Tuesday 26 April 2022

असम-मेघालय सीमा-विवाद सुलझाकर पूर्वोत्तर बनेगा देश का विकास इंजन

 


असम-मेघालय सीमा-विवाद सुलझाकर

पूर्वोत्तर बनेगा देश का विकास इंजन


वर्ष 2022 की 29 मार्च की तिथि पूर्वोत्तर के इतिहास में इतनी महत्त्वपूर्ण होगी, जिसका असर लंबे समय तक दिखाई देगा। यह दिन भारत के लिए भी बहुत महत्त्व का है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा का बयान इस तिथि पर बड़े मार्के का है, और असम-मेघालय सीमा-विवाद के बाद उनका यह बयान बहुत चर्चित भी रहा है। वे कहते हैं, कि- “जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब गृहमंत्री ने कहा था, कि सीमा विवाद को हल करें। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं, कि पूर्वोत्तर देश का विकास इंजन बने..।“

कह सकते हैं, कि हिमंत बिस्व शर्मा को दि गए दायित्व की सफलता का पहला चरण 29 मार्च, 2022 को पूरा हुआ है। भारतीय राजनीति में हिमंत बिस्व शर्मा एकदम अलग छवि रखते हैं। उनकी स्पष्टवादिता और अनथक कर्मशीलता देखते ही बनती है। केंद्र के राजनीतिक नेतृत्व को संभवतः इसी कारण उन पर बड़ा भरोसा है, और यह भरोसा भी सफल-सच होता दिखा है।

असम और मेघालय के बीच विवाद के सुलझने की यह खबर कोई सामान्य घटना नहीं है। इसके पीछे अतीत में उतरकर देखें, तो बहुत सारे आयाम और अनेक बातें खुलकर सामने आती हैं। देश के केंद्रीय नेतृत्व के लिए पूर्वोत्तर के विवादों को सुलझाना हमेशा से ही बड़ी चुनौती रहा है। पिछली सरकारों के इस दिशा में प्रयास ईमानदारी के साथ हुए होंगे, ऐसा कहना कठिन लगता है। एक कहावत- चोर को कहना चोरी करो.... साहूकार को कहना जागते रहो...., इस संदर्भ में सार्थक लगती है। लेकिन वर्तमान सरकार ने इस विषय पर अपनी गंभीरता और अपने दायित्वबोध को खुलकर प्रकट किया है, साथ ही निभाया भी है। वर्तमान केंद्र सरकार की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ का यह बड़ा अंग रहा है।

पूर्वोत्तर का भारतीय सीमांत सुरक्षा और प्रगति के सोपानों में, शांति-स्थिरता के प्रयासों में बहुत बड़ा योगदान है। चाहे देश हो, या घर... पूर्वोत्तर का क्षेत्र ऊर्जा के केंद्र में होता है। ईशान्य कोण में शक्ति का वास होता है। एक समय ‘नेफा’ के नाम से प्रसिद्ध भारत का ईशान्य सीमांत क्षेत्र पुरातनकाल से ही धर्म, अध्यात्म, साधना का केंद्र रहा है। इस क्षेत्र के महत्त्व को न केवल ज्योतिषशास्त्र में, वरन् समग्र भारतीय चेतना एवं एकात्मता के संदर्भ में भी बहुत महत्त्व का माना जाता है। इसी कारण एक ओर जहाँ इस क्षेत्र में वर्ष भर आध्यात्मिक यात्राएँ और आयोजन किए जाने की परंपरा रही है, वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के गौरव को विखंडित करने के प्रयासों के साथ भारत और भारतीयता को क्षति पहुँचाने के काम भी पराधीनता के काल में होते रहे हैं।

भारतदेश की स्वाधीनता के साथ मिले पूर्वोत्तर की अशांति के दंश क विश्लेषण करते-करते सुई विभाजन और राज करो की नीति पर, क्षेत्रीय-जातीय अस्मिता के असीमित व्यवहार पर, और सबसे बड़ी बात, कि ईसाईयत के विस्तार पर जाकर टिक जाती है। पूर्वोत्तर के वन-प्रांतरों में निवास करने वाले वनवासीजन-गिरिजन सदा प्रकृति की पूजा करते हुए सनातन परंपरा से जुड़े रहे। पराधीनता के कालखंड और उसके बाद के वर्षों में ईसाईकरण के कारण स्थितियाँ गंभीर होती गईं। विगत वर्ष 26 जुलाई को असम और मिजोरम के बीच ऐसा संघर्ष हुआ था, जिसने प्राग्ज्योतिष क्षेत्र की धरती को न केवल रक्तरंजित कर दिया था; वरन् असम और मिजोरम, दोनों  राज्यों के कई लोगों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी थी। 26 जुलाई, 2021 का यह संघर्ष भी सीमा के विवाद को लेकर हुआ था, किंतु इस संघर्ष में जिस तरह से दोनों राज्यों के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग भिड़े थे, उसे देखकर ऐसा लग रहा था, मानों दो देश आपस में लड़ रहे हों।

यह घटना अपने आप में बहुत बड़ा संदेश देने वाली थी। असम और मिजोरम का सीमा विवाद उन दो राज्यों के बीच का था, जो पचास-पचपन वर्ष पहले एक ही थे। असम या कामरूप या प्राग्ज्योतिष एक राज्य रहा है। देश की स्वाधीनता के बाद विभिन्न क्षेत्रीय पहचानों और भाषायी विविधता ने इसे अलग-अलग राज्यों में बाँटा। मिजोरम, मेघालय और नागालैंड आदि इसी आधार पर अलग-अलग राज्य बने। यह तत्कालीन नीति-निर्धारकों या राज्य-विभाजन की योजना बनाने वाले लोगों का दायित्व बनता था, कि सीमाओं का निर्धारण इस तरह से किया जाए, कि भविष्य में विवाद की स्थितियाँ पैदा नहीं हों। किंतु संभवतः उस समय ऐसा नहीं हो सका। इसके पीछे के कारण शोध के विषय हैं। कुल मिलाकर तब से ही अलग-अलग तरीकों से, अलग-अलग रूपों में पूर्वोत्तर के विवाद समाचारों की सुर्खियों में आते रहे हैं। यह भी बड़ा महत्त्वपूर्ण तथ्य है, कि इन सुर्खियों को न तो पहले कभी दिल्ली ने गंभीरता से लिया, न कभी देश के अन्य हिस्सों ने। इतना अवश्य हुआ, कि इन विवादों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकी गईं, राजनीतिक दलों ने अपनी सत्ता की लिप्सा को शांत करने के यत्न किए।

आमजन के लिए ये स्थितियाँ कितनी कष्टदायक रहीं होंगी, इसका आकलन विगत वर्ष 26 जुलाई की मात्र एक घटना से ही लगा सकते हैं, जिसमें रोते-बिलखते बच्चों, माताओं, बहनों, बुजुर्गों के आँसू सारे देश ने देखे थे। यह तो एक घटना थी... पीछे ऐसी कितनी ही घटनाएँ हुई होंगी, अनुमान लगाना और उन घटनाओं की वेदना को अनुभूत करना बहुत ही कठिन है। यदि 26 जुलाई, 2021 की हृदय-विदारक घटना से सबक लेते हुए प्रांतीय विधानमंडलों और केंद्रीय सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति ऐसे सीमा विवादों को हल करने के लिए प्रतिबद्ध होती है, तो उसमें बड़ा अंश आमजन की वेदना और दुःख को अनुभूत करने वाली वैचारिकता का है।

देश के केंद्रीय नेतृत्व की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ अपने पिछले कार्यकाल से ही प्रभावी रही है, मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह ‘पॉलिसी’ अपना मूर्त रूप तेजी से पाती है। साथ ही अपनी संवेनशीलता को सकारात्मकता के साथ आमजन की स्थिति से जोड़ते हुए कार्य के लिए प्रतिबद्ध होती है। इसी कारण असम और मेघालय के बीच सीमा-विवाद को सुलझाने के लिए पहली बार जनता की राय को, जनमत को प्राथमिकता दी गई है। असम-मेघालय सीमा में जिन 06 जगहों पर विवाद को समाप्त किया गया है, वहाँ पर पुराने नक्शों और ऐतिहासिक पक्षों-बिंदुओं की जगह जनता के विचारों को पहले स्थान पर रखा गया है। इन 06 चिन्हित जगहों पर बसे 36 गाँवों के लोगों की मंशा को, उनकी अपेक्षा और उनके विचारों-प्रतिक्रियाओं को संकलित करके विवाद को हल करने की वार्ता प्रारंभ की गई थी, मसौदा तैयार किया गया।

असम-मेघालय सीमा विवाद को हल करने के लिए विगत वर्ष अगस्त में तीन-तीन समितियाँ बनाई गईं थीं। कह सकते हैं, कि 26 जुलाई की घटना के तुरंत बाद राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने सक्रियता दिखाते हुए इस दिशा में काम प्रारंभ किया। दोनों राज्यों की समितियों द्वारा सिफारिशों और समझौते के मसौदे को तैयार किया गया था। इसे 31 जनवरी को असम और मेघालय के मुख्यमंत्रियों ने संयुक्त रूप गृह मंत्रालय को सौंपा था। गृह मंत्रालय ने दो महीने के अंदर ही तथ्यों व स्थितियों की पड़ताल करके समझौते के प्रारूप को हरी झंडी दे दी। इसके परिणामस्वरूप 29 मार्च, 2022 को नई दिल्ली में देश के गृहमंत्री के समक्ष दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने समझौता-ज्ञापन पर हस्ताक्षर करके 06 स्थानों के 36 गाँवों की 36.79 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र के सीमा-विवाद पर पूर्ण विराम लगा दिया। इस समझौते के तहत असम को 18.51 वर्ग किमी. और मेघालय को 18.28 वर्ग किमी. क्षेत्र मिला है।

असम और मेघालय के बीच सीमा-विवाद अपने पहले चरण में 06 स्थानों पर हल हुआ है, जबकि शेष 06 स्थानों पर विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया अभी चल रही है। असम-मेघालय के मध्य 12 स्थानों पर विवाद मेघालय के अस्तित्व में आने के समय से ही चला आ रहा है। सन् 1971 में असम राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत अस्तित्व में आए मेघालय ने सन् 1972 में ही इस अधिनियम को चुनौती दे दी थी। तब से ही असम-मेघालय के सीमावर्ती 12 क्षेत्रों में विवाद की स्थितियाँ बनी हुईं थीं। सन् 2010 में लंगपीह नामक एक सीमावर्ती क्षेत्र में भीषण रक्तरंजित संघर्ष हुआ था, जो सीमा विवाद की ही देन था। इस संघर्ष में चार लोगों की मृत्यु हुई थी और कई लोग गोलीबारी में घायल हुए थे। इस बड़ी घटना के अलावा अनेक छोटी-छोटी झड़पों की गिनती करना भी कठिन है। दोनों राज्यों की सीमा के निर्धारण में आँकड़ों की कारीगरी और इच्छाशक्ति के अभाव ने क्षेत्रीय अस्मिता व जातीय संघर्ष को इस स्तर तक पहुँचा दिया था, कि अपने ज्ञात अतीत से भी कहीं आगे के समय से एक साथ रहते चले आ रहे लोग महज राज्य पुनर्गठन अधिनियम के कारण एक-दूसरे के शत्रु बन गए थे। सन् 1972 से लगातार यह वैमनस्य उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा, विवाद के क्षेत्र बढ़ते रहे, लेकिन पहले कभी भी इन विवादों को रोकने के प्रयास निष्पक्ष भाव से दिखाई नहीं दिए। इन कारणों से भी 29 मार्च, 2022 को अविस्मरणीय दिन के रूप में सदैव याद रखा जाएगा।

हालाँकि चुनौतियाँ अभी भी समाप्त नहीं हुईं हैं। असम और मेघालय के बीच 12 स्थानों में से छह स्थानों पर ही सीमा विवाद हल हुआ है। भले ही यह सीमा-विवाद का 70 प्रतिशत हो, लेकिन शेष 30 प्रतिशत अभी हल किया जाना शेष है। कहा जा सकता है, कि असम के साथ मेघालय का विवाद तो अब मात्र 30 प्रतिशत ही बचा है, लेकिन असम के साथ अन्य राज्यों का सीमा विवाद अभी भी बरकरार है। सन् 1971 में असम राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अस्तित्व में आने के साथ ही समूचा पूर्वोत्तर क्षेत्र अशांति की भेंट चढ़ गया था। इसके पहले भी इस क्षेत्र के लिए अधिसूचनाएँ बनाई और लगाई गईं थीं। जातीय अस्मिता, धार्मिक विविधता, भौगौलिक जटिलता और विविधता को मंडित करने वाली राजनीतिक चेष्टाओं ने इन स्थितियों को जटिल बनाकर रखा था। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा, दोनों ने ही अपनी प्रबल इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इस ग्रंथि का शमन किया है। केंद्र की मोदी सरकार, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी और भारत के गृहमंत्री अमित शाह के प्रयासों का तो कोई सानी ही नहीं है। असम-मेघालय सीमा समझौते के समय प्रधानमंत्री मोदी के एक बयान की भी बड़ी चर्चा रही। प्रधानमंत्री मोदी अकसर कहते रहते हैं, कि जब भारत-बांग्लादेश सीमा विवाद सुलझ सकता है, तो भारत के दो राज्यों के बीच सीमा विवाद सुलझना कोई बड़ी बात नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी का आत्मविश्वास और उनकी कार्यशैली इस तथ्य की परिचायक है, कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, सूझबूझ और सहजता के साथ वर्षों पुरानी जटिल समस्याओं को भी शांति के साथ हल किया जा सकता है। चुनौतियाँ भले ही बड़ी हों, गहरी हों, और जटिल हो... इच्छाशक्ति और निष्काम कर्मशीलता अवश्य ही उन्हें हल कर देती है। असम-मेघालय के सीमा-विवाद का अगला चरण आगामी छह माह में पूरा होने वाला है। इतना ही नहीं, इस प्रयास ने भविष्य के अनेक रास्तों को खोला है, संभावनाओं को जन्म दिया है।साथ ही इस विश्वास को भी प्रबल किया है, कि देश के अंदर राज्यों के बीच अब सीमा-विवाद पुराने समय की बात हो चुकी है। अब हम एक राष्ट्र के रूप में एकसाथ आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा व महत्त्वपूर्ण राज्य- असम और पूर्वोत्तर का मेघ से आच्छादित प्रकृति की सुरम्यता से पूरित राज्य- मेघालय अपने-अपने पड़ोसियों के साथ विवाद को सुलझाकर यह सिद्ध कर रहे हैं, कि पूर्वोत्तर सही अर्थों में देश का विकास इंजन है।

-आचार्य अनामय (राहुल मिश्र)

 (मासिक पत्रिका सीमा संघोष, नई दिल्ली के अप्रैल, 2022 अंक में प्रकाशित)

Saturday 19 March 2022

पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

 


पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

पूर्वोत्तर भारत, भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश। किसी समय इस समग्र प्रदेश को ‘नेफा’, यानि ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ के नाम से जाना जाता था। ईशान्य ही ‘नार्थ-ईस्ट’ है। भारतीय वाङ्मय के अंतर्गत आने वाले शिल्पशास्त्र में वास्तुशिल्प का अपना विशिष्ट स्थान है और इसे विधिवत् शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। वास्तुशिल्पशास्त्र में ईशान्य का विशेष महत्त्व बताया गया है। ईशान, अर्थात् हरमहेश्वर रुद्र और प्रकृति के आदिपुरुष शिव से भी इस दिशा को पहचान सकते हैं। वास्तुपुरुष मंडल में उत्तर-पूर्व की दिशा मस्तक की होती है। यह ग्रहाधिपति सूर्य की दिशा होने के कारण सर्वाधिक ऊर्जावान होती है। इस कारण प्रवेश-द्वार, द्वारमंडप और ध्यान-पूजा इत्यादि के लिए इस दिशा को सर्वथा उपयुक्त बताया गया है। भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश, या पूर्वोत्तर प्रदेश इसी दृष्टि से अत्यंत समृद्ध, प्राचीन और विशिष्ट है। इसी कारण भक्ति के भावों की व्याप्ति पूर्वोत्तर के कण-कण में है। इसी कारण पूर्वोत्तर के जीवन में भक्ति के भाव रचे-बसे हुए हैं।

भक्ति-साहित्य, स्वंय में एक रूढ़ शब्द है, जो काल-विशेष में रची गई भक्तिपरक रचनाओं का द्योतक है। मध्यकाल के पूर्वार्ध में, सन् 1350 से 1650 ई. के आसपास दक्षिण भारत के भक्तकवियों की रचनाओं के उत्तर भारत में आते प्रभावों के फलस्वरूप उत्तरभारत के भक्तकवियों द्वारा रची गई भक्तिपरक रचनाएँ ही सामान्यतः भक्ति-साहित्य की श्रेणी में रखी जाती हैं। इसी कारण भक्तिकाल और भक्ति-साहित्य एक विशेष कालखंड और उस कालखंड में रची गई रचनाओं के लिए रूढ़ हैं। इस दृष्टि से अगर देखें, तो पूर्वोत्तर भारत के भक्ति-साहित्य के अनुशीलन हेतु एक सीमारेखा बनी हुई प्रतीत होने लगती है, जो स्वयं में संकुचित और अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों-विषयों को अपनी परिधि से बाहर छोड़ देती हुई दिखाई पड़ती है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य को इस सीमारेखा में बाँधकर जानना-परखना इसी कारण उचित नहीं होगा।

इस निश्चित सीमा से अलग हटकर यदि भक्ति के भाव से ओतप्रोत साहित्य को देखें, तो सृष्टि के आदिम काल से ही भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य दिखाई पड़ने लगता है, जिसमें श्रद्धा और प्रेम का सम्मिश्रण मानवीय अभिव्यक्तियों में मुखर होता है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को इसी दृष्टि से यहाँ बताने का प्रयास किया गया है। पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति अपने स्वरूप और अपने परिचालन में इतनी प्राचीन है, कि उसमें श्रद्धा और प्रेम के भाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में भक्ति कह सकते हैं, सृष्टि की दृश्य-अदृश्य शक्तियों के प्रति प्रकट होते रहे हैं। इसका प्रथम दर्शन पूर्वोत्तर के शिष्ट या लिखित साहित्य से कहीं आगे प्रकीर्ण साहित्य में होता है; लोकगीतों, किस्सों-कथाओं, लोकनृत्यों आदि में होता है।

अविभाजित पूर्वोत्तर, अर्थात् भाषायी-जातीय-क्षेत्रीय पहचान के आधार पर आठ अलग राज्यों में बँटे पूर्वोत्तर का प्राचीन स्वरूप ऐसा रहा है, जहाँ जनजातीय समूहों के बीच प्रकृति की पूजा का क्रम अलग-अलग विधि-विधानों के साथ एकसमान रूप से चलता रहा है। यही एक तत्त्व विभिन्न भाषायी-जनजातीय विभेदों को किनारे रखकर समूचे पूर्वोत्तर को एक सूत्र में बाँधे रहा है। प्रकृति की पूजा में भी प्रकृति के आदि पुरुष और प्रकृति की आदिशक्ति, अर्थात् शिव और शक्ति की पूजा होती रही है। असम के बोडो जनजातीय समूह में दिवा और दिवि को आद्य देवी-देवता की मान्यता प्राप्त है। ये शिव और पार्वती के प्रतीक हैं। इसी प्रकार देउरी जनजातीय समूह में गिरा और गिराची की पूजा होती है। लालुंग समूह फा महादेव को अपना आदिदेव मानते हैं और स्वयं को उनका ही वंशज मानते हैं। तिवा (लालुंग) आदिवासियों द्वारा पूजा हेतु स्थापित किया जाने वाला त्रिपद, त्रिनेत्रधारी शिव का ही प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी जनजातीय समूहों में शिव के अनेक रूप प्रचलित हैं। शिव को शक्ति के साथ ही पूर्णता मिलती है। ये शिव किसी मंदिर में विराजने वाले नहीं हैं, अलौकिक सिंगार करने वाले भी नहीं हैं। आदिम-आदिवासी जीवन में रचे-बसे हुए हैं। इसी कारण पूर्वोत्तर के अनेक लोकगीतों- लोककथाओं में वे पूरी तरह से देशी रूप में, भंग-धतूरे के सेवनकर्ता और फक्कड़ दिखाई देते हैं। शिव का यह स्वरूप आदिवासी जीवन के अत्यंत निकट होने के कारण ही सहजता के साथ जन-स्वीकार्य हो जाता है। शिव का पशुपति रूप भी यहाँ बहुत प्रचलित है। नंदी की उपस्थिति गौवंश के प्रति जनजातीय आस्था को पुष्ट करती है। अनेक रीति-रिवाजों में गौपूजन अनिवार्य होता है।

असम का बिहू पूर्वोत्तर भारत की पहचान से जुड़ा हुआ पर्व है। यह भी गौपूजन के बिना संपन्न नहीं होता है। वस्तुतः यह पर्व प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति आस्था और श्रद्धा का पर्व है। बहाग (वैशाख), काति (कार्तिक) और माघ बिहू के तीन बड़े आयोजनों के साथ ही पूर्वोत्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में बिहू के कुछ अन्य स्थनीय संस्करण भी होते हैं। बिहू पर्व की इतनी विविधता और पर्व में कृषि के साथ जुड़े उत्सवों की प्रधानता बिहू के प्रकृतिपूजक स्वभाव को व्याख्यायित करती है। जब प्रकृति वसंत के विभिन्न रंगों से रंग जाती है, तब बहाग बिहू अपने स्थानीय नाम, अर्थात् रंगाली बिहू के रूप में मनाया जाता है। काति बिहू का दूसरा नाम कंगाली बिहू भी है, जो कि कार्तिक के समय किसानों के खाली अन्न-भांडारों या कंगाली को प्रकट करता है। रिक्तता का अपना उत्सव है। तुलसी चौरे की पूजा के साथ ही खेतों में दीपक जलाकर अच्छी फसल की कामना करते हुए कंगाली बिहू अनाज के कोठारों को खूब भर देने की कामना के साथ मनाया जाता है। माघ बिहू को भोगाली बिहू भी कहते हैं, जिसमें धन-धान्य से परिपूर्ण भोग-आनंद का उत्सव होता है। फसल की कटाई के साथ कृषि-प्रधान जीवन में उमंग और उल्लास भर जाता है, जो इस पर्व में प्रकट होता है। सोलुंग, सोरी, दारांग, माहोहो, आओलिं मोन्यु, चांग नागा समुदाय का ‘नाक्नयुलेम’ पर्व, लेपचा समुदाय का ‘तेंदोंग-ल्हो-रम-फत’ और मिजो समुदाय का ‘न्हुआई-पुई’ आदि पर्व-अनुष्ठान अलग-अलग तरीकों से प्रकृति पूजा के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर्वों-अनुष्ठानों में लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनृत्यों का विशेष स्थान होता है। इनके माध्यम से आदिवासी समूह प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को प्रकट करते आए हैं। प्रकृति-पूजा के साथ ही इन पर्वों-अनुष्ठानों में आदिवासी समुदायों के आदिपुरुषों, वीर योद्धाओं के जीवन-चरित और उनकी कथाएँ भी जुड़ती चली गईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश में ‘आबो-तानी’ के नाम से ऐसे शक्तिशाली पुरुष को पूजा जाता है, जो लोगों को प्राकृतिक आपदाओं और संकटों से बचाने वाला है। इसी कारण वे ‘आबो-तानी’ को अपना जन्मदाता मानते हैं। ‘आबो-तानी’ की छः संताने हैं, जो अलग-अलग जनजातीय पहचान बना चुकी हैं। इनको तानी वर्ग का जनजातीय समूह कहा जाता है। यह समूह मानता है, कि दोइनि-पोल्लो (सूर्य-चंद्र) आकाश में विराजते हैं और दुनिया के सारे कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। ये अच्छे लोगों का मार्गदर्शन भी करते हैं और बुरे लोगों को दंड भी देते हैं। सूर्य और चंद्रमा की पूजा प्रकृति से जुड़ी हुई है। नदी, तारे, झरने, वन आदि की पूजा पूर्वोत्तर के प्रकृतिपूजक समाज की आस्थाओं को व्याख्यायित करती है।

मणिपुर का मैतेयी जनजातीय समूह ‘सने-मही’ की पूजा करता है। ‘सने-मही’ मुख्य रूप से प्रकृति के देवता हैं। इनके प्रति समूचे पूर्वोत्तर में आस्था देखी जा सकती है। ‘सने-मही’ मत का मैतेयी में लिखा आदिग्रंथ है- पूया। यह वस्तुतः ‘पू’ और ‘याथङ्’ से बना है, जिसका अर्थ है- पूर्वजों द्वारा दिये गए निर्देश। इस ग्रंथ में ‘लाइ-हाइ-लाओबा’, अर्थात् भगवान् के आनंद, के साथ ‘लाइ-हराओबा’ नामक पर्व को जोड़ा गया है। भगवान को आनंद प्रकृति के निर्माण और संचालन में आता है, अपनी सृष्टि को प्रसन्न देखने में आता है। इस कारण ‘लाइ-हराओबा’ सीधे-सीधे सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा और प्रकृति की पूजा से जुड़ जाता है। यह पर्व अनेक नृत्यों, लोकगीतों और पर्वानुष्ठानों का समन्वित रूप है। इसमें उमंगलाई, अर्थात् वन के देवी-देवताओं की पूजा होती है। पोखरों-तालाबों की पूजा होती है। इसमें तीन सौ से अधिक ग्रामदेवी-देवताओं की पूजा होती है, पूर्वजों की पूजा होती है।

‘लाइ-हराओबा’ के इस दीर्घ नृत्य-नाट्यानुष्ठान में पूर्वोत्तर की उस वैचारिकता की झलक भी मिलती है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सजग रही है। यह धार्मिक नृत्य-नाट्यानुष्ठान इसी कारण प्रेमकथाओं की उपस्थिति के बाद भी विशुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को स्वयं में जीवंत रखता है। सृष्टि के निर्माण और संचालन में नर-नारी की उपस्थित, उनकी लौकिक-ऐहिक भाव-भंगिमाएँ असंयमित नहीं करती हैं; मन में विकृत भावों को, कामोत्तेजना को उत्पन्न नहीं करती हैं। यह समग्र अनुष्ठान पुस्तकीय ज्ञान से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का अद्भुत माध्यम बन जाता है।

‘लाइ-हराओबा’ के नृत्य-नाट्यानुष्ठान का एक महत्त्वपूर्ण अंश होता है- ‘खंबा-थोइबी’ नृत्य। यह भी नाट्य-नृत्य है। इसमें लोककथा भी समाहित है। ‘खंबा’ एक साधारण युवक है, और ‘थोइबी’ राजकुमारी है। मणिपुर का पुरातन नगर है- मोइरङ। यह मोइरङ वंश के 52 प्रतापी शासकों की राजधानी रहा है। ‘खंबा-थोइबी’ की उत्पत्ति भी इसी प्राचीनतम नगर में हुई है, ऐसी मान्यता ‘मोइरङ परब’ नामक मणिपुरी महाकाव्य में व्यक्त हुई है। खंबा-थोइबी 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के ऐसे नायक-नायिका हैं, जिन्होंने प्रेम की अनूठी परिभाषा को समाज के सामने रखा था। अनाथ खंबा की बहन खाममू ने मेहनत-मजदूरी करके, और भीख माँग-माँगकर खंबा को पाला था। थोइबी मोइरङ राजपरिवार की राजकुमारी थी। मोइरङ राजा और उनके भाई के बीच वह इकलौती संतान थी। खंबा और थोइबी के पवित्र प्रेम के बीच कोङ्ग्याङ्बा आ जाता है। वह मोइरङ राजपरिवार के विश्वस्त अधिकारी का बेटा है। तमाम कथा-प्रसंगों के बीच खंबा और थोइबी का प्रेम सफल हो जाता है, किंतु जरा-सी एक भूल होती है, और थोइबी के हाथों खंबा की हत्या हो जाती है। अंत में थोइबी भी आत्महत्या कर लेती है।

इस लोकनाट्य-नृत्य में नटराज की अनेक नृत्यमुद्राएँ आती हैं। इस कारण यह नृत्य-नाट्य शिव के तांडव और नटराज रूप से भी जुड़ जाता है। धूनी रमाने वाले, वन-प्रांतरों में निवास करने वाले शिव को ‘खंबा’ में, और राजा हिमांचल की पुत्री राजकुमारी पार्वती को ‘थोइबी’ में देखते हुए ‘खंबा-थोइबी’ नामक यह लोकनृत्य-नाट्य शिव-पार्वती की कथा से जुड़ जाता है। भले ही शिव और पार्वती के जीवन की कथा पूरी तरह से खंबा-थोइबी की कथा से मेल न खाती हो, फिर भी इस प्रेमकथा में शिव और पार्वती के आगमन से यह ऐसे प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसे भक्तिकाल की प्रेममार्गी काव्यधारा के पूर्वोत्तरीय संस्करण के रूप में देख सकते हैं। शिव के साथ शक्ति के रौद्र और सौम्य रूप, यथा- कामाख्या और त्रिपुरसुंदरी पूर्वोत्तर में शाक्त-साधना के प्रतीक हैं।

पूर्वोत्तर की एक अन्य प्रमुख जनजाति है- मिकिर। यह स्वयं को ‘करबी’ भी कहती है। ‘करबी’ का स्थानीय बोली में अर्थ होता है- मनुष्य। ये स्वयं को ब्रह्मा से उत्पन्न मानते हैं। इस प्रकार ये देव से उत्पन्न मनुष्य हैं। इस समुदाय के द्वारा पूर्वजों के श्राद्धकर्म के समय लोकगीत गाया जाता है, जिसमें किसी महान पक्षी द्वारा अनेक अंडे दिये जाने का वर्णन मिलता है। मिकिरों या करबियों के अनुसार ये अंडे ब्रह्मा के दिये हुए थे, और इन अंडों में से ही मनुष्यों की अलग-अलग प्रजातियाँ उत्पन्न हुईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जनपद में परशुराम कुंड है। यह कुंड मिशिम प्रदेश के हृदय में स्थित है। अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय व्यवस्था में मिश्मी जनजाति की बड़ी संख्या है। पुराने समय में ये परशुराम कुंड की व्यवस्था करने और यात्रियों से कर वसूलने का काम करते थे। मिश्मी लोग स्वयं को कुंडिनपुर के राजा भीष्मक के पुत्र रुक्मि का वंशज मानते हैं। रुक्मिणी के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल से रुक्मिणी के विवाह को रुकवाया था, और स्वयं विवाह किया था। इस पर रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भयंकर संघर्ष भी हुआ। कहा जाता है, कि रुक्मिणी के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का ऐसा प्रहार किया, कि रुक्मिणी के भाई रुक्मि का अजीब तरीके से केश-कर्तन हो गया। इस कारण आज भी मिश्मी समुदाय के लोग बहुत छोटे केश रखते हैं। इसी तरह हार से दुःखी मिश्मी समुदाय के लोग अपने कपाल पर ‘कॉपलि’ नामक चाँदी का पट्टा धारण करते हैं।

आज के नागालैंड का दीमापुर हिडिंबापुर से विकृत होकर बना है, ऐसा माना जाता है। नागालैंड का एक जनजातीय समूह स्वयं को अज्ञातवासी भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानता है। दीमापुर में  स्थित हिडिम्बा के बाड़ा में चौसर खेल की बड़ी-बड़ी गोटियाँ जैसी प्रस्तर आकृतियाँ रखी हैं, जिनसे किसी जमाने में भीम और उनका पुत्र घटोत्कच चौसर खेला करते थे, ऐसी भी मान्यता है।

बृहत् असम, अर्थात् कामरूप अर्थात् प्राग्ज्योतिष का राजा शैलाधिपति भगदत्त अपने किरात सैनिकों, अर्थात् वर्तमान नागालैंड के मूल निवासियों को साथ लेकर कौरवों की तरफ से महाभारत के युद्ध में लड़ने के लिए गया था। कुरुवंशीय राजा ययाति के पुत्र द्रहु की 38वीं पीढ़ी के राजा त्रिपुर से त्रिपुरा को अपना यह नाम मिला था। महाभारत का गंधर्वलोक, अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का नैहर और अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन द्वारा संचालित राजवंश का जीवंत साक्ष्य आज का मणिपुर है।

पूर्वोत्तर की तीवा (लालुंग) जनजाति अपने को माता सीता का वंशज मानती है। इसी प्रकार करवी जनजाति स्वयं को बालि और सुग्रीव का वंशज मानती है। पूर्वोत्तर में रामकथा का आगमन वाल्मीकि की रामायण के साथ होता है। इसके अतिरिक्त बंगाल की कृत्तिवासी रामायण का प्रभाव पूर्वोत्तर में पड़ा। 14वीं-15वीं शताब्दी में माधव कंदली द्वारा रचित सप्तकांड रामायण पूर्वोत्तर के लिखित भक्तिसाहित्य का पहला ग्रंथ कहा जा सकता है। यह देववाणी के रूप में नहीं, बल्कि लौकिक कथा के रूप में है, इस कारण बृहत् असम के लोकजीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इसमें दिखाई पड़ते हैं। असमीया रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा के प्रसंग में राम और सीता का संवाद भी है। इसमें अग्निपरीक्षा के लिए कहने पर सीता बहुत क्रोधित होती हैं। अन्य रामकथाओं की तरह असमीया रामकथा की सीता अबला नहीं दिखती हैं। यह प्रसंग पर्वतीय महिलाओं की संघर्षशीलता और उनके साहस को प्रकट करता है।

तिवा जनजाति में ‘रामायने खरङ्’ नाम से रामकथा का मौखिक रूप प्रचलित रहा है। इसमें वाल्मीकि रामयण के विभिन्न कथा-प्रसंग अलग-अलग लोकगीतों के रूप में आते हैं। ‘लिकछा लामाङ्’ खामति जनजाति की रामकथा है। इसमें बौद्ध प्रभाव है, और जातक कथाओं के प्रसंग भी इसमें आते हैं। करवी समुदाय में ‘छाबिन-आलुन्’ नामक लोकगीत गाए जाते हैं। ये लोकगीत रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित होते हैं। चूँकि ये लिखित रूप में नहीं थे, इस कारण अलग-अलग गीत-खंडों में अलग-अलग कथाएँ होती हैं। ‘छाबिन-आलुन्’ का संकलित रूप ही करवी रामायण कहलाता है। इसमें करवी समुदाय का जीवन, उनका रहन-सहन और उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताएँ समग्र रूप में समाहित हो गईं हैं। उदाहरण के रूप में, करवी रामायण के राम और लक्ष्मण परंपरागत झूम खेती करते हैं। राजा जनक भी झूम खेती करते हैं। सीता अपने पिता के लिए कलेवा लेकर, साथ ही धान से बनी देशी मदिरा लेकर खेत में जाती है। एक बार सीता अपने घर में साफ-सफाई करते समय भारी-से लोहे के धनुष को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देती हैं, और तब जनक यह तय करते हैं कि वे अपनी बेटी का विवाह ऐसे वीर युवक से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। तिवा, खामति और करवी रामकथाओं के लोक-संस्करणों की तरह अन्य जनजातीय समूहों में रामकथाएँ प्रचलित हैं। इन सभी में एक समानता है, कि इनमें जनजातीय-पर्वतीय जीवन इस तरह से घुला-मिला है, कि रामकथा और राम इन्हीं जनजातीय समूहों के अपने होकर रह गए हैं।

ये पूर्वोत्तर के जनजातीय समाजों के श्रद्धा और प्रेम के भाव ही कहे जाएँगे; जिन्होंने राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिव और शक्ति को अपने में ढाल लिया और उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया। भक्ति का यह ऐसा उदात्त और विलक्षण स्वरूप है, जिसे अन्यत्र खोज पाना जटिल और दुर्लभ है। श्रद्धा और प्रेम के भावों से भक्ति की निर्मिति को शाण्डिल्य और नारद ऋषियों ने बताया है। इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्याख्यायित किया है। श्रद्धा और प्रेम के समन्वित भावों से निर्मित भक्ति और इस भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य पूर्वोत्तर की अपनी विशेष पहचान गढ़ता है। अतीत से वर्तमान तक समग्र पूर्वोत्तरीय भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार इसी भावभूमि पर हुआ है।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक जनजातीय समुदायों का यह विशाल लोकसाहित्य, या कहें भक्तिसाहित्य लोककंठों में ही जीवित रहा। बाद में इसके लिखित संस्करण भी जागरूक साहित्यसेवियों द्वारा तैयार किये गए। सन् 1993 में रूपसिंह देउरी ने ‘रामायने खराङ्’ का असमीया लिपि में मुद्रित संस्करण तैयार किया। इसी प्रकार डॉ. देवेनचंद्र दास ने ‘छाबिन आलुन्’ को देवनागरी में लिपिबद्ध करके सन् 2000 ई. में प्रकाशित कराया। ऐसे अनेक प्रयास पूर्वोत्तर में हुए हैं, और इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है।

समग्रतः; प्रकृति-पूजा, प्रकृति पुरुष शिव और शक्ति से क्रमशः महाभारत-रामकथा के कथा-प्रसंगों ने पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को निर्मित किया। यह आधार मुख्यतः लोकजीवन, लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं-लोककलाओं का है। इसी कारण पौराणिक कथा-प्रसंग लोकसंस्करण में विकसित हुए, विस्तृत हुए। पूर्वोत्तर की यह ऐसी विशिष्टता है, जिसने युगों-युगों तक यहाँ के आस्थावान जनजातीय समूहों को एक सूत्र में बाँधे रखा। भले ही वैचारिक संक्रमणों, उन्माद और बर्बरता की स्थितियों ने, जातीय-क्षेत्रीय-भाषायी अस्मिता के संघर्षों और धार्मिक असंतुलनों ने पूर्वोत्तर की अपनी पुरानी पहचान को, जड़ों को गहराई में दबा दिया हो, मगर इस एक्य के सूत्र को, समन्वय को भक्ति साहित्य के लोकसंस्करणों के माध्यम से पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

भक्ति-साहित्य का यह लोक-संस्करण भले ही शिष्ट साहित्य की परिधि से बाहर हो, किंतु इसी के रस-संचय से कालांतर में वैष्णव भक्ति (जात्रा, नामघर आदि) तक भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार पूर्वोत्तर में हुआ है। भक्ति-साहित्य के समग्र स्वरूप को पूर्वोत्तर के संदर्भ में माधवदेव द्वारा रचित निम्न पंक्तियों के आलोक में देखा जा सकता है-

धन्य-धन्य कलिकाल / धन्य नरतनु भाल / धन्य-धन्य भारतबरिषे (बरगीत / माधवदेव)

संदर्भ ग्रंथ-

1. भारत की लोकसंस्कृति, सं. हेमंत कुकरेती, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018,

2. भारतीय साहित्य की पहचान, सं. डॉ. सियाराम तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2015,

3. पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य, सं. डॉ. अनुशब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2017,

4. कृतिरूप संघ दर्शन, संकलन व संपादन- हो. वे. शेषाद्रि, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, अष्टम सं. 2015,

5. असम : लोक-संस्कृति और साहित्य, जोगेश दास, हिंदी अनुवाद कृष्ण गोपाल अग्रवाल, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, सं. 1976

6. मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में, डॉ. देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2006 ।

{पूर्वोत्तर भारत का भक्ति साहित्य (पुस्तक), संपादक डॉ. मंदाकिनी शर्मा, प्रकाशक- अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली में प्रकाशित}

-डॉ. राहुल मिश्र


यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद

 



यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद

प्रगति का साधारण अर्थ है- आगे बढ़ना। जो साहित्य जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक हो, वही प्रगतिशील साहित्य है। इस दृष्टि से विचार करेंगे तो तुलसीदास सबसे बड़े प्रगतिशील लेखक प्रमाणित होते हैं। भारतेंदु बाबू और द्विवेदी युग के लेखक, मुख्यतः मैथिलीशरण गुप्त भी प्रगतिशील लेखक हैं। परंतु आज का प्रगतिवादी इनमें से किसी को भी प्रगतिशील नहीं मानेगा- ये सभी तो उसके अनुसार प्रगतिक्रियावादी लेखक हैं। अतः प्रगति का अर्थ आगे बढ़ना अवश्य है, परंतु एक विशेष ढंग से, एक विशेष दिशा में। उसकी एक विशिष्ट परिभाषा है। इस परिभाषा का आधार है- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद।1

सच्ची बात तो यह है कि हमारे अधिकांश साहित्यकार, जो प्रगतिवादी वर्ग के नेता माने जाते हैं, स्वयं किसी पूँजीपति से कम नहीं हैं। पहाड़ियों के वैभवपूर्ण वातावरण में बैठकर निश्चिंतता से मजदूरों के दुःख-दर्द के गीत लिखे जा सकते हैं, किंतु उनमें अनुभूति की सजीवता आ जाय, यह आवश्यक नहीं। फलतः प्रगतिवादी  साहित्य हमारे हृदय को बहुत कम स्पर्श करता है।2

हिंदी के जाने-माने समीक्षक-आलोचक डॉ. नगेंद्र और हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्येतिहासकार डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त के उक्त कथनों के माध्यम से हिंदी साहित्य के प्रगतिवाद को जाना-समझा जा सकता है। प्रगतिवाद अपने सीधे-सरल अर्थों में भले ही प्रगति की विचारधारा का पोषण करने के अर्थ को व्याख्यायित करता हो, किंतु हिंदी साहित्य में जिस रूढ़ और विशिष्ट अर्थों से संपृक्त प्रगतिवाद की चर्चा की जाती है, वह प्रगति के सीधे और सरल स्वरूप से पूर्णतः भिन्न है। इसी कारण प्रगतिवाद के सामान्य, सीधे और सरल अर्थ को ग्रहण कर लेने पर उसी प्रकार की स्थिति का जन्म हो जाता है, जैसी कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत के साथ बन गई थी, जैसी कि प्रेमचंद के साथ बनी थी। डॉ. नगेंद्र अपने निबंध- ‘प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य’ में लिखते हैं-

हिंदी में प्रगतिवाद का आदिग्रंथ ‘गोदान’ है। परंतु गांधीजी में आस्था रखने वाले प्रेमचंद को शुद्ध प्रगतिवादी शायद न माना जा सके। वे मानववाद के आगे नहीं जा सके। प्रगतिवाद की रूपरेखा पिछले दो-तीन वर्षों से ही बननी आरंभ हुई है। यह एक विचित्र संयोग है कि हिंदी में प्रगतिवाद का भी सबसे पहला लेखक- जिसने उसे गौरव दिया- यही व्यक्ति है, जो छायावाद का भी एक प्रमुख प्रवर्तक था। मेरा आशय कवि पंत से है।

इस वर्ग के कवि-लेखकों में केवल एक ही प्रवृत्ति सर्व-सामान्य है- क्रांति। शुद्ध प्रगतिवादी दृष्टिकोण तो शायद पंत और नये कवियों में नरेंद्र ने ही ग्रहण किया है। और सच तो पंत और नरेंद्र में भी यह बुद्धि की प्रेरणा, संस्कार अभी उनके पीछे को ही दौड़ रहे हैं। शेष लेखक-कवि तो अंशतः ही प्रगतिशील हैं।3

अपने इस लेख के उपरोक्त संदर्भ में नगेंद्र एक टिप्पणी (फुटनोट) भी लिखते हैं- परंतु अब इन दोनों (सुमित्रानंदन पंत और नरेंद्र शर्मा) को भी प्रगतिवादी पार्टी के चीफ व्हिप डॉक्टर रामविलास शर्मा ने पार्टी से निकाल दिया है।4 यह टिप्पणी सिद्ध करती है, कि जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की पक्षधरता प्रगतिवाद का एक प्रमुख आयाम कहा जाता है, वह सैद्धांतिक रूप से यहाँ दिखाई नहीं पड़ता है। यहाँ सुमित्रानंदन पंत की ‘युगवाणी’ में संकलित कविता ‘चींटी’ के एक अंश को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं-

निद्रा, भय, मैथुनाहार / -ये पशु लिप्साएँ चार- / हुईं तुम्हें सर्वस्व-सार? /

धिक् मैथुन आहार यंत्र! / क्या इन्हीं बालुका भीतों पर / रचने जाते हो भव्य, अमर / तुम जन समाज का नव्य तंत्र? / मिली यही मानव में क्षमता? / पशु, पक्षी, पुष्पों से समता? / मानवता पशुता समान है? / प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है? /

बाह्य नहीं आंतरिक साम्य / जीवों से मानव को प्रकाम्य! / मानव को आदर्श चाहिए, / संस्कृति, आत्मोत्कर्ष चाहिए, /

बाह्य विधान उसे हैं बंधन, / यदि न साम्य उनमें अंतरतम- / मूल्य न उनका चींटी के सम, / वे हैं जड़, चींटी है चेतन! / जीवित चींटी, जीवन वाहक, / मानव जीवन का वर नायक, / वह स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक!/5

यहाँ पंत ने जिस प्रकार प्रगतिवाद की संकीर्ण वैचारिकता पर तीखी चोट की है, उसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी तीखी आलोचना को पचा पाना प्रगतिवादियों के लिए सहज नहीं रहा होगा। इसी प्रकार प्रेमचंद के प्रगतिवादियों से संबंध को व्याख्यायित करना होगा। सज्जाद ज़हीर के प्रयासों से लंदन में सन् 1935 में स्थापित होने वाला प्रगतिशील लेखक संघ भारत पहुँचता है। भारत के अनेक साहित्यकारों- जैनेंद्र, गंगानाथ झा, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सच्चिदानंद सिन्हा, शिवदान सिंह चौहान, नरेंद्र शर्मा, हसरत मोहानी, जोश मलिहाबादी और डॉ. अब्दुल हक़ सहित रवींद्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद इस समूह के संपर्क में आए। प्रारंभ में सज्जाद ज़हीर का कहना था, कि यह समूह भारतीय अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव-प्रेम, उसकी यथार्थप्रियता और उसके सौंदर्यतत्त्व लेने के पक्ष में है।6  इस प्रकार प्रगतिवाद की एकदम अलग और प्रायः सर्वस्वीकृत विचारधारा को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन 09-10 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन के सभापति प्रेमचंद थे। यहाँ उल्लेखनीय है कि दो बैलों की कथा, पूस की रात, आत्माराम, स्वत्व रक्षा, अधिकार चिंता, नागपूजा, पूर्व संस्कार, सैलानी बंदर, मुक्तिधन, और ऐसी ही तमाम कहानियों के साथ ही उपन्यासों में प्रेमचंद जितने पशु-पक्षियों के प्रति सहृदय प्रतीत होते हैं, उतना ही लगाव और आकर्षण भारत के ग्राम्य जीवन और भारतीय संस्कृति के प्रतीकों के लिए प्रकट होता है। ऐसी अद्भुत, विलक्षण और कालजयी रचनाएँ करने वाले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की विचारधारा से जुड़कर भारतीय संस्कृति और भारतीयता के प्रतीकों को विस्मृत कर बैठें होंगे, यह स्वीकार करना असंभव है। उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन से पूर्व प्रेमचंद का इस विचारधारा के साथ कोई जुड़ाव नहीं था और इस अधिवेशन के लगभग छह माह बाद ही प्रेमचंद का असामयिक निधन हो गया। कहना न होगा, कि प्रेमचंद की सभी रचनाओं को अपने अनुरूप प्रस्तुत करते हुए प्रगतिवाद के झंडाबरदारों ने प्रेमचंद को अपने खेमे का साहित्यकार घोषित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। यह क्रम आज भी देखा जा सकता है, जबकि वास्तविकता यह है कि यदि प्रेमचंद जीवित होते, तो उन्हें भी पंत और नरेंद्र शर्मा की तरह प्रगतिवादी पार्टी से कब का निष्कासित कर दिया गया होता, या फिर वे जैनेंद्र और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की तरह स्वयं ही अलग हो गए होते। इसी प्रकार रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के कोलकाता अधिवेशन (सन् 1938) की अध्यक्षता की थी। टैगोर का साहित्य, उनकी संगीत-साधना और उनका जीवन किसी भी प्रकार से प्रगतिवाद की विचारधारा से मेल खाने वाला प्रतीत नहीं होता। इसी कारण कालांतर में रवींद्रनाथ ठाकुर भी प्रगतिवाद के खेमे से बाहर हो गए। इस संदर्भ में डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त लिखते हैं-

वस्तुतः मुंशी प्रेमचंद और गुरुदेव टैगोर- दोनों ने ही प्रगतिशीलता को एक व्यापक एवं उदात्त रूप में ही ग्रहण किया था, जबकि परवर्ती साहित्यकारों ने इसे मार्क्सवाद की संकीर्ण सीमाओं में अवरुद्ध करके इसे ‘प्रगतिशीलता’ से ‘प्रगतिवाद’ का रूप दे दिया। प्रगतिशीलता जहाँ किसी वाद-विशेष की सूचक नहीं है। कोई भी विचार, जो समाज की प्रगति में सहायक होता है, ‘प्रगतिशील’ कहा जा सकता है, जबकि ‘प्रगतिवाद’ का अर्थ विशुद्ध मार्क्सवादी विचारों से लिया जाता है। इसीलिए ‘प्रगतिवाद’ की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है।7

रूस की जारशाही को नष्ट करके मार्क्स का जीवन-दर्शन सारी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर चुका था। इस आकर्षण ने लंदन से होते हुए भारत में पदार्पण किया। भारत की सनातन परंपरा, जो अतीत के अनेक उतार-चढ़ावों को देखते-भोगते और विषम परिस्थितियों से जूझते हुए अखंड-अक्षुण्ण बनी हुई थी, उसमें सेध लगाने के लिए जिस प्रकार प्रगतिवाद अर्थात् मार्क्सवाद को ‘प्रगतिशीलता’ के आवरण में छिपाकर प्रस्तुत किया गया, उसने अवश्य ही अनेक बुद्धिजीवियों-साहित्यसेवियों को भ्रमित किया, परंतु भ्रम की यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रह सकी। इस अवधि में ‘प्रगतिवाद’ ने अवश्य ही ऐसा वर्ग तैयार कर लिया था, जो क्रांति की बात करके, द्वंद्वांत्मक भौतिकवाद की बात करके अपना वर्ग तैयार करने के प्रयास में सक्रियता के साथ लगा हुआ था। इसी के फलस्वरूप अवसर का लाभ उठाते हुए ऐसे साहित्यकारों को अपने खेमे में दिखाने का प्रयास ‘प्रगतिवाद’ की धारा के लोग करने लगे, जिनके साहित्य का उल्लेख करके, जिनके स्वयं के प्रभाव का वर्णन करके ‘प्रगतिवाद’ की ओर सामान्य जन को, आम पाठकों को आकर्षित किया जा सके।

यह स्थिति राजनीति के क्षेत्र में भी बनने लगी थी। यहाँ उल्लेख करना होगा, कि इसके लिए सीधा और सरल-सा रास्ता कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) में ही बन गया था। इस अधिवेशन के अध्यक्षीय उद्बोधन में जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं को साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी घोषित करते हुए कहा- मैं तो साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी हूँ।8 उनके द्वारा ‘साम्यवाद’ शब्द किस अर्थ में प्रयोग किया गया है, इसे जाने बगैर पंडित नेहरू के (अंध) अनुयायियों ने साम्यवाद को, और फिर कालांतर में ‘प्रगतिवाद’ को अपना लिया। राजनीति के राजपथ में बिना प्रयास के, बिना किसी संघर्ष के उन ‘क्रांतिकारियों’ ने स्थान पा लिया था, जिन्हें अनेक सुख-सविधाओं के बीच पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों जैसे जीवन को जीते हुए सर्वहारा वर्ग की पीड़ाओं और चिंताओं को कलमबद्ध करने में महारथ हासिल थी। देश के तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दल में साम्यवादियों की यह घुसपैठ कभी आलोचना का विषय नहीं बन सकी। यह अत्यंत रोचक तथ्य है कि कांग्रेस की अपनी नीतियों के निर्धारण में भी इनकी दखल होती रही और इसे स्वीकार किया जाता रहा।

भारतीय समाज-जीवन में धर्म और आस्था का विशिष्ट महत्त्व रहा है। आध्यात्मिकता के बिना भारतीय समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इसके एकदम विपरीत है। इस कारण भारतीय समाज में अपना स्थान बनाने हेतु यह भी आवश्यक था, कि भारतीय आध्यात्मिकता, धर्म-साधना और आस्थावान जीवन-पद्धति को तोड़ा जाए। इस कारण राजनीति और साहित्य में अपनी घुसपैठ से उत्साहित होकर ‘प्रगतिवाद’ या ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ या ‘मार्क्सवाद’ ने धर्म में घुसपैठ का रास्ता खोजना शुरू किया। बौद्धधर्म के अनात्मवाद, अनीश्वरवाद और विज्ञानवाद ने इस रास्ते को सरल बना दिया। भगवान बुद्ध द्वारा जिन बातों को अव्याकृत कहा गया था। जिन बातों पर वे मौन रहे थे, उन्हीं को आधार बनाकर यह प्रचारित-प्रसारित किया जाने लगा, कि बौद्धमत अतीत का, और मार्क्सवाद वर्तमान का जीवन-दर्शन है। इस कारण बौद्ध धर्म को अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा। यह भी प्रचारित किया गया, कि बौद्ध धर्म ही वास्तव में ऐसा धर्म है, जो सर्वहारा समाज के कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकता है। इसी कारण ‘नव बौद्ध’ का विचार समाज में न केवल प्रचलित हुआ, वरन् राजनीतिक हथकंडे के रूप में प्रयोग किए जाने का माध्यम भी बन गया। इसी कारण हजारों वर्षों की उपेक्षा और तिरस्कार की दुहाई दे-देकर राजनीति की रोटियाँ सेंकीं गईं। हजारों-लाखों का समूह बनाकर लोग धर्म-परिवर्तन करने लगे।

इस प्रकार साहित्य, राजनीति और धर्म के क्षेत्र में परजीवी की भाँति सक्रिय होकर भारतीय समाज और संस्कृति पर कुठाराघात करने का श्रेय द्वंद्वात्मक भौतिकवाद या प्रगतिवाद या मार्क्सवाद को जाता है। प्रगतिवादी कविताओं में अनल-गान, अनिल-गान, विप्लव-गान और क्रांति-आह्वान के ऐसे अनेक स्वर उभरने लगे थे, कि मानों सारा देश अनेक बुराइयों-विकृतियों से भर गया है और इस क्रांति-गान से एकदम बदल ही जाएगा। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए परजीवी बनकर रह जाने वाली यह क्रांति की धारा धीरे-धीरे अपने पथ से भटकती चली गई और इसी कारण सबसे पहले साहित्य में इसका स्थान हाशिये पर सिमटकर रह गया। सन् 1950 तक आते-आते यह क्रांति-धारा, यह विप्लव-धारा अपने अवसान की ओर चल पड़ी। राजनीति में स्वयं कभी अपना स्थान नहीं पाकर भी इस धारा के लोग सत्ता के सुख का स्वाद चखते रहे और सत्ता के केंद्र तक अपनी पकड़ बनाए रखने वाले ये परजीवी अपनी विकृत मानसिकता के परिणामस्वरूप अपनी जीवनदायिनी सत्ता-शक्ति को भी ले डूबे। आज धर्म के क्षेत्र में भी इस परजीवी और विकृत-कुत्सित मानसिकता को जाना-समझा जा रहा है और वहाँ भी शुद्धि-परिष्कार का क्रम चल पड़ा है। भारतीय समाज-जीवन के संदर्भों में अप्रासंगिक और अस्वीकार्य इस परजीवी वैचारिकता के अवसान का साक्ष्य बना आज का समय देख रहा है कि सनातन भारतीय परंपरा को तोड़ने वाले, भारतीय समाज की सहकार और सद्भाव वाली संस्कृति को विकृत करने की सोच रखने वाले तत्त्व किस प्रकार बहिष्कृत होते हैं।

संदर्भ-

1.       डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ. त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 877,

2.       डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ. 143,

3.       डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ. त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 882-883,

4.       वही, पृ. 883,

5.       सुमित्रानंदन पंत, चींटी, युगवाणी, हिंदी कविता डॉट कॉम,

6.       अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ, हिंदी विकीपीडिया डॉट आर्ग.,

7.       डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ. 125,

8.       वही, पृ. 128।

(अखिल भारतीय साहित्य परिषद की पत्रिका साहित्य परिक्रमा के जनवरी-मार्च, 2022 अंक में प्रकाशित)

-डॉ. राहुल मिश्र


Friday 4 March 2022

कैलास मानसरोवर में चीन का दखल : आस्था से खिलवाड़

 

कैलास मानसरोवर में चीन का दखल : आस्था से खिलवाड़

कैलास मानसरोवर का नाम ते ही हमारे मनोविचार आस्था और भक्ति भाव में डूब जाते हैं। कैलास मानसरोवर पुरातनकाल से ही हमारी आस्था के केंद्र में है। जिसकी सर्जना परमपिता ब्रह्मा के मानस से हुई, जो विष्णु का क्षीर-सागर है, जो शिव का निवास है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का यह मानसरोवर है, कैलास है। मानसरोवर मानस के सरोवर सदृश भारतीय चिंतन-दर्शन परंपरा में देखा जाता है, जहाँ नीर-क्षीर का विवेक करने वाले हंस विचरण करते हैं। ये मानस के हंस जीवन के सत्य, शिवत्व और सौंदर्य को विवेचित करते हैं, विश्लेषित करते हैं। इसी कारण कैलास मानसरोवर न केवल शिव का स्थान है, वरन् जीवन के सत्य और सत्य के सौंदर्य से युक्त अध्यात्म का केंद्र भी है। पद्म-पंखुडियों की भाँति कैलास पर्वत की श्रेणियों के मध्य स्थापित शिवलिंग और पार्श्व में ही गौरी कुंड व राक्षस कुंड आदि पवित्र सरोवरों के प्रति भारत के जन-जन की आस्था जुड़ी है। इसी कारण अन्य तीर्थयात्राओं की तरह कैलास मानसरोवर की यात्रा, कैलास की प्रदक्षिणा का विधान रहा है।

कैलास मानसरोवर का समग्र परिक्षेत्र भारत, नेपाल और वर्तमान में चीन अधिकृत तिब्बत तक फैला हुआ है। पशुपतिनाथ के प्रति आस्थावान नेपाली जन कैलास मानसरोवर के प्रति भी आस्था रखते हैं। भारत के लिए हिमालय साक्षात् देवालय है और कैलास मानसरोवर देवालयों में भी उत्कृष्टतम् है। एक समय ऐसा था, कि आस्था की यही कड़ियाँ तिब्बत को भी जोड़े हुए थीं। तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद स्थितियाँ तेजी के साथ बदलीं और इन बदलावों ने कैलास मानसरोवर के उस क्षेत्र को विशेष रूप से प्रभावित किया, जो चीन के कब्जे में आया। वर्तमान में 6836 वर्ग किमी. का भाग भारतीय क्षेत्र में है। इस भाग को यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थलों की अंतरिम सूची में सम्मिलित किया है। 19 मई, 2019 को इस क्षेत्र को विश्व विरासत स्थल में सम्मिलित करने से पूर्व चीन और नेपाल द्वारा अपने क्षेत्र को विश्व विरासत स्थल की श्रेणी में जोड़ने के लिए आवेदन किया गया था, किंतु उस पर कुछ भी नहीं हो सका। सम्मिलित श्रेणी, अर्थात् प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत के रूप में समग्र कैलास मानसरोवर परिक्षेत्र को सम्मिलित करने की बात थी, किंतु इसे पीछे चीन की दोहरी मंशा समझ में आती है। संभवतः इसी कारण आज तक चीन अधिकृत क्षेत्र के संबंध में यूनेस्को ने कोई निर्णय नहीं लिया है।

कैलास पर्वतश्रेणी या कैलास रेंज न केवल विशिष्ट सामरिक महत्त्व रखती है, वरन् पर्यावरण की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बहुत महत्त्व का है। वर्ष भर बर्फ से ढकी रहने वाली इस क्षेत्र की पहाड़ियाँ ऐसा जलस्रोत हैं, जो वर्षपर्यंत अनेक बड़ी-छोटी नदियों को जल देती हैं। जलवायु और पारिस्थितिकी के संतुलन की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। कैलास रेंज के उत्तर में ही प्रसिद्ध पैंगांग झील है। पैंगाग झील न केवल पर्यटन के संदर्भ में, वरन् भारत और चीन अधिकृत तिब्बत में सीमावर्ती संघर्षों व झगड़ों के लिए भी चर्चा में रहती है। हाल ही में चीन द्वारा पैंगाग झील के निकट रास्ता और अन्य सैन्य ठिकाने बनाए गए हैं। गालवान और देमचोक में चीन के सैनिकों के साथ होने वाली झड़पें और घुसपैठ की घटनाएँ अकसर चर्चा में रहती हैं। ये सारी स्थितियाँ तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद बनी हैं।

तिब्बत के साथ भारत का धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है। तिब्बत में पनपी महायान परंपरा के बीज भारत के ही हैं। जिस तरह भारत के लोगों की आस्था कैलास मानसरोवर में है, वैसी ही आस्था और धार्मिक संलग्नता महायान परंपरा के अनुयायियों की भी है। तिब्बत में कैलास मानसरोवर को कांग रिनपोछे के रूप में पूजा जाता है। महायानी बौद्ध उसी प्रकार कैलास मानसरोवर की परिक्रमा लगाना पुण्यकार्य मानते हैं, जिस प्रकार सनातन परंपरा के लोग मानते हैं। कैलास मानसरोवर और इससे निकली विभिन्न नदियों, नदों का उल्लेख महायान परंपरा के विभिन्न ग्रंथों में मिलता है। इस कारण तिब्बत और तिब्बत से सटे महायान परंपरा-बहुत लद्दाख के धर्मभीरु श्रद्धालुओं का आवागमन प्रायः वर्ष भर कैलास मानसरोवर तक होता रहता था। कैलास मानसरोवर के साथ ही अमरनाथ और अन्य तीर्थयात्राओं पर जाने वाले लोगों, साधु संन्यासियों ने लद्दाख के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन पर भी गहरी छाप छोड़ी है, जो आज भी लद्दाखी परंपराओं में दिखाई देती है। इसमें बहुत प्रसिद्ध एक लोकगीत और लोकनाट्य है, जो लद्दाखी नववर्ष के समय में गाया-मनाया जाता है। इसमें एक लामा (महायानी परंपरा का संन्यासी) और एक जोगी (सनातन परंपरा का संन्यासी) का रूप धरकर घर-घर जाते हैं और सभी के कुशल-मंगल की कामना करते हैं। अक्षत छिड़ककर अपनी शुभानुशंसाएँ देते हैं। यह परंपरा कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले साधु-संन्यासियों के लद्दाखी जनजीवन में प्रभाव को भी व्याख्यायित करती है।

महायान परंपरा के साथ ही जैन परंपरा में भी कैलास मानसरोव का अपना विशिष्ट धार्मिक महत्त्व है। जैन आगमों में कैलास को अष्टापद कहा गया है। प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव जी ने यहीं पर निर्वाण प्राप्त किया था। ऋषभदेव के परवर्ती जैन तीर्थांकरों के भी कैलास मानसरोवर की यात्राओं और पूजा-तपश्चर्या के विभिन्न प्रसंग जैन ग्रंथों में मिलते हैं। ऐसी मान्यता है कि श्री भरत स्वामी ने यहाँ पर रत्नों के 72 जिनालय बनवाए थे। जैन आगमों में वर्णित कैलास मानसरोवर के विभिन्न प्रसंगों और जैनाचार्यों की यात्राओं के कारण प्रतिवर्ष अनेक जैन तीर्थयात्री भी कैलास मानसरोवर की परिक्रमा करने के लिए जाते हैं।

कुल मिलाकर वृहत्तर भारतीय समाजजीवन की आस्थाएँ कैलास मानसरोवर से जुड़ी रहीं हैं, वर्तमान में भी जुड़ी हैं। अपने अतीत में कैलास मानसरोवर की यात्रा लोगों के लिए कठिन नहीं रही। जिस तरह अमरनाथ, गंगासागर, वैष्णों देवी, रामेश्वरम्, तिरुपति की यात्राएँ सुलभ-सहज हैं, उसी प्रकार एक समय ऐसा भी था, जब लोग बड़ी सरलता के साथ कैलास मानसरोवर की यात्रा कर आते थे। लद्दाख के देमचोक, सिक्किम के नाथू-ला और उत्तराखंड के पिथौरागढ़ आदि से होकर कैलास मानसरोवर के लिए तीर्थयात्री आते-जाते रहते थे। ये मार्ग प्रायः वर्ष भर खुले भी रहते थे। लद्दाख से तो भिक्षुगण और आम श्रद्धालुगण तिब्बत के मठों की यात्राओं पर भी इसी रास्ते से आते-जाते रहते थे।

सन् 1950 के आसपास तक कैलास परिक्षेत्र का बड़ा भाग भारत के हिस्से में था। इसका प्रमुख कारण जम्मू के डोगरा शासकों का आधिपत्य था। जनरल जोरावर सिंह ने इस समूचे क्षेत्र में अपना आधिपत्य कर रखा था। जनमुक्ति के नाम पर तिब्बत को मुक्त कराने की साम्यवादी चीन की योजना जैसै-जैसे साकार होती गई, वैसे-वैसे कैलास रेंज पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का अधिकार बढ़ता गया। सन् 1962 के युद्ध में रेजांग दर्रा और चुशूल सेक्टर के हिस्से दोनों तरफ से खाली हो गए थे। यह युद्ध भारतीय सेना के अद्भुत शौर्य और पराक्रम की गौरव गाथा रच गया था। हालाँकि तत्कालीन राजनीतिक इच्छाशक्ति इस दिशा में नहीं थी। उस समय का राजनीतिक नेतृत्व ऐसा मानता था, कि जिस भूमि पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता है, उस भूमि की रक्षा करना और उस भूमि के कारण अपने साम्यवादी मित्र से संबंध खराब करना उचित नहीं...। ऐसी मान्यताएँ तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की रहीं, फलतः चीन के कदम पूर्वी लद्दाख की ओर धीरे-धीरे बढ़ते रहे। बहुत बड़े भूभाग पर चीन की सैन्य घसपैठ और डटकर बैठ जाने की हरकतें होती रहीं। उत्तराखंड और अरुणाचल आदि राज्यों की सीमा पर भी चीन आगे बढ़ता रहा और अपने संसाधनों को इन क्षेत्रों में उन्नत करता रहा।

इधर गालवान और दौलतबेग ओल्डी में सैन्य अभियानों के साथ ही इच्छाशक्ति से परिपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व की दक्षता ने भारतीय हिस्से में बड़ा बदलाव किया है। सैन्य तैनाती के साथ ही सड़क, संचार आदि अन्य संसाधनों का विस्तार हुआ है। उत्तराखंड की ओर से लिपुलेख दर्रे से होकर जाने वाले मार्ग को पक्का किया गया है। सामरिक महत्त्व वाले अनेक पुलों का निर्माण किया गया है।

इन तमाम स्थितियों को देखते हुए अब तक चीन ने कैलास मानसरोवर में अपना जिस तरह का परोक्ष अतिक्रमण अभियान चला रखा था, उसे प्रत्यक्ष रूप से करना प्रारंभ कर दिया है। कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले लोगों के लिए चीन द्वारा सीमित संख्या में वीसा निर्गत किए जाते रहे हैं। चीन द्वारा तगड़ी वसूली की जाती रही है, इस पर भी यात्रियों को समस्याओं और वैधानिक दाँवपेंचों की अनेक स्थितियों के साथ अपनी यात्रा करनी होती थी। दूसरी ओर चीन धार्मिक यात्रा के लिए संसाधन उपलब्ध कराने के नाम पर कैलास मानसरोवर क्षेत्र में, गौरीकुंड-राक्षसताल के आसपास अनेक आवासीय निर्माण करता रहा है। इसके साथ ही सड़क एवं अन्य संसाधन भी चीन ने वहाँ पर बढ़ाए हैं। यह सोचने की बात है, कि आखिर कितने श्रद्धालुओं को कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए अनुमति दी जाती है, और उस अनुपात में निर्माण-कार्य आदि का विस्तार व विकास कितना किया गया है। निश्चित रूप से आँकड़े यही बताएँगे, कि कैलास मानसरोवर की पवित्रता और उसकी नैसर्गिक सुंदरता को नष्ट करने के लिए चीन द्वारा बेतहाशा भौतिक संसाधनों को वहाँ पर इकट्ठा किया गया है। इतना ही नहीं, पर्यटन केंद्र के रूप में इस धार्मिक स्थान को विकसित किया जा रहा है, जबकि कैलास मानसरोवर की प्राकृतिक निर्मिति को हानि न पहुँचे, इसका ध्यान रखते हुए ही पुरातनकाल से यात्राएँ की जाती रहीं हैं।

चीन द्वारा कैलास मानसरोवर में किए जा रहे विकास और भौतिक संसाधनों की बढ़ोत्तरी के दुखद पर्यावरणीय पक्ष भी दिखाई देते हैं। कैलास पर्वत से सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसे बड़े नदों के साथ ही अनेक छोटी-छोटी नदियाँ निकलती हैं, जिनके प्रदूषण के खतरे के साथ ही जलवायु परिवर्तन में भी यहाँ का विकास एक बड़ा कारक बनता है। इस दृष्टि से यह क्षेत्र अपने स्वाभाविक स्वरूप के साथ रहने दिया जाए, ऐसा अनेक पर्यावरणविदों-चिंतकों का मानना है। इसके बावजूद चीन ने मानसरोवर के निकट ही बड़ी सैन्य छावनियाँ बनाना शुरू कर दिया है। ऐसी सूचनाएँ भी हैं, कि चीन ने मानसरोवर के निकट जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों के लिए ठिकाने भी बनाए हैं। अत्याधुनिक सैन्य उपकरणों के साथ ही उच्च क्षमता वाले राडार और अन्य उपकरण यहाँ पर लगाए जाने का क्रम चीन द्वारा अनवरत जारी है। इसके साथ ही होटल, बड़े आवासीय भवन, बड़ी लंबी-चौड़ी सड़कें आदि भी मानसरोवर के आसपास बनाए जाने की जानकारी इन दिनों चर्चा में है। चीन द्वारा विकसित किए जा रहे ये तमाम संसाधन चीन की सेना की बड़ी जमावट की ओर इंगित करते हैं।

यह अत्यंत विषम स्थिति है, कि भारतीय उपमहाद्वीप का विशिष्ट क्षेत्र, जो न केवल अपना धार्मिक महत्त्व रखता है, वरन् पर्यावरण सुरक्षा-संरक्षा की दृष्टि से भी बहुत महत्त्व का है, वहाँ पर बेतहाशा भौतिक विकास किया जा रहा है, उसकी पवित्रता और शुचिता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। भारत के शीर्ष नेतृत्व के साथ ही भारतीय आमजनमानस के लिए चीन द्वारा कैलास मानसरोवर की धार्मिक मान्यता पर कुठाराघात और अनियंत्रित भौतिक विकास चिंता का विषय है। इसके लिए अनेक मंचों से आवाजें उठाई जाती रहीं हैं। आज भी भारत का एक बड़ा वर्ग उस दिन की प्रतीक्षा में है, जब वह अपने पुरखों की तरह बिना किसी बाधा के कैलास मानसरोवर की धार्मिक यात्रा पर जा सकेगा, जिस दिन कैलास मानसरोवर साम्यवादी-पूँजीवादी चीन के चंगुल से मुक्त हो सकेगा। वह दिन वास्तव में धार्मिक आस्थावान लोगों के लिए ही नहीं, वरन् पर्यावरण प्रेमियों के लिए भी, हिमालय की उपत्यकाओं में सैन्य हलचलों के विराम और शांति के चाहने वालों के लिए भी बड़ा सुखद दिन होगा। हम सभी को उस दिन की प्रतीक्षा है।

Monday 29 November 2021

छेतन फुनछोग : लद्दाखी माटी का अचर्चित नायक...


छेतन फुनछोग : लद्दाखी माटी का अचर्चित नायक...

लद्दाख की वीरप्रसूता धरा अपने कर्मवीर सपूतों के शौर्य और पराक्रम के बल पर जानी जाती है। भारतमाता के धवलमुकुट के मणि सदृश सुशोभित लद्दाख के युवाओं की गौरवगाथा का एक अविस्मरणीय अध्याय उस समय भी लिखा गया था, जिस समय विभाजित पाकिस्तान की नीति-नीयत लद्दाख के समूचे क्षेत्र को अपने में मिला लेने के कुचक्र रच रही थी। इस कुचक्र का मुँहतोड़ उत्तर देने वाले लद्दाखी युवाओं में एक बड़ा नाम छेतन फुनछोग का है।

आज का पाक अधिकृत काश्मीर सन् 1947-48 के कबायली हमलों और पाकिस्तानी सेना के कुचक्रों का साक्षी है। लद्दाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो में 1947 के कबायली हमले हुए थे। उस समय छेतन फुनछोग काश्मीर राज्य के अधिकारी के रूप में स्करदो में तैनात थे। कबायलियों के हमलों ने स्करदो पर आधिपत्य जमा लिया। छेतन फुनछोग लद्दाख के नुबरा में आ गए। इनकी तैनाती भी यहीं पर हो गई। अगस्त, 1948 के बाद पाकिस्तानी कबायली तत्कालीन लेह और कारगिल तहसीलों की तरफ आगे बढ़ रहे थे। कबायली लेह से लगभग तीस किलोमीटर दूर तारू के मैदान तक पहुँच चुके थे। नुबरा घाटी भी एकदम असुरक्षित हो गई थी। इसी समय 2 डोगरा बटालियन के कर्नल (उस समय मेजर) ठाकुर पृथ्वीचंद (महावीरचक्र विजेता) को लद्दाख भेजा गया था, ताकि वे लद्दाख की सीमाओं की सुरक्षा के लिए स्थानीय युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण देकर एक फौज तैयार करें, साथ ही कबायलियों को आगे बढ़ने से रोकें।

कर्नल पृथ्वीचंद केवल 14 सहयोगियों के साथ लद्दाख आए थे। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती नुबरा घाटी में कबायलियों को घुसने से रोकने की थी। लेह में काश्मीर राज्य की एक ही प्लाटून थी। उस समय के लद्दाख में नहीं के बराबर ही संसाधन थे। अस्थायी हवाई अड्डा बनाने के लिए इंजीनियर सोनम नोरबू ने अनथक मेहनत की थी। सड़क मार्ग भी प्रायः अपर्याप्त थे, इस कारण सैनिकों का आवागमन बहुत ही कठिन था। श्रीनगर या मनाली की तरफ से सैन्य सहायता उपलब्ध होना भी कठिन था। ऐसी स्थिति में यही एकमात्र विकल्प था, कि स्थानीय युवक त्वरित सैन्य प्रशिक्षण लेकर आक्रमणकारी कबायलियों के रास्ते को रोकें और लद्दाख की सुरक्षा करें। इस हेतु कर्नल पृथ्वीचंद तो अपना प्रयास कर ही रहे थे, लेकिन उनकी सहायता के लिए स्थानीय स्तर पर जो अपेक्षित था, वह छेतन फुनछोग के माध्यम से ही संभव हो सका, विशेषकर नुबरा घाटी में...।

कर्नल पृथ्वीचंद अपने एक संस्मरणात्मक लेख में लिखते हैं, कि- “इस पूरे अभियान में (पाकिस्तानी कबायलियों के नुबरा घाटी में हमले को रोकने के लिए) का-गा (लद्दाखी भाषा में आदरणीय के समानार्थक) छेतन फुनछोग ने सैनिकों को हरसंभव मदद दी। वे स्वयं मोर्चे पर रहते थे। उन्होंने युवाओं-नागरिकों को स्वयंसेवक के तौर पर तैयार किया, जो प्राथमिक सैन्य प्रशिक्षण लेकर मोर्चे पर डटे थे। उन्होंने न केवल सैनिकों का, बल्कि सामान्य नागरिकों का मनोबल भी बढ़ाया। वे सीमा पर खुद पहुँचकर देखते थे, कि यहाँ किन चीजों की कमी है और बिना इंतजार किए हुए सामान को पहुँचाने के लिए सक्रिय हो जाते थे। परिवहन-व्यवस्था, भारवाहकों की व्यवस्था और सामान आदि की कमी उनके कारण कभी नहीं हुई। इतना ही नहीं, उनकी बुद्धिमत्ता और तत्काल निर्णय लेने की कुशलता के कारण हमलावरों के बारे में जानकारी पाने और दुश्मन के द्वारा किए जाने वाले दुष्प्रचार को रोकने में भी हमें सफलता मिली।“ कर्नल पृथ्वीचंद आगे लिखते हैं, कि- ”घाटी (नुबरा घाटी) में हमारी सफलता के पीछे का-गा छेतन फुनछोग जैसे लोग थे, जिनका सहयोग मिला और जिनके द्वारा नागरिकों का मनोबल ऊँचा रखने में मदद मिली।” कर्नल पृथ्वी चंद का यह संस्मरणात्मक लेख राजपुर, देहरादून स्थित मोरावियन इंस्टीट्यूट की 25वीं वर्षगाँठ पर प्रकाशित स्मारिका में छपा था। यह इंस्टीट्यूट सन् 1963 में छेतन फुनछोग द्वारा स्थापित किया गया था। इस शिक्षण संस्थान की स्थापना न केवल हिमालयी परिक्षेत्र में आने वाले बदलाव की आहटों का परिणाम थी, बल्कि छेतन फुनछोग की अध्येतावृत्ति और अध्ययन-अध्यापन के प्रति रुचि की अभिव्यक्ति भी थी।

लेह नगर से लगभग 15 किलोमीटर दूर साबू गाँव के प्रतिष्ठित परिवार में सन् 1908 में जन्मे छेतन फुनछोग बचपन से ही मेधावी रहे। उनका परिवार लेह के राजपरिवार के निकट रहा और उनके पूर्वज लद्दाख के राजा के मंत्री भी रहे। छेतन फुनछोग अपने पिता की इकलौती संतान थे। उनके पिता लद्दाख के प्रतिष्ठित रिजोंग मठ के अनुयायी थे, फलतः वे भी दो वर्षों तक भिक्षु के रूप में रिजोंग मठ में रहे और महायान बौद्ध परंपरा के ग्रंथों के साथ ही लद्दाखी भाषा का गहन अध्ययन किया। उनके पिता का 40 वर्ष की आयु में देहांत हो गया था, इस कारण उन्हें अपनी मठ-आधारित शिक्षा को बीच में ही छोड़कर सासांरिक जीवन में प्रवेश करना पड़ा। इसके बाद भी उन्होंने अध्ययन से मुख नहीं मोड़ा। वे लद्दाख के जाने-माने विद्वान जोसफ गेर्ग्यन के संपर्क में आए। जोसफ गेर्ग्यन अपनी युवावस्था में ही ईसाई बन गए थे। सन् 1933 में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का लद्दाख आना हुआ था। वे गेर्ग्यन जी से मिले भी थे, और उनकी साहित्यिक अभिरुचि से बहुत प्रभावित भी हुए थे। राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक ‘यात्रा के पन्ने’ के ‘लद्दाख में’ खंड में गेर्ग्यन महाशय का उल्लेख करते हुए बताते हैं, कि- “उनकी उम्र साठ के ऊपर होगी। वे लद्दाख से नीचे कभी नहीं गए और उन्होंने कभी रेलगाड़ी भी नहीं देखी है। वे ही एक सज्जन हैं, जो शुद्ध भोटभाषा लिख सकते हैं।“ राहुल सांकृत्यायन इसी क्रम में छेतन फुनछोग का उल्लेख भी करते हैं। वे उन्हें नो-नो छे-र्तन-फुन्-छोग् कहकर संबोधित करते हैं। लद्दाखी बोलचाल में नो-नो कहकर युवा और अपने से कम उम्र के बालकों को संबोधित किया जाता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन जब लिखते हैं, कि- उन्हें पढ़ने-लिखने, शुद्ध भोटभाषा का व्यवहार करने और लद्दाख के साहित्य को सहेजने आदि कार्यों के लिए नो-नो छे-र्तन-फुन्-छोग् से बड़ी आशा है, तब उनका यह कथन छेतन फुनचोग की साहित्यिक अभिरुचि और अध्ययनशीलता को सहजता के साथ व्यक्त कर देता है।

राहुल सांकृत्यायन द्वारा वर्णित यह प्रसंग स्पष्ट करता है, कि छेतन फुनछोग, जोसफ गेर्ग्यन व महापंडित राहुल सांकृत्यायन का आपस में मिलना और लद्दाख परिक्षेत्र की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर तीनों की चिंताओं और विचारों का संयोजन भविष्य की ऐसी कार्ययोजना का आधार बनता है, जो कालांतर में छेतन फुनछोग के माध्यम से साकार होता दिखता है। लद्दाख में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए और जनसांख्यिकी में होते बदलाव को रोकने के उद्देश्य से राहुल सांकृत्यायन के प्रयासों से एक सोसायटी का गठन हुआ, जिसका नाम ‘लद्दाख बुद्धिस्ट एजूकेशन सोसायटी’ रखा गया। राहुलजी ने इस समिति के पदों को लद्दाखी भाषा में नाम भी दिए थे। छेतन फुनछोग इस सोसायटी के सचिव बने थे। इस सोसायटी ने एक ज्ञापन भी तत्कालीन काश्मीर दरबार को भेजा था, जिसमें भोटभाषा और संस्कृत के शिक्षकों की नियुक्ति, नए विद्यालयों की स्थापना आदि की माँग की गई थी। इसी सोसायटी के माध्यम से भोटभाषा (लद्दाखी) के व्याकरण और प्राथमिक स्तर की पुस्तकों के प्रकाशन की योजना भी बनाई गई थी।

छेतन फुनछोग का विवाह जोसफ गेर्ग्यन की बेटी सुङ्किल से हुआ। इस विवाह की शर्त के अनुरूप सितंबर, 1934 में ईसाई धर्म में दीक्षित होकर वे एलियाह छेतन फुनछोग बन गए। यद्यपि उनके इस कृत्य को उनके अपने समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया, तथापि विरोधों के बाद भी वे लद्दाखी भाषा, समाज, साहित्य, संस्कृति और राजनीतिक दशा-दिशा के लिए सदैव चिंतित भी रहे और उन्नयन के लिए सदैव प्रयासरत भी रहे। छेतन फुनछोग ने लद्दाखी भाषा का पहला व्याकरण ग्रंथ तैयार किया था। इसके अलावा समाज में शिक्षा के प्रचार व प्रसार के लिए भी वे संलग्न रहे। देशभक्ति का भाव और अपनी मातृभूमि की सेवा का भाव उनमें कूट-कूटकर भरा था। इसी कारण कर्नल पृथ्वीचंद के साथ वे कंधे से कंथा मिलाकर लगे रहे।

लद्दाख की नुबरा घाटी में सन् 1948 में तैयार हुई ‘नुबरा गार्ड्स’ नाम की नवयुवकों के सैन्य-प्रशिक्षित जन-सेना के निर्माण और उसे सैन्य आयुधों से सुसज्जित कराने में छेतन फुनछोग का बड़ा योगदान था। सन् 1948 के आसपास वे नुबरा में काश्मीर राज्य के अधिकारी (लेह व स्करदो के कार्यवाहक तहसीलदार) के रूप में कार्यरत थे। कर्नल पृथ्वीचंद की सैन्य टुकड़ी को सहायता पहुँचाने के साथ ही ‘नुबरा गार्ड्स’ के नवयुवकों को सैन्य उपकरण और हथियार दिये जाने के विषय पर कर्नल पृथ्वीचंद असमंजस की स्थिति में थे। छेतन फुनछोग के प्रयासों से कर्नल पृथ्वीचंद को नवयुवकों पर भरोसा हुआ और नवगठित ‘नुबरा गार्ड्स’ ने विधिवत् सैन्यबल की तरह सुसज्जित होकर नुबरा घाटी को पाकिस्तानी हमलावरों से बचाया। कालांतर में ‘नुबरा गार्ड्स’ को सैन्य बल का स्थान दिया गया और फिर यही आगे चलकर ‘लद्दाख स्काउट’ के रूप में अस्तित्व में आया।

छेतन फुनछोग की बड़ी भूमिका भारत के राजनयिक प्रतिनिधि के रूप में भी रही है। इसके पीछे बड़ा कारण उनकी विद्वता और उनके भाषाज्ञान को मान सकते हैं। यह बात राहुल सांकृत्यायन ने भी अपनी लेखनी से उद्धृत की है। मातृभूमि से लगाव और भोटभाषा लिखने-पढ़ने-बोलने में महारथ के कारण छोतन फुनछोग को काश्मीर राज्य और फिर भारत सरकार द्वारा कई बार तिब्बत संबंधी मामलों को हल करने के लिए नियुक्त किया गया, तिब्बत भेजा गया। सन् 1940 से 1948 तक तिब्बत के साथ सीमा संबंधी विवाद और साथ ही आपराधिक घटनाओं के मामले सामने आते रहे हैं। इन्हें हल करने के लिए राजनयिक स्तर की वार्ता का संयोजन छेतन फुनछोग ने किया।

कबायली हमलों के शांत होने और जम्मू-काश्मीर के भारत-विलय की प्रक्रिया पूरी होने के बाद सन् 1950 में वे लेह के पहले सूचना-अधिकारी बने थे, इसके पूर्व वे  लेह और स्करदो के कार्यवाहक तहसीलदार भी रहे थे। यहाँ उल्लेखनीय है, कि छेतन फुनछोग के पिता लेह तहसील के पहले तहसीलदार बने थे। सन् 1950 में उन्होंने सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया और ‘मिशनरी’ कार्यों में संलग्न हो गए। उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा कालखंड भले ही प्रशासनिक दायित्वों को निभाते हुए बिताया हो, लेकिन उनका पठन-पाठन से संबंध कभी नहीं टूटा। लद्दाखी भाषा के सरल व्याकरण की पुस्तकें और ‘लद्दाखी रीडर्स’ उनकी कीर्ति के अक्षय स्रोत हैं, भले ही इन पुस्तकों को लद्दाख में अपेक्षित स्थान व गौरव न मिला हो। वे लद्दाख में शिक्षा के गुणवत्तापरक केंद्र स्थापित करना चाहते थे, विद्यालय स्थापित करना चाहते थे, किंतु उनकी पुस्तकों की तरह उनके इस विचार को भी फलने-फूलने का मौका नहीं मिल सका। कुछ अन्य कारण भी बने, और अपने जीवन को सहज-संकटमुक्त बनाने हेतु वे अंततः सन् 1959 में मसूरी चले गए और बाइबिल के तिब्बती अनुवाद पर कार्य करने लगे। उन्होंने अमेरिका, प्रांस, जर्मनी, स्विटजरलैंड, डेनमार्क, कनाडा आदि देशों की यात्रा की। इन यात्राओं के समय उन्हें विदेश में रहकर काम करने के लिए अनेक प्रस्ताव आए, लेकिन उन्होंने भारत में रहना ही पसंद किया। उन्हीं दिनों हजारों की संख्या में तिब्बतियों का निर्वासन हुआ। यहाँ कहना प्रासंगिक ही होगा, कि उनकी तिब्बत यात्राओं के बीच ही उन्हें इस बात का आभास होने लगा था, कि तिब्बत पर साम्यवादी चीन की कुदृष्टि पड़ने लगी है। इसी कारण आत्मीय भाव के साथ छेतन फुनछोग अपने सहधर्मी तिब्बती बंधुओं के लिए सेवाभाव से जुट गए। आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने तिब्बतियों के पुनर्वास हेतु भूमि तलाशने का काम किया। छेतन फुनछोग के प्रयासों का ही फल था, कि विनोबा भावे ने भूदान में प्राप्त भूमि में से 100 एकड़ भूमि देहरादून में तिब्बती शरणार्थियों को दे दी थी। तिब्बती शरणार्थियों के अनुरोध पर ही उन्होंने सन् 1963 में एक स्कूल देहरादून के राजपुर नामक स्थान पर खोला था। अपने प्रारंभिक वर्षों में यह स्कूल बच्चों के लिए और साथ ही प्रौढ़शिक्षा के लिए था। बाद में यह आवासीय विद्यालय बना और आज भी शिक्षा जगत् में अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

लद्दाख की धरती का यह सपूत सन् 1973 में अपनी इहलीला समाप्त कर अनंत में विलीन हो गया, लेकिन यह बड़े गर्व की बात है, कि उनके सुपुत्र ओदपल फुनचोग ने लद्दाख की सेवा के, भारतदेश की सेवा के व्रत को समर्पित भाव से निभाया। छेतन फुनछोग के सुपुत्र ओदपल जी के बारे में उनके गाँव के ही एक सहपाठी श्री एलिहुद जॉर्ज बड़े गर्व से बताते हैं, कि ओदपल जी अपने बचपन में कागज के जहाज बनाकर उड़ाया करते थे। बाद में वे भारतीय वायुसेना के कमीशनधारी अधिकारी बने। 06 अक्टूबर, 2021 को सीमा संघोष के डिजिटल आयाम द्वारा लेह में आयोजित तीन-दिवसीय अभियान ‘द ग्लोरियस स्काई’ के उद्घाटन समारोह में सेवानिवृत्त विंग कमांडर ओदपल फुनचोग की उपस्थिति ने छेतन फुनछोग के व्यक्तित्व और कृतित्व का स्मरण कराने का अवसर उपलब्ध कराया। देश की सीमाओं की अक्षुण्णता और अखंडता के लिए, साथ ही शिक्षा की अलख जगाने के लिए लद्दाख की माटी के इस अचर्चित नायक का योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता है।

राहुल मिश्र

(सीमा संघोष, नई दिल्ली के )