tag:blogger.com,1999:blog-1601979891421846352024-03-10T08:16:23.978+05:30कही-अनकही-बतकहीवयं राष्ट्रे जागृयाम पु॒रोहिताः।। (यजुर्वेद ९/२३)
कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.comBlogger84125tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-3961045381995604782023-08-16T20:06:00.000+05:302023-08-16T20:06:49.531+05:30ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaGeXJgk9p1T_B2CDwuWiNC4IE-Jyx2bTnfq4dN3tiFfswslv434yg4T5cFYYQUK6Iy0X08IuFaYp_3wQmbMHc_O4PArg3tYxu2Pk-s2p8WY6c3fRQV3tcUtAR8SCn7KEzPWdHNMu0ZnTcH4hExGfnegJgGF8ZPRlmAj80nh-pJJ30-7-_yQ5J5S2Pv98G/s3072/New%20Doc%202019-02-08%2011.04.25_2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="3072" data-original-width="2296" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaGeXJgk9p1T_B2CDwuWiNC4IE-Jyx2bTnfq4dN3tiFfswslv434yg4T5cFYYQUK6Iy0X08IuFaYp_3wQmbMHc_O4PArg3tYxu2Pk-s2p8WY6c3fRQV3tcUtAR8SCn7KEzPWdHNMu0ZnTcH4hExGfnegJgGF8ZPRlmAj80nh-pJJ30-7-_yQ5J5S2Pv98G/w478-h640/New%20Doc%202019-02-08%2011.04.25_2.jpg" width="478" /></a></div><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;"> <b style="font-size: 18pt; text-align: center; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-size: 22pt; line-height: 115%;">ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के
शहंशाह</span></b></div><p></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">“गुरु जी! यह ऊँट मनाली नहीं जा
सकता है। वहाँ ठंडक हो, तो बनी रहे। इसे जो खाने को चाहिए, वह तो मनाली में मिलेगा
नहीं... यहाँ की जैसी ठंडक भी नहीं......। चार-पाँच साल पहले कुछ लोगों ने इस ऊँट
की नस्ल को मनाली तक पहुँचाने की कोशिश की थी। इसके लिए वे ऊँटों के जोड़े लेकर
गए, लेकिन मनाली पहुँचते ही ऊँट जिंदा नहीं रह पाए।”</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">इतना सुनने के बाद मेरे मन में
एक प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था, कि आखिर वे लोग इस ऊँट को मनाली क्यों ले जाना
चाहते थे? मैं भी इस प्रश्न को उसी तरह अपने अंदर रोक नहीं सका, जिस तरह आप नहीं
रोक पा रहे थे, अभी एक क्षण पहले...। मैंने तुरंत ही अपना सवाल उनके सामने रख
दिया।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">वे बोले- “टूरिजम, टूरिज्म़ के
‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में इन ऊँटों का बड़ा ‘रोल’ है।” उनके इस उत्तर ने मेरे सामने चित्र
को बहुत-कुछ स्पष्ट कर दिया। पिछले दिन, जब हम दुनिया के सबसे ऊँचे रास्ते को
खरदुंग-ला में पार कर रहे थे, तब वहाँ तमाम पर्यटक फोटो खिंचाने में व्यस्त थे।
लेह से नुबरा घाटी की ओर जाने वाले रास्ते में खरदुंग-ला पड़ता है, जिसकी ऊँचाई
समुद्रतल से लगभग 18,380 फीट है। लदाख आने वाले पर्यटकों के लिए यह विशेष आकर्षण
का केंद्र होता है। खरदुंग-ला की ‘कॉफ़ी शॉप’ से लगाकर शिव मंदिर तक तमाम पर्यटकों
की चहल-पहल थी। कुछ खरदुंग की ऊँची चोटी पर चढ़कर फोटो खिंचा रहे थे, और कुछ
चुपचाप बैठे प्रकृति के इस सौंदर्य का रसपान कर रहे थे। बातचीत से लग रहा था, कि
उन पर्यटकों में बड़ी संख्या महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्से
के लोगों की है। जिज्ञासावश किनारे बैठे एक मराठी पर्यटक से मैंने पूछा, कि- आपको
यहाँ के पर्यटन में क्या देखना सबसे ज्यादा रोमांचित करता है। उसका जवाब था, कि
पहले तो बर्फ और फिर दो कूबड़ वाले ऊँट की सवारी का रोमांच ही उसे यहाँ तक ले आया
है। उस मराठी पर्यटक के उत्तर और आज की बातचीत के तालमेल को बिठाते हुए मेरे सामने
स्पष्ट हो गया, कि मनाली में पर्यटकों को लदाख की ‘फीलिंग’ देते हुए कमाई करने के
उद्देश्य से यारकंदी ऊँटों को यहाँ से ले जाने की कोशिशें की गई होंगी। इन्हीं का
जिक्र नोरबू साहब मुझसे कर रहे थे।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">सन् 2017 के अगस्त महीने में दूसरी बार मेरा
नुबरा घाटी में जाना हुआ था। इससे पहले शायद 2011 में नुबरा जाना हुआ था। उस समय
दो कूबड़ वाले ऊँटों के बारे में केवल सुना था, देखने का मौका नहीं मिल पाया था।
इस बार पूरी तरह से तय कर लिया था, कि दो कूबड़ वाले ऊँटों के दर्शन जरूर करने
हैं। खास तौर से इस कारण भी, कि देश और दुनिया के कोने-कोने से लोग तमाम जहमत
उठाकर नुबरा घाटी आते हैं और हम लदाख में रहते हुए भी अगर लदाख की इस प्रसिद्धि से
साक्षात्कार नहीं कर पाए, तो शायद समय भी हमें माफ नहीं कर पाएगा। यही जोश और
जज्बा था, कि जिसके बूते हम यारकंदी ऊँटों के सामने खड़े थे। इनके बारे में
बहुत-कुछ पढ़ा भी था, मगर यहाँ नोरबू साहब से जो जानकारी मिल रही थी, वह शायद अब
तक किताबों या ‘विकीपीडिया’ जैसी ‘अंतर्जालिक’ तकनीकों में उपलब्ध नहीं हो पाई थी।
मेरे विस्मित हो जाने का बड़ा कारण भी यही था। दरअसल नोरबू साहब के पास बीस
यारकंदी उँट थे, जिनमें पर्यटकों को सैर कराने का व्यवसाय वे करते थे।मेरे एक शिष्य
के पिता होने के नाते नोरबू साहब ने बड़ी आत्मीयता के साथ मुझसे मुलाकात की थी।
मैं वहाँ पहुँचने वाला हूँ, यह सूचना मेरे शिष्य ने उन्हें दे रखी थी।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGTApA3s8mbK_Vj0U-DVZtkH-Ht00nrK0RNdELqxlJRsK-UWmtGnTiShcMUHdxbSu54Vv_f6jlHJotFpt7GAGWcZICUc7yQiRqSZLtB19gBzObDTG-gYI3aRsl21KOczSwRn42XqXOFS-V3bWM7ZPVOLkg10Cwql8ds3sTubFrC0k9kyTwVRxtmMlULyTQ/s2904/New%20Doc%202019-02-08%2011.04.25_1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="2904" data-original-width="2368" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGTApA3s8mbK_Vj0U-DVZtkH-Ht00nrK0RNdELqxlJRsK-UWmtGnTiShcMUHdxbSu54Vv_f6jlHJotFpt7GAGWcZICUc7yQiRqSZLtB19gBzObDTG-gYI3aRsl21KOczSwRn42XqXOFS-V3bWM7ZPVOLkg10Cwql8ds3sTubFrC0k9kyTwVRxtmMlULyTQ/w326-h400/New%20Doc%202019-02-08%2011.04.25_1.jpg" width="326" /></a><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">जब नोरबू साहब ने मुझे यारकंदी
ऊँटों के बारे में बताना शुरू किया, तब अतीत की बातें परत-दर-परत ऐसी खुलती चली
गईं, जिन्होंने विचारों को पंख दे दिए। नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खान-पान की
आदतों से लगाकर उनके रहने के तौर-तरीकों तक के बारे में विस्तार से बताया। नोरबू
साहब ने रेशम मार्ग, यानि ‘सिल्क रूट’ में यारकंदी ऊँटों के योगदान को भी इतने
विस्तार से बताया, कि कालिदास और विद्योत्तमा के जीवन में ऊँट का योगदान भी बरबस
ही मेरे विचारों में कौंध पड़ा। विद्वान आचार्यों ने विदुषी विद्योत्तमा को मजा
चखाने के लिए बुद्धिहीन कालिदास के साथ धोखे से विवाह करा दिया। भला हो, ऊँटों का.....,
जो वे एक दिन विद्योत्तमा की हवेली के बाहर से गुजर पड़े और मूढ़ कालिदास उन्हें
उट्र-उट्र कहकर चिल्लाने लगे। तब कहीं जाकर विद्योत्तमा को पता लगा, कि मेरे
पतिदेव तो निहायत मूढ़-मगज हैं। तब क्या था, उपचार शुरू हो गया और इस तरह ‘उपमा
कालिदासस्य’, अर्थात् अपनी विलक्षण-अद्बुत उपमाओं के लिए संस्कृत साहित्य के
उज्ज्वल नक्षत्र के समान कालिदास का प्राकट्य हुआ।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">विद्योत्तमा और कालिदास के जीवन
को बदलने वाले ऊँट बेशक यारकंद वाले नहीं थे, मगर ऊँट किस तरह जीवन बदल देते हैं,
अपनी करवट से ऊँट कैसे हालात बदल देते हैं, यह जरूर स्पष्ट था। यारकंदी ऊँटों ने
भी अनेक लोगों के जीवन को बदला है। प्राचीनकाल ही नहीं मध्यकाल में, और फिर रेशम
मार्ग से यातायात के बंद हो जाने के बाद आज के समय में ‘डेजर्ट सफ़ारी’ के रूप में
यारकंदी ऊँटों के योगदान को देखा जा सकता है। चीन के रेशम से अपना नाम पाने वाला पूरा
रेशम मार्ग लगभग दस हजार किलोमीटर का होगा, मगर आज रेशम मार्ग के उत्तरी छोर को ही
प्रमुख रूप से जाना जाता है। उत्तरी रेशम मार्ग या ‘सिल्क रूट’ लगभग 6500 किलोमीटर
लंबा था। इसका संबंध मुख्य रूप से हिमालय की कराकोरम श्रेणी से रहा है। यह चीन की
प्राचीन राजधानी शिआन से पश्चिम की ओर चलते हुए टकलामकान रेगिस्तान से निकलकर मध्य
एशिया के बैक्ट्रिया और पर्शिया राज्यों तक जाता था। इसके आगे का रास्ता बढ़कर
ईरान और रोम तक पहुँचता था। टकलामकान, जैसा कि अपने नाम से ही स्पष्ट कर देता है,
कि मध्य एशिया का ऐसा रेगिस्तान था, जो एकदम उजाड़ और डरावना था। पुराने जमाने में
ऐसा माना जाता था, कि जो टकलामकान रेगिस्तान में घुस जाता है, वह बाहर नहीं आ पाता
है। इसी डर के कारण रेशम मार्ग के व्यापारी इस रेगिस्तान को उत्तर या दक्षिण दिशा
से पार किया करते थे। दोनों दिशाओं से आने वाले रास्ते काश्गर के नख़लिस्तान में मिलते
थे, और फिर आगे कराकोरम श्रेणी की तरफ चल पड़ते थे। शायद इसी के कारण किसी गंजे
व्यक्ति को टकला कहा जाना और किसी उजाड़-वीरान जगह पर अचानक रौनक बिखर जाने पर उसे
नख़लिस्तान कहा जाना प्रचलन में आया होगा। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता
नहीं था; वरन् इसमें अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति, वैचारिकता भी अपनी यात्राएँ
करती थीं। जिस तरह रेशम मार्ग के व्यापारी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अपने सामानों की
अदला-बदली करके व्यापार को चलाते थे, उसी तरह सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी
आदान-प्रदान के माध्यम से चलती रहती थीं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">टकलामकान के बर्फीले रेगिस्तान
से लगाकर उसके आगे मध्य एशिया के सर्द-बर्फीले इलाकों के लिए यारकंदी ऊँटों से
बेहतर सवारी कोई नहीं हो सकती थी। इसी कारण 6500 किलोमीटर के इस लंबे रास्ते के
अतीत की चर्चा भी यारकंदी ऊँटों के बिना पूरी नहीं हो सकती है। यारकंद या बैक्ट्रिया
में पाए जाने वाले दो कूबड़ वाले ऊँटों को क्षेत्र के हिसाब से यारकंदी या
बैक्ट्रियन ऊँट कहा जाता है। ये थार के रेगिस्तान में मिलने वाले ऊँटों से कम लंबे
होते हैं और इनके दो कूबड़ होते हैं। इस कारण इन्हें सामान्य रूप से दो कूबड़ वाले
ऊँट के तौर पर जाना जाता है। इनके शरीर में बाल भी बहुत होते हैं, जो इन्हें भीषण
सर्दी और बर्फीली हवाओं से बचाते हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">मेरे मन में तमाम विचार एकसाथ
चल रहे थे। बर्फीले रेगिस्तान को अपनी पदचापों से जीतने के लिए मनुष्य ने कैसे इन
यारकंदी ऊँटों को अपना हमसफ़र बना लिया, और इनकी पीठ पर लदकर वस्तुओं के साथ ही
संस्कृति-विचार व जीवन के रंग-ढंग भी भूगोल की सीमाओं को कैसे तोड़ देते हैं, यह सोचना
ही अपने आप में बहुत रोमांचकारी है। लदाख अंचल में नानवाई की दुकानें चलाने वाले
यारकंदी व्यवसायियों के वंशजों को अपने पूर्वजों का वह सफ़र आज शायद ही याद होगा,
जो कभी इन यारकंदी ऊँटों की पीठ पर बैठकर तय किया गया होगा। समोसा खाते समय शायद
ही हमें याद आता होगा, कि आज भारत के सर्वाधिक प्रिय और देशव्यापी समोसा ने इन्हीं
यारकंदी ऊँटों में बैठकर भारतवर्ष तक का सफ़र किया होगा। समोसे की दुकानें तो
देश-भर में मिल जाएँगी, मगर नानवाई की दुकानें लदाख की अपनी निजी पहचान हैं।
नानवाई तंदूर में रोटियाँ बनाते हैं, जिन्हें लदाखी में ‘तागी’ कहा जाता है।
तंदूरी रोटी के रूप में होशियारपुर के व्यापारियों के साथ पंजाब, और फिर देश के
दूसरे हिस्सों में पहुँचने वाली लदाखी ‘तागी’ भी यारकंद की सौगात है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">मेरे विचारों की कड़ियों में
दखल देते हुए जब नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खानपान की आदतों के बारे में
बताया, तो एकबारगी यह भी महसूस हुआ, कि यारकंदी ऊँटों से ज्यादा धैर्यवान और
सहनशील जीव धरती पर खोजना बहुत कठिन है। जरा-से पानी या थोड़ी-सी बर्फ से अपने
शरीर में जल का स्तर बनाए रखकर और कँटीली झाड़ियों को खाकर अपना पेट भर लेने वाले
ऊँट मानव के लिए आत्मबलिदान ही तो करते रहे हैं.......शायद। उनकी पीठ पर चमड़े के
बड़े-बड़े थैलों में भरा पानी, तंदूर में बनी नानवाई की रोटियों से भरे बंडल और
रेगिस्तान के सफ़र में चटखारेदार भोजन की कमी को पूरा करने वाले समोसेनुमा व्यंजन
से भरे पात्रों को लादकर रेशम मार्ग में चलने वाले ऊँटों के हिस्से में लेह बेरी
जैसी कँटीली झाड़ियाँ ही आती रही होंगी।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">यारकंदी ऊँट छः मन, यानि लगभग
ढाई क्विंटल तक भार उठा सकते हैं। इनके लिए समतल रेगिस्तान में चलना तो आसान होता
है, मगर घाटियों की चढ़ाई-उतराई और बर्फीली चट्टानों पर चलना कठिन होता है। नोरबू
साहब के द्वारा दी गई इस जानकारी के बाद महसूस हुआ, कि रेशम मार्ग में पड़ने वाले
लदाख के पनामिग गाँव से आगे तुरतुग-बोगदंग आदि बल्तिस्तानी गाँवों की तरफ चलने पर शयोग
नदी के एक ओर कराकोरम और दूसरी ओर लदाख रेंज के पहाड़ों की दुर्गम ऊँचाइयों पर
सिल्क रूट के ध्वंसावशेष पतली-सी लकीरों की तरह दिखाई पड़ते हैं। इनमें यातायात के
अनुशासन को देखते हुए आने, और जाने के रास्ते भी बाकायदा अलग-अलग समझ में आते हैं।
नोरबू साहब से ही पता लगा, कि याक, घोड़े और टट्टू ‘शटल’ सेवा की तरह सिल्क रूट
में प्रयुक्त होते थे। हिमनदों और विकराल दर्रों को पार कराने में जहाँ याक
विश्वसनीय होते थे, वहीं ऊँचाई पर चढ़ने और तेजी के साथ सामान की ढुलाई करने में
घोड़ों और टट्टुओं का उपयोग किया जाता था। इस तरह अलग-अलग स्थानों पर किराए से इन
भारवाहकों को उपलब्ध कराने वाले किरायाकशों की बस्तियाँ भी होती थीं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">नोरबू साहब ने बड़े गर्व के साथ
बताया, कि सिल्क रूट में चलने वाले कारवाँ के कारण नुबरा घाटी गुलजार रहती थी। उन
दिनों नुबरा घाटी लेह के आसपास के इलाकों से कहीं ज्यादा संपन्न थी। हमारे पुरखों
के लिए समरकंद, बुखारा दुर्गम नहीं थे। पनामिग गाँव में उस समय मध्य एशियाई
व्यापारियों के लिए बेहतर शरणगाह होती थी। यह एक तिराहा जैसा भी था, जहाँ से लेह
के लिए संपर्क मार्ग बना हुआ था। हुंदर का राजमहल रेशम मार्ग के यातायात में नजर
रखने के लिए बनवाया गया था। इसके भौगौलिक और सामरिक महत्त्व को देखते हुए कई
आक्रमणकारियों ने इसे जीतने की कोशिश भी की। वे बताते हैं, कि नुबरा, यानि फूलों
की घाटी सिल्क रूट में किसी नख़लिस्तान से कम नहीं थी। सिल्क रूट में व्यापार बंद
हो जाने के बाद लंबे समय तक नुबरा घाटी उपेक्षित रही है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">वैसे उपेक्षा तो यारकंदी ऊँटों
की भी हुई है। उनका स्वर्णिम अतीत, जो उन्हें सिल्क रूट के शहंशाह का खिताब दिलाता
था, आज केवल किताबों में सिमट गया है। सन् 1870 में कुछ यारकंदी ऊँटों को लदाख के
मुख्यालय लेह में पहुँचाया गया। पुराने समय में इनका उपयोग माल ढोने के लिए
स्थानीय स्तर पर होता रहा, किंतु सड़कों के बन जाने और यातायात के साधनों के सुलभ
हो जाने के बाद इनकी उपयोगिता नहीं रही। लेह से लगभग दस किलोमीटर दूर छुशोद नामक
गाँव में एक ठिकाना यारकंदी ऊँटों के लिए बनवाया गया है। इस गाँव में अरगोन समूह
के लोग भी रहते हैं, जिनका अपना अतीत सिल्क रूट व्यापार से जुड़ा रहा है। किराए पर
भारवाहक पशुओं को उपलब्ध कराने और व्यापारियों को रास्ता दिखाने के अलावा ये
व्यापार में भी थोड़ा-बहुत हाथ आजमा लेते थे। सिल्क रूट का व्यापार बंद हो जाने के
बाद अरगोन और यारकंदी ऊँट, दोनों का जीवन बदल गया।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">अपनी दो कूबड़ वाली पीठ पर मानव
के जीवन को सैकड़ों वर्षों तक ढोने वाले यारकंदी ऊँटों के लिए अब शिआन से
बैक्ट्रिया या वाह्लीक प्रांत का विशाल भूभाग, पामीर से हिंदुकुश या पारियात्र
पर्वतश्रेणी तक की महान-पवित्र धरती अलग-अलग हिस्सों में बँट गई है। यहाँ के
रहवासी अब यह भूल चुके हैं, कि वे कभी एक सूत्र से जुड़े हुए थे। रेशम मार्ग अब
अतीत की रोचक पहेली की तरह आने वाली संततियों को शायद यह बता सकेगा, कि हिमालय में
ऐसे कारवाँ भी कभी चलते रहे हैं, जिन्होंने आज के दर्जनों देशों तक व्यापारिक
वस्तुएँ ही नहीं पहुँचाई हैं; वरन् संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन और वैचारिकता के ऐसे
आदान-प्रदान भी किए हैं, जिनके कारण ‘वसुधैव-कुटुंबकम्’ के भाव सही अर्थों में
स्थापित हुए। इन सबके पीछे केवल मानव रहा, यह कहना नितांत अतार्किक होगा। इसके लिए
यारकंदी ऊँटों के प्रति कृतज्ञता का भाव उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है, जिस
प्रकार चेतक और बेंदुला के लिए होता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">नोरबू साहब अब भी यारकंदी ऊँटों
की ढेरों बातें बताते जा रहे थे। घड़ी की सुई दोपहर का एक बज गया है, ऐसा बता रही
थी। नोरबू साहब के कथनानुसार अब ऊँटों के लंच का समय हो गया था। सामान्य-से
कर्मचारियों की तरह ऊँटों को भी दो घंटे की छुट्टी मिली थी, पर्यटकों को मौज-मस्ती
कराने के काम से। उनकी पीठ पर पड़ी झूलों को उतारा जा रहा था। उनकी नकेल को आजाद
किया जा रहा था। अभ्यस्त दिनचर्या के अनुरूप सभी चल रहे थे। मेरे सामने यारकंदी
ऊँटों की तीन पीढ़ियाँ थीं। इनमें बुजुर्गों से लगाकर युवाओं तक, और बच्चों की तरह
उछल-कूद करते, अपनी ‘ड्यूटी’ से अनजान उष्ट्र शावकों में से किसी को भी यह अहसास
नहीं होगा, कि एक जमाने में यहाँ उनके पुरखों की तूती बोलती थी। एक जमाने में वे
सिल्क रूट के शहंशाह हुआ करते थे। यह अहसास तो उन पर्यटकों को भी नहीं होगा, जो दो
कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी करने की उत्कट अभिलाषा लिए वहाँ पर मौजूद थे, और
‘शहंशाहों’ के अपनी नौकरी पर वापस लौटने का इंतजार कर रहे थे।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 36pt;"><span face="Nirmala UI, sans-serif"><span style="font-size: 24px;">-राहुल मिश्र</span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 36pt;"><span face="Nirmala UI, sans-serif"><span style="font-size: 24px;"><br /></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="color: black; font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;"></span></p><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: center; text-indent: 36pt;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;"><i>(साहित्य संस्कार, त्रैमासिकी, जबलपुर के
प्रवेशांक, जनवरी, 2019 में प्रकाशित)</i><o:p></o:p></span></p><br /><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-54464788318292677882023-08-03T17:42:00.001+05:302023-08-03T17:42:25.662+05:30सीमांत पर्यटन : देश से जुड़ती सीमाएँ<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjD_qUazdj01ZugYIC7l3L5yR4vuWhN8kpha6JwpGIjzaWyYd1sZ1GE77df5wZW2euobSWaQiBmTjp8e67cr0aRoQF--k4FoxXJzenyhprlqN9p1XWasHICdeCBMLWGudp8xJA2hqVXlvItOuBiDM2_Gnc3HgH64s-k3LiYV5LKfJ3jwGC3LqKCi71BTmMb/s2189/%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A5%8B%E0%A4%B7%20%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%88%202023%20%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%20%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%9F%E0%A4%A8%20%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%20%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81_Page_14.jpg" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 24px; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-indent: 37.7953px;"><img border="0" data-original-height="2189" data-original-width="1592" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjD_qUazdj01ZugYIC7l3L5yR4vuWhN8kpha6JwpGIjzaWyYd1sZ1GE77df5wZW2euobSWaQiBmTjp8e67cr0aRoQF--k4FoxXJzenyhprlqN9p1XWasHICdeCBMLWGudp8xJA2hqVXlvItOuBiDM2_Gnc3HgH64s-k3LiYV5LKfJ3jwGC3LqKCi71BTmMb/w466-h640/%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A5%8B%E0%A4%B7%20%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%88%202023%20%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%20%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%9F%E0%A4%A8%20%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%20%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81_Page_14.jpg" width="466" /></a></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"><b><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="color: black; font-size: 24pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 26.0pt; mso-ansi-language: EN-US;"><br /></span></b></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"><b><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="color: ; font-size: 24pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 26.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">सीमांत
पर्यटन : देश से जुड़ती सीमाएँ</span></b><b><span color=": "Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 26pt; line-height: 107%; mso-bidi-font-size: 24.0pt;"><o:p></o:p></span></b></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">हाल ही में जम्मू-काश्मीर
राज्य प्रशासन द्वारा समृद्ध सीमा योजना के अंतर्गत सीमांत पर्यटन के लिए बजट के
प्राविधान के साथ ही विगत वर्ष से चल रही सीमांत पर्यटन योजना के विस्तार को नया
आयाम दिया गया है। यह जानना आवश्यक होगा, कि जम्मू-काश्मीर राज्य भारतदेश का ऐसा
सीमावर्ती प्रदेश है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय सीमाएँ सबसे अधिक चर्चा में रहती हैं।
भारतदेश की सीमाएँ बहुत विस्तृत हैं, और साथ ही अनेक विविधताएँ भारत के सीमावर्ती
क्षेत्रों में देखी जा सकती हैं। ये विविधताएँ संस्कृति से लगाकर भौगौलिक, सामाजिक
और भू-राजनीतिक हैं। इन सभी विविधताओं की बानगी जम्मू-काश्मीर राज्य में देखी जा
सकती है। इन विविधताओं के साथ ही जम्मू-काश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में वर्ष भर
अराजकता और आतंक का साया मँडराता रहता है। आए दिन के समाचार एक ऐसी धारणा आमजन के
मन में बना देते हैं, कि उसमें भय के अतिरिक्त कुछ भी सोचने और जानने के लिए शेष नहीं
रह जाता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">वर्ष 2019 में
जम्मू-काश्मीर के केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद स्थितियाँ बदली हैं। लद्दाख
केंद्रशासित प्रदेश के रूप में अलग से अस्तित्व में आया है। इन बदली हुई स्थितियों
का एक बड़ा, प्रभावी और सशक्त पक्ष सीमांत पर्यटन योजना के रूप में देखा जा सकता
है। यद्यपि ‘बार्डर टूरिज्म योजना’ केवल जम्मू-काश्मीर के लिए ही नहीं है। यह
योजना लद्दाख में भी है, उत्तराखंड और देश के अन्य सीमावर्ती राज्यों के सीमांत
क्षेत्रों के लिए भी है। लेकिन इस योजना के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावी पक्ष को,
इसके सर्वाधिक सकारात्मक प्रभाव को जम्मू-काश्मीर राज्य में विशेष रूप से देखा जा
सकता है, इस कारण जम्मू-काश्मीर के सीमांत पर्यटन से बात को प्रारंभ करना प्रासंगिक
और समीचीन लगता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">देश के अन्य भागों में
रहने वाले नागरिकों के लिए सीमांतक्षेत्र का जीवन एक रहस्यमयी दुनिया जैसा ही है।
वे अपने देश की सीमाओं को भले ही मानचित्र में पहचान लें, लेकिन उनके लिए सीमांतक्षेत्र
के लोगों के जीवन, वहाँ की संस्कृति, सामाजिक संरचना और भौतिक स्थिति के साथ ही
प्राकृतिक विशिष्टता को जानना-समझना सरल नहीं। लंबे समय तक सुरक्षा कारणों से,
राजनीतिक कारणों से, साथ ही अंतरराष्ट्रीय नीतियों, पड़ोसियों के साथ संबंधों आदि
के कारण ये सीमांतक्षेत्र मुख्यधारा के अंग नहीं बन सके। जैसा कि कहा जाता है, कि
परिधि सदैव केंद्र से दूर रहती है, वैसे ही हमारे देश की सीमाओं में बसने वाले लोग
केंद्र से दूर रहे। यह सुखद है, यह अभूतपूर्व भी है, कि गणितीय विधान को भारतीयता
और राष्ट्रीयता के उदात्त भावों की भूमि पर सरल किया गया है। आज केंद्र परिधि के
निकट है। आज दिल्ली अपने आसपास का ही नहीं सोच रही, वरन् परिधि तक जा रही है। देश
अपनी सीमाओं को जान रहा है, अपने सीमांत क्षेत्र के भारतीयों को, नागरिकों को जान
रहा है, उनके साथ खड़ा है। इसी ध्येय को लेकर विगत वर्ष केंद्र सरकार की ‘बार्डर
टूरिज्म योजना’ अस्तित्व में आई थी, और बहुत कम अंतराल में ही इस योजना के
सकारात्मक पक्ष न केवल सामने हैं, वरन् राष्ट्र के गौरव की श्रीवृद्धि भी कर रहे
हैं, भारतीयता की अलख भी जगा रहे हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">इस वर्ष बदरीनाथ-केदारनाथजी
की यात्रा के साथ एक स्थान की यात्रा भी बहुत चर्चित रही। कह सकते हैं, कि जितने
यात्री केदारनाथ धाम की यात्रा पर गए, लगभग सभी तीर्थयात्री भारत के सीमावर्ती
अंतिम गाँव माणा तक भी गए। पहले यहाँ एक ‘साइन बोर्ड’ लगा होता था- भारत का आखिरी
गाँव... माणा।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"> </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">इसी वर्ष मई माह
में बड़ी अनूठी पहल करते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वह ‘साइन
बोर्ड’ बदलवा दिया। अब उस ‘साइन बोर्ड’ में ‘भारत का आखिरी गाँव- माणा’ के स्थान
पर ‘भारत का पहला गाँव- माणा’ लिखा है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की यह पहल, उनका
यह कार्य है तो बहुत सामान्य-सा, लेकिन इसके निहितार्थ को समझकर देखिए....। इस
बदलाव को माणा गाँव के रहवासियों की दृष्टि से जानकर तो देखिए....। आपको बहुत
अच्छा लगेगा, गर्व की अनुभूति होगी। जो लोग अपने को आखिरी पायदान पर मानकर हीनबोध
से ग्रस्त हो जाते रहे होंगे, उन्हें एक छोटे-से बदलाव ने पहली पंक्ति पर ला दिया,
अग्रिम स्थान दे दिया। यह सच भी है, कि सीमा पर माणा गाँव है, तो वह स्वाभाविक रूप
से पहला ही होगा..., लेकिन अंतर केवल सोच में था, जिसे बदला गया है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">देवभूमि
उत्तराखंड में भारत का पहला गाँव- माणा अब तीर्थयात्रियों की पहली पसंद भी है। बदरीनाथ
धाम से मात्र 3 किमी की दूरी पर माणा गाँव के किसी छोर में एक चाय की छोटी-सी
दुकान भी है। उस दुकान में एक कप चाय पीना और फोटो खींचकर या सेल्फी लेकर उसे बड़े
गर्व के साथ सोशल नेटवर्किंग के पटल पर, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि पर डाल देना किसी
‘पैशन’ से कम नहीं... किसी जोश से कम नहीं। इस वर्ष ये चित्र खूब देखे गए। लोगों
के लिए बदरी-केदार की तीर्थयात्रा इस दृष्टि से देशाटन से कम नहीं ठहरती, भगवद्भक्ति
के साथ देशभक्ति, देशानुराग का यह दुर्लभ संयोग देवभूमि में साकार हुआ है। माणा
गाँव आज किसी तीर्थ से कम नहीं कहा जा सकता। निश्चित रूप से माणा होकर आने वाले
तीर्थयात्रियों के मन में जिस उत्साह को, देश के प्रति गौरव के भाव को देखा है, वह
सीमांत पर्यटन योजना की सफलता के शताधिक प्रतिमानों को उच्चतम स्तर पर छूता है।
भारतदेश को देखने का यह अनूठा कार्य सिद्ध होता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">इसी
वर्ष लगभग तीन माह पहले उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के हरसिल गाँव के निकट जादुंग
गाँव को नया पर्यटन स्थल बनाया गया है। भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित जादुंग गाँव को
माणा की तरह भारत का पहला गाँव कहा जाता है। कुछ समय पहले तक हरसिल पर्यटन केंद्र
के रूप में पर्यटकों की पसंद होता था। इससे आगे सीमा सुरक्षा के कारण जाने की
अनुमति नहीं होती थी। अब पर्यटकों के लिए यह गाँव सुलभ हो गया है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">चाहे
माणा गाँव हो, या जादुंग गाँव हो...। सीमावर्ती इन गाँवों में जुट जाने वाले सारे
देश को, देश के हर भाग से..., उत्तर से लगाकर दक्षिण और पूरब से लगाकर पश्चिम तक देश
के हर कोने से जब माणा और जादुंग आदि गाँवों में लोग पहुँचते होंगे, तो गाँव के
लोगों की प्रसन्नता की क्या सीमा होती होगी, हमारे लिए केवल कल्पना का ही विषय हो
सकता है। इतना अवश्य है, कि पिछले कई वर्षों में पृथक और एकाकी जैसा जीवन बिताने
को विवश इन सीमावर्ती गाँवों के लोग कभी तो यह सोचते ही होंगे, कि आखिर हमारा देश
कैसा है, कौन-सा है, जो हमारी सुधि ही नहीं लेता, कभी...। उनकी यह व्यथा, उनके मन
का यह भाव टीस की तरह उभरता तो अवश्य ही होगा। सीमांत पर्यटन योजना ने इस दर्द को
समेटा है। चाहे उत्तराखंड की सरकार हो, या केंद्र की मोदी सरकार हो, इस दर्द को अनुभूत
किया है, देश के छोर पर बैठे आमजन की व्यथा को समझा है। इस दृष्टि से भी सीमांत
पर्यटन योजना अपना विशेष महत्त्व रखती है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">कल्पना
करें, जम्मू व काश्मीर के उन सीमावर्ती क्षेत्रों की...., जहाँ यह पता नहीं होता,
कि कब गोले बरसने लगेंगे और कब ताबड़तोड़ गोलीबारी होने लगेगी। हम अपनी सीमाओं में
शांति के पक्षधर हैं, लेकिन अशांति ही जिनको रास आती है, वे कहाँ चुप रहने वाले
हैं। ऐसी दशा में रहने-जीने वाले सीमावर्ती गाँवों के रहवासियों के जटिल जीवन की
कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देती है। अनेक संकट और बाधाएँ सहकर भी वे अपनी
धरती नहीं छोड़ते। देश के प्रति उनका लगाव कम नहीं होता। वे सेना और सैनिकों की
सहायता को अपना धर्म समझते हैं। इसके बदले वे कोई अपेक्षा नहीं रखते, कोई लाभ नहीं
माँगते। इन सीमावर्ती गाँवों के लोग किसी सैनिक से कम नहीं, इनकी देशभक्ति, इनका जज्बा
किसी से कम नहीं। ऐसी पुण्यश्लोका धरा, जिसने ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया है; ऐसी
गौरवशाली धरती, जो इन कर्मठ भारतीयजनों को पालती-पोसती है, उसके दर्शन के लिए हर
भारतीय को जाना चाहिए, जाना ही चाहिए। प्रायः यह भाव और विचार जम्मू-काश्मीर की
समृद्ध सीमा योजना और सीमांत पर्यटन योजना में परिलक्षित होता है, दिखता है।</span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;"><span style="mso-spacerun: yes;"></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmCVDn8VO13fnrWJigGtCu0ABc9MkK5oIEc0g3bumTdwUt8TzmcSFrHd9FgNmUoCr5BfElnl0HEAGlVoy3iuzXcStuh-S-u0OH-jsCJglx_s5C30txkh5gswSkD67GBR_FGwJPi5L2eiKv2-k9NsgAV86rxVnSijMWAoETgC_NvzqsQ2Ke_YjtwX7UEESs/s2200/%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A5%8B%E0%A4%B7%20%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%88%202023%20%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%20%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%9F%E0%A4%A8%20%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%20%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81_Page_01.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2200" data-original-width="1600" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmCVDn8VO13fnrWJigGtCu0ABc9MkK5oIEc0g3bumTdwUt8TzmcSFrHd9FgNmUoCr5BfElnl0HEAGlVoy3iuzXcStuh-S-u0OH-jsCJglx_s5C30txkh5gswSkD67GBR_FGwJPi5L2eiKv2-k9NsgAV86rxVnSijMWAoETgC_NvzqsQ2Ke_YjtwX7UEESs/w291-h400/%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98%E0%A5%8B%E0%A4%B7%20%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%88%202023%20%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%20%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%9F%E0%A4%A8%20%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%20%E0%A4%B8%E0%A5%87%20%E0%A4%9C%E0%A5%81%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A5%80%20%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81_Page_01.jpg" width="291" /></a></div><br /><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">जम्मू-काश्मीर में सीमांत पर्यटन योजना को तेजी के साथ
धरातल पर उतारा जा रहा है। अनेक ऐसे गाँवों में संसाधनों का विकास किया जा रहा है।
सड़कों से लगाकर बिजली और पानी के साथ ही इंटरनेट की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रहीं
हैं। लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, कि वे पर्यटन को अपने रोजगार का माध्यम
बनाएँ। यद्यपि पूरे प्रदेश की आय का बड़ा भाग पर्यटन से संबंधित है, तथापि सीमांत
पर्यटन ने लोगों के लिए नए आयाम सृजित किए हैं, नई दिशाएँ दी हैं। इसके सकारात्मक
प्रभाव सामने आने लगे हैं। जम्मू-काश्मीर से अलग होकर अस्तित्व में आए लद्दाख
केंद्रशासित प्रदेश में भी सीमांत पर्यटन की असीमित संभावनाएँ हैं। सियाचिन हिमानी,
चंगथंग का मैदान, तुरतुक और बोगदंग आदि गाँव नए पर्यटन-केंद्र के रूप में उभरे
हैं। तुरतुक, त्याक्शी, चालुंका, बोगदंग और थांग गाँव लद्दाख की उत्तर-पश्चिमी
सीमा में हैं। हमारी सेना के शौर्य और पराक्रम की गाथाएँ यहाँ के कण-कण में बसी
हैं। एकदम अलग संस्कृति, बल्टी तहजीब यहाँ देखने को मिलती है। सीमांत पर्यटन योजना
के अंतर्गत ये गाँव नए पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हुए हैं। यहाँ के लोगों की
आय के नए रास्ते खुले हैं। देश भर के अलग-अलग भागों से आने वाले पर्यटक इस भूमि का
दर्शन करके देशानुराग को अनुभूत करते हैं, गौरवान्वित होते हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span><p></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">सीमांत
पर्यटन योजना के अंतर्गत केवल हिमालयी परिक्षेत्र ही नहीं; कच्छ का रन, बंगाल की
खाड़ी, भारतमाता के पाँव पखारता सिंधुसागर भी सीमांत पर्यटन योजना से जुड़ता है।
अनेक विविधताओं को, संस्कृतियों के अलग-अलग रंगों को एक में समेटे, एकात्मता का
राग गाते भारतदेश की सीमाएँ ही यदि घूम ली जाएँ....., सीमांत क्षेत्रों का पर्यटन
ही कर लिया जाए, तो देश की तमाम सांस्कृतिक झाँकियों से साक्षात्कार हो जाता है। भारत
देश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर पर, वैविध्य में समाहित एकात्मता पर गर्व का भान
हो जाता है। भारतीयता का पाठ पढ़ने-पढ़ाने के लिए सीमांत दर्शन योजना, सीमांत
पर्यटन योजना अद्भुत है, अनुपम है, अतुल्य है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">-डॉ. राहुल मिश्र</span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><p></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;"><i>(सीमा
संघोष, नई दिल्ली के जुलाई, 2023 अंक में प्रकाशित)</i></span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;"><o:p></o:p></span></p><b><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="color: black; font-size: 24pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 26.0pt; mso-ansi-language: EN-US;"></span></b><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-40474569292587603312023-06-09T17:44:00.000+05:302023-06-09T17:44:49.414+05:30निर्मल मन जन सो मोहिं पावा<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgesfeHPeaQVvGiybu6J_iFUMCN18wuU5nRu1aMm31L6Pz-4iqhe0cDGmjWABIqy47klQskKeckEGJkHz5FeQWWlhlYd--u37mpjZiowMCHbkGlM0y2Nt1L2Zlhn19prKNpMBFgH5VhPKv-EmcwfwsyXUCQKdtdgTWbvOtxw1vdasCzbF_7c5DMn_-QMQ/s1618/46-49%20Nirmal%20Man%20Jan%20So.._Page_3.jpg" imageanchor="1" style="font-weight: 700; margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1618" data-original-width="1224" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgesfeHPeaQVvGiybu6J_iFUMCN18wuU5nRu1aMm31L6Pz-4iqhe0cDGmjWABIqy47klQskKeckEGJkHz5FeQWWlhlYd--u37mpjZiowMCHbkGlM0y2Nt1L2Zlhn19prKNpMBFgH5VhPKv-EmcwfwsyXUCQKdtdgTWbvOtxw1vdasCzbF_7c5DMn_-QMQ/w484-h640/46-49%20Nirmal%20Man%20Jan%20So.._Page_3.jpg" width="484" /></a></p><p align="center" class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><br /></span></b></p><p align="center" class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">निर्मल मन जन सो मोहिं पावा</span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></p><p align="center" class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">इदं <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>तु<span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>ते <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>गुह्यतमं <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">ज्ञानं विज्ञानसहितं
यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।1।।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">राजविद्या<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>राजगुह्यं<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पवित्रमिदमुत्तमम् ।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">प्रत्यक्षावगमं<span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>धर्म्यं<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>सुसुखं<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कर्तुमव्ययम् ।।2।।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">श्रीमद्भगवद्गीता के नवें अध्याय के प्रारंभ में श्रीकृष्ण और
अर्जुन के मध्य संवाद होता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- हे अर्जुन! तुम दोष-दृष्टि
से रहित मेरे परम भक्त हो, इसलिए इस परम गोपनीय ज्ञान को, जो विज्ञान से परिपूर्ण
है, तुमसे भली-भाँति कहूँगा। इस ज्ञान को जानकर तुम इस दुःखरूपी संसार से मुक्त हो
जाओगे। विज्ञान से परिपूर्ण यह ज्ञान सभी विद्याओं में श्रेष्ठ है, सभी रहस्यों का
रहस्य है, अत्यंत पवित्र और उत्तम है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष फल देने वाला और धर्म से
युक्त है। इस ज्ञान की साधना बहुत सरल है और इस ज्ञान का विनाश कभी नहीं होता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान, धर्म, भक्ति,
शरणागति और योग आदि को बताने से पहले इनकी गोपनीयता, रहस्यमयता और इनके गूढ़ होने की
ओर संकेत करते हैं। भक्ति, विज्ञान और नीति से जुड़े तत्त्वों का समग्र ज्ञान स्वयं
में रहस्य से पूर्ण होता है और भक्ति, ज्ञान, तर्क या फिर नीति में से किसी एक के
होने मात्र से ही इस रहस्य को नहीं जाना जा सकता। इसके लिए सर्वांगपूर्ण होना
आवश्यक है। इसी आधार पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस ज्ञान की प्राप्ति हेतु उपयुक्त
पात्र जानकर ही उसे इसका उपदेश दिया। वह भी तब, जब उसने इसे जानने की अपनी उत्कट
अभिलाषा प्रकट की।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">इस ज्ञान के अव्यय-भाव की ओर भी श्रीकृष्ण संदेश देते हैं-</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">इमं <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>विवस्वते <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>योगं <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>प्रोक्तवानहमव्ययम् ।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">विवस्वान्मन्वे प्राह
मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।1।।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">एवं<span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>परम्पराप्राप्तमिमं<span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>राजर्षयो<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>विदुः ।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">स<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कालेनेह<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>महता<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>योगो<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>नष्टः परंतप ।।2।।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">मैंने इस अविनाशी योग का वर्णन सूर्य से किया था। सूर्य ने
इसे अपने पुत्र वैवस्वत मनु से बताया और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को
बताया। हे परंतप अर्जुन! इस तरह परंपरा से प्राप्त इस अव्यय ज्ञान को राजर्षियों
ने जाना और उसके बाद यह ज्ञान धरती पर बहुत समय तक लुप्तप्राय ही रहा। अब तुमको यह
ज्ञान देकर सनातन परंपरा को पुनः स्थापित करूँगा।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">श्रवण के माध्यम से गूढ़ रहस्य-ज्ञान के संचरण की परंपरा
तुलसी के श्रीरामचरितमानस में भी है। राम-चरित के रचयिता भगवान शिव से भगवती
पार्वती, महर्षि लोमश, लोमश ऋषि से काकभुशुंडि, काकभुशुंडि से याज्ञवल्क्य और
याज्ञवल्क्य से महर्षि भरद्वाज ने रामकथा को सुना। यह रामकथा तुलसीदास ने सूकरखेत
में अपने गुरु से सुनी। इस रामकथा को बाबा तुलसी ने जनसामान्य की भाषा में सरल,
सहज, सुगम और सुबोध ढंग से लिखा, जो श्रीरामचरितमानस के रूप में पूर्ण हुई।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAAzL3d3AkroQtL0X72MRaz5lmO2p_PAfR5f_dm8WTBAUeryehj_b9SUQaEvNmUovivBbOTsfA1AyMzk9OxhlRSBJzenwU8l3MfPx1R8JP1FOp-6si4QKkA_WGPzuSi8Hgqi0z2Ez3FjhX_TBo9d1T2aFhzkah6xS4jCCgt5hI1B0Sq0An_JeimKAUHQ/s1452/46-49%20Nirmal%20Man%20Jan%20So.._Page_1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center; text-indent: 36pt;"><img border="0" data-original-height="1452" data-original-width="1122" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAAzL3d3AkroQtL0X72MRaz5lmO2p_PAfR5f_dm8WTBAUeryehj_b9SUQaEvNmUovivBbOTsfA1AyMzk9OxhlRSBJzenwU8l3MfPx1R8JP1FOp-6si4QKkA_WGPzuSi8Hgqi0z2Ez3FjhX_TBo9d1T2aFhzkah6xS4jCCgt5hI1B0Sq0An_JeimKAUHQ/w309-h400/46-49%20Nirmal%20Man%20Jan%20So.._Page_1.jpg" width="309" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">काल की गति को मापने वाली वृहदतम इकाइयों तक विस्तृत गूढ़,
गुह्य, रहस्यपूर्ण विपुल ज्ञानराशि के प्रतिनिधि- श्रीमद्भगवद्गीता और
श्रीरामचरितमानस इसी कारण सामान्य-से और साधारण-से धर्मग्रंथ-मात्र नहीं हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में आराधक और आराध्य के संवाद हैं, एक जिज्ञासु की जिज्ञासाएँ और
उनके समाधान हैं तथा विषय का सम्यक्, सर्वांग निरूपण है। इस कारण गीता के अनुशीलन
में विद्वानों को भटकना नहीं पड़ता है। इसके विपरीत श्रीरामचरितमानस में राम के
चरित्र के सहारे और रामकथा के अन्य पात्रों के माध्यम से बाबा तुलसी ज्ञान के गूढ़
रहस्य को स्थापित करते हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">मानस के प्रारंभ में ही बाबा तुलसी अपनी विनम्रता प्रकट
करने के साथ ही रामकथा के गूढ़ तत्त्व की विवेचना करते हैं-</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">श्रोता <span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बकता <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>ग्याननिधि<span style="mso-spacerun: yes;">
</span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कथा <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>राम <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कै
<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>गूढ़ ।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">किमि समुझौं मैं जीव जड़, कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ।।1/30
(ख)।।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">बाबा तुलसी की यह आत्मस्वीकार्यता रामचरित की गुह्यता और
उसकी रहस्यमयता को स्पष्ट करने में सक्षम है। अपने विवेक से, अपने आत्मबोध से और
अपनी सामर्थ्य से बाबा तुलसी रामकथा के गूढ़ तत्त्वों को जितना समझ पाए थे, वह भी
उन्हें पर्याप्त नहीं लगा था और भ्रम में पड़ जाने का संदेह भी उन्हें था; संभवतः
इसी कारण उन्होंने रामकथा को गूढ़ कहकर उसके स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया
होगा। दूसरी ओर, कलिकाल की मूढ़ता से ग्रस्त अज्ञानी और जड़ जीव के लिए रामकथा को
उसके वास्तविक अर्थ में ग्रहण कर पाने, समझ पाने की कठिनतम स्थितियों को भी बाबा
तुलसी ने बड़ी सरलता के साथ स्पष्ट कर दिया था।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">बाबा तुलसी का मानस आमजन के लिए, आम लोगों की भाषा में,
समग्र लोकसंस्करण की भूमिका में है। वाल्मीकि रामायण, आनंद रामायण, अध्यात्म
रामायण और ऐसे ही अनेक क्लिष्ट महाग्रंथों के रस-संचयन के उपरांत, सगुण-निर्गुण
ब्रह्म के लोक में निरूपण के उपरांत तुलसी का यह लोकमहाकाव्य कहीं लोकरंजन की
वस्तु-मात्र बनकर न रह जाए, ऐसी चिंता तुलसी के मन में बार-बार उठती रही; और इसी
के फलस्वरूप वे राम की कथा को गूढ़, गुह्य, रहस्यपूर्ण कहकर इसके आध्यात्मिक,
पारमार्थिक महत्त्व को स्थापित करने का निरंतर प्रयास करते रहे। यह प्रयास उस
परंपरा का भी अंग था, जो श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को
उपदेश देने से पहले निभाई गई थी। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">जिस ज्ञान, विज्ञान, भक्ति, शरणागति के साथ विश्वकल्याण की,
मानवता के उद्धार की, समाज के सच्चे-सात्विक विकास की अवधारणा जुड़ी हो और जो
ज्ञान मोक्ष या मुक्ति या निर्वाण जैसी स्थितियों की प्राप्ति का माध्यम हो, उसे
सामान्य या प्रचलित पद्धति में न तो बताया जा सकता है और न ही ग्रहण किया जा सकता
है। ऐसे ज्ञान को ग्रहण करने के उपायकर्त्ता की पात्रता के विषय में चिंतित होना
अत्यंत सामान्य बात है। इसी चिंता के कारण ज्ञान को बाँटने से पहले उसकी गुह्यता
का, उसके रहस्य और गूढ़ता का वर्णन करके ज्ञान की महत्ता को रेखांकित किया जाना
अनिवार्य बन जाता है। तुलसीदास जैसा विलक्षण और क्रांतिदृष्टा संत स्वयं को ‘जीव
जड़’ और ‘कलिमल ग्रसित बिमूढ़’ कहकर अपनी अपात्रता को बताने का प्रयास करता है। यह
भले ही उनकी विनम्रता हो, मगर इस कथन में निहित भाव को गूढ़-गुह्य ज्ञान की महत्ता
के संदर्भ में देखा जाना अपेक्षित होगा।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">गूढ़ता, गुह्यता, रहस्यमयता और अर्थ-सघनता के प्रति बाबा
तुलसी का आग्रह उस तत्त्व को स्थापित करने के आशय से है, जो सांसारिक
दुःखों-कष्टों, वेदनाओं, विकारों के त्रिस्तरीय परिहार के लिए अत्यंत आवश्यक है।
जब उस तत्त्व की स्थापना समाज में हो जाती है, जब रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब
मनुष्य दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से, त्रिस्तरीय बंधनों से मुक्त हो जाता है।
यही तो रामराज्य की विशेषता है-</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">दैहिक, दैविक भौतिक तापा । रामराज्य नहिं काहिहु व्यापा ।।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">रामराज्य पर महात्मा गांधी ने भी बहुत जोर दिया है। जब रामराज्य
की स्थापना और उसकी अवधारणा की चर्चा होती है, तब अनेक चिंतक-विचारक धार्मिक
संकीर्णता के छद्म आवरण में अवरुद्ध होकर<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>धर्मविशेष-मात्र की प्रभुसत्ता या वर्चस्व को देखने लगते हैं। महात्मा
गांधी ने अपने जीवन-दर्शन को, अपने अनुभवों को, और भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व के
कल्याण के हेतु अपने विचारों को ‘हिंद स्वराज’ में संकलित कर दिया है। ‘हिंद
स्वराज’ गांधी दर्शन का सार है। इसमें रामराज्य की अवधारणा है, इसकी स्थापनाएँ
हैं। इसमें बाबा तुलसी और बापू के राम के उस तत्त्व की विवेचना है, जिसमें त्रिविध
तापों को दूर करने की क्षमता निहित है। इसमें राम के उस तत्त्व की विवेचना है, जो
व्यष्टि से लगाकर समष्टि तक कल्याण की सामर्थ्य रखता है। बापू जीवन-पर्यंत इस राम
तत्त्व की साधना करते रहे। उनके जीवन का अंतिम उद्गार भी ‘हे राम!’ था। बापू के
राम किसी धर्म, मत, पंथ, संप्रदाय-विशेष के राम नहीं थे। इसी कारण उनके व्यक्तित्व
का विस्तार सारे संसार में आज भी है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">बापू के राम, बाबा तुलसी के राम और उनकी गूढ़ कथा को समझने के
लिए राम के त्रिविध स्वरूप को, और राम की त्रिस्तरीय भूमिका को जानना आवश्यक होगा।
गूढ़ता, गुह्यता और रहस्यमयता यही है। <i>जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी
तिन्ह तैसी ।</i> और <i>निर्मल मन जन सो मोहिं पावा, मोहिं कपट छल छिद्र न भावा ।</i>
आदि पंक्तियों के माध्यम से बाबा तुलसी राम के गूढ़, गुह्य और पारमार्थिक
कल्याणकारी तत्त्व की प्राप्ति की पात्रता को स्पष्ट करते हैं। जो इस पात्रता को
पूरा नहीं कर पाता, वह राम के स्वरूप को, राम तत्त्व को एकांगी-एकपक्षीय देखता और
जानता-समझता है। वह भ्रम में पड़ जाता है। तब या तो वह कट्टर धार्मिक हो जाता है,
या फिर कट्टर अधार्मिक बनकर रह जाता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">राम का आधिभौतिक स्वरूप सामान्य मानव की भाँति सांसारिक
क्रियाकलापों में विन्यस्त है। संसार के षड्यंत्रों, प्रपंचों, अपराधों, कुकर्मों
और आसुरी प्रवृत्तियों से जूझता और परास्त करता राम का आधिभौतिक स्वरूप सामान्य और
सहज बुद्धि वालों के लिए सुग्राह्य बन जाता है। लोक में राम की लीला राम के प्रति
भक्तिभाव को जन्म देती है। आधिदैविक राम तत्त्व विष्णु का अवतार है, शिव का आराध्य
है, इसलिए पूज्य है। नारायण की नर-लीला भक्ति में नया आयाम जोड़ती है। आधिदैविक
राम तत्त्व से आधिभौतिक राम तत्त्व पुष्ट होता है, इस कारण सांसारिक क्रियाकलाप,
असुरों का संहार और ऐसे अन्यान्य क्रियाकलाप बड़े चमत्कारिक ढंग से कुशलतापूर्वक
संपन्न होते हैं। बाबा तुलसी के मानस में यह पक्ष तुलसी की राम के प्रति अनन्य
भक्तिभावना के कारण पुष्ट होती है, जबकि वाल्मीकि रामायण में राम का आधिदैविक तत्त्व
सामान्य मानव के अधिक समीप का दिखता है। राम का आध्यात्मिक तत्त्व ऐसे उत्कृष्टतम
स्तर पर है, जिसने राम को मर्यादा की स्थापना करने वाले उत्तम पुरुष की श्रेणी में
स्थापित किया है। राम के आध्यात्मिक<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>तत्त्व में ही वह गूढ़ता, गुह्यता निहित है, जिसे निर्मल मन के बिना पाया
नहीं जा सकता, जाना भी नहीं जा सकता। ऐसा निर्मल मन विभीषण का था। जीवरूपी विभीषण
सांसारिक आसक्ति, कामना और वासना की प्रतिरूप लंका में मोह, लोभ, द्वेष, कपट आदि
के बीच छटपटाता है। जब कभी उसका विवेक उसे वैराग्य रूपी हनुमान के माध्यम से उसे
कामना रहित धर्म की, विकार रहित मर्यादा की, सच्ची मानवता की और नीति-आदर्श के
वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग सुलभ कराता है, तब उसकी परिणति राम की
शरणागति के रूप में होती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">राम का आधिभौतिक तत्त्व सार्थक और निष्काम कर्म के ज्ञान के
प्रतीक महाराजा दशरथ और भक्तिस्वरूपा माता कौशल्या के माध्यम से उपजता है, जो विजय
और विभूति की प्राप्ति के लिए जीवनपर्यंत धर्म का पालन करता है, मानवता की रक्षा
करता है, जीवन के उच्चतम आदर्शों को, मर्यादाओं को स्थापित करता है; तथा यम-नियम
रूपी दिग्पालों को मोहरूपी रावण से मुक्त कराकर मोक्ष का मार्ग दिखाता है। इस राम तत्त्व
में परहित को धर्म से श्रेष्ठ और परपीड़ा को अधर्म से भी ज्यादा निकृष्ट बताकर
जगत्कल्याण की जैसी भावना स्थापित की गई है; वह राम, अर्थात् मर्यादा और धैर्य,
अर्थात् सीता के बिना संभव नहीं है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimlQOwBEe2lY3HpMPF5pP0bjAgoKbr-j53Sfs9r_FheTKp0N6Cc7_sgGEM08KkagrxFraeO53Fhvqq2WFfwc2zPpMhQmTmEK0h-qiGafw0ROBden0tOjCXADi5qxzXaCorbhDZMzPdbQGr0BpG-nSAvQnKcngPzApGgcS2IvAFt5_kS2EtAYGJey7YjQ/s1056/46-49%20Nirmal%20Man%20Jan%20So.._Page_2.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center; text-indent: 36pt;"><img border="0" data-original-height="1056" data-original-width="816" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimlQOwBEe2lY3HpMPF5pP0bjAgoKbr-j53Sfs9r_FheTKp0N6Cc7_sgGEM08KkagrxFraeO53Fhvqq2WFfwc2zPpMhQmTmEK0h-qiGafw0ROBden0tOjCXADi5qxzXaCorbhDZMzPdbQGr0BpG-nSAvQnKcngPzApGgcS2IvAFt5_kS2EtAYGJey7YjQ/w309-h400/46-49%20Nirmal%20Man%20Jan%20So.._Page_2.jpg" width="309" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">मानस में अनेक स्थानों पर उपदेश देने के प्रसंगों के माध्यम
से बाबा तुलसी ने राम के आध्यात्मिक तत्त्व की स्थापनाएँ की हैं। इसके साथ ही
अज्ञान के अंधकार से आवृत्त जड़ जीव को ज्ञान का दीपक जलाकर तथा भक्ति की चिंतामणि
को फेरकर शाश्वत प्रकाशपुंज का अंश बनने का उपदेश बाबा तुलसी उत्तरकांड में देते
हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">राम का आध्यात्मिक तत्त्व राम और रावण के ऐतिहासिक या
पौराणिक अस्तित्वमात्र को मानकर ही नहीं चलता, वरन् राम और रावण के शाश्वत स्वरूप
को व्याख्यायित करता है। प्रत्येक मनुष्य में राम और रावण हैं। प्रत्येक मानव के
आध्यात्मिक धरातल पर राम-रावण संग्राम भी चल रहा है। इस संग्राम का प्रतिफल मानव
के कार्य-व्यवहार, आचरण, जीवन-शैली, वाणी, विचार और संबंध में प्रकट होता रहता है।
इसी कारण भौतिक स्तर पर राम का भक्त दिखने वाला कोई भक्त अपने अभौतिक रूप में,
अपने अचेतन में रावण का भक्त भी हो सकता है। ऐसे भक्तों को प्रभु की मूरत उनकी
अपनी अज्ञानता के कारण वैसी ही दिखती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">दूसरी बात आत्मबल और कर्म पर एकाग्रनिष्ठा की है। महाभारत
के प्रसंग में विकट धनुर्धारी अर्जुन ने कर्म पर एकाग्रनिष्ठ और लक्ष्य पर एकाग्र
होने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन द्रोपदी स्वयंवर के समय मछली की आँख पर निशाना
साधकर कर दिया था। उसके अंदर आत्मबल और कर्मबल की शक्तियाँ तो थीं, किंतु
सुषुप्तावस्था में थीं। श्रीकृष्ण को इसका आभास था, इस कारण कर्मयोग का उपदेश देकर
उन्होंने अर्जुन की सुषुप्त शक्तियों को जागृत किया। कृष्ण को अर्जुन और अर्जुन को
कृष्ण न मिलते, तो महाभारत का युद्ध तब भी नहीं जीता जा सकता था, और आज भी नहीं
जीता जा सकता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">कृष्ण को छलिया-प्रपंची मानने वाली; और साथ ही विभीषण को
देशद्रोही, राम को शम्बूक वध का अपराधी देखने वाली आधुनिकताबोधी दृष्टि राम के
गूढ़, गुह्य तत्त्व को उसके वास्तविक रूप में ग्रहण न कर पाने के कारण भटक जाती
है। यह भटकाव धर्मभीरुता या धार्मिक कट्टरता या फिर धार्मिक विद्वेषजन्य विषमता को
जन्म देता है। ऐसे में बाबा तुलसी के राम, बापू के राम और उनका रामराज्य समझ से
परे हो जाता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWjyUuQY07ocfys9oJG5TKS5UYBvOWRaxevf5iaM95sI1nRhArFt-t5eJ0pXwjvKFFgy-jzLo3EMo3P4xc_Co_s_lUOkP1dE4JUvdpLEhvzHZ-pv-JqkHPbUCZCPQg8dozCB4Lf1fztDW9kHlJ4QrK3hftiw-CWxQknFJPYMDUIva-tLzdTILx5K-AQg/s2200/46-49%20Nirmal%20Man%20Jan%20So.._Page_6.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center; text-indent: 36pt;"><img border="0" data-original-height="2200" data-original-width="1700" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWjyUuQY07ocfys9oJG5TKS5UYBvOWRaxevf5iaM95sI1nRhArFt-t5eJ0pXwjvKFFgy-jzLo3EMo3P4xc_Co_s_lUOkP1dE4JUvdpLEhvzHZ-pv-JqkHPbUCZCPQg8dozCB4Lf1fztDW9kHlJ4QrK3hftiw-CWxQknFJPYMDUIva-tLzdTILx5K-AQg/w309-h400/46-49%20Nirmal%20Man%20Jan%20So.._Page_6.jpg" width="309" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">राम के भौतिक तत्त्व से अधिक प्रबल राम का आध्यात्मिक
तत्त्व है, क्योंकि वही जीवन के सच्चे, सार्थक, शाश्वत मूल्यों को, मर्यादा को,
नैतिकता और आदर्श को युगों-युगों तक संरक्षित रख सकने की सामर्थ्य रखता है। इसी
कारण राम से बड़ा राम का नाम है। इसी कारण बापू के राम ने ऐसे रामराज्य की
परिकल्पना स्थापित की थी, जो इस विश्व को सुंदर बना सकता था। इसी कारण बाबा तुलसी
ने अपने जीवन के अनेक कठिन संघर्षों को, विभीषिकाओं को धर्मानुरूप और सम्यक् भाव
से विजित करने की क्षमता पाई थी। इस गूढ़ तत्त्व को समझकर; राम को नहीं, राम के
नाम को जानकर कोई भी मनुष्य अपने जीवन को मोक्ष का पर्याय बना सकता है। इसके लिए
गुह्य-गूढ़ ज्ञान को जानने की पात्रता को उपजाना होगा और उसके बाद दोनों
महाग्रंथों- श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस के मूल रस का आस्वादन करके जीवन
को सार्थक और कल्याणकारक बनाया जा सकता है।</span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 8pt 0cm; text-align: right; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;">-राहुल मिश्र</span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 8.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 8.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-language: HI;"></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><i>(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के
जून, 2023 अंक में प्रकाशित)</i></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 16.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"></span></b><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-37162118014429063072023-05-06T18:08:00.002+05:302023-05-06T18:23:10.235+05:30पिघलती हिमानियाँ, दरकता हिमालय...<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-ekFXliWP6lTDHLR_K_H6qhvmx7uE3Q_lrHTCOgdJG-FLSPPa-Qyr_D4HEcflyzlrXk_pmyvzn3h4Krs9T1_TSa84ASq4Hvjv0xXHeqs6_X_7wMtAP-0CR2CsYOCgs9JJwczQednnu7cDmht-unQlag5uEJBnH5Dn92l_3WOCYn2Q4nIBTdt7S9d5UA/s2200/Seema%20Sanghosh%20April%202023-5.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2200" data-original-width="1592" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-ekFXliWP6lTDHLR_K_H6qhvmx7uE3Q_lrHTCOgdJG-FLSPPa-Qyr_D4HEcflyzlrXk_pmyvzn3h4Krs9T1_TSa84ASq4Hvjv0xXHeqs6_X_7wMtAP-0CR2CsYOCgs9JJwczQednnu7cDmht-unQlag5uEJBnH5Dn92l_3WOCYn2Q4nIBTdt7S9d5UA/w464-h640/Seema%20Sanghosh%20April%202023-5.jpg" width="464" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 24pt; line-height: 107%;">पिघलती हिमानियाँ, दरकता हिमालय...</span></b></div><p></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">हिमालय, यानि हिम का आलय....। हिम का, बर्फ का घर हिमालय
अपनी उज्ज्वल-धवल आभा के साथ भारतमाता के मुकुट के रूप में सुशोभित होता है।
हिमालय का अस्तित्व ही हिम के कारण है, तभी हिमालय है। भारत की उत्तरी सीमा में
स्वाभाविक रक्षा-कवच बनाता हिमालय वर्ष पर्यंत अपनी हिमानियों से, हिमनदों से,
ग्लेशियरों से आच्छादित रहता है, बर्फ से चमकता रहता है। ये हिमानियाँ न केवल
हिमालय के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, वरन् भारत सहित अन्य एशियाई देशों के लिए जीवनधारा
हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">भारत के मैदानी क्षेत्रों को सींचने वाली, जल की आपूर्ति
देने वाली नदियाँ हिमालय के हिमनदों (हिमानियों) के कारण ही जीवन पाती हैं, जल से
भरी रहती हैं। हिमालय की नदियाँ हमेशा किलोल करती हुई जलराशि को प्रवाहित करती
रहती हैं। गंगा, सतलुज, रावी, ब्रह्मपुत्र, सिंधु आदि नदियों-नदों को जीवन देने
वाले हिमनद ही हैं। कल्पना करें, कि इन नद-नदियों में जल का स्तर गिरता जाए, और एक
दिन ये सूख जाएँ, तो क्या होगा? यह यक्ष-प्रश्न अपनी विकरालता के साथ आज केवल
कल्पना में है, लेकिन जिस प्रकार की संभावनाएँ वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद सामने आ
रहीं हैं, वे इस यक्ष-प्रश्न को कल्पना की परिधि में बंद रह जाने की बात नहीं कर
रहीं, वरन् सामने ही आ जाने वाली दिखाई देती हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">विगत वर्ष अप्रैल माह में ही भारत की संसद में पृथ्वी
विज्ञान राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. जितेंद्र सिंह ने एक प्रश्न के उत्तर
में बताया था, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में हिमानियों के पिघलने का क्रम अनवरत
जारी है। प्रतिवर्ष औसतन 9 से 12 मीटर तक हिमनद पिघल रहे हैं। हिमनदों में मौसम के
अनुसार पिघलने और हिम एकत्रित करने का क्रम चलता रहता है, लेकिन हिमनदों के बड़ी
मात्रा में पिघलने का क्रम अच्छे संकेत नहीं देता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र, पर्यावरण, जलवायु
असंतुलन, जलवायु परिवर्तन और ऐसे ही विविध क्षेत्रों में अध्ययन हेतु भारत सरकार
की विभिन्न संस्थाएँ कार्य करती हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, वाडिया हिमालयी
भूविज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र, राष्ट्रीय
जलविज्ञान संस्थान, अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, भारतीय विज्ञान संस्थान के साथ ही
काश्मीर विश्वविद्यालय और सिक्किम विश्वविद्यालय समेत हिमालयी परिक्षेत्र में
स्थित विभिन्न विश्वविद्यालयों के पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से संबद्ध
विभागों के द्वारा हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु परिवर्तन पर व्यापक
अध्ययन किए जाते रहे हैं। भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और साथ ही पर्यावरण,
वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के प्रयासों से समग्र हिमालयी परिक्षेत्र के अध्ययन
को व्यापक आयाम दिया गया है। भारत सरकार की जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता
ही है, कि पर्यावरण और वन मंत्रालय में जलवायु परिवर्तन को भी जोड़ा गया है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान पूरे हिमालय में कैचमेंट
और बेसिन के स्तर पर हिमनदों के पिघलने से कम होने वाली बर्फ के मूल्यांकन और
अध्ययन के लिए सतत सक्रिय है। इसी तरह उत्तराखंड और लद्दाख के विभिन्न क्षेत्रों
में हिमनदों की स्थिति के अध्ययन हेतु अलग-अलग संस्थाएँ व विभिन्न वैज्ञानिक शोध
कार्यों में लगे हुए हैं। भले ही इनके अध्ययन का क्षेत्र हिमानियों के पिघलने से
जुड़ा हुआ हो, लेकिन इन अध्ययनों के साथ अनेक चौंकाने वाले आँकड़े भी सामने आ रहे हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">देहरादून स्थित वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान के
वैज्ञानिक डॉ. राकेश भाम्बरी ने गंगोत्री हिमानी के गिरते स्तर का अध्ययन किया है।
इस अध्ययन के हवाले से ही वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान द्वारा जारी की गई रिपोर्ट
चौंका देने वाली है। गंगोत्री का ग्लेशियर सन् 1935 से लेकर सन् 2022 तक लगभग 88
वर्षों के अंतराल में 1700 मीटर मुहाने में पिघल चुका है। रिपोर्ट में यह भी बताया
गया है, कि वर्ष 1996 तक प्रतिवर्ष लगभग 20 मीटर और उसके बाद के वर्षों में
प्रतिवर्ष लगभग 38 मीटर की गति से गंगोत्री हिमनद का मुहाना पिघलता है। इस तरह
लगभग 88 वर्षों में 1.75 किलोमीटर गंगोत्री हिमनद पिघल चुका है। गंगोत्री हिमनद की
लंबाई लगभग 30 किलोमीटर थी, जो क्रमशः कम होती जा रही है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">हिमालय भारत का ही नहीं, विश्व का सबसे बड़ा ऐसा क्षेत्र
है, जिसमें सर्वाधिक संख्या में हिमनद हैं। अर्थात् हिमालय विश्व के समग्र
हिमक्षेत्र का बड़ा हिस्सा है। हिमालय के पास बर्फ प्रचुर मात्रा में है। अंटार्कटिका
और आर्कटिक के बाद हिमालय विश्व में हिम का तीसरा बड़ा क्षेत्र है। इसी कारण
हिमालय को प्रायः तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। एशिया में हिमालय सर्वाधिक जलसिंचित
क्षेत्र निर्मित करता है। भारतीय क्षेत्र में आने वाले हिमालय में लगभग 9580 हिमानियाँ
हैं। यदि उत्तराखंड के क्षेत्र को देखें, तो यहाँ लगभग 970 छोटी-बड़ी हिमानियाँ
हैं। पूर्वोत्तर के हिमालय में भी हिमानियों की कम संख्या नहीं है। लद्दाख और
सियाचिन का क्षेत्र हिमानियों से भरा है। सियाचिन हिमनद अपनी विशिष्ट
राजनीतिक-सीमाक्षेत्रीय स्थिति के कारण विश्व में चर्चित रहता है, साथ ही वर्ष-पर्यंत
सुर्खियों में भी रहता है। समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में सैकड़ों की संख्या में
हिमनद हैं, जिन पर अपने अस्तित्व के सिमट जाने का संकट है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो
गुटेरेस ने भी चेतावनी दी है, कि धरती के 10 प्रतिशत हिस्से में हिमनद हैं, और ये
सभी ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेजी से पिघल रहे हैं। अंटार्कटिका में प्रतिवर्ष
1500 करोड़ टन बर्फ पिघल जाती है। ग्रीनलैंड में प्रतिवर्ष 2700 करोड़ टन बर्फ
पिघल रही है। हिमालय में भी यही स्थिति है, जिस कारण वर्ष 2050 तक 170 से 200
करोड़ नागरिकों को पानी मिलना बहुत कम हो जाएगा। सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र का जल
स्तर बहुत कम हो जाएगा। चिंता की बात यह भी है, कि यदि तेजी के साथ ग्लेशियर
पिघलते हैं, तो चीन और पाकिस्तान में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">भारत के विभिन्न अध्ययन केंद्रों, संस्थानों और
वैज्ञानिकों के अध्ययन से प्राप्त जानकारी के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ की चिंता
पिघलती हिमानियों के संदर्भ में आँखें खोल देने वाली है। ऐसी स्थिति के पीछे बड़ा
कारक ग्लोबल वार्मिंग को माना जाता है। इसके अलावा कुछ ऐसे भी पक्ष हैं, जिनकी
अनदेखी नहीं की जा सकती है। वैश्विक स्तर पर बात करने की यहाँ आवश्यकता और
प्रासंगिकता नहीं दिखती है। हिमालयी परिक्षेत्र में इस स्थिति की भयावहता का
अनुमान लगाते हुए कारणों पर चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक होगा।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">इसमें पहला कारण हिमालयी परिक्षेत्र में बढ़ती अंधाधुंध
आधुनिकता और भौतिकता है। उत्तराखंड के जोशी मठ का हाल हमारे सामने है। पुराने समय
में ऐसी मान्यता थी, कि हिमालय का बदरी-केदार क्षेत्र धर्म-अध्यात्म में संलग्न
होकर, और सांसारिकता से मुक्त होकर एकांतिक साधना के लिए है। यहाँ जाने वाले
तीर्थयात्री प्रायः अपने घर से अंतिम विदा ही लेकर जाते थे, पता नहीं ही लौट कर आ
सकें या नहीं...। समय और स्थितियों ने संसाधनों की वृद्धि की...। आज इन क्षेत्रों
में पहुँचना बहुत सुगम हुआ है। सामयिक आवश्यकता के अनुरूप यह किया जाना कुछ सीमा
तक उचित लगता है, लेकिन इन स्थानों में पहुँचने वाले लोगों ने अपना कार्य और
व्यवहार से ऐसा सिद्ध कर दिया है, कि उनके लिए ये क्षेत्र साधना-तपश्चर्या के लिए
नहीं, वरन् मौज-मस्ती, पर्यटन और सैर-सपाटा के लिए हैं। इसी कारण इन क्षेत्रों में
प्रदूषण बढ़ा है, प्लास्टिक सहित अनेक प्रकार का कचरा बढ़ा है, सुख देने वाले
संसाधनों के कारण पर्यावरण पर संतुलन बनाने का दबाव बढ़ा है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">लोगों की मानसिकता को भाँपते हुए व्यावसायिक गतिविधियाँ
भी तेज हुई हैं। बड़ी कंपनियों और होटल उद्योगों ने इन क्षेत्रों को मनोरंजन के
लिए अनुकूल बना दिया है। भले ही लोग धार्मिक आस्था से स्वयं को विलग नहीं करते,
लेकिन इस क्षेत्र की मर्यादा को भी वे समझ नहीं पाते। ये साधना की भूमि शरीर को
सुख देकर पाई जाने वाली नहीं है। </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">दूसरी ओर देखें, तो चीन ने कैलास मनसरोवर को पर्यटन और
मौज-मस्ती का ठिकाना बना दिया है। तिब्बत को साधना की भूमि के रूप में जाना जाता
है, लेकिन वहाँ भी बहुत तेजी के साथ आधुनिकीकरण हुआ है। भारतीय सीमा तक पहुँच चुके
चीन की गतिविधियों का यदि सामरिक और भारतीय सीमंतप्रदेशीय स्थितियों के संदर्भ में
आकलन किया जाए, तो उसमें यह एक बड़ा पक्ष यह भी है, कि चीन के द्वारा कब्जे में ली
गई लगभग डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर भारतीय भूमि में चीन की सैन्य गतिविधियों और विभिन्न
निर्माण-कार्यों, सैन्य सामग्रियों और वाहनों आदि के कारण पैदा किए गए प्रदूषण के
साथ ही घुसपैठ व अन्य सैन्य कार्यवाहियों के कारण बड़े पैमाने में पर्यावरणीय
असंतुलन पैदा हुआ है। हाल ही में गालवान के संघर्ष के कारण हिमालय के पारिस्थितिकी
तंत्र में विपरीत प्रभाव पड़ा होगा, इस बात को स्वीकार करना ही होगा।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">भारत की नीति सीमांतक्षेत्र में सदैव रक्षात्मक रही है।
हम विस्तारवादी कभी नहीं रहे। केवल अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए ही हमारी सेनाएँ
सैन्य कार्यवाहियाँ करती रहीं हैं। लेकिन सैन्य कार्यवाहियों के लिए उकसाने,
सीमावर्ती क्षेत्र में अशांति और अस्थिता उत्पन्न करने, विस्तारवादी नीति के तहत
सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए शांति को अशांति में बदलने का प्रयास हमारे पड़ोसी
देशों के द्वारा होता रहा है, वर्तमान में भी इसे देखा जा सकता है। ऐसी दशा में भारत
की उत्तरी सीमा, हिमालय के प्रशांत क्षेत्र, हिमानियाँ, कलकल करती नदियाँ, सुंदर-सुरम्य
वादियाँ आतंक और अस्थिरता के साथ ही पर्यावरण के विकृत हो जाने की समस्या से ग्रस्त
हो जाती हैं। यदि भारत की उत्तरी सीमा में शांति हो जाए, तो सैन्य गतिविधियों के
कारण होने वाले प्रदूषण से हिमालयी परिक्षेत्र बच सकता है। पिघलती हिमानियों को पिघलने
से रोका जा सकता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">तीसरा बड़ा कारण हिमालय में पर्यटन और अंधाधुंध विकास के
साथ आने वाला प्रदूषण और पारिस्थितिकी अंतुलन का है। उत्तराखंड. हिमाचलप्रदेश,
लद्दाख और जम्मू-काश्मीर तक ऊपरी हिमालयी क्षेत्र के साथ ही निचले हिमालयी क्षेत्र
में अंधाधुंध विकास की उस तस्वीर को देख सकते हैं, जो रहन-सहन के स्तर पर भले ही
अच्छे आँकड़े दिखा दे, लेकिन हिमालय के स्वास्थ्य के लिए किसी भी तरह से अच्छी
नहीं है। सीमेंट-कंक्रीट के बने बहुमंजिला भवन, पेट्रोल-डीजल चालित गाड़ियों की
बढ़ती संख्या, आधुनिकता के साथ ही सुखभोगी विविध संसाधनों की अधिकता का असर
पर्यावरण के विभिन्न कारकों को प्रभावित करता है। पर्यटन के साथ आने वाली विकृतियाँ
भी कमोबेश ऐसी ही होती हैं। इन सबका प्रभाव समग्र हिमालयी परिक्षेत्र में देखा जा
सकता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZmxmlVznnvq-ZR3R_zzlm-_wzE4tne243KlBVWe4s2aXcYTRAbZ0_LjSWF7XBhEpPfXAyIStIEMh9cW_jTKM-O4uqD6icFBqCg0q5jU6Ckl020xdEQ5bKHSvkpqpwWyaRt-7BTF2ltUZMxVt-JVCyX_xDCtGU4vUcfBXCuffgo4RVCIBr1KY_dKl16g/s2200/Seema%20Sanghosh%20April%202023-1.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="2200" data-original-width="1600" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZmxmlVznnvq-ZR3R_zzlm-_wzE4tne243KlBVWe4s2aXcYTRAbZ0_LjSWF7XBhEpPfXAyIStIEMh9cW_jTKM-O4uqD6icFBqCg0q5jU6Ckl020xdEQ5bKHSvkpqpwWyaRt-7BTF2ltUZMxVt-JVCyX_xDCtGU4vUcfBXCuffgo4RVCIBr1KY_dKl16g/w291-h400/Seema%20Sanghosh%20April%202023-1.jpg" width="291" /></a><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">वैश्विक स्तर पर बढ़ते ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) की
समस्या भले ही हिमानियों के पिघलने का बड़ा कारण हो, लेकिन सीमा पर
असुरक्षा-अस्थिरता, बढ़ती आधुनिकता-भौतिकता, आधुनिक भौतिकतापूर्ण-सुविधाभोगी जीवन-पद्धति,
पर्यटन और आधुनिक संसाधनों की वृद्धि जैसे कारकों से दरकते हिमालय को भी देखना
चाहिए। हिमानियाँ और हिमालय एक-दूसरे के पूरक हैं। इनका सह-अस्तित्व ही भारत के
लिए, एशिया के लिए, और साथ ही विश्व के लिए सुखद है, जीवनीय है, और सुंदर भी है।
हिमानियों-हिमनदों से रिक्त हिमालय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><i><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">(</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">सीमा
संघोष, नई दिल्ली के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">)</span></i></p></div>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-53769742659220275682023-04-30T19:44:00.000+05:302023-04-30T19:44:10.336+05:30महाबाहु सिंधु, उसकी सखियाँ और हिमगिरि का लीलाभवन...<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEin4AntM0xTO_C6NMYItnyufZctgI5_m8uTj4c4qdcjlTTTYhTGYID5ar1XSpPZzjYDauuX_vw1cmUpvMVvbZ30LXNZ9kUaLhRwBz4Z8dQ3NPsxKNQC_7UwPAi75fP0BgOpAXHQITE0DtAHGcImBU_VrlCy3eOryN3tqopIhk7BYhdRnBCoA27jEsWDTQ/s797/Screenshot%202023-04-30%20192330.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="797" data-original-width="507" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEin4AntM0xTO_C6NMYItnyufZctgI5_m8uTj4c4qdcjlTTTYhTGYID5ar1XSpPZzjYDauuX_vw1cmUpvMVvbZ30LXNZ9kUaLhRwBz4Z8dQ3NPsxKNQC_7UwPAi75fP0BgOpAXHQITE0DtAHGcImBU_VrlCy3eOryN3tqopIhk7BYhdRnBCoA27jEsWDTQ/w408-h640/Screenshot%202023-04-30%20192330.png" width="408" /></a></div><br /><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 22.0pt;">महाबाहु सिंधु, उसकी सखियाँ और हिमगिरि का
लीलाभवन...</span></b><b><span style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 22.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 20.0pt;"><o:p></o:p></span></b></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 22.0pt;"><br /></span></b></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">अगस्त-सितंबर आते-आते सिंधु का जोश मानों कुछ कम-सा हो जाता है। उधर
हिमानियों में शीत का असर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, वैसे ही उनका पिघलना-गलना कम होने
लगता है, असर सिंधु में दिखने लगता है। सितंबर के माह में ही पितृपक्ष आता है।
तर्पण-श्राद्ध के लिए सिंधु तट पर जाना पितृपक्ष की दैनंदिनी में सम्मिलित हो जाता
है। एक दिन हमें सिंधु में तर्पण करते कुछ सैलानी देखते हैं। उत्सुकतावश आकर पूछ
बैठते हैं.... कौन-सी नदी है, यह? हम अवाक् उनके चेह</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">रे</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"> को
ताकते हुए किंचित् अचरज के साथ कहते हैं- आपको क्या नहीं पता, ये सिंधु हैं...।
सैलानियों में से एक वृद्ध महाशय तुरंत भक्ति के भाव में डूबकर जयकारा लगाते हैं,
सिंधु मइया की जय हो...। अन्य सैलानी भी उनके सुर में सुर मिलाकर जयकारा लगा देते
हैं—जय हो... जय हो...। कुछ की आवाज धीमी, तो कुछ की तेज होती है...। प्रातःकाल की
वेला में नील कुसुमित गगन की आभा को दर्पण की तरह समेटे नीरव सिंधु और उसका तट इस
जयकारे से गुंजायमान हो उठता है।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">यह जयकारा तो ठीक था.... लेकिन सिंधु का परिचय ही यहाँ बदल गया था। पर्यटकों
का भक्ति-भाव स्तुत्य था, लेकिन संशोधन आवश्यक था, इस कारण उनको बड़े विनम्र भाव
के साथ हमने बताया, कि सिंधु मइया नहीं हैं, नदी नहीं हैं...। सिंधु में मातृत्व
नहीं, पितृत्व है..। सिंधु नद हैं, महाबाहु हैं। </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">हे </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">सिंधु
देव! वंदन है, आपका...। हमारा यह कथन पर्यटकों को आश्चर्य में डालने के लिए पर्याप्त
था, ऐसा अनुभूत करते हुए एक ओर हम अपने तर्पण कार्य में लग गए, दूसरी ओर वे संभवतः
हमारे संवाद की परतों को उधेड़ने-बुनने में लगे हुए थे।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">लेह नगर से लगभग बारह-पंद्रह किलोमीटर दूर सिंधु घाट ने अपने कई रूप
देखे हैं। हम जब पहले-पहल आए थे, तब यहाँ टीन की चादरें लगी थीं और लोगों के बैठने
के लिए एक खुला मंच जैसा हुआ करता था। अब तमाम नया निर्माण हो गया है। पर्यटक तब
भी खूब आते थे, अब भी आते हैं। क्या पता, उन्हें तब सिंधु के बारे में जानकारी
रहती होगी, या आज के जैसे ही सिंधु का घाट पर्यटकों के लिए केवल सैर-सपाटा और
प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने का ठिकाना-मात्र रहता होगा। कुछ भी हो... अंग्रेजी
ने यहाँ भी एक बड़ी गड़बड़ पैदा कर रखी है, ऐसा हमें तब भी लगता था, आज के इस संवाद
ने पुनः हमारे विचार को मजबूती प्रदान कर दी थी। अंग्रेजी में ‘रिवर’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">के स्त्रीलिंग या पुल्लिंग रूप नहीं हैं।
दूसरा कारण यह भी हो सकता है, कि अधिकांश नदियाँ ही हैं...। इनकी संगत में नद भी
नदियों के रूप में मान लिए जाते हैं, जाने-अनजाने में...। सिंधु के साथ भी कुछ ऐसा
ही समझ में आता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">ब्रह्मपुत्र, सोन और सिंधु; ये तीनों नद हैं।
नद के रूप में सबसे कम पहचान सिंधु की है। सिंधु का तट सर्वस्तिवादी बौद्ध मतानुयायियों
से जीवंत है। सर्वस्तिवादी बौद्धमत के ग्रंथों में सिंधु नद के रूप में अंकित है।
भारत के मानचित्र को देखें, तो पूर्व में ब्रह्मपुत्र और पश्चिम में सिंधु का
विशाल प्रवाह दिखता है। ऐसा प्रतीत होता है, कि ब्रह्मपुत्र और सिंधु दोनों भारतमाता
की दो भुजाओं की तरह हैं। इसी कारण ये महाबाहु हैं। नदों की कथाएँ बड़ी रोचक होती
हैं। ब्रह्मपुत्र की कथा में भी अनेक पड़ाव हैं, सिंधु में भी हैं, लेकिन भौगौलिक
कारकों ने सिंधु के साथ मानव का मेल-मिलाप उतना नहीं रहने दिया, जितना सोन और ब्रह्मपुत्र
का है। सोन भी नद है, गोंडवाना क्षेत्र में सोन का प्रवाह है। सोन वस्तुतः शोणभद्र
है। शोणभद्र का स्वभाव भी भद्र है। यह अलग बात है, कि नर्मदा के साथ शोणभद्र की
पटरी नहीं बैठी। एक छोटी-सी भ्रांति ने, एक मिथ्याबोध ने सोन और नर्मदा को अलग-अलग
कर दिया। आज भी नर्मदा विपरीत दिशा में प्रवाहमान हैं, सोन के निकट से निकलते हुए
भी मिलती नहीं हैं। शोण भी अपने भद्र स्वभाव को त्यागकर उच्छृंखल नहीं होता। वह
शांत-संयत रहता है। <o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"> सिंधु
शोण की तरह शांत नहीं है। लेह के पास सिंधु का जो प्रवाह देखने को मिलता है, वह थोड़ा-सा
आगे चलते ही कई गुना तेज हो जाता है। लोक में सिंधु के स्वभाव की जानकारी कम ही
पाई जाती है। सिंधु के नाम से सामान्य जन की जानकारी सिंधु घाटी सभ्यता और सिंधु
से हिंदु व हिंदुस्थान तक ही जाती है। सिंधु नद है, नद के रूप में आखिर सिंधु
क्यों मान्य है, ये बातें कम लोग ही जानते होंगे। कम-से-कम नई पीढ़ी में तो यही
स्थिति होगी। वैसे इन तथ्यों को जानने के लिए अतीत की बड़ी गहरी परतों को उधेड़ना
पड़ता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="background:; line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">गंगा च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="background: ; line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिम्
कुरु ।।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="background:; line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">-------</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="background: ; line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी
नर्मदा,</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="background: ; line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्यवती
वेदिका ।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="background:; line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया
गण्डकी,</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="background:; line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">पूर्णाः पूर्णजलैः समुद्रसहिताः
कुर्वन्तु मे मंगलम् ।।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="background: ; line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><span style="font-family: "Segoe UI Historic", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"> </span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">भारतीय वाङ्मय में सिंधु का वर्णन अनेक ग्रंथों
में है। लोक-व्यवहार में सभी पवित्र नदियों का आह्वान स्नानादि कार्यों के लिए,
पूजापाठ के लिए जब किया जाता है, तब सिंधु का भी आह्वान होता है। सिंधु का महत्त्व
और माहात्म्य सनातन परंपरा में गंगा से पहले का है, और गंगा से अधिक भी है।
प्राकृतिक बाधाओं और जटिलताओं ने सिंधु तक श्रद्धालुओं की पहुँच को कठिन बनाया,
लेकिन सिंधु की प्रतीकात्मक उपस्थिति लोक में हर जन के साथ रही है, आज भी है...।
समस्त पवित्र नदियों-नदों के जल की सन्निधि, यह सन्निधान धार्मिक संदर्भ-मात्र
नहीं है। यह तो सांस्कृतिक ऐक्य का अभिधान है, प्रयास है। एक छोर पर
गोदावरी-कावेरी, तो दूसरे छोर पर सिंधु, गंगा, यमुना हैं। सरयू, महेंद्रतनया, नर्मदा
मध्य में हैं। यह आर्यावर्त की सांस्कृतिक परिधि का अंकन करने के साथ ही सांस्कृतिक
एकता के मंत्र का पाठ भी है। सभी नदों-नदियों का जल से पूर्ण होना, सांस्कृतिक गठबंधन
को जलराशि से बाँधना मानव के लिए मंगलकारक है, मंगलदायी है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">सिंधु सदियों से इसी भावधारा को निभाता रहा
है। लद्दाख अंचल में एक स्वाँग खेला जाता है- लामा-जोगी का...। लामा बौद्ध भिक्षु
है, लाल चीवर धारण किए हुए केशों का मुंडन कराए हुए..., जोगी श्वेत धोती धारण किए हुए
है, लंबी धवल केश-राशि और दाढ़ी-मूँछों के साथ...। दोनों ही साथ-साथ जाते हैं,
हाथों में अक्षत लिए हुए गाँवों की गलियों से जब निकलते हैं, तो श्रद्धालुजन स्वतः
प्रेरणा से बाहर आकर अभिवादन करते हैं, परंपरागत पद्धति से पूजा-अर्जना करते हैं।
लामा-जोगी समवेत स्वर से गृहस्वामी और अन्य परिजनों के लिए मंगलकामनाएँ करते हैं।
जोगी लद्दाख में सिंधु के सहारे आए, अपनी सनातन परंपरा को अपनी तीर्थयात्राओं से
अभिसिंचित करते हुए। यात्राओं की जटिलता ने, बदलते परिवेश ने, बदलती हवाओं ने और संस्कृतियों
पर आक्रमणों के बाद बदलती धारणाओं-भावनाओं ने जोगियों का आना भले ही बाधित कर दिया
हो, लेकिन लोक में जीवित और जीवंत परंपराएँ गहरे उतरकर जिस भावबोध से साक्षात्
कराती हैं, उन्हें सिंधु ने अपने जल से सींचा है, पाला और पोसा है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">इतिहास घूम-घूमकर आता है, स्वयं को दोहरा
लेता है। सिंधु दर्शन यात्रा ने पिछले साल ही अपने पचीस वर्षों की यात्रा पूरी की
है। वर्ष 1997 में पहली बार सिंधु दर्शन यात्रा का आयोजन हुआ था। इसका प्रारंभ सिंधु
की गौरवगाथा को गुनने-सुनने की भावभूमि पर हुआ था। पचीस वर्षों में सिंधु यात्रा
ने देश ही नहीं, विदेशों के असंख्य लोगों को जोड़ा है। सिंधु दर्शन यात्रा के आज जिस
आधुनिक संस्करण को देखते हैं, उसके पुरातन रूप को लामा-जोगी के स्वांग के साथ
अनूभूत किया जा सकता है। सिंधु के किनारे-किनारे चलने वाली धार्मिक यात्राएँ एक ओर
कैलास मानसरोवर तक, तो दूसरी ओर काश्मीर की धरती पर अमरनाथ और वैष्णवी देवी तक
चलती रहती थीं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">सिंधु का उद्गम कैलास मानसरोवर से होता है। महायान परंपरा की बौद्ध
मान्यताओं के अनुसार सिंधु का उद्गम शेर-मुख से हुआ है। कैलास की वह प्राकृतिक
निर्मिति, जो शेर के समान दिखती है, उससे सिंधु का उद्गम होता है। इस कारण लद्दाखी
भाषा में सिंधु ‘सेङ्गे खबब’ है। सिंधु के तट पर ही महाराजा पोरस ने सिकंदर की
विश्व-विजय की कामना को धूल चटा दी थी। सिंधु के जल का यह प्रभाव कह सकते हैं, कि
सिंह के मुख से निकलने वाले सिंधु का जल सिंह के सदृश वीरत्व के गुणों को धारण
करने वाला है। सिंधु के किनारे-किनारे दरद, मोन-किरात आदि प्रजातियों का निवास रहा
है। आज के जाटों की प्रजातियाँ भी यहाँ रही होंगी, ऐसे अध्ययन भी सामने आने लगे
हैं। दरदों ने कौरवों ती तरफ से और किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध लड़ा था।
सिंधु के किनारे संस्कृतियों के संघर्षों की अनेक गाथाएँ आज भी गूँजती हैं।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">सिंधु की लीलाभूमि हिमगिरि के उत्तुंग शिखरों-मेखलाओं में विस्तृत
है। सिंधु अपने साथ हिमगिरि की अन्य नदियों को मिलाकर लंबी यात्रा तय करने वाला नद
है। हिमालय का पश्चिमी भाग सिंधु के हिस्से में है। वितस्ता, चिनाब, चंद्रा, भागा
और जाङ्स्कर आदि नदियाँ सिंधु के साथ मिलकर अपना सर्वस्व अर्पित कर देती हैं। सिंधु
यदि महाबाहु हैं, सिंह के मुख से निकलकर अपने गर्जन से धरती को गुंजायमान कर देने
वाले हैं, तो पर्वतप्रदेश के अधिपति इंद्र भी कमतर नहीं हैं। वे वर्षा के देव हैं,
बादलों के प्रतिरूप हैं। कृष्ण के लिए भी इंद्र चुनौती बने थे, सिंधु के लिए भी
इंद्र चुनौती बने। विवश सिंधु को अपना रास्ता बदलना पड़ा। ऋग्वेद के द्वितीय मंडल
में पंद्रहवाँ सूक्त है-</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">सोदञ्चं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="right" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: right; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">(ऋग्वेद द्वितीय मण्डल 15वाँ
सूक्त)</span></i><i><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></i></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">इंद्र ने उषा के रथ को अपनी सेना के बल से बलहीन कर दिया, तेजहीन कर
दिया और सिंधु के मार्ग को बदल दिया। बलवान सोमरस की शक्ति के बल पर इंद्र द्वारा
सिंधु का मार्ग बदले जाने के कारण सिंधु का प्रवाह उत्तर की ओर हो जाता है। आज भी
सिंधु का प्रवाह गिलगित तक उत्तर की ओर दिखता है। स्करदो के केरस नामक स्थान पर शयोक
नदी सिंधु से मिलती है। </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">सिंधु
का प्रवाह यहाँ बदल जाता है। स्करदो में अपने साथ शिगर नदी को मिलाकर सिंधु का
प्रवाह दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर हो जाता है। स्करदो एक समय लद्दाख का भाग हुआ
करता था। स्करदो में लद्दाख की शीतकालीन राजधानी होती थी। इससे पहले यह त्रिवेणी
के समान मान्य रहा होगा। शिगर, शयोक और सिंधु की त्रिवेणी यहाँ एक समय में सनातन
परंपरा के लिए आस्था के बड़े केंद्र के रूप में रही होगी, जो कालांतर में
सांस्कृतिक संघर्षों की परतों के बीच अपने अतीत को किसी एकांत खंडहर में छिपाए हुए
होगी। अध्येताओं को यह भूमि अपनी ओर बुलाती है, आज भी...।<o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">इ</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">ंद्र
के पौरुष का आख्यान यदि भारतीय वाङ्मय से आता है, तो इसे पुष्ट करती भूवैज्ञानिक खोजें
बताती हैं, कि किस तरह टेथेस सागर बदलकर हिमालय की निर्मिति करता है, और किस तरह
सिंधु का मार्ग बनता है, जिससे सागर का जल निकलकर प्रवाहित होता है। जुरासिक काल
में हिमालय नहीं था। यहाँ टेथेस सागर की लहरें हिलोरें मारती थीं। भूगर्भीय
प्लेटों के टकराने और एक-दूसरे के ऊपर चढ़ते जाने के कारण जब हिमालय की निर्मिति
होने लगी, तब टेथेस सागर के जल की निकासी के मार्ग बनने लगे। शयोक तांतव
संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ बना, जिसने शयोक को जन्म दिया। इसी प्रवाह के कारण
प्रसिद्ध पङ्गोङ झील का निर्माण हुआ। सिंधु-शयोक तांतव संधि-क्षेत्र भी इसी
भूगर्भीय हलचल से बना, जिसमें सिंधु का प्रवाह है, और केरिस में शयोक व सिंधु का
मिलन है। पङ्गोङ की तरह कई छोटी-बड़ी झीलें सिंधु-शयोक तांतव-संधि क्षेत्र में
हैं, जिनका पानी खारा है। एकदम समुद्री है। एक समय इस संधिक्षेत्र के निवासी नमक
बनाने का काम किया करते थे, जैसा कि उड़ीसा की चिलका झील या अन्य समुद्रतटीय
क्षेत्रों में होता है। चङ्थङ् के निवासी पहले रेशम मार्ग के उपमार्ग से होकर लेह
तक नमक का व्यापार करने आते थे। आज के पाकिस्तान में उन दिनों चङ्थङ् के नमक का
स्वाद ही तैरता था। ऐसा कहा जाता है, कि वहाँ नमक बहुत कठिनाई से पहुँचता था, इस
कारण लोग नमक की बरबादी बिलकुल भी नहीं करते थे।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">शयोक और सिंधु का मिलन न केवल भूगर्भीय घटना का परिणाम है, वरन् इनके
बीच एक अलग-सा संबंध अनुभूत कर सकते हैं। हिमाचल में बारालाचा दर्रा है। इसे लोग
बड़ालाचा भी कहते हैं। यह मनोहर श्याम जोशी की कथाभूमि में भी रचता-बसता है। इसी
के चंद्रताल से निकली चंद्रा और सूर्यताल से निकला भागा का मिलन तांदी में होता
है। लाहुल-स्पीति की लोककथाओं में चंद्रा और भागा की प्रेमकथा रस ले-लेकर
सुनी-सुनाई जाती है। तांदी में जो चंद्रभागा है, वह थोड़ा आगे बढ़ते ही चेनाब हो
जाती है। इसे ही वैदिक काल की असिक्नी के रूप में जानते हैं। यह आम बोलचाल में इशकमती
हो जाती है, साथ ही अपने रूप-गुण को भी ऐसे ही निभाते चलती है। हीर-राँझा,
सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ इसी इशकमती के किनारे फलती-फूलती हैं। शयोक और सिंधु
के बीच भी यह संबंध एक कवि-मन के द्वारा देखा जा सकता है, यह हमने तब अनुभूत किया,
जब एक लंबा समय हरहराकर बहती शयोक के किनारे पर बिताया। खरतुंग से नीचे उतरती शयोक
ऐसे गरजते हुए बहती है, मानों खरतुंग से अपनी नाराजगी प्रकट कर रही हो। अगर खरतुंग
बीच रास्ते में न खड़ा होता, तो शयोक को अपने सिंधु से मिलने के लिए केरिस तक की
लंबी यात्रा न करनी पड़ती। सिंधु की तुलना में शयोक कुछ अधिक ही अल्हड़ और तीखी
है। केरिस तक, सिंधु से मिलन तक कितने बल खाती है, कितनी चालें बदलती है, कितने
नखरे दिखाती है, जरा सियाचिन की तलहठी में..... काराकोरम की छाँह में घूमकर देख तो
लीजिए।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">शयोक का गहरा नाता रेशम मार्ग से भी रहा है। जब रेशम मार्ग और उसके उपमार्ग
चलन में थे, तब कई स्थानों पर शयोक को पार करना पड़ता था। शयोक में अचानक आ जाने वाली
बाढ़ और तेज बहाव आदि रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ी मुसीबत बनते थे। शयोक
के किनारे बसे गाँवों के रहवासी तो शयोक से खासे नाराज रहते हैं। उनके खेतों और
उनकी बस्तियों को बरबाद करने में शयोक को तनिक भी देर नहीं लगती। इसी कारण नाराजगी
में ये लोग शयोक का पानी अपने खेतों में भी नहीं सींचते। आज भले ही स्थितियाँ बदल
गईं हों, लेकिन पहले के लोगों ने नदी के कारण जीवन नहीं, विस्थापन को देखा है। इसी
कारण शयोक के प्रति लोक की नाराजगी कथाओं-किस्सों में भी देखने को मिल जाती है।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">स्करदो में, जहाँ शयोक और शिगर नदियाँ सिंधु से मिलती हैं, वह
निश्चित रूप से बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा होगा। यहाँ संस्कृतियों
के संघर्ष ने, आक्रमणों की विभीषिकाओं ने भले ही बहुत-कुछ बदल दिया हो, लेकिन
सिंधु का प्रवाह जब तक रहेगा, तब तक अतीत की गौरवगाथा को, सिंधु सभ्यता को,
सप्त-सिंधु के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक वैभव को स्मरण रखा जाएगा। स्करदो से आगे बढ़कर
सिंधु के मुलतान पहुँचने पर चिनाब का मिलन सिंधु से होता है। इस संगम के निकट ही
आदित्य मंदिर है। जामवंत की पुत्री जामवंती श्रीकृष्ण की रानी थीं। इनके पुत्र का
नाम सांब था। श्रीकृष्ण के श्राप के कारण सांब कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए थे। सांब
ने सूर्य की तपस्या की। सूर्य ने प्रसन्न होकर चंद्रभागा नदी में स्नान करने को कहा।
आज भी चंद्रभागा कोढ़ ठीक करने वाली नदी के रूप में जानी जाती है। संभवतः सांब का
शासन वर्तमान मुलतान में भी रहा होगा। इसी कारण चिनाब-सिंधु के मिलन-स्थल पर सांब
ने अपने आराध्य आदित्य देव का मंदिर बनवाया। यह कोणार्क के सूर्य मंदिर की तरह का
है। आज इसके भग्नावशेष ही दिखते हैं। सांब और सांबा सेक्टर एक ऐसा साम्य उत्पन्न
करते हैं, जो अतीत की कड़ियों से वर्तमान को जोड़ता है। सिंधु नद मुलतान से आगे
बढ़ते हुए अपने साथ हिंगोल नदी को मिलाता है। पाकिस्तान के बलोचिस्थान प्रांत में माता
हिंगलाज का मंदिर है। माता हिंगलाज का यह मंदिर बावन शक्तिपीठों में से एक है।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFbLpYNNhALlpmfi7SZuO6smQhEO2E3Hs9Ey2y88F2uyfkg2nlysPyKXlWWBogwYw_ChEqwRryCGM2q74mhp_EiqbN4meW3MF6Ir1yrWI6V33ZRELOQK9SoO1951Mf5_0a1nzjPUXhzimiPyftfgBhJacAKLeCPlk4K-emjCNNmSthd4qu3FNF1Nop3Q/s1280/WhatsApp%20Image%202023-04-30%20at%2019.15.56.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="853" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFbLpYNNhALlpmfi7SZuO6smQhEO2E3Hs9Ey2y88F2uyfkg2nlysPyKXlWWBogwYw_ChEqwRryCGM2q74mhp_EiqbN4meW3MF6Ir1yrWI6V33ZRELOQK9SoO1951Mf5_0a1nzjPUXhzimiPyftfgBhJacAKLeCPlk4K-emjCNNmSthd4qu3FNF1Nop3Q/w266-h400/WhatsApp%20Image%202023-04-30%20at%2019.15.56.jpeg" width="266" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">सिंधु नद कैलास-मानससरोवर से अपनी यात्रा प्रारंभ करते हुए कराची के
दक्षिण में सिंधु सागर से मिल जाता है। सिंधु सागर नाम भी सिंधु नद के मिलने के
कारण पड़ा है। सिंधु सागर का एक नाम अरब सागर भी है, जो संभवतः तटवर्ती अरब के
देशों के कारण पड़ा होगा। सिंधु सागर के किनारे की कृष्ण की द्वारिका है। सिंधु-चेनाब
के संगम में कृष्ण के पुत्र सांब की नगरी है, आदित्य मंदिर है। सिंधु के
किनारे-किनारे उन सभी प्रजातियों का निवास है, जो महाभारत के युद्ध में कौरवों और
पांडवों के बीच बँटकर लड़ी थीं। रामायण में सिंधु महानदी है, महाभारत में सिंधु का
विस्तार है, क्योंकि महाभारत का सिंधु से बहुत गहरा नाता है। स</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">ैंधवों, गंधर्वों के क्षेत्र, वर्तमान मिथन
कोट या कोट मिट्ठन में राजा शिवि के पुत्र वृषदर्भ की राजधानी, दरदों, मोनों-किरातों
आदि के ठिकाने सिंधु के तट पर ही हैं। ये सभी महाभारत के महासंग्राम के साक्षी रहे
हैं। सिंधु नद और उसकी सखियाँ हिमगिरि के लीलाभवन में न केवल भौगौलिक निर्मितियाँ
गढ़ती हैं, वरन् अनेक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक संदर्भों को
सहेजती हैं। कभी हिमगिरि के लीलाभवन में इनके स्वरों को सुनिए.... मौन होकर, ध्यान
लगाकर, चिंतन में गहरे उतरकर, इतिहास की परतों को उलट-पलटकर...। अनेक अनसुनी
कहानियाँ, अनेक अनकहे किस्से, ढेरों बातें इनके प्रवाह में आपको मिलेंगी। पर्यटक
के रूप में नहीं, सैलानी के रूप में नहीं... अपनी संस्कृति और अपने धर्म के प्रतिनिधि
बनकर इनके तट पर आइए तो...। </span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;">
</p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;">(कश्फ़, अमृतसर, संयुक्तांक- 2022-2, 2023-1, वर्ष-21-22, पंज- 13-14,
दिसंबर, 2022 से जून 2023 अंक में प्रकाशित)</span></i><i><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 17pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></i></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: center;"><br /></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-64204593658742202222023-04-17T20:23:00.007+05:302023-04-17T20:30:26.428+05:30लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र<p> </p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;"></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"><b><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 24pt; line-height: 107%;"></span></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgk1-qCCOhL9QdU7qXCdEOrqykstuoVxWWbAf6FZQf8ft4yn5bi7qKk8ex_HNan8B4V4HaxMXxFY_GPPaUf3JQuDjRgzRvdbxa45PRQUwSZOwe1oB56dYrf8pRnNdzgv7jn535JXfBqAGX3KRAVDcsAAGuv7fYp2IxL9OJZctcy8N7nO9KiEQPPG2lPGA/s1516/WhatsApp%20Image%202023-04-17%20at%2008.30.06.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1516" data-original-width="1080" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgk1-qCCOhL9QdU7qXCdEOrqykstuoVxWWbAf6FZQf8ft4yn5bi7qKk8ex_HNan8B4V4HaxMXxFY_GPPaUf3JQuDjRgzRvdbxa45PRQUwSZOwe1oB56dYrf8pRnNdzgv7jn535JXfBqAGX3KRAVDcsAAGuv7fYp2IxL9OJZctcy8N7nO9KiEQPPG2lPGA/w456-h640/WhatsApp%20Image%202023-04-17%20at%2008.30.06.jpeg" width="456" /></a></b></div><p align="center" class="MsoNormal" style="text-indent: 1cm;"><b><b><span lang="HI" style="font-size: 24pt; line-height: 107%;">लद्दाख
: कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र</span></b><b><span style="font-size: 24pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></b></b></p><p></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;">लदाख
का नाम आते ही एकदम अलग तरह की छवि मन में बनने लगती है। शीत की अधिकता के बीच किस
तरह जीवन बीतता होगा, यह चिंता हर किसी के मन में आ जाती है। शीत की अधिकता के
बीच, वीरान-सी पर्वतमालाओं के बीच, जहाँ हरियाली और चहल-पहल दूर-दूर तक दिखाई नहीं
देती, वहाँ मन का रंजन, कलात्मकता का विस्तार आखिर कैसे होता होगा? यह प्रश्न हर
किसी के मन में उठता है। वस्तुतः सच्चाई इसके विपरीत है। भले ही जीवन की रंगीनियाँ,
चहल-पहल लद्दाख में कम हों, लेकिन कलात्मकता में लद्दाख बेजोड़ है, अनुपम है। </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;">लद्दाख
एक समय में सिल्क रूट या रेशम मार्ग का हिस्सा होता था। इस कारण अनेक संस्कृतियाँ,
सभ्यताएँ यहाँ से गुजरीं और ठहर-ठहर कर इस बर्फीले रेगिस्तान में अपनी छवियाँ बिखेरती
रहीं हैं। भारतीय संस्कृति से अनुप्रणित लद्दाख में न केवल बौद्ध धर्म की
सर्वस्तिवादी शाखा का विस्तार हुआ, वरन् कालांतर में तिब्बत से होते हुए महायान
परंपरा का विस्तार भी हुआ। हिमाचलप्रदेश के रिवाल्सल (रिवरसल) से गुरु पद्मसंभव का
धार्मिक अनुष्ठान न केवल तिब्बत तक गया, वरन् लद्दाख अंचल में भी विस्तृत हुआ।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;">लद्दाख
में भारतीय बौद्ध परंपरा ही नहीं आई, अनेक कला शैलियाँ और स्थापत्य का भी आगमन
हुआ। इसी कारण आज के लद्दाख में जगह-जगह कलात्मक मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं।
बौद्ध मंदिरों-मठों, जिन्हें लद्दाख में ग</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">ो</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;">नपा कहा जाता है, अनेक प्रकार के देवी
देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित होकर आस्था के केंद्र के रूप में जाने जाते हैं।
लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही धातु से बनी, संगमरमर आदि कीमती पत्थरों
से बनी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;">अगर
लद्दाख की मूर्तिकला के अतीत में उतरकर देखें, तो पता चलता है कि लद्दाख में सबसे
पहले पाषाण मूर्तिकला का प्रचार हुआ। लदाख में इस कला का प्रचार-प्रसार काश्मीर शासक
ललितादित्य (</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 20pt; line-height: 150%;">724-760) <span lang="HI">के समय या इसके आस-पास</span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span lang="HI">हुआ</span></span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">। दसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध अनुवादक लोचावा रिनछेन जङ्पो
(958-1055) तिब्बत से काश्मीर आए और वापस लौटते समय अपने साथ काश्मीर से अनेक
कलाकारों को लेते आए। लोचावा रिंचेन जङ्पो के प्रयासों से लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों
के साथ ही काष्ठ-मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। उनकी जीवनी से ज्ञात होता है,
कि उन्होंने अपने पिता की स्मृति में काश्मीर में भीधक नामक एक कुशल शिल्पकार से
अपने पिता के शरीर के बराबर महाकारुणिक आर्यावलोकितेश्वर की एक मूर्ति का निर्माण
करवाया, जिसका प्रतिष्ठापन गुरु श्रद्धाकर वर्मा ने किया था। इस मूर्ति का निर्माण
धातु को पिघलाकर किया गया था। </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">लोचावा रिनछेन जङ्पो काश्मीर से अपने साथ बत्तीस
कलाकारों को लेकर लद्दाख आए थे। इन कलाकारों में मृण्मूर्ति</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">, </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">काष्ठ-मूर्ति</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">, </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">धातु
की मूर्ति बनाने वाले कुशल शिल्पकारों के अतिरिक्त कुशल चित्रकार भी सम्मिलित थे।
ये कलाकार लद्दाख के अलग-अलग स्थानों में बस गए और अपनी कला की अनेक बानगियाँ यहाँ
बिखेरते रहे। लोचावा रिंचेन जङ्पो द्वारा आज से लगभग 1000 वर्ष पहले बनवाया गया अलची
बौद्ध विहार न केवल लद्दाख, वरन् पुरातन भारतीय स्थापत्य कला की अद्भुत निशानी है।
लोचावा के साथ आए कलाकारों द्वारा यहाँ अनेक देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ बनाई
गईं हैं। साथ ही भित्तिचित्र भी बनाए गए हैं। इनमें पत्थर के परंपरात रंगों का
प्रयोग किया गया है। भवन की निर्मिति भी ऐसी है, कि अनेक वर्षों तक मौसम की मार
झेलकर भी अपने स्थापत्य के सौंदर्य को, अपनी मूर्तिकला की धरोहर को सहेजे हुए है। </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">लोचावा रिनछेन सङ्पो के पश्चात लद्दाख के कलाप्रिय और
धर्मभीरु राजाओं ने मूर्ति-निर्माण कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। प्रस्तर और धातु
की मूर्तियों के साथ ही मृण्मूर्तियों के निर्माण का प्रचलन लद्दाख में आया।
मिट्टी से बनी मूर्तियाँ धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष अंग बनने लगीं। धर्मराज
ल्हछेन ङोसडुब गोन, धर्मराज डगपा बुम दे, राजा टशी नमग्याल, धर्मराज सेङ्गे
नमग्याल और धर्मराज देलदन नमग्याल ने अपने राज्यकाल में अनेक मूर्तियों का निर्माण
कराया, जो वर्तमान में लद्दाख के विभिन्न अंचलों के बौद्ध मठों-मंदिरों (गोनपाओं) में
स्थापित हैं, और लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य का प्रदर्शन कर रहीं हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">लद्दाख में बनने वाली मृण्मूर्तियों में काश्मीर की
मूर्तिकला के साथ ही प्राचीन गांधार शैली के दर्शन होते हैं। लद्दाख में प्रमुख रूप
से बुद्ध, बोधिसत्व, आर्य अवलोकितेश्वर, आर्य मंजुश्री, मैत्रेय, वज्रपाणि के साथ
ही तंत्रयान के देवी, देवता, रक्षक आदि की मूर्तियों का निर्माण होता है। मूर्ति-निर्माण
से संबंधित विभिन्न ग्रंथों की रचना भारतीय शास्त्रों के आधार पर की गई है।
स्तनग्युर में बौद्ध कला और शिल्प के रूप में ये पृथक ग्रंथ के रूप में संग्रहीत
हैं। मूर्ति-निर्माण परंपरा यहाँ गुरु-शिष्य के रूप में चलती है। एक गुरु के अनेक
शिष्य इस कला को विस्तार देते हैं। मूर्तियों के निर्माण के लिए पुराने समय में मूर्तिकारों
द्वारा ही सामग्री तैयार की जाती थी। वर्तमान में भी यह परंपरा चल रही है। लद्दाख
में पाई जाने वाली चिकनी पीली मिट्टी के साथ ही मोटा कपड़ा और धागा-साँचा आदि
प्रयोग में लाया जाता है। मूर्ति का साँचा बनाकर उसमें लेपन करके फिर रंग भरे जाते
हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;">बौद्ध शास्त्रों के अनुसार मूर्ति के शीर्ष मुकुट से
लगाकर चरण तक अलग-अलग मंत्र हैं, जिन्हें लिखकर मूर्ति के निश्चित भागों में डालना
होता है। इसे धारणी कहते हैं। धारणी के अतिरिक्त धातु,अन्न, वस्त्र आदि भी मूर्ति
के अंदर डाले जाते हैं। इसके पश्चात् बौद्ध आचार्यगण मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा
करते हैं। लद्दाख के विभिन्न मठों-मंदिरों में अनेक प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं।
इसके साथ ही विभिन्न स्थानों पर स्थापित की गईं मूर्तियाँ लद्दाख की मूर्तिकला के
वैशिष्ट्य को दिखाती हैं। समय के बदलाव के साथ सीमेंट और प्लास्टर आफ पेरिस से भी
मूर्तियाँ बनाने का चलन लद्दाख में आया है। इसमें तैलीय रंगों का प्रयोग भी नया
है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; text-indent: 1cm;">कुल मिलाकर लद्दाख की पहचान का एक बड़ा हिस्सा लद्दाख की
विशिष्ट मूर्तिकला से बना है। लद्दाख में अनेक कलात्मक मूर्तियों का निर्माण होता
है, जो देश ही नहीं दुनिया के अनेक हिस्सों में सजावट के लिए जाती रहती हैं।</span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMx-jiSjKi3u4NpUltsvM0UzV-7ecw6O1gvpGLiZh9o3hMwZZS3J8oHbB7Uk01ezzgzyWvGh1ePv8ghsFZuXArrQ7Mj594_Y9pIPrx08rDrEhHmSMdbmXle9tm56GNotgyFvaSnsYHzRwKoNQSJgqxtecbbCjHXZS2hfqiiUH1YhOdTsoNaOQsHRiO3A/s1486/WhatsApp%20Image%202023-04-17%20at%2008.30.05.jpeg" style="clear: right; display: inline !important; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1486" data-original-width="1080" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMx-jiSjKi3u4NpUltsvM0UzV-7ecw6O1gvpGLiZh9o3hMwZZS3J8oHbB7Uk01ezzgzyWvGh1ePv8ghsFZuXArrQ7Mj594_Y9pIPrx08rDrEhHmSMdbmXle9tm56GNotgyFvaSnsYHzRwKoNQSJgqxtecbbCjHXZS2hfqiiUH1YhOdTsoNaOQsHRiO3A/w291-h400/WhatsApp%20Image%202023-04-17%20at%2008.30.05.jpeg" width="291" /></a></p><br /><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><br /></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 20pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><i>(मासिक पत्रिका हस्ताक्षर, इंदौर, मध्यप्रदेश के अप्रैल,
2023 अंक में प्रकाशित)</i><o:p></o:p></span></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-53856813544673873072023-04-02T20:57:00.003+05:302023-04-02T20:57:51.064+05:30पंजाब : कल से कल तक.....<div class="separator" style="clear: both;"><span><br /></span><span style="display: block; padding-bottom: 1em; padding-top: 1em; text-align: center;"><a href="goog_1682985592"><span><img alt="" border="0" data-original-height="807" data-original-width="577" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEicGb5OPSBma1VwzS5pXM51WC7UJixdby83Dbl90Dqa-R2tz_860lIxZroyh89v60OFeXpWXbzWSLt0Joe4So-QRLuGzwxCBHQjnjn7TEbgZX49tRd2_sYbSCBsYYoVg_tk7CuGSt0pSQUNCWpjKSn7p2_9T8dQr2_e8e80mU8esx5TGsqMBn0RCC5mTw/w458-h640/Screenshot%202023-04-02%20180412.png" width="458" /></span></a></span></div><div class="separator" style="clear: both;"><p align="center" class="MsoNormal" style="display: block; padding: 1em 0px; text-align: center;"><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 37.0933px;">पंजाब : कल से कल तक.....</span></b></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">पंचनद,
अर्थात् </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">पंजाब....। सतलुज,
व्यास, रावी, चेनाब और झेलम नदियों से सिंचित पंचनद.....। धन-धान्य से परिपूर्ण और
उल्लास-उमंग में जीने वाला पंजाब</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;">….</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">। ढोल
की थाप पर थिरकते पाँव, भांगड़ा और गिद्दा नृत्यों की उल्लासपूर्ण भंगिमाओं के बीच
स्वाभाविक-सहज उमंग को साझा करते पंजाबी लोगों के साथ खड़े अन्य लोग भी उसी उमंग
और उल्लास में डूब जाते, डूबते ही चले जाते। मक्के दी रोटी, सरसों दा साग पंजाब की
अपनी पहचान गढ़ता है। तंदूरी रोटी भी चाव से खाई जाती...। पंजाब की लस्सी का बड़ा-सा
गिलास और स्वादिष्ट लस्सी के आस्वाद को कौन भुला सकता है? सतलुज, व्यास, रावी
नदियों की अठखेलियाँ करती प्रवाह-राशियाँ कितनी ही उल्लासपूर्ण जीवनगाथाएँ अपने साथ
लेकर चलती हैं, इन सबका वर्णन करना समय की सीमा के पार निकल जाना होगा।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">चाहे
भांगड़ा-गिद्दा नृत्य का उल्लास हो, चाहे सरसों की रोटी और मक्के के साग का स्वाद
हो, चाहे असिक्नी के साथ गुनी-सुनी जाती अनेक लोकगाथाएँ-प्रेम के गीत हों, चाहे ‘पंजाब
पुत्र’ दुल्ला भट्टी की अनेक लोकगाथाओं की बात हो... यह धरोहर पंजाब के साथ ही
पूरे भारत की है। समूचे भारत देश में सरसों का साग ओर मक्के की रोटी, लस्सी का
गिलास, लोहड़ी का त्योहार, तंदूर की रोटी, भांगड़ा का नाच पंजाब को अपने साथ जोड़
लेता है, पंजाब के साथ हो लेता है। यह केवल बाहर दिखने वाला जुड़ाव नहीं है, वरन्
हृदय की अनंत गहराइयों के साथ इस जुड़ाव को देखा और समझा जा सकता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">अतीत की
परतों को खँगालें, तो अनेक ऐसे प्रसंग और तथ्य निकलकर आते हैं, जो पंजाब की गौरवपूर्ण
गाथा को गर्व के साथ गुनगुनाते-दुहराते हैं। रामचंद्र शास्त्री द्वारा रचित एक
पुस्तक- पंजाब के नवरतन का उल्लेख करना यहाँ बीते हुए कल के पंजाब के संदर्भ में, पंजाब
के अतीत के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगा। रामचंद्र शास्त्री ने पंजाब के अनेक
महापुरुषों के मध्य से नौ ऐसे श्रेष्ठतम महापुरुषों के जीवन-चरित से इस कृति में
साक्षात् कराया है, जिनका नाम देश ही नहीं, दुनिया के लिए भी अनजाना नहीं है</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;">, </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">जिन पर
सारे देश को गर्व ही नहीं, जिनसे एक आस्था भी जुड़ी है। शास्त्री जी ने इस कृति
में महाराज पुरु (पोरस), गुरु नानक, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, धर्मवीर हकीकत
राय, महाराजा रणजीत सिंह, सरदार हरिसिंह नलवा, स्वामी रामतीर्थ और लाला लाजपत राय
के जीवन-चरित को उकेरा है। पंजाब के इन नवरतनों के अतिरिक्त असंख्य ऐसे वीर पंजाब
की धरती पर जनमे हैं, जिन्होंने धर्म-रक्षा, राष्ट्र-रक्षा, समाज-कल्याण, सीमांत
सुरक्षा और मानव-मूल्यों के विस्तार में अप्रतिम योगदान दिया है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">गुरु
नानक की उदासियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके सबद, उनके कीर्तन-भजन और उनके उपदेश देश
ही नहीं, दुनिया में किस तरह से प्रचारित-प्रसारित हुए, यह कहने की आवश्यकता नहीं
है। मानव के कल्याण के लिए, विश्व को एक परिवार की तरह जीने की सीख देने के लिए वे
जीवन-पर्यंत यात्रा करते रहे। गुरु नानक लद्दाख भी पहुँचे, तिब्बत के साथ भी उनका
जुड़ाव हुआ। इसी कारण उनको महायान बौद्ध परंपरा के निङ्मा संप्रदाय में नानक लामा
के रूप में स्थान प्राप्त है। एक समय था, जब तिब्बत के निङ्मा संप्रदाय के धर्मभीरु
लोग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने और स्नान करने अवश्य जाते थे। स्वर्ण
मंदिर भारतीय समाज के लिए आस्था का केंद्र सदैव रहा है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">सिखों
की गुरु-परंपरा में सभी गुरुओं का जीवन अनुकरणीय रहा है। विशेष रूप से संत सिपाही
गुरु गोविंद सिंह का जीवन धर्म की रक्षा के लिए ही समर्पित रहा। उन्होंने मुगलों
के साथ चौदह लड़ाइयाँ लड़ीं, और अपने जीवनकाल में अपने पूरे परिवार का ही बलिदान कर
दिया। इसी कारण सरबंसदानी के रूप में गुरु गोविंद सिंह को जाना जाता है। उनके चलाए
खालसा पंथ के उद्घोष- जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल, वाहे गुरु जी का खालसा,
वाहे गुरुजी की फतह..., को सुनकर मन आस्था के समंदर में गोते लगाने लगता है। इसी खालसा
पंथ से लंगर की परंपरा आती है। गुरुद्वारों में बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी
ऊँच-नीच के एक साथ एक पंगत में सबको भोजन मिलता है। नर सेवा ही नारायण सेवा का यह
अनूठा उपक्रम अतुलनीय है, वंदनीय है। </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">पंजाब
वीरों की धरती रही है। वृहत्तर पंजाब के शूरवीर महाराजा पोरस की वीरता, उनका
पराक्रम अन्यतम् है। महाराज पोरस की गथाएँ आज भी गर्व के साथ सुनी-सुनाई जाती हैं।
अखंड भारतवर्ष की सीमा पर जिस प्रकार वे डटे रहे, उस गाथा का स्मरण आज भी असीमित
गर्व भर देता है। यही शौर्य भाव महाराजा रणजीत सिंह के व्यक्तित्व में दिखता है,
जिन्होंने विषम स्थितियों के मध्य वृहत्तर पंजाब का अस्तित्व बनाए रखा। लाला
लाजपतराय जिस तरह अंग्रेज शासकों के सामने डटकर खड़े थे, वह तब भी प्रेरणा का
स्रोत था, और स्वतंत्रता के बाद भी आने वाली पीढ़ियों को सदैव स्वातंत्र्य-चेतना
की प्रेरणा देता रहेगा। सरदार भगत सिंह प्रभृति अनेक क्रांतिवीरों का जीवन भी प्रेरणा
का स्रोत है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">पंजाब
के गौरवपूर्ण अतीत के एक अन्य अध्याय की चर्चा के बिना बात कुछ अधूरी-सी रह जाएगी।
एक पुस्तक हाल ही में आई है- भारतीय छंद परंपरा में पंजाब के रीत्याचार्य कवि। पुस्तक
की लेखिका हैं- डॉ. अतुला भास्कर। पुस्तक यद्यपि साहित्यिक शोध-प्रबंध के स्तर की
है, तथापि इस कृति का अनुशीलन पंजाब की साहित्यिक और लोक परंपरा के संदर्भों में
भी किया जा सकता है। पंजाब के रीत्याचार्य कवि, जैसे- आचार्य गिरधारी, आचार्य
हरिरामदास निरंजनी, आचार्य निहाल सिंह, आचार्य बदन सिंह, आचार्य प्रमोद आदि
संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परंपरा के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जिनके साहित्यिक योगदान
को पंजाबी-गुरुमुखी और संस्कृत के मध्य एक सेतु के रूप में देखा जा सकता है। पंजाब
के इन रीत्याचार्य कवियों की गुरुमुखी में रचित रचनाएँ पंजाब के साहित्य को समृद्ध
करने के साथ ही साहित्य के स्तर पर राष्ट्र की एकता के भाव से सुवासित प्रतीत होती
हैं।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">कुल
मिलाकर अतीत के पंजाब की, बीते कल के पंजाब की ये कुछ ऐसी बाते हैं, जिन्हें आज के
संदर्भों में अनुभूत करना न जाने क्यों वर्तमान की जटिलता के मध्य अतीत की सुंदर
स्मृतियों में खो जाने जैसा ही लगता है। पंजाब की सांस्कृतिक समृद्धि, पंजाब का
धन-धान्य से पूर्ण समाज-जीवन, पंजाब के वीरों का शौर्यभाव, पंजाब का नरसेवा ही
नारायण सेवा का भाव आज से नहीं, वरन् अतीत के पिछले कई कालखंडों से आक्रांताओं को
खटकता रहा होगा, विधर्मियों और विस्तावादियों को खटकता रहा होगा, इसे जानकर ही आज
की स्थितियों का विश्लेषण कर सकते हैं। पंजाब को लूट लेने, पंजाब को बाँट देने और यहाँ
की शांति को अशांति में बदल देने के प्रयास लंबे समय से होते रहे हैं। महाराजा
पुरु से लगाकर महाराजा रणजीत सिंह तक कितने महान वीरों ने इन अलगाववादी-विघटनकारी
तत्त्वों से संघर्ष किया। गुरु गोविंद सिंहजी ने तो अपने पूरे परिवार का ही बलिदान
दे दिया। आक्रांताओं के कृत्यों से, उनके दुष्चक्रों से इतिहास भरा पड़ा है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">देश के
विभाजन के साथ हमने पंजाब और बंगाल के विभाजन को जो दंश झेला है, उसे भविष्य कितने
लंबे समय तक अपने दामन में काँटों की तरह अनुभूत करेगा, कहना कठिन है। एक ओर बंगाल, तो दूसरी ओर पंजाब अंग्रेज शासकों के लिए
सदैव चुनौतीपूर्ण रहा। इसी कारण इन दोनों के विभाजन की नीति चली जाती रही। देश के
विभाजन के साथ बंगाल भी बँटा, और पंजाब भी...। झेलम और चेनाब पंचनद से अलग हो
चलीं। विभाजन की त्रासदी ने पंजाब को बहुत भीतर तक तोड़ा, लेकिन पंजाब का उत्सवधर्मी
समाज इस टूटन उबरकर फिर अपने अस्तित्व को देश की समृद्धि के साथ जोड़ने लगा। मेहनत
के बल पर पंजाब ने फिर कृषिकार्य एवं अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित
किया।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">पंजाब जिस
तरह विभाजन की विभीषिका को झेलकर आया था, उस ‘बुरे स्वप्न’ को भुलाकर जितनी तेजी
से मुख्यधारा में लौटा, और समृद्धिशील हुआ, वह भारत के अन्य प्रांतों के संदर्भ में
अद्वितीय ही कहा जाएगा। तमाम विपरीत स्थितियों के बाद भी लंगर न कभी रुका, और न कभी
कोई भूखा सोया। लेकिन यह कथा यहीं आकर ठहर नहीं जाती है। आज ऐसा लगता है, मानों यह
सब किसी दिवास्वप्न की तरह है। कल की बातें आज के समय की जटिलता के साथ अपना साम्य
नहीं बैठा पा रहीं, ऐसा भी अनुभूत होता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">वर्ष
2016 में एक फिल्म आई थी- उड़ता पंजाब। अनेक विवादों के बीच इस फिल्म ने कितने ही
सवाल पंजाब से लगाकर सारे देश के सामने उछाल दिए थे। कई सवालों के उत्तर तो हम न
चाहकर भी ‘हाँ’ में देने के लिए विवश थे। अतीत के पंजाब की गौरवगाथाओं का स्मरण
करते-कराते कई-कई बार वर्तमान की विषमता स्वीकार नहीं हो पाती, किंतु कबूतरबाजी (चोरी
छिपे विदेश जाना), प्रतिबंधित नशीले पदार्थों की तस्करी सहित अपराध की बड़ी दुनिया
के साथ पंजाब का वास्ता आज के समय की बड़ी सच्चाई है, नहीं नकारी जा सकने वाली
सच्चाई है। पृथक खालिस्तान की माँग के साथ किन रास्तों का चयन कर लिया गया, अपराध
और आतंक के किन गलियारों की तरफ मुड़ लिया गया, वह आज किसी से छिपा हुआ नहीं है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">हाल ही
में नार्को-टेरर मॉड्यूल को अमृतसर पुलिस ने पकड़ा है, भंडाफोड़ किया है। ऐसा भी
कहा जा रहा है, कि ऐसी आतंकी गतिविधियों और कामों के लिए हमारा पड़ोसी देश भी सहयोग
दे रहा है। सच्चाई कुछ भी हो, लेकिन पंजाब के उल्लासपूर्ण वातावरण में आज न तो
उमंग-उल्लास दिखता है, और न ही भयमुक्तता। एक अलग-सी ही हवा पंजाब में चल रही है।
कई आतंकी गतिविधियाँ और टेरर मॉड्यूल विगत वर्षों में सामन आए हैं। इनमें विभाजनकारी
घटक भी जुड़े हुए हैं, जो एक अलग देश की मंशा पाले हुए भारत-विरोधी गतिविधियों में
संलिप्त रहते हैं। विरोध का स्तर भी ऐसा है, कि भाषा से लगाकर भूषा तक, हर किसी का
विरोध है। इस पूरे अभियान के तार देश के अंदर भी जुड़े हैं, और विदेश तक फैले हैं।
विदेशों में छिटपुट आंदोलन की घटनाएँ और साथ ही मंदिरों में तोड़फोड़ की घटनाएँ पृथकता
की, अलगाव की पराकाष्ठा की स्थितियाँ बताती हैं। पृथकता के उन्माद में कई बार उन
लोगों के साथ भी गलबहियाँ दिखाई देती हैं, जिन लोगों का अतीत गुरुओं पर कुठार चलाने,
प्रहार करने, अमानवीय अत्याचार करने के लिए जाना जाता है।</span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">यह
बदलते पंजाब की एक झलक है, आज के पंजाब का यथार्थ है। पंजाब में साँझा चूल्हा की
परंपरा भी रही है, अर्थात् मिल-जुलकर रहने-खाने की परंपरा। उस पंचनद में आज कितने
साँझा चूल्हा होंगे, कहना कठिन लगता है। देश को छोड़कर अलग देश बनाने की मानसिकता
ने कितने स्तरों पर उन सूक्ष्म तंतुओं को, संबंधों के कोमल धागों को विचलित और
कमजोर किया है, यह गहन चिंतन का विषय है। यदि सांप्रदायिक सद्भाव वैमनस्य में बदल रहा
है, तो यह चिंता का विषय है। यदि सामाजिक समरसता के स्थान पर क्षेत्रीयता और
असहिष्णुता का विस्तार हो रहा है, तो यह चिंता की बात है। यदि भय का साम्राज्य बढ़
रहा है, तो चिंता का विषय है। आज के पंजाब के सामने ये विषय चिंतन के लिए भी हैं,
और यक्ष-प्रश्न ती तरह खड़े हुए भी हैं। कहा जाता है, कि एक मछली सारे तालाब को
गंदा कर देती है, बदनाम कर देती है। विघटनकारी तत्त्वों के कृत्यों और आपराधिक-आतंकी
गतिविधियों के कारण छवि धूमिल हो रही है। ऐसी दशा में समाज के जागरूक लोगों का
दायित्व बहुत बढ़ जाता है। आज भी पंजाब का बहुसंख्य समाज अपने गौरवपूर्ण अतीत की
थाती को सहेजे चल रहा है, और उसे ही इन स्थितियों को रोकने के लिए आगे आना होगा। </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 20pt; line-height: 115%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="display: block; line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">विषमताओं
के मध्य कई ऐसे भी पक्ष हैं, जो भविष्य की आश्वस्ति देते हैं, एक आश्वासन देते
हैं, कि पंचनद के नवरतनों सहित अनेक संतों, गुरुओं के साथ समस्त भारत का जुड़ाव,
संस्कृति के विभिन्न सूत्रों का परस्पर गुंथन वर्तमान की विषमता का शमन कर सकेगा। अलगाववादियों
की नीति-नीयत भी अधिक समय तक चल नहीं सकेगी। भय का वातावरण भी दूर होगा। गुरुबानियाँ,
गुरुओं की शिक्षाएँ अमल में लाई जाने लगेंगी। गुरु तेग बहादुर जी की सीख व्यवहार
में उतरेगी।</span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt;">भै काहू केउ देत नहिं, नहिं
भै मानत आन ।।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin: 12pt 0cm; padding: 1em 0px; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; text-indent: 1cm;">कहु नानक सुनि रे मना, गियानी ताहि बखान।।</span></p><span style="display: block; padding: 1em 0px; text-align: center;"><a href="http://"><span><img alt="http://" border="0" data-original-height="748" data-original-width="546" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmGM6us1XmcA1haCRrXb4CtpwhGTQVlSyEfH2zF3HEAx9dAQZKveExKixX7psBwYXIJ6lmuoDRLSKkadN4TF8TK7PKMZMriY9i9nzA2UcSTbJihF4eBRLYfpZhERfdQ4ERP1PAWiLve72dBW1AxHHdGEqGr7vAcLiQGNias6d4Otk1im6aWNnks4Slag/w468-h640/Screenshot%202023-04-02%20184833.png" width="468" /></span></a></span></div>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-67091222565456454952023-01-01T12:31:00.005+05:302023-01-01T12:31:59.233+05:30जी-20 की अध्यक्षता : नए भारत का वैश्विक-सूचकांक<p><span style="background-color: #f3f3f3; color: white;"> </span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgz822_FY-qUSZrwKSWTjLG33mQW-g9jxPHxbEaKKQlYPECa4mXNgjpiDWpqzVnD09NsxoXpjrEv96nqQlf8rY2D-eYFYDzAxQxXRZm7aTT2kGI5trQ3yoPCTHtoAF35RnIap5I9BFJmss0Fpr6Bv70iuTMzUhNLQgvI_f7umNsBPh6jXHCvZTqlDWpAA/s822/Screenshot%202023-01-01%20112406.jpg" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 29.3333px; font-weight: 700; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-indent: 37.7953px;"><span style="background-color: ; color: white;"><img border="0" data-original-height="822" data-original-width="631" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgz822_FY-qUSZrwKSWTjLG33mQW-g9jxPHxbEaKKQlYPECa4mXNgjpiDWpqzVnD09NsxoXpjrEv96nqQlf8rY2D-eYFYDzAxQxXRZm7aTT2kGI5trQ3yoPCTHtoAF35RnIap5I9BFJmss0Fpr6Bv70iuTMzUhNLQgvI_f7umNsBPh6jXHCvZTqlDWpAA/w492-h640/Screenshot%202023-01-01%20112406.jpg" width="492" /></span></a></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-color: ; font-size: 22pt; line-height: 107%;"><span style="color: white;">जी-20 की अध्यक्षता : नए भारत का वैश्विक-सूचकांक<br /></span></span></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><span style="color: white;"><br /></span></b></div><p></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">इस वर्ष (2022) के दिसंबर माह का पहला दिन भारत के
लिए असीमित प्रसन्नता और गर्व का क्षण लेकर आया। </span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">जी-20, अर्थात् बीस देशों
के समूह की अध्यक्षता का अवसर भारत को मिला है। वैसे तो विगत वर्ष दिसबंर माह में
ही इसकी आधारशिला रख दी गई थी, जब भारत जी-20 ट्रोइका में सम्मिलित हुआ था। वर्ष
भर बाद यह सुखद क्षण जब भारत के हिस्से में आया, तो भारत के अंदर ही नहीं, वैश्विक
नेतृत्व की भारत की क्षमता को देखने-समझने वाले विश्व के अनेक देशों में इस
प्रसन्नता की लहर को देखा गया है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">ग्रुप-20 विश्व के ऐसे बीस
देशों का संगठन है, जिसमें महाद्वीपीय विविधता के साथ ही आर्थिक संपन्नता के स्तर
पर विकसित और विकासशील देशों की विविधता भी है। यदि भारत के संदर्भ में कहें, तो
भारत के सीमावर्ती-पड़ोस के संबंधों का भी बड़ा पक्ष इससे जुड़ा हुआ है। जी-20 में
भारत का ऐसा पडोसी भी है, जिसके साथ संबंधों की बुनावट समय-समय पर जाँची-परखी जाती
है। चीन की जी-20 में उपस्थिति भारत के संबंध में एक अलग आयाम गढ़ती है, एक अलग
असर छोड़ती है। इसी कारण विगत वर्ष जी-20 ट्रोइका में भारत का नाम आते ही वैश्विक
हलचल के साथ ही एशिया उपमहाद्वीप में भी बड़ी हलचल देखी गई थी। स्वाभाविक ही था,
कि अपने पड़ोसी को वैश्विक मंच पर अध्यक्ष की आसंदी के निकट देखना भारत के
स्वाभाविक विरोधियों को सहन नहीं हुआ होगा। कहना न होगा कि भारत की उत्तरी सीमा पर
पूरब से लगाकर पश्चिम तक अराजकता व आतंक का समूचा परिवेश संभवतः इसी कारण गढ़ा गया
होगा, कि भारत की ओर से किसी भी तरह की पहल करने पर विश्व मंच में भारत के विरुद्ध
एक माहौल बनाया जाए, ताकि जी-20 की अध्यक्षता का अवसर भारत के हाथ से निकल जाए। लेकिन
ऐसा नहीं हो सका, और जी-20 ट्रोइका में सम्मिलित भारत को अध्यक्षता मिल गई।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">जी-20 ट्रोइका में तीन देश
होते हैं। तीन देशों का एक छोटा समूह होता है, जिसमें जी-20 के वर्तमान अध्यक्ष के
साथ ही पूर्व अध्यक्ष और भावी अध्यक्ष होते हैं। दिसंबर 2021 में भारत के इस
ट्रोइका में सम्मिलित होने के साथ ही इस वर्ष के लिए भारत की अध्यक्षता तय हो गई
थी। इंडोनेशिया के बाली में संपन्न हुए सम्मेलन में भारत को अध्यक्षता के लिए
नामित किया गया। इसके साथ ही भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री मोदी को अध्यक्ष देश के
प्रतिनिधि के रूप में सेशन हैमर (लकड़ी का हथौड़ा) दिया गया। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति
जोको विडोडो से अध्यक्षता के प्रतीक के रूप में लकड़ी के इस हथौड़े को बहुत गर्व
के साथ ग्रहण करते और प्रदर्शित करते हुए भारत के सम्मान्य प्रधानमंत्री के चित्र
सोशल नेटवर्किंग के पटलों पर खूब प्रसारित हुए थे। सारे विश्व में फैले भारतवंशियों
के लिए भी यह बहुत गौरव और गर्व का क्षण था। यह लकड़ी का हथौड़ा उन बीस देशों के
समूह की अध्यक्षता का प्रतीक है, जिनका सारी दुनिया में वर्चस्व और बोलबाला है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_isVutuHReCoQoJf9gtI3W1la-ci1bazDO1k5kZQpBvFNaZhspTnsl1EXOhve_x8BZZuJkVSpA47IUR2Aevg817cedRRMnb-MpHLG_mdVP8yCIBki93PxU2wmtoJALCJ1Cg-QrSILwWV4SW91EUdIZeUT-NAmG8gql1Je_UcI13JacyfDjX4uzGtC8g/s843/Screenshot%202023-01-01%20112508.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-indent: 37.7953px;"><span style="background-color: #f3f3f3; color: white;"><img border="0" data-original-height="843" data-original-width="611" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_isVutuHReCoQoJf9gtI3W1la-ci1bazDO1k5kZQpBvFNaZhspTnsl1EXOhve_x8BZZuJkVSpA47IUR2Aevg817cedRRMnb-MpHLG_mdVP8yCIBki93PxU2wmtoJALCJ1Cg-QrSILwWV4SW91EUdIZeUT-NAmG8gql1Je_UcI13JacyfDjX4uzGtC8g/w290-h400/Screenshot%202023-01-01%20112508.jpg" width="290" /></span></a><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">जी-20 समूह को आर्थिक रूप
से विश्व के सबसे ताकतवर समूह के रूप में जाना जाता है। इस समूह की दुनिया के सकल
घरेलू उत्पाद में 85 प्रतिशत भागीदारी है। विश्व की कुल जीडीपी में से 80 प्रतिशत
की भागीदारी जी-20 समूह के देशों की है। इसके साथ ही इस समूह की वैश्विक व्यापार
में लगभग 75 प्रतिशत की भागीदारी है। विश्व की कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत जी-20 समूह
के देशों में है। ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और अमरीका जैसे विकसित देशों के साथ ही
सऊदी अरब, जापान और जर्मनी आदि देश इसके सदस्य हैं। भारत का पड़ोसी देश चीन भी इस
समूह का सदस्य है। समूह के सदस्य देशों के माध्यम से ही समूह की वैश्विक स्तर पर
स्थिति और इसके प्रभाव का आकलन किया जा सकता है। ऐसे प्रभावशाली और वैश्विक स्तर
पर महत्त्वपूर्ण समूह की अध्यक्षता भारत के लिए कोई सामान्य बात नहीं है। यह भारत
के वैश्विक प्रभाव और विश्व-स्तर पर भारत की स्वीकार्यता का एक मानदंड है, मापक
है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">भारत को जी-20 की
अध्यक्षता ऐसे विषम समय में मिली है, जबकि समूह के सदस्य देशों के मध्य संबंध बहुत
सहज नहीं हैं। बाली शिखर सम्मेलन के ठीक पहले ही पौलैंड में मिसाइल गिरने के बाद
नाटो देशों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया दी जा रही थी। दूसरी ओर जी-20 में ही
यूक्रेन संकट के कारण सदस्य देश आपस में बँटे हुए थे। रूस और अमरीका के मध्य यूक्रेन
को लेकर चल रही तनातनी का प्रभाव बाली शिखर सम्मेलन में भी दिख रहा था। दूसरी ओर कोविड-19
की विभीषिका के कारण वैश्विक मंदी और अन्य कारक भी प्रबल थे। ऐसी विषम स्थिति में
अध्यक्ष का दायित्व स्वीकारना कोई सहज कार्य नहीं था। यह भारत की वैश्विक स्वीकार्यता
का ऐसा क्षण था, कि भावी अध्यक्ष के रूप में भारत को सामने देख विश्व के महायोद्धाओं
ने भी अपने रुख को नरम और सहज बनाया। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जब
भारत के विजन, भारत की भावी कार्ययोजना के लिए संकल्पसूत्र को रखा गया, तो उसे सभी
ने स्वीकार किया। प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर को वैश्विक स्तर पर भारत की वसुधैव
कुटुंबकम् की परंपरा के अनुरूप निर्वहन करने का स्पष्ट संदेश दिया है। उनका कहना,
कि भारत इसे ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ की तरह लेकर चलेगा, समूह के सभी देशों
के लिए भारत की अध्यक्षता में जी-20 की आगामी कार्ययोजना को निर्धारित करने हेतु
एक नियामक निर्णय के तौर पर स्वीकार्य हुआ।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">जी-20 समूह के अध्यक्ष के
रूप में भारत का कार्यभार सँभालना निःसंदेह विषम स्थितियों में हुआ है। एक ओर रूस-यूक्रेन
विवाद में सभी सदस्य देश आपस में बँटे हुए हैं, तो दूसरी ओर चीन के ताइवान पर आक्रामक
रवैये के कारण अमरीका सहित यूरोपीय देशों की अपनी नाराजगी है। दूसरी तरफ भारत के
साथ भी चीन के संबंध सहज नहीं हैं। चीन और भारत की तनातनी के लिए विगत तीन वर्ष बहुत
चर्चित रहे हैं, जब भारतीय सीमा में चीन की घुसपैठ का मुँहतोड़ उत्तर भारतीय सेना
द्वारा दिया गया। गालवान, दौलतबेग ओल्डी, गोगरा हाट-स्प्रिंग आदि स्थानों में भारत
के प्रबल प्रतिरोध और भारतीय सेना की सक्रिय कार्यवाही के बाद चीन के राष्ट्रपति का
बाली में भारत के प्रधानमंत्री मोदी के साथ पहली बार आमना-सामना हुआ था। सूत्र
बताते हैं, कि दोनों के मध्य कोई बात नहीं हुई। मिलने पर गर्मजोशी के स्थान पर
मात्र औपचारिकता थी। ऐसी दशा में चीन के लिए भारत का नेतृत्व स्वीकारना कितना जटिल
और कठिन होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। यह भले ही भारतवासियों के लिए
गर्व की बात हो, लेकिन उससे कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण भी है। ऐसी विपरीत और विषम स्थितियों
में न केवल अध्यक्षीय दायित्व को सँभालना, वरन् कुशलतापूर्वक इस दायित्व को निभाना
भारत के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के कौशल को प्रदर्शित करता है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">रूस और यूक्रेन विवाद पर
भारत की निरपेक्षता और समूह के सदस्य देशों को युद्ध व अशांति-अस्थिरता के स्थान
पर रचनात्मक और विकासात्मक अवधारणा को आत्मसात् करने का भारत का संदेश समूह के
देशों ने स्वीकारा है। यह भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि भी है, और विश्व-स्तर पर
भारत के नेतृत्व-कौशल का मानक भी है। विश्व की कुल जनसंख्या की 60 प्रतिशत
भागीदारी यदि जी-20 समूह के लिए बड़ा जनबल है, तो दूसरी ओर इस विशाल जनसंख्या के
साथ चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। वैश्विक आर्थिक मंदी, रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा और स्वास्थ्य
के साथ ही पर्यावरण की चुनौतियों से निबटने के लिए सकारात्मक कार्ययोजना बनाना,
उसे क्रियान्वित करने के लिए उपयुक्त परिवेश बनाना समूह के अध्यक्ष के रूप में
भारत की प्राथमिकताओं में है। जलवायु परिवर्तन का संकट, पर्यावरण-पारिस्थितिकी
असंतुलन के साथ ही शांति व सुरक्षा की चुनौतियों को भारत ने जी-20 समूह के अध्यक्ष
के रूप में अपनी प्राथमिकताओं में रखा है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">जी-20 समूह के अध्यक्ष के
रूप में भारत की भूमिका निष्पक्षता के साथ रचनात्मकता और सकारात्मकता को बढ़ावा
देने के रूप में होगी, यह संदेश भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री द्वारा बाली में अपने
संबोधन में दिया गया है। कोविड-19 महामारी के ‘दुनिया में कहर’ के बाद जिस
सकारात्मकता के साथ विकास की ओर अग्रसर होने की अपेक्षा जी-20 के नवनियुक्त
अध्यक्ष से की जा रही थी, उसे समूह के देशों के साथ ही विश्व-मंच ने अनुभूत किया
है। इसी कारण भारत के प्रति विश्व-मंच की धारणा बदली है। भारत में नेतृत्व के कौशल
को देखा जा रहा है। भारत की बात को अब विश्व गंभीरता के साथ सुनता भी है, और गुनता
भी है। जी-20 जैसे महत्त्वपूर्ण मंच की अध्यक्षता और भारत में शिखर सम्मेलन के साथ
ही अनेक शिखर वार्ताओं, बैठकों और चर्चाओं से एक सार्थक और सकारात्मक विश्व-दृष्टि
की कामना न केवल जी-20 समूह के देशों को है, वरन् समूचे वैश्विक समाज को भी है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 115%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;">भारत के विभिन्न प्रांतों
में उनकी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान को एक वैश्विक मंच देने के
उद्देश्य के साथ देश भर में जगह-जगह जी-20 समूह की बैठकें कराने के लिए योजनाएँ बन
रहीं हैं, और अमल में भी लाई जाने लगीं हैं। भले ही विपक्ष के लिए विरोध के अवसर
मिलते रहें, लेकिन भारतीय राजनीतिक नेतृत्व ने विधिवत् लोकतांत्रिक प्रक्रिया और
देश के इस गौरवपूर्ण अवसर के लिए सभी की सहभागिता को सुनिश्चित किया है। सभी को
साथ लेकर इसकी योजनाएँ बन रहीं हैं। भारत को विश्व-पटल पर एक नई पहचान इस अवसर के
साथ मिल रही है। इसका लाभ भारत की अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"></p><div style="text-align: justify;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;">समग्रतः, जी-20 समूह की
अध्यक्षता का यह अवसर भारत के लिए उस वैश्विक सूचकांक की तरह है, जिसमें विश्वगुरु
के रूप में उभरते भारत की छवि झलकती है, जिसमें भारत के गौरवपूर्ण अतीत के दर्शन होते
हैं, जिसमें तकनीकी व नवाचार में नए कीर्तिमान स्थापित करता भारतदेश है, जिसमें
कोविड-19 महामारी की विकरालता के दंश को अपने कुशल प्रबंधन से परास्त करके वैश्विक
पटल पर उभरता हमारा भारत है। यह नए भारत का वैश्विक सूचकांक है, जिसमें जी-20 की
अध्यक्षता के बहाने शीर्ष पर लहराता तिरंगा दिखता है, नया भारत दिखता है।</span></span></div><div style="text-align: right;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;">-राहुल मिश्र</span></span></div><div style="text-align: center;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; text-indent: 1cm;"><span style="color: white;">(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के दिसंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)</span></span></div>
<b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="background-color: #f3f3f3; font-size: 24pt; line-height: 107%;"><span style="color: white;"><o:p></o:p></span></span></b><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br /></div><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-57807899445730475632022-12-06T12:08:00.004+05:302022-12-06T12:08:48.097+05:30<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiigLcd95wi46Dqwcj1p1Md6luZgb8vIx4DyXKqHNa-6uO4L5dGN7UtsNGJhMJlHUFX0gXFenMoltWY5kmbgcyCccTaIl_PaQV2v0lKlI0Omru1JsuLGaqg0uxwYKXOg6XNombEm0R6iAm28QVivr8p-503pu4Hy7oXUqhqTTl1AvyCqa4I1FImlbSIQg/s618/Screenshot%202022-12-06%20120152.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="618" data-original-width="476" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiigLcd95wi46Dqwcj1p1Md6luZgb8vIx4DyXKqHNa-6uO4L5dGN7UtsNGJhMJlHUFX0gXFenMoltWY5kmbgcyCccTaIl_PaQV2v0lKlI0Omru1JsuLGaqg0uxwYKXOg6XNombEm0R6iAm28QVivr8p-503pu4Hy7oXUqhqTTl1AvyCqa4I1FImlbSIQg/w492-h640/Screenshot%202022-12-06%20120152.jpg" width="492" /></a></div><br /><p style="text-align: center;"> <b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 22.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 24.0pt; mso-ansi-language: EN-IN; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US;">आखिर भरोसेमंद क्यों नहीं है, ड्रैगन...</span></b></p><p style="text-align: justify;"></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">हाल ही में पूर्वी
लद्दाख सीमा को लेकर भारत के सेनाध्यक्ष का बयान आया है। वे कहते हैं, कि पूर्वी
लद्दाख में स्थिति सामान्य है, लेकिन चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। भारत के
विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बयानों की पूरी एक कड़ी ही पिछले दो-तीन महीनों में आई
है, जो लगभग ऐसी ही बात पर केंद्रित है। विदेशमंत्री जयशंकर अंतरराष्ट्रीय
राजनीतिक परिदृश्य के अनुरूप यह कहते हैं, कि चीन को पहले अपनी सीमाओं को शांत
करना होगा, स्थिर करना होगा और घुसपैठ सहित सेना की वापसी की तय शर्तों का पालन
करना होगा। संबंध सुधारने के लिए कम से कम इतना तो आवश्यक है ही...।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">भारत के सेनाध्यक्ष
की चिंता अलग तरीके की है। पिछले वर्षों में गालवान, देपसांग, देमचोक और दौलत बेग
ओल्डी में जिस तरह की घटनाएँ हुई हैं, उन्हें चीन के गिरगिटी रंग से मापा जा सकता
है। पंद्रह से अधिक चरणों की वार्ताओं के बाद भी चीन ने पूर्वस्थिति पर जाने के
लिए सहमति नहीं दिखाई। वह हमेशा चतुराई की भाषा बोलकर भारत की रक्षात्मक रणनीति का
लाभ उठाता रहा है। इधर चीन के अंदर भी उथल-पुछल के समाचार सोशल संचार के पटलों पर
तैरते रहे, और दूसरी ओर सीमा पर चीन की नीति-नीयत विस्तारवाद को केंद्र बनाकर तैयार
होती और चलती रही।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">अक्टूबर, 2022 का पूरा </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">ही </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">महीना चीन के अंदर उथल-पुथल से भरा रहा है।
इसकी शुरुआत चीन में तख्ता-पलट की सूचनाओं के प्रसार से होती है। ऐसा कहा जा रहा
था, कि चीन के अंदर सत्ता का परिवर्तन होने जा रहा है। व्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक
हो जाएगी, चीन के पड़ोसियों से विवाद सुलझ जाएँगे, ताइवान का मुद्दा भी हल हो
जाएगा। ऐसे अनेक कयास लगाए जा रहे थे। हो सकता है, कि चीन के अंदर ऐसी कुछ
स्थितियाँ बनी हों, लेकिन इन सबके पीछे का बड़ा कारण शी जिनपिंग की सत्ता में पुनः
वापसी के प्रयासों का था। दुनिया के देशों में चीन की आंतरिक अस्थिरता के</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">समाचार
विश्वमंच का ध्यान भटकाने के लिए था, यह बात बाद में सही सिद्ध होती दिखी।</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;"> 16 अक्टूबर से
प्रारंभ हुए चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के हर पाँच साल में होने वाले महासम्मेलन (कांग्रेस)
के लिए विश्व-स्तर पर जो भूमिकाएँ बनाई जा रहीं थीं, उनकी चीन की आंतरिक राजनीति
और रणनीति में भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह बताते हुए, कि आंतरिक अस्थिरता
और साथ ही संभावित वैश्विक संकटों से निबटने के लिए वर्तमान नेतृत्व को ही भविष्य
के लिए चुना जाना आवश्यक है, महासम्मेलन का प्रारंभ होता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">इसी क्रम में एक वीडियो
भी सोशल पटल पर घूमता रहा। इसमें 2003 से दस वर्षों तक राष्ट्रपति रहे 79 वर्षीय हू
जिंताओ को शी जिनपिंग के बगल से उठाकर बाहर ले जाते हुए दिखाया गया है। जिंताओ
जाते-जाते प्रधानमंत्री ली केकियांग का कंधा दबाते हैं और अधिकारी जिनपिंग से कुछ
कहते हैं। बाद में दोनों चीनी अधिकारी जिंताओ को लेकर ‘ग्रेट हाल आफ द पीपुल’ से
बाहर चले जाते हैं। सामान्य तौर पर सीपीसी की बैठकों और कार्यवाहियों के विवरण या
समाचार उतनी ही मात्रा में बाहर आते हैं, जितनी मात्रा सीपीसी के लिए अनुकूल होती
है। लेकिन इस बार वह परंपरा टूटती दिखती है। इस बार विदेश की अनेक समाचार
एजेंसियों की निगाहें भी इस महाधिवेशन में लगी हुई थीं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">सीपीसी की व्यवस्था
और नियमों के अनुसार शी जिनपिंग के स्थान पर दूसरा महासचिव नियुक्त होना था, किंतु
ऐसा नहीं होने पर एक संदेश गया, कि सीपीसी में जिनपिंग का पूरा वर्चस्व है।
विरोधियों के लिए बाहर का रास्ता है, यह भी सुलभ संदेश इस महाधिवेशन से निकला। जिन
मान्यताओं और व्यवस्थाओं का दम भरते हुए सीपीसी जनमुक्ति और जनवाद की बात करती
रही, वे दुर्ग किस तरह ढहे हैं, इसका साक्ष्य महाधिवेशन में मिलता है। ये बदलाव विश्व
को एक संदेश देता है।</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">अधिनायक
माओ त्से तुंग की नए तेवर-कलेवर के साथ वापसी को भी इसमें देख सकते हैं। <o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">तीसरी बार पुनः नियुक्त
होते ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग की चिंता देश की आंतरिक अस्थिरता को रोकने और
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उनके एक बयान के साथ सामने आती है। वे चीन की पीपुल्स
लिबरेशन आर्मी को अपनी सारी ऊर्जा अपनी क्षमता बढ़ाने, युद्ध लड़ने और जीतने के
लिए तैयार रहने की दिशा में लगाने का आदेश देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे सेना
प्रमुख के रूप में पीएलए के युद्ध प्रशिक्षण को मजबूत करेंगे, क्योंकि सुरक्षा की
स्थिति लगातार अस्थिर और अनिश्चित बनती जा रही है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">जिनपिंग के इन आदेशों
और प्रयासों के विश्वमंच पर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। ताइवान पर चीन की
निगाहें लगी हुई हैं। अमरीका के ताइवान के साथ खड़े हो जाने से स्थितियाँ बदल गईं
हैं, और चीन का स्वर भी बदल गया है। भारत के साथ चीन के सीमा-विवाद कोई नए नहीं
हैं। भारत का सशक्त राजनीतिक नेतृत्व निश्चित रूप से चीन के लिए आँखों की किरकिरी
बना हुआ है। वह विश्वमंच पर अनेक प्रयास करते हुए भारत को अपने आर्थिक और साथ ही सैन्य
बल से अपने प्रभाव में लेने की असफल कामना करता रहता है। चीन के लिए ऐसा करना कुछ हद
तक आसान तब भी हो जाता है, जब उसे भारत की राजनीतिक भूमि पर अपने चंद समर्थक मिल
जाते हैं। यह अलग बात है, कि चीनी नेतृत्व के लिए इस भ्रम में रहना, कि भारत सन्
62 वाला ही है, उचित नहीं है। गालवान में भारतीय सेना के पराक्रम को सभी जानते
हैं। चीन ने इस सच्चाई को देर से ही सही, स्वीकारा भी है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">7 से 11 नवंबर तक चली
सैन्य कमांडर कान्फ्रेंस में सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडेय की अध्यक्षता में सेना
के तीनों अंगो के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों, रक्षा विशेषज्ञों और रक्षामंत्री के
साथ ही प्रशासनिक अधिकारियों ने विचार-विमर्श किया। पूर्वी लद्दाख में वास्तविक
नियंत्रण रेखा पर जारी तनाव के बीच भारत और चीन के मध्य सामरिक संबंधों पर यह
कान्फ्रेंस केंद्रित रही। चीन ने गालवान से सेनाओं को हटाने की बात कही थी। इसी के
साथ देपसांग और देमचोक में भी सैन्य गतिविधियों को नियंत्रित करने की बात कही थी।
लेकिन दूसरी तरफ चीन ने अपनी सामरिक रणनीतियों का बड़ा रोडमैप बना रखा है। इसमें
तिब्बत के ल्हूंजे काउंटी से शिनजियांग के माझा तक राजमार्ग के निर्माण की बड़ी योजना
भी सम्मिलित है। चीन द्वारा प्रस्तावित सड़क भारत से सटी सीमाओं को एकसाथ जोड़ने
वाली है। इस राजमार्ग में देपसांग, गालवान घाटी और गोगरा हाट स्प्रिंग भी जुड़ रहे
हैं और अरुणाचल के सीमावर्ती क्षेत्र भी जुड़ रहे हैं। एक ओर गालवान सहित पूर्वी
लद्दाख में पूर्ववर्ती स्थिति को बहाल करने की बात चीन कहता है, तो दूसरी ओर सड़क
और अन्य संसाधनों का विस्तार भी करता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">तिब्बत से सटा लद्दाख
का पठार सन् 1962 के अतीत को आज भी भुला नहीं सका है। हमारे अतीत में वह घाव आज भी
रिसता है। 14 नवंबर, 1962 को भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया था, कि अक्साईचिन
की 37,244 वर्ग किलोमीटर भूमि को आक्रमणकारी चीन से वापस लेकर ही मानेंगे। इस बहस
में भारत की संसद के 165 सदस्यों ने भाग लिया था, और 08 नवंबर को इस प्रस्ताव को
तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में रखा था। चीन ने भारत की
भूमि को ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए जिस तरह छलपूर्वक कब्जाया था, वह कभी
भुलाया नहीं जा सकता। इस युद्ध के बाद भी अनेक लड़ाइयाँ विश्व के इस सबसे ठंडे और ऊँचे
युद्धक्षेत्र में हुईं। अनेक ललनाओं ने अपने सपूतों को भारतमाता की रक्षा के लिए
बलि चढ़ाया। कई बहनों ने अपने भाई खोए। इन युद्धों और संघर्षों की विभीषिकाओं के
अनेक चिन्ह आज भी लद्दाख अंचल के चप्पे-चप्पे में दिखते हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">हमारे वीर सैनिकों
के बलिदानों की गौरव-गाथाएँ जहाँ हमें गर्व से भरती हैं, वहीं चीन के छल और छद्म
को भी निरंतर स्मरण कराती रहती हैं। सन् 1962 में पंचशील के समझौते के साथ ही भारत
का बदले हुए चीन पर, जनमुक्ति अभियान चलाने वाले चीन पर विश्वास टूट गया था। यह
अलग बात है, कि उस समय कुछ नेतृत्वकर्ता राजनेता साम्यवाद के दिवास्प्नन में, बंजर-उजाड़
धरती के टुकड़े के रूप में अपनी भारतभूमि को देखने के यत्न में चीन पर भरोसा जोड़े
रहे हों...। कुछ भी हो.. 1962 से 2020 तक आते-आते नेतृत्व भी बदला, और सोच भी बदली
है। सन् 2020 के जून माह में गालवान घाटी पर भारत के सैनिकों ने चीन के घुसपैठियों
को मुँहतोड़ जवाब दिया था। लगभग चार दशक बाद यह पहला अवसर था, जब इस सीमा पर
गोलीबारी हुई। चीनी घुसपैठ को रोका गया। रूस की एजेंसी तास ने बाद में बताया था,
कि चीन के पचास सैनिक इस झड़प में मारे गए थे।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">गालवान की झड़प
भारतीय संदर्भ में एक निर्णायक दिशा के रूप में देखी जा सकती है। इसके साथ ही भारत
के सीमांतप्रदेशीय क्षेत्रों में, विशेषकर पूर्वी लद्दाख में सड़क-यातायात के साधनों
का तेजी के साथ विस्तार हुआ है। पूर्वी लद्दाख में सेनाओं के परिचालन में बहुत
कठिनाई होती थी, क्योंकि यहाँ सड़क मार्ग नहीं के बराबर ही थे। शयोक और नुबरा आदि
नदियों पर पुल नहीं थे। सूचना और संचार के साधन भी बहुत सीमित थे। इन सभी संसाधनों
का तेजी के साथ विकास सैन्य गतिविधियों और परिचालन के लिए बहुत लाभकारी और
सीमा-सुरक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">अनेक आधुनिक शस्त्रास्त्रों
से सैनिकों को सुसज्जित करने के साथ ही वायुसेना को भी आधुनिक हवाई जहाज, लड़ाकू
विमान और हेलिकाप्टर आदि उपलब्ध कराकर तैयार किया गया है। आत्मनिर्भर अभियान के
तहत भारत ने सैन्य सामग्री के निर्माण में कीर्तिमान बनाया है। देशी आयुधों के साथ
ही स्वदेश निर्मित राडार तकनीक और अन्य सहायक सामग्रियों के साथ पूर्वी लद्दाख में
तैनात भारतीय सेना हर समय मुस्तैद भी है, और सीमा पर किसी भी तरह की भारत विरोधी
गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए सक्षम भी है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">चीन को भारत की इस
तैयार की पूरा अंदाज है। इसलिए वह दूसरे रास्ते निकालता है। इनमें अन्य पड़ोसी
देशों को भारत के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास, भारत के पड़ोसी देशों की भूमि का
भारत को हानि पहुँचाने के लिए प्रयोग करने के प्रयास, समुद्री सीमा पर सैन्य
गतिविधियों का संचालन और भारत के जन्मजात शत्रु को दाम, दंड, भेद की नीति के साथ
भारत के विरुद्ध तैयार करने में चीन कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। ऐसी दशा में चीन पर
भरोसा करना किस स्थिति में संभव हो सकता है?</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;">चीन के आंतरिक राजनीतिक
परिदृश्य में चीन का नया रोडमैप जो दिखता है, वह पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक
बदलते हुए, चीनी नगरिकों की अपेक्षाओं को धता बताकर पुनः सत्ता पर काबिज होने के
प्रयास करते-सफल होते हुए आकार लेता है। इसमें भारत को अपना पक्ष स्पष्ट और प्रबल-सबल
रखना होगा। हमको अपनी रक्षात्मक नीति में आगे बढ़कर हमला नहीं करना है, लेकिन किसी
भी देश-विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए तैयार रहना चीन के संदर्भ
में कारगर योजना कही जा सकती है। चीन पर भरोसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।<o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span style="font-family: Nirmala UI, sans-serif;"><span style="font-size: 24px;">-राहुल मिश्र</span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt; mso-ansi-language: EN-US;"><i>(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र सीमा संघोष मासिक, नई दिल्ली के नवंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)</i></span></p><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 22.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 24.0pt; mso-ansi-language: EN-IN; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Calibri; mso-fareast-language: EN-US;"></span></b><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-78392220132699953412022-06-30T20:41:00.010+05:302022-07-01T07:09:24.034+05:30सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3k2l9IC8Tx5iK9pRsPoxqGVKzHAJrrk3MdW2_Y6xwQuGsrEeHaZSoVcXJBxztRyXrpCme8gPvVsHqAtVocwtf9y9y1f0TS3sJLSLuSHph_rvIrIHlLl-vHuEhR3D5tTLch7jjf2ocMWeiDmWiFhmxnileSail9IGH1eSArAYk4nNVfikHip7vpYzW_w/s1142/Screenshot%202022-06-30%20191009.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="838" data-original-width="1142" height="470" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3k2l9IC8Tx5iK9pRsPoxqGVKzHAJrrk3MdW2_Y6xwQuGsrEeHaZSoVcXJBxztRyXrpCme8gPvVsHqAtVocwtf9y9y1f0TS3sJLSLuSHph_rvIrIHlLl-vHuEhR3D5tTLch7jjf2ocMWeiDmWiFhmxnileSail9IGH1eSArAYk4nNVfikHip7vpYzW_w/w640-h470/Screenshot%202022-06-30%20191009.jpg" width="640" /></a></div><br /><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span face=""Nirmala UI",sans-serif" lang="HI" style="background-color: black; color: white; font-size: 23pt; line-height: 107%;">सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख</span></b><b><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="color: black; font-size: 23pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></b></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">मोमोस शब्द और साथ ही इस नाम के व्यंजन का स्वाद आज किसी के लिए
अनजाना नहीं है। बड़े-बड़े शहरों में मोमोस बाकायदा ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’
परोसने वाले होटलों में भी मिल जाते हैं</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">, <span lang="HI">और सड़क के किनारे खड़े चाट के ठेलों पर भी ये सुलभ हो जाते हैं। बड़े
शहरों की बात अलग ही है</span>, <span lang="HI">यहाँ तो सबकुछ मिलना सुलभ-सरल है</span>,
<span lang="HI">लेकिन जरा कस्बाई और गँवई-गाँव के खानपान में उतरकर देखिए... आपको
आश्चर्य होगा</span>, <span lang="HI">कि यहाँ टिकिया</span>, <span lang="HI">समोसा
और कुछ आधुनिक होते समय के चाऊमीन-बरगर के साथ मोमोस भी मिल जाएँगे। हिम-आच्छादित
लद्दाख का प्यारा और बहुत स्वादिष्ट व्यंजन- मोमोस... आज देश के कोने-कोने तक
पहुँचा हुआ है।</span></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">किसी क्षेत्र-विशेष की सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान का बड़ा अंग उस
क्षेत्र के प्रचलित व्यंजनों से बनता है। क्षेत्र-विशेष अपनी पहचान गढ़ते समय अपने
व्यंजनों के चटखारों का स्वाद उतारता है। इडली-डोसा का उल्लेख करते ही दक्षिण भारत
का चित्र आँखों के सामने होता है। इसी तरह बुंदेलखंड की बेड़ही-लपसी, पूर्वांचल की
बाटी-चोखा और पंजाब की मक्के दी रोटी-सरसों दा साग अलग-अलग भौगौलिक रंग हमारे
सामने ले आते हैं। देश की सांस्कृतिक विविधता का यह बड़ा अंग है। देश को जोड़ने
वाले व्यंजनों पर अगर बात करें, तो एक अद्भुत रोमांच मन में भर जाता है, जो देश की
विवधता में एकता को अनेक बार हमारे सामने ले आता है। लद्दाख भले ही दुर्गम और जटिल
हो, लोगों के मन में इस बर्फीले रेगिस्तान को लेकर भले ही अनेक भ्रांतियाँ, भय और
आश्चर्यजनक बातें हों; लेकिन लद्दाख के व्यंजनों ने इन मिथों को बखूबी तोड़ा है।
इसी कारण देश के सुदूरवर्ती ग्राम्यांचलों में भी लद्दाखी मोमोस की हनक देखने को मिलती
है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">वैसे तो लद्दाख की पहचान तीन चीजों से रही है, उसके अपने अतीत में.....।
ये तीन चीजें हैं- सत्तू, पट्टू और टट्टू...। आपको यह जानकर निश्चित रूप से
आश्चर्य हो सकता है, कि सत्तू जो है, वह लद्दाख की पहचान में शामिल है, जुड़ा हुआ
है। बाकी दो में से पट्टू, अर्थात् दुशाला लद्दाख की शीत से बचाने के लिए बहुत आवश्यक
है और टट्टू, अर्थात् अश्वों की एक वर्णसंकर प्रजाति लद्दाख की प्राचीन यातायात
व्यवस्था का अभिन्न और प्रमुख अंग रहा है। लद्दाख में यातायात व्यवस्था के अंग के
रूप में याक (चमरी मृग) और यारकंदी ऊँट (दो कूबड़ वाले) भी आते हैं, लेकिन नाम तो
टट्टुओं का ही चलता है। इसका बड़ा कारण यह है, कि स्थानीय आवागमन और सामान ढुलाई
के लिए टट्टू ही अधिकतर उपयोग में आते थे, जबकि यारकंदी ऊँट और याक की भूमिका
प्रायः लंबी और दर्रों को पार करने वाली पहाड़ी यात्राओं में विशेष रूप से होती
थी। ये सारी बातें इसलिए कहीं, कि सत्तू का महत्त्व भी कुछ इसी प्रकार का देखा जा
सकता है, लद्दाख के जटिल जीवन में...।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">लद्दाख में जौ की फसल पर्याप्त मात्रा में होती है। इस कारण लद्दाख
में जौ का सत्तू चलन में है। भारत के मैदानी क्षेत्रों, जैसे- मध्यप्रदेश,
उत्तरप्रदेश और बिहार आदि में चने का सत्तू चलता है। लद्दाख में चने की पैदावार नहीं
है, लेकिन सत्तू बनाने की विधि है, सत्तू भी है... भले ही जौ का ही क्यों न हो..।
जौ का सत्तू न केवल पौष्टिक होता है, वरन् इसकी तासीर गर्म होती है, जबकि चने के
सत्तू की तासीर ठंडी होती है। यह भी एक बड़ा कारण लद्दाख में जौ के सत्तू के चलन के
पीछे है। यह देखन बहुत रोचक है, कि सत्तू, जिसे लद्दाखी भाषा में ‘फे’ बोलते हैं,
उसका प्रयोग क</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">ई</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"> तरीके से रसोईघर और अतिथिगृह में होता है। कुछ व्यंजनों में इसका
उपयोग किया जाता है, पूजा-पाठ में भी इसका उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त यह सबसे
अधिक चाय के साथ खाया या पिया जाता है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">लद्दाख में पानी पीना किसी चुनौती से कम नहीं, इस कारण भारत के
मैदानी क्षेत्रों की तरह </span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">यहाँ पर अतिथियों के आगमन पर उन्हें पानी के लिए नहीं पूछा जाता है, चाय के
लिए पूछा जाता है। चाय भी कई तरह की...., जैसे- गुरगुर चाय, लिप्टन चाय, ग्रीन टी
और कहवा आदि। ग्रीन टी और कहवा से तो सभी परिचित होंगे, वैसे परिचित तो लिप्टन चाय
से भी होंगे.... भ्रम केवल नाम के कारण हो सकता है। लिप्टन चाय दरअसल दूध वाली
मीठी या शर्करामुक्त चाय के लिए प्रयोग होने वाला नाम है। इस नाम के माध्यम से
लद्दाखी लोग चाय का एक भेद गढ़कर अतिथि को उसके चाय-चयन में मदद दे देते हैं। सबसे
अधिक प्रचलित और प्रिय गुरगुर चाय है, लद्दाख में। यह पसंद तिब्बत तक बिखरी हुई
है..., कह सकते हैं, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरगुर चाय का चलन है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">गुरगुर चाय वस्तुतः मक्खन डालकर बनाई गई
नमकीन चाय है। इसके अपना नाम भी इसके बनाने में होने वाली ध्वनि से मिला है। लंबे
बेलनाकार बरतन में मथानी जैसे डंडे से मथकर यह बनती है, और मथते समय गुरगुर की
आवाज होती है। थोड़ी-सी चायपत्ती और मक्खन से बनी गुरगुर चाय में अनूठा-सा सोंधापन
होता है। यह शरीर में नमक और पानी की मात्रा संतुलित करती है। गुरगुर चाय की
प्याली के साथ सत्तू भी परोसा जाता है। अतिथिगण चाय की प्याली में सत्तू घोलकर या
तो पी जाते हैं, या फिर खा लेते हैं। सत्तू ऐसा आहार है, जिसे आप तैयार खाद्य या ‘फास्ट
फूड’ की श्रेणी में भी आसानी से रख सकते हैं। किसी भी यात्रा के लिए यह साथ ले जाने
वाला सर्वोत्तम आहार है। कहीं पर भी खाया जा सकता है, कैसे भी खाया जा सकता है। मध्यभारत
में तो सत्तू-नमक लेकर ढूँढ़ना... जैसे मुहावरे भी बने है। सत्तू यात्राओं के लिए
बहुत उपयुक्त रहा है, विशेषकर जटिल-कठिन यात्राओं के लिए...।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">लद्दाख यात्राओं के मार्ग का पड़ाव जैसा है।
लद्दाख के ऊपरी हिस्से से होकर रेशम मार्ग निकलता है। लद्दाख की नुबरा घाटी रेशम
मार्ग के यात्रियों के लिए एक आरामगाह जैसी रही है। इसके साथ ही भारत के अन्य
हिस्सों के लिए उतरने वाले संपर्क मार्गों के कारण लद्दाख एक बड़े व्यापारिक
केंद्र व ठहराव के रूप में अपनी भूमिका निभाता रहा है। होशियारपुर के अनेक
व्यापारियों के ठिकाने आज भी लेह में देखे जा सकते हैं। गुरु नानक अपनी यात्राओं
के क्रम में लद्दाख भी पधारे थे। लेह के निकट गुरुद्वारा दातून साहिब और
लेह-श्रीनगर राजमार्ग पर गुरुद्वारा पत्थरसाहिब उनकी यात्रा की अविस्मरणीय गाथा को
आज भी गाते हैं।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">एक समय ऐसा भी था, जब लेह बाजार में मध्य
एशिया के हर हिस्से का प्रतिनिधित्व दिखाई देता था; व्यापारियों, क्रेता-विक्रेताओं,
पहनावों और बिकते व्यंजनों के रूप में...। लेह बाजार में गुरुद्वारा दातून साहिब
के पास ही नहीं, प्रायः पूरे लद्दाख में एक वर्ग ऐसा मिलेगा, जो तंदूरी रोटी
बनाने-बेचने का काम करता है। इन्हें स्थानीय भाषा में नानवाई कहते हैं। इनके
द्वारा बनाई तंदूरी रोटी लद्दाखी भाषा में ‘तागी’ कही जाती है। यह तागी कब रेशम
मार्ग से उतरकर लद्दाख की ‘तागी’ और फिर पंजाब की ‘तंदूरी’ बनकर सारे देश और
दुनिया में फैली...., जानना बहुत रोचक और रोमांचकारी होगा।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">रेशम मार्ग पर चलने वाले यात्रियों और व्यापारियों
के लिए दाना-पानी कितना जटिल रहा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। रेशम मार्ग
में यात्रा करने के लिए पूरा का पूरा लाव-लश्कर होता था, जिसमें दो कूबड़ वाले
ऊँटों पर चमड़े के बने थैलों में पानी, तागी या तंदूरी रोटी आदि के चलते-फिरते
भंडार भी होते थे। इनके साथ ही समोसा जैसे व्यंजन भी होते थे, जो आटे के अंदर तीखा-चटपटा
मसाला भरकर बनाए जाते थे। समोसा की उत्पत्ति भी यहीं से हुई, ऐसा कह सकते हैं। रेशम
मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था, बल्कि दर्शन-चिंतन-वैचारिकता की अनेक
बातें भी इस मार्ग से आती जाती रहीं हैं। अनेक अध्येताओं ने इस रास्ते से चलकर
ज्ञान की खोज की है। संस्कृतियों के आदान-प्रदान के साथ ही खान-पान की आदते और
व्यंजन भी रेशम मार्ग से आए-गए हैं। और इन सबका प्रभाव आज भी लद्दाख में देखा जा
सकता है। लद्दाख को यूँ ही नहीं मध्य एशिया का बड़ा केंद्र कहा जाता...।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">प्रायः</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"> </span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">भौगोलिक
परिस्थितियाँ और जलवायु के कारक क्षेत्र-विशेष के आहार-विहार को प्रभावित करते
हैं। लद्दाख में यह पक्ष प्रमुख रूप से दिखता है। इसी कारण लद्दाखी व्यंजन देश के
अन्य भागों के व्यंजनों से अलग बनते हैं। लद्दाखी व्यंजन स्थानीय आवश्यकता के
अनुसार प्रायः पर्याप्त तरल होते हैं। अकसर सूप तरलता को बढ़ाने का काम करते हैं।
मैदानी क्षेत्रों में मोमोस को भले ही चटनी के साथ खाने का चलन हो, लेकिन लद्दाख
में मोमोस सूप के साथ ही खाए जाते हैं। मोमोस के अतिरिक्त थुक्पा में भी पर्याप्त
सूप होता है। थुक्पा व्यंजन में मोटी सेवइयाँ जैसी होती हैं, जिन्हें खूब रसेदार सूप
में डालकर पकाया जाता है, और गरम-गरम पी लिया जाता है। इससे शरीर में गरमी भी आती
है, और पानी की कमी भी साथ-साथ पूरी होती जाती है। ‘स्क्यू’ भी कुछ इसी तरह का
व्यंजन होता है। इसमें ढेर सारी सब्जियाँ- पालक, मंगोल, लाल मटर आदि डालकर खूब तरल
करके पकाया जाता है, और खौलती हुई तरल सब्जी में आटे के गोल-चौकोर टुकड़े जैसे
डालकर उबाला जाता है। इसे भी रसेदार बनाते हैं और इसे भी सूप की तरह से पीते हुए
खाया जाता है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">खोलक एकदम अलग तरह का व्यंजन है। लद्दाख में
चपातियाँ बनाने का विधान नहीं है। चपाती के रूप में अगर कहें, तो ‘तागी’ ही है, जिसका
उल्लेख पूर्व में किया गया है। एक रोचक बात ‘तागी’ के बारे में बताना यहाँ आवश्यक
लगती है। लद्दाख में एक कहावत कही जाती है- ‘बेचारा रोटी खाकर जिंदा है..।’ यह कहावत
गरीब-दीन-हीन व्यक्ति के लिए कही जाती है। लद्दाख में चावल विशिष्ट और कुलीन वर्ग
का आहार माना जाता था। लद्दाख में चावल पैदा नहीं होता था, जिस कारण चावल बहुत
महँगा बिकता था। दूसरी तरफ नानवाई की रोटियाँ सहज सुलभ थीं, हर वर्ग के व्यक्ति के
लिए..। आज स्थिति ऐसी नहीं है, लेकिन अतीत की यादें जीवंत हैं। हम बात कर रहे थे,
लद्दाखी व्यंजन खोलक की..। यह एक तरह से चपाती का ही रूप है, लेकिन इसे सीधे आँच
में नहीं पकाया जाता। मैदा या आटा को सानकर उसका कलात्मक लड्डू जैसा आकार बनाकर
भाप में पकाया जाता है। फिर उसे दाल में डालकर या सब्जी के साथ खाया जाता है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">लद्दाख की जलवायु के अनुसार यहाँ के प्रायः
सभी व्यंजन कम मसालेदार और भाप में पके हुए होते हैं। इनको पकाने के लिए अलग तरह
के बरतन भी होते हैं। वैसे लद्दाखी रसोई भी कम कलात्मक नहीं होती। लद्दाखी घरों
में रसोई केवल खाना पकाने के लिए नहीं होती, वरन् खाना खाने और घंटों बैठकर गपशप
करने के लिए भी होती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लद्दाख और तिब्बत की अपनी
यात्राओं के साथ यहाँ के रसोईघरों का भी रोचक वर्णन किया है। वे यह भी लिखते हैं,
कि बाहरी व्यक्ति के लिए रसोई तक पहुँचना कठिन नहीं होता। रसोईघर में चूल्हा कुछ
इस तरह का होता है, कि उसके निकट बैठकर शीत से बचाव किया जा सकता है। इस तरह पूरा
परिवार और अतिथिगण भी रसोई में बैठकर गरमागरम भोजन का आनंद ले सकते हैं, शीत से
स्वयं को बचाते हुए। यह व्यवस्था एक तरह से कम संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवन जीने
की कला भी सिखाती है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">विश्वग्राम की संकल्पना ने सारी दुनिया को
एक जगह पर समेट दिया है। जिस तरह मोमोस लद्दाख से निकलकर सुदूरवर्ती गाँवों तक
पहुँचे हैं, उसी तरह से चोखा-बाटी, इडली-डोसा, जलेबी-टिकिया आदि लद्दाख में भी
सुलभ हैं। इतना ही नहीं लद्दाख के बड़े होटलों के साथ ही छोटे-छोटे होटलों और रेस्टोरेंट्स
में ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ भी खूब मिलती हैं। लद्दाख उभरते हुए पर्यटन केंद्र के
रूप में देश ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। इस कारण देश-दुनिया के
पर्यटकों के साथ देश-दुनिया की खान-पान की आदतें और व्यंजन भी लद्दाख पहुँचे हैं।
आज के समय में सत्तू लद्दाख के दूर-दराज के गाँवों में सरलता से मिल सकता है, अपेक्षाकृत
लद्दाख के शहरी क्षेत्रों के...। आधुनिकता
ने बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव खान-पान में भी आया है। यह सांस्कृतिक संक्रमण का
समय है। लद्दाख के ठंड से ठिठुरते समय में बैठकर मसाला डोसा खाना एकदम अलग अनुभव
देता है। किसी गाँव के चाट के ठेले में खड़े होकर मोमोस खाना भी अलग ही लगता है। अगर
गहरे उतरकर सोचें, तो कई-कई बार यह अनुभूत होता है, कि हम व्यंजन नहीं, देश को एक
सूत्र में पिरोने वाले सूत्रों का सुख व आनंद अपने अंदर उतार रहे हैं।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%;">-राहुल मिश्र (आचार्य अनामय)</span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
<i><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; line-height: 107%;">(<span lang="HI">कश्फ, </span></span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 107%;">अर्धवार्षिकी, संयुक्तांक दिसंबर, 2021 से जून, 2022,
वर्ष- 20-21, संपादक- डॉ. विनोद तनेजा, अमृतसर में प्रकाशित)</span></i></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-9076868336126599952022-04-26T07:44:00.001+05:302022-04-26T07:45:48.464+05:30असम-मेघालय सीमा-विवाद सुलझाकर पूर्वोत्तर बनेगा देश का विकास इंजन<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqPIgrJoe7CdtvrOZvln_hX0PWZjIFKoLjQlYl24LTf_ABXYgHlyjYLwLV9zAbmHlO-mCD-kLcFFbOxma8haJcggfWS6KPkoqQB6RovrHk1LjjkNa2-uT6U5rIbNK7SsxM_RCq_tuuT2aWLe6fbuB1leXYeQhqAP-R9z7vQuX3DXGMBH7JSqMRYCg_7w/s802/Screenshot%202022-04-25%20212801.jpg" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 32px; font-weight: 700; margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="802" data-original-width="585" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqPIgrJoe7CdtvrOZvln_hX0PWZjIFKoLjQlYl24LTf_ABXYgHlyjYLwLV9zAbmHlO-mCD-kLcFFbOxma8haJcggfWS6KPkoqQB6RovrHk1LjjkNa2-uT6U5rIbNK7SsxM_RCq_tuuT2aWLe6fbuB1leXYeQhqAP-R9z7vQuX3DXGMBH7JSqMRYCg_7w/w466-h640/Screenshot%202022-04-25%20212801.jpg" width="466" /></a></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 107%;"><br /></span></b></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 107%;">असम-मेघालय सीमा-विवाद सुलझाकर</span></b><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 18pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></b></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 24pt; line-height: 107%;">पूर्वोत्तर बनेगा देश का विकास इंजन</span></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><br /></b></div><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 26pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></b><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">वर्ष 2022 की 29 मार्च की तिथि पूर्वोत्तर के इतिहास में इतनी
महत्त्वपूर्ण होगी, जिसका असर लंबे समय तक दिखाई देगा। यह दिन भारत के लिए भी बहुत
महत्त्व का है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा का बयान इस तिथि पर बड़े
मार्के का है, और असम-मेघालय सीमा-विवाद के बाद उनका यह बयान बहुत चर्चित भी रहा
है। वे कहते हैं, कि- “जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब गृहमंत्री ने कहा
था, कि सीमा विवाद को हल करें। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं, कि पूर्वोत्तर
देश का विकास इंजन बने..।“ </span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">कह सकते हैं, कि हिमंत बिस्व शर्मा को दि</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">ए</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"> गए दायित्व
की सफलता का पहला चरण 29 मार्च, 2022 को पूरा हुआ है। भारतीय राजनीति में हिमंत
बिस्व शर्मा एकदम अलग छवि रखते हैं। उनकी स्पष्टवादिता और अनथक कर्मशीलता देखते ही
बनती है। केंद्र के राजनीतिक नेतृत्व को संभवतः इसी कारण उन पर बड़ा भरोसा है, और यह
भरोसा भी सफल-सच होता दिखा है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">असम और मेघालय के बीच विवाद के सुलझने की यह खबर कोई सामान्य घटना
नहीं है। इसके पीछे अतीत में उतरकर देखें, तो बहुत सारे आयाम और अनेक बातें खुलकर
सामने आती हैं। देश के केंद्रीय नेतृत्व के लिए पूर्वोत्तर के विवादों को सुलझाना
हमेशा से ही बड़ी चुनौती रहा है। पिछली सरकारों के इस दिशा में प्रयास ईमानदारी के
साथ हुए होंगे, ऐसा कहना कठिन लगता है। एक कहावत- चोर को कहना चोरी करो.... साहूकार
को कहना जागते रहो...., इस संदर्भ में सार्थक लगती है। लेकिन वर्तमान सरकार ने इस
विषय पर अपनी गंभीरता और अपने दायित्वबोध को खुलकर प्रकट किया है, साथ ही निभाया
भी है। वर्तमान केंद्र सरकार की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ का यह बड़ा अंग रहा है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">पूर्वोत्तर का भारतीय सीमांत सुरक्षा और प्रगति के सोपानों में,
शांति-स्थिरता के प्रयासों में बहुत बड़ा योगदान है। चाहे देश हो, या घर... पूर्वोत्तर
का क्षेत्र ऊर्जा के केंद्र में होता है। ईशान्य कोण में शक्ति का वास होता है। एक
समय ‘नेफा’ के नाम से प्रसिद्ध भारत का ईशान्य सीमांत क्षेत्र </span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">पुरातनकाल से ही धर्म, अध्यात्म, साधना का
केंद्र रहा है। इस क्षेत्र के महत्त्व को न केवल ज्योतिषशास्त्र में, वरन् समग्र
भारतीय चेतना एवं एकात्मता के संदर्भ में भी बहुत महत्त्व का माना जाता है। इसी
कारण एक ओर जहाँ इस क्षेत्र में वर्ष भर आध्यात्मिक यात्राएँ और आयोजन किए जाने की
परंपरा रही है, वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के गौरव को विखंडित करने के प्रयासों के
साथ भारत और भारतीयता को क्षति पहुँचाने के काम भी पराधीनता के काल में होते रहे
हैं।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">भारतदेश की स्वाधीनता के साथ मिले
पूर्वोत्तर की अशांति के दंश क</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">ा</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"> विश्लेषण करते-करते सुई विभाजन और राज करो
की नीति पर, क्षेत्रीय-जातीय अस्मिता के असीमित व्यवहार पर, और सबसे बड़ी बात, कि
ईसाईयत के विस्तार पर जाकर टिक जाती है। पूर्वोत्तर के वन-प्रांतरों में निवास
करने वाले वनवासीजन-गिरिजन सदा प्रकृति की पूजा करते हुए सनातन परंपरा से जुड़े
रहे। पराधीनता के कालखंड और उसके बाद के वर्षों में ईसाईकरण के कारण स्थितियाँ गंभीर
होती गईं। विगत वर्ष 26 जुलाई को असम और मिजोरम के बीच ऐसा संघर्ष हुआ था, जिसने
प्राग्ज्योतिष क्षेत्र की धरती को न केवल रक्तरंजित कर दिया था; वरन् असम और
मिजोरम, दोनों <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>राज्यों के कई लोगों को
अपनी जान तक गँवानी पड़ी थी। 26 जुलाई, 2021 का यह संघर्ष भी सीमा के विवाद को
लेकर हुआ था, किंतु इस संघर्ष में जिस तरह से दोनों राज्यों के सीमावर्ती
क्षेत्रों के लोग भिड़े थे, उसे देखकर ऐसा लग रहा था, मानों दो देश आपस में लड़
रहे हों।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpP-f2-iwDRkZsH3KRpMp7ZoeNqRTh8VwS0e6kTBa-yd3tIROcJ8HRKmMX8YO-N8J9Pvmzvg85RuVlwbjDJGPNbqd3k7uKyFBANzd4-CqdlARzUHPl5SIHWCG75eWMkMmVvwh3T_eLjWxa-jENX-RFUY9273tE0xG0dR2gupbpU2RWtpn8Tdaq-o2edA/s761/Screenshot%202022-04-26%20073735.jpg" style="clear: left; float: left; font-size: 32px; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="761" data-original-width="550" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpP-f2-iwDRkZsH3KRpMp7ZoeNqRTh8VwS0e6kTBa-yd3tIROcJ8HRKmMX8YO-N8J9Pvmzvg85RuVlwbjDJGPNbqd3k7uKyFBANzd4-CqdlARzUHPl5SIHWCG75eWMkMmVvwh3T_eLjWxa-jENX-RFUY9273tE0xG0dR2gupbpU2RWtpn8Tdaq-o2edA/w289-h400/Screenshot%202022-04-26%20073735.jpg" width="289" /></a><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">यह घटना अपने आप में बहुत बड़ा संदेश देने वाली
थी। असम और मिजोरम का सीमा विवाद उन दो राज्यों के बीच का था, जो पचास-पचपन वर्ष
पहले एक ही थे। असम या कामरूप या प्राग्ज्योतिष एक राज्य रहा है। देश की स्वाधीनता
के बाद विभिन्न क्षेत्रीय पहचानों और भाषायी विविधता ने इसे अलग-अलग राज्यों में
बाँटा। मिजोरम, मेघालय और नागालैंड आदि इसी आधार पर अलग-अलग राज्य बने। यह
तत्कालीन नीति-निर्धारकों या राज्य-विभाजन की योजना बनाने वाले लोगों का दायित्व
बनता था, कि सीमाओं का निर्धारण इस तरह से किया जाए, कि भविष्य में विवाद की
स्थितियाँ पैदा नहीं हों। किंतु संभवतः उस समय ऐसा नहीं हो सका। इसके पीछे के कारण
शोध के विषय हैं। कुल मिलाकर तब से ही अलग-अलग तरीकों से, अलग-अलग रूपों में पूर्वोत्तर
के विवाद समाचारों की सुर्खियों में आते रहे हैं। यह भी बड़ा महत्त्वपूर्ण तथ्य
है, कि इन सुर्खियों को न तो पहले कभी दिल्ली ने गंभीरता से लिया, न कभी देश के
अन्य हिस्सों ने। इतना अवश्य हुआ, कि इन विवादों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकी गईं,
राजनीतिक दलों ने अपनी सत्ता की लिप्सा को शांत करने के यत्न किए।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">आमजन के लिए ये स्थितियाँ कितनी कष्टदायक
रहीं होंगी, इसका आकलन विगत वर्ष 26 जुलाई की मात्र एक घटना से ही लगा सकते हैं,
जिसमें रोते-बिलखते बच्चों, माताओं, बहनों, बुजुर्गों के आँसू सारे देश ने देखे
थे। यह तो एक घटना थी... पीछे ऐसी कितनी ही घटनाएँ हुई होंगी, अनुमान लगाना और उन
घटनाओं की वेदना को अनुभूत करना बहुत ही कठिन है। यदि 26 जुलाई, 2021 की हृदय-विदारक
घटना से सबक लेते हुए प्रांतीय विधानमंडलों और केंद्रीय सरकार की राजनीतिक
इच्छाशक्ति ऐसे सीमा विवादों को हल करने के लिए प्रतिबद्ध होती है, तो उसमें बड़ा
अंश आमजन की वेदना और दुःख को अनुभूत करने वाली वैचारिकता का है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">देश के केंद्रीय नेतृत्व की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’
अपने पिछले कार्यकाल से ही प्रभावी रही है, मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह ‘पॉलिसी’
अपना मूर्त रूप तेजी से पाती है। साथ ही अपनी संवेनशीलता को सकारात्मकता के साथ आमजन
की स्थिति से जोड़ते हुए कार्य के लिए प्रतिबद्ध होती है। इसी कारण असम और मेघालय
के बीच सीमा-विवाद को सुलझाने के लिए पहली बार जनता की राय को, जनमत को प्राथमिकता
दी गई है। असम-मेघालय सीमा में जिन 06 जगहों पर विवाद को समाप्त किया गया है, वहाँ
पर पुराने नक्शों और ऐतिहासिक पक्षों-बिंदुओं की जगह जनता के विचारों को पहले
स्थान पर रखा गया है। इन 06 चिन्हित जगहों पर बसे 36 गाँवों के लोगों की मंशा को,
उनकी अपेक्षा और उनके विचारों-प्रतिक्रियाओं को संकलित करके विवाद को हल करने की
वार्ता प्रारंभ की गई थी, मसौदा तैयार किया गया।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">असम-मेघालय सीमा विवाद को हल करने के लिए विगत
वर्ष अगस्त में तीन-तीन समितियाँ बनाई गईं थीं। कह सकते हैं, कि 26 जुलाई की घटना
के तुरंत बाद राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने सक्रियता दिखाते हुए इस दिशा में
काम प्रारंभ किया। दोनों राज्यों की समितियों द्वारा सिफारिशों और समझौते के मसौदे
को तैयार किया गया था। इसे 31 जनवरी को असम और मेघालय के मुख्यमंत्रियों ने संयुक्त
रूप गृह मंत्रालय को सौंपा था। गृह मंत्रालय ने दो महीने के अंदर ही तथ्यों व
स्थितियों की पड़ताल करके समझौते के प्रारूप को हरी झंडी दे दी। इसके परिणामस्वरूप
29 मार्च, 2022 को नई दिल्ली में देश के गृहमंत्री के समक्ष दोनों राज्यों के
मुख्यमंत्रियों ने समझौता-ज्ञापन पर हस्ताक्षर करके 06 स्थानों के 36 गाँवों की 36.79
वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र के सीमा-विवाद पर पूर्ण विराम लगा दिया। इस समझौते के
तहत असम को 18.51 वर्ग किमी. और मेघालय को 18.28 वर्ग किमी. क्षेत्र मिला है। </span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">असम और मेघालय के बीच सीमा-विवाद अपने पहले
चरण में 06 स्थानों पर हल हुआ है, जबकि शेष 06 स्थानों पर विवाद को सुलझाने की
प्रक्रिया अभी चल रही है। असम-मेघालय के मध्य 12 स्थानों पर विवाद मेघालय के
अस्तित्व में आने के समय से ही चला आ रहा है। सन् 1971 में असम राज्य पुनर्गठन
अधिनियम के तहत अस्तित्व में आए मेघालय ने सन् 1972 में ही इस अधिनियम को चुनौती
दे दी थी। तब से ही असम-मेघालय के सीमावर्ती 12 क्षेत्रों में विवाद की स्थितियाँ
बनी हुईं थीं। सन् 2010 में लंगपीह नामक एक सीमावर्ती क्षेत्र में भीषण रक्तरंजित
संघर्ष हुआ था, जो सीमा विवाद की ही देन था। इस संघर्ष में चार लोगों की मृत्यु
हुई थी और कई लोग गोलीबारी में घायल हुए थे। इस बड़ी घटना के अलावा अनेक छोटी-छोटी
झड़पों की गिनती करना भी कठिन है। दोनों राज्यों की सीमा के निर्धारण में आँकड़ों
की कारीगरी और इच्छाशक्ति के अभाव ने क्षेत्रीय अस्मिता व जातीय संघर्ष को इस स्तर
तक पहुँचा दिया था, कि अपने ज्ञात अतीत से भी कहीं आगे के समय से एक साथ रहते चले
आ रहे लोग महज राज्य पुनर्गठन अधिनियम के कारण एक-दूसरे के शत्रु बन गए थे। सन्
1972 से लगातार यह वैमनस्य उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा, विवाद के क्षेत्र बढ़ते रहे,
लेकिन पहले कभी भी इन विवादों को रोकने के प्रयास निष्पक्ष भाव से दिखाई नहीं दिए।
इन कारणों से भी 29 मार्च, 2022 को अविस्मरणीय दिन के रूप में सदैव याद रखा जाएगा।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">हालाँकि चुनौतियाँ अभी भी समाप्त नहीं हुईं
हैं। असम और मेघालय के बीच 12 स्थानों में से छह स्थानों पर ही सीमा विवाद हल हुआ
है। भले ही यह सीमा-विवाद का 70 प्रतिशत हो, लेकिन शेष 30 प्रतिशत अभी हल किया
जाना शेष है। कहा जा सकता है, कि असम के साथ मेघालय का विवाद तो अब मात्र 30
प्रतिशत ही बचा है, लेकिन असम के साथ अन्य राज्यों का सीमा विवाद अभी भी बरकरार
है। सन् 1971 में असम राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अस्तित्व में आने के साथ ही समूचा
पूर्वोत्तर क्षेत्र अशांति की भेंट चढ़ गया था। इसके पहले भी इस क्षेत्र के लिए अधिसूचनाएँ
बनाई और लगाई गईं थीं। जातीय अस्मिता, धार्मिक विविधता, भौगौलिक जटिलता और विविधता
को मंडित करने वाली राजनीतिक चेष्टाओं ने इन स्थितियों को जटिल बनाकर रखा था। असम के
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा, दोनों ने
ही अपनी प्रबल इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इस ग्रंथि का शमन किया है। केंद्र की
मोदी सरकार, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी और भारत के गृहमंत्री अमित शाह के प्रयासों का
तो कोई सानी ही नहीं है। असम-मेघालय सीमा समझौते के समय प्रधानमंत्री मोदी के एक बयान
की भी बड़ी चर्चा रही। प्रधानमंत्री मोदी अकसर कहते रहते हैं, कि जब भारत-बांग्लादेश
सीमा विवाद सुलझ सकता है, तो भारत के दो राज्यों के बीच सीमा विवाद सुलझना कोई
बड़ी बात नहीं है।</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">प्रधानमंत्री मोदी का आत्मविश्वास और उनकी
कार्यशैली इस तथ्य की परिचायक है, कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, सूझबूझ और सहजता के साथ
वर्षों पुरानी जटिल समस्याओं को भी शांति के साथ हल किया जा सकता है। चुनौतियाँ
भले ही बड़ी हों, गहरी हों, और जटिल हो... इच्छाशक्ति और निष्काम कर्मशीलता अवश्य
ही उन्हें हल कर देती है। असम-मेघालय के सीमा-विवाद का अगला चरण आगामी छह माह में
पूरा होने वाला है। इतना ही नहीं, इस प्रयास ने भविष्य के अनेक रास्तों को खोला
है, संभावनाओं को जन्म दिया है।साथ ही इस विश्वास को भी प्रबल किया है, कि देश के
अंदर राज्यों के बीच अब सीमा-विवाद पुराने समय की बात हो चुकी है। अब हम एक राष्ट्र
के रूप में एकसाथ आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा व महत्त्वपूर्ण
राज्य- असम और पूर्वोत्तर का मेघ से आच्छादित प्रकृति की सुरम्यता से पूरित राज्य-
मेघालय अपने-अपने पड़ोसियों के साथ विवाद को सुलझाकर यह सिद्ध कर रहे हैं, कि
पूर्वोत्तर सही अर्थों में देश का विकास इंजन है। </span><span face=""Nirmala UI",sans-serif" style="color: black; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;">-आचार्य अनामय (राहुल मिश्र)</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><b><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 24pt; line-height: 107%;"></span></b><p></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%;"> </span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%; text-indent: 1cm;">(</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="HI" style="font-size: 16pt; line-height: 150%; text-indent: 1cm;">मासिक पत्रिका सीमा संघोष, नई दिल्ली के अप्रैल, 2022
अंक में प्रकाशित</span><span face=""Nirmala UI", sans-serif" lang="EN-US" style="font-size: 16pt; line-height: 150%; text-indent: 1cm;">)</span></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-817516783903506072022-03-19T09:20:00.002+05:302022-03-19T09:20:26.014+05:30पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार<p> </p><h1 align="center" style="text-align: center; text-indent: 36.0pt;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjyl1nCO7-bY2oMbKi2t2kADuEDJoOoR3uYXxpNafSQDUmygeP8xD4QOukiLXyINaAEhP_oi2L_gR5wc0pTNWJ0gFZ9cW0VEuNL2VJVXNAZo-ILng6_O9YXGvDv3pXw8JImw_ZGjqeN5y9XqrPTmkJrszut27QlvZrnbyyiAL5um9VpWZTCPqeR87tPtA=s918" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="color: black;"><img border="0" data-original-height="762" data-original-width="918" height="333" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjyl1nCO7-bY2oMbKi2t2kADuEDJoOoR3uYXxpNafSQDUmygeP8xD4QOukiLXyINaAEhP_oi2L_gR5wc0pTNWJ0gFZ9cW0VEuNL2VJVXNAZo-ILng6_O9YXGvDv3pXw8JImw_ZGjqeN5y9XqrPTmkJrszut27QlvZrnbyyiAL5um9VpWZTCPqeR87tPtA=w400-h333" width="400" /></span></a></div>पूर्वोत्तर
भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार</h1><div><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; line-height: 115%;"><p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">पूर्वोत्तर
भारत, भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश। किसी समय इस समग्र प्रदेश को ‘नेफा’, यानि
‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ के नाम से जाना जाता था। ईशान्य ही ‘नार्थ-ईस्ट’ है।
भारतीय वाङ्मय के अंतर्गत आने वाले शिल्पशास्त्र में वास्तुशिल्प का अपना विशिष्ट
स्थान है और इसे विधिवत् शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। वास्तुशिल्पशास्त्र में
ईशान्य का विशेष महत्त्व बताया गया है। ईशान, अर्थात् हरमहेश्वर रुद्र और प्रकृति
के आदिपुरुष शिव से भी इस दिशा को पहचान सकते हैं। वास्तुपुरुष मंडल में
उत्तर-पूर्व की दिशा मस्तक की होती है। यह ग्रहाधिपति सूर्य की दिशा होने के कारण
सर्वाधिक ऊर्जावान होती है। इस कारण प्रवेश-द्वार, द्वारमंडप और ध्यान-पूजा
इत्यादि के लिए इस दिशा को सर्वथा उपयुक्त बताया गया है। भारतवर्ष का ईशान्य
प्रदेश, या पूर्वोत्तर प्रदेश इसी दृष्टि से अत्यंत समृद्ध, प्राचीन और विशिष्ट
है। इसी कारण भक्ति के भावों की व्याप्ति पूर्वोत्तर के कण-कण में है। इसी कारण
पूर्वोत्तर के जीवन में भक्ति के भाव रचे-बसे हुए हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भक्ति-साहित्य,
स्वंय में एक रूढ़ शब्द है, जो काल-विशेष में रची गई भक्तिपरक रचनाओं का द्योतक
है। मध्यकाल के पूर्वार्ध में, सन् 1350 से 1650 ई. के आसपास दक्षिण भारत के
भक्तकवियों की रचनाओं के उत्तर भारत में आते प्रभावों के फलस्वरूप उत्तरभारत के
भक्तकवियों द्वारा रची गई भक्तिपरक रचनाएँ ही सामान्यतः भक्ति-साहित्य की श्रेणी
में रखी जाती हैं। इसी कारण भक्तिकाल और भक्ति-साहित्य एक विशेष कालखंड और उस
कालखंड में रची गई रचनाओं के लिए रूढ़ हैं। इस दृष्टि से अगर देखें, तो पूर्वोत्तर
भारत के भक्ति-साहित्य के अनुशीलन हेतु एक सीमारेखा बनी हुई प्रतीत होने लगती है,
जो स्वयं में संकुचित और अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों-विषयों को अपनी परिधि से बाहर
छोड़ देती हुई दिखाई पड़ती है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य को इस सीमारेखा में
बाँधकर जानना-परखना इसी कारण उचित नहीं होगा।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">इस निश्चित
सीमा से अलग हटकर यदि भक्ति के भाव से ओतप्रोत साहित्य को देखें, तो सृष्टि के
आदिम काल से ही भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य दिखाई पड़ने लगता है, जिसमें श्रद्धा और
प्रेम का सम्मिश्रण मानवीय अभिव्यक्तियों में मुखर होता है। पूर्वोत्तर के
भक्ति-साहित्य के आधार को इसी दृष्टि से यहाँ बताने का प्रयास किया गया है।
पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति अपने स्वरूप और अपने परिचालन में इतनी प्राचीन है,
कि उसमें श्रद्धा और प्रेम के भाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में भक्ति कह सकते हैं,
सृष्टि की दृश्य-अदृश्य शक्तियों के प्रति प्रकट होते रहे हैं। इसका प्रथम दर्शन
पूर्वोत्तर के शिष्ट या लिखित साहित्य से कहीं आगे प्रकीर्ण साहित्य में होता है;
लोकगीतों, किस्सों-कथाओं, लोकनृत्यों आदि में होता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">अविभाजित पूर्वोत्तर,
अर्थात् भाषायी-जातीय-क्षेत्रीय पहचान के आधार पर आठ अलग राज्यों में बँटे
पूर्वोत्तर का प्राचीन स्वरूप ऐसा रहा है, जहाँ जनजातीय समूहों के बीच प्रकृति की
पूजा का क्रम अलग-अलग विधि-विधानों के साथ एकसमान रूप से चलता रहा है। यही एक
तत्त्व विभिन्न भाषायी-जनजातीय विभेदों को किनारे रखकर समूचे पूर्वोत्तर को एक
सूत्र में बाँधे रहा है। प्रकृति की पूजा में भी प्रकृति के आदि पुरुष और प्रकृति
की आदिशक्ति, अर्थात् शिव और शक्ति की पूजा होती रही है। असम के बोडो जनजातीय समूह
में दिवा और दिवि को आद्य देवी-देवता की मान्यता प्राप्त है। ये शिव और पार्वती के
प्रतीक हैं। इसी प्रकार देउरी जनजातीय समूह में गिरा और गिराची की पूजा होती है।
लालुंग समूह फा महादेव को अपना आदिदेव मानते हैं और स्वयं को उनका ही वंशज मानते
हैं। तिवा (लालुंग) आदिवासियों द्वारा पूजा हेतु स्थापित किया जाने वाला त्रिपद,
त्रिनेत्रधारी शिव का ही प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी जनजातीय
समूहों में शिव के अनेक रूप प्रचलित हैं। शिव को शक्ति के साथ ही पूर्णता मिलती
है। ये शिव किसी मंदिर में विराजने वाले नहीं हैं, अलौकिक सिंगार करने वाले भी
नहीं हैं। आदिम-आदिवासी जीवन में रचे-बसे हुए हैं। इसी कारण पूर्वोत्तर के अनेक
लोकगीतों- लोककथाओं में वे पूरी तरह से देशी रूप में, भंग-धतूरे के सेवनकर्ता और
फक्कड़ दिखाई देते हैं। शिव का यह स्वरूप आदिवासी जीवन के अत्यंत निकट होने के
कारण ही सहजता के साथ जन-स्वीकार्य हो जाता है। शिव का पशुपति रूप भी यहाँ बहुत
प्रचलित है। नंदी की उपस्थिति गौवंश के प्रति जनजातीय आस्था को पुष्ट करती है।
अनेक रीति-रिवाजों में गौपूजन अनिवार्य होता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">असम का बिहू
पूर्वोत्तर भारत की पहचान से जुड़ा हुआ पर्व है। यह भी गौपूजन के बिना संपन्न नहीं
होता है। वस्तुतः यह पर्व प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति आस्था और श्रद्धा
का पर्व है। बहाग (वैशाख), काति (कार्तिक) और माघ बिहू के तीन बड़े आयोजनों के साथ
ही पूर्वोत्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में बिहू के कुछ अन्य स्थनीय संस्करण भी होते
हैं। बिहू पर्व की इतनी विविधता और पर्व में कृषि के साथ जुड़े उत्सवों की
प्रधानता बिहू के प्रकृतिपूजक स्वभाव को व्याख्यायित करती है। जब प्रकृति वसंत के
विभिन्न रंगों से रंग जाती है, तब बहाग बिहू अपने स्थानीय नाम, अर्थात् रंगाली
बिहू के रूप में मनाया जाता है। काति बिहू का दूसरा नाम कंगाली बिहू भी है, जो कि
कार्तिक के समय किसानों के खाली अन्न-भांडारों या कंगाली को प्रकट करता है।
रिक्तता का अपना उत्सव है। तुलसी चौरे की पूजा के साथ ही खेतों में दीपक जलाकर
अच्छी फसल की कामना करते हुए कंगाली बिहू अनाज के कोठारों को खूब भर देने की कामना
के साथ मनाया जाता है। माघ बिहू को भोगाली बिहू भी कहते हैं, जिसमें धन-धान्य से
परिपूर्ण भोग-आनंद का उत्सव होता है। फसल की कटाई के साथ कृषि-प्रधान जीवन में
उमंग और उल्लास भर जाता है, जो इस पर्व में प्रकट होता है। सोलुंग, सोरी, दारांग,
माहोहो, आओलिं मोन्यु, चांग नागा समुदाय का ‘नाक्नयुलेम’ पर्व, लेपचा समुदाय का
‘तेंदोंग-ल्हो-रम-फत’ और मिजो समुदाय का ‘न्हुआई-पुई’ आदि पर्व-अनुष्ठान अलग-अलग
तरीकों से प्रकृति पूजा के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर्वों-अनुष्ठानों में लोकगीतों,
लोककथाओं और लोकनृत्यों का विशेष स्थान होता है। इनके माध्यम से आदिवासी समूह
प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को प्रकट करते आए हैं। प्रकृति-पूजा
के साथ ही इन पर्वों-अनुष्ठानों में आदिवासी समुदायों के आदिपुरुषों, वीर योद्धाओं
के जीवन-चरित और उनकी कथाएँ भी जुड़ती चली गईं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">आज के अरुणाचल
प्रदेश में ‘आबो-तानी’ के नाम से ऐसे शक्तिशाली पुरुष को पूजा जाता है, जो लोगों
को प्राकृतिक आपदाओं और संकटों से बचाने वाला है। इसी कारण वे ‘आबो-तानी’ को अपना
जन्मदाता मानते हैं। ‘आबो-तानी’ की छः संताने हैं, जो अलग-अलग जनजातीय पहचान बना
चुकी हैं। इनको तानी वर्ग का जनजातीय समूह कहा जाता है। यह समूह मानता है, कि
दोइनि-पोल्लो (सूर्य-चंद्र) आकाश में विराजते हैं और दुनिया के सारे
कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। ये अच्छे लोगों का मार्गदर्शन भी करते हैं
और बुरे लोगों को दंड भी देते हैं। सूर्य और चंद्रमा की पूजा प्रकृति से जुड़ी हुई
है। नदी, तारे, झरने, वन आदि की पूजा पूर्वोत्तर के प्रकृतिपूजक समाज की आस्थाओं
को व्याख्यायित करती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">मणिपुर का मैतेयी
जनजातीय समूह ‘सने-मही’ की पूजा करता है। ‘सने-मही’ मुख्य रूप से प्रकृति के देवता
हैं। इनके प्रति समूचे पूर्वोत्तर में आस्था देखी जा सकती है। ‘सने-मही’ मत का
मैतेयी में लिखा आदिग्रंथ है- पूया। यह वस्तुतः ‘पू’ और ‘याथङ्’ से बना है, जिसका
अर्थ है- पूर्वजों द्वारा दिये गए निर्देश। इस ग्रंथ में ‘लाइ-हाइ-लाओबा’, अर्थात्
भगवान् के आनंद, के साथ ‘लाइ-हराओबा’ नामक पर्व को जोड़ा गया है। भगवान को आनंद
प्रकृति के निर्माण और संचालन में आता है, अपनी सृष्टि को प्रसन्न देखने में आता
है। इस कारण ‘लाइ-हराओबा’ सीधे-सीधे सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा और प्रकृति की
पूजा से जुड़ जाता है। यह पर्व अनेक नृत्यों, लोकगीतों और पर्वानुष्ठानों का समन्वित
रूप है। इसमें उमंगलाई, अर्थात् वन के देवी-देवताओं की पूजा होती है।
पोखरों-तालाबों की पूजा होती है। इसमें तीन सौ से अधिक ग्रामदेवी-देवताओं की पूजा
होती है, पूर्वजों की पूजा होती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">‘लाइ-हराओबा’
के इस दीर्घ नृत्य-नाट्यानुष्ठान में पूर्वोत्तर की उस वैचारिकता की झलक भी मिलती
है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सजग रही
है। यह धार्मिक नृत्य-नाट्यानुष्ठान इसी कारण प्रेमकथाओं की उपस्थिति के बाद भी
विशुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को स्वयं में जीवंत रखता है। सृष्टि के
निर्माण और संचालन में नर-नारी की उपस्थित, उनकी लौकिक-ऐहिक भाव-भंगिमाएँ असंयमित
नहीं करती हैं; मन में विकृत भावों को, कामोत्तेजना को उत्पन्न नहीं करती हैं। यह
समग्र अनुष्ठान पुस्तकीय ज्ञान से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का अद्भुत माध्यम
बन जाता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjs9NZRQCLjT38WiVGBIfiNMY6f2_glfxxURi9kDP4fgk__x9vIasdwBSeS1xXa1V8kmfrgOQjZ8muqt_tGkGTvX5FmYv-7BnIZ2y2x2_DteEyEgEZEoct8jNlGzLQu-nwQ6mvqqXHTnKhaEXIjIv0rawdiGGI85FluHglWL9hinIA3V6Pr2Bu2OGCAcA=s775" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; font-family: "Times New Roman"; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><span style="color: black;"><img border="0" data-original-height="775" data-original-width="505" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjs9NZRQCLjT38WiVGBIfiNMY6f2_glfxxURi9kDP4fgk__x9vIasdwBSeS1xXa1V8kmfrgOQjZ8muqt_tGkGTvX5FmYv-7BnIZ2y2x2_DteEyEgEZEoct8jNlGzLQu-nwQ6mvqqXHTnKhaEXIjIv0rawdiGGI85FluHglWL9hinIA3V6Pr2Bu2OGCAcA=w261-h400" width="261" /></span></a><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">‘लाइ-हराओबा’
के नृत्य-नाट्यानुष्ठान का एक महत्त्वपूर्ण अंश होता है- ‘खंबा-थोइबी’ नृत्य। यह
भी नाट्य-नृत्य है। इसमें लोककथा भी समाहित है। ‘खंबा’ एक साधारण युवक है, और
‘थोइबी’ राजकुमारी है। मणिपुर का पुरातन नगर है- मोइरङ। यह मोइरङ वंश के 52
प्रतापी शासकों की राजधानी रहा है। ‘खंबा-थोइबी’ की उत्पत्ति भी इसी प्राचीनतम नगर
में हुई है, ऐसी मान्यता ‘मोइरङ परब’ नामक मणिपुरी महाकाव्य में व्यक्त हुई है।
खंबा-थोइबी 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के ऐसे नायक-नायिका हैं, जिन्होंने प्रेम
की अनूठी परिभाषा को समाज के सामने रखा था। अनाथ खंबा की बहन खाममू ने
मेहनत-मजदूरी करके, और भीख माँग-माँगकर खंबा को पाला था। थोइबी मोइरङ राजपरिवार की
राजकुमारी थी। मोइरङ राजा और उनके भाई के बीच वह इकलौती संतान थी। खंबा और थोइबी
के पवित्र प्रेम के बीच कोङ्ग्याङ्बा आ जाता है। वह मोइरङ राजपरिवार के विश्वस्त
अधिकारी का बेटा है। तमाम कथा-प्रसंगों के बीच खंबा और थोइबी का प्रेम सफल हो जाता
है, किंतु जरा-सी एक भूल होती है, और थोइबी के हाथों खंबा की हत्या हो जाती है।
अंत में थोइबी भी आत्महत्या कर लेती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">इस
लोकनाट्य-नृत्य में नटराज की अनेक नृत्यमुद्राएँ आती हैं। इस कारण यह नृत्य-नाट्य
शिव के तांडव और नटराज रूप से भी जुड़ जाता है। धूनी रमाने वाले, वन-प्रांतरों में
निवास करने वाले शिव को ‘खंबा’ में, और राजा हिमांचल की पुत्री राजकुमारी पार्वती
को ‘थोइबी’ में देखते हुए ‘खंबा-थोइबी’ नामक यह लोकनृत्य-नाट्य शिव-पार्वती की कथा
से जुड़ जाता है। भले ही शिव और पार्वती के जीवन की कथा पूरी तरह से खंबा-थोइबी की
कथा से मेल न खाती हो, फिर भी इस प्रेमकथा में शिव और पार्वती के आगमन से यह ऐसे
प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसे भक्तिकाल की प्रेममार्गी
काव्यधारा के पूर्वोत्तरीय संस्करण के रूप में देख सकते हैं। शिव के साथ शक्ति के
रौद्र और सौम्य रूप, यथा- कामाख्या और त्रिपुरसुंदरी पूर्वोत्तर में शाक्त-साधना के
प्रतीक हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">पूर्वोत्तर की
एक अन्य प्रमुख जनजाति है- मिकिर। यह स्वयं को ‘करबी’ भी कहती है। ‘करबी’ का
स्थानीय बोली में अर्थ होता है- मनुष्य। ये स्वयं को ब्रह्मा से उत्पन्न मानते
हैं। इस प्रकार ये देव से उत्पन्न मनुष्य हैं। इस समुदाय के द्वारा पूर्वजों के
श्राद्धकर्म के समय लोकगीत गाया जाता है, जिसमें किसी महान पक्षी द्वारा अनेक अंडे
दिये जाने का वर्णन मिलता है। मिकिरों या करबियों के अनुसार ये अंडे ब्रह्मा के
दिये हुए थे, और इन अंडों में से ही मनुष्यों की अलग-अलग प्रजातियाँ उत्पन्न हुईं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">आज के अरुणाचल
प्रदेश के लोहित जनपद में परशुराम कुंड है। यह कुंड मिशिम प्रदेश के हृदय में
स्थित है। अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय व्यवस्था में मिश्मी जनजाति की बड़ी संख्या
है। पुराने समय में ये परशुराम कुंड की व्यवस्था करने और यात्रियों से कर वसूलने
का काम करते थे। मिश्मी लोग स्वयं को कुंडिनपुर के राजा भीष्मक के पुत्र रुक्मि का
वंशज मानते हैं। रुक्मिणी के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल से रुक्मिणी के विवाह
को रुकवाया था, और स्वयं विवाह किया था। इस पर रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भयंकर संघर्ष
भी हुआ। कहा जाता है, कि रुक्मिणी के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का
ऐसा प्रहार किया, कि रुक्मिणी के भाई रुक्मि का अजीब तरीके से केश-कर्तन हो गया।
इस कारण आज भी मिश्मी समुदाय के लोग बहुत छोटे केश रखते हैं। इसी तरह हार से दुःखी
मिश्मी समुदाय के लोग अपने कपाल पर ‘कॉपलि’ नामक चाँदी का पट्टा धारण करते हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">आज के
नागालैंड का दीमापुर हिडिंबापुर से विकृत होकर बना है, ऐसा माना जाता है। नागालैंड
का एक जनजातीय समूह स्वयं को अज्ञातवासी भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानता है।
दीमापुर में<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>स्थित हिडिम्बा के बाड़ा में चौसर
खेल की बड़ी-बड़ी गोटियाँ जैसी प्रस्तर आकृतियाँ रखी हैं, जिनसे किसी जमाने में
भीम और उनका पुत्र घटोत्कच चौसर खेला करते थे, ऐसी भी मान्यता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">बृहत् असम,
अर्थात् कामरूप अर्थात् प्राग्ज्योतिष का राजा शैलाधिपति भगदत्त अपने किरात
सैनिकों, अर्थात् वर्तमान नागालैंड के मूल निवासियों को साथ लेकर कौरवों की तरफ से
महाभारत के युद्ध में लड़ने के लिए गया था। कुरुवंशीय राजा ययाति के पुत्र द्रहु
की 38वीं पीढ़ी के राजा त्रिपुर से त्रिपुरा को अपना यह नाम मिला था। महाभारत का
गंधर्वलोक, अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का नैहर और अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन
द्वारा संचालित राजवंश का जीवंत साक्ष्य आज का मणिपुर है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">पूर्वोत्तर की
तीवा (लालुंग) जनजाति अपने को माता सीता का वंशज मानती है। इसी प्रकार करवी जनजाति
स्वयं को बालि और सुग्रीव का वंशज मानती है। पूर्वोत्तर में रामकथा का आगमन
वाल्मीकि की रामायण के साथ होता है। इसके अतिरिक्त बंगाल की कृत्तिवासी रामायण का
प्रभाव पूर्वोत्तर में पड़ा। 14वीं-15वीं शताब्दी में माधव कंदली द्वारा रचित
सप्तकांड रामायण पूर्वोत्तर के लिखित भक्तिसाहित्य का पहला ग्रंथ कहा जा सकता है।
यह देववाणी के रूप में नहीं, बल्कि लौकिक कथा के रूप में है, इस कारण बृहत् असम के
लोकजीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इसमें दिखाई पड़ते हैं। असमीया रामायण में सीता
की अग्निपरीक्षा के प्रसंग में राम और सीता का संवाद भी है। इसमें अग्निपरीक्षा के
लिए कहने पर सीता बहुत क्रोधित होती हैं। अन्य रामकथाओं की तरह असमीया रामकथा की
सीता अबला नहीं दिखती हैं। यह प्रसंग पर्वतीय महिलाओं की संघर्षशीलता और उनके साहस
को प्रकट करता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">तिवा जनजाति
में ‘रामायने खरङ्’ नाम से रामकथा का मौखिक रूप प्रचलित रहा है। इसमें वाल्मीकि
रामयण के विभिन्न कथा-प्रसंग अलग-अलग लोकगीतों के रूप में आते हैं। ‘लिकछा लामाङ्’
खामति जनजाति की रामकथा है। इसमें बौद्ध प्रभाव है, और जातक कथाओं के प्रसंग भी
इसमें आते हैं। करवी समुदाय में ‘छाबिन-आलुन्’ नामक लोकगीत गाए जाते हैं। ये
लोकगीत रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित होते हैं। चूँकि ये लिखित रूप में
नहीं थे, इस कारण अलग-अलग गीत-खंडों में अलग-अलग कथाएँ होती हैं। ‘छाबिन-आलुन्’ का
संकलित रूप ही करवी रामायण कहलाता है। इसमें करवी समुदाय का जीवन, उनका रहन-सहन और
उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताएँ समग्र रूप में समाहित हो गईं हैं। उदाहरण के रूप में,
करवी रामायण के राम और लक्ष्मण परंपरागत झूम खेती करते हैं। राजा जनक भी झूम खेती
करते हैं। सीता अपने पिता के लिए कलेवा लेकर, साथ ही धान से बनी देशी मदिरा लेकर
खेत में जाती है। एक बार सीता अपने घर में साफ-सफाई करते समय भारी-से लोहे के धनुष
को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देती हैं, और तब जनक यह तय करते हैं कि वे
अपनी बेटी का विवाह ऐसे वीर युवक से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। तिवा, खामति
और करवी रामकथाओं के लोक-संस्करणों की तरह अन्य जनजातीय समूहों में रामकथाएँ
प्रचलित हैं। इन सभी में एक समानता है, कि इनमें जनजातीय-पर्वतीय जीवन इस तरह से
घुला-मिला है, कि रामकथा और राम इन्हीं जनजातीय समूहों के अपने होकर रह गए हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">ये पूर्वोत्तर
के जनजातीय समाजों के श्रद्धा और प्रेम के भाव ही कहे जाएँगे; जिन्होंने राम, कृष्ण,
ब्रह्मा, शिव और शक्ति को अपने में ढाल लिया और उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया।
भक्ति का यह ऐसा उदात्त और विलक्षण स्वरूप है, जिसे अन्यत्र खोज पाना जटिल और
दुर्लभ है। श्रद्धा और प्रेम के भावों से भक्ति की निर्मिति को शाण्डिल्य और नारद
ऋषियों ने बताया है। इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्याख्यायित किया है।
श्रद्धा और प्रेम के समन्वित भावों से निर्मित भक्ति और इस भक्ति का प्रकीर्ण
साहित्य पूर्वोत्तर की अपनी विशेष पहचान गढ़ता है। अतीत से वर्तमान तक समग्र
पूर्वोत्तरीय भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार इसी भावभूमि पर हुआ है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">बीसवीं शताब्दी
के पूर्वार्द्ध तक जनजातीय समुदायों का यह विशाल लोकसाहित्य, या कहें भक्तिसाहित्य
लोककंठों में ही जीवित रहा। बाद में इसके लिखित संस्करण भी जागरूक साहित्यसेवियों
द्वारा तैयार किये गए। सन् 1993 में रूपसिंह देउरी ने ‘रामायने खराङ्’ का असमीया
लिपि में मुद्रित संस्करण तैयार किया। इसी प्रकार डॉ. देवेनचंद्र दास ने ‘छाबिन
आलुन्’ को देवनागरी में लिपिबद्ध करके सन् 2000 ई. में प्रकाशित कराया। ऐसे अनेक
प्रयास पूर्वोत्तर में हुए हैं, और इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">समग्रतः;
प्रकृति-पूजा, प्रकृति पुरुष शिव और शक्ति से क्रमशः महाभारत-रामकथा के
कथा-प्रसंगों ने पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को निर्मित किया। यह आधार
मुख्यतः लोकजीवन, लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं-लोककलाओं का है। इसी कारण पौराणिक
कथा-प्रसंग लोकसंस्करण में विकसित हुए, विस्तृत हुए। पूर्वोत्तर की यह ऐसी
विशिष्टता है, जिसने युगों-युगों तक यहाँ के आस्थावान जनजातीय समूहों को एक सूत्र
में बाँधे रखा। भले ही वैचारिक संक्रमणों, उन्माद और बर्बरता की स्थितियों ने,
जातीय-क्षेत्रीय-भाषायी अस्मिता के संघर्षों और धार्मिक असंतुलनों ने पूर्वोत्तर
की अपनी पुरानी पहचान को, जड़ों को गहराई में दबा दिया हो, मगर इस एक्य के सूत्र
को, समन्वय को भक्ति साहित्य के लोकसंस्करणों के माध्यम से पुनर्जीवन दिया जा सकता
है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भक्ति-साहित्य
का यह लोक-संस्करण भले ही शिष्ट साहित्य की परिधि से बाहर हो, किंतु इसी के
रस-संचय से कालांतर में वैष्णव भक्ति (जात्रा, नामघर आदि) तक भक्ति-साहित्य का
विकास और विस्तार पूर्वोत्तर में हुआ है। भक्ति-साहित्य के समग्र स्वरूप को
पूर्वोत्तर के संदर्भ में माधवदेव द्वारा रचित निम्न पंक्तियों के आलोक में देखा
जा सकता है-</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin-top: 6pt; text-align: justify; text-indent: 36pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">धन्य-धन्य
कलिकाल / धन्य नरतनु भाल / धन्य-धन्य भारतबरिषे (बरगीत / माधवदेव) </span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></p><p class="MsoBodyTextFirstIndent" style="font-size: 34pt; margin: 6pt 0cm 6pt 17.85pt; text-align: justify; text-indent: 0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 22pt; line-height: 115%;">संदर्भ ग्रंथ-</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 22pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoList2CxSpFirst" style="font-size: 34pt; margin: 6pt 0cm 6pt 17.85pt; text-align: justify; text-indent: 0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">1. भारत की लोकसंस्कृति, सं. हेमंत कुकरेती, प्रभात प्रकाशन, नई
दिल्ली, सं. 2018,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoList2CxSpMiddle" style="font-size: 34pt; margin: 6pt 0cm 6pt 17.85pt; text-align: justify; text-indent: 0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">2. भारतीय साहित्य की पहचान, सं.
डॉ. सियाराम तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2015,<o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoList2CxSpMiddle" style="font-size: 34pt; margin: 6pt 0cm 6pt 17.85pt; text-align: justify; text-indent: 0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">3. पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य,
सं. डॉ. अनुशब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2017, </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoList2CxSpMiddle" style="font-size: 34pt; margin: 6pt 0cm 6pt 17.85pt; text-align: justify; text-indent: 0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">4. कृतिरूप संघ दर्शन, संकलन व
संपादन- हो. वे. शेषाद्रि, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, अष्टम सं. 2015,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoList2CxSpMiddle" style="font-size: 34pt; margin: 6pt 0cm 6pt 17.85pt; text-align: justify; text-indent: 0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">5. असम : लोक-संस्कृति और साहित्य,
जोगेश दास, हिंदी अनुवाद कृष्ण गोपाल अग्रवाल, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई
दिल्ली, सं. 1976</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoList2CxSpLast" style="font-size: 34pt; margin: 6pt 0cm 6pt 17.85pt; text-align: justify; text-indent: 0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">6. मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में, डॉ. देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन,
नई दिल्ली, सं. 2006 ।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoList2CxSpLast" style="font-size: 34pt; margin: 6pt 0cm 6pt 17.85pt; text-align: justify; text-indent: 0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"></span></p><h1 style="font-size: 34pt; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-size: 20pt; font-weight: normal; line-height: 115%;">{पूर्वोत्तर
भारत का भक्ति साहित्य (पुस्तक), संपादक डॉ. मंदाकिनी शर्मा, प्रकाशक- अखिल भारतीय
साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली में प्रकाशित}<o:p></o:p></span></h1><div style="text-align: right;"><p align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0cm; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-size: 24pt;">-डॉ. राहुल मिश्र</span><span lang="EN-US" style="font-size: 24pt;"><o:p></o:p></span></p></div><br /></span></div>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-40147785124515444302022-03-19T08:50:00.002+05:302022-03-19T08:50:47.456+05:30यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><br /></b></div><b><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEh0NGb3GkJF_7qnnF5wBeWo4YqRK4SEhOmCjN9Ui_AW3EdazHBg3vxIEOrHfg9NKJtvmvcwKgRp8mBUa_6fWGRs1H_f_PrZah2KJSgGctkHTBh4nQtI67M3_yhulvWp-2tYQ1TK_EyL5u6o8aeTSuJ-6ksQvfzUWqkD7sINmX4Cs3QED3zj9EHomt2hvg=s770" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="770" data-original-width="590" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEh0NGb3GkJF_7qnnF5wBeWo4YqRK4SEhOmCjN9Ui_AW3EdazHBg3vxIEOrHfg9NKJtvmvcwKgRp8mBUa_6fWGRs1H_f_PrZah2KJSgGctkHTBh4nQtI67M3_yhulvWp-2tYQ1TK_EyL5u6o8aeTSuJ-6ksQvfzUWqkD7sINmX4Cs3QED3zj9EHomt2hvg=w490-h640" width="490" /></a></div></b><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><span style="color: white;">यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद</span></span></b></p></span></b><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><i style="text-align: justify; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><span style="color: white;">प्रगति का साधारण अर्थ
है- आगे बढ़ना। जो साहित्य जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक हो, वही प्रगतिशील
साहित्य है। इस दृष्टि से विचार करेंगे तो तुलसीदास सबसे बड़े प्रगतिशील लेखक
प्रमाणित होते हैं। भारतेंदु बाबू और द्विवेदी युग के लेखक, मुख्यतः मैथिलीशरण
गुप्त भी प्रगतिशील लेखक हैं। परंतु आज का प्रगतिवादी इनमें से किसी को भी
प्रगतिशील नहीं मानेगा- ये सभी तो उसके अनुसार प्रगतिक्रियावादी लेखक हैं। अतः
प्रगति का अर्थ आगे बढ़ना अवश्य है, परंतु एक विशेष ढंग से, एक विशेष दिशा में।
उसकी एक विशिष्ट परिभाषा है। इस परिभाषा का आधार है- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद।<sup>1</sup></span></span></i></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
</p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">सच्ची बात तो यह है कि
हमारे अधिकांश साहित्यकार, जो प्रगतिवादी वर्ग के नेता माने जाते हैं, स्वयं किसी
पूँजीपति से कम नहीं हैं। पहाड़ियों के वैभवपूर्ण वातावरण में बैठकर निश्चिंतता से
मजदूरों के दुःख-दर्द के गीत लिखे जा सकते हैं, किंतु उनमें अनुभूति की सजीवता आ
जाय, यह आवश्यक नहीं। फलतः प्रगतिवादी<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>साहित्य
हमारे हृदय को बहुत कम स्पर्श करता है।</span></i><sup><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">2</span></sup><sup><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></sup></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">हिंदी के जाने-माने
समीक्षक-आलोचक डॉ. नगेंद्र और हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्येतिहासकार डॉ.
गणपतिचंद्र गुप्त के उक्त कथनों के माध्यम से हिंदी साहित्य के प्रगतिवाद को जाना-समझा
जा सकता है। प्रगतिवाद अपने सीधे-सरल अर्थों में भले ही प्रगति की विचारधारा का
पोषण करने के अर्थ को व्याख्यायित करता हो, किंतु हिंदी साहित्य में जिस रूढ़ और विशिष्ट
अर्थों से संपृक्त प्रगतिवाद की चर्चा की जाती है, वह प्रगति के सीधे और सरल
स्वरूप से पूर्णतः भिन्न है। इसी कारण प्रगतिवाद के सामान्य, सीधे और सरल अर्थ को
ग्रहण कर लेने पर उसी प्रकार की स्थिति का जन्म हो जाता है, जैसी कि हिंदी के
प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत के साथ बन गई थी, जैसी कि प्रेमचंद के साथ बनी थी। डॉ.
नगेंद्र अपने निबंध- ‘प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य’ में लिखते हैं-</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjzJHC4V94yMBKoaIhJlo19ryAogJj5lEdh5Z246nzPVKckE5zYpo0U6MBDkZdJuGZk9B-OISbq_tqcIXwNpmzy41JmQQmPb8oboCpAcIMWTufYc_Z9i4EDAjUPJSe0DzuBfQLts1Fb7Z2hoVJ8pj3GMZZiNewXQhqlZEskQSiPhx3G2b_oGgQcYYl19g=s837" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><span style="color: white;"><img border="0" data-original-height="837" data-original-width="653" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjzJHC4V94yMBKoaIhJlo19ryAogJj5lEdh5Z246nzPVKckE5zYpo0U6MBDkZdJuGZk9B-OISbq_tqcIXwNpmzy41JmQQmPb8oboCpAcIMWTufYc_Z9i4EDAjUPJSe0DzuBfQLts1Fb7Z2hoVJ8pj3GMZZiNewXQhqlZEskQSiPhx3G2b_oGgQcYYl19g=w313-h400" width="313" /></span></a><span style="color: white;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">हिंदी में प्रगतिवाद का
आदिग्रंथ ‘गोदान’ है। परंतु गांधीजी में आस्था रखने वाले प्रेमचंद को शुद्ध
प्रगतिवादी शायद न माना जा सके। वे मानववाद के आगे नहीं जा सके। प्रगतिवाद की
रूपरेखा पिछले दो-तीन वर्षों से ही बननी आरंभ हुई है। यह एक विचित्र संयोग है कि
हिंदी में प्रगतिवाद का भी सबसे पहला लेखक- जिसने उसे गौरव दिया- यही व्यक्ति है,
जो छायावाद का भी एक प्रमुख प्रवर्तक था। मेरा आशय कवि पंत से है।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">इस वर्ग के कवि-लेखकों
में केवल एक ही प्रवृत्ति सर्व-सामान्य है- क्रांति। शुद्ध प्रगतिवादी दृष्टिकोण तो
शायद पंत और नये कवियों में नरेंद्र ने ही ग्रहण किया है। और सच तो पंत और नरेंद्र
में भी यह बुद्धि की प्रेरणा, संस्कार अभी उनके पीछे को ही दौड़ रहे हैं। शेष
लेखक-कवि तो अंशतः ही प्रगतिशील हैं।<sup>3</sup></span></i><i><sup><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></sup></i></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">अपने इस लेख के उपरोक्त
संदर्भ में नगेंद्र एक टिप्पणी (फुटनोट) भी लिखते हैं- <i>परंतु अब इन दोनों
(सुमित्रानंदन पंत और नरेंद्र शर्मा) को भी प्रगतिवादी पार्टी के चीफ व्हिप डॉक्टर
रामविलास शर्मा ने पार्टी से निकाल दिया है।<sup>4</sup></i> यह टिप्पणी सिद्ध
करती है, कि जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की पक्षधरता प्रगतिवाद का एक प्रमुख आयाम
कहा जाता है, वह सैद्धांतिक रूप से यहाँ दिखाई नहीं पड़ता है। यहाँ सुमित्रानंदन
पंत की ‘युगवाणी’ में संकलित कविता ‘चींटी’ के एक अंश को उद्धृत करना प्रासंगिक
होगा। वे लिखते हैं-</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">निद्रा, भय, मैथुनाहार /
-ये पशु लिप्साएँ चार- / हुईं तुम्हें सर्वस्व-सार? /</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">धिक् मैथुन आहार यंत्र! /
क्या इन्हीं बालुका भीतों पर / रचने जाते हो भव्य, अमर / तुम जन समाज का नव्य
तंत्र? / मिली यही मानव में क्षमता? / पशु, पक्षी, पुष्पों से समता? / मानवता
पशुता समान है? / प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है? /</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">बाह्य नहीं आंतरिक साम्य
/ जीवों से मानव को प्रकाम्य! / मानव को आदर्श चाहिए, / संस्कृति, आत्मोत्कर्ष
चाहिए, /</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><span style="color: white;">बाह्य विधान उसे हैं
बंधन, / यदि न साम्य उनमें अंतरतम- / मूल्य न उनका चींटी के सम, / वे हैं जड़,
चींटी है चेतन! / जीवित चींटी, जीवन वाहक, / मानव जीवन का वर नायक, / वह
स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक!/<sup>5<o:p></o:p></sup></span></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">यहाँ पंत ने जिस प्रकार प्रगतिवाद
की संकीर्ण वैचारिकता पर तीखी चोट की है, उसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता
है कि अपनी तीखी आलोचना को पचा पाना प्रगतिवादियों के लिए सहज नहीं रहा होगा। इसी
प्रकार प्रेमचंद के प्रगतिवादियों से संबंध को व्याख्यायित करना होगा। सज्जाद
ज़हीर के प्रयासों से लंदन में सन् 1935 में स्थापित होने वाला प्रगतिशील लेखक संघ
भारत पहुँचता है। भारत के अनेक साहित्यकारों- जैनेंद्र, गंगानाथ झा, कन्हैयालाल
माणिकलाल मुंशी, सच्चिदानंद सिन्हा, शिवदान सिंह चौहान, नरेंद्र शर्मा, हसरत
मोहानी, जोश मलिहाबादी और डॉ. अब्दुल हक़ सहित रवींद्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद इस
समूह के संपर्क में आए। प्रारंभ में सज्जाद ज़हीर का कहना था, कि यह समूह <i>भारतीय
अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव-प्रेम, उसकी यथार्थप्रियता और उसके
सौंदर्यतत्त्व लेने के पक्ष में है।<sup>6</sup></i> <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>इस प्रकार प्रगतिवाद की एकदम अलग और प्रायः
सर्वस्वीकृत विचारधारा को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन 09-10 अप्रैल,
1936 को लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन के सभापति प्रेमचंद थे। यहाँ उल्लेखनीय है कि दो
बैलों की कथा, पूस की रात, आत्माराम, स्वत्व रक्षा, अधिकार चिंता, नागपूजा, पूर्व
संस्कार, सैलानी बंदर, मुक्तिधन, और ऐसी ही तमाम कहानियों के साथ ही उपन्यासों में
प्रेमचंद जितने पशु-पक्षियों के प्रति सहृदय प्रतीत होते हैं, उतना ही लगाव और
आकर्षण भारत के ग्राम्य जीवन और भारतीय संस्कृति के प्रतीकों के लिए प्रकट होता
है। ऐसी अद्भुत, विलक्षण और कालजयी रचनाएँ करने वाले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ
की विचारधारा से जुड़कर भारतीय संस्कृति और भारतीयता के प्रतीकों को विस्मृत कर
बैठें होंगे, यह स्वीकार करना असंभव है। उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील लेखक संघ के
पहले अधिवेशन से पूर्व प्रेमचंद का इस विचारधारा के साथ कोई जुड़ाव नहीं था और इस
अधिवेशन के लगभग छह माह बाद ही प्रेमचंद का असामयिक निधन हो गया। कहना न होगा, कि
प्रेमचंद की सभी रचनाओं को अपने अनुरूप प्रस्तुत करते हुए प्रगतिवाद के झंडाबरदारों
ने प्रेमचंद को अपने खेमे का साहित्यकार घोषित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। यह
क्रम आज भी देखा जा सकता है, जबकि वास्तविकता यह है कि यदि प्रेमचंद जीवित होते,
तो उन्हें भी पंत और नरेंद्र शर्मा की तरह प्रगतिवादी पार्टी से कब का निष्कासित
कर दिया गया होता, या फिर वे जैनेंद्र और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की तरह स्वयं
ही अलग हो गए होते। इसी प्रकार रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के कोलकाता
अधिवेशन (सन् 1938) की अध्यक्षता की थी। टैगोर का साहित्य, उनकी संगीत-साधना और
उनका जीवन किसी भी प्रकार से प्रगतिवाद की विचारधारा से मेल खाने वाला प्रतीत नहीं
होता। इसी कारण कालांतर में रवींद्रनाथ ठाकुर भी प्रगतिवाद के खेमे से बाहर हो गए।
इस संदर्भ में डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त लिखते हैं-</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">वस्तुतः मुंशी प्रेमचंद
और गुरुदेव टैगोर- दोनों ने ही प्रगतिशीलता को एक व्यापक एवं उदात्त रूप में ही
ग्रहण किया था, जबकि परवर्ती साहित्यकारों ने इसे मार्क्सवाद की संकीर्ण सीमाओं
में अवरुद्ध करके इसे ‘प्रगतिशीलता’ से ‘प्रगतिवाद’ का रूप दे दिया। प्रगतिशीलता
जहाँ किसी वाद-विशेष की सूचक नहीं है। कोई भी विचार, जो समाज की प्रगति में सहायक
होता है, ‘प्रगतिशील’ कहा जा सकता है, जबकि ‘प्रगतिवाद’ का अर्थ विशुद्ध
मार्क्सवादी विचारों से लिया जाता है। इसीलिए ‘प्रगतिवाद’ की परिभाषा करते हुए कहा
गया है कि राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में
प्रगतिवाद है।<sup>7</sup></span></i><sup><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></sup></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">रूस की जारशाही को नष्ट
करके मार्क्स का जीवन-दर्शन सारी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर चुका था। इस आकर्षण
ने लंदन से होते हुए भारत में पदार्पण किया। भारत की सनातन परंपरा, जो अतीत के
अनेक उतार-चढ़ावों को देखते-भोगते और विषम परिस्थितियों से जूझते हुए
अखंड-अक्षुण्ण बनी हुई थी, उसमें सेध लगाने के लिए जिस प्रकार प्रगतिवाद अर्थात्
मार्क्सवाद को ‘प्रगतिशीलता’ के आवरण में छिपाकर प्रस्तुत किया गया, उसने अवश्य ही
अनेक बुद्धिजीवियों-साहित्यसेवियों को भ्रमित किया, परंतु भ्रम की यह स्थिति लंबे
समय तक बनी नहीं रह सकी। इस अवधि में ‘प्रगतिवाद’ ने अवश्य ही ऐसा वर्ग तैयार कर लिया
था, जो क्रांति की बात करके, द्वंद्वांत्मक भौतिकवाद की बात करके अपना वर्ग तैयार
करने के प्रयास में सक्रियता के साथ लगा हुआ था। इसी के फलस्वरूप अवसर का लाभ
उठाते हुए ऐसे साहित्यकारों को अपने खेमे में दिखाने का प्रयास ‘प्रगतिवाद’ की
धारा के लोग करने लगे, जिनके साहित्य का उल्लेख करके, जिनके स्वयं के प्रभाव का
वर्णन करके ‘प्रगतिवाद’ की ओर सामान्य जन को, आम पाठकों को आकर्षित किया जा सके।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">यह स्थिति राजनीति के
क्षेत्र में भी बनने लगी थी। यहाँ उल्लेख करना होगा, कि इसके लिए सीधा और सरल-सा
रास्ता कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) में ही बन गया था। इस अधिवेशन के
अध्यक्षीय उद्बोधन में जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं को साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी
घोषित करते हुए कहा- <i>मैं तो साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी हूँ।<sup>8</sup></i>
उनके द्वारा ‘साम्यवाद’ शब्द किस अर्थ में प्रयोग किया गया है, इसे जाने बगैर
पंडित नेहरू के (अंध) अनुयायियों ने साम्यवाद को, और फिर कालांतर में ‘प्रगतिवाद’
को अपना लिया। राजनीति के राजपथ में बिना प्रयास के, बिना किसी संघर्ष के उन
‘क्रांतिकारियों’ ने स्थान पा लिया था, जिन्हें अनेक सुख-सविधाओं के बीच पूँजीपतियों
और साम्राज्यवादियों जैसे जीवन को जीते हुए सर्वहारा वर्ग की पीड़ाओं और चिंताओं
को कलमबद्ध करने में महारथ हासिल थी। देश के तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दल में
साम्यवादियों की यह घुसपैठ कभी आलोचना का विषय नहीं बन सकी। यह अत्यंत रोचक तथ्य
है कि कांग्रेस की अपनी नीतियों के निर्धारण में भी इनकी दखल होती रही और इसे
स्वीकार किया जाता रहा।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">भारतीय समाज-जीवन में
धर्म और आस्था का विशिष्ट महत्त्व रहा है। आध्यात्मिकता के बिना भारतीय समाज की
कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इसके एकदम विपरीत
है। इस कारण भारतीय समाज में अपना स्थान बनाने हेतु यह भी आवश्यक था, कि भारतीय
आध्यात्मिकता, धर्म-साधना और आस्थावान जीवन-पद्धति को तोड़ा जाए। इस कारण राजनीति
और साहित्य में अपनी घुसपैठ से उत्साहित होकर ‘प्रगतिवाद’ या ‘द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद’ या ‘मार्क्सवाद’ ने धर्म में घुसपैठ का रास्ता खोजना शुरू किया। बौद्धधर्म
के अनात्मवाद, अनीश्वरवाद और विज्ञानवाद ने इस रास्ते को सरल बना दिया। भगवान
बुद्ध द्वारा जिन बातों को अव्याकृत कहा गया था। जिन बातों पर वे मौन रहे थे,
उन्हीं को आधार बनाकर यह प्रचारित-प्रसारित किया जाने लगा, कि बौद्धमत अतीत का, और
मार्क्सवाद वर्तमान का जीवन-दर्शन है। इस कारण बौद्ध धर्म को अंगीकार करना ही
श्रेयस्कर होगा। यह भी प्रचारित किया गया, कि बौद्ध धर्म ही वास्तव में ऐसा धर्म
है, जो सर्वहारा समाज के कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकता है। इसी कारण ‘नव बौद्ध’ का
विचार समाज में न केवल प्रचलित हुआ, वरन् राजनीतिक हथकंडे के रूप में प्रयोग किए
जाने का माध्यम भी बन गया। इसी कारण हजारों वर्षों की उपेक्षा और तिरस्कार की
दुहाई दे-देकर राजनीति की रोटियाँ सेंकीं गईं। हजारों-लाखों का समूह बनाकर लोग
धर्म-परिवर्तन करने लगे।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">इस प्रकार साहित्य,
राजनीति और धर्म के क्षेत्र में परजीवी की भाँति सक्रिय होकर भारतीय समाज और
संस्कृति पर कुठाराघात करने का श्रेय द्वंद्वात्मक भौतिकवाद या प्रगतिवाद या
मार्क्सवाद को जाता है। प्रगतिवादी कविताओं में अनल-गान, अनिल-गान, विप्लव-गान और क्रांति-आह्वान
के ऐसे अनेक स्वर उभरने लगे थे, कि मानों सारा देश अनेक बुराइयों-विकृतियों से भर
गया है और इस क्रांति-गान से एकदम बदल ही जाएगा। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए
परजीवी बनकर रह जाने वाली यह क्रांति की धारा धीरे-धीरे अपने पथ से भटकती चली गई
और इसी कारण सबसे पहले साहित्य में इसका स्थान हाशिये पर सिमटकर रह गया। सन् 1950
तक आते-आते यह क्रांति-धारा, यह विप्लव-धारा अपने अवसान की ओर चल पड़ी। राजनीति
में स्वयं कभी अपना स्थान नहीं पाकर भी इस धारा के लोग सत्ता के सुख का स्वाद चखते
रहे और सत्ता के केंद्र तक अपनी पकड़ बनाए रखने वाले ये परजीवी अपनी विकृत
मानसिकता के परिणामस्वरूप अपनी जीवनदायिनी सत्ता-शक्ति को भी ले डूबे। आज धर्म के
क्षेत्र में भी इस परजीवी और विकृत-कुत्सित मानसिकता को जाना-समझा जा रहा है और
वहाँ भी शुद्धि-परिष्कार का क्रम चल पड़ा है। भारतीय समाज-जीवन के संदर्भों में
अप्रासंगिक और अस्वीकार्य इस परजीवी वैचारिकता के अवसान का साक्ष्य बना आज का समय
देख रहा है कि सनातन भारतीय परंपरा को तोड़ने वाले, भारतीय समाज की सहकार और
सद्भाव वाली संस्कृति को विकृत करने की सोच रखने वाले तत्त्व किस प्रकार बहिष्कृत
होते हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">संदर्भ-</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><b><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"></span></span></b><p></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span style="color: white;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">1.<span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 7pt; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ.
त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 877,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span style="color: white;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">2.<span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 7pt; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी
साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ.
143,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span style="color: white;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">3.<span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 7pt; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ.
त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 882-883,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span style="color: white;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">4.<span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 7pt; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">वही, पृ. 883,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span style="color: white;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">5.<span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 7pt; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">सुमित्रानंदन पंत, चींटी, युगवाणी, हिंदी कविता डॉट कॉम,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span style="color: white;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">6.<span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 7pt; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ, हिंदी विकीपीडिया डॉट आर्ग.,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span style="color: white;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">7.<span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 7pt; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी
साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ.
125,</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><span style="color: white;">
</span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span style="color: white;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">8.<span style="font-family: "Times New Roman"; font-size: 7pt; font-stretch: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: normal;">
</span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;">वही, पृ. 128।<o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 54.0pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 115%;"></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: center;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;">(अखिल भारतीय
साहित्य परिषद की पत्रिका साहित्य परिक्रमा के जनवरी-मार्च, 2022 अंक में प्रकाशित)</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: center;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 115%;"></span></span></p><p align="right" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0cm; text-align: right; text-indent: 36.0pt;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt;">-डॉ. राहुल
मिश्र</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt;"><o:p></o:p></span></span></p><br /><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-44846753275956632572022-03-04T20:58:00.000+05:302022-03-04T20:58:04.209+05:30कैलास मानसरोवर में चीन का दखल : आस्था से खिलवाड़<p><span style="color: white;"> </span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><span style="color: white;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 107%;">कैलास मानसरोवर में चीन का दखल : आस्था से
खिलवाड़</span></b><b><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></b></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">कैलास मानसरोवर का नाम </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">आ</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">ते ही हमारे मनोविचार आस्था और
भक्ति भाव में डूब जाते हैं। कैलास मानसरोवर पुरातनकाल से ही हमारी आस्था के
केंद्र में है। जिसकी सर्जना परमपिता ब्रह्मा के मानस से हुई, जो विष्णु का क्षीर-सागर
है, जो शिव का निवास है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का यह मानसरोवर है, कैलास है। मानसरोवर
मानस के सरोवर सदृश भारतीय चिंतन-दर्शन परंपरा में देखा जाता है, जहाँ नीर-क्षीर
का विवेक करने वाले हंस विचरण करते हैं। ये मानस के हंस जीवन के सत्य, शिवत्व और
सौंदर्य को विवेचित करते हैं, विश्लेषित करते हैं। इसी कारण कैलास मानसरोवर न केवल
शिव का स्थान है, वरन् जीवन के सत्य और सत्य के सौंदर्य से युक्त अध्यात्म का
केंद्र भी है। पद्म-पंखुडियों की भाँति कैलास पर्वत की श्रेणियों के मध्य </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">स्थापित</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"> शिवलिंग और पार्श्व में ही गौरी कुंड व राक्षस कुंड आदि पवित्र सरोवरों
के प्रति भारत के जन-जन की आस्था जुड़ी है। इसी कारण अन्य तीर्थयात्राओं की तरह कैलास
मानसरोवर की यात्रा, कैलास की प्रदक्षिणा का विधान रहा है।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">कैलास मानसरोवर का समग्र परिक्षेत्र भारत, नेपाल और वर्तमान में चीन
अधिकृत तिब्बत तक फैला हुआ है। पशुपतिनाथ के प्रति आस्थावान नेपाली जन कैलास
मानसरोवर के प्रति भी आस्था रखते हैं। भारत के लिए हिमालय साक्षात् देवालय है और
कैलास मानसरोवर देवालयों में भी उत्कृष्टतम् है। एक समय ऐसा था, कि आस्था की यही
कड़ियाँ तिब्बत को भी जोड़े हुए थीं। तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद स्थितियाँ
तेजी के साथ बदलीं और इन बदलावों ने कैलास मानसरोवर के उस क्षेत्र को विशेष रूप से
प्रभावित किया, जो चीन के कब्जे में आया। वर्तमान में 6836 वर्ग किमी. का भाग भारतीय
क्षेत्र में है। इस भाग को यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थलों की अंतरिम सूची में
सम्मिलित किया है। 19 मई, 2019 को इस क्षेत्र को विश्व विरासत स्थल में सम्मिलित
करने से पूर्व चीन और नेपाल द्वारा अपने क्षेत्र को विश्व विरासत स्थल की श्रेणी
में जोड़ने के लिए आवेदन किया गया था, किंतु उस पर कुछ भी नहीं हो सका। सम्मिलित
श्रेणी, अर्थात् प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत के रूप में समग्र कैलास मानसरोवर
परिक्षेत्र को सम्मिलित करने की बात थी, किंतु इसे पीछे चीन की दोहरी मंशा समझ में
आती है। संभवतः इसी कारण आज तक चीन अधिकृत क्षेत्र के संबंध में यूनेस्को ने कोई
निर्णय नहीं लिया है।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">कैलास पर्वतश्रेणी या कैलास रेंज न केवल विशिष्ट सामरिक महत्त्व रखती
है, वरन् पर्यावरण की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बहुत महत्त्व का है। वर्ष भर बर्फ
से ढकी रहने वाली इस क्षेत्र की पहाड़ियाँ ऐसा जलस्रोत हैं, जो वर्षपर्यंत अनेक
बड़ी-छोटी नदियों को जल देती हैं। जलवायु और पारिस्थितिकी के संतुलन की दृष्टि से
भी यह क्षेत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। कैलास रेंज के उत्तर में ही प्रसिद्ध पैंगांग
झील है। पैंगाग झील न केवल पर्यटन के संदर्भ में, वरन् भारत और चीन अधिकृत तिब्बत में
सीमावर्ती संघर्षों व झगड़ों के लिए भी चर्चा में रहती है। हाल ही में चीन द्वारा
पैंगाग झील के निकट रास्ता और अन्य सैन्य ठिकाने बनाए गए हैं। गालवान और देमचोक
में चीन के सैनिकों के साथ होने वाली झड़पें और घुसपैठ की घटनाएँ अकसर चर्चा में
रहती हैं। ये सारी स्थितियाँ तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद बनी हैं।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">तिब्बत के साथ भारत का धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है। तिब्बत में
पनपी महायान परंपरा के बीज भारत के ही हैं। जिस तरह भारत के लोगों की आस्था कैलास
मानसरोवर में है, वैसी ही आस्था और धार्मिक संलग्नता महायान परंपरा के अनुयायियों
की भी है। तिब्बत में कैलास मानसरोवर को कांग रिनपोछे के रूप में पूजा जाता है।
महायानी बौद्ध उसी प्रकार कैलास मानसरोवर की परिक्रमा लगाना पुण्यकार्य मानते हैं,
जिस प्रकार सनातन परंपरा के लोग मानते हैं। कैलास मानसरोवर और इससे निकली विभिन्न
नदियों, नदों का उल्लेख महायान परंपरा के विभिन्न ग्रंथों में मिलता है। इस कारण
तिब्बत और तिब्बत से सटे महायान परंपरा-बहुत लद्दाख के धर्मभीरु श्रद्धालुओं का
आवागमन प्रायः वर्ष भर कैलास मानसरोवर तक होता रहता था। कैलास मानसरोवर के साथ ही
अमरनाथ और अन्य तीर्थयात्राओं पर जाने वाले लोगों, साधु संन्यासियों ने लद्दाख के
सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन पर भी गहरी छाप छोड़ी है, जो आज भी लद्दाखी परंपराओं में
दिखाई देती है। इसमें बहुत प्रसिद्ध एक लोकगीत और लोकनाट्य है, जो लद्दाखी नववर्ष
के समय में गाया-मनाया जाता है। इसमें एक लामा (महायानी परंपरा का संन्यासी) और एक
जोगी (सनातन परंपरा का संन्यासी) का रूप धरकर घर-घर जाते हैं और सभी के कुशल-मंगल
की कामना करते हैं। अक्षत छिड़ककर अपनी शुभानुशंसाएँ देते हैं। यह परंपरा कैलास
मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले साधु-संन्यासियों के लद्दाखी जनजीवन में प्रभाव
को भी व्याख्यायित करती है।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">महायान परंपरा के साथ ही जैन परंपरा में भी कैलास मानसरोव का अपना
विशिष्ट धार्मिक महत्त्व है। जैन आगमों में कैलास को अष्टापद कहा गया है। प्रथम
जैन तीर्थंकर ऋषभदेव जी ने यहीं पर निर्वाण प्राप्त किया था। ऋषभदेव के परवर्ती
जैन तीर्थांकरों के भी कैलास मानसरोवर की यात्राओं और पूजा-तपश्चर्या के विभिन्न
प्रसंग जैन ग्रंथों में मिलते हैं। </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">ऐसी मान्यता है कि श्री भरत स्वामी ने यहाँ पर रत्नों के 72 जिनालय बनवाए
थे। जैन आगमों में वर्णित कैलास मानसरोवर के विभिन्न प्रसंगों और जैनाचार्यों की यात्राओं
के कारण प्रतिवर्ष अनेक जैन तीर्थयात्री भी कैलास मानसरोवर की परिक्रमा करने के
लिए जाते हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">कुल मिलाकर वृहत्तर भारतीय समाजजीवन की
आस्थाएँ कैलास मानसरोवर से जुड़ी रहीं हैं, वर्तमान में भी जुड़ी हैं। अपने अतीत
में कैलास मानसरोवर की यात्रा लोगों के लिए कठिन नहीं रही। जिस तरह अमरनाथ,
गंगासागर, वैष्णों देवी, रामेश्वरम्, तिरुपति की यात्राएँ सुलभ-सहज हैं, उसी
प्रकार एक समय ऐसा भी था, जब लोग बड़ी सरलता के साथ कैलास मानसरोवर की यात्रा कर
आते थे। लद्दाख के देमचोक, सिक्किम के नाथू-ला और उत्तराखंड के पिथौरागढ़ आदि से
होकर कैलास मानसरोवर के लिए तीर्थयात्री आते-जाते रहते थे। ये मार्ग प्रायः वर्ष
भर खुले भी रहते थे। लद्दाख से तो भिक्षुगण और आम श्रद्धालुगण तिब्बत के मठों की
यात्राओं पर भी इसी रास्ते से आते-जाते रहते थे।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">सन् 1950 के आसपास तक कैलास परिक्षेत्र का
बड़ा भाग भारत के हिस्से में था। इसका प्रमुख कारण जम्मू के डोगरा शासकों का
आधिपत्य था। जनरल जोरावर सिंह ने इस समूचे क्षेत्र में अपना आधिपत्य कर रखा था। जनमुक्ति
के नाम पर तिब्बत को मुक्त कराने की साम्यवादी चीन की योजना जैसै-जैसे साकार होती
गई, वैसे-वैसे कैलास रेंज पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का अधिकार बढ़ता गया। सन्
1962 के युद्ध में रेजांग दर्रा और चुशूल सेक्टर के हिस्से दोनों तरफ से खाली हो
गए थे। यह युद्ध भारतीय सेना के अद्भुत शौर्य और पराक्रम की गौरव गाथा रच गया था।
हालाँकि तत्कालीन राजनीतिक इच्छाशक्ति इस दिशा में नहीं थी। उस समय का राजनीतिक
नेतृत्व ऐसा मानता था, कि जिस भूमि पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता है, उस भूमि
की रक्षा करना और उस भूमि के कारण अपने साम्यवादी मित्र से संबंध खराब करना उचित
नहीं...। ऐसी मान्यताएँ तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की रहीं, फलतः चीन के कदम पूर्वी
लद्दाख की ओर धीरे-धीरे बढ़ते रहे। बहुत बड़े भूभाग पर चीन की सैन्य घसपैठ और डटकर
बैठ जाने की हरकतें होती रहीं। उत्तराखंड और अरुणाचल आदि राज्यों की सीमा पर भी चीन
आगे बढ़ता रहा और अपने संसाधनों को इन क्षेत्रों में उन्नत करता रहा।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">इधर गालवान और दौलतबेग ओल्डी में सैन्य
अभियानों के साथ ही इच्छाशक्ति से परिपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व की दक्षता ने भारतीय
हिस्से में बड़ा बदलाव किया है। सैन्य तैनाती के साथ ही सड़क, संचार आदि अन्य
संसाधनों का विस्तार हुआ है। उत्तराखंड की ओर से लिपुलेख दर्रे से होकर जाने वाले
मार्ग को पक्का किया गया है। सामरिक महत्त्व वाले अनेक पुलों का निर्माण किया गया
है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">इन तमाम स्थितियों को देखते हुए अब तक चीन
ने कैलास मानसरोवर में अपना जिस तरह का परोक्ष अतिक्रमण अभियान चला रखा था, उसे
प्रत्यक्ष रूप से करना प्रारंभ कर दिया है। कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले
लोगों के लिए चीन द्वारा सीमित संख्या में वीसा निर्गत किए जाते रहे हैं। चीन
द्वारा तगड़ी वसूली की जाती रही है, इस पर भी यात्रियों को समस्याओं और वैधानिक
दाँवपेंचों की अनेक स्थितियों के साथ अपनी यात्रा करनी होती थी। दूसरी ओर चीन धार्मिक
यात्रा के लिए संसाधन उपलब्ध कराने के नाम पर कैलास मानसरोवर क्षेत्र में,
गौरीकुंड-राक्षसताल के आसपास अनेक आवासीय निर्माण करता रहा है। इसके साथ ही सड़क
एवं अन्य संसाधन भी चीन ने वहाँ पर बढ़ाए हैं। यह सोचने की बात है, कि आखिर कितने
श्रद्धालुओं को कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए अनुमति दी जाती है, और उस अनुपात
में निर्माण-कार्य आदि का विस्तार व विकास कितना किया गया है। निश्चित रूप से
आँकड़े यही बताएँगे, कि कैलास मानसरोवर की पवित्रता और उसकी नैसर्गिक सुंदरता को नष्ट
करने के लिए चीन द्वारा बेतहाशा भौतिक संसाधनों को वहाँ पर इकट्ठा किया गया है।
इतना ही नहीं, पर्यटन केंद्र के रूप में इस धार्मिक स्थान को विकसित किया जा रहा
है, जबकि कैलास मानसरोवर की प्राकृतिक निर्मिति को हानि न पहुँचे, इसका ध्यान रखते
हुए ही पुरातनकाल से यात्राएँ की जाती रहीं हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span style="color: white;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;">चीन द्वारा कैलास मानसरोवर में किए जा रहे विकास
और भौतिक संसाधनों की बढ़ोत्तरी के दुखद पर्यावरणीय पक्ष भी दिखाई देते हैं। कैलास
पर्वत से सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसे बड़े नदों के साथ ही अनेक छोटी-छोटी नदियाँ
निकलती हैं, जिनके प्रदूषण के खतरे के साथ ही जलवायु परिवर्तन में भी यहाँ का
विकास एक बड़ा कारक बनता है। इस दृष्टि से यह क्षेत्र अपने स्वाभाविक स्वरूप के
साथ रहने दिया जाए, ऐसा अनेक पर्यावरणविदों-चिंतकों का मानना है। इसके बावजूद चीन ने
मानसरोवर के निकट ही बड़ी सैन्य छावनियाँ बनाना शुरू कर दिया है। ऐसी सूचनाएँ भी हैं,
कि चीन ने मानसरोवर के निकट जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों के लिए ठिकाने
भी बनाए हैं। अत्याधुनिक सैन्य उपकरणों के साथ ही उच्च क्षमता वाले राडार और अन्य
उपकरण यहाँ पर लगाए जाने का क्रम चीन द्वारा अनवरत जारी है। इसके साथ ही होटल, बड़े
आवासीय भवन, बड़ी लंबी-चौड़ी सड़कें आदि भी मानसरोवर के आसपास बनाए जाने की जानकारी
इन दिनों चर्चा में है। चीन द्वारा विकसित किए जा रहे ये तमाम संसाधन चीन की सेना
की बड़ी जमावट की ओर इंगित करते हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 12.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 12.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><span style="color: white;">यह अत्यंत विषम स्थिति है, कि भारतीय
उपमहाद्वीप का विशिष्ट क्षेत्र, जो न केवल अपना धार्मिक महत्त्व रखता है, वरन्
पर्यावरण सुरक्षा-संरक्षा की दृष्टि से भी बहुत महत्त्व का है, वहाँ पर बेतहाशा
भौतिक विकास किया जा रहा है, उसकी पवित्रता और शुचिता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा
है। भारत के शीर्ष नेतृत्व के साथ ही भारतीय आमजनमानस के लिए चीन द्वारा कैलास
मानसरोवर की धार्मिक मान्यता पर कुठाराघात और अनियंत्रित भौतिक विकास चिंता का
विषय है। इसके लिए अनेक मंचों से आवाजें उठाई जाती रहीं हैं। आज भी भारत का एक
बड़ा वर्ग उस दिन की प्रतीक्षा में है, जब वह अपने पुरखों की तरह बिना किसी बाधा
के कैलास मानसरोवर की धार्मिक यात्रा पर जा सकेगा, जिस दिन कैलास मानसरोवर साम्यवादी-पूँजीवादी
चीन के चंगुल से मुक्त हो सकेगा। वह दिन वास्तव में धार्मिक आस्थावान लोगों के लिए
ही नहीं, वरन् पर्यावरण प्रेमियों के लिए भी, हिमालय की उपत्यकाओं में सैन्य
हलचलों के विराम और शांति के चाहने वालों के लिए भी बड़ा सुखद दिन होगा। हम सभी को
उस दिन की प्रतीक्षा है। </span></span><span lang="EN-US" style="color: black; font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-language: EN-US;"><o:p></o:p></span></p><b><span lang="HI" style="color: black; font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-font-size: 26.0pt;"></span></b><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-3612140215511411652021-11-29T17:33:00.001+05:302021-11-29T17:47:12.039+05:30छेतन फुनछोग : लद्दाखी माटी का अचर्चित नायक...<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieePHERa57_lsbOpXOMRO4fXagW-k813RyZkAb5ghqUW0HUd_bDpLe0eWCjY2eoy_QyTmLE2WtS0FskEih1mlWXHwxR_H7goL4Ejcw24uXmuwsPO4BRVtdYZlqn3bd51nwkBiVGDDsm5jf/s812/Screenshot+2021-11-22+213410.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="812" data-original-width="580" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieePHERa57_lsbOpXOMRO4fXagW-k813RyZkAb5ghqUW0HUd_bDpLe0eWCjY2eoy_QyTmLE2WtS0FskEih1mlWXHwxR_H7goL4Ejcw24uXmuwsPO4BRVtdYZlqn3bd51nwkBiVGDDsm5jf/w458-h640/Screenshot+2021-11-22+213410.jpg" width="458" /></a></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 107%; mso-bidi-language: HI;">छेतन फुनछोग : लद्दाखी माटी का अचर्चित नायक...</span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 107%; mso-ansi-language: EN-US; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></b></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">लद्दाख की वीरप्रसूता धरा अपने कर्मवीर सपूतों के शौर्य और पराक्रम के बल पर
जानी जाती है। भारतमाता के धवलमुकुट के मणि सदृश सुशोभित लद्दाख के युवाओं की
गौरवगाथा का एक अविस्मरणीय अध्याय उस समय भी लिखा गया था, जिस समय विभाजित पाकिस्तान
की नीति-नीयत लद्दाख के समूचे क्षेत्र को अपने में मिला लेने के कुचक्र रच रही थी।
इस कुचक्र का मुँहतोड़ उत्तर देने वाले लद्दाखी युवाओं में एक बड़ा नाम छेतन
फुनछोग का है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">आज का पाक अधिकृत काश्मीर सन् 1947-48 के कबायली हमलों और पाकिस्तानी सेना के
कुचक्रों का साक्षी है। लद्दाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो में 1947 के कबायली
हमले हुए थे। उस समय छेतन फुनछोग काश्मीर राज्य के अधिकारी के रूप में स्करदो में
तैनात थे। कबायलियों के हमलों ने स्करदो पर आधिपत्य जमा लिया। छेतन फुनछोग लद्दाख
के नुबरा में आ गए। इनकी तैनाती भी यहीं पर हो गई। अगस्त, 1948 के बाद पाकिस्तानी कबायली
तत्कालीन लेह और कारगिल तहसीलों की तरफ आगे बढ़ रहे थे। कबायली लेह से लगभग तीस
किलोमीटर दूर तारू के मैदान तक पहुँच चुके थे। नुबरा घाटी भी एकदम असुरक्षित हो गई
थी। इसी समय 2 डोगरा बटालियन के कर्नल (उस समय मेजर) ठाकुर पृथ्वीचंद (महावीरचक्र
विजेता) को लद्दाख भेजा गया था, ताकि वे लद्दाख की सीमाओं की सुरक्षा के लिए
स्थानीय युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण देकर एक फौज तैयार करें, साथ ही कबायलियों को
आगे बढ़ने से रोकें। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">कर्नल पृथ्वीचंद केवल 14 सहयोगियों के साथ लद्दाख आए थे। उनके सामने सबसे बड़ी
चुनौती नुबरा घाटी में कबायलियों को घुसने से रोकने की थी। लेह में काश्मीर राज्य
की एक ही प्लाटून थी। उस समय के लद्दाख में नहीं के बराबर ही संसाधन थे। अस्थायी हवाई
अड्डा बनाने के लिए इंजीनियर सोनम नोरबू ने अनथक मेहनत की थी। सड़क मार्ग भी
प्रायः अपर्याप्त थे, इस कारण सैनिकों का आवागमन बहुत ही कठिन था। श्रीनगर या
मनाली की तरफ से सैन्य सहायता उपलब्ध होना भी कठिन था। ऐसी स्थिति में यही एकमात्र
विकल्प था, कि स्थानीय युवक त्वरित सैन्य प्रशिक्षण लेकर आक्रमणकारी कबायलियों के
रास्ते को रोकें और लद्दाख की सुरक्षा करें। इस हेतु कर्नल पृथ्वीचंद तो अपना
प्रयास कर ही रहे थे, लेकिन उनकी सहायता के लिए स्थानीय स्तर पर जो अपेक्षित था,
वह छेतन फुनछोग के माध्यम से ही संभव हो सका, विशेषकर नुबरा घाटी में...।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">कर्नल पृथ्वीचंद अपने एक संस्मरणात्मक लेख में लिखते हैं, कि- “इस पूरे अभियान
में (पाकिस्तानी कबायलियों के नुबरा घाटी में हमले को रोकने के लिए) का-गा (लद्दाखी
भाषा में आदरणीय के समानार्थक) छेतन फुनछोग ने सैनिकों को हरसंभव मदद दी। वे स्वयं
मोर्चे पर रहते थे। उन्होंने युवाओं-नागरिकों को स्वयंसेवक के तौर पर तैयार किया,
जो प्राथमिक सैन्य प्रशिक्षण लेकर मोर्चे पर डटे थे। उन्होंने न केवल सैनिकों का,
बल्कि सामान्य नागरिकों का मनोबल भी बढ़ाया। वे सीमा पर खुद पहुँचकर देखते थे, कि
यहाँ किन चीजों की कमी है और बिना इंतजार किए हुए सामान को पहुँचाने के लिए सक्रिय
हो जाते थे। परिवहन-व्यवस्था, भारवाहकों की व्यवस्था और सामान आदि की कमी उनके
कारण कभी नहीं हुई। इतना ही नहीं, उनकी बुद्धिमत्ता और तत्काल निर्णय लेने की कुशलता
के कारण हमलावरों के बारे में जानकारी पाने और दुश्मन के द्वारा किए जाने वाले दुष्प्रचार
को रोकने में भी हमें सफलता मिली।“ कर्नल पृथ्वीचंद आगे लिखते हैं, कि- ”घाटी (नुबरा
घाटी) में हमारी सफलता के पीछे का-गा छेतन फुनछोग जैसे लोग थे, जिनका सहयोग मिला और
जिनके द्वारा नागरिकों का मनोबल ऊँचा रखने में मदद मिली।” कर्नल पृथ्वी चंद का यह
संस्मरणात्मक लेख राजपुर, देहरादून स्थित मोरावियन इंस्टीट्यूट की 25वीं वर्षगाँठ
पर प्रकाशित स्मारिका में छपा था। यह इंस्टीट्यूट सन् 1963 में छेतन फुनछोग द्वारा
स्थापित किया गया था। इस शिक्षण संस्थान की स्थापना न केवल हिमालयी परिक्षेत्र में
आने वाले बदलाव की आहटों का परिणाम थी, बल्कि छेतन फुनछोग की अध्येतावृत्ति और
अध्ययन-अध्यापन के प्रति रुचि की अभिव्यक्ति भी थी।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">लेह नगर से लगभग 15 किलोमीटर दूर साबू गाँव के प्रतिष्ठित परिवार में सन् 1908
में जन्मे छेतन फुनछोग बचपन से ही मेधावी रहे। उनका परिवार लेह के राजपरिवार के
निकट रहा और उनके पूर्वज लद्दाख के राजा के मंत्री भी रहे। छेतन फुनछोग अपने पिता
की इकलौती संतान थे। उनके पिता लद्दाख के प्रतिष्ठित रिजोंग मठ के अनुयायी थे, फलतः
वे भी दो वर्षों तक भिक्षु के रूप में रिजोंग मठ में रहे और महायान बौद्ध परंपरा
के ग्रंथों के साथ ही लद्दाखी भाषा का गहन अध्ययन किया। उनके पिता का 40 वर्ष की
आयु में देहांत हो गया था, इस कारण उन्हें अपनी मठ-आधारित शिक्षा को बीच में ही
छोड़कर सासांरिक जीवन में प्रवेश करना पड़ा। इसके बाद भी उन्होंने अध्ययन से मुख
नहीं मोड़ा। वे लद्दाख के जाने-माने विद्वान जोसफ गेर्ग्यन के संपर्क में आए। जोसफ
गेर्ग्यन अपनी युवावस्था में ही ईसाई बन गए थे। सन् 1933 में महापंडित राहुल
सांकृत्यायन का लद्दाख आना हुआ था। वे गेर्ग्यन जी से मिले भी थे, और उनकी
साहित्यिक अभिरुचि से बहुत प्रभावित भी हुए थे। राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक ‘यात्रा
के पन्ने’ के ‘लद्दाख में’ खंड में गेर्ग्यन महाशय का उल्लेख करते हुए बताते हैं,
कि- “उनकी उम्र साठ के ऊपर होगी। वे लद्दाख से नीचे कभी नहीं गए और उन्होंने कभी
रेलगाड़ी भी नहीं देखी है। वे ही एक सज्जन हैं, जो शुद्ध भोटभाषा लिख सकते हैं।“ राहुल
सांकृत्यायन इसी क्रम में छेतन फुनछोग का उल्लेख भी करते हैं। वे उन्हें नो-नो
छे-र्तन-फुन्-छोग् कहकर संबोधित करते हैं। लद्दाखी बोलचाल में नो-नो कहकर युवा और
अपने से कम उम्र के बालकों को संबोधित किया जाता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन जब
लिखते हैं, कि- उन्हें पढ़ने-लिखने, शुद्ध भोटभाषा का व्यवहार करने और लद्दाख के साहित्य
को सहेजने आदि कार्यों के लिए नो-नो छे-र्तन-फुन्-छोग् से बड़ी आशा है, तब उनका यह
कथन छेतन फुनचोग की साहित्यिक अभिरुचि और अध्ययनशीलता को सहजता के साथ व्यक्त कर
देता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">राहुल सांकृत्यायन द्वारा वर्णित यह प्रसंग स्पष्ट करता है, कि छेतन फुनछोग, जोसफ
गेर्ग्यन व महापंडित राहुल सांकृत्यायन का आपस में मिलना और लद्दाख परिक्षेत्र की
साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर तीनों की चिंताओं और विचारों का
संयोजन भविष्य की ऐसी कार्ययोजना का आधार बनता है, जो कालांतर में छेतन फुनछोग के
माध्यम से साकार होता दिखता है। लद्दाख में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए और
जनसांख्यिकी में होते बदलाव को रोकने के उद्देश्य से राहुल सांकृत्यायन के
प्रयासों से एक सोसायटी का गठन हुआ, जिसका नाम ‘लद्दाख बुद्धिस्ट एजूकेशन सोसायटी’
रखा गया। राहुलजी ने इस समिति के पदों को लद्दाखी भाषा में नाम भी दिए थे। छेतन
फुनछोग इस सोसायटी के सचिव बने थे। इस सोसायटी ने एक ज्ञापन भी तत्कालीन काश्मीर दरबार
को भेजा था, जिसमें भोटभाषा और संस्कृत के शिक्षकों की नियुक्ति, नए विद्यालयों की
स्थापना आदि की माँग की गई थी। इसी सोसायटी के माध्यम से भोटभाषा (लद्दाखी) के
व्याकरण और प्राथमिक स्तर की पुस्तकों के प्रकाशन की योजना भी बनाई गई थी।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">छेतन फुनछोग का विवाह जोसफ गेर्ग्यन की बेटी सुङ्किल से हुआ। इस विवाह की शर्त
के अनुरूप सितंबर, 1934 में ईसाई धर्म में दीक्षित होकर वे एलियाह छेतन फुनछोग बन गए।
यद्यपि उनके इस कृत्य को उनके अपने समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया, तथापि विरोधों
के बाद भी वे लद्दाखी भाषा, समाज, साहित्य, संस्कृति और राजनीतिक दशा-दिशा के लिए
सदैव चिंतित भी रहे और उन्नयन के लिए सदैव प्रयासरत भी रहे। छेतन फुनछोग ने लद्दाखी
भाषा का पहला व्याकरण ग्रंथ तैयार किया था। इसके अलावा समाज में शिक्षा के प्रचार
व प्रसार के लिए भी वे संलग्न रहे। देशभक्ति का भाव और अपनी मातृभूमि की सेवा का
भाव उनमें कूट-कूटकर भरा था। इसी कारण कर्नल पृथ्वीचंद के साथ वे कंधे से कंथा मिलाकर
लगे रहे।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">लद्दाख की नुबरा घाटी में सन् 1948 में तैयार हुई ‘नुबरा गार्ड्स’ नाम की
नवयुवकों के सैन्य-प्रशिक्षित जन-सेना के निर्माण और उसे सैन्य आयुधों से सुसज्जित
कराने में छेतन फुनछोग का बड़ा योगदान था। सन् 1948 के आसपास वे नुबरा में काश्मीर
राज्य के अधिकारी (लेह व स्करदो के कार्यवाहक तहसीलदार) के रूप में कार्यरत थे। कर्नल
पृथ्वीचंद की सैन्य टुकड़ी को सहायता पहुँचाने के साथ ही ‘नुबरा गार्ड्स’ के
नवयुवकों को सैन्य उपकरण और हथियार दिये जाने के विषय पर कर्नल पृथ्वीचंद असमंजस
की स्थिति में थे। छेतन फुनछोग के प्रयासों से कर्नल पृथ्वीचंद को नवयुवकों पर
भरोसा हुआ और नवगठित ‘नुबरा गार्ड्स’ ने विधिवत् सैन्यबल की तरह सुसज्जित होकर
नुबरा घाटी को पाकिस्तानी हमलावरों से बचाया। कालांतर में ‘नुबरा गार्ड्स’ को
सैन्य बल का स्थान दिया गया और फिर यही आगे चलकर ‘लद्दाख स्काउट’ के रूप में अस्तित्व
में आया। </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">छेतन फुनछोग की बड़ी भूमिका भारत के राजनयिक प्रतिनिधि के रूप में भी रही है। इसके
पीछे बड़ा कारण उनकी विद्वता और उनके भाषाज्ञान को मान सकते हैं। यह बात राहुल
सांकृत्यायन ने भी अपनी लेखनी से उद्धृत की है। मातृभूमि से लगाव और भोटभाषा
लिखने-पढ़ने-बोलने में महारथ के कारण छोतन फुनछोग को काश्मीर राज्य और फिर भारत
सरकार द्वारा कई बार तिब्बत संबंधी मामलों को हल करने के लिए नियुक्त किया गया,
तिब्बत भेजा गया। सन् 1940 से 1948 तक तिब्बत के साथ सीमा संबंधी विवाद और साथ ही
आपराधिक घटनाओं के मामले सामने आते रहे हैं। इन्हें हल करने के लिए राजनयिक स्तर
की वार्ता का संयोजन छेतन फुनछोग ने किया।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">कबायली हमलों के शांत होने और जम्मू-काश्मीर के भारत-विलय की प्रक्रिया पूरी
होने के बाद सन् 1950 में वे लेह के पहले सूचना-अधिकारी बने थे, इसके पूर्व वे लेह और स्करदो के कार्यवाहक तहसीलदार भी रहे थे।
यहाँ उल्लेखनीय है, कि छेतन फुनछोग के पिता लेह तहसील के पहले तहसीलदार बने थे।
सन् 1950 में उन्होंने सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया और ‘मिशनरी’ कार्यों में
संलग्न हो गए। उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा कालखंड भले ही प्रशासनिक दायित्वों
को निभाते हुए बिताया हो, लेकिन उनका पठन-पाठन से संबंध कभी नहीं टूटा। लद्दाखी
भाषा के सरल व्याकरण की पुस्तकें और ‘लद्दाखी रीडर्स’ उनकी कीर्ति के अक्षय स्रोत
हैं, भले ही इन पुस्तकों को लद्दाख में अपेक्षित स्थान व गौरव न मिला हो। वे लद्दाख
में शिक्षा के गुणवत्तापरक केंद्र स्थापित करना चाहते थे, विद्यालय स्थापित करना
चाहते थे, किंतु उनकी पुस्तकों की तरह उनके इस विचार को भी फलने-फूलने का मौका नहीं
मिल सका। कुछ अन्य कारण भी बने, और अपने जीवन को सहज-संकटमुक्त बनाने हेतु वे
अंततः सन् 1959 में मसूरी चले गए और बाइबिल के तिब्बती अनुवाद पर कार्य करने लगे। उन्होंने
अमेरिका, प्रांस, जर्मनी, स्विटजरलैंड, डेनमार्क, कनाडा आदि देशों की यात्रा की।
इन यात्राओं के समय उन्हें विदेश में रहकर काम करने के लिए अनेक प्रस्ताव आए,
लेकिन उन्होंने भारत में रहना ही पसंद किया। उन्हीं दिनों हजारों की संख्या में तिब्बतियों
का निर्वासन हुआ। यहाँ कहना प्रासंगिक ही होगा, कि उनकी तिब्बत यात्राओं के बीच ही
उन्हें इस बात का आभास होने लगा था, कि तिब्बत पर साम्यवादी चीन की कुदृष्टि पड़ने
लगी है। इसी कारण आत्मीय भाव के साथ छेतन फुनछोग अपने सहधर्मी तिब्बती बंधुओं के
लिए सेवाभाव से जुट गए। आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से प्रेरित होकर
उन्होंने तिब्बतियों के पुनर्वास हेतु भूमि तलाशने का काम किया। छेतन फुनछोग के
प्रयासों का ही फल था, कि विनोबा भावे ने भूदान में प्राप्त भूमि में से 100 एकड़
भूमि देहरादून में तिब्बती शरणार्थियों को दे दी थी। तिब्बती शरणार्थियों के अनुरोध
पर ही उन्होंने सन् 1963 में एक स्कूल देहरादून के राजपुर नामक स्थान पर खोला था।
अपने प्रारंभिक वर्षों में यह स्कूल बच्चों के लिए और साथ ही प्रौढ़शिक्षा के लिए
था। बाद में यह आवासीय विद्यालय बना और आज भी शिक्षा जगत् में अग्रणी भूमिका निभा
रहा है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
</p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqksf2TnIMRsGKD5eBQgB05HSsmzWbIwmcVbxgyUHPtkkMmnPwXnL9xN4SRudrYtgmJTk66nXH1rYLu-TL3NVexfmfQmSZc0iLaSp4euYaFI48ggRA8hIExG7J7zglNn9OrlEAIwzzaE3p/s970/Screenshot+2021-11-29+172730.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="970" data-original-width="706" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqksf2TnIMRsGKD5eBQgB05HSsmzWbIwmcVbxgyUHPtkkMmnPwXnL9xN4SRudrYtgmJTk66nXH1rYLu-TL3NVexfmfQmSZc0iLaSp4euYaFI48ggRA8hIExG7J7zglNn9OrlEAIwzzaE3p/s320/Screenshot+2021-11-29+172730.jpg" width="233" /></a></div>लद्दाख की धरती का यह सपूत सन् 1973 में अपनी इहलीला समाप्त कर अनंत में विलीन
हो गया, लेकिन यह बड़े गर्व की बात है, कि उनके सुपुत्र ओदपल फुनचोग ने लद्दाख की
सेवा के, भारतदेश की सेवा के व्रत को समर्पित भाव से निभाया। छेतन फुनछोग के
सुपुत्र ओदपल जी के बारे में उनके गाँव के ही एक सहपाठी श्री एलिहुद जॉर्ज बड़े
गर्व से बताते हैं, कि ओदपल जी अपने बचपन में कागज के जहाज बनाकर उड़ाया करते थे।
बाद में वे भारतीय वायुसेना के कमीशनधारी अधिकारी बने। 06 अक्टूबर, 2021 को सीमा
संघोष के डिजिटल आयाम द्वारा लेह में आयोजित तीन-दिवसीय अभियान ‘द ग्लोरियस स्काई’
के उद्घाटन समारोह में सेवानिवृत्त विंग कमांडर ओदपल फुनचोग की उपस्थिति ने छेतन
फुनछोग के व्यक्तित्व और कृतित्व का स्मरण कराने का अवसर उपलब्ध कराया। देश की सीमाओं
की अक्षुण्णता और अखंडता के लिए, साथ ही शिक्षा की अलख जगाने के लिए लद्दाख की
माटी के इस अचर्चित नायक का योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता है।<span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span><p></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">राहुल मिश्र</span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 150%;">(सीमा संघोष, नई दिल्ली के )</span></p><p><br /> </p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-40033765633399286642021-09-21T16:50:00.003+05:302021-09-21T16:50:44.860+05:30मिजोरम विवाद : आखिर कौन है, झगड़े की जड़ में...<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjG_ZIpgqZ7QOPgNpZZL7DIAiYO1CnGesoo3SybN1gpLGimvaT1y5BH8iknZulSuP93GjrN1T8X_btFPXn60QVFib4BeneyCkMFlqhw3LV-wtbhsWDl541wL8Gy9uZlTsnNDx_rgpBmhqi7/s972/Screenshot+2021-09-21+163027.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="972" data-original-width="695" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjG_ZIpgqZ7QOPgNpZZL7DIAiYO1CnGesoo3SybN1gpLGimvaT1y5BH8iknZulSuP93GjrN1T8X_btFPXn60QVFib4BeneyCkMFlqhw3LV-wtbhsWDl541wL8Gy9uZlTsnNDx_rgpBmhqi7/w458-h640/Screenshot+2021-09-21+163027.jpg" width="458" /></a></div><b><span lang="HI" style="font-family: Gotu; font-size: 22pt; line-height: 107%;"><br /></span></b><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: Gotu; font-size: 28pt; line-height: 107%;">मिजोरम विवाद : आखिर कौन है, झगड़े की
जड़ में...</span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: Gotu; font-size: 28pt; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></b></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">देश के पूर्वोत्तर सीमांतक्षेत्र के लिए इस वर्ष की 26 जुलाई को एक ऐसी तिथि
के रूप में इंगित किया जा सकता है, जिसने पूर्वोत्तर भारत के इतिहास को काला धब्बा
लगा दिया है। देश का पूर्वोत्तर भाग, जिसे बहुत आस्था और श्रद्धा के साथ सारा देश देखता
है। ज्योतिषीय गणना और आकलन पूर्वोत्तर को, ईशान्य कोण को बहुत महत्त्व देते हैं।
यह ऐसी दिशा होती है, जहाँ वास्तु के अनुसार ऊर्जा का वास होता है। इसी कारण अनेक
विद्वानों ने अंग्रेजों द्वारा निर्धारित ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ से इतर पूर्वोत्तर
को ईशान्य सरहद एजेंसी कहकर यहाँ के वास्तुशास्त्रीय महत्त्व को रेखांकित किया है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">26 जुलाई, 2021 की हृदयविदारक-दारुण घटना के पहले और बाद की स्थितियों पर कुछ
कहने के पूर्व उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से भारतदेश के पूर्वोत्तर क्षेत्र के,
ईशान्य कोण के महत्त्व को रेखांकित करना आवश्यक लगता है। यह महत्त्व और यह वैशिष्ट्य
भारतीय ज्योतिषशास्त्र और वास्तुशास्त्र के क्षेत्र का ही नहीं है, वरन् इसको भारत
के प्राचीन ज्ञानीजनों से लगाकर आधुनिककाल के अध्येता और सुधीजन भी समझते रहे हैं।
इसी कारण ‘भारतमाता के मुकुट’ और ‘भारतदेश के सजग प्रहरी’ जैसी मान्यताएँ
पूर्वोत्तर के साथ जुड़ी रहीं हैं। आस्था के अनेक केंद्र, शक्ति-साधना के अनेक
स्थल, ऋषियों-मुनियों-साधकों की तपःस्थली पूर्वोत्तर में हैं। पूर्वोत्तर भारत के
अनेक स्थलों की धार्मिक यात्राओं पर जाने की परंपरा भी बहुत पुरानी रही है। यह
सबकुछ इसी कारण से है, क्योंकि समग्र भारतीय मनीषा के लिए, समग्र भारतीय चेतना और
एकात्मता के लिए पूर्वोत्तर भारत का अमूल्य योगदान रहा है। एक ओर सिंधु नद, तो
दूसरी ओर ब्रह्मपुत्र नद हिमालय से प्रवाहित होते हुए भारतमाता की सबल-सशक्त
भुजाओं का भान कराते हैं। ब्रह्मपुत्र के जल से सिंचित पूर्वोत्तर, अरुण की पहली
किरण से आलोकित पूर्वोत्तर, महाभारत की कथाओं को अपने कण-कण में बसाए हुए
पूर्वोत्तर की क्या विशिष्टता रही है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">इस वैशिष्ट्य को हम तो सदैव से जानते ही रहे हैं, लेकिन इस वैशिष्ट्य की ओर उन
आक्रांताओं की भी दृष्टि रही है, जिन्होंने भारतदेश के समृद्ध समाज को, गौरवशाली
सांस्कृति वैभव को, सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न करने की नीयत से कई बार, और कई
तरीके से प्रहार किए हैं। बताने की आवश्यकता नहीं, कि इन प्रहारों के चिन्ह कहीं
नालंदा के ध्वंसावशेषों में, कहीं विखंडित और परिवर्तित कर दिए गए स्थापत्य-शिल्प
केंद्रों में, तो कहीं समाज के अलग-अलग बँटे हुए वर्गों में, तो कहीं धर्म के
अंतरण के कारण उत्पन्न हुई असहज सामाजिक संरचनाओं में दिखाई देते हैं। पूर्वोत्तर
का समग्र क्षेत्र, जो भारतीय मनीषा की ऊर्जा से आलोकित रहा, वह भी आक्रांताओं की कुदृष्टि
से बचा नहीं रह सका।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">जब 26 जुलाई, 2021 की वेदनापूर्ण घटना की जड़ों को तलाशते हुए गहरे उतरते हैं,
तब यही कुदृष्टि कहीं न कहीं न दिखाई देती है। पूर्वोत्तर भारत में बर्मन, पाल और आहोम
आदि प्रतापी शासकों की बहुत पुरानी और सुदीर्घ परंपरा रही है। कामरूप का नाम
भारतीय वाङ्मय से लगाकर अनेक कथाओं-किंवदंतियों में प्रचलित रहा है, जो यहाँ की
समृद्धि का परिचायक है। यहाँ निवास करने वाले अनेक वनवासी समूह प्रकृति के सानिध्य
में अपनी सनातन आस्था के साथ, प्रकृति के प्रति आस्था के साथ जीवन जीते रहे हैं।
यहाँ की दुर्गम भौगौलिक स्थिति और यहाँ के लोगों की संघर्षशीलता के कारण तलवार के
बल पर लोगों को बदल पाना संभव नहीं रहा। ऐसा हमें इतिहास के अनेक प्रसंगों से
ज्ञात होता है। व्यापार के बहाने बंगाल की खाड़ी तक पहुँचने वाले अंग्रेजों के लिए
पूर्वोत्तर ही नहीं देश के अनेक हिस्सों के ऐसे लोग चुनौतीपूर्ण थे, जिन्हें साम,
दाम, दंड से बदल पाना संभव नहीं था। इसके लिए ईसाई प्रचारकों की नीति का उपयोग
किया गया। पूर्वोत्तर के अनेक क्षेत्रों में यह ‘भेद-नीति’ इतने बड़े स्तर पर चली,
कि आज वही लोग एक-दूसरे के जीवन को नष्ट कर डालने के लिए उद्यत हो गए, जो सदियों
से सदैव एकसाथ रहते रहे हैं, जो सदियों से प्रकृति को एक-दूसरे के बाँधे रखने का सूत्र
मानते रहे हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">पूर्वोत्तर का समूचा
भौगौलिक क्षेत्र इन्हीं विशिष्टताओं के साथ ही अलग-अलग वनवासी समूहों की पहचान को
मिलाकर जाना जाता रहा है। अगर सिक्किम को उसकी विशिष्ट पहचान के साथ अलग वर्ग में
रखकर बात करें, तो पूर्वोत्तर के बड़े हिस्से के रूप में कामरूप या प्राग्ज्योतिषपुर
या असम कालांतर में अपने विभाजनों के द्वारा मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड
और अरुणाचलप्रदेश के नाम से वर्तमान के राज्यों के रूप में जाना जाता है। इनके
विभाजन का पहला प्रयास अंग्रेजों के समय में हुआ था, जो कि भौगौलिक नहीं था, वरन्
वनवासी समूहों के विशिष्ट सामाजिक और जीवन-पद्धतिगत अंतरों को उभारकर किया गया था।
यह विभाजन इतने गहरे बैठ गया, कि राजनीतिक खेमेबंदियों और प्रजातिगत-समुदायगत
पहचान और मान-प्रतिष्ठा का विषय बनकर कालांतर में अलग-अलग राज्यों के रूप में
अस्तित्व में आने लगा। आज के पूर्वोत्तर के राज्य इसी का परिणाम प्रतीत होते हैं। भौगौलिक
विभाजन के ये दूसरे प्रयास अपने साथ ऐसी विषमताओं को लेकर आए, कि जिनकी परिणति वर्तमान
के आपसी संघर्ष में दिखाई देने लगी।</span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">यह सोच पाना भी बहुत कठिन
है, कि भारतदेश के दो राज्य; या यो कहें, कि एक परिवार के दो हिस्से आपस में इतनी
शत्रुता कर बैठे, कि एक-दूसरे के रक्तपिपासु ही हो गए। दोनों ही राज्यों की संवैधानिक
व्यवस्थाएँ भारत के संविधान के अनुसार चलती हैं। असम और मिजोरम की कार्यपालिकाएँ और
विधायिकाएँ भारत के संविधान और संसद से बाहर नहीं हैं, फिर भी दोनों राज्यों के बीच
26 जुलाई को बनी स्थिति ऐसी थी, जैसे दो देश ही आपस में भिड़ गए हों। इस संघर्ष
में असम के पुलिसबल के 6 जवानों को अपना जीवन गँवाना पड़ा। इन जवानों के परिवार
अनाथ हो गए। असम ने अपने इन जवानों को शहीद का दर्जा देते हुए अंतिम विदाई दी। </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">इसके साथ ही 50 के आसपास जवान घायल भी हुए।</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"> इस घटना ने जिस तरह अनेक
कायसों और तथ्यों को जन्म दिया है, वे संघीय व्यवस्था के अंतर्गत बड़ी पड़ताल की
आवश्यकता को जन्म देने वाले हैं। कहा जाता है, कि असम पुलिस पर मिजोरम की तरफ से
हमला करने वाले लोगों के पास आधुनिक तकनीक वाले हथियार थे। ये हथियार मिजोरम के </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">सीमावर्ती तथाकथित लोगों के पास कैसे सुलभ हुए, इस बात को लेकर भी कयास लगाए
जाते रहे हैं। कुल मिलाकर पूरी घटना सरसरी तौर पर सरल दिखाई देती है, परंतु इसके
पीछे अनेक जटिल तथ्य हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मिजोरम की आबादी में 87.16 प्रतिशत लोग ईसाई
थे। मिजोरम का सबसे बड़ा और प्रभावशाली चर्च मिजोरम प्रेस्बिटेरियन चर्च है। यह न
केवल मिजोरम में, बल्कि समूचे पूर्वोत्तर भारत से लगाकर भारत के विभिन्न प्रांतों
तक, और फिर ताइवान, नेपाल, चीन और ब्रिटेन आदि देशों तक अपने कार्यक्षेत्र को
फैलाए हुए है। यह तथ्य भी कम रोचक नहीं है, कि मिजोरम और असम के बीच सीमा विवाद के
रक्तरंजित होते ही मिजोरम प्रेस्बिटेरियन चर्च के नेतागण मिजोरम के मुख्यमंत्री से
विवाद को सुलझाने की अपील करते हैं। असम के मुख्यमंत्री जोरामथांगा स्वयं इस चर्च
के अनुयायी हैं। 1987 में मिजोरम के स्वतंत्र देश बनने के पहले तक, और मिजो नेशनल फ्रंट
के राजनीति में उतरने तक जोरामथांगा एक अलग भूमिका में रहे हैं। ये सारे तथ्य आपस
में मिलजुलकर बहुत कुछ स्पष्ट कर देते हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZ0NzrYyn4XiURxgVq4TjXrRkdBbcsHxp1MtFbAEGrmXolRDEpwRN9xjbJsTNJIIU8fOOWNdFo6Rap8n0ZtysKLovDsnEUV3omfzidT5AN-9TPyqWoZbldpnUW-3gvpULZjkeq9b8Q8_ny/s964/Screenshot+2021-09-21+162905.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center; text-indent: 37.7953px;"><img border="0" data-original-height="964" data-original-width="705" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZ0NzrYyn4XiURxgVq4TjXrRkdBbcsHxp1MtFbAEGrmXolRDEpwRN9xjbJsTNJIIU8fOOWNdFo6Rap8n0ZtysKLovDsnEUV3omfzidT5AN-9TPyqWoZbldpnUW-3gvpULZjkeq9b8Q8_ny/w293-h400/Screenshot+2021-09-21+162905.jpg" width="293" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">दूसरी तरफ असम का कहना है, कि उसकी बराक घाटी के लगभग 1.75 हेक्टेयर जमीन पर
मिजोरम के लोगों ने अवैध कब्जा कर लिया है। मिजोरम सन् 1875 में बनी सीमारेखा को
मानता है, जबकि असम 1933 में बनी सीमा रेखा को। मिजोरम का यह भी कहना है, कि जिस
क्षेत्र में असम अपना दावा करता है, वहाँ मिजो आदिवासी पिछले सौ से अधिक वर्षों से
काबिज हैं। मिजोरम में प्रतिवर्ष 11 जनवरी को मिशनरी दिवस मनाया जाता है, जिसका
विधिवत् राज्यस्तरीय सार्वजनिक अवकाश रहता है। पिछले वर्ष 9-11 जनवरी तक ‘ज़ो’
उत्सव पहली बार हुआ था। यह मिजोरम के विभिन्न जातीय समूहों को एक करने के नाम पर भले
ही रहा हो, लेकिन मिशनरी दिवस तक चलने वाले और विदेशों तक अलग-अलग जगहों में
आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम का कितना अंश मिजो लोगों के एककीकरण के लिए था, वह समझने
की बात है। मिजोरम में मिजो आदिवासियों के नाम पर जिन समूहों को चिन्हित किया जाता
है, वे ऐसे ही आयोजनों और अलग-अलग मिशनरी संगठनों के प्रभाव से ईसाई बने चुके हैं।
मिजो आदिवासियों के नाम पर जिन वनवासी समूहों को संगठित करने, उन्हें सभ्य
सुशिक्षित बनाने और उनके लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराने की बात कही जाती है, वे
वस्तुतः अपने पारंपरिक आधार से उखड़ी हुई एक नई जातीय संस्कृति और पहचान है। फलतः
मिजो नाम के आवरण को ढके हुए हमारे सामने एक नई संस्कृति और जातीय पहचान होती है,
जिसका मूल ईसाईयत होता है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, कि पूर्वोत्तर
भारत की जिस शक्ति को, जिस सामर्थ्य को हमारे प्राचीन ग्रंथों से लगाकर मनीषियों
तक ने पहचाना, उसे क्षत-विक्षत किये बिना भारतीय सामाजिक संरचना को खंड-खंड करना
संभव नहीं था, फलतः सीधे-सादे वनवासियों को शिक्षित करने के नाम पर, दवा-उपचार
देने के नाम पर, सभ्य बनाने के नाम पर और आधुनिक बनाने के नाम पर जो हुआ, उसकी
परिणति मिजोरम की जनसांख्यिकी के आँकड़ों में दिखाई देती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">असम में पिछली सरकार ने अपने राज्य के जनसांख्यिकी असंतुलन को गंभीरता से लिया
था। घुसपैठियों की समस्या भी इसके साथ जुड़ी हुई थी। पूर्वोत्तर के राज्यों में
मुस्लिम आबादी बहुत तेजी के साथ बढ़ी है, जिसे स्थानीय निवासी अपनी पहचान और अस्मिता
पर संकट की तरह देखते हैं। हाल ही में संपन्न हुए चुनावों की धुरी भी इन्हीं
विषयों पर केंद्रित थी। असम की जनता ने पिछली सरकार के निर्णयों के प्रति अपनी
आस्था को व्यक्त किया, फलतः नई सरकार ने पिछले प्रयासों को और अधिक तीव्रता के साथ
आगे बढ़ाया। जनसांख्यिकी के असंतुलन और घुसपैठियों के कारण बढ़ती अराजकता पर
वर्तमान असम सरकार की शून्य सहनशक्ति एक ओर असम के घुसपैठियों के लिए बड़ा संदेश
देने वाली है, तो दूसरी ओर मिजोरम के तथाकथित ‘मिजो आदिवासियों’ के लिए भी...।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वालों में बड़ी संख्या मुस्लिम घुसपैठियों
की है। ये सभी अपने चाल-चरित्र के कारण केवल असम में ही नहीं, बल्कि किसी भी जगह अच्छी
दृष्टि से नहीं देखे जाते, इन पर शक की सुई हमेशा घूमती रहती है, जो इनके कामों के
कारण शक को सच में बदलती भी रहती है। मिजोरम और असम के सीमावर्ती इलाकों में इनकी
हरकतें भी एक बड़ा कारण बनी हैं। असम और मिजोरम के सीमावर्ती इलाकों में सहिष्णुता
और सद्भावना की संभावना तलाशना स्वयं में बहुत जटिल कार्य है। क्योंकि असम और
मिजोरम के बीच हुए भौगौलिक सीमा विवाद का बड़ा हिस्सा धर्माधारित वर्ग के विवाद का
भी है। यह बदलती हुई स्थिति है, जिसमें संस्कृतियों के टकराव को भी देखा जा सकता
है। इन सबके बीच असम के मुख्यमंत्री ने स्थितियों को सँभालने के लिए बहुत गंभीरता
का परिचय दिया है, और मिजोरम की तरफ से भी ऐसी पहल अपेक्षित है। </span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
</p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">पूर्वोत्तर के राज्यों में तेजी से बदलती जनसांख्यिकी, जनसंख्या के असंतुलन, मूल
निवासियों की धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक पहचान पर मँडराते संकट जैसी
स्थितियाँ 26 जुलाई जैसी घटनाओं के लिए वातावरण बना देती हैं। लिहाजा इस ओर
गंभीरता के साथ विचार किया जाना चहिए और समाधान के लिए भी प्रयास किए जाने चाहिए।</span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">-राहुल मिश्र</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; text-align: center; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><span lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; text-indent: 1cm;">(</span><span lang="HI" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; text-indent: 1cm;">मासिक पत्रिका सीमा संघोष,
नई दिल्ली के सितंबर, 2021 अंक में प्रकाशित</span><span lang="EN-US" style="font-size: 18pt; line-height: 150%; text-indent: 1cm;">)</span> </span><span style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p><p><br /> </p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-49417138406843043402021-08-26T07:23:00.000+05:302021-08-26T07:23:11.424+05:30अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित (लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhms31cmie9Ik6Nqf9lnRrEBmbL-w6M9iowW0_CDoINOOH8cih7DGzdU3CDlQWn8unRqqpiQWVUBk6zod7phQ-2UkBD-_2Ap79nkoxNK05APXvKCusu09BX5qi9QiUF_7CdD_I8sYVgCbuF/s977/Screenshot+2021-08-22+181924.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="977" data-original-width="715" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhms31cmie9Ik6Nqf9lnRrEBmbL-w6M9iowW0_CDoINOOH8cih7DGzdU3CDlQWn8unRqqpiQWVUBk6zod7phQ-2UkBD-_2Ap79nkoxNK05APXvKCusu09BX5qi9QiUF_7CdD_I8sYVgCbuF/w468-h640/Screenshot+2021-08-22+181924.jpg" width="468" /></a></div><div><br /></div><div><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Aparajita",serif; font-size: 48.0pt; mso-ansi-font-size: 72.0pt;"><span style="color: #ffa400;">अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित</span></span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: "Aparajita",serif; font-size: 72.0pt; mso-bidi-font-size: 48.0pt;"><o:p></o:p></span></b></p>
<p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Aparajita",serif; font-size: 28.0pt; mso-ansi-font-size: 36.0pt;">(लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Aparajita",serif; font-size: 36.0pt; mso-bidi-font-size: 28.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Aparajita",serif; font-size: 28.0pt; mso-ansi-font-size: 36.0pt;"><br /></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">डुल्लू
पंडित, अर्थात पंडित श्रीधर कौल; यह एक ऐसा नाम है, जिसने न कभी ख्याति चाही, न पद
और न ही पैसा-मान-प्रतिष्ठा। एक निष्काम सेवाव्रती की तरह से अपना सारा जीवन, अपनी
सारी कर्मठता-सक्रियता लदाख को समर्पित कर दी। इसी कारण श्रीधर कौल के बारे में
बहुत ही कम जानकारियाँ आज मिल पाती हैं। लदाख के जाने-माने इतिहासकार और
संस्कृतिकर्मी स्वर्गीय आबा टशी रबग्यस
अकसर ही श्रीधर कौल के बारे में बताया करते थे। कथाकार अब्दुल ग़नी शेख और लदाख के
वरिष्ठ-वयोवृद्ध चिकित्सक डॉक्टर तंजिन के पास भी डुल्लू पंडित से जुड़ी अनेक
बातें और यादें हैं, जिन्हें उन्होंने या तो अपनी रचनाओं में सहेजा है, या फिर वे
अपनी स्मृतियों को खंगालते हुए यदा-कदा बताते हैं। आज के लदाख की नई पीढ़ी के लिए
डुल्लू पंडित का नाम अनजाना-सा ही होगा। आधुनिक लदाख के निर्माता कहे जाने वाले
पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे का तो सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही डुल्लू पंडित के
सानिध्य में शुरू हुआ था।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">श्रीधर
कौल ने लदाख में बिताए अपने समय को; जैसा और जितना लदाख को देखा, उन अनुभवों को
अपनी एक अधूरी रचना में समेटा था। उनके जीवनकाल में यह रचना पूरी नहीं हो सकी। बाद
में उनके पुत्र हृदयनाथ कौल ने कुछ अंश उसमें जोड़े, और ‘लदाख : थ्रू द एजेस,
टूवार्ड्स ए न्यू आइडेंटिटी’ के नाम से यह पुस्तक बहुत बाद में, सन् 1992 में
प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का प्राक्कथन कुशोग बकुल रिंपोछे ने लिखा है। अपने
प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है- “<i>इस पुस्तक के लिए चंद पंक्तियाँ लिखना मेरे
लिए बहुत खुशी की बात है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैं अपनी ओर से, साथ ही लदाख
की जनता की ओर से श्रीयुत् श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता दर्ज कराना चाहता हूँ।
लदाख के लोगों के लिए और लदाख की संस्कृति के लिए उनका अविस्मरणीय योगदान, सन्
1947 के युद्ध में लदाख अंचल के लिए उनकी असाधारण सेवाएँ, और इन सबसे ज्यादा लदाखी
लोगों को अपने नागरिक अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक करने हेतु किए गए
कार्यों के लिए श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।”</i></span><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">इस
पुस्तक का उल्लेख यहाँ पर इसलिए करना समीचीन लगता है, ताकि तथ्यपरक जानकारी का
संदर्भ सुलभ हो सके। यह पुस्तक लदाख के अतीत को केवल देखती नहीं है, अनूठे
भावनात्मक लगाव को, एक सांस्कृतिक संबंध को व्यक्त ही नहीं करती; बल्कि महसूस भी कराती है। यह पुस्तक श्रीधर कौल
‘डुल्लू’ के लदाख अंचल के प्रति प्रेम और भावनात्मक लगाव को व्यक्त करने, और साथ
ही भारत की पुरातन सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ों को लदाख अंचल के कण-कण में देखने का
सहज प्रयास भी है। तमाम सिद्धहस्त लेखकों के लदाख-वृत्तांत के सामने यह पुस्तक भले
ही साधारण-सी हो, किंतु जिस पक्ष को इस पुस्तक में अनुभूत किया जा सकता है, उसे
अन्यत्र खोजना कठिन है। परमपूज्य कुशोग बकुल रिनपोछे ने अपने कथन में मन के भावों
की सीधी-सरल अभिव्यक्ति के माध्यम से आधुनिक लदाख के निर्माण की उस नींव को नमन
किया है, जिसके साथ बीसवीं सदी के लदाख का निर्माण होता है। इस दृष्टि से पुस्तक
का पुरोवाक् अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और इसी के सहारे बीसवीं सदी के लदाख को देखा
जा सकता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">सन्
1887 के पहले तक लदाख में आधुनिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। लदाख अंचल के लिए
ईसाई मिशनरियों ने ‘मिल-हिल मिशन’ बनाया था। सन् 1888 में कैथोलिक धर्मप्रचारकों
ने इसकी शुरुआत कर दी थी। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह इस स्थिति से अनजान
नहीं थे। कश्मीर के बौद्ध आचार्यों की कर्मभूमि रहे लदाख परिक्षेत्र की
सीधी-सादी-सरल जनता के हितों के लिए उनकी चिंता एक ओर गिलगित-स्करदो-बल्टिस्तान के
अतीत के साथ जुड़ी थी, तो दूसरी तरफ ईसाई मिशनरियों के साथ आने वाले खतरे को लेकर
भी थी। इस कारण उन्होंने ईसाई मिशनरियों को लदाख में आने की अनुमति नहीं दी।
लाहुल-स्पीति (हिमाचलप्रदेश) को अपना संपर्क केंद्र बनाकर मिशनरी अपनी गतिविधियों
को संचालित करते रहे और लदाख को अपने प्रभाव में लेने के लिए लगातार सक्रिय रहे। संभवतः
ब्रिटिश शासकों के भारी दबाव के कारण सन् 1884 में मोरावियन मिशन का आगमन पहली बार
लेह में हुआ। अस्पतालों और स्कूलों का संचालन करने के साथ ही कुछ लदाखी युवाओं को
चर्च से जोड़कर समाज में पकड़ बनाने की कोशिशों को देखते हुए उस समय यह आवश्यक हो
गया था, कि लदाख में ऐसी शिक्षा-व्यवस्था संचालित हो, जो आबादी के आँकड़ों को बड़े
बदलाव से बचा सके, साथ ही अतीत की गलतियों के दुहराव को रोक सके।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgO-2Orttp0lRY_sbh7JA87szd4CBQ5Ym08R1fiSUoEvZd3nAH6oukW21wLX85GO_BRtcoEbk25YniQ7knG_QT56Qx7OJ4ZX_2jSIO6FcqPXt2f4Y8ysl4g8C13aXCotMQLKS3nAIY04dse/s980/Screenshot+2021-08-22+182000.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="980" data-original-width="718" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgO-2Orttp0lRY_sbh7JA87szd4CBQ5Ym08R1fiSUoEvZd3nAH6oukW21wLX85GO_BRtcoEbk25YniQ7knG_QT56Qx7OJ4ZX_2jSIO6FcqPXt2f4Y8ysl4g8C13aXCotMQLKS3nAIY04dse/w293-h400/Screenshot+2021-08-22+182000.jpg" width="293" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">इस
कार्य के लिए श्रीधर कौल से उपयुक्त व्यक्ति कोई नहीं था। श्रीधर कौल शिक्षा के
विकास और विस्तार में महाराजा हरि सिंह के न केवल सलाहकार थे, वरन् कश्मीर में
शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने वाले कर्मठ और समर्पित शिक्षाविद् भी थे। ऐसा
उल्लेख मिलता है, कि ‘वीमेंस वेलफेयर ट्रस्ट’ की बैठकों में वे अकसर कहा करते थे,
कि- “राज्य में एक इलाका अब भी अशिक्षा से जूझ रहा है।” उनका इशारा लदाख अंचल की
ओर होता था। इन चिंताओं को ध्यान में रखकर ही महाराजा काश्मीर ने श्रीनगर में
बौद्धसभा का गठन किया था। इसके संस्थापक पंडित श्रीधर कौल थे। इस सभा के अध्यक्ष
पूज्य स्तगछङ रिनपोछे थे, और वकील पंडित शंभुनाथ धर थे। बौद्धसभा द्वारा एक रिपोर्ट
तैयार की गई थी, जिसे ग्लांसी नामक अंग्रेज अधिकारी की अध्यक्षता में गठित ‘ग्लान्सी
कमीशन’ को सौंपा गया था। इस कमीशन की गतिविधियों का उल्लेख लदाख के जाने-माने
इतिहासकार-साहित्यकार टशी रबग्यस ने किया है। वे ‘मरयुल लदाख के इतिहास का
सर्वप्रकाशकादर्श’ में लिखते हैं, कि- “लदाख के बौद्धों के साथ मित्रता रखने वाले
सज्जन मित्र थे, जिन्होंने लदाख के लोगों के लिए उस समय अपना विशेष योगदान दिया,
जब लदाख के लोग जागरूक नहीं थे।”</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">श्रीधर
कौल संवेदनशील, कर्मठ और सहृदय व्यक्ति थे, फलतः सन् 1939 में उन्हें शिक्षा
अधिकारी बनाकर लदाख भेजा गया। अनेक सुविधाओं से संपन्न आज के लदाख में भी जब किसी
अधिकारी का स्थानांतरण होता है, तो उसकी तैनाती को किसी सजा से कम नहीं माना जाता।
ऐसी स्थिति में सन् 1939 के लदाख की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देने वाली
होगी। श्रीनगर की हरी-भरी और तमाम सुख-सविधाओं से युक्त अपनी जन्मभूमि से निकलकर
रूखे-सूखे और भयंकर ठंडे लदाख अंचल में कौल जी का आगमन होता है। वे इसे किसी सजा
के तौर पर नहीं, बल्कि सौभाग्य के रूप में देखते हैं। शिक्षा के लिए जागरूकता उनके
जीवन का ध्येय बन जाता है। उस समय के लदाख में आवागमन के साधन नहीं के बराबर थे।
लदाख का क्षेत्रफल भी आज से दुगुना था, क्योंकि उस समय गिलगित-बल्तिस्थान तक लदाख
की सीमाएँ होती थीं। दुर्गम पहाड़ी रास्तों को उन्होंने पैदल चलकर, घोड़े पर सवार
होकर तय किया और गाँव-गाँव में पहुँचकर लोगों को शिक्षा के लिए जागरूक किया।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">लदाख
के जाने-माने इतिहासकार और साहित्यकार अब्दुल ग़नी शेख बताते हैं, कि पंडित श्रीधर
कौल को लोग एक शिक्षक के रूप में सम्मान देते थे, इस कारण वे लदाख अंचल में
‘मास्टरजी डुल्लू पंडित’ के रूप में जाने जाते थे। उनके अनथक प्रयासों से लदाख अंचल
में कई स्कूलों की स्थापना हुई। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई। मास्टरजी
प्रत्येक विद्यालय में पहुँचते थे, और शिक्षकों के विकास के लिए सुझाव देते थे। वे
बच्चों को आधुनिक शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे, ताकि लदाख अंचल के युवा भी
सरकारी तंत्र में शामिल हो सकें, अधिकारों के लिए जागरूक हो सकें और विकास की मुख्यधारा
से जुड़ सकें।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">श्रीधरजू
कौल आर्यसमाज जुड़े हुए थे। उनके प्रयासों
से ही श्रीनगर के रैनाबाड़ी इलाके में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना सन्
1943 में हुई थी। इसके पहले उन्होंने आर्यसमाज की तर्ज पर ‘लदाख बुद्धिस्ट एजूकेशन
सोसायटी’ की स्थापना में योगदान दिया था। इस संगठन के माध्यम से लदाख अंचल में
शिक्षा के लिए जागरूकता के साथ ही बिगड़ते जनसंख्या संतुलन को सुधारने और अनेक
प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं से निपटने के लिए संगठित होने का प्रयास शुरू
हुआ था। बाद में यह संगठन ‘यंग मैन बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के रूप में जाना गया।
एसोसिएशन के शायद पहले अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन थे। कारपो रिगजिन भी पंडित कौल
की तरह समर्पित जनसेवक थे।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">मास्टरजी
डुल्लू पंडित के लिए नई चुनौती तब सामने आई, जब देश की आजादी निकट आ चुकी थी। सीमांत
सुरक्षा की दृष्टि से लदाख की हालत अच्छी नहीं थी। सन् 1947 में देश की आजादी और
फिर कश्मीर राज्य में तेजी से बदलती राजनीतिक स्थितियों के बीच डोगरा शासकों के
अधीन आने वाला सारा भूभाग दिशाहीन हो चुका था। देश के विभाजन के साथ ही कबाइली आक्रमणकारियों
ने गिलगित और स्करदो पर कब्जा कर लिया था। वहाँ की बौद्ध आबादी को विस्थापन और
आतंक के कहर से जूझना पड़ रहा था। यही स्थितियाँ बल्तिस्तान से लगने वाली नुबरा
घाटी में दुहराई जाने वाली थीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में लदाख के युवाओं को
संगठित करके ‘नुबरा गार्ड्स’ नामक एक संगठन तैयार किया गया। इसमें बौद्ध युवाओं को
जोड़ने का काम ‘यंग बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन ने किया।
इसके पीछे पंडित डुल्लू कौल की प्रेरणा थी। वे स्वयं भी युवाओं को इसके लिए
प्रेरित कर रहे थे, जागरूक कर रहे थे।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">उस
समय जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय हो जाने के बाद भी लदाख की सुरक्षा के
लिए भारतीय फौजें नहीं पहुँच पाई थीं। भारतीय फौजों के लदाख पहुँचने, और लदाख की
दुर्गम भौगोलिक स्थितियों के बीच उन्हें सुरक्षा-व्यवस्था मुस्तैद करने में काफी
समय लगने वाला था। इसे देखते हुए कारपो छेवांग रिगजिन और पंडित कौल ने श्रीनगर
प्रशासन से अनुरोध किया, कि ‘नुबरा गार्ड्स’ को धार्मिक संगठन के स्थान पर सैनिक
संगठन का दर्जा दिया जाए, और युवाओं को प्रशिक्षित किया जाए। फलतः नुबरा गार्ड्स
ने देश के उत्तरी छोर पर अपना मोर्चा सँभाला।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">पंडित
कौल ने सन् 1948 में लदाख की रक्षा के लिए एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे उन्होंने
खुद पंडित नेहरू को सौंपा था। लेह-मनाली मार्ग को लदाख के आवागमन के लिए तैयार
करने की जरूरत को जिस तरह मास्टरजी डुल्लू कौल ने तत्कालीन रक्षामंत्री सरदार
बलदेव सिंह और जनरल के.एम. करिअप्पा के सामने रखा था, उसे एक दूरदर्शी चिंतक की
सक्रियता से कम नहीं कहा जा सकता। मास्टरजी के प्रयासों से गठित ‘नुबरा गार्ड्स’
को सन् 1963 में ‘लदाख स्काउट्स’ का नाम मिला और यह सेना की स्वतंत्र इकाई के रूप
में आज भी सक्रिय है। इन ‘स्नो वारियर्स’, इन ‘स्नो टाइगर्स’ ने नुबरा घाटी से
जुड़े बल्तिस्थान के इलाके में सन् 1947-48 में मचाए गए आतंक का बखूबी जवाब 13
दिसंबर, सन् 1971 को दिया था। उस समय अगर कुछ समय तक युद्ध-विराम की घोषणा नहीं
होती, तो बल्तिस्थान के पाँच नहीं, पाँच सैकड़ा गाँव आज पाक अधिकृत कश्मीर में
नहीं होते।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">पंडित
श्रीधर कौल का श्रीनगर के रैनाबाड़ी स्थित आवास उनके अपने घर से कहीं ज्यादा लदाख
के लोगों के लिए घर जैसा था। इसी कारण उसे लदाख सराय ही कहा जाने लगा था। ऐसा
बताया जाता है कि पंडित कौल ने डोलमा नाम की एक गरीब-अनाथ लदाखी बालिका को अपनी दत्तक
पुत्री बनाया था। बाद में उन्होंने ही उसका विवाह कराया। श्रीनगर के रैनाबाड़ी में
रहकर पढ़ने वाले तमाम लदाखी बालक-बालिकाओं के रहने-खाने का सारा व्यय मास्टरजी ही
वहन करते थे। पंडित श्रीधर कौल की दूरदर्शी दृष्टि ने कुशोग बकुल रिनपोछे में जिस
राजनीतिक नेतृत्वशक्ति को देखा था, कालांतर में वह उभरकर सामने आई। आज के लदाख के
निर्माणकर्ता के व्यक्तित्व का बड़ा अंश श्रीधर कौल के सानिध्य में निर्मित हुआ।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">सन्
1948 तक पंडित श्रीधर कौल लदाख में रहे। इसके बाद भी उनका लदाख से संबंध बना रहा।
सन् 1952 में वे लदाख से चले गए, किंतु उनके अविस्मरणीय योगदान को, उनकी
कर्तव्यनिष्ठा को, उनके महायान बौद्ध धर्म-दर्शन से लगाव को लदाख की जनता विस्मृत
नहीं कर सकी। इसी कारण आजाद भारत में जब लदाख के विकास के लिए किसी मार्गदर्शक की
जरूरत महसूस हुई, तो लदाख के लोगों ने श्रीघर कौल पर ही अपना भरोसा जताया।
लदाखियों द्वारा सन् 1953 में एक ज्ञापन तत्कालीन मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद
को भेजा गया, जिसमें पंडित श्रीधर कौल को लदाख मामलों का विशेष सचिव नियुक्त किए
जाने की माँग थी। लदाख के लोगों की यह माँग भले ही पूरी न हो सकी हो, किंतु इसने
एक निष्काम सेवाव्रती के प्रति आस्थायुक्त जनभावनाओं को अभिव्यक्त कर दिया था।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">सन्
1967 में पंडित श्रीधर कौल अपने रैनाबाड़ी स्थित आवास में चिरनिद्रालीन हो गए। लदाख
अंचल को जम्मू और श्रीनगर के समान विकसित और सशक्त होते देखने की कामना करने वाले
पंडित श्रीधर कौल की अमूल्य राष्ट्रसेवा विस्मृत नहीं की जा सकती। देश के उत्तरी
छोर को एकता के सूत्र से बाँधकर रखने वाले, लदाख अंचल में शिक्षा की अलख जगाने
वाले पंडित श्रीधर कौल डुल्लू का निष्काम सेवाभाव नींव के पत्थर की तरह है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;">-राहुल मिश्र</span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Aparajita",serif; font-size: 28.0pt; mso-ansi-font-size: 36.0pt;">
</span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%;"><i>(मासिक
पत्रिका सीमा संघोष, अगस्त, 2021 अंक में प्रकाशित)</i></span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;"><o:p></o:p></span></p></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><br /></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-80409871593485210502021-08-22T07:57:00.001+05:302021-08-22T07:57:12.857+05:30भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIrbvyBOLEc0dEwJbjspuxDUDyx0w6y_QDpv7-HPm5YKnrObY2D2Ith0FwHzN0-tlsPwa8nWZMP5KUUif1zWpLVnYgV-9CO_gJP5tCzT5oGRRQFyYYEf0Xw792cZ2Yl_JgkzJB3JBAeKGO/s809/%25E0%25A4%2585%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2583%25E0%25A4%25A4+%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A4+%25283%2529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="439" data-original-width="809" height="348" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIrbvyBOLEc0dEwJbjspuxDUDyx0w6y_QDpv7-HPm5YKnrObY2D2Ith0FwHzN0-tlsPwa8nWZMP5KUUif1zWpLVnYgV-9CO_gJP5tCzT5oGRRQFyYYEf0Xw792cZ2Yl_JgkzJB3JBAeKGO/w640-h348/%25E0%25A4%2585%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2583%25E0%25A4%25A4+%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A4+%25283%2529.jpg" width="640" /></a></b></div><b><br /><span lang="HI" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 36pt; line-height: 115%;"><br /></span></b><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 36pt; line-height: 115%;">भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय</span></b><b style="background-color: #f3f3f3;"><span lang="EN-US" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 36pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></b></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">यह केवल कहने की बात नहीं है, बल्कि इसे
देखा भी जा सकता है, और सुना भी...। इसीलिए बात बहुत मार्के की है। नागिन, सपेरा
और बीन...इन तीनों का गठजोड़ बहुत पुराना भी है, और स्थापित भी है। इन तीनों को
अन्योन्याश्रय-संबंध के साथ हिंदी के सिनेमा ने भी बढ़-चढ़कर दिखाया है। जरा याद
कीजिए उन फिल्मों को; जो नागिन, सपेरा और बीन की तिकड़ी को लेकर बनी हैं, या
जिनमें इन तीनों का बहुत बड़ा ‘रोल’ दिखाई देता है। ‘नागिन’ छाप फिल्मों में ‘तेरी
मेहरबानियाँ’ जैसा झोल नहीं दिखता, कि पोस्टर किसकी मेहरबानियों की बात कह रहा है?
पूरी फिल्म में जब कुत्ता साये की तरह साथ नजर आता है, तब कुत्ते का नाम लिखना
आखिर क्यों उचित नहीं...। अपन तो सोचा करते थे, कि फिल्म को अगर ‘कुत्ते की
मेहरबानियाँ’ नाम दिया होता, तो शायद फिल्म की पटकथा और फिल्म के पोस्टर के बीच
तादात्म्य दिखाई दे जाता।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">खैर... बात नागिन की हो रही है, तो यहाँ
बेझिझक बताना होगा, कि ‘नागिन’ टाइप फिल्में अपने नाम से भटकती नहीं हैं। इसी कारण
ये फिल्में अपना तीखा और तेज असर डालती हैं। एक जमाना ऐसा भी था, जब नागिन का जादू
‘आधी दुनिया’ पर सिर चढ़कर बोला करता था। मोहतरमाएँ नागिन की तरह बल खाती थीं, और
सपेरे को डस ही लेंगी जैसी अदा में हर समय दिखती थीं। अनेक शायरों के लिए
‘नागिन-सी चाल’ शेर-बहर की पैदाइश के लिए मुकम्मल माहौल बनाती थी। इस सबके बीच बीन
भी कम महत्त्व की नहीं होती थी। बीन की धुन के साथ नागिन और सपेरे का नाच फिल्म से
निकलकर सड़क तक कब और कैसे आया, इस पर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। बात आगे बढ़ाने
से पहले यह भी बताना कम रोचक नहीं लगता, कि आज भी हारमोनियम के सीखने वाले
नए-नवोढ़े संगीतकारों के लिए नागिन की बीन वाली धुन बजाना खासा चैलेंज होता है, और
उससे ही सीखने का क्रम आगे बढ़ता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">नागिन वाला नाच ऐसा सदाबहार नाच है, जिसके
बिना कह सकते हैं कि जयमालाएँ नहीं पड़तीं। दुनिया चाहे कितनी भी मॉडर्न क्यों न
हो जाए। बारात भले ही शहर में जा रही हो, या गाँव की कच्ची और ऊबड़-खाबड़
पगडंडियों पर...नागिन वाले नाच के बिना उसका सौंदर्य निखरता ही नहीं है। पूरे रंग
में बारात चली जा रही है और दूल्हे के सगे सब अलग-अलग अदा में नाच रहे हैं। तभी
बीच में से एक नागिन निकलकर जाती है, और ब्रास बैंड पार्टी के मुखिया को, यानि
म्यूजिक डाइरेक्टर को हिदायत देती है- ए... नागिन.... बजाओ...। तुरंत ही कैसियो पर
उंगलियाँ थिरककर ‘ऊँ..हूँ...हूँ...ऊँ.. हूँ... हूँ... हूँ...’ की धुन निकालने लगती
हैं। दूसरी तरफ अलग-अलग नृत्य पद्धतियों में नाच रहे बरियाती सब चौंकन्ने हो जाते
हैं। ताल बदलकर मुस्तैद हो जाते हैं और कितनी नागिनें और सपेरे एकदम प्रकट हो गए,
गिनना कठिन हो जाता है। कभी-कभी नागिन एक ही होती है, और सपेरे कई। सपेरा बनना भी
आसान... पतलून से रूमाल निकाला, और एक कोना मुँह में दबाकर दूसरे कोने को दोनों
हाथों से पकड़ा, और बस... सपेरे की बीन भी तैयार....। नागिन को इतना कुछ नहीं करना
पड़ता। वह अपनी दोनों हथेलियों को फन की तरह बनाकर सपेरों से मुकाबले के लिए उतर
पड़ती है। उसके सामने चैलेंज बड़ा होता है... कई-कई सपेरों से बचने का। इसके लिए
उसे बार-बार लोटना पड़ता है, उठना पड़ता है, गिरना पड़ता है। सपेरे भी उसे काबू
करने के लिए कम जोर आजमाइश नहीं करते। कैसियो की धुन की तेजी के साथ नागिन और
सपेरे इस कदर लहालोट होते हैं, कि अपने तन-वसन की सुध भी भूल जाते हैं। गाँवों की
कच्ची सड़कों या पगडंडियों पर नागिन-सपेरा का यह मुकाबला दूर से ही आभास करा देता
है, धूल के उठते गुबार के जरिये...। अब देखिये... जनवासे से बढ़िया लकालक क्रीज
बने हुए कपड़े पहनकर चली नागिनें और सपेरे दुलहिन के दुआर तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे
लगने लगते हैं, मानों घूर समेटकर आ रहे हों। यकीन मानिए, कि यह चमत्कार बीन की धुन
में ही होता है, जो अपने कपड़ों की क्रीज को कम से कम जयमाल के फंक्शन तक न टूटने
देने की बारातियों की प्रतिबद्धता को भंग करा देती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">इतनी बड़ी अहमियत रखने वाली बीन की तौहीन तब
होती है, जब वह भैंस के सामने पहुँचती है- भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी
पगुराय..। वैसे भैंस को लेकर और भी कई बातें हैं, जैसे- काला अक्षर भैंस बराबर और
अकल बड़ी या भैंस.. आदि। भैंस के साथ इन लोक-कथनों को सुनकर अकसर यही आभास होता
है, कि भैंस का पढ़ने-पढ़ाने या दिमागी कार्य-व्यवहारों से दूर-दूर तक कोई नाता
नहीं होता। बीन का अपना शास्त्रीय महत्त्व होता है। संगीत की पुरातन व्यवस्था में
बीन नामक संगीत का उपकरण अपना स्थान रखता है। बीन का संबंध मन के आह्लाद से भी
होता है, उमंग से भी होता है। इसी कारण बीन की धुन पर वह नागिन भी थिरकने लगती है,
जिसके कान तक नहीं होते। सर्प प्रजाति के जीवों के कान नहीं होते। बीन की हरकतों
को देखकर नागिन थिरकती है। फिर भी हम संगीत के प्रभाव को नकार नहीं सकते। हम संगीत
के सुख में डूबने की स्थितियों को नकार नहीं सकते। संगीत जीवन में उमंग और उल्लास
भरता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">भैंस को संगीत से कोई मतलब नहीं होता। उसके
दो कान भी होते हैं, देख भी सकती है, लेकिन न तो बीन की धुन ही उसे उद्वेलित करती
है, और न ही बीन की कलात्मक थिरकन....। आँख और कान होते हुए भी उसके लिए उल्लास और
उमंग कोई मायने नहीं रखते। जीवन का आह्लाद, जीवन की उमंग से वह कोसों दूर रहती है।
एकदम वीतरागी होकर वह बीन के सामने खड़ी रहती है, पगुराती रहती है। संगीत उसके लिए
नीरस है, उसके पास अपनी खुशी है, केवल पगुराने में...। उसके पास खुशी का कोई कारण
बीन की धुन से खुश होने का नहीं है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उसके लिए काला अक्षर
होता है। जिस तरह वह अपने आकार-प्रकार से अकल को ‘चैलेंज’ करती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">भैंस के प्रति ये नकारात्मक विचार कहे जा
सकते हैं। भैंस की अपनी संस्कृति, अपनी पहचान की चिंता के पीछे उसके वीतरागी हो
जाने की स्थितियों को छिपाया जा सकता है। बेशक भैंस बड़ी होती है। अकल छोटी होती
है, क्योंकि अकल तो दिखाई भी नहीं पड़ती। इसी अकल के भरोसे अगर भैंस के चिंतन की
गंभीरता का आकलन करें, तो कह सकते हैं, कि उसे बीन के संगीत के सामने अपनी चिंतन
की गंभीरता को कुरबान कर देना उचित नहीं लगता। इसी कारण वह चिंतन की अतल गहराइयों
में डूबे हुए बीन की धुन को ‘इग्नोर’ करती है। ऐसा करके वह अपनी महानता की, अपनी
गंभीरता की, अपने गंभीर चिंतन की लाज रखती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;">अब आप कह सकते हैं, कि फिर उसे पगुराना
क्यों होता है, और वह भी खड़े रहकर? दरअसल भैंस का खड़े रहना और पगुराना, दोनों ही
उसके व्यक्तित्व से जुड़े हुए पहलू हैं। खड़े रहकर वह अपनी सक्रियता का बोध कराती
है। वह यह बताती है, कि उसकी सक्रियता नायाब है। अगर वह बैठ जाएगी, तो उसके साथ सबकुछ
बैठ ही जाएगा। एक जागरूक और चिंतनशील ‘परसन’ के लिए खड़े रहना कई कारणों से जरूरी
होता है। और पगुराना भैंस का गुणधर्म है। अपनी चिंतनशीलता और अपने विकराल भौतिक व्यक्तित्व
के आवरण के पीछे उसे पगुराना होता है, हजम करना होता है, बहुत सारी योजनाओं को,
व्यवस्थाओं को, लोगों के सपनों को, विचारों को, कभी-कभी जीवन को...। वह जुगाली
नहीं करती, पगुराती है। पगुराना एक क्रिया है, कई पुश्तों के लिए। मौका मिलते ही
जल्दी-जल्दी अपने उदर में भर लो, और फिर लंबे समय तक उसे पगुराते रहो। ‘ऊपर की कमाई’
जल्दी-जल्दी खाकर तीन पुश्तों के लिए पगुराने का इंतजाम...। भैंस इसी कारण एक अलग
चरित्र गढ़ती है। वह बीन पर ध्यान नहीं देती। उसका ध्यान पगुराने पर होता है। आखिर
बीन से उसे क्या हासिल होने वाला है? </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p align="right" class="MsoNormal" style="line-height: 24px; margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 36px;">राहुल मिश्र</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; line-height: 24px;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;"></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><br /></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin: 6pt 0cm; text-align: center; text-indent: 36pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 18.0pt; line-height: 150%; mso-ansi-font-size: 20.0pt;"><i>अमृत विचार, बरेली
में 13 दिसंबर, 2020 को प्रकाशित</i></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 150%; mso-bidi-font-size: 18.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;">
</p><p align="right" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: right; text-indent: 36.0pt;"><br /></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-63549992264664361472021-07-30T13:27:00.000+05:302021-07-30T13:27:14.629+05:30<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: Tillana; font-size: 36pt; line-height: 115%;">श्रीकृष्ण रास मंडल बरास्ता वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों में
बँध.....<o:p></o:p></span></b></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><i><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">किड़...र्र..र्र...र्र...किड़-किड़.. धम्म...
हे प्रभु गिरिधर.. गोवर्धनधारी... अब राखो पत हमारी...हम आए सरन तिहारी... किड़-धम्म-धम्म...</span></i><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;"> और <i>वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों
में बँध, धड़कनों के संग सुर मिलाया करे..साज़ बजते ही साथी देखो यहाँ, रौनकें दिल
में सबके बढ़ाया करे... </i>के साथ ही <i>हे मात तेरे चरणों में..आकाश झुका
देंगे...आँसू न बहा माता, मोती न लुटा माता.. </i>जैसे बोल बाँदा के उन तमाम
बाशिंदों के लिए स्मृतियों की मधुर पूँजी बनकर आज भी संचित होंगे, जिन्होंने
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संधिकाल में अपनी तरुणाई को देखा होगा। आज के तमाम
युवाओं के लिए भी यादों में ये पंक्तियाँ होंगी, किंतु यहाँ सीमा-रेखा खींचकर
बताना इसलिए आवश्यक हो गया, क्योंकि इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक में आई ‘इंटरनेट
क्रांति’ ने अचानक ही बहुत बड़ा बदलाव ला दिया था। और इस बड़े बदलाव ने सामूहिक
मनोरंजन के केंद्रों को तेजी के साथ सिकोड़ दिया, चाहे बात सिनेमाघरों की हो, या
फिर रंगमंचीय परंपराओं की हो..।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">नगाड़े की धमक और ढोलक की थापों के बीच गूँजते
ऐसे चौबोलों, कड़ों, दोहों, दौड़, लँगड़ी दौड़, लावनी और लँगड़ी लावनी जैसे
छंद-विधानों और सुर-लय-तालों के साथ जुड़ी हुई हैं, बाँदा के ठठराही मोहल्ले के
श्रीकृष्ण रास मंडल की स्मृतियाँ...। बाँदा नगर की धुर पुरानी आबादी के बीच स्थित
वह ठठराही मोहल्ला, जिसके साथ छोटी बाजार की पहचान भी शामिल है..., चौक-बाजार या
बड़ी बाजार के अस्तित्व में आने के बाद से ही..। वैसे तो ठठराही को ताँबे, पीतल,
काँसे के पुराने बर्तनों का अस्पताल भी कहा जा सकता है, क्योंकि यहाँ साल-भर
बर्तनों की ठक-ठक गूँजती ही रहती है, मगर वसंत पंचमी के आने के साथ ही इस मोहल्ले
में कुछ ऐसी सांस्कृतिक हलचलें भी बढ़ने लगती हैं, जिनका संबंध श्रीकृष्ण रास मंडल
से जुड़ता है। होलिकादहन के बाद आने वाली पंचमी से शुरू होने वाली रासलीला के लिए
तैयारियाँ वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती हैं। इसमें एक तरफ कलाकार अपने अभिनय की
तैयारी करते हैं, तो दूसरी तरफ रंग-रोगन करके रंगमंच को व्यवस्थित करने का क्रम चल
निकलता है। वैसे तो रंगशाला ज्यादा पुरानी नहीं है। पुराने जमाने में मंचन के लिए
सड़क में ही तखत बिछाकर और उनके ऊपर चाँदनी लगाकर मंच तैयार कर लिया जाता था। समय
और स्थितियों के बदलाव के साथ, और लोगों के आकर्षण व लगाव के कारण ऊँचा और पक्का
मंच अस्तित्व में आया, जिसे आज भी देखा जा सकता है। रंगशाला के दोनों तरफ से
गुजरने वाले रास्तों के कारण यह अपनी स्वाभाविक भौगौलिक स्थिति के कारण ही थियेटर
के बड़े परदे जैसा बन गया है। बाकी की कमी दूर तक चली जानी वाली चौड़ी सड़क के
दोनों किनारों पर बने मकानों के चबूतरों ने पूरी कर दी है, जो दर्शकों के बैठने के
लिए अच्छा और ऊँचा स्थान उपलब्ध करा देते हैं।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">अगर अतीत में उतरकर देखें, तो साफ नज़र आता है
कि होली की पंचमी के आने के साथ ही श्रीकृष्ण रास मंडल के ऊँचे मंच के निकट के मकानों
के चबूतरों पर अस्थाई कब्जा कर लेने की होड़ चल पड़ती थी। घरों के मालिकान
अपने-अपने घरों के छज्जों में बैठकर, तो दूर-दराज से आने वाले दर्शकगण मकानों के
चबूतरों में बैठकर रासलीला का आनंद लिया करते थे। नजदीक की, और अच्छी वाली जगह की
तलाश के लिए शायद पंचमी की सुबह का इंतजार भी नहीं किया जाता होगा, ऐसा भी कहा जा
सकता है, क्योंकि अच्छी जगह के लिए बड़ी मारामारी होती थी, यहाँ तक कि कई बार
झगड़े भी हो जाया करते थे। होली की पंचमी से दस दिनों तक चलने वाली रासलीला के लिए
दर्शकों द्वारा तय की गई जगह, जिसे धुर बुंदेलखंडी में छेकी गई जगह कहा जा सकता
है, पूरे के पूरे दस दिनों के लिए आरक्षित हो जाती थी। पूरे दिन चबूतरों पर बिछी
रहने वाली फट्टियाँ और बोरे इस बात को बखूबी बता दिया करते थे, कि लोगों में
रासलीला और स्वाँग देखने के लिए कितना आकर्षण होता था।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">कमोबेश ऐसा ही आकर्षण स्थानीय कलाकारों के लिए
भी होता था, जिन्हें रासमंडली में बतौर कलाकार काम करने का मौका मिल जाता था।
लोकनाट्य विधाओं के प्रति आकर्षण रखने वालों के लिए श्रीकृष्ण रास मंडल का दस
दिवसीय आयोजन किसी बड़े ‘इवेंट’ से कम नहीं होता था, और श्रीकृष्ण रास मंडल
गीत-संगीत-अभिनय आदि में रुचि रखने वाले स्थानीय लोगों को एक अवसर उपलब्ध कराने का
माध्यम बन जाता था। इसी कारण जिस कलाकार को रास मंडली में अभिनय का मौका मिलता, वह
गर्व से फूला नहीं समाता था। पुराने समय में महिला कलाकारों के लिए ऐसे मंच वर्जित
होते थे, इस कारण महिला पात्रों का अभिनय भी पुरुष ही करते थे, और वह भी ऐसा
जबरदस्त, कि सचमुच की महिलाएँ भी हार मान बैठें। इन कलाकारों की छाप लोगों के मन
में ऐसी बैठती थी, कि मंच के बाहर भी उनकी अपनी एक पहचान बन जाती थी। दिमान हरदौल
का अभिनय करने वाले रिछारिया जी, सरदार भगत सिंह और भक्त मोरध्वज का अभिनय करने
वाले पन्नालाल स्वर्णकार, शालिग्राम गुप्त, फुल्ले महाराज और ग्याल महाराज जैसे
नामचीन कलाकार भले ही आज इस दुनिया में न हों, लेकिन उनके अभिनय-कौशल को आज भी लोग
याद करते हैं।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">चैत्र मास की कृष्ण प्रतिपदा से लेकर पंचमी तक
चलने वाले होलिकोत्सव का रंग उतरते-उतरते कृष्ण पंचमी, यानि रंगपंचमी के आगमन के
साथ ही बाँदा और इसके आसपास के गाँवों का उत्सवधर्मी समाज श्रीकृष्ण रास मंडल की
लीलाओं को देखने के लिए तैयार हो जाता, साल-भर की लंबी प्रतीक्षा के बाद....। मगर
बुंदेलखंड में रासलीला?.... श्रीकृष्ण की लीलाओं का मंचन....? यह तो रामलीलाओं की
भूमि है.... चित्रकूट में कोल-भीलों के बीच दोना-पत्तलों में कंद-मूल-फल खाने वाले
वनवासी श्रीराम की भूमि है... राजा के रूप में विराजमान ओरछा के अधिष्ठाता श्रीराम
की भूमि है, गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरितमानस की पंक्तियों को रात-दिन
गुनगुनाने वाली.. रग-रग में जोश भर देने वाले आल्हा के गवैयों की भूमि है... तब
यहाँ कन्हैया जी अपनी लीलाओं के साथ कैसे आ गए? यह बड़ा प्रश्न श्रीकृष्ण रास मंडल
का जिक्र होते ही अनेक लोगों के मन में उठ खड़ा होता होगा। प्रश्न भी स्वाभाविक ही
है.. और उत्तर बुंदेलखंड की अपनी अनूठी पहचान में निहित है। समन्वय का भाव
बुंदेलखंड के कण-कण में बसा है। अगर प्रभु श्रीराम चित्रकूट में, रामराजा ओरछा में
विराजते हैं, तो ओरछा में ही दिमान हरदौल भी पूजे जाते हैं, लोकदेवता के रूप
में..। गोंडों के आदिपुरुष ग्योंड़ी बाबा के प्रति जनआस्थाएँ भी देखी जाती हैं। चंदेलों-बुंदेलों
के आराध्य शिव और शक्ति के प्रतीकों को, परमालों-प्रतिहारों की देवियों को लोग
बड़ी आस्था के साथ पूजते हैं। बुंदेलखंड की सतत् संघर्षशील प्रवृत्ति के बीच
लोकरक्षकों का वजन लोकरंजक से कुछ ज्यादा रहा, संभवतः इसी कारण प्रलयंकर शिव,
शक्तिस्वरूपा चंद्रिका और महेश्वरीमाता, और दुष्टों के संहारक श्रीराम अपेक्षाकृत
अधिक स्थान जनआस्थाओं में पा सके, बजाय लीलाधारी नटवरनागर कन्हैया जी के...। बुंदेलखंड
की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है, और उसमें भी राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद का प्रसंग तो
दूर-दूर तक अपनी ख्याति रखता है, किंतु कृष्ण की लीलाएँ इस क्षेत्र की पहचान से
नहीं जुड़ी हैं। इस कारण से भी श्रीकृष्ण रास मंडल का वैशिष्ट्य बढ़ जाता है,
क्योंकि इस रंगमंच ने बुंदेलखंड की अनूठी समन्वय की प्रवृत्ति को पिछले दो-ढाई सौ वर्षों
से जीवंत करके रखा है। इसी विशेषता के आधार पर यह भी कहा जा सकता है, कि समूचे
बुंदेलखंड में श्रीकृष्ण की रासलीलाओं के मंचन का यह सबसे पहला, इकलौता और पुराना
केंद्र होगा।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">अगर मथुरा की रासलीला का बुंदेलखंडी संस्करण
श्रीकृष्ण रास मंडल में होने वाली माखनचोरी, चंद्रखिलौना, कंसवध और नाग-नथैया जैसी
लीलाओं में देखा जा सकता है, तो अलग-अलग कथानकों पर आधारित स्वाँग की परंपरा का
विस्तार भी यहाँ देखने को मिलता है। कलगी और तुर्रा नाम के ख्यालबाजी के अखाड़ों
से निकली स्वाँग की परंपरा हाथरस, वृंदावन और मथुरा में विशेष रूप से देखी जा सकती
है। इसको विस्तार देने का काम हाथरस वाले पंडित नथाराम शर्मा गौड़ ने किया।
वस्तुतः उनके आगमन के साथ ही नौटंकी के स्वाँगों का लिखित रूप तैयार होने लगा था,
जिसने रंगमंचों को व्यवस्थित करने का बड़ा काम किया। गुरु-शिष्य के रूप में चलने
वाली परंपरा में स्वाँग की पुस्तकों के आगमन के साथ ही संवादों को, संगीत की धुनों
को तैयार करना सरल हो गया। हाथरस की स्वाँग की यह परंपरा श्रीकृष्ण रास मंडल में
भी दिखाई देने लगी। इसमें बड़ी भूमिका गुरु-शिष्य परंपरा की भी रही है, जो आज भी
कायम है। पंडित नथाराम शर्मा गौड़ द्वारा रचित स्वाँगों की तर्ज पर श्रीकृष्ण रास
मंडल में भी स्वाँग लिखने और मंचन करने की शुरुआत हुई। इसमें सबसे बड़ा नाम
फूलचंद्र गुप्त बताशेवाले का आता है। उन्होंने वभ्रुवाहन नामक स्वाँग लिखा था।
फूलचंद्र गुप्त रास मंडली से भी जुड़े हुए थे, इस कारण उन्होंने स्थानीय दर्शकों
की रुचि के अनुसार संवादों और भाषा को रखा, शायद इसी कारण वभ्रुवाहन स्वाँग को
जनता के द्वारा बहुत पसंद किया जाता था। वभ्रुवाहन स्वाँग के साथ ही वीर अभिमन्यु,
भक्त मोरध्वज और राजा हरदौल के स्वाँग भी बहुत प्रसिद्ध रहे हैं, जिनका मंचन हर
साल किया जाता रहा है। इन स्वाँगों को देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। बुंदेलखंड
की अपनी पहचान, बुंदेलखंडी लोकगायकी, जैसे- लमटेरा, फाग, दादरा, रसिया, कजरी,
उमाह, कछियाई, राई आदि को दस दिवसीय रासलीला का प्रमुख आकर्षण कहा जा सकता है।
बुंदेलखंड के लोकगायकों के लिए यह मंच बड़ा अवसर उपलब्ध कराता था। इस मंच के
गायकों को दूसरे स्थानों में भी विशेष मान-प्रतिष्ठा मिलती थी।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><i><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों में बँध, धड़कनों के
संग सुर मिलाया करे..</span></i><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;"> लावनी की ये पंक्तियाँ श्रीकृष्ण रास मंडल के संदर्भ में एकदम खरी
उतरती हैं, क्योंकि ठठराही मोहल्ले का यह साधारण-सा आयोजन समय और समाज के प्रति
अपनी जिम्मेदारी को निभाने में पीछे नहीं रहा है। समय के साथ आते बदलावों की हर
हरारत को इसने अपने में उतारा है। श्रीकृष्ण की भक्ति-विषयक लीलाओं और दशावतार के
मंचन के बाद मनोरंजन के लिए इसमें स्वाँगों के माध्यम से सामाजिक समस्याओं,
कुरीतियों-बुराइयों के प्रति लोगों को सचेत करने का काम बखूबी होता रहा। इतना ही
नहीं, देश की आजादी के आंदोलन के दौरान, और उसके बाद भी श्रीकृष्ण रास मंडल अपनी
रंगमंचीय प्रस्तुतियों के माध्यम से समय और समाज के साथ निरंतर जुड़ा रहा है।
आजादी के आंदोलन में पारसी रंगमंचों की बड़ी भूमिका रही है। अंग्रेजों के कोप से
बचने के लिए रंगमंच में इस तरह से प्रस्तुतियाँ दी जाती थीं, कि क्रांतिकारियों का
संदेश लोगों तक पहुँच भी जाए, और अंग्रेजों की पकड़ में भी न आए। कमोबेश ऐसा ही
दायित्व उस कालखंड में श्रीकृष्ण रास मंडल ने भी निभाया। पौराणिक पात्रों के साथ
ही राजा हरदौल और भक्त मोरध्वज जैसे स्वाँगों के मंचन में देश की आजादी के आंदोलन
के साथ जुड़ने के संदेश निहित होते थे। देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले
क्रांतिकारियों के जीवन का मंचन करके लोगों के मन में पहले आजादी की अलख जगाने, और
आजादी के बाद इन क्रांतिवीरों की स्मृतियों को जीवंत रखने में भी रास मंडल की बड़ी
भूमिका रही है। रासलीलाओं के क्रम में आने वाले शहीद भगत सिंह नाटक में सुखदेव,
राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त आदि क्रांतिकारियों के जीवन को उतारा
जाता था। इतना ही नहीं, दुर्गा भाभी जैसी वीरांगनाओं को भी इन नाटकों में दिखाया
जाता था। सरदार भगत सिंह का स्वाँग भी बहुत प्रसिद्ध रहा है, और इसे देखने के लिए
भी भारी भीड़ इकट्ठी हुआ करती थी। अगर रंगपंचमी से दस दिनों के भीतर 23 मार्च आ
जाता था, तो सरदार भगत सिंह का मंचन 23 मार्च, अर्थात् सरदार भगत सिंह के बलिदान
दिवस पर ही होता था। यह क्रम आज भी अनवरत जारी है।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">बाँदा के इस अनूठे रंगमंच के नामचीन कलाकार
कस्सी गुरु की मृत्यु नब्बे वर्ष की आयु में हुई थी, उनकी मृत्यु को लगभग तीस वर्ष
हो चुके हैं। कस्सी गुरु बताया करते थे, कि उनके बाबाजी ने रहस के मंचन को देखा
था। अपने बाबा से प्रेरित होकर ही कस्सी गुरु रास मंडल से जुड़े थे। कस्सी गुरु के
बताने के अनुसार पंचलैट के उजाले में बिना ध्वनि-विस्तारक यंत्रों की मदद के,
अस्थायी मंच बनाकर जितने उत्साह के साथ दस दिनों तक रासलीलाओं का आयोजन होता था,
वह निश्चित तौर पर आज के समय में कल्पनातीत है। नक्कारे की धमक भी ऐसी होती थी, कि
बाँदा के आसपास के लगभग बीस-पचीस किलोमीटर के दायरे में आने वाले गाँवों के लोग
इकट्ठे हो जाते थे। कभी-कभी सिर पर आ गए सूर्यदेव की परवाह किए बिना लोग डटे ही
रहते थे, मानों पूरे स्वाँग को देखकर ही उठने का प्रण लेकर आए हों....कब रात गुजर
गई, कब दिन चढ़ आया, इससे बेखबर...। कस्सी गुरु की बातों का सहारा लेकर अगर
श्रीकृष्ण रास मंडल का काल-निर्धारण किया जाए, तो यह परंपरा सीधे तौर पर दौ सौ
वर्षों से अधिक पुरानी नजर आती है।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">वैसे ठठराही के ही प्रेम चच्चा, उर्फ बैरागी
डॉक्टर उर्फ प्रेम श्रीवास्तव जी के पास भी इस रंगशाला से जुड़ी ढेरों स्मृतियाँ
थीं। आज उनको दिवंगत हुए कई वर्ष गुजर गए हैं, किंतु उनकी मोहक वंशी की धुन को कभी
भुलाया नहीं जा सकता। अपने नाम के अनुरूप ही वे बैरागियों जैसा तंबा और बंडी पहनते
थे। होम्योपैथी के अच्छे जानकार थे, साथ ही गीत-संगीत से विशेष लगाव रखते थे। यही
एक कारण था, जो उनको श्रीकृष्ण रास मंडल से जोड़े हुए था। उनकी परंपरा को उनके
बेटे प्रशांत ने आगे बढ़ाया है। वंशी, ढोलक, हारमोनियम आदि विभिन्न वाद्य-यंत्रों
में पारंगत प्रशांत जी की श्रीकृष्ण रास मंडल में सक्रियता सुखद है, सुंदर है। आज
पुरानी पीढ़ी के तमाम कलाकार या तो दिवंगत हो चुके हैं, या फिर शारीरिक रूप से
अक्षम हो चले हैं। ऐसी स्थिति में उनके वंशजों ने दो सौ साल पुरानी इस परंपरा को
जिलाए रखने का यत्न किया है, जो कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण है, सराहनीय है।</span><span face="Kokila, sans-serif" style="font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: justify; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">श्रीकृष्ण रास मंडल के प्रमुख कर्ता-धर्ता
श्री बसंतलाल जी सर्राफ एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने लंबे समय तक सभी
को जोड़कर रखा है, और इसके लिए वे आज भी सक्रिय हैं, अपनी बढ़ती उम्र की विवशता के
बाद भी...। किंतु उनकी वेदना आज के बदलते समय को लेकर है। सूचना और संचार क्रांति
ने बहुत कुछ बदल दिया है। लोगों के पास उपलब्ध दूसरे तमाम मनोरंजन के साधनों ने,
दौड़ती-भागती जिंदगी ने श्रीकृष्ण रास मंडल की उस पुरानी हनक को ठेस पहुँचाई है,
जिसके बूते इस रंगमंच ने समाज का मनोरंजन भी किया, समाज को नसीहतें भी बाँटीं और
बुंदेली माटी की पहचान को जिलाए रखा। बसंतलाल जी के सुपुत्र विजय जी की पीढ़ी भी
उसी सक्रियता के साथ परंपरा को निभाती जा रही है, किंतु तेजी से बदलते समाज और
दौड़ती-भागती जिंदगी के बीच सामूहिक रूप से बैठकर कुछ मनोरजंन कर लेने, अपनी
सांस्कृतिक पहचान को दुहरा लेने और लोकजीवन का सहकार-सानिध्य पा लेने के अवसर घटते
जा रहे हैं; या यूँ कहें, कि हम अपनी जिंदगी के जरूरी कामों की सूची से इन्हें
हटाते जा रहे हैं। संभवतः इसी कारण बुंदेलखंड का यह अनूठा रंगमंच अपने लगभग दौ सौ
वर्षों के गौरवपूर्ण अतीत को समेटकर अस्तित्व के लिए संघर्ष करने को विवश हो गया
है।<o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: right; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;">राहुल मिश्र</span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; margin: 6pt 0in; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span face="Kokila, sans-serif" lang="HI" style="font-size: 26pt; line-height: 115%;"><i>(दमोह की हटा नगरपालिका द्वारा प्रकाशित वार्षिक पत्रिका- बुंदेली दरसन- 2018 में प्रकाशित)</i></span></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-75217581678266615372021-07-30T12:18:00.010+05:302021-07-30T12:28:12.921+05:30कैसे हैं ये ‘पिंजरा तोड़’ वाले लोग....<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5XVONFF2UPaxTBG2w9QwK3KPx1v6oLBpr8SsqW8b5fE5kLbBaumktvi5CovB243SvEBJ6IFBwfz41_p1Zcfd0PiZXsW-auBCG459gRmhHR-QH-8ZIhqDXBOn9MnIM6yDKNN1DaSrDFcDh/s1080/WhatsApp+Image+2021-07-30+at+12.03.20.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="802" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5XVONFF2UPaxTBG2w9QwK3KPx1v6oLBpr8SsqW8b5fE5kLbBaumktvi5CovB243SvEBJ6IFBwfz41_p1Zcfd0PiZXsW-auBCG459gRmhHR-QH-8ZIhqDXBOn9MnIM6yDKNN1DaSrDFcDh/w476-h640/WhatsApp+Image+2021-07-30+at+12.03.20.jpeg" width="476" /></a></div><p><br /></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 36pt; line-height: 150%;">कैसे हैं ये ‘पिंजरा
तोड़’ वाले लोग....<o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">हाल
ही में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा मंजूर की गई एक जमानत की अर्जी के बाद से ही दिल्ली
दंगों समेत पिंजरा तोड़ समूह फिर से चर्चा में आ गया है। हालाँकि ये चर्चा में रहें,
ऐसी विशिष्टता न तो जमानत पर रिहा हुए पिंजरा तोड़ समूह के सदस्यों देवांगना
कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा की है, और न ही पिंजरा तोड़ समूह की...।
फिर भी ‘पिंजरा तोड़’ उस मानसिकता को जानने-समझने के लिए बहुत जरूरी है, जिसे
वृहत्तर भारतीय समाज की जड़ों पर लगने वाले दीमक की संज्ञा दी जा सकती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">हिंदी
सिनेमा के साथ ही हिंदी की गीत परंपरा के बहुत ही प्रसिद्ध गीतकार हुए हैं- रामचंद्र
नारायण द्विवेदी, जिन्हें कवि प्रदीप के नाम से जाना जाता है। कवि प्रदीप का एक
बहुत चर्चित गीत है- पिंजरे के पंछी रे..., तेरा दरद ना जाने कोय...। यह गाना नागमणि
फिल्म का है। हालाँकि यह फिल्म देश की आजादी के दस वर्षों बाद, सन् 1957 में रिलीज
हुई थी, लेकिन फिल्म का यह गाना देश की पराधीनता की स्थितियों को याद दिलाने के लिए
बहुत उपयुक्त लगता है, गुलामी के बंधनों को खुलकर बताता है। इसका दूसरा पक्ष
अध्यात्म का है, आध्यात्मिकता से जुड़ा है। भारतीय चिंतन-दर्शन परंपरा में भौतिक
शरीर को पिंजरा माना जाता है। इसी से पिंजर या अस्थि-पंजर भी बना है। इसमें बसने
वाली आत्मा पिंजरे का पंछी कही जाती है, जिसका ध्येय परमात्मा से मिलना होता है।
इस तरह कवि प्रदीप का यह गाना दो अलग अर्थों और संदर्भों को रखता है। यहाँ कवि
प्रदीप के ‘पिंजरे के पंछी रे...’ को बताने का उद्देश्य यही था, कि पिंजरा भारतीय
समाज-जीवन में अलग और विशेष महत्त्व रखने वाला है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">इधर
कुछ वर्षों से देश की राजधानी दिल्ली की हवाओं में पिंजरे को तोड़ने की बातें तैरने
लगी हैं। दिल्ली की ये हवाएँ देश के दूसरे बड़े शहरों में भी अपना असर दिखाने में
पीछे नहीं रहीं हैं। समाज के कुछ वर्गों में यह ‘पिंजरा तोड़’ बहुत चर्चित रहा, और
इसे समग्र भारतीय समाज की आवाज के तौर पर दिखाने की कोशिशें भी लगातार होती रहीं। जबकि
सामान्यजन के लिए ‘पिंजरा तोड़’ एक अबूझ पहेली की तरह ही रहा; आखिर कौन-सा पिंजरा,
और क्यों इस पिंजरे को तोड़ा जाना है....। वास्तविकता यह है, कि यह पिंजरा न तो
देश की पराधीनता को व्याख्यायित करने वाला है, और न ही भारतीय आध्यात्मिक परंपरा
से जुड़ा हुआ है। यह पिंजरा ऐसा है, जो विशुद्ध उच्छृंखल और समाज को तोड़ने वाले विचारों
से जुड़ा हुआ है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">वर्ष
2015 के अगस्त महीने में ‘पिंजरा तोड़ समूह’ दिल्ली के कुछ विश्वविद्यालयों और
महाविद्यालयों में चर्चित हुआ था। उच्चशिक्षा केंद्रों में महिलाओं-छात्राओं को
उत्पीड़न से बचाने और आपराधिक कृत्य करने वालों को शीघ्र दंडित किए जाने की माँग
को लेकर जो आंदोलन खड़ा हुआ था, उसे कुछ राजनीति-प्रेरित तत्त्वों ने अपने कब्जे
में ले लिया और इस आंदोलन का स्वरूप बदल गया। शिक्षण-संस्थानों की विसंगतियों को
दूर करने के स्थान पर यह आंदोलन तथाकथित पितृसत्तात्मक व्यवस्था की खामियों को गिनाने
लगा। इसे नाम भी इसी के अनुरूप दिया गया- पिंजरा तोड़..।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">भारतीय
सामाजिक संरचना कभी भी ऐसी नहीं रही, जहाँ महिलाएँ या समाज के अन्य वर्गों के लोग
उपेक्षित रहे हों। सभी को समानता का अधिकार प्राप्त है। भारतीय संविधान में भी यह
व्यवस्था विद्यमान है। इन सबके बावजूद एक वर्ग ऐसा भी है, जो सदैव असंतुष्टि में
जीता है। उसके लिए समाज की संरचना और सामाजिक व्यवस्था के अंग असहनीय होते हैं।
ऐसे लोग समाज के सूत्रों-तंतुओं को तोड़कर अस्थिरता, अव्यवस्था और अराजकता का
वातावरण बनाने के लिए अवसर तलाशते रहते हैं। ‘पिंजरा तोड़ समूह’ का गठन भी इसी को
केंद्र में रखकर हुआ। ‘पिंजरा तोड़ समूह’ की गतिविधियाँ और विरोध के तरीके इस तरह
के रहे हैं, कि उनको यहाँ पर लिखा जाना भी संभव नहीं। यह समूह पितृसत्तात्मक
व्यवस्था के विरोध का नाम ले-लेकर जिस तरह से महिलाओं-बालिकाओं के मन में जहर भरने
का काम करता रहा है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। महिलाओं की स्वतंत्रता, उन्हें
पुरुषों के समान अधिकार और ऐसे ही तमाम विषयों पर आंदोलन करते-करते अराजकता की
सीमा के पार निकल जाने का अतीत भी इस समूह के साथ है। यहाँ यह भी कहना आवश्यक
होगा, कि हमारे आसपास अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों में कुछ ऐसे
भी हैं, जहाँ स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। उन्हें अपने मन के कपड़े पहनकर
बाहर निकलने की आजादी नहीं है, उनके लिए तो खुली हवा में साँस लेना भी प्रतिबंधित
है...शिक्षा और रोजगार के लिए स्वतंत्र होना तो अलग और दूर की बात है। ऐसी
बालिकाओं-स्त्रियों के लिए पिंजरा तोड़ने की बात यह समूह नहीं करता। इस समूह के
लिए स्त्री-अधिकारों की बातें भी धर्म-जाति के अनुसार ही निर्धारित होती हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">कुछ
समय पहले ‘पिंजरा तोड़ समूह’ की गतिविधियों को उस समय खाद-पानी मिला, जब दिल्ली
में आजादी माँगने वाले लोग भी सक्रिय हो गए। अगर देखा जाए, तो दोनों का ध्येय एक
ही है। एक तरफ पिंजरा तोड़कर आजाद होने की बात है, तो दूसरी तरफ सीधे आजादी माँगी
जा रही है। अब यक्ष-प्रश्न तो यही है, कि आखिर आजादी किससे माँगी जा रही है, गुलाम
किसने बनाया है और आजादी माँगने का प्रयोजन क्या है? अगर इन तीनों प्रश्नों के
उत्तर खोजने की कोशिश करेंगे, तो पूरे देश में तिलमिलाए हुए अलगाववादियों की खीझ
आपको दिखाई देगी। वर्ष 2019 में जम्मू-काश्मीर और लद्दाख को केंद्रशासित प्रांत
बनाने के बाद तो यह खीझ अपने चरम पर पहुँच गई थी। इसके पहले कई ऐसे कानून, जो महिलाओं
को उनके अधिकारों से वंचित करते थे, जो आतंकी-देशविरोधी गतिविधियों को रोकने में बाधक
बनते थे, उन सबको संशोधित करने के केंद्र सरकार के निर्णय ने कई आंदोलनजीवी तैयार
कर दिए थे। जिन कानूनों से महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा मिले, उनकी वैवाहिक स्थिति अस्थिर
होने के स्थान पर सबल हो और इसके माध्यम से समाज में अनाचार रुके, ऐसे कानूनों का संसद
से पारित कराया जाना और उन्हें लागू कराया जाना भी कुछ लोगों को सहन नहीं हुआ।
हमने ‘अवार्ड वापसी’ करने वाले तमाम लोगों के चरित्र को भी देखा, जिन्हें समाज-जीवन
के विभिन्न क्षेत्रों में बड़ा सम्मान मिलता था। ऐसे लोग अपनी असलियत पर उतरकर
समाज के हित के स्थान पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का
निर्वहन करते दिखे।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">इन
तमाम गतिविधियों की पराकाष्ठा वर्ष 2019 में दिल्ली के शाहीन बाग में शुरू हुए ‘सीएए-एनआरसी
विरोधी आंदोलन’ में दिखी, जब नागरिकता संशोधन अधिनियम- 2019 और राष्ट्रीय नागरिकता
पंजीयन (एनआरसी) को लेकर इकट्ठी हुई भीड़ ने सारी दिल्ली की यातायात व्यवस्था को
लचर और पंगु बना दिया। इतना ही नहीं, दिल्ली से चलकर यह अराजक आंदोलन देश के कई
हिस्सों में फैलने लगा। देश की अखंड़ता, एकता, सुरक्षा और पड़ोसी देशों में
धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण दमनचक्र झेल रहे लोगों को भारत में नागरिकता दिये
जाने के विरोध में विभिन्न संगठनों के साथ ही ‘पिंजरा तोड़ समूह’ भी शामिल रहा।
हालाँकि इस समूह का कार्यक्षेत्र और गतिविधियाँ किसी भी दशा में शाहीन बाग के
आंदोलन से संबंध नही रखती थीं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">दरअसल,
देश के ऐसे राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन, जो आयातित-विदेशी विचारधाराओं पर भरोसा
रखते हैं, उनको देश के शीर्षस्थ राजनीतिक पदों पर बैठे राष्ट्रवादी और देश के प्रति
आस्थावान नेतृत्व की उपस्थिति ही सहन नहीं हो रही थी। देश की जनता की जागरूकता और राष्ट्र
को सर्वोपरि मानने की धारणा ने जिस नेतृत्व को देश का दायित्व सौंपा है, वह पूरी
कार्यकुशलता के साथ, सक्रियता के साथ देश के हित के लिए, सीमाओं की सुरक्षा के
लिए, आंतरिक सुरक्षा-व्यवस्था और निष्पक्ष नीतिगत निर्णय लेने के लिए कृतसंकल्पित
होकर कार्य कर रही है। यही बात ‘आजादी बचाओ’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘पिंजरा
तोड़’ आदि को सहन नहीं हो पा रही है। इसी कारण दिल्ली के नामचीन विश्वविद्यालय पिछले
दो-तीन वर्षों से इस तरह की गतिविधियों के बड़े और शुरुआती अड्डों के रूप में पहचान
बना चुके हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">नागरिकता
संशोधन अधिनियम के विरोध में फरवरी, 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के मामले में दिल्ली
पुलिस ने आतंकरोधी कानून (यूएपीए) के तहत पिंजरा तोड़ समूह की सदस्य देवांगना
कलिता, नताशा नरवाल और एक युवक आसिफ इकबाल तन्हा को गिरफ्तार किया था। इन दंगों
में अलग-अलग जगहों पर लगभग 53 लोगों की जान गई थी। पुलिस ने इस मामले में भड़काऊ
और देश-विरोधी भाषण देने, दंगों के लिए लोगों को उकसाने सहित अन्य मामलों में इन
तीनों आरोपियों के खिलाफ न केवल सुबूत इकट्ठे करने के बाद कार्यवाही की, वरन् लगभग
750 लोगों के बयान भी दर्ज किए। सीधी सी बात है, कि पुलिस के द्वारा जुटाए गए तमाम
साक्ष्य अदालत तक पहुँचे और तीनों आरोपियों को अलग-अलग जमानत भी दे दी। हिल्ली
हाईकोर्ट ने किन तथ्यों को आधार बनाकर जमानत की याचिका को स्वीकार किया, उसके
अध्ययन के तुरंत बाद ही दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी)
दायर करके अपना पक्ष रखा।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">सुप्रीम
कोर्ट में दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा जमानत दिए जाने के लिए अपनाए गए
दृष्टिकोण पर अपना पक्ष रखा, कि चार्जशीट में लिखे गए विस्तृत साक्ष्यों के स्थान
पर सोशल मीडिया कथा को आधार बनाया गया है। दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में यह
भी कहा, कि दिल्ली हाईकोर्ट ने जो निष्कर्ष दिए हैं, वे रिकार्ड और मामले की
सुनवाई के दौरान की गई दलीलों के विपरीत हैं। दिल्ली पुलिस का यह भी कहना है, कि
पूर्व कल्पित तरीके से मामले को निपटाते हुए आरोपियों को जमानत दी गई है। आरोपियों
द्वारा किए गए कृत्य को हाईकोर्ट ने बहुत ही सरल और सामान्य-सा मामला मानकर निर्णय
दिया है, जबकि तीनों आरोपी 53 लोगों की हत्या सहित देश की संवैधानिक व्यवस्था को
बाधित करने के जघन्य अपराध में निरुद्ध किए गए हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">दिल्ली
पुलिस की इस अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट के जमानत देने के
निर्णय की पड़ताल की है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रथम स्तंभ के रूप में न्यायपालिकाओं
पर भारत की जनता को हमेशा भरोसा रहा है। कई अवसरों पर न्यायालयों द्वारा देश के
लोकतंत्र की, साथ ही देश की संवैधानिक मर्यादा की रक्षा की गई है। इस प्रकरण पर भी
दिल्ली उच्चन्यायालय ने अपने दायित्व को निभाया, लेकिन दिल्ली पुलिस के तर्कों को
भी झुठलाया नहीं जा सकता। कार्यपालिका के महत्त्वपूर्ण अंग और कानून-व्यवस्था के
अनुपालन के लिए पुलिसबल की कार्यप्रणाली और उसकी विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में
रखा जाना उचित नहीं। </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6_wFbFRjB4bg4mHwsYBWlvsjDRayw9uSboEliiJWZvoI_pRUrTBI0lrXjtZfcmJbq08v7cX1y3msz0Gt4mGcBHxzwa1rm6IcGFGyMgt39BCI3Oh0985X07Jxhzpa1L8bb4Ooo0agtYkNO/s1415/WhatsApp+Image+2021-07-30+at+12.03.20+%25281%2529.jpeg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1415" data-original-width="1038" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6_wFbFRjB4bg4mHwsYBWlvsjDRayw9uSboEliiJWZvoI_pRUrTBI0lrXjtZfcmJbq08v7cX1y3msz0Gt4mGcBHxzwa1rm6IcGFGyMgt39BCI3Oh0985X07Jxhzpa1L8bb4Ooo0agtYkNO/w294-h400/WhatsApp+Image+2021-07-30+at+12.03.20+%25281%2529.jpeg" width="294" /></a></div><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">कुल
मिलाकर दिल्ली पुलिस की सक्रियता और तत्परता की वजह से ही आज अलगाववाद फैलाने
वाले, भड़काऊ भाषण देकर अव्यवस्था उत्पन्न करने वाले कृत्यों पर रोक लग सकी है।
दूसरी ओर ‘पिंजरा तोड़’ समूह की मानसिकता है। इसे कुछ लोगों के समूह के रूप में
नहीं देखा जाना चाहिए। इसे संविधान द्वारा दी गई स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की
आजादी के अंग के रूप में भी नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि ‘पिंजरा तोड़’ समूह-मात्र
नहीं है, बल्कि एक ऐसी विषाक्त वैचारिकता है, जो परिवार से लगाकर समाज तक, देश से
लगाकर संवैधानिक व्यवस्था तक हर किसी को कई-कई खंडों-हिस्सों में बाँटने के लिए
काम करती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span><p></p><p class="MsoNormal" style="text-align: right; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;">राहुल मिश्र</span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: center; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 28pt; line-height: 115%;"><i>(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के जुलाई, 2021 अंक में प्रकाशित)</i></span></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-63121916909676170472021-06-01T12:16:00.000+05:302021-06-01T12:16:36.787+05:30कोरोना काल में संकट-मोचक भारतीय सेना<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 27pt; line-height: 150%;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjk7ahjBCpYjLE0ITKN_n6Hf3WAZ10xFvHeJDBa3_XKeFLcuQKytibwPeDdNLhowmOXpZxFoeOzTNUa5WxT7AkQ1fh0kDkUDZiAgTc5mDuG_Yv80K4JBC2ORnRpp39IEt3yUEtWUYZMh4as/s1650/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2598%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B7+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%2588+2021+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AF+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%2595%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%2582+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%259F+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%259A%25E0%25A4%2595_Page_16.jpg" imageanchor="1" style="background-color: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 32px; font-style: italic; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-indent: 37.7953px;"><img border="0" data-original-height="1650" data-original-width="1288" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjk7ahjBCpYjLE0ITKN_n6Hf3WAZ10xFvHeJDBa3_XKeFLcuQKytibwPeDdNLhowmOXpZxFoeOzTNUa5WxT7AkQ1fh0kDkUDZiAgTc5mDuG_Yv80K4JBC2ORnRpp39IEt3yUEtWUYZMh4as/w500-h640/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2598%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B7+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%2588+2021+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AF+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%2595%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%2582+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%259F+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%259A%25E0%25A4%2595_Page_16.jpg" width="500" /></a></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><br /></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 32pt; line-height: 150%;">कोरोना काल में संकट-मोचक भारतीय सेना<o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 0cm; text-align: center;"><br /></p><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">समाचार-1. </span></b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">कोविड सैंपलिंग और
टीकाकरण अभियान में अपना योगदान देते हुए समोट, राजौरी (जम्मू व काश्मीर) स्थित
सेना की राष्ट्रीय राइफल बटालियन ने प्राथमिक स्वास्थकेंद्र कंडी में कोविड सैंपल संग्रह
और टीकाकरण केंद्र स्थापित किया। इसके साथ ही चिकित्सा कर्मियों और स्थानीय लोगों
के लिए 500 लीटर क्षमता की जल भंडारण सुविधा को भी तैयार किया। (21 मई, 2021)</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">समाचार-2. </span></b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भारतीय सेना के पूर्वी
कमांड ने तीन दिन के अंदर ही असम के तेजपुर स्थित मेडिकल कॉलेज में 05 आईसीयू और
45 ऑक्सीजन बेड की कोविड केयर इकाई तैयार की। (14 मई, 2021)</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">समाचार- 3. </span></b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भारतीय थलसेना ने
उत्तर-पूर्व के राज्यों से अपने दो फील्ड अस्पताल एयरलिफ्ट करके पटना पहुँचा दिए
और वहाँ पर 500 बिस्तरों का एक कोविड केंद्र तुरंत बनकर तैयार हो गया। (06 मई,
2021)</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">समाचार- 4.</span></b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"> बेंगलुरू में कोविड-19 के
बढ़ते मामलों को देखते हुए भारतीय वायुसेना जालाहल्ली वायुसेना स्टेशन में आम
लोगों के लिए सौ बिस्तरों वाले कोविड देखभाल केंद्र का निर्माण करेगी। इसके पहले
चरण में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर के साथ दो दिन के अंदर ही बीस बिस्तर तैयार हो जाएँगे।
बाकी 80 बिस्तर 20 मई तक तैयार हो जाएँगे। इस देखभाल केंद्र में भारतीय वायुसेना
के बेंगलुरू कमान अस्पताल के विशेषज्ञ, स्टाफ नर्स और अन्य पैरामेडिकल कर्मचारी
तैनात होंगे। (04 मई, 2021)</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgd3sfIWcUFMTxGRkbY3LodbOXtmoatnGdNKBVUSs-nylkQ8YzCHEKRHoUwiA924qN3G9zue5O7TFcVQiQpg_K5mpiPGoyYINWiC7130hWTSr054vpga3Vfwfpud8_Vi3fE5uDkPE-8hA9x/s1650/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2598%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B7+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%2588+2021+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AF+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%2595%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%2582+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%259F+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%259A%25E0%25A4%2595_Page_01.jpg" imageanchor="1" style="background-color: white; clear: left; float: left; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 32px; font-style: italic; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center; text-indent: 37.7953px;"><span style="color: black;"><img border="0" data-original-height="1650" data-original-width="1200" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgd3sfIWcUFMTxGRkbY3LodbOXtmoatnGdNKBVUSs-nylkQ8YzCHEKRHoUwiA924qN3G9zue5O7TFcVQiQpg_K5mpiPGoyYINWiC7130hWTSr054vpga3Vfwfpud8_Vi3fE5uDkPE-8hA9x/w291-h400/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2598%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B7+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%2588+2021+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AF+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%2595%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%2582+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%259F+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%259A%25E0%25A4%2595_Page_01.jpg" width="291" /></span></a></div><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">ये समाचार बानगी के रूप
में यहाँ पर उद्धृत किए गए हैं। वर्तमान कोरोना-संकट के समय भारतीय सेना के कामों
और जनसेवा के लिए किए जा रहे प्रयासों से जुड़े समाचारों को समेटकर रखा जाए, तो उनकी
गिनती करना भी कठिन होगा। कहने का आशय यह है, कि देश के उत्तरी छोर से लगाकर धुर दक्षिण
तक और पूरब से लगाकर पश्चिम तक देश के हर एक हिस्से में भारतीय सेना के तीनों
अंगों ने; जल, थल, वायु सेना ने जितनी तेजी और तत्परता के साथ काम किया है, वह
अभिनंदनीय है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भारतीय सेना के शौर्य को
हमने पिछले वर्ष गालवान में देखा था। सर्जिकल स्ट्राइक में हमने अपनी सेना के
पराक्रम को देखा है। इतना ही नहीं, सीमा पर होने वाली हर छोटी-बड़ी घटना पर भारतीय
सेना की सक्रियता और देश की सीमाओं की सुरक्षा के लिए रात-दिन की मुस्तैदी हमें
गर्व से भर देती है। भारत की सेना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सैन्य-बल में गिनी जाती
है। सामान्य तौर पर सेना का दायित्व सीमांत सुरक्षा का होता है। शांति और स्थिरता
के दिनों में सेना लोकहित के कामों में संलग्न होती है, लेकिन भारतीय सेना के लिए ये
स्थितियाँ सहज-सुलभ नहीं हैं। हम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, कि हमारे सीमावर्ती
देश, विशेषकर पाकिस्तान और चीन की सीमाएँ सुर्खियों में रहती हैं। पिछले वर्ष जब
से चीन के वुहान से होकर सारी दुनिया में फैला कोरोना वायरस भारत के लिए संकट बनकर
खड़ा हुआ था, उसी समय से चीन ने भारत की सीमाओं पर भी अपनी हरकतें इस तरह से शुरू
की थीं, मानों उसे अच्छा मौका मिल गया हो। यह स्थितियाँ पिछले वर्ष भले ही शांत हो
गईं हों, लेकिन इस वर्ष जब भारत में कोरोना संकट की दूसरी लहर ने अपना तांडव मचाना
शुरू किया था, उस समय अच्छा अवसर जानकर चीन ने लद्दाख की सीमा पर अपनी हरकतें फिर
से शुरू कर दी हैं। चीन का सैन्य युद्धाभ्यास भारत की उस शांति की पहल के एकदम
विपरीत है, जिसमें चीन ने पहल की थी और शांति-वार्ता, सैनिकों को पीछे हटाने आदि पर
सहमति जताई थी।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">कहने का आशय यह, कि भारत
की आंतरिक स्थिति ऐसी है, जहाँ कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका के साथ ही
ऑक्सीजन, अस्पताल, दवा और चिकित्सकों की कमी को लेकर एक वर्ग भय का वातावरण बना
रहा था। हालात नियंत्रण से बाहर हो रहे थे, और दूसरी तरफ तिब्बत सीमा पर चीन की
हरकतें और पाक अधिकृत काश्मीर सहित भारत-पाकिस्तान सीमा पर आतंकी गतिविधियाँ भी तेज
हो गईं। भारत की सेना के लिए यह निश्चित रूप से परीक्षा की घड़ी थी। ऐसी विषम
स्थिति में भारतीय सेना केवल सीमाओं की सुरक्षा तक ही अपनी जिम्मेदारी को नहीं समेटती,
वरन् देश की सीमाओं की सुरक्षा के साथ ही देशवासियों के जीवन की सुरक्षा के लिए भी
पूरी तत्परता और सक्रियता के साथ आगे आती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">पिछले वर्ष, लगभग इन्हीं
दिनों भारतीय सेना ने कोरोना के संकट की शुरुआत को देखते हुए ‘ऑपरेशन नमस्ते’ की
घोषणा की थी। मार्च, 2020 में जब भारत में कोरोना के नए मामले मिलना शुरू हुए थे,
उस समय बहुत बड़ी आवश्यकता इस बात की थी, कि जनता को एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखे,
ताकि संक्रमण की कड़ी टूट सके। इसके लिए जन-जागरूकता और सद्भावना को केंद्र में
रखकर सेना-प्रमुख मनोज मुकुंद नरवणे ने इस अभियान को पूरी ऊर्जा के साथ संचालित करते
हुए सेना के जन-सरोकारों को स्पष्ट किया था। उस समय सेना द्वारा कई स्थानों पर एकांतवास
केंद्रों की स्थापना की गई थी। विभिन्न सुदूरवर्ती क्षेत्रों से मरीजों और
जरूरतमंदों को अस्पतालों तक पहुँचाने, चिकित्सीय सुविधाएँ आदि उपलब्ध कराने के लिए
अनथक प्रयास किए गए थे। भारतीय सेना का काम करने का अपना अनूठा तरीका है। देश पर
आने वाले किसी भी संकट का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए सेना विधिवत् अभियान चलाती है।
इन अभियानों की सफलता के लिए, सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए और संगठित होकर
काम करने के लिए सेना द्वारा चलाए जाने वाले अभियानों को ऐसे नाम दिए जाते हैं। कोरोना
की दूसरी लहर के साथ ही भारतीय सेना ने पुनः एक नए नाम के साथ कोरोना को हराने के
लिए कमर कसी है। कोरोना की दूसरी लहर का मुकाबला करने के लिए भारतीय सेना ने अपने
अभियान को ‘ऑपरेशन को-जीत’ नाम दिया है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">वर्ष 2021 में कोरोना
संकट की दूसरी लहर पहले से कहीं अधिक तीव्र और घातक सिद्ध हुई। ऐसी स्थिति में
भारतीय सेना एक बार फिर से दुगुनी ऊर्जा के साथ देश के लोगों की सहायता के लिए सामने
आई। कहा जाता है, कि परिवार के मुखिया की सक्रियता, उसकी तत्परता और समर्पित
प्रतिबद्धता सारे परिवार को न केवल सशक्त, समर्थ करती है, वरन् असीमित ऊर्जा के
साथ लक्ष्य प्राप्ति के लिए सारे परिवार को संलग्न करती है। इस दृष्टि से भारत के
माननीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की सक्रियता अभूतपूर्व है। उनके द्वारा एक लेख
अप्रैल माह में लिखा गया था। लेख का शीर्षक था- </span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">अदृश्य
दुश्मन से जंग : रक्षा मंत्रालय का कोविड-</span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">19 </span><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">को
जवाब’ यह लेख जितना भावुक कर देने वाला था, उतना ही प्रेरक था। इस लेख पर देश के
माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रोत्साहनपरक टिप्पणी ने भी भारतीय सेना क</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">ो</span><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"> जोश से भर दिया।</span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">जिस समय देश में ऑक्सीजन की कमी को लेकर स्थितियाँ
नियंत्रण से बाहर हो गईं थीं, उस समय भारतीय वायुसेना ने ऑक्सीजन उत्पादक
क्षेत्रों से ऑक्सीजन के टैंकर, ऑक्सीजन उत्पादक संयंत्र और अन्य उपकरणों को तेजी
के साथ जरूरत वाले नगरों-प्रदेशों में पहुँचाया। देश के अंदर विभिन्न दुर्गम
स्थानों, जैसे पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में, लद्दाख के दुर्गम क्षेत्रों में
भारतीय वायुसेना ने परीक्षण प्रयोगशाला संयंत्रों, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर्स,
चिकित्सीय उपकरणों और दवाइयों के साथ ही मरीजों को ‘एयरलिफ्ट’ करने में पूरी सक्रियता
दिखाई। भारतीय वायुसेना के परिवहन वायुयानों ने विदेशों से चिकित्सा-सामग्री लाने
में भी पूरी तत्परता दिखाई। सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम और बैंकाक आदि देशों
से खाली क्रायोजैनिक ऑक्सीजन कंटेनर लाने का काम भारतीय वायुसेना ने बखूबी किया। देश
में टीकाकरण अभियान को मजबूत करने के लिए विदेशों से टीकों की खेप लाने के साथ ही
देश के अंदर विभिन्न स्थानों में टीकों की खेप पहुँचाने में वायुसेना की सक्रियता अतुलनीय
है।</span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitCjwE2FzyRiZx_LtZEqiF74VZCAoytCkKvoIOzd2fK4fZyKdpbfRP95TZNVPhCaHxUveDy58m5KZjXL-wg5KaBgFR_ZRXj2Ydc3-Pingvq4jSY9m9uF5KdIXZKmNXGOe6wnn3EMiVDaen/s1618/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2598%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B7+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%2588+2021+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AF+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%2595%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%2582+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%259F+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%259A%25E0%25A4%2595_Page_03.jpg" imageanchor="1" style="background-color: white; clear: right; float: right; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 32px; font-style: italic; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center; text-indent: 37.7953px;"><span style="color: black;"><img border="0" data-original-height="1618" data-original-width="1120" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitCjwE2FzyRiZx_LtZEqiF74VZCAoytCkKvoIOzd2fK4fZyKdpbfRP95TZNVPhCaHxUveDy58m5KZjXL-wg5KaBgFR_ZRXj2Ydc3-Pingvq4jSY9m9uF5KdIXZKmNXGOe6wnn3EMiVDaen/w278-h400/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2598%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B7+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%2588+2021+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25AF+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%2595%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%2582+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%259F+%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%259A%25E0%25A4%2595_Page_03.jpg" width="278" /></span></a><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भारतीय वायुसेना के सी-17 ग्लोबमास्टर वायुयान विगत
महीने भर से तरल ऑक्सीजन और अन्य संयंत्रों को देश के विभिन्न स्थानों में पहुँचाने
के लिए लगातार काम कर रहे हैं। पूरे देश में वायुसेना के सभी प्रमुख हवाई अड्डे,
वायुसेना के सभी बेड़े, सभी श्रेणियों के परिवहन विमान पूरी मुस्तैदी के साथ
चौबीसों घंटे तैनात हैं। इसका असर हमें देश में तेजी से सुधरती स्थितियों में दिखाई
देता है। आज देश में ऑक्सीजन की कमी की खबरें अगर नहीं सुनाई देतीं, तो इसके पीछे
बड़ा कारण भारतीय वायुसेना की तत्परता है। भारतीय वायुसेना ने इस काम को
कुशलतापूर्वक करने के लिए एक स्वतंत्र ‘एयर सपोर्ट सेल’ बनाया हुआ है। यह प्रकोष्ठ
देश के विभिन्न राज्यों की प्रशासनिक इकाइयों के साथ ही केंद्रीय प्रशासनिक
इकाइयों और चिकित्सा मंत्रालय के साथ समन्वय स्थापित करके देश की चिकित्सा
सुविधाओं को मजबूत करने के लिए अनवरत सक्रिय है। नौसेना और थलसेना द्वारा भी
अलग-अलग सहायता प्रकोष्ठ स्थापित किए गए हैं। ये प्रकोष्ठ अपने स्तर पर स्थानीय आवश्यकताओं
के अनुरूप राज्य सरकारों, नागरिक संगठनों आदि को सहायता उपलब्ध कराने हेतु दिन-रात
सक्रिय हैं।</span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भारतीय नौ सेना के युद्धपोतों ने विदेशों से ऑक्सीजन
सिलेंडर और टैंक आदि की खेप लाकर देश में ऑक्सीजन की कमी को नियंत्रित करने में
बहुत बड़ा योगदान दिया। भारतीय नौसेना के कमान अस्पतालों में कार्यरत विशेषज्ञों,
चिकित्सकों और पैरामेडिकल स्टाफ को दिल्ली, अहमदाबाद, पटना आदि अधिक संक्रमित स्थानों
पर चिकित्सीय सहायता देने के लिए नियुक्त किया गया है। पश्चिमी नौसेना कमान ने
प्रवासी कामगारों के लिए तीन बड़े अस्पतालों को तैयार करने के साथ ही प्रवासी
कामगारों को आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराकर पलायन को रोकने हेतु कार्य किए।</span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भारतीय थल सेना के लगभग सभी चिकित्सालय सेवानिवृत्त
सैनिकों के परिवारों और आम जनता को चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए कार्य कर
रहे हैं। भारतीय सेना ने देश के विभिन्न दूरदराज के इलाकों में छोटे-छोटे स्वास्थ्य
केंद्रों के परिचालन के साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा संचालित प्राथमिक
स्वास्थ केंद्रों में चिकित्सा सुविधाएँ बढ़ाने में योगदान दिया है।</span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भारतीय सेना की चिकित्सा शाखा और अनुसंधान शाखा के
कामों का उल्लेख किए बिना कोरोना के संकटकाल में भारतीय सेना के प्रयासों पर बात
पूरी नहीं हो सकेगी। भारतीय सेना की चिकित्सा शाखा के सेवारत चिकित्साकर्मियों और सहयोगी
कर्मियों की बड़ी संख्या देश के अलग-अलग हिस्सों में आम नागरिकों के लिए चिकित्सा-सेवाएँ
सुलभ करा रही है। इसके साथ ही चिकित्साक्षेत्र में स्वास्थ्यकर्मियों की कमी को
देखते हुए सेना ने अपने सेवानिवृत्त चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों को पुनः
नियुक्त किया है। यह सेना की अनुशासन-बद्ध कार्यशैली का ही प्रभाव है, कि अपनी चिंता
किए बिना बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त चिकित्साकर्मी भी देश की सेवा के लिए आगे आए
हैं।</span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">भारतीय सेना की शोध-अनुसंधान शाखाओं में से रक्षा
अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) का नाम आजकल चर्चा में है। इसमें कोई दो-राय
नहीं, कि इस संगठन में अनेक कार्यकुशल और उच्चकोटि के वैज्ञानिक कार्यरत हैं,
किंतु इनकी सक्रियता और कार्यकुशलता कोरोना के संकटकाल में खुलकर तब सामने आई, जब
डीआरडीओ द्वारा 2-डीऑक्सी-डी-ग्लूकोज दवा को कोरोना संक्रमितों के उपचार के लिए तैयार
कर दिया गया। इस दवा को ‘2-डीजी’ के नाम से जाना जाता है। यह कोरोना के मरीजों के
शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा को संतुलित करने के साथ ही सार्स-कोविड वायरस के
विस्तार को रोकती है। इस दवा के साथ ही डीआरडीओ ने ‘डिपकोवॉन’ नामक एक किट भी
तैयार की है, जिसके द्वारा केवल 75-80 मिनट के अंदर शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का
स्तर जाँचा जा सकता है। ये दोनों दवाएँ बहुत ही कम मूल्य पर आज बाजार में उपलब्ध
हैं और हजारों कोरोना मरीजों के लिए जीवन-रक्षक बनी हुई हैं।</span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">पिछले लगभग पंद्रह महीनों से भारत में व्याप्त
कोरोना-संकट के बीच भारतीय सेना की सक्रियता और उसके अनथक प्रयासों का विस्तार
असीमित है, जिसके अंश-मात्र का उल्लेख ही यहाँ पर हो सका है। भारतीय सेना के लिए
चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। एक साथ चार मोर्चों पर कुशलता के साथ संघर्ष करते हुए
हम अपने वीर सैनिकों को देखते हैं। तिब्बत सीमा पर चीन की चालबाजियों के साथ, पाक
सीमा पर आतंकियों की हरकतों के साथ, देश के अंदर कोरोना के संकट के साथ, और देश के
‘जयचंदों’ के कुचक्रों के साथ भारतीय सेना संघर्षरत है। अपने पराक्रम, अपने शौर्य,
अपने अनुशासन, अपने संगठित प्रयास, अपनी तत्परता, अपने साहस के साथ ही भारतीय सेना
ने कोरोना के संकटकाल में अपने अनथक सेवाभाव से यह सिद्ध कर दिया है, कि वह सीमाओं
की रक्षक ही नहीं, देश की संकट-मोचक भी है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: justify; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><i>(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के मई,
2021 अंक में प्रकाशित)</i></span><span lang="EN-US" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="background: white; font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 24pt; line-height: 115%;">डॉ. राहुल मिश्र</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 16pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p><br /><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-17836455480937392602021-05-20T18:34:00.000+05:302021-05-20T18:34:24.957+05:30<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: Aparajita, serif; font-size: 32pt; line-height: 115%;"></span></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlvWNV7Nf6E-kdTaRu75RJQnWZ2Csfajtt6EVd7yS_PgB6M-10LzkgTH5OBMljJg0jxL4gztLOoGmuod1H4U5F8fT3ATdy9KmXH_RChFBq71gca6ngbAB2xJY0KlLA4uNLr4OI1wBdJrsB/s848/Screenshot+2021-05-20+175403.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="848" data-original-width="663" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjlvWNV7Nf6E-kdTaRu75RJQnWZ2Csfajtt6EVd7yS_PgB6M-10LzkgTH5OBMljJg0jxL4gztLOoGmuod1H4U5F8fT3ATdy9KmXH_RChFBq71gca6ngbAB2xJY0KlLA4uNLr4OI1wBdJrsB/w500-h640/Screenshot+2021-05-20+175403.jpg" width="500" /></a></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><br /></b></div><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: Aparajita, serif; font-size: 32pt; line-height: 115%;">अंतिम राय का सच : कहानियों से ज्यादा सच्चाई</span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: Aparajita, serif; font-size: 32pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></b></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘अंतिम
राय का सच’, अपने इस नाम से ही बरबस अपनी ओर खींच लेने वाली कहानियों की नई
प्रकाशित पुस्तक त्रिलोक मेहरा की सृजनधर्मी लेखनी की उपज है। यह सन् 2019 में दिल्ली
के नमन प्रकाशन केंद्र से प्रकाशित हुई है। त्रिलोक मेहरा का नाम हिमाचलप्रदेश के
वरिष्ठ कथाकारों में आता है। हिमाचलप्रदेश के कांगड़ा जनपद के बीजापुर गाँव में
सन् 1951 में जन्मे त्रिलोक मेहरा की पारिवारिक पृष्ठभूमि मध्यमवर्गीय रही है।
स्वाभाविक रूप से उन्होंने मध्यमवर्गीय परिवारों के संघर्षों और चुनौतियों को उस
समय से देखा और भोगा है, जो देश की आजादी के बाद समग्र राष्ट्रीय चरित्र बने रहे
हैं। त्रिलोक मेहरा के दो अन्य कहानी-संग्रह- ‘कटे-फटे लोग’ और ‘मम्मी को छुट्टी
है’ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके साथ ही उनका एक उपन्यास- ‘बिखरते इंद्रधनुष’ भी
सन् 2009 में प्रकाशित हो चुका है। कथा-साहित्य के अतिरिक्त हिमाचलप्रदेश की
लोकसंस्कृति, लोकजीवन और हिमाचली जन-जीवन के संघर्षों पर आधारित अनेक शोधपरक लेख
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। मेहरा जी की कई रेडियो वार्ताएँ और
कहानियाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हो चुकी हैं। उनकी निरंतर सक्रियता और
साहित्यिक संलग्नता को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है।<o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">त्रिलोक
मेहरा जी के साहित्यिक अवदान का परिचय यहाँ पर देना इसलिए आवश्यक लगा, क्योंकि एक
रचनाकार का भोगा हुआ यथार्थ, उसका देखा हुआ यथार्थ उसकी रचनाओं की विश्वसनीयता और
प्रामाणिकता को स्वतः सिद्ध करता है। साहित्य के साथ ही सामाजिक जीवन में निरंतर
संलग्न और सक्रिय रहने के कारण मेहरा जी की यह कृति अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है।
इसकी बानगी हमें संग्रह के शीर्षक से ही मिल जाती है। किसी भी कृति का शीर्षक अपना
पहला प्रभाव डालता है। अमूमन पुस्तक को खरीदते समय उसका शीर्षक देखकर एक छवि कृति
के संबंध में, कृति में संग्रहीत सामग्री के संदर्भ में बनती है। यह पहली दृष्टि
अपना विशेष महत्त्व भी रखती है, और प्रभाव भी उत्पन्न करती है। कृति के शीर्षक के
आकर्षण का यह पक्ष </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">अंतिम राय का सच</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
में निखरकर आता है। कृति अपनी ओर आकृष्ट करती है- यह ऐसी कौन-सी अंतिम राय है,
जिसका सच व्यापक समाज के साथ जुड़ता है, यह प्रश्न एकदम मन में कौंध उठता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjROesB0lv211dZKvQb5QfeUHHCIG0c9GSv_adtMapVqXOnxiECly9n_eUGBnnGe-DoJ4O_NFAkPlNaqtzAepeFrQXZyYfYBnl53ccCf-gdaGgFTaXLfWor1v4pmIZ21XPhsjIOKBC76UkQ/s1280/WhatsApp+Image+2021-05-20+at+18.24.09.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; font-family: Aparajita, serif; font-size: 42.6667px; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="810" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjROesB0lv211dZKvQb5QfeUHHCIG0c9GSv_adtMapVqXOnxiECly9n_eUGBnnGe-DoJ4O_NFAkPlNaqtzAepeFrQXZyYfYBnl53ccCf-gdaGgFTaXLfWor1v4pmIZ21XPhsjIOKBC76UkQ/w253-h400/WhatsApp+Image+2021-05-20+at+18.24.09.jpeg" width="253" /></a></div><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">कहानी-संग्रह
का नाम जहाँ अपनी ओर खींचता है, वहीं दूसरी ओर संग्रह की प्रतिनिधि और
शीर्षक-कहानी भी कम प्रभावी नहीं है। </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">अंतिम
राय का सच</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"> कहानी उस अंतिम राय की बात करती है, जिसके बाद
सलाह-मशविरों के लिए जगह बचती नहीं है, और केवल निर्णय लेना ही शेष रह जाता है।
यही निर्णय कहानी के पात्र रमेश वर्मा और उसके साथियों की गरजती बंदूकों में दिखता
है। यह अंतिम राय कैसी है, उसकी बानगी तो कहानी के प्रारंभ में ही मिल जाती है- “वहाँ
अपने-अपने सुझावी भाषणों की तश्तरियाँ सभी आगे सरका कर खिसक गए थे, पर काम करने के
लिए कोई आगे नहीं आया था, और अगर आया था, तो वह था- रमेश वर्मा।” (पृ. 86) पहाड़ी
जीवन में, जंगलों के बीच ग्रामीण इलाके के किसान दयनीय जीवन जी रहे हैं। वे सभी
जीवधारियों पर आस्था रखते हैं, सभी जीवों के जीवन का सम्मान करते हैं, लेकिन
स्थितियाँ ऐसी जटिल हो चुकी हैं, कि किसानों का अपना जीवन ही संकट में फँसकर रह
गया है। उनके अस्तित्व पर ही संकट मँडराने लगा है। ऐसी दशा में उनके लिए सलाह
कितनी कारगर है, यह देखने का प्रयास कहानी करती है। नेताओं के पास सलाह के अलावा
कुछ भी नहीं है। संसद अपनी अंतिम राय देकर यह मान लेती है, कि उसकी जिम्मेदारियाँ
पूरी हो चुकी हैं, लेकिन इस अंतिम राय का सच किसी के हित में नजर नहीं आता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">संग्रह
की शीर्षक-कहानी हिमाचलप्रदेश के सुदूरवर्ती गाँवों की उस जटिल समस्या की ओर संकेत
करती है, जिससे निबटने के लिए ग्रामीण समाज अपनी पुरातन परंपरागत जीवन-शैली के
विपरीत जाने को विवश होता है। हिमाचलप्रदेश के गाँवों में बंदरों के आतंक से
किसानों का जीवन दूभर हो गया है। उनके खेत, उनकी फसलें इतनी बुरी तरह से तबाह हो
रहीं हैं, कि उन्हें बंदूक उठाने को विवश होना पड़ रहा है। पर्यावरणप्रेमियों से
लगाकर धर्मभीरुओं तक सबकी अपनी दृष्टि है, लेकिन यह कहानी इन सबसे अलग हटकर
किसानों के नजरिये से देखती है। यही इस कहानी की विशिष्टता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">समीक्ष्य
कृति में बारह कहानियाँ संकलित हैं। कृति की शीर्षक कहानी के साथ ही अन्य कहानियाँ
भी अलग-अलग तरीके से जीवन को देखती हैं, मन के भावों को पकड़ती हैं। संग्रह की
पहली कहानी है- </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">घर-बेघर</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">।
यह कहानी मोह में बँधे एक ऐसे पिता की विवशताओं को व्यक्त करती है, जिसका पुत्रमोह
पिता के साथ ही कई जिंदगियाँ बरबाद करता है। सुंदर, सुशील और कामकाजी जाह्नवी का
विवाह मानव से हुआ है। मानव शारीरिक रूप से विकलांग है, क्योंकि उसके एक ही किडनी
है। मानव के पिता इस सच्चाई को इसलिए छिपा लेते हैं, ताकि उनके बेटे का विवाह हो
सके। जाह्नवी इस सच्चाई को जान जाती है, और अपने भविष्य को देखते हुए<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। यही जिद जाह्नवी के
चरित्र पर उंगली उठाने का कारण बनती है। मानव जाह्नवी का भावनात्मक भयादोहन करता
है। जाह्नवी इस दबाव में नहीं आती, और अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए अपने निर्णय
पर अडिग रहती है। वह मानव को अपनी किडनी नहीं देती। अंततः मानव की माँ उसे अपनी
किड़नी देती है। जाह्नवी अपना फर्ज निभाते हुए ससुराल आती है, लेकिन उसके प्रति
परिवार के लोगों की मानसिकता बदलती नहीं है। कहानी स्त्री-सशक्तिकरण को एकदम अलग
दृष्टि से देखती है। एक ओर जाह्नवी है, और दूसरी ओर मानव की माँ है। यहाँ स्त्री
ही स्त्री की विरोधी बन जाती है। जाह्नवी अपने बच्चों के लिए और अपने भविष्य के
लिए सजग-सचेत रहती है। उसकी सजगता परिवार को पसंद नहीं आती, दूसरी ओर जाह्नवी अपने
साथ हुए धोखे के बाद भी संबंधों को निभाने के लिए सदैव तत्पर रहती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">समय
के साथ</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"> कहानी जातिवादी बंधनों में जकड़े समाज की
पड़ताल करती है, साथ ही समाज के दोहरे चरित्र को परत-दर-परत उघाड़ती है। कहानी की
नायिका हरप्रीत खुले विचारों वाली युवती है। हरप्रीत के पिता भी खुले विचारों वाले
हैं, लेकिन केवल अपने लिए...। अपनी बेटी के लिए वे दूसरे मानक गढ़ते हैं, निभाते
हैं। हरप्रीत के साथ हरदेव के संबंध को वे पचा नहीं पाते हैं। भुजंगा सिंह ने इसी
कारण अनेक वर्जनाएँ गढ़ रखी हैं। वे समाज में तिरस्कृत और अपमानित नहीं होना
चाहते। उन्हें इसकी चिंता रहती है। इस कारण वे हरप्रीत पर अपनी गढ़ी हुई वर्जनाओं
को लादते हैं। वे हरदेव को अपमानित करने का कोई मौका भी नहीं छोड़ते। कहानी दो
पीढ़ियों के वैचारिक टकराव को इतनी सहजता और साफगोई के साथ व्यक्त करती है, कि
समाज का कटु यथार्थ खुलकर सामने आ जाता है। कहानी में भुजंगा सिंह की पत्नी
सुरिंदर कौर का चरित्र दो पाटों के बीच पिसता हुआ दिखता है। हरदेव के पिता जातिवादी
सोच के खिलाफ खड़े दिखते हैं। भुजंगा सिंह अपनी बेटी को इतनी छूट देते हैं, कि वह
किसी सरदार से प्रेम करने लगे, लेकिन हरप्रीत की जिद के आगे वे विवश हो जाते हैं।
समाज में खिंची जातिवाद की विभाजक रेखाओं की गहराई को कहानी बखूबी आँकती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">गोल्डी
के लिए केवल</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"> कहानी अपनी पूर्ववर्ती कहानी से आगे की कथा
कहती दिखाई पड़ती है। समाज में एक ओर जातिवाद की गहरी खाइयाँ हैं, जिन्हें पाटने
का प्रयास करता युगल </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">समय के साथ</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
कहानी में है। दूसरी तरफ </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">गोल्डी के लिए केवल</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
कहानी में आधुनिकता और उच्छृंखलता का दर्शन होता है। </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">लिव-इन-रिलेशनशिप</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
जैसी आयातित मानसिकता के कारण गोल्डी इस संसार में आता है। हरिओम और रचना के
उच्छृंखल संबंध समाज में स्वीकार्य नहीं हैं, फिर भी आधुनिकता के फेर में वे उस
स्थिति में पहुँच जाते हैं, जिसका सबसे पहला असर नवजात गोल्डी पर पड़ता है। इसके
बाद रचना इस दंश को भोगती है। हरिओम के परिवार से उसे कोई सहारा नहीं मिलता। रचना
के लिए समाज के ताने-उलाहने तो हैं ही, साथ ही गोल्डी को पालने की चुनौती भी है।
यही चुनौती उसे इतना शातिर बना देती है, कि वह अपनी सीमाएँ लाँघकर ओमप्रकाश के
परिवार को बरबाद करने में पीछे नहीं हटती। अपने लिए एक सहारा खोजती महिला दूसरी
महिला के सहारे को किस तरह छीन लेती है, उस स्थिति को यह कहानी बड़ी शिद्दत के साथ
प्रकट करती है। ओमप्रकाश को उसकी पत्नी सविता से दूर करना रचना का एकमात्र लक्ष्य
बन जाता है। ओमप्रकाश का जीवन भी एक समय के बाद ऐसे अवसाद और दुःख से भर जाता है,
जो आधुनिकता की उच्छृंखलता के दुष्परिणामों की ओर संकेत भी करता है, सावधान भी
करता है। रचना अत्यंत जटिल व्यक्तित्व वाली महिला के रूप में कहानी में दिखाई देती
है। विवाहेतर संबंधों की विद्रूपताएँ भी कहानी में दिखाई पड़ती हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">उच्छृंखल
यौन-संबंधों पर केंद्रित </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">एफ.आई.आर.</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">कहानी
की नायिका एक बालिका है। वह कम उम्र की है, और </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">गोल्डी
के लिए केवल</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"> की पात्र रचना जैसी शातिर नहीं है। इसी कारण
वह भावनाओं में बह जाती है, और भानु के छलावे में फँस जाती है। उसका मन एक ओर अपने
बूढ़े दादा से धोखेबाजी करते हुए भयभीत होता है, लेकिन दूसरी तरफ उस पर भानु के छलावे
का फंदा इतना मजबूत होता है, कि उसके लिए निकल पाना आसान नहीं रह जाता। कहानी
कमउम्र बालिका की मनःस्थिति को बखूबी व्यक्त करती है। अंत में उसके द्वारा सारी
सच्चाई को ईमानदारी के साथ अपने बूढ़े दादा से बताया जाना आश्वस्त करता है, कि
जीवन के संघर्षों से हार मानने के स्थान पर चुनौतियों का डटकर सामना करना अच्छा विकल्प
है। जहाँ एक ओर इस कहानी में पारिवारिक संबंधों की सुदृढ़ता है, वहीं दूसरी ओर
समीक्ष्य कृति की अन्य कहानी- </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">अखाड़ा</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
में संबंधों के बीच पसरी चालबाजियों की बिसातें हैं। कहानी स्वार्थ में पड़कर आपसी
रक्त-संबंधों और पारिवारिक मर्यादाओं को नष्ट कर देने वाली मानसिकता को प्रकट करती
है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">अखाड़ा</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
में गाँव के फौजी का दामाद भी फौजी है और उसने अपनी ससुराल में सास-ससुर की जमीन
में कब्जा कर रखा है। घर से बेटा और बहू बेदखल हो चुके हैं। बेटे और बहू को अपने
दिवंगत पिता के लिए सहानुभूति है, किंतु बड़डेला, यानि फौजी का दामाद उन्हें दूर
ही रखना चाहता है। जब वह कहता है, कि- </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">“</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">हम
लाशों से खेलते आए हैं। क्या हुआ, यह अपने घर की लाश है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">” </span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">तब
परिवार और आपसी संबंधों की मर्यादाओं का बिखराव, उनकी टूटन पाठक के अंतस् में
उतरकर जम जाती है। कथाकार ने इस स्थिति को बड़ी कुशलता के साथ कहानी में समेटा है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcF0aomUq_TbIXKKALLnHglUH-ltbQThBJ7Tj7KyJFwTxOh02FLoh6hQfaTpPQkR-N2UZqkJtSRmO1MBnmLH8edlPqsUT7-4oCu4MoRilcdjxR7DV7Gs2bA3j-E3LyCQDb3_CQ6CI7OgLf/s1280/WhatsApp+Image+2021-05-20+at+18.25.43.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; font-family: Aparajita, serif; font-size: 42.6667px; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="1096" data-original-width="1280" height="343" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcF0aomUq_TbIXKKALLnHglUH-ltbQThBJ7Tj7KyJFwTxOh02FLoh6hQfaTpPQkR-N2UZqkJtSRmO1MBnmLH8edlPqsUT7-4oCu4MoRilcdjxR7DV7Gs2bA3j-E3LyCQDb3_CQ6CI7OgLf/w400-h343/WhatsApp+Image+2021-05-20+at+18.25.43.jpeg" width="400" /></a><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">समीक्ष्य
कृति में </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">नखरो नखरा करेगी</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
कहानी एकदम अलग तरीके से समाज का चित्रण करती है। इसमें महिलाएँ हैं, जो बिशनी के
नेतृत्व में संगठित हो रही हैं। उनके संगठित होने का कारण समाज में महिला
सशक्तिकरण नहीं, बल्कि स्वयं को साक्षर और समर्थ बनाना है। कहानी किसी भी तरह से
उस महिला-सशक्तिकरण का परचम नहीं उठाती, जिसके नाम पर बड़े-बड़े आंदोलन चलाए जाते
हैं। यहाँ गाँव की महिलाएँ स्वतः प्रेरित हैं, और उन्हें केवल मार्गदर्शन मिल रहा
है, वह भी अपने बीच की ही बिशनी के माध्यम से...। बिशनी के सहयोग के लिए नखरो चाची
आगे आती हैं। नखरो चाची का व्यक्तित्व भी बहुत साधारण-सा है। वह बिशनी और तोमर से
प्रेरित होती है, और केवल इसी कारण महिलाओं को शिक्षित करने के लिए चलाए जाने वाले
अभियान से जुड़ती है, बाद में पढ़-लिख भी जाती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>समीक्ष्य कृति में </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">हाय
कूहल</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"> और </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">टिटिहरियाँ</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
एकदम अलग तासीर की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में हिमाचलप्रदेश का लोकजीवन ही नहीं
झलकता, वरन् हिमाचलप्रदेश में आती बदलाव की बयार के बीच बिखरते प्रतीकों की
असह्य-दुःखद पीड़ा भी झलकती है। कूहल और घराट की थमती आवाज के पीछे आधुनिक
संसाधनों का पैर पसारना है। दीनानाथ कोहली, जिनका उपनाम </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">कूहल</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
से बना है, आज केवल यही एक पहचान शेष रह गई है, क्योंकि कूहल तो कब के शांत हो गए।
घराट भी नहीं बचे। पहाड़ में गरजते बुलडोजर की आवाज लोगों के मन में संदेह पैदा
करती है। जिनके घर में पीहण रखा है, वे जरा निश्चिंत दिखते हैं। जिन लोगों के पीहण
नहीं पिसे हैं, वे कूहल के लिए चिंतित होते हैं। सभी को कोहली से...घराटी से आशा
है, कि वह कुछ करेगा-</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">क्या
करें अब? पीहण, पत्थर और पनिहारिये सब गूँगे, ठगे से पड़े थे। पर कब तक? वे उदास
होने के लिए नहीं आए थे। उस चुप्पी को उनमें से किसी ने तोड़ा-</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">“</span></i><i><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">कोई
मर गया है क्या? कुछ बोलो।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">”<o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">“</span></i><i><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">हाँ,
कुछ गाओ।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">”</span></i><i><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
दूसरी आवाज थी।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">“</span></i><i><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">क्या
गाएँ? गाने सारे घराट ने चुरा लिए।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">”</span></i><i><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
अनपीसे पीहण वाला रोया।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">“</span></i><i><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">तो
चिल्लाओ।</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">”<o:p></o:p></span></i></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">दीनानाथ
कोहली के सामने चल रहा संवाद उस अंधकारमय भविष्य का खाका खींचता है, जो सबसे
ज्यादा घना-गहरा दीनानाथ के सामने है। दीनानाथ उस बड़े वर्ग का प्रतिनिधि है,
जिसका जीवन गाँव के देशी-घरेलू उद्योगों के सहारे चलता है। देशी तकनीक के ऊपर चल
रहा बुलडोजर गाँव की अपनी पहचान को, घराट को खा चुका है... कूहल के गाने को शांत
कर चुका है। अब केवल आधुनिक होते गाँव में परंपरा के टूटने की चिल्लाहट ही शेष बची
है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">टिटिहरियाँ</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">विकास
की अंधी दौड़ की सच्चाई को खोलती है। बाँध का निर्माण विकास के प्रतिमान भले ही
गढ़े, लेकिन इसके कारण किसानों को अपनी जमीनों से वंचित होना पड़ रहा है। वन काटे
जा रहे हैं। प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहा है। मंगतराम, जगतराम और विश्नो ताई आदि
ग्रामीणों ने विकास की जिस कीमत को चुकाया है, उसका पूरा आकलन यह कहानी करती है।
किसानों को मुआवजे की रकम के लिए सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाना पड़ रहा है।
सरकारी कर्मचारियों और ठेकेदारों का गठजोड़ किसानों के मुआवजे को भी हड़प जाना चाहता
है। बच्चों को सरकारी नौकरी जैसे वायदे तो दूर की कौड़ी बन गए हैं। किसानों और
बाँध बनने के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के विरोध को दबाने के लिए ठेकेदारों
के गुर्गों के साथ खाकी वर्दी भी मिल गई है। पूरे परिवेश में विस्थापित जन-समुदाय
की निराशा का अंधकार घना होता जा रहा है- </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">हम
दुत्कारे हुए जीव थे। आज तक रोते रहे हैं। अब यह लोहदूत हमें पाटने आ गया है। पचास
साल कम नहीं होते। काम करने की पूरी जिंदगी होती है। यहाँ बसाने की कतरने अभी भी
हमारे पास हैं, इस जगह सो सँवारा है, सजाया है। कहाँ जाएँ अब?</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
यह प्रश्नचिन्ह उन तमाम विस्थापितों के जीवन के सामने लगा हुआ है, जिन्हें
अनियंत्रित विकास ने अपनी जड़ों से उखाड़ दिया है। कहानी बड़ी सहजता के साथ आज के
इस जटिल प्रश्न को उठाती भी है, और पाठक के मन को उद्वेलित भी करती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">समीक्ष्य
कृति में </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">भ्यागड़ा</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
और</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"> ‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">कब्र से बोलूँगा</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">,
ऐसी कहानियाँ हैं, जो आतंकवाद के दो अलग-अलग चेहरों को सामने लाती हैं। </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">भ्यागड़ा</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
ऐसे गीत को कहते हैं, जो सुबह के समय गाया जाता है। यह शीर्षक कई अर्थों में कहानी
के कथ्य को सामने लाता है। धर्मांधता की काली और अँधेरी रात के बीत जाने के बाद जो
सुबह आएगी, उसे भ्यागड़ा के सुर से सजाया जाएगा। यह कहानी एक आशा का संचार करती
है, जो आतंक का शमन कर सकेगी। कहानी का पात्र याकूब मागरे भले ही भटकाव में आकर
आतंक के साथ हो लिया हो, लेकिन आतंक के कारण उसके जीवन पर कसता शिकंजा उसे सोचने
को विवश कर देता है, और फिर वह अपने पुराने जीवन की ओर लौट चलता है। उसकी बाँसुरी
फिर से भ्यागड़ा की धुन गुनगुनाने लगती है। धार्मिक कट्टरता के नाम पर गीत-संगीत,
वेश-परिवेश पर लगाए जाने वाले बंधनों को, बंदिशों को याकूब नकार देता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">कब्र
से बोलूँगा</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"> का याकूब मोहम्मद भी धर्मांधता और आतंकवाद के
चंगुल में फँसता है। पहाड़ों में जीवन सरल नहीं होता। वहाँ मजदूरी करने वाले लोगों
पर पुलिस भी शक करती है, और छिपे हुए आतंकी भी। इन जटिल स्थितियों के बीच आतंकवाद
और आतंकियों से दूर रहने के स्थान पर उनके साथ हो जाने की स्थिति को गाँववाले
देखते हैं। सड़क-निर्माण में मजदूरी करने वाला याकूब मोहम्मद आतंकियों की गिरफ्त
में इस तरह आता है, कि उसके सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो जाती है। रामलीला
में सुग्रीव की भूमिका निभाते हुए वह सच में बालि का वध करने को उद्यत हो जाता है।
कहानी आतंकवाद की उस मनःस्थिति को परखने की कोशिश करती है, जिसके कारण समाज में
मिल-जुलकर रहने वाला सामान्य-सा व्यक्ति भी आतंकी बन जाता है। </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">समीक्ष्य
कृति की अंतिम कहानी है- </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">छोटू</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">।
यह कहानी भी कई परतों में समाज की विषमताओं को खोलती है। गाँव में रहने वाले
सीधे-सादे छोटू को शहर की चकाचौंध अपनी ओर खींचती है। गाँव को छोड़कर शहर जाने
वाला छोटू शहर में संपन्न और शहरी तो नहीं बन पाता, उल्टे घरेलू नौकर बनकर शाह
पत्रकार के घर में सिमट जाता है। कहानी उस ज्वलंत मुद्दे को उठाती है, जिसकी चर्चा
अकसर सुर्खियों में आ नहीं पाती, लेकिन समाज में ऐसी स्थितियाँ शिद्दत के साथ देखी
जा सकती हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">संग्रह
में संकलित सभी कहानियाँ एक बड़े फलक पर अलग-अलग चित्रों को समेटती हैं। हिमाचल के
लोकजीवन को समेटने के साथ ही मन-मानसिकता में आते बदलावों को कहानियों में देखा जा
सकता है। कहानीकार त्रिलोक जी ने हिमाचल के लोकजीवन से जुड़े अनेक शब्दों का
प्रयोग करके संग्रह को विशिष्ट बनाया है। कूहट, घराट, पीहण, टल्ली, कुकड़ी, टब्बर,
छकराट, खिंद और भ्यागड़ा जैसे शब्द हिमाचल की अपनी बोली-बानी के साथ पाठक को
जोड़ते हैं।</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">सरल-सहज
और प्रवाहपूर्ण भाषा के साथ ही रोचक शैली के साथ हरएक कहानी अपना विशिष्ट महत्त्व
रखती है। </span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">भ्यागड़ा</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’ </span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">और
</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">कब्र से बोलूँगा</span><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">’</span><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
कहानियाँ अपना विशिष्ट महत्त्व रखती हैं, क्योंकि ये कहानियाँ अनागत के भाव को
व्यक्त करने वाली हैं। कल के सुख की कामना वह विशिष्ट भाव है, जो साहित्य को
दिशा-निर्देशक बनाता है। आतंकवाद की विभीषिका के बीच जो सुखद भविष्य दिख रहा है,
वह इन कहानियों में महत्त्वपूर्ण है। साहित्य की समकालीन चिंतनधाराओं,
प्रवृत्तियों और विमर्शों का अत्यंत सहज रूप इन कहानियों में<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>दिखता है। कथ्य की विशिष्टता और सामयिक यथार्थ
से निकटता समग्र कहानी-संग्रह की निजी विशेषता है। इसी कारण समीक्ष्य कृति पठनीय
भी है और संग्रहणीय भी है।</span><span style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; text-indent: 1cm;"> </span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; tab-stops: 376.5pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">समीक्ष्य
कृति- अंतिम राय का सच </span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">/ </span></b><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">त्रिलोक
मेहरा </span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">/</span></b><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
नमन प्रकाशन, नई दिल्ली </span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">/</span></b><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
प्रथम संस्करण 2019 </span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">/</span></b><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
मूल्य 250 रुपये </span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">/</span></b><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">
पृष्ठ-134</span></b><b><span lang="EN-US" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></b></p>
<p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: center; text-indent: 1cm;"><b><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;"><i>(हिमप्रस्थ,
शिमला, वर्ष- 64-65, मार्च-मई, 2021, अंक- 11/12/1, संपादक- नर्बदा कँवर)</i><o:p></o:p></span></b></p><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 26pt; line-height: 115%;">डॉ. राहुल मिश्र</span></p><b><span lang="HI" style="font-family: Aparajita, serif; font-size: 32pt; line-height: 115%;"></span></b><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-73070989900226595252021-05-12T20:51:00.000+05:302021-05-12T20:51:00.192+05:30छायावाद : अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgatfcH4IkPc6dtXgpGhzqv38cFGBOS6LOSJrN9KpzBJcozSGDr4TVWxr1tUWYYFCXydB5Gvo0rFLnHtoAuJI7ZNfk9O1TD1IXBdw7CqMabMTqyBE5geK3vTFmSvz2QM18RltnI9WGA-WXe/s837/23.jpg" imageanchor="1" style="font-family: Kokila, sans-serif; font-size: 32px; margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-indent: 37.7953px;"><img border="0" data-original-height="837" data-original-width="630" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgatfcH4IkPc6dtXgpGhzqv38cFGBOS6LOSJrN9KpzBJcozSGDr4TVWxr1tUWYYFCXydB5Gvo0rFLnHtoAuJI7ZNfk9O1TD1IXBdw7CqMabMTqyBE5geK3vTFmSvz2QM18RltnI9WGA-WXe/w482-h640/23.jpg" width="482" /></a></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 36.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">छायावाद </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 36.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">: </span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 36.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;">अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 36.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 36.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI;"></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">छायावाद के बारे में यह प्रचलित मजाक था कि जो समझ में न<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>आवे, अस्पष्ट हो, वह छायावाद है। पुराने
अध्यापकों को छायावादी कविताएँ पढ़ाना अब भी अटपटा लगता है और फिर अपनी या अपने
छोटे भाई या अपने छात्रों की गवाही दूँ तो सूर, तुलसी, बिहारी और रत्नाकर जैसी
स्पष्टता या रस इन कविताओं में प्रारंभ में उपलब्ध नहीं होता। प्रसाद के बारे में
तो यह प्रसिद्ध है कि बाद को अपनी किसी कविता का अर्थ वह स्वयं नहीं बता पाए थे।
इस तरह आधुनिक हिंदी काव्य के प्रसंग में बोधगम्यता का सवाल छायावादकाल से माना जा
सकता है। यह बात एक सहज साहित्यिक स्तर पर उठने वाले सामान्य प्रश्न के लिए कही जा
रही है।<sup>1</sup></span></i><i><sup><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></sup></i></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">हिंदी के
प्रख्यात आलोचक-समीक्षक देवीशंकर अवस्थी की लेखनी से उद्धृत ये विचार हिंदी के
छायावाद के संदर्भ में की गईं प्रारंभिक टिप्पणियों से संबद्ध हैं। वे नई कविता और
बोधगम्यता के प्रश्न की पड़ताल करते-करते मूल उत्स तक जाने का यत्न करते हैं।
अध्यापकों और छात्रों के अलावा रचनाकार, आलोचक और सामान्य पाठकों द्वारा नई कविता
के प्रसंग में बोधगम्यता पर उठाए जाने वाले प्रश्नों के संदर्भ में वे अपना मत
रखते हैं, कि क्यों न इस प्रश्न को काल की दृष्टि से भी देख लिया जाए। उनकी आलोचनात्मक
दृष्टि इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए छायावाद काल में जाकर टिकती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">आचार्य
देवीशंकर अवस्थी छायावाद काल की रचनाओं को अस्पष्ट और बोधगम्यता के स्तर पर जटिल
मानने वालों के समर्थन में खड़े नहीं दिखते, वरन् वे इसके पीछे के कारणों को
तलाशते हुए स्पष्ट करते हैं, कि- “पहले सहृदय, प्रमाता या रसज्ञ की शिक्षा और
संस्कारों पर बल दिया जाता था—रचना दुरूह है यह कोई नहीं कहता था, रसज्ञ असंस्कारी
है, यह कहा जाता था। संस्कृत के आचार्य ने बता दिया था, ‘येषां
काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयी भवन योग्यता से
स्वहृदयसंवादभाजः सहृदयाः।’ पर आज का पंडित इस संस्कारशीलता पर जोर नहीं देता। वह
तो सीधे-सीधे रचना को ही पाठ के स्तर पर ले आना बोधगम्यता मानता है। इस प्रकार बोधगम्यता
की बात पाठक से रचना पर आधुनिक काल में आरोपित कर दी गई है।”<sup>2</sup></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqBLpzuaRueMI9e3nNTT-2I1dbuhjFt_Lcv63DTG5SiK7WF_zoDqZEnzPzMmAuj0GGcQMblZ80GXRzkeSuAaUlkVvDtXH6kvyOfItKqaMRiG2UUHPLdl5hm7CjiEEdTX8DH_MUiUSliSJk/s758/21.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center; text-indent: 37.7953px;"><img border="0" data-original-height="758" data-original-width="627" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiqBLpzuaRueMI9e3nNTT-2I1dbuhjFt_Lcv63DTG5SiK7WF_zoDqZEnzPzMmAuj0GGcQMblZ80GXRzkeSuAaUlkVvDtXH6kvyOfItKqaMRiG2UUHPLdl5hm7CjiEEdTX8DH_MUiUSliSJk/w331-h400/21.jpg" width="331" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">इस प्रकार
बोधगम्यता के जिस प्रश्न को नई कविता का पूर्ववर्ती कालखंड, अर्थात् छायावाद का
काल देखता है, उसकी बोधगम्यता के प्रश्न और उसकी अस्पष्टता का बहुत तार्किक
विश्लेषण आचार्य देवीशंकर अवस्थी द्वारा किया जाता है। उनकी कही बातों के क्रम के
साथ ही हिंदी के छायावाद काल के विविध संदर्भों को देखें, तो कमोबेश इन्हीं
प्रश्नों के आसपास छायावाद का आरंभिक मूल्यांकन और स्थिति हमें दिखाई देती है।
छायावाद का कालखंड अनेक ऐतिहासिक और सम-सामयिक स्थितियों से प्रभावित रहा है, और
पहचाना गया है। इसके साथ ही साहित्येतिहास की निर्धारित की गई कालावधियों के मध्य
छायावाद की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अस्पष्टता और बोधगम्यता के प्रश्न
इन स्थितियों से न जुड़े हों, ऐसा नहीं माना जा सकता। भारतेंदु हरिश्चंद के साथ
प्रारंभ हुए हिंदी के भारतेंदु युग में खड़ी बोली हिंदी का आगमन होता है, सारे देश
की एक भाषा के रूप में इसकी उपस्थिति होती है, किंतु साहित्य के क्षेत्र में खड़ी
बोली हिंदी के लिए स्थान बनाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि उसमें ‘ठेठपन’ या
‘खरापन’ है। उस समय सामान्य रूप से यह मान्यता थी, कि- ‘खड़ीबोली की कविता
ब्रजभाषा के देखे रूखी होती है।’ यह रूखापन सरसता के साथ ही समझ या बोधगम्यता के
लिए भी जटिल होता था।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">भारतेंदु युग
को नवजागरण काल के रूप में भी जानते हैं। यह नवजागरण अपने अतीत के गौरव के प्रति,
भाषा के संस्कारों के प्रति, और साथ ही </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">सुषुप्त-अवस्था</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"> में छूट गई
संस्कृत-संस्कृति को पुनः गौरव प्रदान करने में भी संलग्न हुआ। परिणामस्वरूप नवजागरण
काल में विशुद्धतावाद का आगमन हुआ। “इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य को
सर्वप्रथम मार्ग भारतेंदु जी ने ही दिखाया। यदि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को
नव-जागरण का प्रधान पोषक मान लें, तो भारतेंदु जी अवश्य ही उसके जन्मदाता थे।
काव्य क्षेत्र में द्विवेदी जी ने ही आधुनिक कविता के स्वरूप को प्रतिष्ठित किया।
इन्होंने जिस साहित्य की प्रेरणा प्रदान की है वह उपदेश गर्भित तथा सुधारवादी था।”<sup>3</sup>
द्विवेदी युग में इन विशिष्टताओं को स्थापित करने में हिंदी के मानकीकरण ने भी
बहुत बड़ा योगदान दिया। यह अधिक प्रबल तब हुआ, जब साहित्य के लिए प्रयुक्त होने
वाली खड़ी बोली हिंदी का मानकीकरण होने लगा, शुद्धीकरण होने लगा। आचार्य
महावीरप्रसाद द्विवेदी के विराट व्यक्तित्व और संपादन-कौशल ने खड़ी बोली हिंदी को
संस्कृतनिष्ठ, तत्समप्रधान बनाने की शुरुआत की। यह नवजागरण काल से आगे जागरण-सुधार
काल के रूप में जाना जाता है। इस कालखंड में नवजागरण की प्रवृत्तियों की सघनता को
उसके विशुद्ध रूप के साथ देखा जाने लगा।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">इस तरह नवजागरण
और स्वाधीनता संग्राम की अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में एक ओर खड़ी बोली हिंदी
अपना आकार ग्रहण कर रही थी, दूसरी ओर काव्य-सृजन की पुरानी परिपाटी काव्य की
सर्वप्रिय ब्रजभाषा में ही चल रही थी। भारतेंदु और द्विवेदी युग में गद्य भले ही
खड़ी बोली हिंदी में रचा जा रहा था, किंतु काव्य ब्रजभाषा के मोह से मुक्त नहीं हो
पा रहा था। “एक समय ब्रजभाषा के पुराने गौरवशाली काव्य का ऐसा नशा था कि कविता को
खड़ी बोली की तरफ खिसकाना कठिन कार्य था। यह अतीत का मोह-बंधन ही न था। आधुनिक युग
में किसी समय ब्रजभाषा में ही काव्य-लेखन पर इतना जोर वस्तुतः हिंदी को लेकर तंग नजरिये
का सूचक था। इसलिए कविता को ब्रजभाषा से खड़ी बोली की जमीन पर लाने की कोशिशें महज
शैली परिवर्तन की नहीं थीं। ये सौंदर्य और मूल्य के एक पूरे संसार को बदलने की
लड़ाइयाँ थीं। इनकी वजह से धर्म, शिक्षा, राजनीति और मानवीय संवेदना के एक साथ
बहुत सारे मामलों में काफी उथल-पुथल आई।”<sup>4</sup></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">भारतेंदु युग
के परवर्ती द्विवेदी युग में गद्य भले ही खड़ी बोली हिंदी में रचा जाने लगा हो,
लेकिन प्रतापनारायण मिश्र के द्वारा कही गई उक्ति- ‘खड़ीबोली ब्रजभाषा के देखे
रूखी होती है।’, के बंधन से मुक्त नहीं हो पाई थी। इस बंधन को टूटता हुआ देखते
हैं- छायावाद के कालखंड में...। कवित्त, सवैया आदि छंदों के लिए खड़ीबोली हिंदी
उपयुक्त नहीं रही। ऐसा माना जाता रहा, कि इनकी मृदुल-मंजुल-कोमलकांति खड़ी बोली
में नहीं उतर पाई है। छायावाद की भाषा विशुद्ध खड़ीबोली हिंदी थी, लिहाजा हिंदी की
कविता में रस के आग्रही और परंपरा का पोषण करने वाले अनेक साहित्यसेवियों के लिए,
पाठकों के लिए, अध्येताओं और शिक्षकों-छात्रों के लिए छायावाद की कविता एकदम
अलग-अनूठे तरीके से आई, और अस्पष्ट हो गई। देवीशंकर अवस्थी के लिए भी यही स्थिति
थी, जिसका उल्लेख उन्होंने अपने आलोचना-आधारित निबंधों में किया।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">छायावाद के रूप
में आई कविता-क्रांति ने तत्कालीन आलोचकों-समीक्षकों को ऐसा विस्मित किया, कि
छायावाद की अनेक रोचक परिभाषाएँ लिखी जाने लगीं। यहाँ गणपतिचंद्र गुप्त के कथन का
उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं- “हिंदी की कुछ पत्र-पत्रिकाओं— ‘श्री
शारदा’ और ‘सरस्वती’—में क्रमशः सन् 1920<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>और 1921 में मुकुटधर पांडेय और श्री सुशीलकुमार द्वारा दो लेख ‘हिंदी में
छायावाद’ शीर्षक से प्रकाशित हुए थे, अतः कहा जा सकता है कि इस नाम का प्रयोग सन्
1920 या उससे पूर्व से होने लग गया था। संभव है कि श्री मुकुटधर पांडेय ने ही इसका
सर्व-प्रथम आविष्कार किया हो। यह भी ध्यान रहे, पांडेय जी ने इसका प्रयोग
व्यंग्यात्मक रूप में– छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिए किया था, किंतु
आगे चलकर यही नाम स्वीकृत हो गया। स्वयं छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े
प्रेम से स्वीकार किया है...।”<sup>5</sup> बाद के आलोचकों और हिंदी साहित्येतिहास
के अध्येताओं ने छायावाद को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने के प्रयास किए। किसी
ने ‘सूक्ष्म के प्रति स्थूल का विद्रोह’, किसी ने ‘वस्तुवाद और रहस्यवाद के मध्य
स्थित वाद’ बताया है। आचार्य रामचंद्र<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>शुक्ल ने छायावाद को दो अलग-अलग स्तरों पर स्थित बताया है- काव्य-वस्तु के
रूप में चित्रमयी भाषा के साथ व्यक्त अज्ञात-अनंत प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम और
समर्पण; और काव्य-शैली के रूप में ब्रजभाषा और परंपरागत रचना-विधानों से मुक्त एक
नए प्रयोग के रूप में....।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiruruwgr3H_19HFFqNCWAJTpzvJWi4yeonxLZuUJQZNJRmFtDGsCFYkxDntJDhLhv6YAYkp8esxBlb8dWRKI2LiFOqpn8gRauo1DtXFs1DVosV2eZvRpuKXFgbP73HEz_y83dX8tVEyntE/s746/1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em; text-align: center; text-indent: 37.7953px;"><img border="0" data-original-height="746" data-original-width="495" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiruruwgr3H_19HFFqNCWAJTpzvJWi4yeonxLZuUJQZNJRmFtDGsCFYkxDntJDhLhv6YAYkp8esxBlb8dWRKI2LiFOqpn8gRauo1DtXFs1DVosV2eZvRpuKXFgbP73HEz_y83dX8tVEyntE/w265-h400/1.jpg" width="265" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">गणपतिचंद्र
गुप्त छायावाद के लिए सर्वसम्मत परिभाषा की अनुपलब्धता के लिए छायावाद के ऊपरी
लक्षणों या उसके कुछ बाह्य पक्षों को ही देखने की बात कहते हुए सम्यक् मूल्यांकन
की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं, और अपना पक्ष भी रखते हैं। वे छायावाद की मूल
चेतना को विश्लेषित करते हुए<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>इसे
पाश्चात्य साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ या स्वच्छंदता का काव्य बताते हैं। छायावाद
को स्वच्छंदतावाद के रूप में अभिहित करने के लिए वे तर्क भी देते हैं- “जिस काव्य
में इस प्रकार (बाह्य जगत् की अपेक्षा अंतर्जगत को, बौद्धिकता की अपेक्षा
भावात्मकता को, यथार्थ की अपेक्षा कल्पना को, सत्य की अपेक्षा सौंदर्य को, परंपरा
की अपेक्षा नूतनता को एवं संघर्ष की अपेक्षा प्रेम को अधिक महत्त्व देने) की
अंतर्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति होती है, उसे सामान्यतः स्वच्छंदतावाद का नाम दिया
जाता है। हिंदी के छायावाद पर भी उपर्युक्त सारी बातें लागू होती हैं।”<sup>6 </sup>इस
तरह छायावाद के संबंध में अस्पष्टता के साथ एक अलग पहचान स्वच्छंदतावाद के रूप में
परिलक्षित होती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">प्रथम
विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य के कालखंड में राजनीतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक और साहित्यिक उथल-पुथल के बीच बांग्ला साहित्य से होकर हिंदी में आ रही
साहित्य की नवीन चेतना परिवर्तित अवश्य हुई, और अंग्रेजी या यूरोपीय प्रभाव सीधे
हिंदी में आया, किंतु छायावाद पूरी तरह से यूरोपीय साहित्य के प्रभाव से निकला है,
या अंग्रेजी साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ का असर हिंदी में छायावाद बनकर उभरा है,
इसे भी स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं लगता है। कुछ विद्वान छायावाद को अंग्रेजी के
‘रोमैंटिसिज्म’ का भारतीय संस्करण कहकर परिभाषित करते हैं, किंतु वस्तुस्थिति इससे
विपरीत समझ आती है। जब गणपतिचंद्र गुप्त छायावाद को ‘स्वच्छंदतावाद’ के रूप में
व्याख्यायित करते हैं, तब उनका आशय इसे यूरोपीय साहित्य या अंग्रेजी के
‘रोमैंटिसिज्म’ के अनुसरणकर्ता के रूप में बताना नहीं होता। इन बातों के मध्य
बारीक विभेद है, जो भ्रम की स्थिति पैदा करता है। डॉ. नगेंद्र स्वयं इस तथ्य को
मानते थे, किंतु बाद में उन्होंने अपना मत परिवर्तित किया।<sup>7</sup></span><sup><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></sup></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">छायावाद की
अस्पष्टता को रहस्य के रूप में देखने के प्रयास भी कम नहीं हुए। यह रहस्य उस बिना
रूप-रंग वाले, नाक-नख्श वाले, निराकार प्रेमी के प्रति समर्मण के भाव के रूप में
देखा जाता है। प्रेमी अज्ञात है, उसके आदि-अंत का भी कुछ पता नहीं है....। ऐसे
प्रेमी के प्रति उपजते भावों को रहस्य के रूप में देखते हुए छायावाद के लिए यह नाम
मिलता है। “यह भाव-धारा कवि की समवय तथा रुचियों के अनुसार रंग बदलकर आगे बढ़ती
रही, जिसे कहीं रहस्यवाद और कहीं छायावाद के नाम से पुकारा गया, किंतु सबके मूल
में प्राचीनता के ऊपर नवीनता का आरोप तथा वर्तमान के हीनतर बंधनों से मुक्त होकर
श्रेष्ठतर स्वच्छंदता में विचरण करने के भाव विद्यमान हैं।”<sup>8</sup></span><sup><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></sup></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">इस तरह छायावाद
के लिए रहस्य, अस्पष्टता और यूरोपीय </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">रोमैंटिसिज्म</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"> के प्रभाव से
उपजे स्वच्छंदतावाद की गढ़ी गई प्राचीरों के दायरे से बाहर निकलने पर छायावाद के
काव्य की भाषा, शिल्प, शब्द-संघटना, छंद-योजना, संरचना, वैचारिकता, भावाभिव्यक्ति
की तीव्रता-तरलता, कल्पना की व्यापकता आदि अनेक पक्ष देखने को मिलते हैं। “निराला
के मुक्त छंदों का उदाहरण लें, तो कवित्त जैसे छंद में नयी जान फूँक गयी। पंत ने
ललित पदावलियों की झड़ी लगा दी। पंत, प्रसाद, निराला और बाद में आईं महादेवी, सबने—
किसी ने अधिक तो किसी ने थोड़ा कम- मृदुल मंजुल पदावलियों से कविता खजाना भर दिया।
निराला ने पौरुषमय भाषा की रचना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संस्कृत कविता में
क्या होता था- यानी कालिदास, भवभूति आदि के यहाँ वह अपनी जगह है, लेकिन आधुनिक युग
में संस्कृत पदावलियों की असली शक्ति का पता छायावाद में ही चला।”<sup>9</sup></span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">छायावाद के साथ
स्वच्छंदतावाद और अंग्रेजी साहित्य के </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">रोमैंटिसिज्म</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"> के संबंधों पर
डॉ. शिवदान सिंह चौहान की टिप्पणी का उल्लेख यहाँ आवश्यक हो जाता है। वे लिखते
हैं- “अतः यह कहना जैसे गलत होगा कि फ्रांसीसी धारा, जर्मन धारा के अनुकरण पर चली
या अंग्रेजी धारा, फ्रांसीसी धारा की अनुवर्तिनी थी,<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>उसी तरह यह कहना भी गलत होगा कि हिंदी की
छायावादी कविता पाश्चात्य धारा की नकल है और यदि फैशन की नकल की जाती है तो
तत्कालीन समसामयिक फैशन की... सौ वर्ष पुराने फैशन की नहीं...। किंतु उस
स्वच्छंदतावादी धारा का, जिससे छायावाद की कविता प्रभावित है, सत्तर वर्ष पहले
अवसान हो चुका था, और प्रथम महायुद्ध के बाद की पाश्चात्य कविता स्वच्छंदतावाद के
अवशिष्ट ह्रासोन्मुख, घोर व्यक्तिवादी, अनास्थावादी और असामाजिक तत्त्वों को ही
एकांगी अभिव्यक्ति दे रही थी। छायावादी यदि सहसा उनकी परिपाटी पर चल पड़ते, तो उन
पर अनुकरण वृत्ति का आरोप सही उतरता।”<sup>10</sup> डॉ. शिवदान सिंह चौहान की यह
टिप्पणी छायावाद पर लगे अनुकरण के आरोप का तार्किक खंडन-मात्र नहीं करती,
प्रत्युत् छायावाद के सम्यक्-सर्वाङ्गपूर्ण मूल्यांकन की अनिवार्यता को भी प्रकट
करती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">अपनी लगभग बीस
वर्षों की अल्प काल-अवधि में ही हिंदी के छायावाद ने आधुनिक हिंदी कविता को जितनी
विपुल साहित्य-राशि दी है, जितनी विविधता और व्यापकता से साक्षात् कराया है, उसे
अन्यत्र खोजना कठिन है। इस वैविध्य और व्यापकता के साथ ही भावों की सघनता और
विचारों की गंभीरता के बल पर छायावाद का काव्य अपनी पूर्ववर्ती काव्य-प्रवृत्तियों
के सामने खड़े होने का सामर्थ्य जुटाता है; और आलोचनाओं-प्रतिक्रियाओं के<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बाद भी सिद्ध करता है, कि छायावाद अस्पष्ट छाया
का सृजन नहीं, बल्कि विचारों की गंभीरता और भावों की सघनता का काव्य है। इसमें
प्राचीन भारतीय दर्शन के तत्त्व भी हैं, और आधुनिकता का बोध भी है। परंपरा के
प्रति लगाव भी है, और बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट भी है। इसमें विविधता के
इतने सारे रंग हैं, कि यह काव्य के आकाश में इंद्रधनुष-सम प्रतीत होता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">छायावाद की
प्रारंभिक अवस्था में, छायावाद के विस्तार में, और उसकी परवर्ती काल-अवधि में
छायावाद को अस्पष्टता के काव्य और बोधगम्यता के स्तर पर दुरूह-जटिल काव्य के रूप
में प्रस्तुत और प्रकट किए जाने के पीछे परंपरा से चली आ रही व्यवस्था के बंध
टूटने और यूरोपीय प्रभावों के प्रति भारतीय जनमानस की विद्रोही वृत्तियों के कारक
परिलक्षित होते हैं। जबकि बाद के वर्षों में यह स्थिति इस प्रकार बदली है, कि
छायावाद का काव्य-संसार हिंदी के लिए अमूल्य निधि के रूप में अपनी पहचान बना सका
है। इतना अवश्य है, कि आलोचना-समीक्षा के क्षेत्र में पुराने गढ़े गए प्रतिमानों
से निकलकर छायावाद को नवीन दृष्टि से देखने-लिखे जाने की आवश्यकता अब भी शेष है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">संदर्भ-</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">1.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">देवीशंकर अवस्थी, नई कविता और बोधगम्यता का प्रश्न, रचना और
आलोचना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1995, पृ. 47,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">2.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">वही, पृ. 48,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">3.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय,
हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 224,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">4.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">शंभुनाथ, हिंदी की धर्मनिरपेक्षता का बिगुल, स्मृति-ग्रंथ :
बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री, संपा. सिद्धिनाथ मिश्र, प्रका. अयोध्याप्रसाद खत्री
जयंती समारोह समिति, मुजफ्फरपुर, सं. 2007, पृ. 69,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">5.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">गणपतिचंद्र गुप्त, स्वच्छंदतावादी (छायावादी) काव्य-परंपरा,
हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,
बारहवाँ सं. 2010, पृ. 72,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">6.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">वही, पृ. 73,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">7.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">वही, पृ. 76,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">8.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय,
हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 228,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -18.0pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">9.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";">
</span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">सुधीर रंजन सिंह, छायावादी काव्य-रूप और परवर्ती कविता,
कविता की समझ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018, पृ. 68,</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 46.35pt; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; mso-list: l0 level1 lfo1; text-align: justify; text-indent: -25.05pt;"><!--[if !supportLists]--><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: Kokila;"><span style="mso-list: Ignore;">10.<span style="font: 7.0pt "Times New Roman";"> </span></span></span><!--[endif]--><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">डॉ. शिवकुमार
शर्मा, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य </span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">: </span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 20.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">युग और प्रवृत्तियाँ, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, सप्तम सं.
1977, पृ. 494 ।</span></p><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0cm; text-align: right; text-indent: 1cm;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><br />डॉ. राहुल
मिश्र</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 1.0cm;"><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">(</span></i><i><span lang="HI" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">अनुसंधान,
हिंदी एवं आधुनिक भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज उत्तरप्रदेश, संपादक-
डॉ. राजेश कुमार गर्ग, वर्ष- 16, अंक- 15-16, जुलाई-दिसंबर 2020 में प्रकाशित</span></i><i><span lang="EN-US" style="font-family: "Kokila",sans-serif; font-size: 24.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-language: HI; mso-fareast-font-family: "Arial Unicode MS";">)<o:p></o:p></span></i></p><br /><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-90065294020834288672021-02-04T21:01:00.000+05:302021-02-04T21:01:07.899+05:30भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><span lang="HI" style="font-family: "Yatra One"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;"></span></p><p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">मध्यकालीन
व्यापारिक गतिविधियों की रोचक और साहसिक कथाएँ सिल्क रूट या रेशम मार्ग में बिखरी
पड़ी हैं। सिल्क रूट का सबसे चर्चित हिस्सा, यानि उत्तरी रेशम मार्ग 6500 किलोमीटर
लंबा है। दुनिया-भर में बदलती स्थितियों के कारण सिल्क रूट तो बंद हो गया, मगर
उसकी रोचक स्मृतियाँ कई देशों के मन से ओझल नहीं हो पाईं। इस कारण चीन, कज़ाकिस्तान
और किर्गिस्तान सहित दूसरे देशों के प्रस्ताव पर रेशम मार्ग को यूनेस्को ने विश्व
विरासत का दर्जा दे दिया। इसके बाद ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ के तौर पर अंतरराष्ट्रीय
पर्यटन का नया क्षेत्र खुला है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">पर्यटन के
शौकीन लोगों के लिए सिल्क रूट टूरिज़्म जितना रोचक और रोमांचकारी है, उतना ही
महँगा भी है। मगर आपको यह जानकर ताज्जुब होगा, कि कम खर्च में भी सिल्क रूट
टूरिज़्म का मजा लिया जा सकता है, और वह भी देश से बाहर जाए बिना...। भले ही इस
बात पर एकदम से भरोसा न हो, लेकिन यह हकीक़त है, जो देश के धुर उत्तरी छोर पर आपके
स्वागत के लिए तैयार नज़र आती है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">जम्मू व
कश्मीर के लदाख अंचल का उत्तरी इलाका, यानि नुबरा घाटी क्षेत्र सिल्क रूट से जुड़ा
हुआ है। लदाख के मुख्यालय लेह से लगभग चालीस किलोमीटर की यात्रा के बाद मिलता है,
खरदुंग दर्रा, जिसे दुनिया की सबसे ऊँची सड़क के लिए भी जाना जाता है। खरदुंग-ला
के पार शुरू होती है, नुबरा घाटी, यानि फूलों की घाटी। सिल्क रूट के टकलामकान
रेगिस्तान में नख़लिस्तान की तरह...। नुबरा के मुख्यालय देस्कित पहुँचने से पहले
ही नुबरा नदी शयोक नदी से मिलती दिखाई पड़ती है। शयोक नदी के किनारे-किनारे पश्चिम
की तरफ चलते हुए एक तरफ लदाख पर्वतमाला और दूसरी तरफ काराकोरम की पर्वतश्रेणियाँ
अपने अलग-अलग रंग-ढंग को साथ लिए चलती हुई नजर आती हैं। देस्कित को पार करते ही
हुंदर गाँव आता है। यह गाँव दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी के लिए जाना जाता है। ये
बैक्ट्रियन या यारकंदी ऊँट सिल्क रूट के शहंशाह कहे जा सकते हैं। सिल्क रूट के बंद
हो जाने के बाद इनकी प्रजाति हुंदर में उन परिवारों के पास सुरक्षित है, जो किसी
जमाने में सिल्क रूट व्यापार में माल ढुलाई और ‘शटल सेवा’ का काम किया करते थे।
हुंदर का राजमहल, जो अब एक बौद्धमठ की शक्ल अख्तियार कर चुका है, किसी जमाने में
सिल्क रूट के व्यापार पर नजर रखने की जिम्मेदारी निभाया करता था। हुंदर गाँव तक पहुँचने
वाले पर्यटकों के लिए जितनी रोमांचक यारकंदी ऊँटों की सवारी होती है, उतना ही
आकर्षण उनके लिए हुंदर राजमहल को देखने में होता है। अनूठी देशी बनावट वाले इस महल
से आगे पश्चिम की तरफ बढ़ते हुए काराकोरम पर्वतश्रेणियों की ऊँचाई में वह रास्ता
दिखाई पड़ने लगता है, जो कभी सिल्क रूट के सहायक मार्ग के तौर पर जाना जाता था।
शयोक नदी के दोनों तरफ ऊँचे पहाड़ों पर सीधी लकीरों की तरह दिखने वाले सिल्क रूट
के साथ-साथ चलते हुए चालुंका पहुँचते हैं। यह बल्तिस्थान का पहला गाँव है, जो यहाँ
के लोगों के रंग-रूप, नाक-नक्श और अनूठी तहजीब के कारण एक नए संसार के खुल जाने का
अहसास करा देता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">चालुंका
से बोगदंग और फिर तुरतुक तक बलखाती-इठलाती शयोक नदी, दोनों किनारों पर अलग-अलग
रंगों को बदलती पर्वतराशियाँ, सियाचिन ग्लोशियर से टकराकर आते शीतल-मंद पवन के
झोंके और इन सबके साथ असीमित पसरी शांति पर्यटन के एकदम नए और अनूठे अहसास को साथ
लिए दिल में गहरे उतर जाती है। देश की सीमा का आखिरी गाँव है- तुरतुक। दो-तीन वर्ष
पहले तक हुंदर के आगे पर्यटकों को जाने की इजाजत नहीं थी। इस कारण बल्ती संस्कृति
के अनूठे दर्शन पर्यटकों के लिए सुलभ नहीं थे। अब सीधे तुरतुक तक पहुँचा जा सकता
है और अनूठी बल्ती तहजीब को आँख भर-भरकर देखा जा सकता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">तुरतुक
में यगबो राजवंश के उत्तराधिकारी यगबो मोहम्मद खान काचो ने अपने पुरखों की तमाम
यादों को समेटकर एक छोटा-सा संग्रहालय बना रखा है। इस संग्रहालय को देखना अतीत के
उन लम्हों में उतर जाना है, जिनमें गिलगित बल्तिस्थान के गौरवपूर्ण अतीत की
इबारतें लिखी हुई हैं। एक तरफ बल्ती संस्कृति, बल्ती समुदाय का जीवन यहाँ देखने को
मिलता है, तो दूसरी ओर बल्ती ग़ज़ल, बल्ती लोकगीतों-किस्सों से महकती शामों के साथ
चाँदनी रात में तारों भरे आसमान के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारना, तेजी से भागती
जाती शयोक के कदमों की आहटों को सुनना ग्रामीण पर्यटन, सांस्कृतिक पर्यटन और साथ
ही सिल्क रूट पर्यटन के सुखों को एकसाथ जोड़ देता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">लेह से
लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके तुरतुक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने के लिए
‘इनर लाइन परमिट’ की जरूरत पड़ती है। इसे लदाख स्वायत्तशासी परिषद्</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">की
वेबसाइट</span><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;"> पर जाकर खुद भी बनाया जा सकता है। तुरतुक में
कई अच्छे यात्री-निवास, होटल और गेस्ट हाउस हैं, मगर ‘होम-स्टे’ की बात ही अलग है,
जहाँ बल्ती व्यंजनों का स्वाद और बल्ती जीवन की ढेर सारी रोचक कथाएँ सरलता से मिल
जाती हैं। खुबानियों, जौ के सत्तू और देशी व्यंजनों के साथ पर्यटन का मजा दो गुना
हो जाता है। तुरतुक के प्रसिद्ध लकड़ी के पुल पर बना ‘सेल्फी प्वाइंट’ गाहे-ब-गाहे
अपनी तरफ खींच ही लेता है। पर्यटकों की सुविधा के लिए लेह में पर्यटक केंद्र है।
हाल ही में देस्कित में भी पर्यटक सुविधा केंद्र खोला गया है। एक नए और अनूठे
पर्यटक केंद्र के रूप में जितना नुबरा घाटी को जाना जाता है, उससे कहीं अधिक
आकर्षण सिल्क रूट के साथ चलते-चलते तुरतुक तक जाने में होता है। यह आकर्षण भारत के
मुकुट में जड़ी सुंदर मणि जैसी बल्ती तहजीब को नजदीक से देखकर खुशी से नहीं, गर्व
से भी भर देता है।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 20pt; line-height: 150%;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="line-height: 150%; margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0cm; margin-right: 0cm; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: 36.0pt;"><span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI", sans-serif; font-size: 18pt; line-height: 150%;">(संपादकीय
पृष्ठ, दैनिक अमृत विचार, लखनऊ-बरेली नगर-बरेली ग्रामीण संस्करण में दिनांक 25
फरवरी, 2020 को प्रकाशित)<o:p></o:p></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGWbgZlp_XzgmxxSOhN8ldxPOo_gLc6y8Bg2kGRicVPQamZ-x52fY50uPnJd4ATjdOkt_8SpAfBuhy0VXlQdDD0lYI_L_oBTqrulKslsjGZRHssqyYeAhwZhtxcEOE_oxtnxb8xMfDzvqR/s1080/IMG-20200225-WA0002.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="767" data-original-width="1080" height="454" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGWbgZlp_XzgmxxSOhN8ldxPOo_gLc6y8Bg2kGRicVPQamZ-x52fY50uPnJd4ATjdOkt_8SpAfBuhy0VXlQdDD0lYI_L_oBTqrulKslsjGZRHssqyYeAhwZhtxcEOE_oxtnxb8xMfDzvqR/w627-h454/IMG-20200225-WA0002.jpg" width="627" /></a></div><p></p><br /><br /><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0Leh34.1525864 77.5770534999999915.8423525638211515 42.420803499999991 62.462820236178842 112.73330349999999tag:blogger.com,1999:blog-160197989142184635.post-58689993364666496672020-12-01T18:43:00.000+05:302020-12-01T18:43:53.902+05:30<p> </p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhopjDhre5ph8-8s5646dGIjJ0eJddMCcqGPjKYFUnZ0FYifdAYh3OrcOpGQDRTi5JTOkTCI2AxLNFfHpGZk2tde7hUsxptKOjOrQdC2KM5ZGkXpAyn_cBKnamTGv69by4DAF1rTBq4TihF/s648/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A4%25AF%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25951.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="648" data-original-width="475" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhopjDhre5ph8-8s5646dGIjJ0eJddMCcqGPjKYFUnZ0FYifdAYh3OrcOpGQDRTi5JTOkTCI2AxLNFfHpGZk2tde7hUsxptKOjOrQdC2KM5ZGkXpAyn_cBKnamTGv69by4DAF1rTBq4TihF/w470-h640/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A4%25AF%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25951.JPG" width="470" /></a></b></div><b><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><span lang="HI" style="font-family: Tillana; font-size: 48.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 72.0pt;"><br /></span></b><p></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"><b><span lang="HI" style="font-family: Tillana; font-size: 48.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 72.0pt;">शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है...</span></b><b><span style="font-family: Tillana; font-size: 72.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 48.0pt;"><o:p></o:p></span></b></p><p align="center" class="MsoNormal" style="text-align: center;"></p><p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">कहते हैं, पहाड़ी नदियाँ बड़ी शोख़ होती हैं, चंचल होती
हैं। लहराना, बल खा-खाकर चलना ऐसा,<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>कि
‘आधी दुनिया’ को भी इन्हीं से यह हुनर सीखना पड़े। पहाड़ी नदियाँ तो बेशक ऐसी ही
होती हैं, मगर कभी हिमानियों से अपना रूप और आकार पाने वाली नदियों के बारे में
सोचा है? वैसे तो ये भी पहाड़ों की ही हैं। इसलिए शोख़ी और चंचलता, बाँकपन और
अदाकारी इनमें नहीं होगी, ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता है। देख लीजिए अलकनंदा और
भागीरथी को, देख लीजिए लोहित और असिक्नी को....., और इनकी जैसी अनेक नदियों को....।
एक अलग-सा सौंदर्य, अनूठा अल्हड़पन इनमें नजर आएगा। हिमनदों की इन आत्मजाओं का
अनूठा सौंदर्य हिमालय की ऊँचाइयों पर ही देखा जा सकता है। अपने उद्गम से आगे बढ़ते
हुए इनकी चंचलता मैदानों तक पहुँचते-पहुँचते गंभीरता में बदल जाती है। ठीक बचपन और
बुढ़ापे की तरह...।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">हिमनदों की इन चंचल बेटियों में एक शयोक भी है, जो अपनी
कुछ अलग ही तासीर रखती है। यह चंद्रा और लोहित की तरह, अलकनंदा की तरह, या फिर
भागीरथी की तरह सीधी-सरल और शांत नहीं है। लेह की तरफ से खरदुंग दर्रे को पार करते
ही जैसे हम नुबरा घाटी में पहुँचते हैं, हरहराती हुई और तेजी से भागती हुई शयोक
जैसे अगवानी करने को तैयार मिलती है। नुबरा घाटी में हम जितने दिन गुजारते हैं,
उतने दिनों तक शयोक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। नुबरा घाटी में घूमते हुए कई-कई बार
हमें इसके साथ, तो कई बार इसे पार करके दर्शनीय स्थलों में पहुँचना होता है। इतना
ही नहीं, शयोक अपने प्रवाह के साथ अपनी एक उपघाटी या अपना मैदानी इलाका भी बनाती
है।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;"><span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-spacerun: yes;"> </span>अल्हड़ शयोक अपने उद्गम स्थान से निकलकर ‘गप्शन’
तक पश्चिम और दक्षिण तक बहती है और ‘गप्शन’ से ‘मंदरालिङ’ तक पूर्व दिशा में<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बहती है। अपने उद्गम से आगे निकलकर यह गलवाँ और
चंङ छेनमो नदियों को अपने साथ ले लेती है। इसके साथ ही यह इस इलाके में मंगोलियन
तिब्बत और लद्दाख के बीच एक प्राकृतिक विभाजक रेखा भी खींचती है। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span>‘मंदरालिङ’ से ‘शयोग’ तक दक्षिण और ‘शयोग’ से
‘हुंदर’ तक पश्चिमोत्तर बहते हुए बाद में पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए बल्तिस्थान
में प्रवेश कर जाती है। बल्तिस्थान के प्रमुख शहर स्करदो के पूर्व की ओर स्थित
‘केरिस’ के नजदीक सिंधु से मिल जाती है।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">कई-कई बार शयोक की अल्हड़ चाल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे
वह ‘खरदुंग-ला’ से बहुत नाराज हो। ‘खरदुंग-ला’, यानि खरदुंग दर्रा....भोटभाषा में
‘ला’ दर्रे को कहते हैं। ‘ला’ तो ठीक है, लेकिन ‘खरदुंग’ तो ‘खर’ और ‘तुंग’ का
मिश्रण समझ में आता है, जो प्रजातियों-पीढ़ियों की जुबानों में घिस-घिसकर ‘खरदुंग’
हो गया है, शायद। एकदम खड़ी-सी,</span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"> </span><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">ऊँची और कठिन चढ़ाई वाला तुंग....खरतुंग। आखिर
यह शयोक के रास्ते में आया ही क्यों? उत्तर आसान-सा है, सरल-सा ही है...। पहाड़
हमेशा धीर-गंभीर और वीरव्रती ही नहीं होते, ये खलनायक की भूमिका में भी कभी-कभी आ
जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे दुर्गम और कठिन दर्रों के कारण ही लदाख के लिए कहा जाता है,
कि यहाँ पर बहुत घनिष्ठ मित्र या बहुत कट्टर दुश्मन ही पहुँच सकता है। मध्यम स्तर
वालों के लिए यहाँ आना सुगम नहीं...संभव नहीं। कारण... पहाड़ ही यहाँ पर चुनौतियों
के<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>द्वार खोलते हैं। शायद इसी कारण शयोक
की कथा में खरदुंग-ला किसी खलनायक से कम नजर नहीं आता। ऐसी ही एक कथा लाहुल-स्पीति
के लोककंठों में जीवंत मिलती है। इस कथा में बारालाचा की दुर्गम ऊँचाइयाँ चंद्रा
और भागा के लिए अवरोधक बनती हैं।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg9Yg2dtbSqpniqFLNSQh0LXajjMzgleha4_0cowyW8iD8-dccmvQPZpfkPyuxFr6aJaoz7iK5WC9c8keoo_Q06z-MekmQ_xheuEK8UskYTqIiDjr0jDY9dTK665be07jJxIRlSSKXo0lx/s670/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A4%25AF%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25952.JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; font-weight: 700; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="670" data-original-width="477" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg9Yg2dtbSqpniqFLNSQh0LXajjMzgleha4_0cowyW8iD8-dccmvQPZpfkPyuxFr6aJaoz7iK5WC9c8keoo_Q06z-MekmQ_xheuEK8UskYTqIiDjr0jDY9dTK665be07jJxIRlSSKXo0lx/w285-h400/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A4%25AF%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25952.JPG" width="285" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">बड़े गहरे उतरे स्नेह-भाव के कारण कुछ लोगों द्वारा बड़ालाचा
भी कहे जाने वाले बारालाचा के चंद्रताल से निकली चंद्रमा की बेटी चंद्रा, और
सूर्यताल से निकला सूरज का बेटा भागा अपने प्रेम को जल तत्त्व में उतारकर साकार
करते हैं। वैसे सूर्य का एक नाम भाकर भी है। भाकर का अंश भागा, और चंद्रमा की
चंद्रा...। बारालाचा के शिखर से उनकी यात्रा शुरू होती है, मिलन के लिए...। भागा को
कुछ ज्यादा ही भागना पड़ता है, दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपना रास्ता बनाना होता
है। अंततः ताँदी में दोनों मिलते हैं, और एक प्रयाग, एक संगम वहाँ बन जाता है,
आस्था का...प्रेम की पराकाष्ठा का। लाहुल-स्पीति की अनेक लोककथाओं के बीच चंद्रा
और भागा की यह प्रेमकथा बड़ी रुचि के साथ सुनी जाती है। ताँदी से आगे चंद्रभागा
चेनाब बन जाती है, वैदिककाल की असिक्नी या आज के आम बोलचाल की इशकमती बन जाती है।
इसी के किनारे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ पनपती हैं, पंजाबियों के
रीति-रिवाज परवान चढ़ते हैं। चंद्रा और भागा का अमर प्रेम मैदानी इलाकों को अपने
रंग में रंग देता है।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">यही अमर प्रेम शयोक और सिंधु में भी तो दिखता है, इसी कारण
मिलन की राह में खड़े खर-तुंग से नाराज शयोक एकदम अपनी दिशा बदलकर बहने लगती है।
इसीलिए खरदुंग-ला के पदतल में, हमें जैसे ही शयोक के दर्शन होते हैं, उसका भर्राया
हुआ गला, नाराजगी से भरा स्वर सुनाई देता है। नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों में
स्वयं को देखने की, मानवीय गुणों और प्रवृत्तियों को देखने की अनूठी भारतीय पंरपरा
दुनिया में विलक्षण है, अद्भुत है। इसी कारण शयोक के ही नहीं, हमारे अपने स्वर भी
दो प्रेमियों के मिलन की राह में बाधक बनने वाले खलनायक खरदुंग-ला के लिए नाराजगी से
भर जाते हैं। बारालाचा में अगर सूरज का बेटा है, तो यहाँ रिमो हिमानी की बेटी है।
उधर चंद्रा है, जो बड़ी शालीन और संयत है। इधर शालीनता सिंधु नद के हिस्से में है।
वैसे ‘रिमो’ भी भोटभाषा का शब्द है, और धारीदार पहाड़ के लिए इसे प्रयोग किया जाता
है। जब माई ही इतनी तीखी है, तो बिटिया शांत-संयत कैसे हो सकती है? कई बार यह
विचार शयोक की अल्हड़ चाल के कारणों को खोजते समय मन में उतर पड़ता है।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">वैसे शयोक को कुछ और करीब से जानना हो, तो पाँच-छः घंटे का
समय निकालकर स्याम गोनबो की लगभग सात-आठ सौ फीट की ऊँचाई पर चढ़ जाइए। धरती के
टुकड़े को चाकू से काटती तेज धार की तरह शयोक का बहाव दिखाई पड़ेगा। एक तरफ हिमालय
की लदाख पर्वतश्रेणी है, तो दूसरी तरफ काराकोरम पर्वतश्रेणी है। बीच में शयोक है,
दो पर्वतश्रेणियों को एक-दूसरे से जुदा करती हुई। यह विभाजन पहाड़ों की बनावट का
भी है, और बुनावट का भी...रंग भी दोनों के अलग-अलग...चट्टानें भी अलग और मिट्टी भी
अलग। एक तरफ लालिमा है, तो दूसरी ओर कारा जैसी कालिमा...। स्याम गोनबो की ऊँचाई से
शयोक को देखकर मन में<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>सबसे पहला विचार यही
आता है, कि, भला हो... शयोक तुम्हारा! जो तुमने<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>दोनों श्रेणियों को अलग-अलग कर दिया.... कहीं हम एक ही समझ बैठते, तो आखिर
क्या होता? यह तो ठीक है, लेकिन क्या तुम्हें एक गति से चलना नहीं आता है?</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">हे शयोक! हमने भी स्याम गोनबो की ऊँचाइयों से तुम्हें
निहारा है। केवल निहारा ही नहीं है, तुम्हारे सानिध्य में पाँच-छः घंटे भी बिताए हैं।
सुबह के समय तुम्हारी चाल थमी हुई-सी होती है। उस समय लगता है, कि तुम घुटुरुअन चल
रही हो। कोई भी तुम्हारे पास जा सकता है। सिर पर सूरज के चढ़ते-चढ़ते तुम्हारे
किनारों के रेतीले मैदानों में नमी पसरने लगती है। कई-कई जलधाराएँ उग आती हैं।
साँझ ढलते-ढलते तुम्हारी चाल बहुत तेज हो जाती है। तुम्हारे सहमे-सिकुड़े से
किनारे दूर-दूर तक फैल जाते हैं। रात के अँधेरों में भी तुम्हारी तेजी बनी ही रहती
है, और सुबह-सवेरे फिर वही वीतरागी मद्धिम चाल....। कहीं तुम्हारे नाम के पीछे
तुम्हारी चाल का असर तो नहीं है? अपने ‘ओक’ में, रिमो की गोद में ‘शयन’ कर रहीं
तुम आलसियों की तरह दिन चढ़ने पर जागती हो, और देर हो जाने की बदहवासी में तेजी से
दौड़ लगा देती हो। तुम्हारी दिन-भर की कलाएँ देखकर ही हमारे मन में ऐसे विचार आते
हैं। हो सकता है, दूसरे लोगों के मन में ऐसे विचार आते हों। ‘शय’ और ‘ओक’ के मिलन
से बनने वाले तुम्हारे नाम के पीछे भी यही विचार हो सकते हैं।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">वैसे यारकंदी लोग शयोक को इस नाम से नहीं जानते। उनके लिए
शयोक मौत की नदी है। दरअसल, काराकोरम की विकराल ऊँचाइयों से गुजरने वाले रेशम
मार्ग का सहायक मार्ग नुबरा घाटी से जुड़ा हुआ था। लेह को रेशम मार्ग से जोड़ने
वाले इस सहायक मार्ग की यात्रा करते समय यारकंदी व्यापारियों को लगभग बीस बार शयोक
नदी को पार करना<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>पड़ता था। गर्मियों में
तो इसे पार करना असंभव ही होता था, मगर सर्दियों में भी यह कम कठिन नहीं होता था।
अपनी आदत के हिसाब से शयोक एकदम तेजी के साथ बह पड़ती, और यारकंदी व्यापारियों के
कारवाँ में शामिल ऊँटों, घोड़ों, आदमियों तक को बहा ले जाती। शयोक के किनारे रहने
वाले लोग भी इससे कम डरे हुए नहीं हैं। आज तो तमाम साधन हैं, पुल हैं, सड़कें हैं;
लेकिन<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>गुजरे जमाने में लोग बेबसी को ढोते
थे, और वैकल्पिक रास्ते निकालते थे। शयोक के किनारे के कुछ पुराने गाँवों, जैसे
हुंदर, हुंदरी, देस्किद और उदमारू आदि के लोग चमरी मृग की खाल से ‘बिप्स’, यानि
चमड़े की नाव बनाते थे, और उसके सहारे अपनी जान को जोखिम में<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>डालकर शयोक को पार करते थे।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">भूरी-मटमैली रंग की इस मौत की नदी से नुबरा-शयोक घाटी के
लोगों की भी खासी नाराजगी है। जिस शयोक को जीवनदायिनी होना चाहिए, उसके विकराल रूप
से आहत लोग अपनी नाराजगी भी बड़ो रोचक अंदाज में व्यक्त करते हैं। आज भी किसी<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>बूढ़े-बुजर्ग से पूछिए, तो वे कहते हैं कि हम
खेती-किसानी के लिए शयोक का पानी लेना नहीं पसंद करते, क्योंकि शयोक हमें जीवन
देने वाली नहीं है। शयोक ने अपनी बाढ़ के उफान में कई बार हमारे तटबंधों की मिट्टी
बहाई है, हमारी फसलों और पेड़-पौधों को बहाया है। इतना ही नहीं, गाँव के गाँव
बहाकर आबादी को मिटाया है। इसलिए हमें शयोक का पानी अपनी फसलों में नहीं डालना है।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">ऐसा कहा जाता है कि बल्तिस्थान के यगबो राजवंश की राजधानी
काफलू में भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में शयोक नदी ने काफलू के चंगथंग इलाके को
पूरी तरह नष्ट कर दिया था। यह चंगथंग इलाका मंगोलियन तिब्बत से सटे चंगथंग के
लोगों का था, जो रेशम मार्ग में नमक का व्यापार किया करते थे। इस भीषण तबाही से
आक्रांत लोगों ने उस इलाके को ही छोड़ दिया। इनमें से कुछ लोग ‘छोरबत’ में बस गए
और कुछ लोग नुबरा घाटी से होते हुए लेह के निकट ‘छुशोद’ गाँव में आकर बस गए। छुशोद
में इन लोगों को ‘बल्ती’ के तौर पर जाना जाता है।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">वैसे शयोक ने केवल बल्तियों को ही विस्थापित नहीं किया,
वरन् अतीत के तमाम विस्थापनों को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों को देखा
है, जो इतिहास में आज भी अनजाने हैं, अनछुए और गुमनाम-से हैं। देश के विभाजन के
बाद कारगिल से सड़क मार्ग द्वारा स्करदो तक जाना संभव नहीं रहा। अविभाजित लदाख में
स्करदो की उतनी ही बड़ी भूमिका होती थी, जितनी लेह की..। डोगरा शासकों के समय में
लदाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो होती थी। सिंधु नद स्करदो से गुजरते हुए
केरिस के पास शयोक से मिलता है। केरिस के पास ही शिगर नदी भी सिंधु में मिलती है। यहाँ
त्रिवेणी बन जाती है, संगम बन जाता है। केरिस के निकट ही ऐतिहासिक काफलू शहर है।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">अतीत का एक लंबा कालखंड ऐसा भी रहा है, जब सिंधु और शयोक के
दोआब में दरद भाषा का व्यवहार हुआ करता था। कारगिल-खलच़े से लगाकर
स्करदो-गिलगित-हुंजा से होते हुए मंगोलियाई तिब्बत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा तक
विस्तृत दरदभाषी क्षेत्र अपने अतीत में दरद आर्यों का निवास स्थान रहा है। आज का
बल्तिस्थान अतीत में इसी दरद देश के अंतर्गत ही आता था। आज की धार्मिक-सांस्कृतिक
विविधताओं के बीच प्रजातिगत एकरूपता अतीत के गौरव की साक्षी है। इस दरद देश का
अतीत महाभारत काल से भी जुड़ा है। महाभारत के युद्ध में दरदों ने कौरवों की तरफ से
युद्ध किया था, जबकि किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध किया था। तिब्बती भोटभाषा
में किरातों को ‘मोन’ कहा जाता है। इन्हीं मोन लोगों के कारण लदाख का एक नाम
‘मोनयुल’, यानि मोन लोगों का इलाका भी है। सिंधु के तट पर ‘मोन’ या किरातों की, और
शयोक के तट पर दरदों की आबादी के सहारे सिंधु-शयोक का दोआब महाभारतकालीन राजनीतिक प्रसंगों
का साक्षी बना होगा।</span><span style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 28.0pt; line-height: 115%; mso-bidi-font-size: 26.0pt;"><o:p></o:p></span></p>
<p class="MsoNormal" style="margin-bottom: 6.0pt; margin-left: 0in; margin-right: 0in; margin-top: 6.0pt; text-align: justify; text-indent: .5in;"><span lang="HI" style="font-family: "Kokila","sans-serif"; font-size: 26.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 28.0pt;">शयोक तो मानव-सभ्यता के विकास की, हिमालय की निर्मिति की
साक्षी भी है। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ के तौर पर हम शयोक के
प्रवाह को जानते हैं। देश-दुनिया में प्रसिद्ध पङ्गोङ झील की निर्मिति भी शयोक के
प्रवाह के कारण हुई। किसी समय टेथिस सागर की लहरों को झेलने वाला शयोक का
प्रवाह-क्षेत्र आज भी परवर्ती जुरासिक काल के जीवों के चिन्हों को अपने में छिपाए
हुए है। सिंधु नद का अतीत भी इसी तरह परवर्ती जुरासिक काल से जुड़ा हुआ है। इस
कारण सिंधु और शयोक से मिलकर सिंधु-शयोक मेखला का निर्माण होता है। इसी कारण सिंधु
से मिलना ही शयोक की नियति बन जाती है। यह मिलन केरिस में होता है। सिंधु और शयोक
के साथ ही शिगर नदी भी केरिस में मिलती है। अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ केरिस ऐसा
संगम बन जाता है, ऐसा जीवंत प्रयाग बन जाता है, जहाँ अतीत के मानव के अस्तित्व का
पहला अध्याय लिखा जाता है। जहाँ सभ्यताओं के अस्तित्व और संघर्ष की गाथाएँ गुनी
जाती हैं। जहाँ धर्मों-रीतियों-नीतियों के टकराव दर्ज होते हैं। जहाँ भूरी-मटमैली
शयोक नदी सिंधु नद से मिलकर अपनी पूर्णता को पाती है, और न पढ़े गए इतिहास के तमाम
पन्नों को बाँचती है, उवाचती है। शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है..।<o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0in; text-align: right; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: Kokila, sans-serif;"><span style="font-size: 34.6667px;">डॉ. राहुल मिश्र</span></span></p><p class="MsoNormal" style="margin: 6pt 0in; text-align: center; text-indent: 0.5in;"><span style="font-family: Kokila, sans-serif;"><span style="font-size: 34.6667px;">(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी अमृतसर की पत्रिका 'बरोह' के दिसंबर, 2019 अंक में प्रकाशित)</span></span></p><b><span lang="HI" style="font-family: Tillana; font-size: 48.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 72.0pt;"></span></b><p></p>कही-अनकही-बतकहीhttp://www.blogger.com/profile/16467998459794814252noreply@blogger.com0Ladakh34.2996176 78.29317064.62729459348969 43.136920599999996 63.9719406065103 113.4494206