्म के परिशोधन की इसी जटिल विधि पर आधारित होती है। कालचक्र अनुष्ठान और कालचक्र पूजा का विधान इसी वैकल्पिक गति पर आधारित होता है। मन, वाणी और कर्म की शुद्धि से; काय, वाक् और चित्त की शुद्धि से त्रिस्तरीय साधना सफल हो जाती है और आत्मज्ञान अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है।
साधना के विभिन्न स्वरूप इसी पूर्णता की प्राप्ति के माध्यम बनते हैं। तंत्र के माध्यम से ऐसी साधना का स्वरूप कालचक्र में होता है। कालचक्र पूजा के लिए बनाए जाने वाले रेत मंडल में सारे संसार का स्वरूप बना होता है। इसमें दसों दिशाएँ होतीं हैं। सकारात्मक और नकारात्मक भाव होते हैं। सकारात्मक भावों की रक्षा के लिए रक्षक होते हैं, धर्मपाल होते हैं और नकारात्मक भावों से लड़ने के लिए शक्तिशाली योद्धा भी होते हैं। कालचक्र मंडल में बुद्ध के 722 स्वरूप होते हैं। कालचक्र पूजा-अभिषेक के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली रेत और धार्मिक कृत्य के लिए जल का प्रयोग भी अपने प्रतीकात्मक अर्थ रखते हैं। जिस तरह बारीक रेत को मुट्ठी में बंद करके नहीं रखा जा सकता है, वह झर-झर करके बंद मुट्ठी से निकल जाती है, और जिस तरह जल को मुट्ठी में रोककर नहीं रखा जा सकता, उसी तरह का स्वभाव काल का भी होता है, समय का भी होता है। समय की गति को पहचानकर उसका सार्थक उपयोग कालचक्र के प्रतीक आधारित महत्त्व को स्पष्ट करता है।
कालचक्रतंत्र के साथ शंबाला के धर्मभीरु राजाओं का मिथक भी जुड़ा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि शंबाला का धर्मराज्य एक बार फिर से कायम होगा, इसके लिए धर्मयुद्ध होगा और विधर्मियों का संसार से सफाया होगा, धर्म का शासन स्थापित होगा। इस मिथक की परमपावन दलाई लामा ने बड़ी स्पष्ट और व्यावहारिक व्याख्या की है। उनका कहना है कि बौद्ध धर्म शांति और अहिंसा को मानने वाला है। इसमें धर्मयुद्ध का मतलब लोगों से युद्ध करना नहीं, बल्कि संसार में फैली बुराइयों से, दूषित चित्तवृत्तियों से लड़कर, उन्हें हराकर मानवता के, विश्वकल्याण के, सत्य-शांति-अहिंसा के धर्म का शासन स्थापित करना है।
ऐसा माना जाता है कि बौद्ध तंत्र-साधना में कालचक्रतंत्र की उत्पत्ति बहुत बाद में हुई। गुह्यसमाजतंत्र के एक अंग के रूप में, अनुत्तरयोगतंत्र की एक शाखा के रूप में कालचक्रतंत्र का उद्भव और विकास हुआ। नालंदा, राजगीर और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के माध्यम से कालचक्रतंत्र का प्रचार-प्रसार हुआ, किंतु कालांतर में कालचक्रतंत्र का महत्त्व बौद्धतंत्रों में लगातार बढ़ता गया। इसी कारण विमलप्रभाकर और अन्य टीकाकारों ने, बौद्ध आचार्यों ने कालचक्रतंत्र को तंत्रराज, आदिबुद्ध और बृहदादिबुद्ध नाम दिए हैं। क्षणभंगवाद, शून्यवाद, अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, कर्मवाद, निर्वाण आदि बौद्ध मत, दर्शन और मान्यताएँ कालचक्रतंत्र-साधना में प्रकट होतीं हैं। इसी कारण बौद्ध धर्म के वर्तमान स्वरूप में कालचक्र-साधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संभवतः इसी कारण परमपावन चौदहवें दलाई लामा ने कालचक्र अनुष्ठान को बौद्ध धर्म की सर्वोच्च पूजा-साधना के रूप में स्थापित किया है। उनके द्वारा कालचक्रतंत्र की जटिल पद्धति का सरल संस्करण तैयार किया गया है। उनके द्वारा कालचक्रतंत्र की व्याख्या वर्तमान वैज्ञानिक युग के अनुरूप की गई है। इस कारण कालचक्र अनुष्ठान के प्रति देश-दुनिया में जनस्वीकार्यता बढ़ी है। जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के भेदभाव से हटकर कालचक्र अनुष्ठान के साथ देश-दुनिया की आस्था भी इसी कारण जुड़ी है।     
परमपावन चौदहवें दलाई लामा के संरक्षण में भारत की पुरातन परंपरा और हिमालयी परिक्षेत्र की अपनी अनूठी पहचान आज स्वयं को सुरक्षित रख पा रही है। परमपावन दलाई लामा ने विशिष्ट कालचक्र साधना को विश्वकल्याण, विश्वशांति और विश्वबंधुत्व जैसे महान मानवीय मूल्यों के साथ जोड़कर पुरातन-परंपरागत साधना-पद्धति को एक नया आयाम दिया है और इसे विश्वव्यापी भी बनाया है। परमपावन दलाई लामा के संरक्षण में अब तक बत्तीस कालचक्र अनुष्ठान संपन्न हो चुके हैं। इनमें से पहले दो अनुष्ठान तिब्बत की राजधानी ल्हासा के नोरबूलिङका मठ में संपन्न हुए हैं। बारह कालचक्र अनुष्ठान विदेशों में संपन्न हुए हैं और शेष अठारह कालचक्र अनुष्ठान भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संपन्न हुए हैं।
दुनिया के तमाम मत, पंथ, संप्रदाय इस बात पर जोर देते हैं कि समाज में आपसी सौहार्द, समन्वय, भाईचारा और बंधुत्व की भावना का विकास हो। इसके लिए सभी मत-संप्रदाय विशेष प्रयास भी करते हैं और धार्मिक विधानों के माध्यम से सौहार्द-समन्वय स्थापित करते हैं। इसके लिए सभी मत-संप्रदाय एक निश्चित क्रम के अनुसार नियत समयांतराल में बड़े धार्मिक आयोजन करते हैं। ऐसे आयोजनों या विधानों में धर्म-विशेष के मानने वाले लोग आपसी भेदभाव को भुलाकर एकसाथ समय गुजारते हैं, धार्मिक आयोजनों में शरीक होते हैं। बौद्ध धर्म में आयोजित होने वाली कालचक्र पूजा के केंद्र में भी इस भावना को देखा जा सकता है। यह धार्मिक पूजा-अनुष्ठान का सामाजिक पक्ष है, जिसके मूल में मानवता की भावना निहित होती है, सामाजिक समरसता की भावना निहित होती है। अन्य धर्मों और मतों के द्वारा वृहद स्तर पर आयोजित किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों और आयोजनों-विधानों की तुलना में बौद्ध धर्म की परंपरागत कालचक्र पूजा का स्थान श्रेष्ठ है। अन्य धर्मों की तरह बौद्ध धर्म की कालचक्र पूजा में शामिल होने के लिए जाति-धर्म का कोई बंधन नहीं है। 28 दिसंबर, 2011 से 10 जनवरी, 2012 तक बोधगया में हुई 32 वीं कालचक्र पूजा में हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता रिचर्ड गेर के साथ ही देश-विदेश के लगभग तीन लाख श्रद्धालु शामिल हुए थे। इन श्रद्धालुओं में बड़ी संख्या दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों की थी। धार्मिक भेदभाव, क्षेत्रीय भेदभाव और भाषाई भेदभाव को भुलाकर सबको इस पूजा में शामिल करने की पवित्र भावना बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध करती है। विश्वकल्याण के लिए, सारे संसार के सुख के लिए, समृद्धि के लिए और सत्य, शांति, अहिंसा, दया, करुणा, क्षमा जैसे महान मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित कालचक्र पूजा इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखती है। दुनिया भर में अब तक संपन्न हो चुकी 32 कालचक्र पूजा के आयोजनों के सार्थक और जनकल्याणकारी पक्ष उभरकर सामने आए हैं। सारे संसार में कम से कम इस बात की चर्चा का माहौल तो बना ही है कि इस संसार को बचाने के लिए बौद्ध धर्म के मूल में स्थित भावना को; सत्य, शांति, अहिंसा, करुणा और दया-क्षमा जैसे गुणों को संरक्षित-संवर्धित किया जाए। इस दिशा में कालचक्र पूजा एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में प्रचारित-प्रसारित हुई है, जिसने सारे संसार को बौद्ध धर्म के मानवतावादी और विश्वकल्याणकारी पक्ष से परिचित कराया है। इसी कारण परमपावन दलाई लामा के संरक्षण में आयोजित किए गए 32 कालचक्र अनुष्ठानों ने उत्तरोत्तर सफलता अर्जित की है और सारे संसार को मानवता के धर्म के साथ जोड़ने में अद्भुत योगदान दिया है। 03 से 14 जुलाई 2014 तक लेह-लदाख में होने वाला 33 वाँ कालचक्र अनुष्ठान सफल और सार्थक होगा, इसमें संदेह नहीं है।     
कालचक्र का धार्मिक महत्त्व जितना अधिक है, उतना ही सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी है। कालचक्र अनुष्ठान एक अवसर है, एक सुखद संयोग है, पुरातन धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं को संरक्षित रखने का। इससे भी बड़ा पक्ष सामाजिक महत्त्व का है। कालचक्र अनुष्ठान के अवसर पर देश-दुनिया के तमाम लोग जाति और धर्म का भेदभाव मिटाकर एकजुट होते हैं। अमीर और गरीब का, ऊँच और नीच का भेद इस अवसर पर मिट जाता है। केवल एक ही ध्येय, केवल एक ही लक्ष्य सामने होता है, मानवता के कल्याण का, विश्व की शांति का, बंधुत्व और भाईचारे का। भौतिकतावाद, जाति-धर्म, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, भाषा-भूषा और सांस्कृतिक विभेद के बंधनों में जकड़े संसार को उसके इन बंधनों से मुक्त होने का रास्ता दिखाने वाली कालचक्र पूजा का सामाजिक पक्ष और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। समाज को एक सूत्र में बाँधने और संपूर्ण आर्यावर्त की पुरातन-परंपरागत विश्वबंधुत्व की भावना को; सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया की भावना को बल प्रदान करने के लिए और मानवता के उच्च आदर्शों की स्थापना के लिए कालचक्र पूजा का बड़ा महत्त्व है। कालचक्र अनुष्ठान दुनिया-भर के उन लोगों को एकसाथ लाने का महान अनुष्ठान भी है, जो लोग मानवता के पक्षधर हैं, जिनके मन में करुणा, दया, सत्य, शांति और अहिंसा जैसे महान मानवीय मूल्यों के प्रति श्रद्धा है, आस्था है। निश्चित रूप से कालचक्र पूजा-अभिषेक का मानवता के कल्याण में, समस्त चराचर जगत् के कल्याण में योगदान रहा है और आगे आने वाले समय में भी रहेगा। 03 से 14 जुलाई 2014 तक लेह-लदाख में होने वाली 33 वीं कालचक्र पूजा के अवसर पर होने वाले महासंगम के परिणाम कल्याणकारी होंगे और सुखद भी होंगे।    
डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी लेह, दिनांक- 30 जून, 2014, प्रातः 0830 बजे प्रसारित)   




Saturday 19 April 2014

प्रकृति और प्रगति की मार झेलते चङ्पा घुमंतू


प्रकृति और प्रगति की मार झेलते चङ्पा घुमंतू
मनाली से लेह का सफ़र तय करते वक्त 5260 मीटर ऊँचे तङलङ ला दर्रे के पहले पङ गाँव पड़ता है। इस गाँव के आगे तङलङ ला की तराई के गाँवों के पास गाड़ियों को देखते ही वहाँ के निवासी गाड़ियों की ओर दौड़ पड़ते हैं और यात्रियों से पानी माँगते हैं। कुछ लोगों ने रास्ते के किनारे तारकोल के खाली ड्रम रख दिए हैं। मनाली-लेह राजमार्ग से अकसर आने-जाने वाले लोग अपने साथ ज्यादा मात्रा में पानी लाते हैं और इन ड्रमों में डाल देते हैं। लगभग पंद्रह-बीस वर्ष पहले मनाली-लेह राजमार्ग से यात्रा करने वाले यात्रियों की याददाश्त में यह वाक़या जीवंत होगा। इन दिनों तङलङ ला की तराई वीरान ही नज़र आती है। इस वीरानी का कारण वहाँ के अधिकांश निवासियों का विस्थापन है।
लदाख अंचल मुख्य रूप से तीन भागों में बँटा है- नुब्रा, जङ्स्कर और चङ्थङ। चङ्थङ का शाब्दिक अर्थ ‘उत्तर का मैदान’ होता है। चङ्थङ का मैदान एक ओर चीन अधिकृत तिब्बत तक तथा दूसरी ओर हिमाचल प्रदेश तक फैला हुआ है। चङ्थङ के समद रोकछेन, खरनग और कोरजोक क्षेत्रों में रहने वाले घुमंतू आदिवासी चङ्पा कहलाते हैं। चङ्थङ के प्रत्येक क्षेत्र का विस्तार लगभग 100- 150 वर्ग किलोमीटर है।
तङ्लङ् ला के पश्चिम की ओर खरनग क्षेत्र है और दक्षिण-पूरब की ओर कोरजोद क्षेत्र है। यो दोनों क्षेत्र हरियाली और जल की उपलब्धता के संदर्भ में अपेक्षाकृत समृद्ध हैं। इस कारण इस क्षेत्र के चङ्पा घुमंतुओं को प्रकृति की मार अपेक्षाकृत कम ही सहनी पड़ती है।
तङ्लङ् ला के पूरब की ओर समद रोकछेन क्षेत्र में विस्तृत मैदान और ऊँचे-ऊँचे ग्लेशियर हैं। दूर-दूर तक फैले मैदानों में पानी का भीषण संकट है। यहाँ के लोगों को पानी के लिए बहुत ऊँचाई पर जाना पड़ता है, जो बहुत कष्टसाध्य होता है। इस कारण इस क्षेत्र के चङ्पा घुमंतू आदिवासी यात्रियों से पानी माँगकर अपना जीवन चलाने का प्रयास करते हैं।
समुद्र तल से लगभग तेरह हजार फुट की ऊँचाई पर विस्तृत  इस क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व सबसे कम है। यहाँ लगातार हवाएँ चलती रहतीं हैं और वनस्पति के नाम पर केवल घास उगती है। घास के बड़े-बड़े मैदानों के कारण ये दुनिया सबसे ऊँचे चरागाहों में से एक है। भारत का सीमांत क्षेत्र होने के कारण यहाँ पर वर्ष-भर फौजी जमावड़ा भी रहता है। पर्यटन के लिए प्रसिद्ध पङ्गोङ झील, त्सोमोरीरी झील तथा पङमिग झील भी इसी क्षेत्र में है।
खरनक, कोरजोक और समद रोकछेन क्षेत्रों के चङ्पा आदिवासी अपने-अपने क्षेत्रों में पुरातन-परंपरागत जीवन-शैली का अनुसरण करते हुए पशुपालन करते आए हैं। ये एक स्थान पर रहने के बजाय चारा-पानी की तलाश में वर्ष-भर भटकते रहते हैं। चङ्पा आदिवासी याक, भेड़, बकरी और घोड़े पालते हैं। यहाँ पर लंबी और छोटी, दोनों प्रजातियों की भेड़ें पाई जातीं हैं। इनसे विश्वप्रसिद्ध एवं बेशकीमती पशमीना ऊन पाया जाता है। याक की खाल और ऊन का भी व्यावसायिक उपयोग होता है। चङ्पा घुमंतुओं का जीवन पशुओं पर निर्भर होता है। महिलाएँ मक्खन बनाने, उपले बनाने और दूध को सुखाकर छुरपे बनाने का काम करतीं हैं। घुमंतू जीवन जीते हुए चङ्पा आदिवासी ऊन, खाल, मक्खन, छुरपे आदि का संग्रह करके उन्हें निचले इलाके के खेतिहर ग्रामीणों को देकर बदले में गेहूँ, जौ, मटर, चना आदि लेते हैं। इनका सत्तू बनाकर सर्दियों में इस्तेमाल करते हैं। इस तरह समूचे चङ्थङ क्षेत्र के लोगों का जीवन घुमंतुओं और खेतिहर स्थाई निवासियों के अन्योन्याश्रित संबंधों पर आश्रित रहता है।
चङ्पा घुमंतुओं की पारिवारिक व्यवस्था मातृसत्तात्मक और बहुपति प्रथा पर चलती है। ये लोग किसी स्थान पर एक से दो माह ठहरते हैं। याक के मोटे ऊन से बने तंबुओं (डोक्सा) में पूरा परिवार एकसाथ रहता है और अपना जीवन बसर करता है। सर्दियों के लिए ये लोग भेड़ की खाल से बने कोट (लक्पा), जूते (पागू) और ऊन से बने मोजे, टोपी (तिबि) आदि का इस्तेमाल करते हैं। बीमारियों के इलाज के लिए ये लोग पारंपरिक चिकित्सा (अमची) और तांत्रिक पद्धति का सहारा लेते हैं।
कुछ विद्वानों का मानना है कि चङ्पा घुमंतू अपने जानवरों के लिए चारे की तलाश में तिब्बत से इस क्षेत्र में आए और यहीं बस गए। कुछ तिब्बती घुमंतू, जो बाद में इस क्षेत्र में आए, उन्हें खम्-बा कहा जाता है। ये लोग घुमंतू जीवन जीने का साथ ही खेती भी करते हैं। चङ्पा समुदाय खम्-बा और लदाख के अन्य मूल निवासियों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं करता है।
लोत्सर और तङ्ग्युक(घुड़दौड़) इनके प्रमुख पर्व हैं। लोत्सर नव वर्ष की शुरुआत का पर्व है, जिसमें प्रत्येक परिवार अपने घर में क्रमशः कार्यक्रम और प्रीतिभोज का आयोजन करता है, तथा सभी लोग मिलजुल कर उसमें सम्मिलित होते हैं। तङ्ग्युक में प्रत्येक परिवार का पुरुष सदस्य भाग लेता है। सजे-सजाए घोड़ों में घुडदौड़ होती है। परिवार की महिलाएँ प्रतिभागी पुरुषों को छङ (एक प्रकार की देशी शराब) पिलातीं हैं।
कुल मिलाकर चङ्पा घुमंतुओं का जीवन कष्टप्रद होने के बाद भी रोमांच से भरा हुआ होता है। बाहरी समाज पर आश्रित नहीं होने के कारण आधुनिकता की चकाचौंध का भी इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। सन् 1974 में जारी किए गए गजेटियर के मुताबिक चङ्पा घुमंतुओं के एक हजार परिवार इसी प्रकार अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।
स्वयं में खुश और खुशहाल रहने वाले चङ्पा घुमंतुओं का वर्तमान निराशाओं, संकटों और विभीषिकाओं से भरा हुआ है। खरनक गाँव के निवासी शेरिंग पलजेस बताते हैं कि लगभग 25 वर्ष पूर्व खरनक क्षेत्र में चङ्पा घुमंतुओं के 70-80 परिवार ही बचे थे। ये सभी ज़ारा, पङ्छेन, यारङ्, साङ्ता, लोक्मोछे आदि गाँवों में भ्रमण करते हुए पशुपालन करते थे। इन दिनों मात्र 20-25 परिवार ही खरनक क्षेत्र में बचे हैं, जो घुमंतू जीवन बिता रहे हैं। कमोबेश ऐसी ही स्थिति समद रोकछेन और कोरजोक की है। ये परिवार भी घुमंतू जीवन छोड़कर विस्थापित होना चाहते हैं। चङ्पा घुमंतू अपनी मातृभूमि से विस्थापित होकर लेह के निकट खरनकलिङ्, चोगलमसर में और लेह-मनाली राजमार्ग पर रोङ् गाँव के आसपास बस गए हैं।
 अपने विस्थापन के दर्द को टूटी-फूटी हिंदी में बयाँ करते हुए शेरिंग पलजेस बताते हैं कि सर्दी के मौसम में एक ओर तङ्लङ् ला और दूसरी ओर बारालाचा दर्रों के बर्फ से ढँक जाने और रास्ते बंद हो जाने के बाद लगभग 6 माह के लिए हमारा इलाक प्राकृतिक जेल में तब्दील हो जाता है। बर्फीली हवाओं से जानवरों को बचाना बहुत कठिन हो जाता है। उन दिनों भोदन और पानी की भी बहुत समस्या होती है। बर्फ को पिघलाकर पानी का बंदोबस्त करना पड़ता है। हर साल हजारों पशु बर्फीली हवाओं के कारण मरते हैं। निचले इलाके के खेतिहर लोगों के साथ वस्तु विनिमय की परंपरागत व्यवस्था भी समाप्त हो गई है, इस कारण गेहूँ, जौ, मटर आदि भी नहीं मिल पाते हैं।
शेरिंग पलजेस बताते हैं कि चङ्पा घुमंतुओं का जीवन पशुओं पर आश्रित होता है, इसलिए वे पशु हत्या के लिए अपने पशुओं को कसाइयों को नहीं बेचते, मगर परंपरागत व्यवस्था टूट जाने के कारण उन्हें ऐसा करने को मजबूर होना पड़ता है। वे बताते हैं कि इसी कारण उन्होंने घुमंतू जीवन त्यागकर विस्थापन को भले ही स्वीकार कर लिया हो, मगर मातृभूमि के प्रति लगाव उन्हें बार-बार कचोटता रहता है।
भारत ही नहीं, विश्व के पर्यटन मानचित्र पर लदाख की सशक्त उपस्थिति ने भी चङ्पा घुमंतुओं के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लदाख के मुख्यालय लेह में अपना पर्यटन व्यवसाय चलाने वाले स्थानीय प्रतिनिधि देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों के सामने चङ्पा घुमंतुओं को प्रदर्शनी के तौर पर पेश करने से बाज नहीं आते हैं। इसका लाभ चङ्पा घुमंतुओं को तो नहीं मिलता, बशर्ते ‘टू नाइट थ्री डेज़ विद चङ्पा नोमैड्स’ जैसे ‘पैकेजेस’ के माध्यम से पर्यटन व्यवसायियों की जेबें जरूर भर जातीं हैं। रोङ्, खरनक, मरखा, जङ्स्कर, लाहुल-स्पीति ट्रेकिंग रूट भी चङ्पा घुमंतुओं के जीवन में अनाधिकृत दखल देते हैं।
इतना ही नहीं, चङ्पा घुमंतुओं का स्वकेंद्रित जीवन, अनूठी जीवन-शैली और मुख्यधारा से दूरी भी उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है। प्रगति के विशालकाय प्रतिमानों का जो स्वरूप जङ्स्कर और नूब्रा घाटियों में, साथ ही लेह के आसपास के इलाकों में देखने को मिलता है, वह चङ्थङ के चङ्पा घुमंतुओं से बहुत दूर है। खरनग, कोरजोद र समद रोगछेन में चिकित्सालयों और विद्यालयों के भवन भले ही देखने को मिल जाएँ, शेष सुविधाएँ मिल पाना संभव नहीं है।
वर्ष 2012 की शुरुआत में ही भीषण बर्फीले तूफान के कारण हजारों जानवर इस क्षेत्र में मारे गए थे। इतनी विशाल विभीषिका ने चङ्पा घुमंतुओं को आर्थिक तौर पर इतनी बुरी तरह से तोड़ दिया कि वे लेह तथा अन्य संपन्न गाँवों/कस्बों में दिहाड़ी मजदूरी तक करने को मजबूर हो गए। यह भले ही लदाख अंचल के अनियमित विकास की क्रूर तसवीर पेश करता हो, योजनागत विकास में लगे पैबंदों को उजागर करता हो, अर्थशास्त्रियों-समाजशास्त्रियों के माथे की लकीरों को बयाँ करता हो और पर्यटन के नाम पर इंसान को ही नुमाइश बना देने की वीभत्स मानसिकता को सामने लाता हो, मगर शेरिंग पलजेस जैसे युवाओं की आँखों के आँसू नहीं पोंछ सकता। चङ्पा घुमंतू आदिवासी पर्यटकों के ‘फोटो एलबम’ की शोभा बढ़ा रहे हैं। चङ्पा घुमंतू लगभग आधे वर्ष तक प्रकृति की जेल में कैद रहते हैं और विकास की मुख्यधारा से बहुत दूर हैं, इसलिए मानव-विकास सूचकांक को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। चङ्पा घुमंतू आदिवासी आजाद देश में विस्थापन की जिंदगी जी रहे हैं। इस हकीक़त को जज्ब़ कर पाना सभ्यता और मानवता के लिए मुमकिन नहीं है।
                                                                  डॉ. राहुल मिश्र










(केंद्रीय समाज कल्याण विभाग, दिल्ली की मासिक पत्रिका, 
समाज कल्याण के दिसंबर, 2013 अंक में प्रकाशित)