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Friday 2 June 2017

मड़फा दुर्ग : जहाँ कथाएँ आज भी जिंदा हैं




मड़फा दुर्ग : जहाँ कथाएँ आज भी जिंदा हैं

बुंदेलखंड का विंध्य अंचल अपने अतीत से ही अनेक पुरा-कथाओं और मिथकों का केंद्र रहा है। यहाँ कण-कण में ऐसी रोमांचकारी कथाएँ बसी हैं, जो आज भी लोगों को आश्चर्य में भी डाल देती हैं और अपने आकर्षण में जकड़ भी लेती हैं। बाँदा जनपद के कालंजर दुर्ग के माहात्म्य को जानने वाले इतना अवश्य जानते होंगे की शैव-साधना का यह केंद्र एक रात में ही बनकर तैयार हो गया था। देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा ने कालंजर के दुर्ग को एक रात में ही बना दिया था, ऐसी मान्यता है। कालंजर के साथ ही कालंजर के पूर्वोत्तर की ओर लगभग सोलह मील दूर मड़फा का दुर्ग भी उसी रात बनना शुरू हुआ था, जिस रात कालंजर का निर्माण हो रहा था। ऐसी मान्यता है कि विश्वकर्मा जी ने पहले कालंजर का दुर्ग बनाया और उसके तैयार हो जाने के बाद मड़फा के दुर्ग को बनाने का काम शुरू किया। रात बीत गई और मड़फा दुर्ग के पूरी तरह से नहीं बन पाने के कारण यह अधूरा ही रह गया। और वास्तव में यह दुर्ग कभी पूरी तरह से नहीं बन पाया। लोक-जीवन में जीवित यह कथा आज भी मड़फा की वीरानियों में गूँजती है। मड़फा दुर्ग का यह अधूरापन आज भी महसूस किया जा सकता है। इसकी वीरानियों में गुलज़ार होने की कसक आज भी महसूस होती है और इसी कारण बरबस ही लगता है कि यदि यह दुर्ग अधूरा न होता, तो शायद कालंजर से भी सुंदर, मोहक और आकर्षक होता। छत्रपति शिवाजी महाराज के शिवनेरी दुर्ग की भाँति अगम्य ऊँचाई में बना यह दुर्ग इतना समर्थ होता, कि कभी कोई आक्रांता इसे जीत नहीं पाता। वैसे भी इस दुर्ग को अजेय ही कहा जा सकता है, क्योंकि सन् 1780 में छछरिहा के युद्ध के पहले तक इस दुर्ग को जीतने में कोई सफल नहीं हो सका था। पन्ना के बघेल राजा हरिवंश राय और बाँदा के नवाब के बीच हुए छछरिहा के संग्राम के बाद यह दुर्ग अपना अस्तित्व खोता गया।
ऐसी मान्यता है कि महर्षि अर्थवर्ण का आश्रम मड़फा में ही था। महर्षि महाअर्थवर्ण को अथर्वा के नाम से भी जाना जाता है और उनके कारण ही चतुर्थ वेद के रूप में अथर्ववेद को जाना जाता है। महर्षि अथर्वा की पहचान महर्षि वेदव्यास के श्वसुर के रूप में, और इसी कारण मड़फा को वेदव्यास की ससुराल के रूप में भी जानते हैं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी पुस्तक ‘कृष्ण द्वैपायन व्यास’ में उल्लेख किया है कि एक बार महर्षि वेदव्यास अपनी माता सत्यवती से मिलने के लिए हस्तिनापुर (वर्तमान- ग्राम हस्तम, जनपद बाँदा) जा रहे थे। रास्ते में वाग्मती नदी (वर्तमान- बागे नदी, बदौसा, बाँदा) के पास कुछ अज्ञात लोगों ने उन्हें पकड़कर मारपीट शुरू कर दी, जिस कारण वेदव्यास बेहोश हो गए। वहाँ से गुजरते हुए महाअर्थर्वण के शिष्यों ने महर्षि व्यास की दयनीय दशा को देखा और उन्हें उठाकर महाअर्थवर्ण के आश्रम में ले आए। महाअर्थवर्ण की पुत्री वाटिका ने बड़ी लगन के साथ महर्षि व्यास की सेवा-सुश्रुषा की। बाद में महर्षि व्यास ने वाटिका से विवाह कर लिया और उनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे व्यासपुत्र सुखदेव के नाम से जाना जाता है।
अपनी जर्जर काया को आयुर्वेद की चिकित्सा के माध्यम से युवा कर लेने वाले महर्षि च्यवन का आश्रम भी मड़फा में था, ऐसी मान्यता है। चरक संहिता सहित आयुर्वेद की अनेक पुस्तकों के रचयिता और सुप्रसिद्ध वैद्य चरक ऋषि का आश्रम भी मड़फा में ही था। लोक-प्रचलित कथाओं और मिथकों का अनूठा संगम मड़फा में देखने को मिलता है। ऐसा माना जाता है कि माण्डव्य ऋषि के आश्रम से इस स्थान का नाम मड़फा पड़ा है। माण्डव्य ऋषि के आश्रम में कण्व ऋषि समेत अनेक ऋषि रहा करते थे। दुष्यंत और शकुंतला की पुरा-ऐतिहासिक गाथा के पुष्पन-पल्लवन का स्थान भी यही माना जाता है। दुष्यंत और शकुंतला की प्रेमकथा लोकजीवन से आश्रय पाकर आज भी कण-कण में गूँजती है। कण्व ऋषि की पालित पुत्री शकुंतला के पुत्र भरत ने मड़फा में ही शेर के दाँत गिने थे। राजा दुष्यंत के उत्तराधिकारी के रूप में अपने राज्य का विस्तार करके उसने ऐसे प्रतापी शासक का गौरव प्राप्त किया, जिसके नाम पर भरतखंड और भारतवर्ष को जाना जाता है। इस क्षेत्र के आसपास भरत के नाम से अनेक गाँव हैं, जो इस कथा के पुष्ट और सच होने को आश्रय प्रदान करते हैं। वेदव्यास के नाम से विकृत होकर बना वतर्मान का बदौसा और भरतकूप के निकट स्थित व्यासकुंड आदि के माध्यम से मड़फा परिक्षेत्र की पौराणिकता को प्रमाणित किया जा सकता है।

समुद्रतल से 1240 फीट ऊँचाई पर स्थित मड़फा के दुर्ग में गुप्तकालीन स्थापत्य के साथ ही चंदेलकालीन स्थापत्य की जर्जर उपस्थिति ही सही, मगर यह इस दुर्ग की प्राचीनता को, और साथ ही इसकी भव्यता को बखानती जरूर है। मड़फा के दुर्ग ने गुजरात से आए बघेलवंशी शासक व्याघ्रदेव को भी आकर्षित किया था। 1290 विक्रमी संवत् में व्याघ्रदेव ने यहाँ आकर मुकुंददेव चंद्रावत की कन्या सिंधुमती से विवाह किया और मड़फा दुर्ग बघेल शासकों के आधिपत्य में आ गया। वीरसिंह देव, वीरभान देव और रामचंद्र बघेल ने यहाँ पर शासन किया। बाद में बघेल शासकों ने अपनी राजघानी को रीवा स्थानांतरित कर दिया। इस तरह लगभग दो सौ वर्षों तक बघेलों के शासन की गवाही भी मड़फा दुर्ग के कण-कण में दिखती है। मड़फा के नजदीक ही गोंडरामपुर नामक एक गाँव है। यह गाँव गोंड शासकों की उपस्थिति को सँजोए हुए है। गोंड शासकों की वंशावली में रानी दुर्गावती का नाम भी आता है। मड़फा के दुर्ग ने रानी दुर्गावती की वीरता की गाथा को भी विस्मृत नहीं किया है।
मड़फा दुर्ग की जटिल संरचना का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहाँ पर बाहरी लोगों का आना आज भी उतना ही कठिन है, जितना कि पुराने जमाने में रहा होगा। इसी कारण अठारहवीं शताब्दी के मध्य में टीफेन्थलर नामक एक डच पादरी ही शायद सबसे पहले यहाँ पहुँचा होगा और उसने ही यहाँ के बारे में, यहाँ की भौगोलिक संरचना और यहाँ के ऐतिहासिक महत्त्व का वर्णन किया होगा, क्योंकि उसके पहले के किसी इतिहासकार ने इसका उल्लेख नहीं किया है। टीफेन्थलर लिखता है कि उस समय इसे मण्डेफा के नाम से जाना जाता था। सन् 1804 में कर्नल मेसलबैक ने रात्रि में यहाँ पर आक्रमण किया था, ताकि इस क्षेत्र को हिंसक खूँखार कब्जेदारों से खाली कराया जा सके। बाद में उसने भी इस क्षेत्र को छोड़ देना ही उचित समझा। तब से आज तक यह क्षेत्र कमोबेश उपेक्षित ही रहा है।
जनश्रुतियों में प्रचलित है कि यहाँ से गुजरते हुए एक जैन व्यापारी को अकूत संपदा प्राप्त हुई थी। इस धन का धर्मार्थ में उपयोग करते हुए मड़फा दुर्ग में उसने जैन मंदिरों का निर्माण कराया। दुर्ग में मठ की आकृति के एक ध्वंसावशेष के समीप ही जैन मंदिर भी बने हुए हैं। पंचरथ योजना के अनुरूप बने इन जैन मंदिरों का अधिकांश हिस्सा ध्वस्त हो चुका है और गर्भगृह में कोई मूर्ति भी नहीं है। गर्भगृह से दूर एक जैन तीर्थंकर की मूर्ति पद्मासन मुद्रा में है। शायद इस मूर्ति को गर्भगृह से निकालकर यहाँ रखा गया है। इस भग्न मूर्ति में तीन फीट लंबी और एक फीट चौड़ी पादपीठिका है, जिसमें शिलालेख है। संस्कृत में लिखे इस शिलालेख के अनुसार 1408 माघ सुदी 5 रविवार को मूर्ति प्रतिष्ठापित की गई है। इस शिलालेख के अनुसार छीतम ने अपने पिता गोसल और माता सलप्रण, अपने पितामह धने तथा मातामही तोण का नामोल्लेख किया है और गोसल के पुत्र छीतम ने इस मूर्ति की स्थापना कराई है। पादपीठ में अंकित शिलालेख के आधार पर इस मूर्ति को तेरहवीं शताब्दी का माना जा सकता है। मड़फा दुर्ग में लगभग दो मीटर ऊँची ऋषभनाथ की एक अन्य प्रतिमा भी है। यह प्रतिमा काफी हद तक सुरक्षित है, जबकि कई अन्य मूर्तियाँ भग्न स्थिति में हैं।
मड़फा में तांडव नृत्य करते शिव की दुर्लभ मूर्ति भी है। इसमें शिव अपने हाथों में विभिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्र लिए हुए हैं। पादतल में एक राक्षस पड़ा हुआ है। नए मंदिर का निर्माण कराकर इस प्रतिमा को सुरक्षित करने का प्रयास स्थानीय लोगों द्वारा किया गया है। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ श्रद्धालुओं का आगमन भी होता है। इस मंदिर से लगभग आठ सौ मीटर दूर एक आश्रम बना हुआ है। यहाँ पर जल-प्रबंधन का प्राचीन और दुर्लभ प्रयोग देखा जा सकता है। यहाँ पर चट्टान को काटकर एक कुंड जैसा बनाया गया है, जिसमें प्राकृतिक रूप से जल इकट्ठा होता रहता है और वर्षा नहीं होने पर भी इसमें जल उपलब्ध रहता है। इस जलकुंड के समीप एक कच्चा तालाब भी है। ऐसी मान्यता है कि इस तालाब में स्नान करने पर चर्मरोग नष्ट हो जाते हैं। जलकुंड और तालाब को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दुर्ग में पर्याप्त प्रबंध किए गए थे, ताकि युद्ध आदि की स्थिति में दुर्ग के अंदर संसाधनों की कमी न पड़े। चंदेलों के आठ प्रमुख दुर्ग में से एक मड़फा भी है और यहाँ मिलने वाले भग्नावशेष इस दुर्ग के अजेय होने की गवाही स्वयं ही दे देते हैं। इन भग्नावशेषों के साथ जुड़ी अनेक रोचक कथाएँ लोक-जीवन में कब से हैं, इनका अनुमान लगाना भी अपने आप में एक रोचक और रोमांचकारी खोज से कम नहीं होगा।
मड़फा दुर्ग के किस्से आज भी हैं, मगर ये किस्से किसी भरत के नहीं; माण्डव्य, अथर्वा, वेदव्यास, च्यवन और चरक जैसे ऋषियों-महर्षियों के नहीं, वरन् आतंक और दहशत के पर्याय दस्युओं और अपराधियों के हैं। इन किस्सों के पीछे मड़फा का ऐतिहासिक, भौगोलिक और पौराणिक महत्त्व छिप गया है। यहाँ रात की बात तो दूर, दिन में भी जाने से लोगों को डर लगता है। यहाँ वेदव्यास को उपचार के लिए ले जाने वाले महर्षि अथर्वा के शिष्यों की संततियाँ नहीं, बल्कि लूटने और यहाँ तक कि जीवन का भी हरण कर लेने वाले आधुनिक भारत के क्रूर आक्रांताओं का विचरण होता रहता है। मड़फा दुर्ग की अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ धन के लालच की भेंट चढ़ गईं। धन के लालच में ही हाथी दरवाजा, मंदिरों के गर्भगृह और ऐतिहासिक निर्मितियाँ खोद डाली गईं। यहाँ के दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य को डकैतों और अपराधियों के छिपने के सुगम ठिकानों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। विकास के संकेत भी यहाँ देखे नहीं जा सकते। यह दुर्ग, जो एक समय में अजेय था, अजेय आज भी है, मगर विकास के लिए। आज भी मड़फा दुर्ग तक जाने के लिए पगडंडियाँ ही हैं, जो मानपुर, कुरहम या खमरिया गाँव से होकर जाती हैं। मड़फा दुर्ग की यह दयनीय त्रासदी है, जो अधूरेपन के अपने दर्द को देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा के समय से आज तक बखान रही है। कालंजर का दुर्ग पर्यटन के विश्व-स्तरीय मानचित्र पर है, मगर मड़फा आज भी उपेक्षित है। मड़फा दुर्ग को आज की कथाओं से उबारकर अतीत की कथाओं तक ले जाने के लिए प्रयास अपेक्षित हैं और इन प्रयासों के लिए मड़फा का अजेय दुर्ग आज विजित होने की प्रत्याशा में कृशकाय होकर भी खड़ा है।
डॉ. राहुल मिश्र



(नगरपालिका परिषद्, हटा, जनपद- दमोह, मध्यप्रदेश द्वारा प्रकाशित और डॉ. एम.एम. पांडे द्वारा संपादित बुंदेली दरसन- 2017 में प्रकाशित)

Wednesday 24 May 2017

19वें कुशक बकुला रिनपोछे 19th Kushok Bakula Rinpoche




19वें कुशोग बकुल रिनपोछे का जीवन और योगदान

बकुल लोबस़ङ थुबतन छोगनोर, जिन्हें लदाख अंचल सहित देश-विदेश में कुशोग बकुल रिनपोछे के रूप में जाना जाता है। ऊँची-ऊँची हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियों की तरह निर्मल, पवित्र और महान व्यक्तित्व वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे लदाख के युगपुरुष के रूप में जाने जाते हैं। कुशोग बकुल रिनपोछे की पहचान समाज-सुधारक, आधुनिक लदाख के निर्माता, शिक्षाविद, करुणा के अपार सागर से भरे सच्चे भिक्षु और कुशल प्रशासक-संचालक के रूप में रही है। आज भी उन्हें इसी रूप में याद किया जाता है।
19 मई, सन् 1917 को लदाख के मङठो गाँव के राजपरिवार में नङवा थाये और येशे वङमो की संतान के रूप में जन्म लेने वाले कुशोग बकुल को तेरहवें दलाई लामा द्वारा अर्हत बकुल के उन्नीसवें अवतार के रूप में मान्यता दी गई थी। अर्हत बकुल भगवान बुद्ध के सोलह प्रधान शिष्यों में से एक माने जाते हैं। कुशोग बकुल रिनपोछे नौ वर्ष की आयु में उच्च अध्ययन के लिए तिब्बत चले गए। सन् 1940 में वे लदाख लौटे। उस समय का लदाख बहुपति प्रथा, पशुबलि, भेदभाव, अशिक्षा और गरीबी जैसी सामाजिक बुराइयों से जूझ रहा था। भारत की आजादी और विभाजन जैसी राजनीतिक हलचलों के कारण लदाख राजनीतिक संकटों से भी घिर रहा था। ऐसी स्थिति में पूज्यपाद बकुल रिनपोछे अपनी धार्मिक जिम्मेदारी के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आए। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के विकास पर, खासतौर से बालिका शिक्षा पर जोर दिया। वे खुद जीवन-भर एक शिक्षार्थी की तरह अध्ययन करते रहे और समाज को शिक्षा की अहमियत बताते रहे।
सन् 1949 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वे सक्रिय राजनीति में आए और सन् 1951 में राज्य विधानमंडल के सदस्य चुने गए। 12 दिसंबर, 1952 को राज्य विधानमंडल के बजट भाषण में जिस बेबाकी के साथ उन्होंने लदाख की दयनीय और उपेक्षापूर्ण स्थिति को प्रकट किया, उससे यह सिद्ध हो गया कि भगवान बुद्ध का सच्चा शिष्य ही निडर होकर सत्य के साथ खड़ा हो सकता है और सच्चाई को कह सकता है। अपने इस अभूतपूर्व व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि लदाख अंचल में शिक्षा, रोजगार, संचार, स्वास्थ्य और आवागमन के साधन नाममात्र को भी नहीं हैं। यह लदाख के लोगों की सहनशीलता और शांतिप्रियता है, जिसके कारण वे अनीति और पक्षपात को झेल रहे हैं। इस भाषण ने कुशोग रिनपोछे को लदाख का सर्वमान्य नेता ही नहीं बनाया, बल्कि आधुनिक लदाख के निर्माण की नींव भी रख दी। सन् 1953 से 1967 तक राज्य विधानमंडल में, और फिर सन् 1967 से 1977 तक लोकसभा के सांसद के रूप में वे लदाख के लोगों की आवाज को बुलंद करते रहे। केंद्रीय अल्पसंख्यक आयोग सहित विभिन्न संसदीय समितियों और संगठनों के सदस्य के रूप में वे समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग की सहायता करते रहे। राज्य विधानमंडल में लदाख मामलों के लिए स्वतंत्र विभाग, लदाख स्वायत्तशाषी पर्वतीय विकास परिषद् का गठन और दिल्ली में लदाख बौद्ध विहार की स्थापना उनके प्रयासों का ही नतीजा है।
एक राजनेता ही नहीं, समाज-सुधारक के रूप में भी उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है। पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे ने अनेक कष्ट उठाकर लदाख के हर-एक गाँव की यात्रा की। अपनी यात्राओं के दौरान वे लोगों को सामाजिक बुराइयों को छोड़ने के लिए कहते थे। उनका सबसे ज्यादा जोर शिक्षा पर होता था। पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे ने परंपरागत शिक्षा ही ग्रहण की थी, मगर वे आधुनिक शिक्षा का महत्त्व भली भाँति जानते थे। सन् 1955-56 में वे भारत सरकार के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में तिब्बत की यात्रा पर गए थे। वहाँ बदलते राजनीतिक हालातों ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया था। देश-दुनिया में आते बदलावों को समझते हुए उन्होंने परंपरागत और आधुनिक शिक्षा के बीच संतुलन बनाने पर जोर दिया। उनका मानना था कि लदाख के युवाओं को जब तकनीकी, औद्योगिक और चिकित्सा शिक्षा मिलेगी, तभी इस क्षेत्र का समुचित विकास हो सकेगा और लदाख भी देश की मुख्यधारा से जुड़ेगा। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है। अपने अधिकारों को पाने के लिए आधुनिक शिक्षा लेना जरूरी है। इसी कारण वे दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँचकर किसानों को, मजदूरों को प्रेरित करते थे, कि वे अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए भेजें। उनके इन्हीं प्रयासों का नतीजा था, कि छोटी आमदनी वाले किसान और मजदूर भी अपनी सारी जमा पूँजी खर्च करके अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए आगे आए। शिक्षा के लिए लदाख अंचल में आई जागरूकता कुशोक बकुल रिनपोछे के प्रयासों का ही नतीजा है। 
उन्होंने अपने प्रयासों से कई विद्यालयों की स्थापना भी की। केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान इसका जीता-जागता उदाहरण है। इस संस्थान को मानद विश्वविद्यालय का दर्जा दिये जाने के बाद बौद्ध दर्शन के परंपरागत विषयों के साथ ही मानविकी, विज्ञान और तकनीकी जैसे आधुनिक विषयों के अध्ययन की संभावनाएँ बनीं हैं। शिक्षा के संबंध में बकुल रिनपोछे की परिकल्पना थी कि शोध और अनुवाद के द्वारा परंपरागत विद्याओं का अध्ययन आधुनिक संदर्भों में किया जाए। केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान आज उनके विचारों को सच करता हुआ नज़र आता है।
एक दूरदर्शी राजनेता, और एक श्रेष्ठ भिक्षु के रूप में उन्होंने मंगोलिया के राजदूत की जिम्मेदारी को निभाया। वहाँ की दिशाविहीन जनता को धर्म और सत्कर्म का रास्ता दिखाकर उन्होंने केवल मंगोलिया को ही नहीं, सारे विश्व को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। इसी कारण उन्हें मंगोलिया के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पोलर स्टार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार द्वारा सन् 1988 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
कुशोग बकुल रिनपोछे ने 04 नवंबर, सन् 2003 को छियासी वर्ष की श्रीआयु में अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया। उनकी प्रेरणा, उनका मार्गदर्शन और उनकी नसीहतें आज भी पथ-प्रदर्शक बनकर लदाख को विकास की ऊँचाइयों तक ले जा रही हैं। समानता, समरसता, सौहार्द, मेल-जोल और शांतिपूर्ण जीवन का उनका आदर्श आज भी जीवित है, जीवंत है।









डॉ. राहुल मिश्र
(एफएम रेनबो, नई दिल्ली से सांस्कृतिक डायरी कार्यक्रम के अंतर्गत 10 मई, 2017 को रात्रि 10.00 बजे प्रसारित एवं आकाशवाणी, लेह से 19 मई, 2017 को प्रातः 09.10 बजे प्रसारित)

Sunday 21 May 2017



निराला के काव्य की पड़ताल करती एक महत्त्वपूर्ण किताब

(निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना)
बीसवीं सदी के सिद्धहस्त कवि और बहुमुखी प्रतिभा के धनी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व और कृतित्व उनके नाम के अनुकूल ही है। उनकी रचनाओं में जैसी विविधता, व्यापकता और समग्रता देखने को मिलती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। इसी कारण स्वनामधन्य कविश्री निराला को समग्रता के साथ मूल्यांकन के पटल पर उतार पाना कठिन ही नहीं, दुष्कर कार्य भी है। निराला के गद्य में जहाँ एक ओर समाज का यथातथ्य चित्रण है; वहीं दूसरी ओर मनोभाव, सामयिक प्रश्नाकुलताएँ और कथ्य की व्यापकता चित्रित होती है। इसी प्रकार निराला के काव्य में एक ओर छायावाद की प्रवृत्तियों के अनुरूप कल्पना, रहस्य-रोमांच और प्रकृति का सुंदर चित्रण है, तो दूसरी ओर समाज और राष्ट्र के प्रति एक समर्पित साहित्यिक का जीवन-दर्शन है। प्रयोगधर्मी निराला कभी किसी स्तर पर एक स्थिति, विचार, विचारधारा या मनोभाव को पकड़कर नहीं बैठते, वरन् नदी के प्रवाह के समान उनकी वैचारिक गति, भावों-संवेदनाओं का प्रसार और परिवर्तित-परिवर्धित होतीं भावजन्य अभिव्यक्तियाँ अद्भुत और अनूठेपन के साथ सहृदय पाठक को अपने साथ ले चलती हैं। इसी कारण सूर्य और निराला के प्रिय बादल के समयानुकूल संयोजन से आकाश में बन जाने वाले इंद्रधनुष की भाँति निराला का काव्य-संसार बहुरंगी बन जाता है। इसका एक-एक रंग अपनी विलक्षण प्रभावोत्पादकता से रोमांचित कर देने वाला है।
निराला के इंद्रधुनष-सम काव्य-संसार की एक रश्मि को अपने शोध का विषय बनाकर डॉ. स्नेहलता शर्मा ने उस दीप्ति से साक्षात्कार कराने का प्रयास किया है, जिसके बल पर हिंदी साहित्य गर्वोन्नत है। डॉ. स्नेहलता शर्मा की कृति- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना इसी प्रयास का पुस्तकाकार माध्यम है। समीक्ष्य कृति अपनी विशिष्टता भी इसी कारण रखती है, क्योंकि राष्ट्रीय चेतना के स्वर को, उसके प्रवाह और विस्तार को निराला के समग्र काव्य-संसार में देखना और उसे विश्लेषित करते हुए एक स्थान पर उपलब्ध कराना सरल कार्य नहीं है। समीक्ष्य कृति में अतीत के उस गौरवपूर्ण कालखंड को संदर्भ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसकी विनाशलीला को देखकर पुनः जागरण होता है। भारतीय जागरण काल के साथ अतीत के गौरवपूर्ण कालखंडों का स्मरण भी जुड़ जाता है। निराला की राष्ट्रीय चेतना से संपृक्त कविताओं का आधार इसी बिंदु पर तैयार होता है। इस प्रकार क्रमबद्ध और व्यवस्थित सामग्री का संकलन राष्ट्रीय चेतना के पक्षों को केवल स्पष्ट ही नहीं करता, वरन् अपने व्यापक रूप में, व्यवस्थित-क्रमबद्ध अध्ययन में अनेक ऐसे अनछुए-अनजाने पक्षों को भी प्रकट कर देता है, जो प्रायः चलन में नहीं होने के कारण विस्मृत हो चुके हैं। विषय की सटीक प्रस्तुति हेतु समीक्ष्य कृति को पाँच अध्यायों में बाँटा गया है।
समीक्ष्य कृति का प्रथम अध्याय है- राष्ट्र का स्वरूप : राष्ट्र के रूप में भारत, इतिहास। इस अध्याय में राष्ट्र को परिभाषित करते हुए धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एकता के विविध अंगों को; एवं भाषागत, परंपरागत एकता के संदर्भों को प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार भारतवर्ष के रूप में इस विशाल भूखंड की निर्मिति को आदिकाल से लगाकर वर्तमान तक देखने का प्रयास हुआ है। राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीयता के भाव के समग्र प्रस्तुतीकरण का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि लेखिका ने उन तत्त्वों को भी खुले मन से विश्लेषित किया है, जो अतीत से लगाकर वर्तमान तक हावी हैं और राष्ट्रीय चिंतनधारा के अवरोधक भी हैं। इसे विश्लेषित करते हुए उल्लेख किया गया है कि- इस देश में वैर-फूट का यह भाव इतना प्रबल क्यों रहा, इसके भी कारण हैं। बड़ी-बड़ी नदियों और बड़े-बड़े पहाड़ों के गुण अनेक हैं, लेकिन उनमें एक अवगुण भी होता है कि वे जहाँ रहते हैं, वहाँ देश के भीतर अलग-अलग क्षेत्र बना देते हैं और इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के भीतर एक तरह की प्रांतीयता या क्षेत्रीय जोश पैदा हो जाता है। पहाड़ों और नदियों ने भारत को भीतर से काटकर उसके अनेक क्षेत्र बना दिए और संयोग की बात है कि कई क्षेत्रों में ऐसी जनता का जमघट हो गया, जो कोई एक क्षेत्रीय भाषा बोलने वाली थी। (पृष्ठ- 15) इस विविधता के बीच संस्कृत और संस्कृति के माध्यम से उन सूत्रों को खोजने का काम भी इस अध्याय में कुशलतापूर्वक हुआ है, जिनके कारण अलग-अलग कालखंडों में विविधता में एकता कायम हुई और भारतीय नवजागरण के दौरान सारा देश एकसाथ उठ खड़ा हुआ।
समीक्ष्य कृति का द्वितीय अध्याय- भारतीय जागरण काल है। यह अध्याय भारतीय नवजागरण के विविध पक्षों का मूल्यांकन करता है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के विशद-व्यापक विवेचन के साथ ही इनके माध्यम से उदित होने वाली राष्ट्रीय काव्यधारा की पड़ताल इस अध्याय में की गई है। ‘राष्ट्रीय काव्यधारा के विविध सोपान’ उपशीर्षक के अंतर्गत भारतेंदु युग, द्विवेदी युग और द्विवेदी युगोत्तर काव्यधारा में राष्ट्रीय चेतना के विविध पक्षों का सर्वांगपूर्ण प्रस्तुतीकरण इस अध्याय में उल्लेखनीय है। समीक्ष्य कृति का तृतीय अध्याय है- छायावादी काव्य में राष्ट्रीय चेतना। इस अध्याय में छायावाद की उत्पत्ति के उन सूत्रों को तलाशने का प्रयास किया गया है, जो प्रायः चर्चा के केंद्र में नहीं  रहे हैं। इसके साथ ही छायावाद के दो स्तंभों- पंत और निराला की काव्य-साधना के प्रवाह को भी इस अध्याय में विश्लेषित किया गया है। इसी विश्लेषण के क्रम में पुस्तक बताती है- पंत वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन के पश्चात एक नए जगत, भौतिक समृद्धि से संबद्ध विचारधारा प्रधान चिंतनलोक में पदार्पण करते हैं। निराला भी बेला, नए पत्ते, कुकुरमुत्ता आदि में परिवर्तित दृष्टिकोण लेकर उपस्थित हुए हैं। (पृष्ठ- 141) इसी अध्याय में उल्लेख है कि- कहीं-कहीं निजी सुख-दुःखात्मक अनुभूति को, छायावादी कवियों ने, युग को जगाने के लिए शंखनाद में भी परिवर्तित कर दिया है। क्षुद्रता और निराशा के कुहरे में न डूबकर जीवन के दुःख- द्वंद्वों को चुनौती के रूप में स्वीकार कर प्राणपण से जूझने की प्रेरणा देने वाले ये विचार छायावादी काव्य का एक अल्प ज्ञात या किसी सीमा तक उपेक्षित पक्ष भी प्रस्तुत करते हैं। साथ ही जीवन के मूल-मंत्रों को ध्वनित करने वाले उपयोगी तत्त्व एवं जीवन को उज्ज्वल, महान और वरेण्य बनाने की प्रेरणा भरने वाले ये अंश छायावादी कवियों के उस महान उत्तरदायित्व के निर्वाह के सूचक भी हैं, जिसे साहित्यकार होने के नाते स्वयं किया है। (पृष्ठ- 145) इस प्रकार तृतीय अध्याय तक आते-आते पुस्तक में ऐसे तत्त्व स्पष्ट होने लगते हैं, जिनका आश्रय पाकर निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना मुखर होती है।
समीक्ष्य कृति का चतुर्थ अध्याय इसी के अनुरूप है। इस अध्याय को शीर्षक दिया गया है- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना। इस अध्याय में निराला की समग्र काव्य-यात्रा को तीन अलग-अलग खंडों में बाँटकर विश्लेषित किया गया है। निराला की सारा जीवन अभावों और संघर्षों से भरा रहा। इसी कारण निराला के लिए उस भारत को देखना सुलभ हो सका, जिसके लिए राष्ट्रीय चेतना की अनिवार्यता थी। और इसी अनिवार्यता को निराला ने अपनी लेखनी का ध्येय बना लिया था। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पुस्तक में उल्लेख किया गया है कि- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला काव्य के शाश्वत माध्यम से जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों को तोड़ने का भगीरथ संकल्प लेकर ही जन्मे और मानव के जीवन से अभावों को मिटा देने हेतु अनंत संघर्ष करते हुए जीवित रहे और गरल-पान करते-करते शिवत्व प्राप्त करते हुए स्वर्गवासी हुए। निराला ने असंतोषपूर्ण वातावरण में रहकर अपनी नूतन काव्याभिव्यक्ति द्वारा विद्रोही स्वर फूँका और जनजागरण की नवज्योति जगाने का पुनीत कार्य किया। इसी कारण डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला को नई प्रगतिशील धारा का अगुवा कहकर उनके व्यक्तित्व का सम्मान किया है। निराला का जीवन विभिन्न असमानताओं, असंगतियों एवं अभावों से भरा था, किंतु परिस्थितयों ने कवि को उद्बुद्ध एवं जागरूक बनाकर उसे अन्याय के प्रति संघर्ष की शक्ति दी। यही शक्ति निराला में राष्ट्रीय चेतना के रूप में उभरकर आई, जिसने कवि को राष्ट्रीय गौरव की शाश्वत अभिव्यक्ति की प्रेरणा दी। (पृष्ठ- 195) निराला की अनेक चर्चित कविताओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना के इस स्वर को विश्लेषित करने का सटीक और सफल प्रयास इस अध्याय में परिलक्षित होता है। सन1920 से 1961 तक विस्तृत निराला के काव्य-संसार की व्यापक पड़ताल और गहन मंथन से निःसृत स्थापनाओं को इस अध्याय में स्थान मिला है। इसके साथ ही निराला की साहित्य-साधना से जुड़े ऐसे ज्वलंत पक्ष, जो चर्चित नहीं हो सके और जिनको जानना निराला के संदर्भ में आवश्यक है, उन्हें भी इस अध्याय में विश्लेषित किया गया है।
समीक्ष्य कृति का पंचम अध्याय है- निराला के काव्य में राष्ट्रीय काव्यधारा की सीमाएँ। इस अध्याय में निराला की काव्यधारा को व्यापक अर्थों में विश्लेषित किया गया है। यह अध्याय स्थापना देता है कि निराला ही छायावाद के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपने पौरुष के बल पर संघर्षों और अभावों से टक्कर ली है। वे पंत और प्रसाद की परंपरा से अलग संघर्ष के लिए सदैव तत्पर रहे और संघर्ष की यह चेतना व्यक्ति से उठकर समाज तक, व्यष्टि से समष्टि तक व्यापक होती जाती है। निराला के लिए उनका निजी जीवन-संघर्ष इसी कारण उनकी कमजोरी नहीं बन पाता है। एक समय के बाद, विशेषकर अपनी इकलौती पुत्री के देहावसान के बाद विक्षिप्त-से हो जाने वाले निराला अपने जीवन के संघर्षों को देश-काल-समाज के संघर्षों के साथ एकाकार कर लेते हैं। इसी कारण उनका अपना भोगा हुआ सत्य जब कागजों पर उतरता है, तो उसके तीखेपन को पचा पाना सरल नहीं रह जाता है। निराला के काव्य-संसार में राष्ट्रीय-चेतना की उत्पत्ति और विकास को इसी की परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है।
निराला का कवि राष्ट्रीय चेतना का अपराजेय नायक है। उसका राष्ट्र-प्रेम केवल अतीत के स्वर्णिम इतिहास को आधार नहीं बनाता और न ही वर्तमान की विषम परिस्थितियों से त्रस्त होकर वह रो उठता है। अपितु वह पूर्ण निष्ठा एवं आस्था से असत्य, अशिव एवं असुंदर का ध्वंस करके सत्य, शिव एवं सुंदर का सृजन करता है। छायावादी कवियों पर ‘पलायनवादी होने का आरोप लगाने वाले आलोचकों के लिए’ निराला का आशावाद एवं कर्मठता प्रश्नचिह्न बन गये हैं। राष्ट्र-चेतना की प्रेरणा देते हुए निराला का अदम्य स्वर यों गूँजा था-
पशु नहीं, वीर तुम / समर शूर क्रूर नहीं / काल चक्र में हो दले / आज तुम राज कुँवर / समर सरताज। (पृष्ठ- 271)
समीक्ष्य कृति के अंत में निष्कर्ष के तौर पर पाँचों अध्यायों का निचोड़ प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही संदर्भ ग्रंथ सूची भी पुस्तक की प्रामाणिकता को स्थापित करने में योगदान देती है। कुल मिलाकर निराला के काव्य-संसार को नवीन दृष्टि से देखने का यह अभिनव प्रयास सिद्ध होता है। तथ्यों का सटीक प्रस्तुतीकरण, तार्किकता और विषय का विवेचन समीक्ष्य कृति को महत्त्वपूर्ण बना देता है। इस कारण यह कृति शोध-कर्ताओं के साथ ही सहृदय पाठकों के लिए उपयोगी भी है और संग्रहणीय भी है।
डॉ. राहुल मिश्र
समीक्षित कृति- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना
डॉ. स्नेहलता शर्मा
प्रथम संस्करण 2013
अन्नपूर्णा प्रकाशन, साकेत नगर, कानपुर- 208 014
मूल्य- 600/-   
(नूतनवाग्धारा, बाँदा, संयुक्तांक : 28-29, वर्ष : 10, मार्च 2017 अंक में प्रकाशित )

Friday 12 February 2016

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब

वृत्तचित्र, दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब
भारतमाता के मुकुट कहे जाने वाले हिमालय की बर्फ से ढकी उज्ज्वल पर्वत श्रेणियों के बीच लदाख अंचल स्थित है। लदाख अंचल को भारतमाता के मुकुट में सुशोभित सुंदर मणि कहा जाता है। एक ओर हिमालय, तो दूसरी ओर कराकोरम की पर्वतश्रेणियों के बीच स्थित लदाख से होकर सिंधु नदी गुजरती है। भारतीय संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली पवित्र सिंधु नदी-घाटी में बसा लदाख अंचल अपने अतुलनीय-अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात है। लदाख का शाब्दिक अर्थ दर्रों की भूमि है। दूर-दूर तक नजरों में समाते, कभी ऊँचे उठते, कभी झुकते-जैसे आसमान को छूते विविधवर्णी पर्वतों के बीच नीले रंग के स्वच्छ आकाश में विचरण करते रुई के जैसे बादलों की अद्भुत छटा को समेटे लदाख अंचल अपने प्राकृतिक सौंदर्य से हर आने वाले का मन मोह लेता है। पूर्णिमा की चाँदनी रात में शीतलता से भरी दूधिया रोशनी में चमकती धरती का आकर्षण हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। चारों ओर फैली असीमित शांति के बीच सिंधु के जल का कल-कल निनाद महानगरीय जीवन की आपाधापी से थककर आए पर्यटकों को असीमित सुख देता है, अपरिमित शांति देता है। 
अपनी अनूठी प्राकृतिक विशिष्टता के साथ लदाख अंचल का अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी है। हिंदुस्तान को अपना यह नाम भी यहाँ प्रवाहित होने वाली सिंधु नदी से मिला है। लदाख अंचल हमारे पूर्वजों, आदि मानवों के जीवन का गवाह भी है। लदाख में कई स्थानों पर शिलालेख और पत्थरों पर अंकित पाषाणकालीन चित्र मिलते हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि यह स्थान नव-पाषाणकाल से स्थापित है। पहली शताब्दी के आसपास लदाख कुषाण राज्य का हिस्सा हुआ करता था। लदाख के प्राचीन निवासी मोन और दरद लोगों का वर्णन हेरोडोट्स, नोर्चुस, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी आदि प्रसिद्ध यात्रियों द्वारा लिखे इतिहास में भी मिलता है। सातवीं शताब्दी में बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र का वर्णन किया है। इस तरह लदाख अंचल अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है।
लदाख का मुख्यालय लेह शहर है। लेह भी ऐतिहासिक महत्त्व का नगर रहा है। लेह में यारकंदी व्यापारियों के साथ ही चीनी, तिब्बती और नेपाली व्यापारियों का आवागमन होता रहा है। लेह में पूर्व से आने वाले तिब्बती प्रभाव को, और मध्य एशिया से आए चीन के प्रभाव को देखा जा सकता है। पश्चिम की ओर से कश्मीर और शेष भारत के साथ लेह शहर का जुड़ाव रहा है, जिनका प्रभाव भी यहाँ पर देखा जा सकता है। पुराने समय में यह शहर सिल्क रूट के तौर पर भी जाना जाता था। व्यापारिक गतिविधियों के साथ ही लेह के साथ विभिन्न धर्म-संस्कृतियों का संपर्क भी रहा है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में बोन धर्म का प्रभाव रहा। यहाँ पर हिंदू और फिर बौद्ध धर्म का प्रभाव कायम हुआ। लेह के उत्तर में स्थित कैलास मानसरोवर हिंदुओं की आस्था से जुड़ा तीर्थस्थान है। कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए प्रति वर्ष हजारों तीर्थयात्रियों का यहाँ आना-जाना रहता था। इस कारण अनेक धर्मगुरुओं, संत-महात्माओं का प्रभाव लदाख अंचल में हमेशा बना रहा है। इसी कारण लेह में विविध धर्म-संस्कृतियों के प्रतीक आज भी देखे जा सकते हैं।
तिब्बती विद्वान रिंचेन जंग्पो और महायान बौद्ध परंपरा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु पद्मसंभव के साथ ही विभिन्न धर्माचार्यों, संतों ने अपने आगमन के माध्यम से इस क्षेत्र को कृतार्थ किया है। लदाख की यात्रा में आने वाले धर्माचार्यों में सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक का नाम भी आता है। ऐसी मान्यता है कि तिब्बत और फिर मानसरोवर से होते हुए गुरु नानक लेह पधारे थे और यहाँ से करगिल, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम, श्रीनगर होते हुए करतारपुर गए थे।
लेह शहर के मुख्य बाजार में शाही मसजिद के बगल में गुरुद्वारा दातून साहब स्थित है। इसके साथ ही लेह शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित निम्मू गाँव के पास गुरुद्वारा पत्थर साहब है। गुरुद्वारा पत्थर साहब की स्थापना की कथा गुरु नानक की इस यात्रा के प्रसंग के साथ जुड़ी है। गुरुद्वारा पत्थर साहब के अस्तित्व में आने की बड़ी रोचक कथा है। सन् 1970 में लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण सेना और सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जा रहा था। उस समय निम्मू गाँव के पास लेह-निम्मू सड़क निर्माण के दौरान बौद्ध प्रार्थना ध्वजों में लिपटा एक बड़ा पत्थर रास्ते में आ गया। सड़क निर्माण के काम में लगे बुलडोजर के ड्राइवर ने पत्थर को रास्ते से हटाने की पूरी कोशिश की और अपनी मशीन पर पूरा जोर दे दिया। ऐसा करने के बावजूद पत्थर अपनी जगह से नहीं हिला, लेकिन बुलडोजर का ब्लेड जरूर टूट गया। इसके बाद, उसी रात बुलडोजर के ड्राइवर ने एक सपना देखा। ड्राइवर ने सपने में एक आवाज सुनी। उसमें ड्राइवर को पत्थर से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने को कहा गया। अगली सुबह ड्राइवर ने अधिकारियों को अपने सपने के बारे में बताया। अधिकारियों ने उसे इस बात को भूल जाने को कहा और पत्थर को डायनामाइट से उड़ा देने का आदेश दिया। इसके बाद, रात को संबंधित अधिकारियों ने भी ऐसा ही सपना देखा और आवाज सुनी। अगली सुबह रविवार का दिन था। अधिकारियों ने पत्थर से जुड़े तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने के लिए कुछ लामाओं को बुलाया। उन लामाओं ने पत्थर वाली जगह का दौरा किया और बताया कि पत्थर पर संत नानक लामा के कंधे का निशान है। इस तरह पत्थर को हटाने का काम बंद हो गया और वहाँ पर पूजा-अर्चना की शुरुआत हो गई।
पत्थर को देखने पहुँचे लामाओं ने पत्थर से जुड़ी कथा भी बताई। जनश्रुतियों में प्रचलित कथा के अनुसार जिस समय गुरु नानक लेह में आए हुए थे, उस समय एक शैतान राक्षस का वहाँ पर बहुत आतंक था। वह लोगों को पकड़कर मार डालता था। उसके कारण लोगों में डर व्याप्त था। उस शैतान राक्षस ने क्षेत्र में ऐसी अशांति मचा रखी थी कि लोगों का जीना दूभर हो गया था। इसी वक्त 1517 में गुरु नानक ने इस स्थान का दौरा किया। गुरु नानक सिक्किम, नेपाल, मानसरोवर झील और तिब्बत का दौरा कर श्रीनगर के रास्ते से पंजाब जा रहे थे। रास्ते में ध्यान लगा रहे गुरु नानक पर उस राक्षस ने पत्थर फेंका। गुरु के संपर्क में आते ही पत्थर ऐसे पिघल गया, मानो वह मोम का बना हो। इसके बाद गुरु के कंधे का निशान उस पत्थर में बन गया। मान्यताओं के अनुरूप और लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर जिस पत्थर की कथा लामाओं द्वारा बताई गई, खुदाई में पत्थर का आकार कुछ वैसा ही मिला। इसी जगह पर सेना ने पत्थर साहब गुरुद्वारा का निर्माण कराया और उसके संरक्षण का जिम्मा भी लिया। इस गुरुद्वारे के साथ बौद्ध समुदाय की आस्था भी जुड़ी हुई है।
गुरु नानक की यात्रा के साथ जुड़ी गुरुद्वारा पत्थर साहब की कथा विश्वसनीय भी लगती है, क्योंकि गुरु नानक ऐसे संत थे, जिन्होंने किसी गुफा-कंदरा में बैठकर तपस्या करने के स्थान पर घूम-घूमकर लोगों को सीख दी और मानव-सेवा के माध्यम से अपनी साधना को पूर्ण किया। गुरु नानक के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में 28 वर्षों तक केवल यात्राएँ कीं और निरंतर पैदल चलकर देश-दुनिया का भ्रमण किया। अगर इतिहास में देखें, तो इब्ने बतूता के बाद इतनी लंबी पदयात्रा करने वाले गुरु नानक ही थे। गुरु नानक की तुलना लगातार दो वर्षों तक यात्रा करने वाले कोलंबस और तीन वर्षों तक लगातार यात्रा करने वाले वास्को डी गामा से भी होती है। लेकिन इब्ने बतूता, कोलंबस और वास्को डि गामा की यात्राएँ किसी धार्मिक उद्देश्य के लिए या मानवता की सेवा के उच्च आदर्श पर आधारित नहीं थीं।
सिखों के आदि गुरु की जीवनी बड़ी प्रेरणापरक है। जब उन्होंने अपना घर छोड़कर देशाटन का फैसला लिया, तब उनकी माँ को बड़ा दुःख हुआ। नानक के घर छोड़ने से पहले उनकी माँ ने उनसे पूछा कि देशाटन करने से क्या हासिल होगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि  देशाटन से कुछ भी नहीं होगा, मगर समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करने के लिए किसी गुफा-कंदरा में बैठकर साधना करने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि ऐसा करने पर संसार के उन लोगों का कल्याण नहीं होगा, जो अज्ञानता में पड़े हैं, जिन्हें सच्चा ज्ञान देना जरूरी है। इसके लिए हमें अपने शरीर को ही मंदिर बनाना पड़ेगा। अपने दिमाग को माया के बंधन से मुक्त करना होगा। बुराइयों से मुक्ति पानी होगी। इसके लिए घूम-घूमकर, लोगों के बीच में जाकर उन्हें जागरूक करना होगा, उन्हें नसीहत देनी होगी और उन्हें सच्ची राह दिखानी होगी। अपने इसी उद्देश्य के साथ सत्य का संदेश फैलाने के लिए गुरु नानक ने तीन दशकों में 28 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। हर स्थान पर वह किस्से छोड़ते गए, लोगों को अपने व्यावहारिक ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते गए। उनकी यात्राओं से जुड़ी अनेक कहानियाँ श्जनम साखीश् में संकलित हैं और आज भी सुनाई जाती हैं।
गुरु नानक जी के इस महान उद्देश्य में उनका साथी बना मरदाना नाम का उनका शिष्य, जो उनका मित्र भी था और उनका सहयोगी भी था। मरदाना रबाब बजाते चलता और गुरु नानक उसके साथ देश-दुनिया को अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते जाते। उन्होंने अपने शिष्य मरदाना के साथ पाँच बड़ी यात्राएँ कीं, जिन्हें पाँच उदासी (प्रमुख यात्राएँ)  के नाम से जाना जाता है। अपनी पाँच उदासी में उन्होंने करीब 60 शहरों का भ्रमण किया। इन उदासी में उन्होंने दो उप-महाद्वीपों का भ्रमण किया। पहली उदासी में उन्होंने उत्तरी और पूर्वी भारत का भ्रमण किया। दूसरी उदासी के दौरान श्रीलंका और दक्षिण भारत और तीसरी उदासी में उन्होंने तिब्बत, सुमेरु पर्वत, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम और श्रीनगर सहित लेह का भ्रमण किया। चौथी उदासी में गुरु नानक मक्का, मदीना, येरुशलम, दमश्कस, अलेप्पा, पर्सिया, तुर्की, काबुल, पेशावर और बगदाद पहुँचे। नानक जी की आखिरी उदासी 1530 में खत्म हुई, इसमें वह दिल्ली और हरिद्वार जैसे उत्तर भारतीय शहरों में गए। नानक जी जिस जगह पर जाते थे, वहाँ की तहजीब में ढल जाते थे, वहाँ उसी ढंग के परिधान भी धारण करते थे। जब वे बनारस गए तो वहाँ माथे पर चंदन का तिलक लगाए नजर आए और जब वे मक्का-मदीना की यात्रा में गए, तब उन्होंने मुस्लिम परिधानों को धारण किया। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य यह संदेश देना था कि परिधान पहनने से जाति-धर्म नहीं बदलता है और जाति-धर्म का भेदभाव न करना ही सच्ची मानवता है। सत्य का संदेश देने के लिए उन्होंने व्यापक तौर पर यात्राएँ कीं। उनका पहला संदेश यही था- न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान। अपने उपदेशों में नानक जी ने तीन संदेश दिए। पहला- ईमानदारी से कमाई करना (किरत करना), दूसरा- भगवान की प्रार्थना करना (नाम जपना) और तीसरा- ईमानदारी से कमाया गया धन जरूरतमंदों के साथ साझा करना (वंड चकना)।
गुरु नानक दार्शनिक, योगी, धर्मसुधारक, समाजसुधारक और सर्वेश्वरवादी थे। उन्होंने रूढ़ियों, आडंबरों का विरोध किया और आंतरिक साधना के माध्यम से, उच्च मानवीय गुणों के पालन के माध्यम से मानवता की सेवा को ही सच्ची भक्ति माना। गुरु नानक जब तिब्बत की यात्रा में गए, उस समय वहाँ पर महायान बौद्ध परंपरा का प्रभाव था। महायान परंपरा भी मानवता की सेवा को, सबके कल्याण की साधना को ही श्रेष्ठ मानती है। संभवतः इसी कारण गुरु नानक के प्रति बौद्ध संतों का आकर्षण उत्पन्न हुआ और उन्हें तिब्बत में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। ऐसी मान्यता है कि महायान परंपरा के निंगमा संप्रदाय में गुरु नानक को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी कारण गुरु नानक के लेह आगमन पर महायान परंपरा से अनुप्राणित लद्दाख अंचल में उन्हें अपार मान-सम्मान मिला और उन्हें संत नानक लामा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
गुरु नानक सन् 1517 में लेह पधारे थे। गुरुद्वारा दातूनसाहब के बारे में मान्यता है कि उन्होंने वहाँ पर अपनी दातून को जमीन में गाड़ दिया था, जिसने कालांतर में विशालकाय पवित्र वृक्ष का रूप ले लिया। वह वृक्ष आज भी है और उसकी शीतल छाया अद्भुत सुख-शांति का अहसास कराती है। अगर लद्दाख की वनस्पतियों को देखें, तो यहाँ पर पेड़ों की कई प्रजातियाँ कलम लगा देने पर तैयार हो जाती हैं। इस तरह लोकप्रचलित मान्यता को पुष्ट होने का एक आधार मिल जाता है। सन् 1517 में गुरु नानक के आगमन के समय लेह विविध संस्कृतियों के समन्वय के जीवंत साक्ष्य के रुप में समृद्ध था। वक्त गुजरने के साथ सांस्कृतिक विविधताएँ सिमटती गईं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्थितियों ने बहुत कुछ बदल दिया, परिधियाँ सिकुड़ गईं और अलग-अलग दायरे बँधने लगे। शायद इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब का इतिहास लोगों के सामने नहीं आ पाया। सन् 1970 में सड़क निर्माण के कार्य के साथ लद्दाख के साथ जुड़े उस अतीत का खुलासा हुआ, जिसे वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब के रूप में देख पाने का सौभाग्य आज हमारे साथ है।
इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब धार्मिक आस्था का केंद्र मात्र नहीं है, वरन् हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रेणियों के बीच गुरु नानक के उपदेशों का जीवंत साक्ष्य है। यह हमारी धरोहर है, जो हमारे पूर्वजों की सहिष्णुता को, उनके द्वारा स्थापित किए गए उच्च मानवीय मूल्यों को, आदर्शों को अपने अस्तित्व से साकार कर रही है। यह ऐसा ऐतिहासिक स्थल भी है, जो रक्तरंजित, आहत हिमालय परिक्षेत्र के वर्तमान को गर्व के साथ बता रहा है कि हम मानवता को पाशविकता से, क्रूरता से ऊपर रखने वाले अतीत के वंशज हैं।
वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब की व्यवस्था और देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय सेना के पास है। मान्यता के अनुसार जिस पहाड़ी से शैतानी राक्षस ने पत्थर फेंका था, उस पहाड़ी को नानक पहाड़ी कहा जाता है। सेना ने वहाँ तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई हैं, और लोग उस पहाड़ी में दर्शनार्थ जाते हैं, साथ ही वहाँ से आसपास के सुंदर दृश्यों का आनंद भी उठाते हैं। गुरुद्वारा पत्थर साहब के दाहिनी ओर गुरुगद्दी बनी है। सेना द्वारा यहाँ तक पहुँचने के लिए भी सुगम मार्ग बनाया गया है। ऐसी मान्यता है कि गुरुगद्दी में गुरु नानक एकांतिक साधना करते थे। इसी कारण गुरुगद्दी में पहुँचकर असीमित शांति का अनुभव होता है। भारतीय सेना के सहयोग और अनथक प्रयास के कारण धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता और उच्च मानवीय मूल्यों का प्रकाश देने वाला यह स्थान स्थानीय लोगों के लिए ही नहीं, वरन्, देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है, उन्हें नसीहत देता है। शैतान राक्षस जैसी प्रवृत्तियाँ किसी भी व्यक्ति के अंदर हो सकती हैं। जिस तरह गुरु नानक के प्रभाव में आकर शैतान राक्षस अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को त्यागकर भला-सच्चा व्यक्ति बन गया था, वैसी ही धारणा, वैसे ही विचार सबके बनें, सभी मानवता के कल्याण के लिए तमाम भेदभावों को भुलाकर आपसी स्नेह-सद्भाव भाईचारे के साथ रहना सीखें, इसकी नसीहत देने के लिए यह स्थान अतुलनीय है। दूसरी ओर भारतीय सेना के सामाजिक सद्भाव और जन-जुड़ाव का अनूठा पक्ष भी यहाँ पर देखने को मिलता है। सेना के जवानों को उच्च आदर्शों की सीख देने, सेवा और सद्भाव की नसीहत देने के लिए भी इस स्थान का अपना महत्त्व है।



डॉ. राहुल मिश्र
(दूरदर्शन केंद्र, लेह से दिनांक 13 जुलाई, 2015 को सायं 05.30 पर वृत्तचित्र के रूप में प्रसारित)