Friday 4 August 2017

भूमिका (कृष्णकाव्य के महाकवि : सूरदास)


भूमिका
किधौं  सूर  कौ  सर लग्यौ,  किधौं सूर की पीर ।
किधौं सूर को  पद लग्यौ,  तन मन धुनत सरीर ।।
कृष्णकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि सूरदास के संबंध में कथा प्रचलित है कि एक बार सूरदास और तानसेन की भेंट हो गई। तानसेन ने सूरदास द्वारा गाए जा रहे पद को तन्मयता के साथ सुना और एक सहृदय श्रोता का भावनात्मक-संवेदनात्मक जुड़ाव एक भक्तकवि से हो गया। कला के पारखी के लिए शील साँसों के उतार-चढ़ाव की तरह होता है और विनम्रता शरीर की भाँति। इसी कारण संगीत सम्राट तानसेन के अंतर्मन से पंक्तियाँ प्रस्फुटित हो उठीं। तानसेन कह उठे कि जब किसी तड़पते हुए व्यक्ति को देखता हूँ, तो लगता है कि शायद इसे किसी शूर (योद्धा) का बाण लग गया है अथवा इसे उदर-सूर (शूल) की बीमारी हो गई है या फिर निश्चित ही सूर का कोई पद इसके लग गया है। इसी कारण यह व्यक्ति तड़प रहा है। वस्तुतः यह तड़प संगीत सम्राट तानसेन की ही रही होगी, जो शब्दबद्ध होकर सूरदास की महिमा का गान करने लगी। सूरदास भी कला के पक्के पारखी थे, इसी कारण अकबर के नवरत्न तानसेन की वाणी को सुनकर तुरंत ही कह उठे-
बिधना यह जियँ जानि कै, सेसहि दिये न कान ।
धरा मेरु  सब  डोलि हैं,   तानसेन   की   तान ।।
भक्तकवि सूरदास कह उठते हैं कि विधाता ने यह जान-समझकर शेषनाग को कान नहीं दिए हैं कि यदि तानसेन के गाने को, तानसेन की तान को शेषनाग सुन लेगा; तो उसके थिरक उठने से धरती और मेरु पर्वत, सभी डोलने लगेंगे।
सूर के पदों में गुँथे हुए संगीतशास्त्र के कोमल तंतुओं ने संगीत सम्राट तानसेन को ऐसा कसकर बाँध लिया कि तानसेन के मुख से बरबस ही सूर के पद निकल पड़ते थे। ऐसे ही एक बार अकबर के सामने तानसेन सूरदास का एक पद गा उठे। बादशाह उस पद की सरसता पर मोहित हो गए। उस पद को सुनकर अकबर ने सूरदास से मिलने की इच्छा प्रकट कर दी। तानसेन ने सूरदास से अकबर की भेंट करा दी। अकबर की सहृदयता से प्रभावित होकर सूरदास ने एक पद अकबर को सुनाया। अकबर ने पद सुनने के बाद कहा कि जिस तरह कृष्ण के यश को गाया है, उसी तरह मेरे भी यश को गाएँ। इस पर सूरदास गाने लगे कि मेरे हृदय में तो केवल नंदनंदन ही बसे हैं और इस कारण मेरे हृदय में किसी दूसरे के बसने का स्थान ही नहीं है। तब मैं आपका यश कैसे गाऊँ?
नाहिन रह्यो हिय महँ ठौर । नंदनंदन अछत आनिए डर और ।।
‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में अकबर और सूरदास की भेंट का वर्णन मिलता है। इसमें गोसाईं हरिराय उल्लेख करते हैं कि यह भेंट तानसेन ने संवत् 1633 (सन् 1576 ई.) के आसपास कराई थी। कई विद्वान इस घटना की सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। भले ही यह घटना ऐतिहासिक न हो, मगर लोकपरंपरा में प्रचलित इस किंवदंती पर पूरी तरह से अविश्वास कर लेना भी उचित नहीं है। यहाँ प्रश्न इस घटना की सत्यता को जाँचने का नहीं है, प्रत्युत् इसके माध्यम से कृष्णकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि सूरदास के कृतित्व और व्यक्तित्व की महानता को देख लेने का है।
सूरदास के प्रति तानसेन का निर्मल-पवित्र अनुराग, तानसेन की सूरदास के प्रति विनम्रता और आस्था ही उस कारण को जन्म दे सकी, जिससे सूरदास ने तानसेन के संदर्भ में ‘नाहिन रह्यौ हिय महँ ठौर’ नहीं कहा, वरन् शेषनाग को भी नचा देने वाली तान छेड़ने वाले संगीत-साधक तानसेन कहकर महिमामंडित कर दिया। यह प्रीति, यह जुड़ाव भय के कारण नहीं, वरन् आत्मीय संबंध के कारण है, जो आत्मा के काव्य के साथ आत्मा के संगीत को जोड़ता है। सूरदास आत्मा की बात को आत्मा से कहने वाले ऐसे विरले कवि हैं, जो अंतर्मन की गहराई में उतरकर शब्दों को जिह्वा तक लाते हैं और वीणा की सुरीली-मधुर झनकार के साथ मिलाकर एक ओर बाह्यजगत् को उद्वेलित कर देते हैं, तो दूसरी ओर अंतर्मन के तारों को झंकृत करके बुद्धि को निर्मल और प्राण को पुलकित कर देते हैं। अंतर्मन से बाह्यजगत् तक की यह वृत्ताकार गति उस मोक्ष तक पहुँचा देती है, जिसकी प्राप्ति की कामना साधारण मानव से लेकर साधक तक को होती है।
कृष्णकाव्य परंपरा का विस्तार लगभग सारे देश में रहा है और विभिन्न संप्रदायों के भक्तकवियों ने कृष्णकाव्य परंपरा को समृद्ध किया है। वल्लभ संप्रदाय (श्री वल्लभाचार्य, तेलुगु), चैतन्य संप्रदाय (चैतन्य महाप्रभु, नवद्वीप, बंगाल) और राधावल्लभ संप्रदाय (श्री हित हरिवंश) का आश्रय लेकर कृष्णकाव्य परंपरा विकसित हुई। उस समय बने नैराश्य के वातावरण के कारण बहुसंख्य जनता में जीवन के प्रति जागृत हो गई विरक्ति को नष्ट करके जीवन के प्रति अनुराग जगाने का काम इस पंरपरा के कृष्णभक्त कवियों ने किया। सूरदास इस परंपरा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं, किंतु सूरदास ने एकदम अलग ही रास्ता बनाया, जहाँ ब्रजभाषा में कृष्ण-भक्ति, काव्य और संगीत की त्रिवेणी का दर्शन होता है; जहाँ प्रेम, भक्ति और अध्यात्म एक-दूसरे से मिल जाते हैं और आराधक-आराध्य का भेद भी नहीं रह जाता है।
सूर की एक अन्य विशिष्टता है- गृहस्थ जीवन और परिवार के चित्रों को उकेरना। रामायण और महाभारत के केंद्र में भी परिवार हैं। वहाँ राजपरिवारों के संघर्ष का यथातथ्य चित्रण क्रमशः नीति-नैतिकताओं और मर्यादों को विश्लेषित करता है। परिवार सूरदास के मुक्तक पदों में भी है, मगर वह सामान्य किसान का परिवार है। वहाँ नंद, यशोदा, कृष्ण और बलराम हैं। वहाँ परिवार के साथ जीवनधारा बनकर चलता गौवंश है, नेह-प्रेम में डूबे हुए गोप हैं, गोपियाँ हैं और राधिकाजी हैं। वहाँ परिवार के संघर्ष नहीं, आस-पड़ोस के झगड़े-टंटे नहीं, वरन् कन्हैया की बाललीलाएँ हैं, खेल हैं, हँसी-ठिठोलियाँ हैं, रार-मनुहार हैं और भोले-भाले-से ताने-उलाहने हैं। आगे चलकर वियोग के पक्ष के साथ सूरदास उतने ही ज्यादा दार्शनिक हो जाते हैं; जितना बचपना, जितनी खिलखिलाहट वे कृष्ण के बचपन की बिखेरते हैं। परिवार के माध्यम से चलते हुए तब ऐसा प्रतीत होता है, मानों वे एक छोटे-से परिवार के प्रति अपने दायित्व को निभाते हुए किसी बड़े परिवार की जिम्मेदारी को निभाने में लग गए हों- निर्गुनिया, निरंजनी, नाथपंथी साधुओं और आक्रांताओं के धर्म से भागवत-भक्ति को बचाने की। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग को अपनी वीणा की सुरीली और मधुर झंकार से प्रसृत करके सूरदास ने जिस तरह सगुणोपासना के मार्ग को प्रशस्त किया है, वह अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है।
एक प्रसंग आता है, गोस्वामी गोकुलनाथ द्वारा रचित चौरासी वैष्णवन की वार्ता में; कि एक बार महाप्रभु वल्लभाचार्य मथुरा के गऊघाट में कुछ दिनों के लिए टिके थे। वहीं पर सूरदास का निवास भी था। सूरदास को जब वल्लभाचार्य जी के आगमन का पता चला, तो वे मिलने पहुँच गए। उस समय वल्लभाचार्य जी भोजन ग्रहण करके गद्दी में विराजमान थे। वल्लभाचार्य जी ने भी सूरदास की प्रशंसा सुन रखी थी, इस कारण उन्होंने कोई पद गाने के लिए कहा। सूरदास ने ‘हरि हौं सब पतितन कौ नायक...’ गाया। बाद में ऐसे ही कुछ अन्य भजन भी सुनाए। सूरदास के पद सुनकर वल्लभाचार्य जी ने कहा कि- ‘सूर ह्वै कै ऐसों घिघियात काहै कों हौं, कछू भगवत्-लीला वर्णन करि।’ सूरदास ने इस पर अपनी अज्ञानता प्रकट की। उसी समय महाप्रभु ने उन्हें दीक्षित करके श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध का प्रवचन दिया। इसके बाद दास्यभाव को तजकर सूरदास सख्यभाव के, वात्सल्य-भाव के पद रचने लगे। तुलसीदास की भक्ति दास्यभाव वाली है। उपास्य और उपासक के मध्य जितनी रिक्तता तुलसी की रचनाओं में मिलती है, उतनी ही सघनता उपास्य और उपासक के बीच सूरदास के पदों में मिलती है। सख्यभाव और वात्सल्य-भाव सूरदास को जितना आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न बनाते हैं, उतना अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। इसी कारण लोकव्यवहार में प्रचलित है कि-
तत्त्व तत्त्व  सूरा  कही,  तुलसी  कही  अनूठी ।
बची-खुची कबिरा कही, और कही सो जूठी ।।
आत्मा के काव्य के सर्जक, लोक-रंजना के आराधक और काव्याकाश में सूर्य की भाँति अपने अध्यात्म के प्रकाश से आलोकित होने वाले भक्तकवि सूरदास की ख्याति भौगौलिक बंधनों और काल की सीमाओं से परे है। उनकी सर्जना हर युग में, प्रत्येक कालखंड में जीवन जीने की ऊर्जा देने वाली है और जीवन की नकारात्मक शक्तियों को पराजित करने की सामर्थ्य भी रखती है। आज के जटिल जीवन में भक्तकवि सूरदास का स्मरण इसी कारण प्रासंगिक है। साहित्य की विविध धाराओं और नवसृजित विषयों-चिंतनधाराओं-वैचारिकताओं के बीच सूरदास को स्मरण कराने का यह प्रयास निश्चित रूप से आध्यात्मिक प्रेरणा के कारण ही संभव हो सकता है, और इस हेतु पुस्तक के संपादक डॉ. अशोक मर्डे अशेष साधुवाद के पात्र हैं। हिंदी की सेवा के लिए उनका यह अवदान कभी विस्मृत नहीं होगा।  
डॉ. राहुल मिश्र

(कृष्णकाव्य के महाकवि : सूरदास, संपादक- डॉ. अशोक मर्डे, प्रकाशक- शिल्पा प्रकाशन, शिव-कांची, बिदर रोड, उदगीर- 413 517 की भूमिका)

Monday 26 June 2017

अनौपचारिक जनसंचार माध्यम के रूप में नाटक मंडलियाँ : एक अध्ययन


अनौपचारिक जनसंचार माध्यम के रूप में नाटक मंडलियाँ : एक अध्ययन

एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक अर्थपूर्ण संदेशों का संप्रेषण ही जनसंचार होता है। (डेनिस मेकबेल)
विशेषीकृत समूहों द्वारा तकनीकी साधनों- प्रेस, रेडियो, टेलिविज़न, फिल्म आदि के द्वारा व्यापक असमरूप और बिखरे हुए श्रोताओं, दर्शकों तक संकेतों का प्रसार ही जनसंचार है। (जैने बिट्ज)
इस प्रकार जनसंचार को एक विस्तृत प्रक्रिया कहा जा सकता है। संचरण की प्रक्रिया समस्त प्राणियों में होती है, मगर मनुष्य के लिए यह एक विशिष्ट प्रक्रिया है, क्योंकि उसने अपनी क्षमताओं और बुद्धि-बल के विस्तार द्वारा इस प्रक्रिया को अन्य जीवधारियों की संचरण की प्रक्रिया से श्रेष्ठ और विशिष्ट बनाया है। सामान्य रूप से संचरण के अंतर्गत व्यवहार, संपर्क और परस्पर आदान-प्रदान को रखा जाता है। व्यवहार, संपर्क और परस्पर आदान-प्रदान की प्रक्रियाएँ व्यापक जनसमुदाय के साथ जुड़कर जनसंचार कहलाने लगती हैं। संचार के साथ ‘जन’ का जुड़ जाना इसके व्यापक अर्थों को प्रकट करता है और इसकी एक विशिष्ट प्रवृत्ति को प्रकट करता है। इसे स्पष्ट करते हुए डॉ. राजेंद्र मिश्र लिखते हैं कि-  जनसंचार की अपनी विशेषताएँ होती हैं। सामाजिक परिवर्तन की जटिल प्रक्रिया को अंकित करना इसके केंद्र में होता है। मार्क्स ने भी कहा है कि समाज में परिवर्तन का कारण अधिकतर आर्थिक होता है। यही कारण है कि औद्योगिक क्रांति के बाद सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी सामने आई है। समाज में ये परिवर्तन आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार के होते हैं। जनसंचार की इसमें व्यापक भूमिका भी होती है। जनसंचार किसी भी उन्नत समाज की लंबी सांस्कृतिक परंपरा को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।1 इस प्रकार जनसंचार अपने विशिष्ट अर्थों में समाज, संस्कृति, मानव-विकास और मानव-जीवन से संबद्ध है।
‘मॉस मीडिया इन मॉडर्न सोसायटी’, पिटरसन और जैक्सन की प्रमुख पुस्तक है, जिसमें जनसंचार की पाँच विशेषताएँ बताई गई हैं-
1.   जनसंचार एकतरफा होता है, जिसमें संदेश स्रोत से संग्राहक की ओर और संग्राहक से स्रोत की ओर प्रवाहित होते हैं और इसका फीडबैक लिया जाता है।
2.   इसमें चयन की दोहरी प्रक्रिया होती है। एक ओर तो जन-माध्यम के रूप में सभी लोग इसके संग्राहक होते हैं और यह तय करना पड़ता है कि उन्हें किस रूप में संदेश दिया जा सकता है। इस तरह जनसंचार अपने संग्राहकों का चयन करता है।
3.   जनसंचार के विकसित माध्यम के कारण समाचार पत्रों को तुरंत समाचार और फोटो पहुँच जाते हैं, जिन्हें प्रकाशित किया जाता है। यह एक तीव्र प्रक्रिया है।
4.   जनसंचार संप्रेषित संदेशों को बड़ी संख्या में लोगों को ग्रहण कराता है।
5.   जनसंचार सामाजिक संस्थान की तरह है और वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।2
इन विशिष्टताओं से युक्त जनसंचार जिन माध्यमों के द्वारा संपन्न होता है, वे जनसंचार माध्यम कहलाते हैं। आज के तकनीकी और वैज्ञानिक युग में जिस प्रकार जनसंचार का अपना विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ है, उसी प्रकार जनसंचार माध्यमों की भी अपनी विशिष्ट परिभाषा है। अपने विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में जनसंचार माध्यमों को अलग-अलग वर्गों के द्वारा जाना जाता है। इसमें शब्द-संचार माध्यम अथवा मुद्रण माध्यम के अंतर्गत समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, पुस्तकें आदि आती हैं। श्रव्य-संचार माध्यम के अंतर्गत रेडियो, ऑडियो कैसेट्स आदि आते हैं। दृश्य-संचार माध्यमों के अंतर्गत टेलिविज़न, वीडियो कैसेट्स, फिल्म आदि का उल्लेख किया जा सकता है। नव-इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के अंतर्गत उपग्रह प्रणाली और कंप्यूटर, इंटरनेट आदि को रखा जा सकता है। अपने रूढ़ और पारिभाषिक अर्थों में इन्हीं जनसंचार माध्यमों का अध्ययन किया जाता है।
पिटरसन और जैक्सन द्वारा बताई गई जनसंचार की विशेषताओं के आधार पर आधुनिक सूचना और संचार की तकनीकों का अनुशीलन किया जाता है। इन तकनीकों के प्रचलन से पहले के कालखंड पर विचार करने पर नाटक मंडलियों या रंगमंच के रूप में जनसंचार के अनौपचारिक माध्यम की रोमांचकारी उपस्थिति अनुभूत होती है। पिटरसन और जैक्सन द्वारा बताई गई विशेषताएँ जनसंचार के इस अनौपचारिक माध्यम में भी कमोबेश देखी जा सकती हैं। इसी कारण नाटक मंडलियों को अनौपचारिक जनसंचार माध्यम माना जा सकता है। इन्हें अंतर-वैयक्तिक संचार माध्यम भी कहा जाता है, क्योंकि इनमें संचार बिना किसी यांत्रिक उपकरण की मध्यस्थता के, आमने-सामने होता है।3
नाट्य-परंपरा आदिम मानव के सभ्य होने की कथा को भी व्याख्यायित करती है। इसे बताते हुए रघुवरदयाल वार्ष्णेय लिखते हैं कि- बड़े-बड़े कारखानों, छोटे-छोटे लघु उद्योग धंधों और खेतों में दिनभर कड़ी मेहनत करके उत्पादन करने में व्यस्त रहता हुआ आदमी जब रात्रि को अवकाश पाता था, तब थकान मिटाने के लिए नाटक, वृत्त और नृत्य प्रदर्शन द्वारा अपना मनोरंजन करता था। इसी सर्वव्यापकता और सार्वभौमिकता के कारण ही विलास और ऐश्वर्य में डूबे इंद्र ने नाट्यवेद को ग्रहण करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी और सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि भरत ने अपने सौ पुत्रों सहित इसे लोककल्याण के लिए धारण किया था और इसमें केवल भारती, सात्वती और आरभटी वृत्तियों को साकार किया था, जो उस समय की मेहनतकश जातियों की प्रवृत्ति थी, क्योंकि इन वृत्तियों का संबंध भरत, सत्वत और अरभट जातियों से था। ये जातियाँ आर्टीजन क्लास की थीं और आम आदमी का जीवन जीती थीं।4
इस प्रकार नाट्य-शास्त्र और नाट्य परंपरा की उत्पत्ति व विकास आदिम मानव के सभ्य होते जाने की, उसके विचारवान होते जाने की प्रवृत्तियों का द्योतक भी है और आदिम मानव के संघर्षों में उसके साथ संलग्न रहने की स्थितियों को भी प्रकट करता है। अलग-अलग कालखंडों में नाट्य-परंपरा भले ही मनोरंजन की भूमिका को कम या ज्यादा निभाती रही हो, मगर उसका घनिष्ठ और सीधा संबंध लोक-हित से रहा है, लोक की जागृत चेतना से रहा है। इसी कारण नाट्य-परंपरा की संवाहक नाटक मंडलियों को जनसंचार के अनौपचारिक माध्यम या अंतर-वैयक्तिक संचार माध्यम की श्रेणी में रखा जा सकता है।
औपनिवेशिक भारत में नाट्य-मंडलियों को सर्वथा नवीन भूमिका में देखा जा सकता है। हिंदी नाट्य-विधा को नए कलेवर के साथ स्थापित करने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र से पूर्व नाट्य-विधा और इसके मंचन की परंपरा शिष्ट साहित्य और अभिजात्य वर्ग, दोनों के लिए अछूत जैसी ही थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ जुड़ा हुआ यह सर्वथा विलक्षण पक्ष है कि उन्होंने बड़ी शालीनता के साथ नाट्यशास्त्र के जटिल और रूढ़ बंधनों को तोड़कर नाट्य-मंडलियों को जन-जागरण का सशक्त हथियार बनाया। वे नयी नाट्य-परंपरा, अलग नाट्य-शिल्प और रंगमंच की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत भी रहे और थियेटर्स की बँधी-बँधाई परिधि को तोड़कर समाज के करीब लाने के लिए प्रयासरत भी रहे। भारतेंदु हरिश्चंद्र के लिए इस अभिनव प्रयोग की जमीन तत्कालीन नाटक मंडलियों ने ही तैयार की थी, जिन्हें शिष्ट और संभ्रांत वर्ग में हेय दृष्टि से देखा जाता था। भारतेंदु हरिश्चंद्र स्वयं पारसी नाटक मंडली द्वारा अभिनीत शकुंतला नाटक में दुष्यंत और शकुंतला के फूहड़ प्रदर्शन को देखकर विचलित हो उठे थे। इस तरह नाटक मंडलियों के दो अलग-अलग रूप उस दौर में दिखाई पड़ते हैं। एक को स्तरहीन और फूहड़ कहा जाता था, और दूसरा शुद्धतावाद से पूर्ण माना जाता था। गुलाम भारत में एक वर्ग और भी था, जहाँ विक्टोरियन शैली के नाटक खेले जाते थे। यहाँ इस तीसरे वर्ग की विवेचना अपेक्षित नहीं है, क्योंकि इस वर्ग का संबंध सीधे अंग्रेज अधिकारियों एवं कर्मचारियों से, और अंग्रेजी में मंचन किए जाने वाले नाटकों से है।
अव्यवसायी नाटक मंडलियों की शुरुआत सन् 1898 में प्रयाग में ‘श्रीरामलीला नाटक मंडली’ की स्थापना के साथ होती है। इस मंडली का प्रमुख उद्देश्य था- रामलीला प्रसंग से वर्तमान राजनीति की आलोचना करना। इस मंडली ने सबसे पहला नाटक पं. माधव शुक्ल कृत ‘सीता स्वयंवर’ अभिनीत किया।5 इस नाटक में कविता के माध्यम से वीर भारतीय युवकों को उनके पराक्रमहीन होने पर लताड़ते हुए उनके अंदर जोश जगाने का काम किया गया था। अनेक उतार-चढ़ावों के बीच कई अव्यावसायिक नाटक मंडलियों की स्थापना होती रही, ये मंडलियाँ भंग होती रहीं और नई-नई मंडलियाँ बनती रहीं। इन सबके बीच भारतेंदु नाटक मंडली, काशी नागरी नाटक मंडली, हिंदी नाट्य मंडली, रंगवाणी- प्रयाग, आदर्श कला मंदिर- प्रयाग, इप्टा, भारतीय नाट्य संघ, हिंदू यूनियन क्लब, श्री भारत मनोरंजनी सभा और हिंदी नाटक समाज- आगरा जैसी अनेक अव्यवसायी नाटक मंडलियों का एकमात्र उद्देश्य सामाजिक समस्याओं, कुप्रथाओं और कुरीतियों के खिलाफ जन-जागरण के साथ ही भारतीय नवजागरण के लिए, अंग्रेजों के खिलाफ जन-जागरूकता के लिए कार्य करना था। जनसंचार के अनौपचारिक माध्यम के रूप में इसी कारण तमाम अव्यवसायी नाटक मंडलियों का उल्लेखनीय योगदान माना जा सकता है।
अव्यवसायी नाटक मंडलियों ने व्यावसायिक नाटक मंडलियों को भी प्रभावित किया। अंग्रेजों के साथ भारतीय अभिजात्य वर्ग में लोकप्रिय ‘विक्टोरियन शैली’ के नाटकों से प्रेरित होकर पारसी व्यापारियों ने एकदम अलग किस्म की नाटक मंडलियों को स्थापित किया। व्यावसायिक दृष्टिकोण से स्थापित किये गए इन पारसी रंगमंचों में भारतीय संस्कार और भारतीय लोक-कला के, लोक-संगीत के अंश शामिल थे। इनका पहला उद्देश्य धन कमाना था, मगर बाद में बदलते सामाजिक स्वरूप को, नवजागरण की स्थितियों को, और लोगों के रुझान को आत्मसात् करते हुए ये नाटक मंडलियाँ सामाजिक संदर्भों से, सामयिक अनिवार्यताओं से जुड़ने लगीं। यह बदलाव अव्यवसायी नाटक मंडलियों के प्रभाव से भी आया। इस काल के नाटककार एक साथ तीन परिदृश्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करने में पूर्ण सफल हो रहे थे- अंग्रेजी राज्य के अत्याचार, भारतीयों में जागृति और गांधी, गोखले, तिलक आदि के व्यक्तित्व की झलक। ये सब पौराणिक कथाओं के बीच से व्यक्त किया जाता था।6
पारसी रंगमंच में आए इस बदलाव को नारायणप्रसाद बेताब, आगा हश्र कश्मीरी और राधेश्याम कथावाचक की त्रयी के आगमन के साथ खुलकर देखा जा सकता है। मारधाड़, जादू-टोना, रहस्य-रोमांच की प्रस्तुति से निकलकर भारतीय समाज की आजादी की छटपटाहट को  पारसी रंगमंच ने समझा और अपने सामाजिक दायित्व को निभाने के लिए स्वयं आगे भी आया। देश-भर में भ्रमण करने वाली और वर्ष-पर्यंत अपनी नाट्य-प्रस्तुतियाँ देने वाली पारसी नाटक मंडलियों ने जब इस दायित्व को संभाला, तब समाज में इसके प्रभाव भी परिलक्षित होने लगे। राधेश्याम कथावाचक पारसी रंगमंच के इसी प्रभाव का रोचक वर्णन करते हुए अपने एक संस्मरण में लिखते हैं कि- काशी में हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु धन-संग्रह अभियान चल रहा था। इस अभियान के तहत महामना मदनमोहन मालवीय, दरभंगा नरेश, शिवप्रसाद गुप्त और दीनदयालु शर्मा के साथ कई गणमान्य व्यक्ति बरेली पहुँचे। इस अभियान के लिए राधेश्याम कथावाचक ने आठ-दस गीत लिखे। इन गीतों को गाया गया और गीतों से प्रभावित होकर बरेली की जनता ने  कई हजार रुपये दान में दिये।7 उनके द्वारा लिखा गया एक गीत निम्न है-
हिलमिल करो जाति-उद्धार, भाइयो समय न बारम्बार ।
कोटिपती दें लक्ष-लक्ष, लखपती हज़ार-हज़ार ।
मध्यम श्रेणी देंय सैकड़ों, निर्धन के दो-चार।
हमें दो पैसे भी स्वीकार- भाइयो, समय न बारम्बार-
विक्टोरिया नाटक मंडली उस समय की प्रसिद्ध पारसी नाटक मंडली थी। यह नाटक मंडली प्रायः समाज-हित के कार्यों हेतु धन-संग्रह करने के लिए नाटकों के मंचन किया करती थी। इसके साथ ही धर्मार्थ-कार्यों हेतु मुफ्त में भी मंचन किया करती थी।8  पारसी नाटक मंडलियाँ धर्मार्थ-कार्यों में सहयोग के लिए जितना तत्पर रहती थीं, उतनी ही सक्रियता सामाजिक आंदोलनों में, नवजागरण में भी होती थी। इसके उदाहरण कई नाटकों में देखने को मिलते हैं। अंग्रेज हुक्मरानों की पैनी नज़र से स्वयं को बचाते हुए नाटक मंडलियों के कलाकार और लेखक सामाजिक प्रश्नों को दर्शकों के सामने रख देते थे। मनोरंजन के माध्यम से जन-जागरण के संदेशों का प्रसारण इन नाटक मंडलियों का अनूठा और सुखद पक्ष बन गया था। इसी संबंध में गरीब हिंदुस्तान उर्फ़ स्वदेशी तहरीक नामक पारसी नाटक का उल्लेख किया जा सकता है, जिसमें स्वदेशी आंदोलन के साथ ही स्त्री-शिक्षा की नसीहत को बड़ी कुशलता के साथ पेश किया गया है। इस नाटक के एक गीत के बोल हैं-

जो चाहो ज़िंदगी  अब  भी  खरीदो अपनी चीजों को ।
हुनर सिखलाओ घर के जाहिलों को बदतमीजों को ।।
पढ़ाओ इल्म अपनी  बीवियों को और  कनीज़ों को ।।9
इस प्रकार पारसी नाटक मंडलियाँ जनसंचार के अनौपचारिक या अंतर-वैयक्तिक माध्यम के रूप में न केवल सक्रिय रही हैं, वरन् जनसंचार माध्यमों के उद्देश्यों को पूर्ण करने का कार्य भी करती रहीं हैं। जिस प्रकार शिष्ट-साहित्य और लोक-साहित्य की विविध विधाएँ अपने सामाजिक दायित्व को निभाती रहीं हैं, उसी प्रकार पारसी नाटक मंडलियों ने भी अपनी जिम्मेदारी को निभाया है। इसके बावजूद पारसी नाटक मंडलियाँ उस सम्मान को नहीं पा सकीं, जिसकी वे हकदार थीं। साहित्य के इतिहासकारों ने नाटकों की इस विस्तृत दुनिया को असाहित्यिक कहकर उसकी उपेक्षा की तथा हिंदी रंगमंच के इस लोकप्रिय विधान को नाटक के तत्त्वों से रहित बताया। परंतु बात ऐसी नहीं है। पारसी रंगमंच के नाटकों ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास तथा उसकी समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इनका तथ्यात्मक मूल्यांकन इतिहास की सुरक्षा की दृष्टि से तो आवश्यक है ही, इस कालखंड की नाट्य-विषयक गतिविधियों से परिचित होने के लिए भी आवश्यक है।10 शुद्धतावादियों और परंपरावादियों के लिए जनसंचार माध्यम के रूप में व्यावसायिक या अव्यावसायिक नाटक मंडलियों को स्वीकार करना सहज नहीं रहा है। आधुनिकताबोध ने इस दृष्टि को भी बदला है। इसके लिए लक्ष्मेंद्र चोपड़ा के कथन पर विचार करना होगा। वे लिखते हैं कि- लोक माध्यम या फ़ोक मीडिया मूलतः ऐसे माध्यम हैं, जिनका प्रत्यक्ष संबंध पंरपरागत संस्कृति से है। सामाजिक संदर्भ में संस्कृति पर विचार करते हुए रेमंड विलियम्स ने संस्कृति को सार्थकता की ऐसी व्यवस्था कहा है, जिसके माध्यम से सामाजिक व्यवस्था का अनुभव, संप्रेषण, पुनरुत्पादन और अनुसंधान संभव होता है। ये पारंपरिक लोक-माध्यम संदियों से संदेशों का संचार कर रहे हैं। लोकनाट्य, लोकगीत, लोकनृत्य, तथा मौखिक लोकसाहित्य जैसे पारंपरिक लोक-माध्यम तथा आज के इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यमों के समन्वित प्रयोगों से विकासशील देशों में विकास संचार के क्षेत्र में अभिनव सफलता प्राप्त हुई है।11
सिनेमा और नुक्कड़ नाटक जैसी विधाएँ पारसी रंगमंच से अपना जीवन पाई हैं। ये विधाएँ जनसंचार माध्यम के रूप में आज जितनी प्रभावी और समर्थ हैं, उतनी ही सामर्थ्य इन विधाओं को जन्म देने वाली नाटक मंडलियों में भी है। सूचना-संचार क्रांति के इस दौर में नाटक मंडलियों को उनकी नवीन भूमिका में देखना होगा और उनसे रस-संचय करके आधुनिक जनसंचार माध्यमों को समृद्ध करना होगा।
संदर्भ-
1.   डॉ. राजेंद्र मिश्र, जनसंचार माध्यम, प्रयोजनमूलक हिंदी और जनसंचार, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2010, पृ. 28,2.   वही, पृ. 266,3.   लक्ष्मेंद्र चोपड़ा, संचार का अर्थ व प्रक्रिया, जनसंचार का समाजशास्त्र, आधार प्रकाशन, पंचकूला, प्रथम सं. 2002, पृ. 31-32,4.   रघुवरदयाल वार्ष्णेय, रंगमंच की भूमिका और हिंदी नाटक, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1979, पृ. 94,5.   रघुवरदयाल वार्ष्णेय, अव्यवसायी रंगमंच, रंगमंच की भूमिका और हिंदी नाटक, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1979, पृ. 284,6.   रघुवरदयाल वार्ष्णेय, पारसी रंगमंच, रंगमंच की भूमिका और हिंदी नाटक, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1979, पृ. 276,7.   पं. राधेश्याम कथावाचक, तरुणावस्था (पूर्वार्द्ध), मेरा नाटक-काल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2004, पृ. 43,8.   सोमनाथ गुप्त, पारसी नाटक मंडलियाँ, पारसी थियेटर : उद्भव और विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1981, पृ. 116-117,9.   सोमनाथ गुप्त, पारसी रंगमंच के कुछ उर्दू नाटककार, पारसी थियेटर : उद्भव और विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1981, पृ. 59,10.   भवानीलाल भारतीय, सिनेमा पूर्व का रंगमंचीय परिदृश्य, बॉलीवुडनामा, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 2011, पृ. 203,11.   लक्ष्मेंद्र चोपड़ा, जनसंचार माध्यम : सामाजिक अवधारणा, कार्य व सिद्धांत, जनसंचार का समाजशास्त्र, आधार प्रकाशन, पंचकूला, प्रथम सं. 2002, पृ. 40-41 ।
डॉ. राहुल मिश्र

(कला, विज्ञान वाणिज्य महाविद्यालय, मनमाड (महाराष्ट्र) में आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद- 2016 हेतु प्रस्तुत शोध-पत्र)

Friday 2 June 2017

मड़फा दुर्ग : जहाँ कथाएँ आज भी जिंदा हैं




मड़फा दुर्ग : जहाँ कथाएँ आज भी जिंदा हैं

बुंदेलखंड का विंध्य अंचल अपने अतीत से ही अनेक पुरा-कथाओं और मिथकों का केंद्र रहा है। यहाँ कण-कण में ऐसी रोमांचकारी कथाएँ बसी हैं, जो आज भी लोगों को आश्चर्य में भी डाल देती हैं और अपने आकर्षण में जकड़ भी लेती हैं। बाँदा जनपद के कालंजर दुर्ग के माहात्म्य को जानने वाले इतना अवश्य जानते होंगे की शैव-साधना का यह केंद्र एक रात में ही बनकर तैयार हो गया था। देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा ने कालंजर के दुर्ग को एक रात में ही बना दिया था, ऐसी मान्यता है। कालंजर के साथ ही कालंजर के पूर्वोत्तर की ओर लगभग सोलह मील दूर मड़फा का दुर्ग भी उसी रात बनना शुरू हुआ था, जिस रात कालंजर का निर्माण हो रहा था। ऐसी मान्यता है कि विश्वकर्मा जी ने पहले कालंजर का दुर्ग बनाया और उसके तैयार हो जाने के बाद मड़फा के दुर्ग को बनाने का काम शुरू किया। रात बीत गई और मड़फा दुर्ग के पूरी तरह से नहीं बन पाने के कारण यह अधूरा ही रह गया। और वास्तव में यह दुर्ग कभी पूरी तरह से नहीं बन पाया। लोक-जीवन में जीवित यह कथा आज भी मड़फा की वीरानियों में गूँजती है। मड़फा दुर्ग का यह अधूरापन आज भी महसूस किया जा सकता है। इसकी वीरानियों में गुलज़ार होने की कसक आज भी महसूस होती है और इसी कारण बरबस ही लगता है कि यदि यह दुर्ग अधूरा न होता, तो शायद कालंजर से भी सुंदर, मोहक और आकर्षक होता। छत्रपति शिवाजी महाराज के शिवनेरी दुर्ग की भाँति अगम्य ऊँचाई में बना यह दुर्ग इतना समर्थ होता, कि कभी कोई आक्रांता इसे जीत नहीं पाता। वैसे भी इस दुर्ग को अजेय ही कहा जा सकता है, क्योंकि सन् 1780 में छछरिहा के युद्ध के पहले तक इस दुर्ग को जीतने में कोई सफल नहीं हो सका था। पन्ना के बघेल राजा हरिवंश राय और बाँदा के नवाब के बीच हुए छछरिहा के संग्राम के बाद यह दुर्ग अपना अस्तित्व खोता गया।
ऐसी मान्यता है कि महर्षि अर्थवर्ण का आश्रम मड़फा में ही था। महर्षि महाअर्थवर्ण को अथर्वा के नाम से भी जाना जाता है और उनके कारण ही चतुर्थ वेद के रूप में अथर्ववेद को जाना जाता है। महर्षि अथर्वा की पहचान महर्षि वेदव्यास के श्वसुर के रूप में, और इसी कारण मड़फा को वेदव्यास की ससुराल के रूप में भी जानते हैं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी पुस्तक ‘कृष्ण द्वैपायन व्यास’ में उल्लेख किया है कि एक बार महर्षि वेदव्यास अपनी माता सत्यवती से मिलने के लिए हस्तिनापुर (वर्तमान- ग्राम हस्तम, जनपद बाँदा) जा रहे थे। रास्ते में वाग्मती नदी (वर्तमान- बागे नदी, बदौसा, बाँदा) के पास कुछ अज्ञात लोगों ने उन्हें पकड़कर मारपीट शुरू कर दी, जिस कारण वेदव्यास बेहोश हो गए। वहाँ से गुजरते हुए महाअर्थर्वण के शिष्यों ने महर्षि व्यास की दयनीय दशा को देखा और उन्हें उठाकर महाअर्थवर्ण के आश्रम में ले आए। महाअर्थवर्ण की पुत्री वाटिका ने बड़ी लगन के साथ महर्षि व्यास की सेवा-सुश्रुषा की। बाद में महर्षि व्यास ने वाटिका से विवाह कर लिया और उनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे व्यासपुत्र सुखदेव के नाम से जाना जाता है।
अपनी जर्जर काया को आयुर्वेद की चिकित्सा के माध्यम से युवा कर लेने वाले महर्षि च्यवन का आश्रम भी मड़फा में था, ऐसी मान्यता है। चरक संहिता सहित आयुर्वेद की अनेक पुस्तकों के रचयिता और सुप्रसिद्ध वैद्य चरक ऋषि का आश्रम भी मड़फा में ही था। लोक-प्रचलित कथाओं और मिथकों का अनूठा संगम मड़फा में देखने को मिलता है। ऐसा माना जाता है कि माण्डव्य ऋषि के आश्रम से इस स्थान का नाम मड़फा पड़ा है। माण्डव्य ऋषि के आश्रम में कण्व ऋषि समेत अनेक ऋषि रहा करते थे। दुष्यंत और शकुंतला की पुरा-ऐतिहासिक गाथा के पुष्पन-पल्लवन का स्थान भी यही माना जाता है। दुष्यंत और शकुंतला की प्रेमकथा लोकजीवन से आश्रय पाकर आज भी कण-कण में गूँजती है। कण्व ऋषि की पालित पुत्री शकुंतला के पुत्र भरत ने मड़फा में ही शेर के दाँत गिने थे। राजा दुष्यंत के उत्तराधिकारी के रूप में अपने राज्य का विस्तार करके उसने ऐसे प्रतापी शासक का गौरव प्राप्त किया, जिसके नाम पर भरतखंड और भारतवर्ष को जाना जाता है। इस क्षेत्र के आसपास भरत के नाम से अनेक गाँव हैं, जो इस कथा के पुष्ट और सच होने को आश्रय प्रदान करते हैं। वेदव्यास के नाम से विकृत होकर बना वतर्मान का बदौसा और भरतकूप के निकट स्थित व्यासकुंड आदि के माध्यम से मड़फा परिक्षेत्र की पौराणिकता को प्रमाणित किया जा सकता है।

समुद्रतल से 1240 फीट ऊँचाई पर स्थित मड़फा के दुर्ग में गुप्तकालीन स्थापत्य के साथ ही चंदेलकालीन स्थापत्य की जर्जर उपस्थिति ही सही, मगर यह इस दुर्ग की प्राचीनता को, और साथ ही इसकी भव्यता को बखानती जरूर है। मड़फा के दुर्ग ने गुजरात से आए बघेलवंशी शासक व्याघ्रदेव को भी आकर्षित किया था। 1290 विक्रमी संवत् में व्याघ्रदेव ने यहाँ आकर मुकुंददेव चंद्रावत की कन्या सिंधुमती से विवाह किया और मड़फा दुर्ग बघेल शासकों के आधिपत्य में आ गया। वीरसिंह देव, वीरभान देव और रामचंद्र बघेल ने यहाँ पर शासन किया। बाद में बघेल शासकों ने अपनी राजघानी को रीवा स्थानांतरित कर दिया। इस तरह लगभग दो सौ वर्षों तक बघेलों के शासन की गवाही भी मड़फा दुर्ग के कण-कण में दिखती है। मड़फा के नजदीक ही गोंडरामपुर नामक एक गाँव है। यह गाँव गोंड शासकों की उपस्थिति को सँजोए हुए है। गोंड शासकों की वंशावली में रानी दुर्गावती का नाम भी आता है। मड़फा के दुर्ग ने रानी दुर्गावती की वीरता की गाथा को भी विस्मृत नहीं किया है।
मड़फा दुर्ग की जटिल संरचना का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहाँ पर बाहरी लोगों का आना आज भी उतना ही कठिन है, जितना कि पुराने जमाने में रहा होगा। इसी कारण अठारहवीं शताब्दी के मध्य में टीफेन्थलर नामक एक डच पादरी ही शायद सबसे पहले यहाँ पहुँचा होगा और उसने ही यहाँ के बारे में, यहाँ की भौगोलिक संरचना और यहाँ के ऐतिहासिक महत्त्व का वर्णन किया होगा, क्योंकि उसके पहले के किसी इतिहासकार ने इसका उल्लेख नहीं किया है। टीफेन्थलर लिखता है कि उस समय इसे मण्डेफा के नाम से जाना जाता था। सन् 1804 में कर्नल मेसलबैक ने रात्रि में यहाँ पर आक्रमण किया था, ताकि इस क्षेत्र को हिंसक खूँखार कब्जेदारों से खाली कराया जा सके। बाद में उसने भी इस क्षेत्र को छोड़ देना ही उचित समझा। तब से आज तक यह क्षेत्र कमोबेश उपेक्षित ही रहा है।
जनश्रुतियों में प्रचलित है कि यहाँ से गुजरते हुए एक जैन व्यापारी को अकूत संपदा प्राप्त हुई थी। इस धन का धर्मार्थ में उपयोग करते हुए मड़फा दुर्ग में उसने जैन मंदिरों का निर्माण कराया। दुर्ग में मठ की आकृति के एक ध्वंसावशेष के समीप ही जैन मंदिर भी बने हुए हैं। पंचरथ योजना के अनुरूप बने इन जैन मंदिरों का अधिकांश हिस्सा ध्वस्त हो चुका है और गर्भगृह में कोई मूर्ति भी नहीं है। गर्भगृह से दूर एक जैन तीर्थंकर की मूर्ति पद्मासन मुद्रा में है। शायद इस मूर्ति को गर्भगृह से निकालकर यहाँ रखा गया है। इस भग्न मूर्ति में तीन फीट लंबी और एक फीट चौड़ी पादपीठिका है, जिसमें शिलालेख है। संस्कृत में लिखे इस शिलालेख के अनुसार 1408 माघ सुदी 5 रविवार को मूर्ति प्रतिष्ठापित की गई है। इस शिलालेख के अनुसार छीतम ने अपने पिता गोसल और माता सलप्रण, अपने पितामह धने तथा मातामही तोण का नामोल्लेख किया है और गोसल के पुत्र छीतम ने इस मूर्ति की स्थापना कराई है। पादपीठ में अंकित शिलालेख के आधार पर इस मूर्ति को तेरहवीं शताब्दी का माना जा सकता है। मड़फा दुर्ग में लगभग दो मीटर ऊँची ऋषभनाथ की एक अन्य प्रतिमा भी है। यह प्रतिमा काफी हद तक सुरक्षित है, जबकि कई अन्य मूर्तियाँ भग्न स्थिति में हैं।
मड़फा में तांडव नृत्य करते शिव की दुर्लभ मूर्ति भी है। इसमें शिव अपने हाथों में विभिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्र लिए हुए हैं। पादतल में एक राक्षस पड़ा हुआ है। नए मंदिर का निर्माण कराकर इस प्रतिमा को सुरक्षित करने का प्रयास स्थानीय लोगों द्वारा किया गया है। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ श्रद्धालुओं का आगमन भी होता है। इस मंदिर से लगभग आठ सौ मीटर दूर एक आश्रम बना हुआ है। यहाँ पर जल-प्रबंधन का प्राचीन और दुर्लभ प्रयोग देखा जा सकता है। यहाँ पर चट्टान को काटकर एक कुंड जैसा बनाया गया है, जिसमें प्राकृतिक रूप से जल इकट्ठा होता रहता है और वर्षा नहीं होने पर भी इसमें जल उपलब्ध रहता है। इस जलकुंड के समीप एक कच्चा तालाब भी है। ऐसी मान्यता है कि इस तालाब में स्नान करने पर चर्मरोग नष्ट हो जाते हैं। जलकुंड और तालाब को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दुर्ग में पर्याप्त प्रबंध किए गए थे, ताकि युद्ध आदि की स्थिति में दुर्ग के अंदर संसाधनों की कमी न पड़े। चंदेलों के आठ प्रमुख दुर्ग में से एक मड़फा भी है और यहाँ मिलने वाले भग्नावशेष इस दुर्ग के अजेय होने की गवाही स्वयं ही दे देते हैं। इन भग्नावशेषों के साथ जुड़ी अनेक रोचक कथाएँ लोक-जीवन में कब से हैं, इनका अनुमान लगाना भी अपने आप में एक रोचक और रोमांचकारी खोज से कम नहीं होगा।
मड़फा दुर्ग के किस्से आज भी हैं, मगर ये किस्से किसी भरत के नहीं; माण्डव्य, अथर्वा, वेदव्यास, च्यवन और चरक जैसे ऋषियों-महर्षियों के नहीं, वरन् आतंक और दहशत के पर्याय दस्युओं और अपराधियों के हैं। इन किस्सों के पीछे मड़फा का ऐतिहासिक, भौगोलिक और पौराणिक महत्त्व छिप गया है। यहाँ रात की बात तो दूर, दिन में भी जाने से लोगों को डर लगता है। यहाँ वेदव्यास को उपचार के लिए ले जाने वाले महर्षि अथर्वा के शिष्यों की संततियाँ नहीं, बल्कि लूटने और यहाँ तक कि जीवन का भी हरण कर लेने वाले आधुनिक भारत के क्रूर आक्रांताओं का विचरण होता रहता है। मड़फा दुर्ग की अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ धन के लालच की भेंट चढ़ गईं। धन के लालच में ही हाथी दरवाजा, मंदिरों के गर्भगृह और ऐतिहासिक निर्मितियाँ खोद डाली गईं। यहाँ के दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य को डकैतों और अपराधियों के छिपने के सुगम ठिकानों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। विकास के संकेत भी यहाँ देखे नहीं जा सकते। यह दुर्ग, जो एक समय में अजेय था, अजेय आज भी है, मगर विकास के लिए। आज भी मड़फा दुर्ग तक जाने के लिए पगडंडियाँ ही हैं, जो मानपुर, कुरहम या खमरिया गाँव से होकर जाती हैं। मड़फा दुर्ग की यह दयनीय त्रासदी है, जो अधूरेपन के अपने दर्द को देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा के समय से आज तक बखान रही है। कालंजर का दुर्ग पर्यटन के विश्व-स्तरीय मानचित्र पर है, मगर मड़फा आज भी उपेक्षित है। मड़फा दुर्ग को आज की कथाओं से उबारकर अतीत की कथाओं तक ले जाने के लिए प्रयास अपेक्षित हैं और इन प्रयासों के लिए मड़फा का अजेय दुर्ग आज विजित होने की प्रत्याशा में कृशकाय होकर भी खड़ा है।
डॉ. राहुल मिश्र



(नगरपालिका परिषद्, हटा, जनपद- दमोह, मध्यप्रदेश द्वारा प्रकाशित और डॉ. एम.एम. पांडे द्वारा संपादित बुंदेली दरसन- 2017 में प्रकाशित)

Wednesday 24 May 2017

19वें कुशक बकुला रिनपोछे 19th Kushok Bakula Rinpoche




19वें कुशोग बकुल रिनपोछे का जीवन और योगदान

बकुल लोबस़ङ थुबतन छोगनोर, जिन्हें लदाख अंचल सहित देश-विदेश में कुशोग बकुल रिनपोछे के रूप में जाना जाता है। ऊँची-ऊँची हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियों की तरह निर्मल, पवित्र और महान व्यक्तित्व वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे लदाख के युगपुरुष के रूप में जाने जाते हैं। कुशोग बकुल रिनपोछे की पहचान समाज-सुधारक, आधुनिक लदाख के निर्माता, शिक्षाविद, करुणा के अपार सागर से भरे सच्चे भिक्षु और कुशल प्रशासक-संचालक के रूप में रही है। आज भी उन्हें इसी रूप में याद किया जाता है।
19 मई, सन् 1917 को लदाख के मङठो गाँव के राजपरिवार में नङवा थाये और येशे वङमो की संतान के रूप में जन्म लेने वाले कुशोग बकुल को तेरहवें दलाई लामा द्वारा अर्हत बकुल के उन्नीसवें अवतार के रूप में मान्यता दी गई थी। अर्हत बकुल भगवान बुद्ध के सोलह प्रधान शिष्यों में से एक माने जाते हैं। कुशोग बकुल रिनपोछे नौ वर्ष की आयु में उच्च अध्ययन के लिए तिब्बत चले गए। सन् 1940 में वे लदाख लौटे। उस समय का लदाख बहुपति प्रथा, पशुबलि, भेदभाव, अशिक्षा और गरीबी जैसी सामाजिक बुराइयों से जूझ रहा था। भारत की आजादी और विभाजन जैसी राजनीतिक हलचलों के कारण लदाख राजनीतिक संकटों से भी घिर रहा था। ऐसी स्थिति में पूज्यपाद बकुल रिनपोछे अपनी धार्मिक जिम्मेदारी के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आए। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के विकास पर, खासतौर से बालिका शिक्षा पर जोर दिया। वे खुद जीवन-भर एक शिक्षार्थी की तरह अध्ययन करते रहे और समाज को शिक्षा की अहमियत बताते रहे।
सन् 1949 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वे सक्रिय राजनीति में आए और सन् 1951 में राज्य विधानमंडल के सदस्य चुने गए। 12 दिसंबर, 1952 को राज्य विधानमंडल के बजट भाषण में जिस बेबाकी के साथ उन्होंने लदाख की दयनीय और उपेक्षापूर्ण स्थिति को प्रकट किया, उससे यह सिद्ध हो गया कि भगवान बुद्ध का सच्चा शिष्य ही निडर होकर सत्य के साथ खड़ा हो सकता है और सच्चाई को कह सकता है। अपने इस अभूतपूर्व व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि लदाख अंचल में शिक्षा, रोजगार, संचार, स्वास्थ्य और आवागमन के साधन नाममात्र को भी नहीं हैं। यह लदाख के लोगों की सहनशीलता और शांतिप्रियता है, जिसके कारण वे अनीति और पक्षपात को झेल रहे हैं। इस भाषण ने कुशोग रिनपोछे को लदाख का सर्वमान्य नेता ही नहीं बनाया, बल्कि आधुनिक लदाख के निर्माण की नींव भी रख दी। सन् 1953 से 1967 तक राज्य विधानमंडल में, और फिर सन् 1967 से 1977 तक लोकसभा के सांसद के रूप में वे लदाख के लोगों की आवाज को बुलंद करते रहे। केंद्रीय अल्पसंख्यक आयोग सहित विभिन्न संसदीय समितियों और संगठनों के सदस्य के रूप में वे समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग की सहायता करते रहे। राज्य विधानमंडल में लदाख मामलों के लिए स्वतंत्र विभाग, लदाख स्वायत्तशाषी पर्वतीय विकास परिषद् का गठन और दिल्ली में लदाख बौद्ध विहार की स्थापना उनके प्रयासों का ही नतीजा है।
एक राजनेता ही नहीं, समाज-सुधारक के रूप में भी उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है। पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे ने अनेक कष्ट उठाकर लदाख के हर-एक गाँव की यात्रा की। अपनी यात्राओं के दौरान वे लोगों को सामाजिक बुराइयों को छोड़ने के लिए कहते थे। उनका सबसे ज्यादा जोर शिक्षा पर होता था। पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे ने परंपरागत शिक्षा ही ग्रहण की थी, मगर वे आधुनिक शिक्षा का महत्त्व भली भाँति जानते थे। सन् 1955-56 में वे भारत सरकार के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में तिब्बत की यात्रा पर गए थे। वहाँ बदलते राजनीतिक हालातों ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया था। देश-दुनिया में आते बदलावों को समझते हुए उन्होंने परंपरागत और आधुनिक शिक्षा के बीच संतुलन बनाने पर जोर दिया। उनका मानना था कि लदाख के युवाओं को जब तकनीकी, औद्योगिक और चिकित्सा शिक्षा मिलेगी, तभी इस क्षेत्र का समुचित विकास हो सकेगा और लदाख भी देश की मुख्यधारा से जुड़ेगा। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है। अपने अधिकारों को पाने के लिए आधुनिक शिक्षा लेना जरूरी है। इसी कारण वे दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँचकर किसानों को, मजदूरों को प्रेरित करते थे, कि वे अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए भेजें। उनके इन्हीं प्रयासों का नतीजा था, कि छोटी आमदनी वाले किसान और मजदूर भी अपनी सारी जमा पूँजी खर्च करके अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए आगे आए। शिक्षा के लिए लदाख अंचल में आई जागरूकता कुशोक बकुल रिनपोछे के प्रयासों का ही नतीजा है। 
उन्होंने अपने प्रयासों से कई विद्यालयों की स्थापना भी की। केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान इसका जीता-जागता उदाहरण है। इस संस्थान को मानद विश्वविद्यालय का दर्जा दिये जाने के बाद बौद्ध दर्शन के परंपरागत विषयों के साथ ही मानविकी, विज्ञान और तकनीकी जैसे आधुनिक विषयों के अध्ययन की संभावनाएँ बनीं हैं। शिक्षा के संबंध में बकुल रिनपोछे की परिकल्पना थी कि शोध और अनुवाद के द्वारा परंपरागत विद्याओं का अध्ययन आधुनिक संदर्भों में किया जाए। केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान आज उनके विचारों को सच करता हुआ नज़र आता है।
एक दूरदर्शी राजनेता, और एक श्रेष्ठ भिक्षु के रूप में उन्होंने मंगोलिया के राजदूत की जिम्मेदारी को निभाया। वहाँ की दिशाविहीन जनता को धर्म और सत्कर्म का रास्ता दिखाकर उन्होंने केवल मंगोलिया को ही नहीं, सारे विश्व को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। इसी कारण उन्हें मंगोलिया के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पोलर स्टार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार द्वारा सन् 1988 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
कुशोग बकुल रिनपोछे ने 04 नवंबर, सन् 2003 को छियासी वर्ष की श्रीआयु में अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया। उनकी प्रेरणा, उनका मार्गदर्शन और उनकी नसीहतें आज भी पथ-प्रदर्शक बनकर लदाख को विकास की ऊँचाइयों तक ले जा रही हैं। समानता, समरसता, सौहार्द, मेल-जोल और शांतिपूर्ण जीवन का उनका आदर्श आज भी जीवित है, जीवंत है।









डॉ. राहुल मिश्र
(एफएम रेनबो, नई दिल्ली से सांस्कृतिक डायरी कार्यक्रम के अंतर्गत 10 मई, 2017 को रात्रि 10.00 बजे प्रसारित एवं आकाशवाणी, लेह से 19 मई, 2017 को प्रातः 09.10 बजे प्रसारित)

Sunday 21 May 2017



निराला के काव्य की पड़ताल करती एक महत्त्वपूर्ण किताब

(निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना)
बीसवीं सदी के सिद्धहस्त कवि और बहुमुखी प्रतिभा के धनी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व और कृतित्व उनके नाम के अनुकूल ही है। उनकी रचनाओं में जैसी विविधता, व्यापकता और समग्रता देखने को मिलती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। इसी कारण स्वनामधन्य कविश्री निराला को समग्रता के साथ मूल्यांकन के पटल पर उतार पाना कठिन ही नहीं, दुष्कर कार्य भी है। निराला के गद्य में जहाँ एक ओर समाज का यथातथ्य चित्रण है; वहीं दूसरी ओर मनोभाव, सामयिक प्रश्नाकुलताएँ और कथ्य की व्यापकता चित्रित होती है। इसी प्रकार निराला के काव्य में एक ओर छायावाद की प्रवृत्तियों के अनुरूप कल्पना, रहस्य-रोमांच और प्रकृति का सुंदर चित्रण है, तो दूसरी ओर समाज और राष्ट्र के प्रति एक समर्पित साहित्यिक का जीवन-दर्शन है। प्रयोगधर्मी निराला कभी किसी स्तर पर एक स्थिति, विचार, विचारधारा या मनोभाव को पकड़कर नहीं बैठते, वरन् नदी के प्रवाह के समान उनकी वैचारिक गति, भावों-संवेदनाओं का प्रसार और परिवर्तित-परिवर्धित होतीं भावजन्य अभिव्यक्तियाँ अद्भुत और अनूठेपन के साथ सहृदय पाठक को अपने साथ ले चलती हैं। इसी कारण सूर्य और निराला के प्रिय बादल के समयानुकूल संयोजन से आकाश में बन जाने वाले इंद्रधनुष की भाँति निराला का काव्य-संसार बहुरंगी बन जाता है। इसका एक-एक रंग अपनी विलक्षण प्रभावोत्पादकता से रोमांचित कर देने वाला है।
निराला के इंद्रधुनष-सम काव्य-संसार की एक रश्मि को अपने शोध का विषय बनाकर डॉ. स्नेहलता शर्मा ने उस दीप्ति से साक्षात्कार कराने का प्रयास किया है, जिसके बल पर हिंदी साहित्य गर्वोन्नत है। डॉ. स्नेहलता शर्मा की कृति- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना इसी प्रयास का पुस्तकाकार माध्यम है। समीक्ष्य कृति अपनी विशिष्टता भी इसी कारण रखती है, क्योंकि राष्ट्रीय चेतना के स्वर को, उसके प्रवाह और विस्तार को निराला के समग्र काव्य-संसार में देखना और उसे विश्लेषित करते हुए एक स्थान पर उपलब्ध कराना सरल कार्य नहीं है। समीक्ष्य कृति में अतीत के उस गौरवपूर्ण कालखंड को संदर्भ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसकी विनाशलीला को देखकर पुनः जागरण होता है। भारतीय जागरण काल के साथ अतीत के गौरवपूर्ण कालखंडों का स्मरण भी जुड़ जाता है। निराला की राष्ट्रीय चेतना से संपृक्त कविताओं का आधार इसी बिंदु पर तैयार होता है। इस प्रकार क्रमबद्ध और व्यवस्थित सामग्री का संकलन राष्ट्रीय चेतना के पक्षों को केवल स्पष्ट ही नहीं करता, वरन् अपने व्यापक रूप में, व्यवस्थित-क्रमबद्ध अध्ययन में अनेक ऐसे अनछुए-अनजाने पक्षों को भी प्रकट कर देता है, जो प्रायः चलन में नहीं होने के कारण विस्मृत हो चुके हैं। विषय की सटीक प्रस्तुति हेतु समीक्ष्य कृति को पाँच अध्यायों में बाँटा गया है।
समीक्ष्य कृति का प्रथम अध्याय है- राष्ट्र का स्वरूप : राष्ट्र के रूप में भारत, इतिहास। इस अध्याय में राष्ट्र को परिभाषित करते हुए धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एकता के विविध अंगों को; एवं भाषागत, परंपरागत एकता के संदर्भों को प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार भारतवर्ष के रूप में इस विशाल भूखंड की निर्मिति को आदिकाल से लगाकर वर्तमान तक देखने का प्रयास हुआ है। राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीयता के भाव के समग्र प्रस्तुतीकरण का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि लेखिका ने उन तत्त्वों को भी खुले मन से विश्लेषित किया है, जो अतीत से लगाकर वर्तमान तक हावी हैं और राष्ट्रीय चिंतनधारा के अवरोधक भी हैं। इसे विश्लेषित करते हुए उल्लेख किया गया है कि- इस देश में वैर-फूट का यह भाव इतना प्रबल क्यों रहा, इसके भी कारण हैं। बड़ी-बड़ी नदियों और बड़े-बड़े पहाड़ों के गुण अनेक हैं, लेकिन उनमें एक अवगुण भी होता है कि वे जहाँ रहते हैं, वहाँ देश के भीतर अलग-अलग क्षेत्र बना देते हैं और इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के भीतर एक तरह की प्रांतीयता या क्षेत्रीय जोश पैदा हो जाता है। पहाड़ों और नदियों ने भारत को भीतर से काटकर उसके अनेक क्षेत्र बना दिए और संयोग की बात है कि कई क्षेत्रों में ऐसी जनता का जमघट हो गया, जो कोई एक क्षेत्रीय भाषा बोलने वाली थी। (पृष्ठ- 15) इस विविधता के बीच संस्कृत और संस्कृति के माध्यम से उन सूत्रों को खोजने का काम भी इस अध्याय में कुशलतापूर्वक हुआ है, जिनके कारण अलग-अलग कालखंडों में विविधता में एकता कायम हुई और भारतीय नवजागरण के दौरान सारा देश एकसाथ उठ खड़ा हुआ।
समीक्ष्य कृति का द्वितीय अध्याय- भारतीय जागरण काल है। यह अध्याय भारतीय नवजागरण के विविध पक्षों का मूल्यांकन करता है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के विशद-व्यापक विवेचन के साथ ही इनके माध्यम से उदित होने वाली राष्ट्रीय काव्यधारा की पड़ताल इस अध्याय में की गई है। ‘राष्ट्रीय काव्यधारा के विविध सोपान’ उपशीर्षक के अंतर्गत भारतेंदु युग, द्विवेदी युग और द्विवेदी युगोत्तर काव्यधारा में राष्ट्रीय चेतना के विविध पक्षों का सर्वांगपूर्ण प्रस्तुतीकरण इस अध्याय में उल्लेखनीय है। समीक्ष्य कृति का तृतीय अध्याय है- छायावादी काव्य में राष्ट्रीय चेतना। इस अध्याय में छायावाद की उत्पत्ति के उन सूत्रों को तलाशने का प्रयास किया गया है, जो प्रायः चर्चा के केंद्र में नहीं  रहे हैं। इसके साथ ही छायावाद के दो स्तंभों- पंत और निराला की काव्य-साधना के प्रवाह को भी इस अध्याय में विश्लेषित किया गया है। इसी विश्लेषण के क्रम में पुस्तक बताती है- पंत वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन के पश्चात एक नए जगत, भौतिक समृद्धि से संबद्ध विचारधारा प्रधान चिंतनलोक में पदार्पण करते हैं। निराला भी बेला, नए पत्ते, कुकुरमुत्ता आदि में परिवर्तित दृष्टिकोण लेकर उपस्थित हुए हैं। (पृष्ठ- 141) इसी अध्याय में उल्लेख है कि- कहीं-कहीं निजी सुख-दुःखात्मक अनुभूति को, छायावादी कवियों ने, युग को जगाने के लिए शंखनाद में भी परिवर्तित कर दिया है। क्षुद्रता और निराशा के कुहरे में न डूबकर जीवन के दुःख- द्वंद्वों को चुनौती के रूप में स्वीकार कर प्राणपण से जूझने की प्रेरणा देने वाले ये विचार छायावादी काव्य का एक अल्प ज्ञात या किसी सीमा तक उपेक्षित पक्ष भी प्रस्तुत करते हैं। साथ ही जीवन के मूल-मंत्रों को ध्वनित करने वाले उपयोगी तत्त्व एवं जीवन को उज्ज्वल, महान और वरेण्य बनाने की प्रेरणा भरने वाले ये अंश छायावादी कवियों के उस महान उत्तरदायित्व के निर्वाह के सूचक भी हैं, जिसे साहित्यकार होने के नाते स्वयं किया है। (पृष्ठ- 145) इस प्रकार तृतीय अध्याय तक आते-आते पुस्तक में ऐसे तत्त्व स्पष्ट होने लगते हैं, जिनका आश्रय पाकर निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना मुखर होती है।
समीक्ष्य कृति का चतुर्थ अध्याय इसी के अनुरूप है। इस अध्याय को शीर्षक दिया गया है- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना। इस अध्याय में निराला की समग्र काव्य-यात्रा को तीन अलग-अलग खंडों में बाँटकर विश्लेषित किया गया है। निराला की सारा जीवन अभावों और संघर्षों से भरा रहा। इसी कारण निराला के लिए उस भारत को देखना सुलभ हो सका, जिसके लिए राष्ट्रीय चेतना की अनिवार्यता थी। और इसी अनिवार्यता को निराला ने अपनी लेखनी का ध्येय बना लिया था। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पुस्तक में उल्लेख किया गया है कि- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला काव्य के शाश्वत माध्यम से जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों को तोड़ने का भगीरथ संकल्प लेकर ही जन्मे और मानव के जीवन से अभावों को मिटा देने हेतु अनंत संघर्ष करते हुए जीवित रहे और गरल-पान करते-करते शिवत्व प्राप्त करते हुए स्वर्गवासी हुए। निराला ने असंतोषपूर्ण वातावरण में रहकर अपनी नूतन काव्याभिव्यक्ति द्वारा विद्रोही स्वर फूँका और जनजागरण की नवज्योति जगाने का पुनीत कार्य किया। इसी कारण डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला को नई प्रगतिशील धारा का अगुवा कहकर उनके व्यक्तित्व का सम्मान किया है। निराला का जीवन विभिन्न असमानताओं, असंगतियों एवं अभावों से भरा था, किंतु परिस्थितयों ने कवि को उद्बुद्ध एवं जागरूक बनाकर उसे अन्याय के प्रति संघर्ष की शक्ति दी। यही शक्ति निराला में राष्ट्रीय चेतना के रूप में उभरकर आई, जिसने कवि को राष्ट्रीय गौरव की शाश्वत अभिव्यक्ति की प्रेरणा दी। (पृष्ठ- 195) निराला की अनेक चर्चित कविताओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना के इस स्वर को विश्लेषित करने का सटीक और सफल प्रयास इस अध्याय में परिलक्षित होता है। सन1920 से 1961 तक विस्तृत निराला के काव्य-संसार की व्यापक पड़ताल और गहन मंथन से निःसृत स्थापनाओं को इस अध्याय में स्थान मिला है। इसके साथ ही निराला की साहित्य-साधना से जुड़े ऐसे ज्वलंत पक्ष, जो चर्चित नहीं हो सके और जिनको जानना निराला के संदर्भ में आवश्यक है, उन्हें भी इस अध्याय में विश्लेषित किया गया है।
समीक्ष्य कृति का पंचम अध्याय है- निराला के काव्य में राष्ट्रीय काव्यधारा की सीमाएँ। इस अध्याय में निराला की काव्यधारा को व्यापक अर्थों में विश्लेषित किया गया है। यह अध्याय स्थापना देता है कि निराला ही छायावाद के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपने पौरुष के बल पर संघर्षों और अभावों से टक्कर ली है। वे पंत और प्रसाद की परंपरा से अलग संघर्ष के लिए सदैव तत्पर रहे और संघर्ष की यह चेतना व्यक्ति से उठकर समाज तक, व्यष्टि से समष्टि तक व्यापक होती जाती है। निराला के लिए उनका निजी जीवन-संघर्ष इसी कारण उनकी कमजोरी नहीं बन पाता है। एक समय के बाद, विशेषकर अपनी इकलौती पुत्री के देहावसान के बाद विक्षिप्त-से हो जाने वाले निराला अपने जीवन के संघर्षों को देश-काल-समाज के संघर्षों के साथ एकाकार कर लेते हैं। इसी कारण उनका अपना भोगा हुआ सत्य जब कागजों पर उतरता है, तो उसके तीखेपन को पचा पाना सरल नहीं रह जाता है। निराला के काव्य-संसार में राष्ट्रीय-चेतना की उत्पत्ति और विकास को इसी की परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है।
निराला का कवि राष्ट्रीय चेतना का अपराजेय नायक है। उसका राष्ट्र-प्रेम केवल अतीत के स्वर्णिम इतिहास को आधार नहीं बनाता और न ही वर्तमान की विषम परिस्थितियों से त्रस्त होकर वह रो उठता है। अपितु वह पूर्ण निष्ठा एवं आस्था से असत्य, अशिव एवं असुंदर का ध्वंस करके सत्य, शिव एवं सुंदर का सृजन करता है। छायावादी कवियों पर ‘पलायनवादी होने का आरोप लगाने वाले आलोचकों के लिए’ निराला का आशावाद एवं कर्मठता प्रश्नचिह्न बन गये हैं। राष्ट्र-चेतना की प्रेरणा देते हुए निराला का अदम्य स्वर यों गूँजा था-
पशु नहीं, वीर तुम / समर शूर क्रूर नहीं / काल चक्र में हो दले / आज तुम राज कुँवर / समर सरताज। (पृष्ठ- 271)
समीक्ष्य कृति के अंत में निष्कर्ष के तौर पर पाँचों अध्यायों का निचोड़ प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही संदर्भ ग्रंथ सूची भी पुस्तक की प्रामाणिकता को स्थापित करने में योगदान देती है। कुल मिलाकर निराला के काव्य-संसार को नवीन दृष्टि से देखने का यह अभिनव प्रयास सिद्ध होता है। तथ्यों का सटीक प्रस्तुतीकरण, तार्किकता और विषय का विवेचन समीक्ष्य कृति को महत्त्वपूर्ण बना देता है। इस कारण यह कृति शोध-कर्ताओं के साथ ही सहृदय पाठकों के लिए उपयोगी भी है और संग्रहणीय भी है।
डॉ. राहुल मिश्र
समीक्षित कृति- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना
डॉ. स्नेहलता शर्मा
प्रथम संस्करण 2013
अन्नपूर्णा प्रकाशन, साकेत नगर, कानपुर- 208 014
मूल्य- 600/-   
(नूतनवाग्धारा, बाँदा, संयुक्तांक : 28-29, वर्ष : 10, मार्च 2017 अंक में प्रकाशित )