Showing posts with label Research. Show all posts
Showing posts with label Research. Show all posts

Thursday 28 May 2015

हिंदी आलोचना का विकास-क्रम और भविष्य की दिशा-दशा




हिंदी आलोचना का विकास-क्रम और भविष्य की दिशा-दशा

आलोचना शब्द की उत्पत्ति लुच् धातु से हुई है। इसका अर्थ होता है, देखना। समाज और साहित्य के मध्य स्थापित संबंधों को देखने का कार्य आलोचना के माध्यम से होता है। साहित्य की सामाजिक प्रासंगिकता को स्थापित करते हुए पाठकों के बीच साहित्य को ले जाना और इस संबंध को उत्तरोत्तर विकसित करते जाना आलोचना की बुनियादी प्राथमिकता होती है। इस कारण आलोचना स्वतंत्र साहित्यिक विधा होती है। भारतीय साहित्य में आलोचना की दीर्घ एवं विकसित परंपरा काव्य-तत्त्व के अनुसंधान की जिज्ञासा को तृप्त करने हेतु विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से संपृक्त रहकर निरंतर प्रवाहित होती रही है। इस कारण उसका स्वरूप शास्त्रीय एवं सैद्धांतिक रहा है। भारतीय आलोचना रचनाओं के परीक्षण या मूल्यांकन मात्र तक सीमित नहीं रही। संभवतः इन्ही कारणों से भारतीय आलोचना को ‘अलंकार-शास्त्र’ या ‘काव्य-शास्त्र’ जैसे स्वतंत्र शास्त्र के रूप में, स्वतंत्र विधा के रूप में जाना जाता है।
रस-सिद्धांत की स्थापना करने वाली आचार्य भरत मुनि की रचना नाट्यशास्त्र (लगभग 150 ई.) को भारतीय साहित्य में आलोचना की सर्वप्रथम कृति माना जाता है। भरत मुनि ने इस सिद्धांत की स्थूल रूप-रेखा ही प्रस्तुत की थी, किंतु परवर्ती विद्वानों- भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, धनंजय, विश्वनाथ प्रभृति- ने इसके विभिन्न पक्षों का और अधिक विश्लेषण-विवेचन प्रस्तुत करते हुए इसे पर्याप्त स्पष्ट एवं विकसित रूप प्रदान किया है। वस्तुतः रस-सिद्धांत भारतीय साहित्यशास्त्र की सर्वोत्तम एवं गौरवपूर्ण उपलब्धि है, जिस पर परवर्ती युग का अधिकांश आलोचनात्मक साहित्य आधारित है।1
अलंकार सिद्धांत, रीति सिद्धांत, ध्वनि सिद्धांत, वक्रोक्ति सिद्धांत आदि के निरूपण, व्याख्या, समन्वय और संशोधन का क्रम भरत मुनि से लेकर सत्रहवीं शती के अंत तक चलता रहा। उदाहरण या सूक्ति के माध्यम से कुछ विशिष्ट कृतियों के सामान्य गुण-दोषों की स्फुट चर्चा के अतिरिक्त विस्तृत समीक्षा इस कालखंड में प्राप्त नहीं होती है। संस्कृत के ‘काव्यशास्त्र’ या ‘क्रियाकल्प’ से रस-संचय करके प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के साहित्यकारों ने इस विधा को समृद्ध किया। हिंदी-काव्य के विकास के कालखंड में, मध्यकाल में केशव, चिंतामणि, भिखारीदास आदि कवियों ने संस्कृत काव्यशास्त्र के कुछ प्रमुख एवं प्रचलित सिद्धांतों को लेकर ग्रंथों की रचना की। हिंदी के आधुनिक काल की शुरुआत के पूर्व हिंदी पद्य में रचे गए काव्यशास्त्रीय ग्रंथ भले ही मौलिक न रहे हों और संस्कृत काव्यशास्त्र के पद्यानुवाद तक सीमित रह गए हों, तथापि भारतीय साहित्य की काव्यशास्त्रीय परंपरा को हिंदी के आधुनिक युग से जोड़ने की कड़ी का दायित्व इन ग्रंथों ने निभाया है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।
हिंदी के आधुनिक युग की शुरुआत के साथ साहित्य में अनेक बदलाव परिलक्षित होते हैं। आधुनिक युग में गद्य का विस्तार और विकास भी होता है। हिंदी साहित्य के आधुनिक स्वरूप के उदय एवं इसके विस्तार में भारतेंदु हरिश्चंद्र का अमूल्य योगदान है। आधुनिक हिंदी साहित्य के जन्मदाता एवं पोषक विराट् साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी साहित्य के सभी उपेक्षित अंगों का विकास किया था, अतः आलोचना साहित्य भी उनके युग-परिवर्तनकारी करों के स्पर्श से वंचित कैसे रह सकता था। यदि संस्कृत के प्रथम आचार्य भरत मुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ लिखा तो आधुनिक हिंदी के जनक बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘नाटक’ की रचना की।2  सन् 1883 में प्रकाशित इस कृति में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने प्राचीन भारतीय नाट्यशास्त्र के साथ ही यूरोप के नाट्यसाहित्य का उल्लेख करते हुए पाश्चात्य समीक्षा-साहित्य का समन्वय भारतीय साहित्य-शास्त्र के साथ किया। यह ऐसा प्रस्थान-बिंदु कहा जा सकता है, जहाँ से आधुनिक आलोचना विधा की शुरुआत मानी जाती है। प्रारंभिक हिंदी आलोचना संस्कृत आलोचना पर ही आधारित थी। जब तक खड़ीबोली का उदय हुआ तब तक विदेशी साहित्य से हम प्रभावित होने लगे थे। खासकर हिंदी गद्य साहित्य के साथ ऐसा हुआ और उसके लिए जिस आलोचना का उदय हुआ, वह कई मामलों में पश्चिम की हू-ब-हू नकल था। साहित्य और आलोचना दोनों पर पश्चिम के साहित्य और आलोचना के न केवल प्रभाव को देखा जा सकता है, वरन् कई बार पूरे-पूरे अनुवाद को हम पाते हैं।3 भारतेंदु युग में विकसित हुई साहित्यिक विधाओं का पोषण प्रायः अनूदित साहित्य के माध्यम से हुआ। इस कारण आलोचना की नवोदित धारा पर भी इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। यदि सकारात्मक पक्ष को देखा जाए तो आलोचना के क्षेत्र में नवीन संभावनाओं के सृजन हेतु भारतेंदु और उनकी परंपरा में चलने वाले बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट, गंगाप्रसाद अग्निहोत्री, और अंबिकादत्त व्यास आदि ने अमूल्य योगदान दिया। आनंद कादंबिनी और हिंदी प्रदीप पत्रिकाओं में प्रकाशित आलोचनाओं को हिंदी आलोचना की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है।
हिंदी आलोचना के विकास का दूसरा चरण द्विवेदी युग से शुरू होता है। सरस्वती के संपादक के रूप में सन् 1930 में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अवतरण हुआ। उन्होंने संस्कृत के कई कवियों की समीक्षा की। उनके द्वारा रचित ‘विक्रमांकदेव चरित’ ‘नैषधचरित चर्चा’ और ‘कालिदास की निरंकुशता’ आदि निबंध कृतियों के परिचय के साथ ही कृति और कवि, दोनों के गुण-दोषों का निष्पक्ष विवेचन करते हैं। ‘कवि और कविता’ नामक निबंध में द्विवेदी जी ने कवि-कर्म और कवि-कर्म की परिणति, दोनों की स्पष्ट, व्यावहारिक और सामयिक आलोचना करके जो निष्कर्ष दिए हैं, वे वर्तमान में भी प्रासंगिक बने हुए हैं। द्विवेदी युग के अन्य प्रसिद्ध आलोचकों में मिश्र बंधु (गणेशबिहारी मिश्र, श्यामबिहारी मिश्र और शुकदेवबिहारी मिश्र), पं. पद्मसिंह शर्मा, कृष्णबिहारी मिश्र और लाला भगवानदीन का नाम आता है। मिश्र बंधु द्वारा रचित हिंदी नवरत्न, मिश्र बंधु विनोद; पद्मसिंह शर्मा द्वारा रचित बिहारी सतसई की भूमिका; कृष्णबिहारी मिश्र द्वारा रचित देव और बिहारी तथा लाला भगवानदीन द्वारा रचित बिहारी और देव आदि ग्रंथ हिंदी आलोचना के क्षेत्र में अपना महत्त्व रखते हैं। वस्तुतः द्विवेदी-युगीन साहित्य भारतेंदु-युगीन साहित्य की ही भाँति प्रेरणा देने का कार्य अधिक करता है। उस काल की प्रधान दृष्टि यही थी,  आलोचना भी इस दृष्टि से प्रभावित थी। आचार्य द्विवेदी इसका प्रतिनिधित्व करते थे। चूँकि पुनर्जागरणकालीन भारत आगे बढ़ने के लिए कृत संकल्प था, अतः रीतिकालीन प्रवृत्तियों पर नई यानि वैज्ञानिक और सामाजिक प्रवृत्तियाँ हावी हो रहीं थीं। भारतेंदु द्वारा प्रारंभ किए हुए कार्य को आचार्य द्विवेदी ने आगे बढ़ाया- मुख्यतः आलोचना और संपादन के क्षेत्र में।4
हिंदी साहित्य के शुरुआती कालखंड में, भारतेंदु युग में रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों की परंपरा में सैद्धांतिक आलोचना के अतिरिक्त ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली गद्य में लिखी गई टीकाओं और इतिहास ग्रंथों में कवि-परिचय के रूप में लिखी गई परिचयात्मक आलोचना का सूत्रपात हुआ। द्विवेदी युग में सैद्धांतिक आलोचना, परिचयात्मक आलोचना के अतिरिक्त तुलनात्मक एवं मूल्यांकनपरक आलोचना, अन्वेषण एवं अनुसंधानपरक आलोचना तथा व्याख्यात्मक आलोचना का विकास हुआ। द्विवेदी युग के परवर्ती छायावाद युग में साहित्य की अन्य विधाओं के नए दौर में प्रवेश करने के साथ ही हिंदी आलोचना में भी एक नए युग का सूत्रपात हुआ। उपन्यास और कहानी विधाओं के विकास के साथ ही कविता और नाटक में उदित होती नवीन प्रवृत्तियों के विवेचन और विश्लेषण हेतु आलोचना विधा की अनिवार्यता नए ढंग से स्थापित हुई और आलोचना विधा का विकास-विस्तार सामयिक आवश्यकता बनकर उभरा। इसके साथ छायावादी काव्य-प्रवृत्ति अपने अनूठेपन के कारण आलोचना के केंद्र में आई और इसके पक्ष-विपक्ष में प्रकाशित हुई आलोचनाओं ने आलोचना विधा के विस्तार में अप्रत्याशित योगदान दिया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कालखंड में सैद्धांतिक आलोचना को भारतीय साहित्य-चिंतन परंपरा और पाश्चात्य साहित्य चिंतन परंपरा के समन्वय से समृद्ध करके गांभीर्य और वैविध्य प्रदान किया। आचार्य शुक्ल ने गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास और जायसी के काव्य-गुणों के विवेचन के साथ ही हिंदी साहित्य का इतिहास और चिंतामणि आदि ग्रंथों का सृजन करके सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही ऐतिहासिक और व्यावहारिक आलोचना के विकास में योगदान दिया। शुक्ल जी की परंपरा में चलते हुए कृष्णशंकर शुक्ल, विश्वनाथप्रसाद मिश्र, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, डॉ. गुलाबराय, आचार्य बलदेव उपाध्याय और रामदहिन मिश्र आदि आलोचकों ने अपने प्रयासों से हिंदी आलोचना को समृद्ध किया।
डॉ. नगेंद्र भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल से प्रभावित थे। वे मूलतः रसवादी आलोचक माने जाते हैं। डॉ. नगेंद्र ने सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही व्यावहारिक और मनोविश्लेषणात्मक आलोचना के क्षेत्र में योगदान दिया। भारतीय साहित्यशास्त्र के साथ पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के समन्वय और इनके समन्वित रूप को प्रकाश में लाने का अभूतपूर्व कार्य डॉ. नगेंद्र ने किया। डॉ. नगेंद्र को छायावाद के पक्षधर आलोचक के रूप में भी जाना जाता है। डॉ. नगेंद्र के साथ ही आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावाद का पक्ष लिया। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी छायावादी, स्वच्छंदतावादी, रसवादी, सौष्ठववादी और अध्यात्मवादी समीक्षक माने जाते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी कृति, हिंदी साहित्य की भूमिका(1940 ई.) के माध्यम से ऐतिहासिक आलोचना को स्थापित किया। कबीर, सूर और तुलसी आदि के मूल्यांकन में द्विवेदी जी की मानवतावादी और समाजकेंद्रित आलोचनात्मक दृष्टि देखने को मिलती है। बाबू गुलाबराय ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की सैद्धांतिक आलोचना का अनुसरण करने के साथ ही व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में योगदान दिया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के परवर्ती युग में हिंदी आलोचना का क्षितिज व्यापक होता गया। आलोचना की विविध पद्धतियों और अलग-अलग दिशाओं में अनेक आलोचक सक्रिय हुए। अनेक आलोचकों को किसी एक वर्ग में रख पाना भी शुक्लोत्तर युग में संभव नहीं रहा। अब तक चली आ रही आलोचनात्मक पद्धतियों से हटकर मार्क्सवादी आलोचना, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना, शैलीवैज्ञानिक आलोचना और नई आलोचना जैसी नवीन पद्धतियों का विस्तार हुआ। शिवदानसिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त और डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी आलोचना के प्रतिनिधि आलोचक माने जाते हैं। डॉ. देवराज, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी और देवराज उपाध्याय दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते हैं। मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद जैसी आलोचना की ऐतिहासिक पद्धतियों का निषेध कर ‘नयी आलोचना’ पनपने लगी। साहित्य में रूपवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, संरचनावादी, नयी समीक्षा से भाषावादी आलोचना का तुमुलनाद गूँज उठा। इस बीच अच्छी बात यह हुई कि अब आलोचना केवल कविता-केंद्रित आलोचना न रहकर उपन्यास, कहानी, नाटक, रंगमंच, निबंध, रेखाचित्र आदि सभी गद्य विधाओं को साथ लेकर बढ़ने व पनपने लगी। इस स्थिति ने हिंदी-आलोचना का सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर क्षेत्र काफी विस्तृत कर दिया है।5  
साहित्य की विविध विधाओं की आलोचना के प्रकाश में आने के साथ ही आलोचना विधा में सक्रिय विद्वानों की संख्या भी तीव्र गति से बढ़ी है। उन सभी का उल्लेख कर पाना भी संभव नहीं है, किंतु इतना अवश्य है कि आलोचना के क्षेत्र-विस्तार का यह सुखद पक्ष है। नाटक और रंगमंच सहित गद्य की विविध विधाओं से जुड़े साहित्यकारों की हिंदी आलोचना में उपस्थिति ने विविधता का, विचारों का फैलाव किया है। साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान भी हिंदी आलोचना के विकास में अभूतपूर्व है। सरस्वती, प्रतीक, आलोचना आदि पत्रिकाओं के बाद नये पत्ते, नयी कविता, निकष, कखग, पहल, दस्तावेज, पूर्वग्रह और समास आदि पत्रिकाओं ने साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से आलोचना को सर्वथा नवीन आयाम दिया है। साहित्यिक पत्रकारिता के साथ अंतरक्रिया में, और उससे स्वतंत्र भी, हिंदी आलोचना ने यों एक लंबी यात्रा की है। भारतेंदु तथा प्रेमघन के साथ शास्त्रीय और गुण-दोष कथन शैली से आरंभ करके आलोचना मिश्र बंधुओं के साथ निर्णयात्मक, और पद्मसिंह शर्मा के साथ तुलनात्मक दौर में आती है। फिर रामचंद्र शुक्ल के माध्यम से अपने व्याख्यात्मक-विवेचनात्मक रूप में एकबारगी वयस्क होकर वह विकास की कई नई दिशाओं को एकसाथ उद्घाटित करती है। और इसी क्रम में आगे अर्थ संवर्धन की या कि सर्जनात्मक भूमिका अपनाकर अपने रूप में गुणात्मक परिवर्तन लाती है।6 हिंदी आलोचना के इस विस्तार और तथाकथित नई आलोचना को ‘विश्वग्राम’ की अवधारणा के मानदंड पर खरा उतरते हुए भी अनुभूत किया जा सकता है।
हिंदी आलोचना के भविष्य की दशा-दिशा का विवेचन करने के पूर्व आलोचना के वर्तमान, अर्थात् नई आलोचना की प्रवृत्ति का मूल्यांकन करना समीचीन होगा। प्रगतिवादी आलोचना के बाद अस्तित्व में आई नई आलोचना में व्यक्तिवाद और पूँजीवाद की प्रबलता है। इस आलोचना में भारतीय काव्यशास्त्र लगभग पूर्णतः उपेक्षित हो गया है और वह पश्चिमी चिंतन और आलोचना पर पूर्णतः निर्भर हो गई है। ‘नई आलोचना’ ही नहीं, स्वातंत्र्योत्तर काल की नई लगभग संपूर्ण हिंदी आलोचना एक ओर पश्चिमी आलोचकों, दूसरी ओर अस्तित्ववाद, मानववाद, यथार्थवाद, अतियथार्थवाद, प्रभाववाद, आधुनिकतावाद, उत्तरआधुनिकतावाद, संरचनावाद इत्यादि वादों और तीसरी ओर ‘नई आलोचना’, नवअरस्तूवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, समाजशास्त्रीय आलोचना आदि पश्चिमी आलोचना-पद्धतियों का लगभग पूर्णतः अनुसरण करने लग गई है।7 पश्चिम के विचार और वस्तुओं का अनुकरण करना और पाश्चात्य अंधानुकरण में पड़कर अपने संसाधनों को गौण मानना आजकल की प्रवृत्ति बन गई है और आधुनिकता का, उत्तर आधुनिकता का पर्याय बन गई है। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में भी यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है। यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि आज के वैश्वीकृत समाज में आलोचना के पुराने मानदंड बड़े काम के नहीं सिद्ध हो सकते। किसी भी आलोचना-पद्धति का स्थिर और जड़ होना गतिशील साहित्य का अवरोधक होता है, परंतु ‘आलोचना के पुराने औजार बाक्स’ में कुछ उपकरण हो सकते हैं, जो थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ भारतीय उत्तर-आधुनिक आलोचना को नया रूप दे सकने में समर्थ हों।8
हिंदी आलोचना के क्षेत्र में पुरानी पीढ़ी के आलोचकों की सक्रियता ही सम्प्रति दिखाई देती है। युवा पीढ़ी के आलोचकों की संख्या लगभग नहीं के बराबर है। उनकी उपस्थिति भी जो है, उन्हें आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर और संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। दूसरी तरफ साहित्यिक अनुशासन और साहित्यिक लगाव की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है। अखबारों में साहित्य के लिए जगह नहीं। पत्रकार और रचनाकार का जैसा रचनात्मक संबंध पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के बरसों में निर्मित हुआ था, वह पूरी तरह विघटित हो चुका है। उनके बीच अपाट्य खाई खुद गई है। अनियतकालीन पत्रिकाओं की बाढ़ वास्तविक सर्जक या आलोचकीय प्रतिभा की पहचान या प्रतिष्ठा को सुनिश्चित करने में असमर्थ है। ‘अपनी डफली अपना राग’ वाला मुहावरा हू-ब-हू चरितार्थ हो रहा है।9 पश्चिमी साहित्य ने अतिवाद से बचते हुए साहित्य के अनुशासन को इस तरह से स्थापित किया है कि उनका आलोचनाशास्त्र श्रेष्ठ विधा के रूप में विकसित हुआ। हिंदी में यह काम हुआ, किंतु बहुत बाद में और अत्यंत मंथर गति से। वाद, विमर्श और समाजशास्त्रीय दर्शन की परिधियों को तोड़कर आलोचना-बोध के सर्वमान्य प्रादर्श के निर्माण की महती आवश्यकता वर्तमान में है। इस कमी के कारण साहित्य और पाठक के बीच की दूरी बढ़ रही है। हालाँकि इसका एक बड़ा कारण हिंदीभाषी क्षेत्रों में व्याप्त अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी और ऐसे ही कई सामाजिक कारण भी हैं, इसके बावजूद आलोचना के दायित्व को भुलाया नहीं जा सकता है। सामयिक साहित्य यदि सामान्य हिंदी पाठक के लिए बोधगम्य नहीं होता तो इसका बहुत बड़ा उत्तरदायित्व हिंदी आलोचना पर है। साहित्य में बढ़ती हुई दुरूहता, दुर्बोधता, सूक्ष्मता, प्रतीकात्मकता और बिंब-विधान की प्रमुखता आदि के कारण आज का साहित्य- विशेषतः कविता, नाटक और कहानी- सामान्य पाठक के लिए अलंघ्य पर्वत शिखर बनता जा रहा है। आलोचना उसकी सहायता नहीं कर रही। आलोचना में भी असाधारण शब्दों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। पाठक का दिग्भ्रमित होना आलोचना की विफलता है।10  
वर्तमान आलोचना के साथ ‘चौककवाद’ का पक्ष भी जुड़ा है। बहुत सारे साहित्यकार अपनी प्रसिद्धि के लिए, चर्चा में बने रहने के लिए प्रायः उन बातों का जिक्र करते हैं, जो साहित्य की मर्यादा के एकदम विपरीत होती हैं। इसके अतिरिक्त स्वयं को स्थापित करने के लिए दूसरे को अपमानित करने, लांछन लगाने की हद तक भी कई साहित्यकार, आलोचक पहुँच जाते हैं। मूल्यहीनता की यह स्थिति भी हिंदी आलोचना के वर्तमान एवं भविष्य के लिए घातक है।
समग्रतः, भारतीय साहित्यशास्त्र की समृद्ध परंपरा से रस-संचय कर विकसित हुई हिंदी आलोचना अपने उद्भव के साथ ही साहित्य और समाज के मध्य सेतु बनकर, साहित्य की स्वीकार्यता का मानदंड बनकर अपने दायित्वों का सम्यक् पालन करती रही है। ‘विश्वग्राम’ की संकल्पना के साहित्यिक पक्ष के रूप में पाश्चात्य चिंतनधारा को आत्मसात् करते हुए भारतीय साहित्यशास्त्र के साथ सामंजस्य बैठाकर हिंदी आलोचना के भविष्य को समृद्ध किया जा सकता है। हिंदी आलोचना के सफल, सार्थक भविष्य के लिए पुरानी पीढ़ी के आलोचकों द्वारा युवा आलोचकों को प्रोत्साहन देना और संसाधन उपलब्ध कराना अपेक्षित है तो युवा आलोचकों को मूल्यहीनता, अनुशासनहीनता, चौककवाद और विचारों की संकीर्णता से ऊपर उठकर पक्षपात रहित होकर आलोचना के दायित्व का निर्वहन करना होगा। इन प्रयासों के माध्यम से हिंदी आलोचना के भविष्य की दिशा भटकाव से बचते हुए समृद्धि की ओर उन्मुख होगी और हिंदी आलोचना विधा अपनी सार्थकता के साथ स्थापित हो सकेगी।
संदर्भ-
1.                       हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, गणपतिचंद्र गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, वर्ष 2004, पृ. 475
2.                       वही, पृ. 476
3.                       वेब रेफ़रेंस www.srijangatha.com/mulyankan13 july2011
4.                       हिंदी आलोचना, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दसवीं आवृत्ति वर्ष 2007, पृ. 31
5.                       हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा (उप्र), वर्ष 2011, पृ. 786
6.                       हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, वर्ष 2002, पृ. 220
7.                       हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा (उप्र), वर्ष 2011,  पृ. 801-802
8.                       समकालीन आलोचना का दायित्व, भवदेव पांडेय, मित्र : एक, संपा. मिथिलेश्वर, अंक-1 वर्ष 2003, पृ. 73
9.                       बदलते परिप्रेक्ष्य में आलोचना की अपेक्षित भूमिका, रमेशचंद्र शाह, मित्र : एक, संपा. मिथिलेश्वर, अंक-1 वर्ष 2003, पृ. 92

10.                   स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, वर्ष 1996, पृ. 207

डॉ. राहुल मिश्र

(प्रताप महाविद्यालय, अमलनेर, जलगाँव (महाराष्ट्र) में आयोजित नगेंद्र और समकालीन आलोचना की दिशाएँ,  राष्ट्रीय परिसंवाद, दिनांक 03-04 मार्च, 2014 में प्रस्तुत शोध-पत्र)


Monday 20 April 2015

हिंदीतर साहित्यानुवाद : अनिवार्यता, संभावना और चुनौती


हिंदीतर साहित्यानुवाद : अनिवार्यता, संभावना और चुनौती

अनुवाद/मात्र भाषान्तर नहीं/वह सेतु है!
एक मन को दूसरे से/जोड़ने का,/परस्पर अजनबीपन तोड़ने का!
विश्व-मानव के/शिथिल सम्बन्ध-सूत्रों को/पिरोने और कसकर बाँधने का,/आत्म-हित में/दृढ़ अटूट प्रगाढ़/मैत्री साधने का!
अनुवाद-/साधन है/देशान्तरों के व्यक्तियों के/बीच निर्मित/अतल गहराइयों में/पैठने का,/निःशंक हो/द्विविधा रहित/मिल बैठने का
लाखों-करोड़ों मानवों के मध्य सह-संवाद है/अनुवाद
अनजान मानव-लोक के/बाहर व भीतर व्याप्त/गहरे अँधेरे का/दमकती रोशनी में/सफल रूपांतर/नहीं है/मात्र भाषान्तर!
माध्यम है-/अपरिचय को/गहन आत्मीयता में बदलने का,/हर संकीर्णता से मुक्त हो/बाहर निकलने का!
सभ्यता-संस्कार है!/अनुवाद
भाषिक चेतना का/शक्त एक प्रतीक है,/सम्प्रेषण विधा का/एक रूप सटीक है!
अनुवाद-/मानव-विवेक/प्रतिष्ठ सार्थक केतु है!
अनुवाद-/मात्र भाषान्तर नहीं;/वह सेतु है।1
डॉ. महेंद्र भटनागर की कविता की उपरोक्त पंक्तियाँ अनुवाद के वैशिष्ट्य को रेखांकित करतीं हैं। अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में परिवर्तन मात्र नहीं है, बल्कि देश-दुनिया के अंतराल को पाटकर एक-दूसरे के नजदीक लाने, एक-दूसरे की संस्कृति-ज्ञान-विज्ञान को जानने-समझने का माध्यम होता है। अनुवाद संवाद की उस शक्ति को धारण करता है, जो सभ्यता के क्रमिक विकास को, भाषाई चेतना को और संप्रेषण विधा को गति देता है। अपने इसी वैशिष्ट्य के कारण अनुवाद को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है, अनुवाद को विज्ञान कहा जाता है।
विश्व की विभिन्न भाषाओं में रचे गए उत्कृष्ट साहित्य के अनुवाद का क्रम मध्यकाल से अनवरत जारी है। भाषाओं का क्रमिक विकास मानव के सांस्कृतिक विकास से संबद्ध है। हम जिन भाषाओं से आज परिचित हैं, वे चाहे संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, सीरियाई, फारसी, चीनी में से कोई भी भाषा हो, वे सभी उन्नत भाषाएँ हैं। भाषिक प्रतीकों और उनके रूढ़ अर्थों के लिए एक सामुदायिक जीवन का अस्तित्व अनिवार्य है। इसी से जैसे-जैसे अलग-अलग समुदाय अस्तित्व में आते गए होंगे, उनके थोड़े-बहुत भेदों के साथ अपनी-अपनी भाषाएँ भी विकसित होती गई होंगी और परस्पर संपर्क के लिए उनमें अनुवाद की आवश्यकता भी पड़ने लगी होगी। इस प्रकार यही कहा जा सकता है कि अनुवाद की परंपरा बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही होगी।2  संस्कृत साहित्य, विशेषकर रामकथा साहित्य के अरबी-फारसी भाषाओं सहित विश्व की अन्य भाषाओं भोटी, मंदारिन आदि भाषाओं में और भारत की अन्य भाषाओं में अनुवाद इसी आवश्यकता के परिणामस्वरूप हुए, जो आज भी अपना साहित्यिक महत्त्व रखते हैं। तत्कालीन संसाधनों के उपयोग के माध्यम से अनुवाद की जटिल प्रक्रिया को संपन्न करके विविध भाषाओं के साहित्य-भंडार को समृद्ध करने के प्रयास उस समय के साहित्यकारों के अद्भुत जीवट को भी प्रकट करते हैं। भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य में अनुवाद विज्ञान का दूसरा युग अंग्रेजी औपनिवेशिक काल में उदित होता है।
भारत के उपनिवेशीकरण के दौरान भारतीय समाज, कानून, संस्कृति, परंपरा, इतिहास और धर्म-दर्शन को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात् करने की तीव्र प्रक्रिया की शुरुआत हुई। इसकी दो धाराएँ थीं। पहली धारा भारतीयता से युक्त थी और दूसरी धारा अंग्रेजी और अन्य यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से चंद भारतीयों की औपनिवेशिक भारतीय निष्ठा को तुष्ट कर रही थी। इस धारा के माध्यम से हुए अनुवाद को भारत और भारतीयता विषयक ज्ञान का मूल स्रोत मानने के कारण एकांतिक और अनुकरणपरक भारतीयता का निर्माण हुआ। अनुवाद की मूल भावना, आत्मसातीकरण के पीछे छूट जाने के कारण साहित्य के क्षेत्र में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हुईं। इसके विरोध में एक लहर सन् 1857 के बाद के हिंदी साहित्य में देखने को मिलती है। हिंदीतर साहित्य के हिंदी अनुवाद की विशुद्ध राष्ट्रवादी धारा का सृजन भी इसी कालखंड में हुआ। इस धारा के अग्रणी साहित्कारों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का नाम आता है।
उपनिवेशवादियों ने अनुवाद को भारतीय परंपरा और मानस पर कब्जा करने का साधन बनाया था तो भारतीय नवजागरण के विचारकों ने अनुवाद को अपनी परंपरा की मुक्ति और स्वत्व की पहचान का माध्यम बनाया। भारतीय लेखक अनुवाद को औपनिवेशिक प्रभावों के विरुद्ध प्रतिरोध के साधन के रूप में विकसित कर रहे थे। साथ ही वे आधुनिक चिंतन और ज्ञान-विज्ञान से भारतीय समाज को परिचित कराने के लिए भी अनुवाद का काम कर रहे थे।.....
हिंदी नवजागरण के दौरान हिंदी में सबसे अधिक अनुवाद बांग्ला से हुआ; रचनात्मक साहित्य और राजनीतिक-सामाजिक चिंतन की पुस्तकों का भी।3
हिंदीतर साहित्य के हिंदी में अनुवाद ने हिंदी के विकास और विस्तार की दिशा में अभूतपूर्व योगदान दिया। भारतीय नवजागरण के साहित्यिक अवदान का बड़ा पक्ष अनुवाद के माध्यम से साहित्यिक समृद्धि और समाज को संघर्ष करने की नई दिशा देने के लिए जाना जाता है। देश की आजादी के बाद के वर्षों में देखा जाए तो हिंदीतर साहित्यानुवाद अपनी मंथर गति से चलता रहा। विश्व-साहित्य के अनुवाद की दिशा में अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश, रूसी, जर्मन, चीनी और इटालियन आदि भाषाएँ अग्रणी रहीं हैं। विश्व-साहित्य की प्रमुख और चर्चित पुस्तकें, विशेषकर अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें स्फुट रूप से हिंदी में अनूदित होती रहीं। दूसरी और भारतीय भाषाओं में लिखे गए उत्कृष्ट एवं चर्चित साहित्य का हिंदी में अनुवाद भी हुआ। हिंदी साहित्य के भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद की स्थिति भी कमोबेश सामान्य ही रही है।
हिंदीतर साहित्यानुवाद के नए दौर की शुरुआत सूचना-संचार क्रांति के आगमन के साथ होती है। वैज्ञानिक आविष्कारों एवं सूचना क्रांति के इस दौर में ज्यों-ज्यों विश्व दृष्टि का निर्माण होने लगा है, मानवीय जीवन के सरोकार एक सीमित क्षेत्र से बाहर निकलकर विश्वव्यापी स्तर पर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने लगे हैं। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि संसार के विभिन्न वर्गों के समस्त लोग एक-दूसरे को जानने-पहचानने के लिए उत्सुक हों। इसके परिणामस्वरूप चिकित्सा, तकनीकी, वैज्ञानिक-दार्शनिक एवं साहित्यिक आदान-प्रदान होने के कारण मानव के जीवन-मूल्यों एवं अंतरराष्ट्रीय सोच के परस्पर संवाद से अजनबीपन का कोहरा छँटने लगा है। भौगोलिक सीमाओं के आर-पार एक परिचित एवं आत्मीय वातावरण बनने लगा है। एक देश अथवा संस्कृति की भाषा अपनी साहित्यिक एवं तकनीकी उपलब्धियों को किसी दूसरे देश, भाषा आथवा संस्कृति तक पहुँचाने के लिए अनुवाद का ही सहारा लेते हैं। और एक नई सांस्कृतिक आदान-प्रदान की परंपरा चल पड़ी।4
सूचना-क्रांति के इस दौर में स्थापित हुई ‘विश्वग्राम’ की अवधारणा का साहित्यिक पक्ष बहुत रोचक है। आज विश्व-साहित्य को पढ़ने की ललक नए ढंग से बढ़ी है। इस कारण विश्व-भर में साहित्यिक अनुवाद की माँग भी बढ़ रही है। भारत जैसे बहुभाषी और विविध संस्कृतियों वाले देश में सांस्कृतिक समन्वय, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और एकता को बढ़ावा देने की दिशा में भी साहित्यिक अनुवाद का अमूल्य योगदान है। अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, चीनी एवं अरबी के अतिरिक्त हिंदी, स्पेनिश आदि भाषाओं का महत्त्व अनुवाद के क्षेत्र में लगातार बढ़ रहा है। विश्व की प्रमुख और प्रभावी भाषा के रूप में हिंदी के वर्चस्व की स्थापना के साथ ही हिंदीतर साहित्य के हिंदी में अनुवाद का महत्त्व नए सिरे से स्थापित हुआ है। ऐसे में हिंदी का और हिंदी के साहित्यकारों को दायित्व भी बढ़ा है। विश्व की प्रमुख भाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने के लिए और विश्व-भर में फैले हिंदीभाषी लोगों को विश्व-ज्ञान के विविध आयामों से जोड़ने के लिए अनुवाद के सशक्त माध्यम की उपयोगिता स्वतः प्रमाणित है।
बीबीसी, लंदन के हिंदी प्रभाग द्वारा वर्ष 2013 के समापन पर साल-भर में हिंदी में प्रकाशित पुस्तकों का लेखा-जोखा तैयार किया गया और पुस्तकों की समीक्षा करके निष्कर्ष दिया गया है कि वर्ष 2013 में मौलिक पुस्तकों की अपेक्षा अनूदित पुस्तकों की उपस्थिति प्रभावपूर्ण और सार्थक रही है।5 बीबीसी द्वारा जारी किया गाया यह सर्वेक्षण हिंदीतर साहित्यानुवाद की संभावनाओं के सुखद पक्ष को उद्घाटित करता है। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं, विशेषकर अनुवाद, नया ज्ञानोदय, मित्र, वागर्थ और आजकल ने हिंदीतर साहित्यानुवाद की अनिवार्यता और आवश्यकता को जानते-समझते हुए विश्व-साहित्य के साथ ही भारतीय भाषाओं के साहित्य के अनुवादों को प्रकाशित करने का कार्य किया है। वर्ष-भर में हिंदी में प्रकाशित होने वाली अनूदित पुस्तकों की संख्या भी पर्याप्त होती है।
कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि साहित्यिक विधाओं के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान की अन्य विधाओं तथा नवीनतम तकनीकी, नवीनतम शोध और लुप्तप्राय साहित्य के अनुवाद की दिशा में कार्य करने की असीमित संभावनाएँ अभी भी शेष हैं। सूचना-संचार क्रांति के इस दौर में ज्ञान की और सूचनाओं की अपरिमित उपलब्धता के बीच ‘मल्टी डिसिप्लिनरी स्टडी’ का पक्ष तेजी से उभरा है। ऐसी स्थिति में बेहतर अनुवाद रचने के लिए अनुवादकों का नवीनतम ज्ञान से युक्त होना अनिवार्य हो गया है। इंटरनेट पर उपलब्ध विविध संसाधनों (सॉफ्टवेयर, एप्लीकेशंस आदि) के उपयोग द्वारा हिंदीतर साहित्यानुवाद में नवोदित असीमित संभावनाओं को मूर्त रूप दिया जा सकता है।
हिंदीतर साहित्यानुवाद में निहित संभावनाओं के साथ ही चुनौतियों का पक्ष भी गहराई से जुड़ा हुआ है। स्वतः सुखाय या जीविकोपार्जन हेतु अनुवाद कार्य के प्रति समर्पित होने वाला अनुवादक अब परकाया-प्रवेश की प्रक्रिया से गुजरने लगा है। इस प्रक्रिया से गुजरने का धैर्य और क्षमता किसी साधक के पास ही हो सकती है। अनुवाद करने की मूलभूत शर्त है- ईमानदारी और निष्ठा। यदि अनुवादक को हम एक सेतु निर्माण करने वाले के रूप में देखें तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूरी ईमानदारी से पुख्ता और चिरस्थाई सेतु का निर्माण करे।6 
साहित्य, विज्ञान, वाणिज्य, जनसंचार और तकनीकी आदि के हिंदी अनुवाद के लिए योग्यता और दक्षता भी भिन्न होती है। इनके लिए वांछित ईमानदारी, निष्ठा,धैर्य और समर्पण के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान की प्रत्येक धारा में अनुवाद के लिए अलग-अलग जटिलताएँ और चुनौतियाँ हैं। कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि रचनाओं के अनुवादक के भीतर दो भाषाओं की टकराहट, अनुवाद विशेष का व्यक्तित्व, उसकी संवेदना और भाषायी समझ, मूल रचना का सौंदर्यपरक वैशिष्ट्य तथा उनका सर्जनात्मक रूपांतरण अपनी विशिष्ट अलग-अलग भूमिका निभाते हैं। इससे रचना अपनी विषयवस्तु से अलग होकर एक काव्यवस्तु बन जाती है। इसलिए साहित्यिक अनुवाद बड़ा ही दुष्कर और जटिल कार्य है, जिसके लिए असाधारण प्रतिभा, क्षमता और अभ्यास, तीनों की अपेक्षा रहती है।7  
वैज्ञानिक साहित्य के अनुवादकों का अभाव भी एक गंभीर समस्या है। वैज्ञानिक अनुवादक से यह अपेक्षा रहती है कि वह भाषाविद् के साथ-साथ विषयविद् भी हो। वैज्ञानिक विषय के जानकार अंग्रेजी में अधिक हैं तो हिंदी में नगण्य और हिंदी भाषा के विद्वान हैं तो विषय में प्रायः शून्य।8 विज्ञान-साहित्य के हिंदी अनुवाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती तकनीकी और पारिभाषिक शब्दावली के अभाव की है। यद्यपि भारत सरकार के वैज्ञानिक एवं तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली आयोग ने इस दिशा में सकारात्मक कार्य किया है, तथापि अभाव की स्थिति आज भी बनी हुई है। अंग्रेजी और विश्व की अन्य भाषाओं में विज्ञान-लेखन की पर्गति बहुत तीव्र गति से हो रही है। नए-नए आविष्कार और नवीनतम ज्ञान को अनुवाद के माध्यम से हिंदी में उपलब्ध कराने के लिए तेज-तर्रार और समर्पित युवाओं की बड़ी कमी है। इसके साथ ही नए लोगों द्वारा इस क्षेत्र में किए गए कार्यों को प्रोत्साहित करने, उन्हें मंच प्रदान करने और आगे बढ़ने के लिए संसाधन उपलब्ध कराने की सबसे बड़ी कमी भी है, जो इस दिशा की प्रगति को बड़े बर्बर तरीके से बाधित कर देती है। विज्ञान-साहित्य की तरह वाणिज्यिक-साहित्य के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट और पर्याप्त अनुवाद की कमी है।
जनसंचार के क्षेत्र में परंपरागत माध्यमों, यथा- लोक रंगमंच, लोकगीत, उत्सव, लोकनाट्य आदि के अनुवाद तथा आधुनिक माध्यमों, यथा- टेलिविजन, रेडियो, इंटरनेट, समाचार पत्र आदि के अनुवाद के लिए अलग अपेक्षाएँ होती हैं, क्योंकि इनका संबंध समाज के सभी वर्गों (शिक्षित, अशिक्षित, बूढ़े, बालक, महिलाएँ, अमीर-गरीब आदि) से होता है। इसलिए जनसंचार का अनुवाद शब्दानुवाद की अपेक्षा भावानुवाद पर अधिक बल देता है। इसके अतिरिक्त संप्रेषणीयता, बोधगम्यता, सहजता, रोचकता और सर्वजन सुलभता के गुण भी वांछित होते हैं।
एक भाषा से उसकी आत्मा निकालकर दूसरी भाषा में सुरक्षित रूप से प्रत्यारोपित करने का दुष्कर कार्य अनुवादक को करना पड़ता है। लेखक के विचारों और उसके भावों का अनुवाद में आत्मसातीकरण करना जटिल कार्य होता है। मराठी के प्रसिद्ध नाटककार और रंगकर्मी मामा वरेरकर (भार्गवराम विट्ठल वरेरकर) की उक्ति- लेखक होना आसान है, किंतु अनुवादक होना अत्यंत कठिन है, इस संदर्भ में सर्वथा उपयुक्त और सटीक प्रतीत होती है। हिंदीतर साहित्यानुवाद के परंपरागत स्वरूप से आगे बढ़ते हुए सूचना-संचार क्रांति के वर्तमान युग में हिंदी अनुवादकों के लिए एक ओर जहाँ संभावनाओं का असीमित विस्तार हुआ है, वहीं दूसरी ओर चुनौतियाँ भी बढ़ी हैं। हिंदीतर साहित्यानुवाद की वर्तमान में प्रासंगिकता और अनिवार्यता को अनुभूत करते हुए इस दिशा में जिस गति से प्रगति हुई है, उसे यदि संतोषजनक नहीं कहा जा सकता तब भी भविष्य की सुखद संभावनाओं के सफल-सार्थक लक्षण के रूप में अवश्य देखा जा सकता है।
संदर्भ-
1. वेब रेफरेंस www.kavitakosh.org/kk/अनुवाद :एक सेतु/महेंद्र भटनागर
2. साहित्यानुवाद : संवाद और संवेदना, संपा. डॉ. आरसु, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृ. 30
3. वेब रेफ़रेंस hi.wikipedia.org/wiki/अनुवाद
4. वेब रेफ़रेंस anuvaadak.blogpost.in/2010102/blog-post.html
6. वेब रेफ़रेंस anuvaadak.blogpost.in/2010102/blog-post.html
7. अनुवाद विज्ञान की भूमिका, कृष्णकुमार गोस्वामी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,2008, पृ. 302
8. वही, पृ. 309

(हमदर्द पब्लिक लाइब्रेरी, बीड, महाराष्ट्र में आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 08 से 09 फरवरी, 2014 में प्रस्तुत)

डॉ. राहुल मिश्र

Saturday 19 April 2014

बुंदेलखंड के अप्रतिम इतिहासकार और साहित्यसेवी : राधाकृष्ण बुंदेली


बुंदेलखंड के अप्रतिम इतिहासकार और साहित्यसेवी 
राधाकृष्ण बुंदेली
बाँदा शहर के चौक बाजार की ओर बलखंडीनाका की तरफ से चलने पर कापी-किताबों की छोटी-सी दूकान- विजय पुस्तक भंडार। यहाँ पर पुरानी किताबें बेची और खरीदी जाती थीं। विजय पुस्तक भंडार की एक और पहचान राधाकृष्ण बुंदेली के नाम से भी कायम थी। इस छोटी-सी दूकान में साहित्यकारों, शोध छात्र-छात्राओं का और अलग-अलग विषयों के जिज्ञासुओं का दिन-दिनभर जमावड़ा लगा रहता था। कभी कोई किताबें खरीदने या बेचने आ जाता तो उसका काम निबटाकर फिर से साहित्यचर्चा शुरू हो जाती। विजय पुस्तक भंडार में अकसर विदेशी पर्यटक भी बैठे नजर आ जाते।
विजय पुस्तक भंडार की रोजमर्रा की जिंदगी में यह दृश्य कब से कायम है, मेरे लिए यह बता पाना बहुत कठिन है। क्योंकि अपने बचपन से मैंने हमेशा इस क्रम को देखा है। पढ़ाई के दिनों में किताबें लेने के लिए हमलोग भी वहाँ पहुँच जाते थे। बाद में, जब बुंदेली साहित्य, संस्कृति से जुड़ाव शुरू हुआ तो साहित्यचर्चा में शामिल होने लगे। संरक्षक के रूप में, मार्गदर्शक के रूप में राधाकृष्ण बुंदेली की नसीहतें, बातें बहुत प्रभावित करतीं। कभी कोई बुंदेली कहानी, बुंदेली लोकगीत या इतिहास का कोई प्रसंग बुंदेली जी से सुनने को मिल जाता तो वह हमेशा-हमेशा के लिए याददाश्त में बैठ जाता। ऐसे ढेरों प्रसंग, कहानियाँ-किस्से और लोकगीत हमारे लिए प्रेरणास्रोत बन गए। यहीं से बुंदेलखंड के इतिहास, तहजीब और लोकरंग को शब्द देने की प्रेरणा मिली। राधाकृष्ण बुंदेली हमारे लिए प्रेरणास्रोत बने, जिन्होंने बुंदेली माटी के प्रति भावनात्मक लगाव का बीज रोपा। ऐसा महसूस करना मेरे लिए आश्चर्य से भरा हुआ नहीं है कि मेरे जैसे कई युवाओं को प्रेरणा बुंदेली जी से ही मिली होगी।
राधाकृष्ण बुंदेली बुंदेलखंड की माटी के जमीन से जुड़े साहित्यकार, इतिहासकार थे। इस कारण बुंदेलखंड की तहजीब को, यहाँ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखने का उनका नजरिया एकदम अलग था। सामान्य रूप से इतिहास का अध्ययन ऐसा होता है, जिसमें संवेदनात्मक, भावात्मक अनुभूति नहीं होती है। बुंदेली जी की इतिहास-दृष्टि इसके विपरीत थी, इसके कारण उनके द्वारा रचे गए विविध लेखों में बुंदेलखंड की ऐतिहासिक विरासत की जानकारी भावनात्मक रूप से ऐसा घनिष्ठ जुड़ाव कायम करने की सामर्थ्य रखती है, जो उनके लेखन कौशल को अद्भुत वैशिष्ट्य प्रदान कर देती है।
बुंदेलखंड के प्रत्येक क्षेत्र, विविध जनपदों में भाषाई विविधता अनूठे किस्म की है। राधाकृष्ण बुंदेली का भाषाई विविधता पर अध्ययन भी उत्कृष्ट था। उन्होंने बुंदेलखंड के विविध क्षेत्रों की बोलियों के साम्य-वैषम्य का अध्ययन किया, उन्हें प्रकाश में लाने का कार्य किया। वे बुंदेली बोलियों का व्यवहार भी बड़े रोचक ढंग से करते थे। बातों के दौरान अक्सर अलग-अलग बोलियों का यथावत् और स्पष्ट प्रयोग सुनकर क्षेत्र-विशेष के प्रति अलग-सा आकर्षण पैदा हो जाता था। विविध बोलियों का व्यवहार करते हुए अक्सर वे चिंतित हो जाते थे। खड़ीबोली हिंदी के प्रयोग और अंग्रेजी के प्रयोग के माध्यम से स्वयं को शिष्ट और पढ़ा-लिखा प्रदर्शित करने के प्रयासों में अपनी भाषाई पहचान के अस्तित्व को मिटाने की नीयत उन्हें बहुत चिंतित करती थी। हमलोगों से वे अक्सर पूछते कि तुम लोगों को कितने प्रकार की बुंदेली बोलियाँ आतीं हैं। बाद में नसीहत भरा संदेश, कि बुंदेली बोलियों को व्यवहार में रखो, उनमें साहित्य लिखो, कहानियाँ लिखो, आदि।
राई, आल्हा, ढिमरियाई, कछियाई, दादरा, सोहर और ऐसे ही तमाम लोकगीतों का सस्वर पाठ करते राधाकृष्ण बुंदेली की चिंता लोकगीतों की पुरातन परंपरा के सिमटते जाने पर भी मुखर हो उठती थी। बुंदेलखंड की सांस्कृतिक पहचान का यह बहुत बड़ा पक्ष है। कुछ विशेष प्रायोजित आयोजनों के अतिरिक्त इन विधाओं का व्यवहार-लोक सिमटता जा रहा है। सहजता के स्थान पर प्रदर्शन हावी होता जा रहा है। इनके संरक्षण के लिए और इन विधाओं के कलाकारों को प्रोत्साहन देने के लिए राधाकृष्ण बुंदेली सदैव प्रयासरत रहे। बुंदेलखंड के लोकगीतों पर उन्होंने कई शोध-छात्रों का निर्देशन भी किया।
बदलती जीवन-शैली, आधुनिकता के प्रभाव और लोकसंस्कृति को पिछड़ेपन की निशानी समझने की मानसिकता के कारण बुंदेली संस्कृति और बुंदेलखंड के गौरवपूर्ण अतीत से समाज की बढ़ती दूरियों को बुंदेली जी ने शिद्दत से महसूस किया। उन्होंने बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विशिष्टताओं को देश-दुनिया के सामने लाने और समाज को अपनी तहजीब, अपने इतिहास से जोड़ने के लिए सर्वाधिक लोक-प्रचलित माध्यम- फिल्म का उपयोग किया। इसके लिए उन्होंने अपने संसाधनों से, अपने अनथक प्रयासों से कालंजर के ऊपर लंबी फिल्म का निर्माण किया।
सन् 1986 में उन्होंने सीमित तकनीकी संसाधनों का उपयोग करके कालंजर दर्शन नामक फिल्म निर्माण की शुरुआत की। इसमें विश्वविख्यात ऐतिहासिक-पौराणिक दुर्ग कालंजर की चालीस किलोमीटर की परिधि में आने वाली ऐतिहासिक धरोहरों का फिल्मांकन किया। राधाकृष्ण बुंदेली ने पटकथा लेखन, संवाद लेखन, पात्र-चयन और निर्देशन आदि दायित्वों का स्वयं निर्वहन किया। तकनीकी के विविध प्रयोगों के माध्यम से फिल्म को रोचक और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए अध्ययन भी किया और नवीन अनुसंधान भी किया। कालंजर के आसपास की ऐतिहासिक धरोहरों के साथ ही यहाँ पर प्रचलित धार्मिक मान्यताओं, सांस्कृतिक विशिष्टताओं और भौगोलिक विशिष्टताओं को पूरे यथार्थ के साथ, समग्रता के साथ उन्होंने फिल्माया। लगभग नौ घंटे की यह फिल्म आठ वर्षों के अनथक परिश्रम के बाद बनकर तैयार हुई। इस फिल्म में मड़फा, रौली गोंडा, रसिन और पाथर कछार समेत अनेक दुर्गम स्थानों का फिल्मांकन हुआ है। उस दौर में इन दुर्गम स्थानों तक अकेले पहुँच पाना ही बहुत कठिन हुआ करता था। डाकुओं के अलावा सड़क मार्ग की अनुपलब्धता, लोगों की दूषित मानसिकता और प्राकृतिक आपदाएँ आदि अनेक बाधाओं से जूझते हुए बुंदेली जी ने फिल्म निर्माण पूरा करके नए लोगों को प्रेरणा देने का कार्य भी किया और बुंदेलखंड की सच्ची सेवा भी की। कालंजर दर्शन फिल्म ने कालंजर को विश्व सांस्कृतिक धरोहर में स्थान दिलाने की दिशा में सार्थक योगदान दिया।
कालंजर के अतिरिक्त अन्य स्थानों के संरक्षण, देखभाल और जन-जागरूकता हेतु बुंदेली जी के प्रयास अनवरत जारी रहे। वर्ष 2010 में चित्रकूट के चर गाँव के नजदीक स्थित गुप्तकालीन और भारशिव शासकों द्वारा निर्मित सोमनाथ मंदिर की उनकी यात्रा के साथ हमलोगों की सुंदर-रोचक यादें जुड़ी हुई हैं। सत्तर वर्ष की उम्र में अपनी शारीरिक विवशताओं को दरकिनार करते हुए हमारे अनुरोध पर उन्होंने सोमनाथ मंदिर चलने की स्वीकृति दे दी। दिन-भर के कार्यक्रम में उन्होंने मंदिर के स्थापत्य के बारे में, मंदिर के निर्माण के काल निर्धारण के बारे में और मंदिर से जुड़े अनेक साक्ष्यों के बारे में विस्तार से जानकारी दी और लगभग एक घंटे के वृत्तचित्र के निर्माण का हमारा संकल्प सफल हो सका, सार्थक हो सका। वृत्तचित्र निर्माण के बाद सोमनाथ मंदिर को राष्ट्रीय पुरातात्त्विक धरोहर के रूप में संरक्षित किए जाने हेतु हमारे अभियान को उनका संरक्षण, मार्गदर्शन जीवन पर्यंत प्राप्त होता रहा।
राधाकृष्ण बुंदेली ने आजीवन बुंदेलखंड की सेवा की और निस्वार्थ भाव से, निष्काम भाव से उनकी सेवा उन तमाम लोगों के लिए मार्गदर्शक बन गई, जिनके लिए शोशेबाजी, दिखावेबाजी करके यश प्राप्ति की या अर्थ प्राप्ति की लिप्सा पहला महत्त्व रखती है। बुंदेली जी को बुंदेली विकास संस्थान, बसारी, छतरपुर के द्वारा सन् 2011 में राव बहादुर सिंह बुंदेला सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त थियोसोफिकल सोसायटी, बुंदेलखंड टीवी एवं फिल्म प्रोडक्शन यूनिट, संस्कार भारती, बुंदेलखंड अमृत महोत्सव सम्मान आदि से सम्मानित किया गया। बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा, कालंजर शोध संस्थान, अमर शहीद क्रांतिकारी मंगल पांडे फाउंडेशन, नौटंकी कला केंद्र, मंडल समाचार पत्र संपादक संघ, इंटैक और राष्ट्रीय एकीकरण अनुभाग सहित अनेक संस्थाओं और संगठनों ने उन्हें विभिन्न सम्मानों/पुरस्कारों से सम्मानित किया।
अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने व्यास ऋषि के जन्म-स्थान- अदरी, चिल्ला (बाँदा) और सोमनाथ मंदिर, चर, चित्रकूट की खोज में अमूल्य योगदान दिया। हम युवाओं के लिए उनकी प्रेरणा, उनकी कर्मठ जीवनी-शक्ति अमूल्य है। बिना किसी लालसा के निष्काम भाव से बुंदेलखंड की सेवा करने का जो भाव बुंदेली जी के जीवन में, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में देखने को मिलता है, वह अत्यंत दुर्लभ है। विशेषकर आज के भौतिक युग में, टूटते-बिखरते मानवीय मूल्यों के दौर में अपनी माटी के लिए समर्पण का भाव बहुत कम देखने को मिलता है। विजय पुस्तक भंडार के माध्यम से व्यवसाय की अपेक्षा समाजसेवा को महत्त्व देते हुए, वंचितों-गरीबों को शिक्षा के लिए अवसर उपलब्ध कराते हुए वहीं से बुंदेलखंड के नेह-प्रेम की अलख जगाने वाले राधाकृष्ण बुंदेली का व्यक्तित्व और उनका कृतित्व अनूठा था। विजय पुस्तक भंडार एक प्रतिष्ठान मात्र नहीं, शक्ति का, संप्रेषण का, जागृत चेतना का केंद्र था। हम सभी के लिए यह गौरव की बात है कि हमें बुंदेली जी का संरक्षण प्राप्त हुआ और बुंदेली माटी से भावनात्मक जुड़ाव जोड़ पाने का एक आयाम मिला। हमारे बीच से बुंदेली जी का जाना एक ऐसे निर्वात का सृजन कर गया है, जिसकी भरपाई की संभावना कोसों दूर तक नजर नहीं आती। उनकी उपस्थिति का अहसास मात्र शेष है, जो असीमित शांति देता है, प्रेरणा देता है और उनके सपनों को साकार करने हेतु संघर्ष की शक्ति देता है। उनकी स्मृतियों को कोटिशः नमन।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुंदेली बसंत- 2014, बसारी, छतरपुर (मध्यप्रदेश) में प्रकाशित}

Monday 14 April 2014

भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग-2

भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग- 2


सन् 1913 में पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र और पहली बोलती हुई फिल्म आलम आरा  के सन् 1931 में रिलीज होने के बाद भारतीय सिनेमा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1913 से 1980 तक के सफर में देश की राजनीति, समाज, शिक्षा, कृषि, संस्कृति और जीवन-स्तर में कई बदलाव आए। इन बदलावों को कई तरीकों से रुपहले परदे पर उतारते हुए भारतीय सिनेमा हर आम और खास दर्शक का बखूबी मनोरंजन करता रहा। अस्सी का दशक आते-आते फिल्मी विधा बदलने लगी। सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन के रचयिता सलीम-जावेद की जोड़ी टूट चुकी थी और सदी के महानायक अमिताभ का सितारा भी बुझ रहा था। मर्द, शहंशाह और जादूगर जैसी फिल्में ज्यादा कामयाब नहीं रहीं। अमिताभ बच्चन के अलावा राजेश खन्ना, राजकुमार, सुनील दत्त जैसे दिग्गज अभिनेताओं की फिल्में इस दौरान आईं, मगर ज्यादा चर्चित नहीं रहीं। अच्छे हीरो और हीरोइनों का पारिवारिक फिल्मों में एकछत्र राज था। उन्हें देखने के लिए देश के सिनेमाघरों में दर्शकों की अपार भीड़ होती थी। एक ओर हिंदी सिनेमा का नया स्वाद चखने के लिए जनता बेकरार थी और दूसरी तरफ सन् 1982 में रंगीन टेलीविजन का देश में आगमन हुआ। ऐसे में सिनेमा प्रेमियों ने सिनेमाघरों को रविवार तक ही सीमित कर दिया। फिर भी फिल्म निर्माता शांत नहीं थे, इनका प्रयोग जारी रहा। नए-नए आविष्कारों ने घिसे-पिटे डांस की जगह डिस्को डांस का प्रचलन ला दिया, जिसके आधार पर एक्शन फिल्में तैयार की जाने लगीं। इस दशक में नए नायकों और नायिकाओं का फिल्म जगत में आगमन हुआ। सन् 1981 में रिलीज हुई सलमान खान की फिल्म मैंने प्यार किया ब्लॉकबस्टर साबित हुई। 1986 में सुभाष घई की फिल्म कर्मा को जबरदस्त कामयाबी मिली। 1987 में शेखर कपूर एक अलग फिल्म मिस्टर इंडिया लेकर आए, जिसमें श्रीदेवी और अनिल कपूर लीड रोल में थे। 1988 में आमिर खान और जूही चावला की फिल्म कयामत से कयामत तक भी खूब चर्चित रही। नक्सली दुनिया को छोड़कर फिल्मों में आए डांसिंग स्टार मिथुन चक्रवर्ती ने लोगों पर ऐसा असर छोड़ा कि लोग उनके जैसे बाल कटवाने लगे, उनके जैसे कपड़े पहनने लगे। फिल्म एक दो तीन में माधुरी दीक्षित और मिथुन चक्रवर्ती की जोड़ी दर्शकों की पसंद बन गई। फिल्म राजा बाबू में गोविंदा का जादू चल गया, वहीं पारिवारिक फिल्मों में जितेंद्र, श्रीदेवी, जयाप्रदा, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल की भूमिका सराहनीय रही। वर्ष 1991 में प्रदर्शित सौदागर से दिलीप कुमार और राजकुमार का 32 साल बाद आमना सामना हुआ। इस फिल्म में राजकुमार के बोले जबरदस्त संवाद दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं, मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते हैं आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग में गूँजता रहता है। इसी फिल्म से मनीषा कोईराला और विवेक मुशरान इलू इलू करते नजर आए। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म परिंदा भी बहुत चर्चित रही। दशक के अंत में आमिर खान, सलमान खान और शाहरूख खान जैसे सितारे उभरे। इस तिकड़ी ने हिंदी सिनेमा को चार चांद लगा दिए। ये सितारे हर अदा में नाचे, इनका जादू सिनेमा प्रेमियों के सिर चढ़कर बोला। बप्पी लहरी की धुनों ने फिल्मों में नई जान डाली। सन् 1973 में यशराज फिल्म्स के माध्यम से निर्माण और निर्देशन की शुरुआत करने वाले यश चोपड़ा ने 1989 में चाँदनी  फिल्म के माध्यम से फिल्मों में रोमांस की नई इबारत लिखी। यश चोपड़ा को हिंदी फिल्मों में रोमांस के नए-नए अंदाज पेश करने के लिए जाना जाता है। इनके साथ ही खलनायकों की बात करें तो अजीत, प्राण, अमजद खान, अमरीश पुरी, गुलशन ग्रोवर, शक्ति कपूर, रंजीत आदि ने विलेन की भूमिका निभाकर अपने अभिनय का लोहा मनवाया। वहीं विश्व सुंदरियों ने अपनी प्रतिभा सिनेमा जगत में उड़ेलने में कसर नहीं छोड़ी।अस्सी के दशक की बड़ी विशेषता सार्थक सिनेमा या नए सिनेमा आंदोलन की स्थापना है। इस दशक में दर्शकों के लिए सिनेमा में समाज और समय के सच्चे और खरे यथार्थ को देखने का अवसर मिला। मनोरंजनप्रिय दर्शकों को यह भले ही अटपटा लगा हो, मगर इससे प्रभावित बुद्धिजीवी दर्शकों का एक नया वर्ग तैयार हुआ, और इन फिल्मों को स्वीकार किया जाने लगा। श्याम बेनेगल ने मंथन भूमिका, निशान्त, जुनून और त्रिकाल जैसी विविध विषयों का समेटती हुई अच्छी फिल्में दर्शकों को दीं। सन् 1973 में आंध्र प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर  ने समांतर भारतीय सिनेमा आंदोलन की शुरुआत की। श्याम बेनेगल मशहूर फिल्म निर्देशक गुरुदत्त के भतीजे थे। आगे चलकर वे भारतीय सिनेमा के प्रभावशाली निर्देशक के रूप में स्थापित हुए। प्रकाश झा की दामुल, अपर्णा सेन की 36 चौरंगी लेन, रमेश शर्मा की नई दिल्ली टाईम्स, केतन मेहता की मिर्चमसाला, गुलजार की इजाजत, मुजफ्फ़र अली की उमराव जान, तपन सिन्हा की आज का रॉबिनहुड और महेश भट्ट की पहली फिल्म अर्थ आदि नए रुझान की फिल्में थीं। युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलाम बॉम्बे के लिए 1989 में केन्स में गोल्डन कैमरा अवार्ड जीता। इसके साथ ही डाकू, कैबरे नृत्यों, मारधाड, पेडों के आगे पीछे गाना गाते हीरो-हीरोईन से उबे दर्शकों का जायका बदलने लगा। नब्बे के दशक में संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का दौर चला, लेकिन गानों में पहले जैसा स्वाद नहीं था। ऐसा ही हाल सिनेमा का भी हुआ। हिंदी सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय बनाने के प्रयास में बिना सिर पैर की फिल्में बनने लगीं। सन् 1990 में आई महेश भट्ट की फिल्म आशिकी  में समाज की उपेक्षा से आहत नायक और नायिका एक-दूसरे के करीब आते हैं और अपना जीवन अपने अनुसार जीने के लिए संघर्ष करते हैं। सन्1993 में आई 1942 ए लव स्टोरी  भी इसी तासीर की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक बन गई।1993 से 2002 के दशक में हिन्दुस्तान बहुत तेज़ी से बदल रहा था। उदारीकरण ने देश के बाजारों को बदला और बाजार ने सिनेमा को। हिन्दी सिनेमा विदेशों में बसे भारतीयों तक पहुँचा। राजश्री की हम आपके हैं कौन में बसा संयुक्त परिवार के प्रति मोह तथा 1995 में आई यश चोपड़ा की दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे में भारत की यादों में तड़पता एनआरआई विदेशों तक हिंदी फिल्मकथा की पहुँच का बखान करता है। उसके बाद सन् 1997 में यश चोपड़ा की दिल तो पागल है आई। इस दौर के उभरते सितारे शाहरूख खान एक ओर डर, बाज़ीगर और अंजाम के हिंसक प्रतिनायक की भूमिका में दिखे, वहीं दूसरी ओर कभी हाँ कभी ना, राजू बन गया जेंटलमैन और चमत्कार जैसी फिल्मों में एक साधारण-से लड़के जैसे नजर आए। अपने समय के महानायकों दिलीप कुमार, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की तरह वे भी सिनेमा के लिए बाहरी थे। फिल्मी खानदानों से अलग हटकर उन्होने अपनी मेहनत से अपने लिए जमीन तैयार की थी।इस दशक में यथार्थवादी फिल्मों की दृष्टि से द्रोहकाल, परिन्दा, दीक्षा, माया मेमसाब, रूदाली, लेकिन, तमन्ना, बैंडिट क्वीन आदि उल्लेखनीय नाम हैं। क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में भी इस दौर में पीछे नहीं थीं। अंजलि, रोजा और बॉम्बे दक्षिण भारत की ऐसी फिल्में हैं, जो अपनी लोकप्रियता को साथ लेकर हिंदी में डब हुईं।नई सदी में सिनेमा का नया दौर आया। रामगोपाल वर्मा ने इसका ढंग बदला तो मणि रत्नम ने इसकी चाल। दिल चाहता है और सत्या जैसी फिल्में अपने दौर की कल्ट क्लासिक बनीं और उन्होंने अपने आगे सिनेमा की नई धाराएं शुरू कीं। नई सदी के फिल्मकार मायानगरी के लिए एकदम बाहरी थे और उन्होंने अपनी प्रतिभा के बलबूते इस उद्योग में पैठ बनाई। तकनीक ने सिनेमा को ज्यादा आसान बनाया और सिनेमा बड़े परदे से निकलकर आम आदमी के ड्राइंगरूम में आ गया। इसी बीच मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर आए और उनके साथ सिनेमा का दर्शक बदला, विषय भी बदले। अब सिनेमा में गाँव नहीं थे। यह स्याह शहरों की कथाएं थीं जिन्हें ब्लैक फ़्राइडे में अनुराग कश्यप ने, मकबूल में विशाल भारद्वाज ने और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में सुधीर मिश्र ने बड़े अदब से सुनाया। ऋतिक रोशन, रणबीर कपूर नई सदी के नायक हुए। सलमान खान और आमिर खान ने नए समय में फिर से स्टारडम का शिखर देखा। लेकिन इन नायकों की सफलता के पीछे उनका अभिनय कौशल नहीं, बल्कि नए-नए निर्माता-निर्देशकों की मेहनत और बेहतरीन पटकथाएँ थीं। इन पटकथाओं में कहीं गाँव थे तो कहीं शहर थे। कहीं देश की ज्वलंत समस्याएँ थीं तो कहीं पर समाज का बदलता स्वरूप था। इस दौर के सफल निर्माता-निर्देशकों में राजकुमार हिरानी, अभिनव कश्यप, इम्तियाज़ अली, प्रियदर्शन, प्रकाश झा आदि रहे, जिनके काम की ईमानदारी इन महानायकों की सफलताओं में बोलती रही।सन् 2001 में आई लगान ने अपने समय में काफी धूम मचाई और ऑस्कर पुरस्कार पाने की दौड़ में भी शामिल हुई। सन् 2002 में आई फिल्म ओम जय जगदीश से अनुपम खेर ने निर्देशन की शुरुआत की। तीन भाइयों के बीच के भावनात्मक संबंधों को बड़े कलात्मक ढंग से बताती इस फिल्म के साथ ही वहीदा रहमान की 11 वर्षों के बाद फिल्मों में वापसी हुई। प्रकाश झा की फिल्म गंगाजल एक ईमानदार पुलिसवाले की भ्रष्ट व्यवस्था के साथ संघर्ष की कहानी लेकर आई। इस फिल्म की कहानी 1979-80 में बिहार के भागलपुर में घटित एक सत्य घटना आंखफोड़वा कांड से प्रेरित थी। इसी तरह सन् 2001 में एस. शंकर के निर्देशन में आई अनिल कपूर की फिल्म नायक में एक दिन का मुख्यमंत्री राजनीति, भ्रष्टाचार और अपराध के गठजोड़ को प्रकट किया गया। सन् 2003 में आई रवि चोपड़ा की फिल्म बागबान  उन माता-पिता के दुखद बुढ़ापे की कथा कहती है, जो अपने बच्चों के ऊपर बोझ बन जाते हैं। यह फिल्म उस आधुनिक समाज का सच्चा आइना दिखाती है, जहाँ परिवार की मर्यादा पर आधुनिकता भारी पड़ रही है। सन् 2003 में रिलीज हुई फिल्म कोई मिल गया के माध्यम से राकेश रोशन ने अपने बेटे रितिक रोशन के कैरियर को संभालने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर धरती के बाहर भी जीवन होने की संभावनाओं को ऐसे रोचक ढंग से उठाया कि लोगों के जेहन में अनेक विचार उठने लगे। सन् 1857 की क्रांति के महानायक को रुपहले परदे में उतारने का प्रयास केतन मेहता ने अपनी फिल्म मंगल पाण्डे  में किया। यह फिल्म सन् 2005 में रिलीज हुई।     रोमांच, मनोरंजन, कलात्मकता, हकीकत और नसीहत से भरी फिल्में देने वाले प्रियदर्शन की सन् 2004 में रिलीज हुई फिल्म हलचल का अगला क्रम मालामाल वीकली, भूलभुलैया  और दे दनादन में आगे बढ़ता है। सन् 2007 में आई फिल्म गाँधी, माई फ़ादर में निर्माता अनिल कपूर और निर्देशक फिरोज अब्बास नकवी ने महात्मा गाँधी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी के रिश्तों की तल्खी को सच्चाई के साथ पेश करने की कोशिश की। सन् 2007 में आमिर खान की फिल्म तारे ज़मीन पर  महत्त्वाकांक्षी माँ-बाप की उम्मीदों के पहाड़ तले दबकर घुटते एक ऐसे बच्चे की कहानी बयाँ करती है, जिसे अपने समय और समाज में आसानी से खोज लेना कठिन नहीं है। इस फिल्म को 2008 का सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार मिला है और दिल्ली सरकार ने इसे करमुक्त घोषित किया है। ऐसी ही एक फिल्म पा है। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने अभिषेक बच्चन के बेटे का किरदार निभाया है। बाल्की द्वारा निर्देशित यह फिल्म प्रोजोरिया नामक बीमारी से पीड़ित 12 साल के बच्चे की कहानी बयाँ करती है।लीक से हटकर समाज में घटने वाली घटनाओं को रुपहले परदे पर उतारने के लिए मशहूर श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्ज्नपुर  में सज्जनपुर ऐसा गाँव है, जो भारत के किसी खाँटी गाँव का सच्चा नक्शा उतारकर हमारे सामने रख देता है। इस गाँव में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते लोग हैं, विधवा विवाह, अशिक्षा और अंधविश्वास जैसी सामाजिक समस्याएँ हैं। वोट हासिल करने के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले नेता हैं और गांव के इकलौते पढ़े-लिखे महादेव के रूप में ऐसा सामान्य व्यक्ति भी है, जो अपनी प्रेमिका कमला को चाहते हुए भी जब अपना नहीं बना पाता तो उसकी खुशियों के लिए अपनी जमीन बेच देता है।सन् 2008 में रिलीज हुई नीरज पांडे द्वारा निर्देशित फिल्म ए वेडनसडे  में दोपहर दो बजे से लगाकर शाम छह बजे तक की कथा है, मगर दर्शकों को कई दिनों तक सोचने को मजबूर कर देती है। आतंकवाद से त्रस्त आम आदमी की असहाय स्थिति और उसकी ताकत, दोनों ही फिल्म में ऐसी शिद्दत के साथ प्रकट होती हैं कि देखते ही बनता है। गंभीर विषयों के लिए चर्चित निर्देशक राजकुमार संतोषी ने अंदाज़ अपना अपना  बनाकर साबित कर दिया था कि वे हास्य पर भी अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं और लंबे अरसे बाद सन् 2009 में अपनी नयी फिल्म अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी  के साथ उन्होने फिल्म जगत् को एक और स्वस्थ हास्य फिल्म दी।लाइफ एक रेस है, तेज़ नहीं भागोगे तो कोई तुम्हें कुचलकर आगे निकल जाएगा और कामयाब नहीं, काबिल बनो, जैसे नसीहत भरे संवाद लेकर आई राजकुमार हिरानी की फिल्म 3 ईडियट्स भारतीय शिक्षा प्रणाली की कमियों और उसकी वजह से विद्यार्थियों के किताबी कीड़ा बन जाने की भयावह स्थितियों को उजागर करती है। पढ़ाई की रॅट्टामार शैली पर व्यंग्य करती फिल्म साल 2009 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनी। अंग्रेजी उपन्यासकार चेतन भगत के आईआईटी पर आधारित उपन्यास 5 पॉइंट सम वन से मिलती-जुलती होने की वजह से यह विवादों में भी रही। सन् 2010 में निर्माता आमिर खान और निर्देशक अनुषा रिजवी के प्रयासों से आई फिल्म पीपली लाइव को श्याम बेनेगल की फिल्म वेलडन अब्बा  के आगे की कथा कहा जा सकता है। इन दोनों फिल्मों में भारत के धुर ग्रामीण समाज की विवशताओं को दिखाने का प्रयास किया गया है। कर्ज के कारण मरने को मजबूर किसान नत्था की खबर को सनसनीखेज बनाने में जुटे मीडिया की संवेदनहीनता को भी फिल्म में शिद्दत के साथ प्रकट किया गया है। सन् 2010 में आई निर्देशक हबीब फ़ैसल की फिल्म दो दूनी चार में मजाकिया ढंग से प्रस्तुत की गई कहानी ऐसी लगती है, जैसे वह हमारी ही कहानी हो। फिल्म महानगरीय जीवन में एक मध्यवर्गीय परिवार की परेशानियों और जोड़ तोड़ को बेहद वास्तविकता के साथ चित्रित करती है। इसी तरह ईगल फिल्म्स के बैनर तले राजीव मेहरा की फिल्म चला मुसद्दी आफिस आफिस  घपलों-घोटालों और कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को इस तरह प्रकट करती है कि सच्चाई और रुपहले परदे पर चलते चित्रों के बीच कोई अंतर नहीं दिखता है। फिल्म का नायक मुसद्दीलाल अपनी बंद हुई पेंशन पाने के लिए स्वयं को जिंदा साबित करने में लगा हुआ है।सन् 2010 में आई निर्माता अमिता पाठक और निर्देशक अश्विनी धीर की फिल्म अतिथि तुम कब जाओगे की कहानी महानगरीय संस्कृति के कारण टूटते पारिवारिक संबंधों की कड़वी हकीकत को शिद्दत के साथ बयाँ करती है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को संवेदनहीन होने की नसीहत देकर किस ओर ले जा रहे हैं। सुभाष कपूर की फिल्म फँस गए रे ओबामा  वैश्विक मंदी के लोकल इफेक्ट को मजाकिया अंदाज में पेश करती है। अमिर खान की फिल्म तलाश और दिल्ली बेल्ली, गौरी शिंदे की फिल्म इंगलिश विंगलिश, सौरभ शुक्ल की फिल्म बर्फी, अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर, मिलन लुथुरिया की फिल्म द डर्टी पिक्चर, श्रीराम राघवन की फिल्म एजेंट विनोद, पंकज कपूर की फिल्म मौसम, प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण, अनुराग कश्यप की फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स  और अजय सिन्हा की खाप  आदि ऐसी फिल्में हैं, जो अपने अलग-अलग अंदाज लेकर आईं हैं और अपने ज्वलंत विषयों के माध्यम से समाज को सोचने के लिए मजबूर कर देने की क्षमता रखती हैं। इस दौर में जिस्म औरजन्नत आदि फिल्में भी आईं, मगर इनमें मानसिक विकृतियों को ही ज्यादा स्थान मिला।सत्तर-अस्सी के दशक तक हिंदी फिल्मों के साथ बेहतरीन गीतों का मेल हुआ करता था। मशहूर शायरों, ग़ज़लकारों के बेहतरीन नगमे हुआ करते थे। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, मुकेश, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति और अनुराधा पोडवाल जैसे कई गायक-गायिकाओं के मीठे सुर दर्शकों-श्रोताओं का मन मोह लेते थे। इनमें से कई यादगार नगमे अक्सर लोगों की जुबाँ पर होते थे। हॉलीवुड की नकल करते हुए बॉलीवुड से फिल्मी नगमों की वह पुरानी मिठास गायब होती चली गई। नई सदी में अशोक मिश्र, अमित मिश्र, प्रीतम चक्रवर्ती, अंजन अंकित, संजोय चौधरी, साजिद-वाजिद और शांतनु मोइत्रा जैसे गीतकारों के गीतों में डिस्को-डांस की कान फोड़ने वाली थिरकन तो दिखी, मगर गीतों से मिलने वाली अजीब-सी तसल्ली नहीं मिली। हालाँकि नई सदी के कुछ गीत यादगार भी बने।


दादासाहेब फाल्के के जमाने की मूक फिल्मों की शुरआती तकनीक से लगाकर आज के दौर की थ्री डी तकनीक तक फिल्म निर्माण में कई उतार-चढ़ाव आए। आज फिल्में बनाना उतना कठिन और मेहनत भरा काम नहीं रह गया। तकनीकी सुविधाएँ बढ़ने के बावजूद बॉक्स ऑफिस में कई फिल्मों की लागत करोड़ों तक पहुँच जाती है। जो फिल्म जितनी महँगी होने लगी, वह उतनी ही ज्यादा कारगर मानी जाने लगी। इस तरह फिल्म व्यवसाय भी भौतिकता की अपार चकाचौंध में खोता चला गया।इन सबके बावजूद साल भर में सर्वाधिक फिल्में बनाने में भारत अग्रणी है। हिंदी के साथ ही भारत की अनेक भाषाओं-बोलियों में फिल्म व्यवसाय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाते हुए लगातार आगे बढ़ रहा है। राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में भी फिल्म व्यवसाय का अमूल्य योगदान है। देश की विविध भाषाओं-बोलियों की प्रसिद्ध फिल्मों की डबिंग ने सारे देश को एक सूत्र में जोडने का काम किया है। इतना ही नहीं, विदेशों तक भारतीय फिल्मों की गूँज सुनाई देती है। भारतीय फिल्मों को भले ही हॉलीवुड की तरह सम्मान या बड़े-बड़े पुरस्कार नहीं मिले हों, फिर भी भारतीय फिल्मों के संस्थापक दादासाहब फाल्के से लगाकर इक्कीसवीं सदी में भारत के दूरदराज क्षेत्रों से आने वाले नए-नवेले निर्माता-निर्देशकों तक फिल्म व्यवसाय को समाज के हित में लगाने का जज्बा बरकरार है। आने वाले समय में भारतीय फिल्में अपनी इस जिम्मेदारी को और भी अच्छे तरीके से निभाएँगी, ऐसी संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

                                                                                डॉ. राहुल मिश्र
(आकाशवाणी, लेह से प्रसारित)