Tuesday 6 December 2022


 आखिर भरोसेमंद क्यों नहीं है, ड्रैगन...

हाल ही में पूर्वी लद्दाख सीमा को लेकर भारत के सेनाध्यक्ष का बयान आया है। वे कहते हैं, कि पूर्वी लद्दाख में स्थिति सामान्य है, लेकिन चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बयानों की पूरी एक कड़ी ही पिछले दो-तीन महीनों में आई है, जो लगभग ऐसी ही बात पर केंद्रित है। विदेशमंत्री जयशंकर अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य के अनुरूप यह कहते हैं, कि चीन को पहले अपनी सीमाओं को शांत करना होगा, स्थिर करना होगा और घुसपैठ सहित सेना की वापसी की तय शर्तों का पालन करना होगा। संबंध सुधारने के लिए कम से कम इतना तो आवश्यक है ही...।

भारत के सेनाध्यक्ष की चिंता अलग तरीके की है। पिछले वर्षों में गालवान, देपसांग, देमचोक और दौलत बेग ओल्डी में जिस तरह की घटनाएँ हुई हैं, उन्हें चीन के गिरगिटी रंग से मापा जा सकता है। पंद्रह से अधिक चरणों की वार्ताओं के बाद भी चीन ने पूर्वस्थिति पर जाने के लिए सहमति नहीं दिखाई। वह हमेशा चतुराई की भाषा बोलकर भारत की रक्षात्मक रणनीति का लाभ उठाता रहा है। इधर चीन के अंदर भी उथल-पुछल के समाचार सोशल संचार के पटलों पर तैरते रहे, और दूसरी ओर सीमा पर चीन की नीति-नीयत विस्तारवाद को केंद्र बनाकर तैयार होती और चलती रही।

अक्टूबर, 2022 का पूरा ही महीना चीन के अंदर उथल-पुथल से भरा रहा है। इसकी शुरुआत चीन में तख्ता-पलट की सूचनाओं के प्रसार से होती है। ऐसा कहा जा रहा था, कि चीन के अंदर सत्ता का परिवर्तन होने जा रहा है। व्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक हो जाएगी, चीन के पड़ोसियों से विवाद सुलझ जाएँगे, ताइवान का मुद्दा भी हल हो जाएगा। ऐसे अनेक कयास लगाए जा रहे थे। हो सकता है, कि चीन के अंदर ऐसी कुछ स्थितियाँ बनी हों, लेकिन इन सबके पीछे का बड़ा कारण शी जिनपिंग की सत्ता में पुनः वापसी के प्रयासों का था। दुनिया के देशों में चीन की आंतरिक अस्थिरता के समाचार विश्वमंच का ध्यान भटकाने के लिए था, यह बात बाद में सही सिद्ध होती दिखी। 16 अक्टूबर से प्रारंभ हुए चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के हर पाँच साल में होने वाले महासम्मेलन (कांग्रेस) के लिए विश्व-स्तर पर जो भूमिकाएँ बनाई जा रहीं थीं, उनकी चीन की आंतरिक राजनीति और रणनीति में भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह बताते हुए, कि आंतरिक अस्थिरता और साथ ही संभावित वैश्विक संकटों से निबटने के लिए वर्तमान नेतृत्व को ही भविष्य के लिए चुना जाना आवश्यक है, महासम्मेलन का प्रारंभ होता है।

इसी क्रम में एक वीडियो भी सोशल पटल पर घूमता रहा। इसमें 2003 से दस वर्षों तक राष्ट्रपति रहे 79 वर्षीय हू जिंताओ को शी जिनपिंग के बगल से उठाकर बाहर ले जाते हुए दिखाया गया है। जिंताओ जाते-जाते प्रधानमंत्री ली केकियांग का कंधा दबाते हैं और अधिकारी जिनपिंग से कुछ कहते हैं। बाद में दोनों चीनी अधिकारी जिंताओ को लेकर ‘ग्रेट हाल आफ द पीपुल’ से बाहर चले जाते हैं। सामान्य तौर पर सीपीसी की बैठकों और कार्यवाहियों के विवरण या समाचार उतनी ही मात्रा में बाहर आते हैं, जितनी मात्रा सीपीसी के लिए अनुकूल होती है। लेकिन इस बार वह परंपरा टूटती दिखती है। इस बार विदेश की अनेक समाचार एजेंसियों की निगाहें भी इस महाधिवेशन में लगी हुई थीं।

सीपीसी की व्यवस्था और नियमों के अनुसार शी जिनपिंग के स्थान पर दूसरा महासचिव नियुक्त होना था, किंतु ऐसा नहीं होने पर एक संदेश गया, कि सीपीसी में जिनपिंग का पूरा वर्चस्व है। विरोधियों के लिए बाहर का रास्ता है, यह भी सुलभ संदेश इस महाधिवेशन से निकला। जिन मान्यताओं और व्यवस्थाओं का दम भरते हुए सीपीसी जनमुक्ति और जनवाद की बात करती रही, वे दुर्ग किस तरह ढहे हैं, इसका साक्ष्य महाधिवेशन में मिलता है। ये बदलाव विश्व को एक संदेश देता है। अधिनायक माओ त्से तुंग की नए तेवर-कलेवर के साथ वापसी को भी इसमें देख सकते हैं।

तीसरी बार पुनः नियुक्त होते ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग की चिंता देश की आंतरिक अस्थिरता को रोकने और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उनके एक बयान के साथ सामने आती है। वे चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को अपनी सारी ऊर्जा अपनी क्षमता बढ़ाने, युद्ध लड़ने और जीतने के लिए तैयार रहने की दिशा में लगाने का आदेश देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे सेना प्रमुख के रूप में पीएलए के युद्ध प्रशिक्षण को मजबूत करेंगे, क्योंकि सुरक्षा की स्थिति लगातार अस्थिर और अनिश्चित बनती जा रही है।

जिनपिंग के इन आदेशों और प्रयासों के विश्वमंच पर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। ताइवान पर चीन की निगाहें लगी हुई हैं। अमरीका के ताइवान के साथ खड़े हो जाने से स्थितियाँ बदल गईं हैं, और चीन का स्वर भी बदल गया है। भारत के साथ चीन के सीमा-विवाद कोई नए नहीं हैं। भारत का सशक्त राजनीतिक नेतृत्व निश्चित रूप से चीन के लिए आँखों की किरकिरी बना हुआ है। वह विश्वमंच पर अनेक प्रयास करते हुए भारत को अपने आर्थिक और साथ ही सैन्य बल से अपने प्रभाव में लेने की असफल कामना करता रहता है। चीन के लिए ऐसा करना कुछ हद तक आसान तब भी हो जाता है, जब उसे भारत की राजनीतिक भूमि पर अपने चंद समर्थक मिल जाते हैं। यह अलग बात है, कि चीनी नेतृत्व के लिए इस भ्रम में रहना, कि भारत सन् 62 वाला ही है, उचित नहीं है। गालवान में भारतीय सेना के पराक्रम को सभी जानते हैं। चीन ने इस सच्चाई को देर से ही सही, स्वीकारा भी है।

7 से 11 नवंबर तक चली सैन्य कमांडर कान्फ्रेंस में सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडेय की अध्यक्षता में सेना के तीनों अंगो के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों, रक्षा विशेषज्ञों और रक्षामंत्री के साथ ही प्रशासनिक अधिकारियों ने विचार-विमर्श किया। पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी तनाव के बीच भारत और चीन के मध्य सामरिक संबंधों पर यह कान्फ्रेंस केंद्रित रही। चीन ने गालवान से सेनाओं को हटाने की बात कही थी। इसी के साथ देपसांग और देमचोक में भी सैन्य गतिविधियों को नियंत्रित करने की बात कही थी। लेकिन दूसरी तरफ चीन ने अपनी सामरिक रणनीतियों का बड़ा रोडमैप बना रखा है। इसमें तिब्बत के ल्हूंजे काउंटी से शिनजियांग के माझा तक राजमार्ग के निर्माण की बड़ी योजना भी सम्मिलित है। चीन द्वारा प्रस्तावित सड़क भारत से सटी सीमाओं को एकसाथ जोड़ने वाली है। इस राजमार्ग में देपसांग, गालवान घाटी और गोगरा हाट स्प्रिंग भी जुड़ रहे हैं और अरुणाचल के सीमावर्ती क्षेत्र भी जुड़ रहे हैं। एक ओर गालवान सहित पूर्वी लद्दाख में पूर्ववर्ती स्थिति को बहाल करने की बात चीन कहता है, तो दूसरी ओर सड़क और अन्य संसाधनों का विस्तार भी करता है।

तिब्बत से सटा लद्दाख का पठार सन् 1962 के अतीत को आज भी भुला नहीं सका है। हमारे अतीत में वह घाव आज भी रिसता है। 14 नवंबर, 1962 को भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया था, कि अक्साईचिन की 37,244 वर्ग किलोमीटर भूमि को आक्रमणकारी चीन से वापस लेकर ही मानेंगे। इस बहस में भारत की संसद के 165 सदस्यों ने भाग लिया था, और 08 नवंबर को इस प्रस्ताव को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में रखा था। चीन ने भारत की भूमि को ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए जिस तरह छलपूर्वक कब्जाया था, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस युद्ध के बाद भी अनेक लड़ाइयाँ विश्व के इस सबसे ठंडे और ऊँचे युद्धक्षेत्र में हुईं। अनेक ललनाओं ने अपने सपूतों को भारतमाता की रक्षा के लिए बलि चढ़ाया। कई बहनों ने अपने भाई खोए। इन युद्धों और संघर्षों की विभीषिकाओं के अनेक चिन्ह आज भी लद्दाख अंचल के चप्पे-चप्पे में दिखते हैं।

हमारे वीर सैनिकों के बलिदानों की गौरव-गाथाएँ जहाँ हमें गर्व से भरती हैं, वहीं चीन के छल और छद्म को भी निरंतर स्मरण कराती रहती हैं। सन् 1962 में पंचशील के समझौते के साथ ही भारत का बदले हुए चीन पर, जनमुक्ति अभियान चलाने वाले चीन पर विश्वास टूट गया था। यह अलग बात है, कि उस समय कुछ नेतृत्वकर्ता राजनेता साम्यवाद के दिवास्प्नन में, बंजर-उजाड़ धरती के टुकड़े के रूप में अपनी भारतभूमि को देखने के यत्न में चीन पर भरोसा जोड़े रहे हों...। कुछ भी हो.. 1962 से 2020 तक आते-आते नेतृत्व भी बदला, और सोच भी बदली है। सन् 2020 के जून माह में गालवान घाटी पर भारत के सैनिकों ने चीन के घुसपैठियों को मुँहतोड़ जवाब दिया था। लगभग चार दशक बाद यह पहला अवसर था, जब इस सीमा पर गोलीबारी हुई। चीनी घुसपैठ को रोका गया। रूस की एजेंसी तास ने बाद में बताया था, कि चीन के पचास सैनिक इस झड़प में मारे गए थे।

गालवान की झड़प भारतीय संदर्भ में एक निर्णायक दिशा के रूप में देखी जा सकती है। इसके साथ ही भारत के सीमांतप्रदेशीय क्षेत्रों में, विशेषकर पूर्वी लद्दाख में सड़क-यातायात के साधनों का तेजी के साथ विस्तार हुआ है। पूर्वी लद्दाख में सेनाओं के परिचालन में बहुत कठिनाई होती थी, क्योंकि यहाँ सड़क मार्ग नहीं के बराबर ही थे। शयोक और नुबरा आदि नदियों पर पुल नहीं थे। सूचना और संचार के साधन भी बहुत सीमित थे। इन सभी संसाधनों का तेजी के साथ विकास सैन्य गतिविधियों और परिचालन के लिए बहुत लाभकारी और सीमा-सुरक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है।

अनेक आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सैनिकों को सुसज्जित करने के साथ ही वायुसेना को भी आधुनिक हवाई जहाज, लड़ाकू विमान और हेलिकाप्टर आदि उपलब्ध कराकर तैयार किया गया है। आत्मनिर्भर अभियान के तहत भारत ने सैन्य सामग्री के निर्माण में कीर्तिमान बनाया है। देशी आयुधों के साथ ही स्वदेश निर्मित राडार तकनीक और अन्य सहायक सामग्रियों के साथ पूर्वी लद्दाख में तैनात भारतीय सेना हर समय मुस्तैद भी है, और सीमा पर किसी भी तरह की भारत विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए सक्षम भी है।

चीन को भारत की इस तैयार की पूरा अंदाज है। इसलिए वह दूसरे रास्ते निकालता है। इनमें अन्य पड़ोसी देशों को भारत के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास, भारत के पड़ोसी देशों की भूमि का भारत को हानि पहुँचाने के लिए प्रयोग करने के प्रयास, समुद्री सीमा पर सैन्य गतिविधियों का संचालन और भारत के जन्मजात शत्रु को दाम, दंड, भेद की नीति के साथ भारत के विरुद्ध तैयार करने में चीन कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। ऐसी दशा में चीन पर भरोसा करना किस स्थिति में संभव हो सकता है?

चीन के आंतरिक राजनीतिक परिदृश्य में चीन का नया रोडमैप जो दिखता है, वह पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक बदलते हुए, चीनी नगरिकों की अपेक्षाओं को धता बताकर पुनः सत्ता पर काबिज होने के प्रयास करते-सफल होते हुए आकार लेता है। इसमें भारत को अपना पक्ष स्पष्ट और प्रबल-सबल रखना होगा। हमको अपनी रक्षात्मक नीति में आगे बढ़कर हमला नहीं करना है, लेकिन किसी भी देश-विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए तैयार रहना चीन के संदर्भ में कारगर योजना कही जा सकती है। चीन पर भरोसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

-राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र सीमा संघोष मासिक, नई दिल्ली के नवंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)

Thursday 30 June 2022

सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

 


सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

मोमोस शब्द और साथ ही इस नाम के व्यंजन का स्वाद आज किसी के लिए अनजाना नहीं है। बड़े-बड़े शहरों में मोमोस बाकायदा ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ परोसने वाले होटलों में भी मिल जाते हैं, और सड़क के किनारे खड़े चाट के ठेलों पर भी ये सुलभ हो जाते हैं। बड़े शहरों की बात अलग ही है, यहाँ तो सबकुछ मिलना सुलभ-सरल है, लेकिन जरा कस्बाई और गँवई-गाँव के खानपान में उतरकर देखिए... आपको आश्चर्य होगा, कि यहाँ टिकिया, समोसा और कुछ आधुनिक होते समय के चाऊमीन-बरगर के साथ मोमोस भी मिल जाएँगे। हिम-आच्छादित लद्दाख का प्यारा और बहुत स्वादिष्ट व्यंजन- मोमोस... आज देश के कोने-कोने तक पहुँचा हुआ है।

किसी क्षेत्र-विशेष की सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान का बड़ा अंग उस क्षेत्र के प्रचलित व्यंजनों से बनता है। क्षेत्र-विशेष अपनी पहचान गढ़ते समय अपने व्यंजनों के चटखारों का स्वाद उतारता है। इडली-डोसा का उल्लेख करते ही दक्षिण भारत का चित्र आँखों के सामने होता है। इसी तरह बुंदेलखंड की बेड़ही-लपसी, पूर्वांचल की बाटी-चोखा और पंजाब की मक्के दी रोटी-सरसों दा साग अलग-अलग भौगौलिक रंग हमारे सामने ले आते हैं। देश की सांस्कृतिक विविधता का यह बड़ा अंग है। देश को जोड़ने वाले व्यंजनों पर अगर बात करें, तो एक अद्भुत रोमांच मन में भर जाता है, जो देश की विवधता में एकता को अनेक बार हमारे सामने ले आता है। लद्दाख भले ही दुर्गम और जटिल हो, लोगों के मन में इस बर्फीले रेगिस्तान को लेकर भले ही अनेक भ्रांतियाँ, भय और आश्चर्यजनक बातें हों; लेकिन लद्दाख के व्यंजनों ने इन मिथों को बखूबी तोड़ा है। इसी कारण देश के सुदूरवर्ती ग्राम्यांचलों में भी लद्दाखी मोमोस की हनक देखने को मिलती है।

वैसे तो लद्दाख की पहचान तीन चीजों से रही है, उसके अपने अतीत में.....। ये तीन चीजें हैं- सत्तू, पट्टू और टट्टू...। आपको यह जानकर निश्चित रूप से आश्चर्य हो सकता है, कि सत्तू जो है, वह लद्दाख की पहचान में शामिल है, जुड़ा हुआ है। बाकी दो में से पट्टू, अर्थात् दुशाला लद्दाख की शीत से बचाने के लिए बहुत आवश्यक है और टट्टू, अर्थात् अश्वों की एक वर्णसंकर प्रजाति लद्दाख की प्राचीन यातायात व्यवस्था का अभिन्न और प्रमुख अंग रहा है। लद्दाख में यातायात व्यवस्था के अंग के रूप में याक (चमरी मृग) और यारकंदी ऊँट (दो कूबड़ वाले) भी आते हैं, लेकिन नाम तो टट्टुओं का ही चलता है। इसका बड़ा कारण यह है, कि स्थानीय आवागमन और सामान ढुलाई के लिए टट्टू ही अधिकतर उपयोग में आते थे, जबकि यारकंदी ऊँट और याक की भूमिका प्रायः लंबी और दर्रों को पार करने वाली पहाड़ी यात्राओं में विशेष रूप से होती थी। ये सारी बातें इसलिए कहीं, कि सत्तू का महत्त्व भी कुछ इसी प्रकार का देखा जा सकता है, लद्दाख के जटिल जीवन में...।

लद्दाख में जौ की फसल पर्याप्त मात्रा में होती है। इस कारण लद्दाख में जौ का सत्तू चलन में है। भारत के मैदानी क्षेत्रों, जैसे- मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार आदि में चने का सत्तू चलता है। लद्दाख में चने की पैदावार नहीं है, लेकिन सत्तू बनाने की विधि है, सत्तू भी है... भले ही जौ का ही क्यों न हो..। जौ का सत्तू न केवल पौष्टिक होता है, वरन् इसकी तासीर गर्म होती है, जबकि चने के सत्तू की तासीर ठंडी होती है। यह भी एक बड़ा कारण लद्दाख में जौ के सत्तू के चलन के पीछे है। यह देखन बहुत रोचक है, कि सत्तू, जिसे लद्दाखी भाषा में ‘फे’ बोलते हैं, उसका प्रयोग क तरीके से रसोईघर और अतिथिगृह में होता है। कुछ व्यंजनों में इसका उपयोग किया जाता है, पूजा-पाठ में भी इसका उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त यह सबसे अधिक चाय के साथ खाया या पिया जाता है।

लद्दाख में पानी पीना किसी चुनौती से कम नहीं, इस कारण भारत के मैदानी क्षेत्रों की तरह यहाँ पर अतिथियों के आगमन पर उन्हें पानी के लिए नहीं पूछा जाता है, चाय के लिए पूछा जाता है। चाय भी कई तरह की...., जैसे- गुरगुर चाय, लिप्टन चाय, ग्रीन टी और कहवा आदि। ग्रीन टी और कहवा से तो सभी परिचित होंगे, वैसे परिचित तो लिप्टन चाय से भी होंगे.... भ्रम केवल नाम के कारण हो सकता है। लिप्टन चाय दरअसल दूध वाली मीठी या शर्करामुक्त चाय के लिए प्रयोग होने वाला नाम है। इस नाम के माध्यम से लद्दाखी लोग चाय का एक भेद गढ़कर अतिथि को उसके चाय-चयन में मदद दे देते हैं। सबसे अधिक प्रचलित और प्रिय गुरगुर चाय है, लद्दाख में। यह पसंद तिब्बत तक बिखरी हुई है..., कह सकते हैं, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरगुर चाय का चलन है।

गुरगुर चाय वस्तुतः मक्खन डालकर बनाई गई नमकीन चाय है। इसके अपना नाम भी इसके बनाने में होने वाली ध्वनि से मिला है। लंबे बेलनाकार बरतन में मथानी जैसे डंडे से मथकर यह बनती है, और मथते समय गुरगुर की आवाज होती है। थोड़ी-सी चायपत्ती और मक्खन से बनी गुरगुर चाय में अनूठा-सा सोंधापन होता है। यह शरीर में नमक और पानी की मात्रा संतुलित करती है। गुरगुर चाय की प्याली के साथ सत्तू भी परोसा जाता है। अतिथिगण चाय की प्याली में सत्तू घोलकर या तो पी जाते हैं, या फिर खा लेते हैं। सत्तू ऐसा आहार है, जिसे आप तैयार खाद्य या ‘फास्ट फूड’ की श्रेणी में भी आसानी से रख सकते हैं। किसी भी यात्रा के लिए यह साथ ले जाने वाला सर्वोत्तम आहार है। कहीं पर भी खाया जा सकता है, कैसे भी खाया जा सकता है। मध्यभारत में तो सत्तू-नमक लेकर ढूँढ़ना... जैसे मुहावरे भी बने है। सत्तू यात्राओं के लिए बहुत उपयुक्त रहा है, विशेषकर जटिल-कठिन यात्राओं के लिए...।

लद्दाख यात्राओं के मार्ग का पड़ाव जैसा है। लद्दाख के ऊपरी हिस्से से होकर रेशम मार्ग निकलता है। लद्दाख की नुबरा घाटी रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए एक आरामगाह जैसी रही है। इसके साथ ही भारत के अन्य हिस्सों के लिए उतरने वाले संपर्क मार्गों के कारण लद्दाख एक बड़े व्यापारिक केंद्र व ठहराव के रूप में अपनी भूमिका निभाता रहा है। होशियारपुर के अनेक व्यापारियों के ठिकाने आज भी लेह में देखे जा सकते हैं। गुरु नानक अपनी यात्राओं के क्रम में लद्दाख भी पधारे थे। लेह के निकट गुरुद्वारा दातून साहिब और लेह-श्रीनगर राजमार्ग पर गुरुद्वारा पत्थरसाहिब उनकी यात्रा की अविस्मरणीय गाथा को आज भी गाते हैं।

एक समय ऐसा भी था, जब लेह बाजार में मध्य एशिया के हर हिस्से का प्रतिनिधित्व दिखाई देता था; व्यापारियों, क्रेता-विक्रेताओं, पहनावों और बिकते व्यंजनों के रूप में...। लेह बाजार में गुरुद्वारा दातून साहिब के पास ही नहीं, प्रायः पूरे लद्दाख में एक वर्ग ऐसा मिलेगा, जो तंदूरी रोटी बनाने-बेचने का काम करता है। इन्हें स्थानीय भाषा में नानवाई कहते हैं। इनके द्वारा बनाई तंदूरी रोटी लद्दाखी भाषा में ‘तागी’ कही जाती है। यह तागी कब रेशम मार्ग से उतरकर लद्दाख की ‘तागी’ और फिर पंजाब की ‘तंदूरी’ बनकर सारे देश और दुनिया में फैली...., जानना बहुत रोचक और रोमांचकारी होगा।

रेशम मार्ग पर चलने वाले यात्रियों और व्यापारियों के लिए दाना-पानी कितना जटिल रहा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। रेशम मार्ग में यात्रा करने के लिए पूरा का पूरा लाव-लश्कर होता था, जिसमें दो कूबड़ वाले ऊँटों पर चमड़े के बने थैलों में पानी, तागी या तंदूरी रोटी आदि के चलते-फिरते भंडार भी होते थे। इनके साथ ही समोसा जैसे व्यंजन भी होते थे, जो आटे के अंदर तीखा-चटपटा मसाला भरकर बनाए जाते थे। समोसा की उत्पत्ति भी यहीं से हुई, ऐसा कह सकते हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था, बल्कि दर्शन-चिंतन-वैचारिकता की अनेक बातें भी इस मार्ग से आती जाती रहीं हैं। अनेक अध्येताओं ने इस रास्ते से चलकर ज्ञान की खोज की है। संस्कृतियों के आदान-प्रदान के साथ ही खान-पान की आदते और व्यंजन भी रेशम मार्ग से आए-गए हैं। और इन सबका प्रभाव आज भी लद्दाख में देखा जा सकता है। लद्दाख को यूँ ही नहीं मध्य एशिया का बड़ा केंद्र कहा जाता...।

प्रायः भौगोलिक परिस्थितियाँ और जलवायु के कारक क्षेत्र-विशेष के आहार-विहार को प्रभावित करते हैं। लद्दाख में यह पक्ष प्रमुख रूप से दिखता है। इसी कारण लद्दाखी व्यंजन देश के अन्य भागों के व्यंजनों से अलग बनते हैं। लद्दाखी व्यंजन स्थानीय आवश्यकता के अनुसार प्रायः पर्याप्त तरल होते हैं। अकसर सूप तरलता को बढ़ाने का काम करते हैं। मैदानी क्षेत्रों में मोमोस को भले ही चटनी के साथ खाने का चलन हो, लेकिन लद्दाख में मोमोस सूप के साथ ही खाए जाते हैं। मोमोस के अतिरिक्त थुक्पा में भी पर्याप्त सूप होता है। थुक्पा व्यंजन में मोटी सेवइयाँ जैसी होती हैं, जिन्हें खूब रसेदार सूप में डालकर पकाया जाता है, और गरम-गरम पी लिया जाता है। इससे शरीर में गरमी भी आती है, और पानी की कमी भी साथ-साथ पूरी होती जाती है। ‘स्क्यू’ भी कुछ इसी तरह का व्यंजन होता है। इसमें ढेर सारी सब्जियाँ- पालक, मंगोल, लाल मटर आदि डालकर खूब तरल करके पकाया जाता है, और खौलती हुई तरल सब्जी में आटे के गोल-चौकोर टुकड़े जैसे डालकर उबाला जाता है। इसे भी रसेदार बनाते हैं और इसे भी सूप की तरह से पीते हुए खाया जाता है।

खोलक एकदम अलग तरह का व्यंजन है। लद्दाख में चपातियाँ बनाने का विधान नहीं है। चपाती के रूप में अगर कहें, तो ‘तागी’ ही है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया गया है। एक रोचक बात ‘तागी’ के बारे में बताना यहाँ आवश्यक लगती है। लद्दाख में एक कहावत कही जाती है- ‘बेचारा रोटी खाकर जिंदा है..।’ यह कहावत गरीब-दीन-हीन व्यक्ति के लिए कही जाती है। लद्दाख में चावल विशिष्ट और कुलीन वर्ग का आहार माना जाता था। लद्दाख में चावल पैदा नहीं होता था, जिस कारण चावल बहुत महँगा बिकता था। दूसरी तरफ नानवाई की रोटियाँ सहज सुलभ थीं, हर वर्ग के व्यक्ति के लिए..। आज स्थिति ऐसी नहीं है, लेकिन अतीत की यादें जीवंत हैं। हम बात कर रहे थे, लद्दाखी व्यंजन खोलक की..। यह एक तरह से चपाती का ही रूप है, लेकिन इसे सीधे आँच में नहीं पकाया जाता। मैदा या आटा को सानकर उसका कलात्मक लड्डू जैसा आकार बनाकर भाप में पकाया जाता है। फिर उसे दाल में डालकर या सब्जी के साथ खाया जाता है।

लद्दाख की जलवायु के अनुसार यहाँ के प्रायः सभी व्यंजन कम मसालेदार और भाप में पके हुए होते हैं। इनको पकाने के लिए अलग तरह के बरतन भी होते हैं। वैसे लद्दाखी रसोई भी कम कलात्मक नहीं होती। लद्दाखी घरों में रसोई केवल खाना पकाने के लिए नहीं होती, वरन् खाना खाने और घंटों बैठकर गपशप करने के लिए भी होती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लद्दाख और तिब्बत की अपनी यात्राओं के साथ यहाँ के रसोईघरों का भी रोचक वर्णन किया है। वे यह भी लिखते हैं, कि बाहरी व्यक्ति के लिए रसोई तक पहुँचना कठिन नहीं होता। रसोईघर में चूल्हा कुछ इस तरह का होता है, कि उसके निकट बैठकर शीत से बचाव किया जा सकता है। इस तरह पूरा परिवार और अतिथिगण भी रसोई में बैठकर गरमागरम भोजन का आनंद ले सकते हैं, शीत से स्वयं को बचाते हुए। यह व्यवस्था एक तरह से कम संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवन जीने की कला भी सिखाती है।

विश्वग्राम की संकल्पना ने सारी दुनिया को एक जगह पर समेट दिया है। जिस तरह मोमोस लद्दाख से निकलकर सुदूरवर्ती गाँवों तक पहुँचे हैं, उसी तरह से चोखा-बाटी, इडली-डोसा, जलेबी-टिकिया आदि लद्दाख में भी सुलभ हैं। इतना ही नहीं लद्दाख के बड़े होटलों के साथ ही छोटे-छोटे होटलों और रेस्टोरेंट्स में ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ भी खूब मिलती हैं। लद्दाख उभरते हुए पर्यटन केंद्र के रूप में देश ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। इस कारण देश-दुनिया के पर्यटकों के साथ देश-दुनिया की खान-पान की आदतें और व्यंजन भी लद्दाख पहुँचे हैं। आज के समय में सत्तू लद्दाख के दूर-दराज के गाँवों में सरलता से मिल सकता है, अपेक्षाकृत लद्दाख के शहरी  क्षेत्रों के...। आधुनिकता ने बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव खान-पान में भी आया है। यह सांस्कृतिक संक्रमण का समय है। लद्दाख के ठंड से ठिठुरते समय में बैठकर मसाला डोसा खाना एकदम अलग अनुभव देता है। किसी गाँव के चाट के ठेले में खड़े होकर मोमोस खाना भी अलग ही लगता है। अगर गहरे उतरकर सोचें, तो कई-कई बार यह अनुभूत होता है, कि हम व्यंजन नहीं, देश को एक सूत्र में पिरोने वाले सूत्रों का सुख व आनंद अपने अंदर उतार रहे हैं।

-राहुल मिश्र (आचार्य अनामय)

(कश्फ, अर्धवार्षिकी, संयुक्तांक दिसंबर, 2021 से जून, 2022, वर्ष- 20-21, संपादक- डॉ. विनोद तनेजा, अमृतसर में प्रकाशित)

Tuesday 26 April 2022

असम-मेघालय सीमा-विवाद सुलझाकर पूर्वोत्तर बनेगा देश का विकास इंजन

 


असम-मेघालय सीमा-विवाद सुलझाकर

पूर्वोत्तर बनेगा देश का विकास इंजन


वर्ष 2022 की 29 मार्च की तिथि पूर्वोत्तर के इतिहास में इतनी महत्त्वपूर्ण होगी, जिसका असर लंबे समय तक दिखाई देगा। यह दिन भारत के लिए भी बहुत महत्त्व का है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा का बयान इस तिथि पर बड़े मार्के का है, और असम-मेघालय सीमा-विवाद के बाद उनका यह बयान बहुत चर्चित भी रहा है। वे कहते हैं, कि- “जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब गृहमंत्री ने कहा था, कि सीमा विवाद को हल करें। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं, कि पूर्वोत्तर देश का विकास इंजन बने..।“

कह सकते हैं, कि हिमंत बिस्व शर्मा को दि गए दायित्व की सफलता का पहला चरण 29 मार्च, 2022 को पूरा हुआ है। भारतीय राजनीति में हिमंत बिस्व शर्मा एकदम अलग छवि रखते हैं। उनकी स्पष्टवादिता और अनथक कर्मशीलता देखते ही बनती है। केंद्र के राजनीतिक नेतृत्व को संभवतः इसी कारण उन पर बड़ा भरोसा है, और यह भरोसा भी सफल-सच होता दिखा है।

असम और मेघालय के बीच विवाद के सुलझने की यह खबर कोई सामान्य घटना नहीं है। इसके पीछे अतीत में उतरकर देखें, तो बहुत सारे आयाम और अनेक बातें खुलकर सामने आती हैं। देश के केंद्रीय नेतृत्व के लिए पूर्वोत्तर के विवादों को सुलझाना हमेशा से ही बड़ी चुनौती रहा है। पिछली सरकारों के इस दिशा में प्रयास ईमानदारी के साथ हुए होंगे, ऐसा कहना कठिन लगता है। एक कहावत- चोर को कहना चोरी करो.... साहूकार को कहना जागते रहो...., इस संदर्भ में सार्थक लगती है। लेकिन वर्तमान सरकार ने इस विषय पर अपनी गंभीरता और अपने दायित्वबोध को खुलकर प्रकट किया है, साथ ही निभाया भी है। वर्तमान केंद्र सरकार की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ का यह बड़ा अंग रहा है।

पूर्वोत्तर का भारतीय सीमांत सुरक्षा और प्रगति के सोपानों में, शांति-स्थिरता के प्रयासों में बहुत बड़ा योगदान है। चाहे देश हो, या घर... पूर्वोत्तर का क्षेत्र ऊर्जा के केंद्र में होता है। ईशान्य कोण में शक्ति का वास होता है। एक समय ‘नेफा’ के नाम से प्रसिद्ध भारत का ईशान्य सीमांत क्षेत्र पुरातनकाल से ही धर्म, अध्यात्म, साधना का केंद्र रहा है। इस क्षेत्र के महत्त्व को न केवल ज्योतिषशास्त्र में, वरन् समग्र भारतीय चेतना एवं एकात्मता के संदर्भ में भी बहुत महत्त्व का माना जाता है। इसी कारण एक ओर जहाँ इस क्षेत्र में वर्ष भर आध्यात्मिक यात्राएँ और आयोजन किए जाने की परंपरा रही है, वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के गौरव को विखंडित करने के प्रयासों के साथ भारत और भारतीयता को क्षति पहुँचाने के काम भी पराधीनता के काल में होते रहे हैं।

भारतदेश की स्वाधीनता के साथ मिले पूर्वोत्तर की अशांति के दंश क विश्लेषण करते-करते सुई विभाजन और राज करो की नीति पर, क्षेत्रीय-जातीय अस्मिता के असीमित व्यवहार पर, और सबसे बड़ी बात, कि ईसाईयत के विस्तार पर जाकर टिक जाती है। पूर्वोत्तर के वन-प्रांतरों में निवास करने वाले वनवासीजन-गिरिजन सदा प्रकृति की पूजा करते हुए सनातन परंपरा से जुड़े रहे। पराधीनता के कालखंड और उसके बाद के वर्षों में ईसाईकरण के कारण स्थितियाँ गंभीर होती गईं। विगत वर्ष 26 जुलाई को असम और मिजोरम के बीच ऐसा संघर्ष हुआ था, जिसने प्राग्ज्योतिष क्षेत्र की धरती को न केवल रक्तरंजित कर दिया था; वरन् असम और मिजोरम, दोनों  राज्यों के कई लोगों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी थी। 26 जुलाई, 2021 का यह संघर्ष भी सीमा के विवाद को लेकर हुआ था, किंतु इस संघर्ष में जिस तरह से दोनों राज्यों के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग भिड़े थे, उसे देखकर ऐसा लग रहा था, मानों दो देश आपस में लड़ रहे हों।

यह घटना अपने आप में बहुत बड़ा संदेश देने वाली थी। असम और मिजोरम का सीमा विवाद उन दो राज्यों के बीच का था, जो पचास-पचपन वर्ष पहले एक ही थे। असम या कामरूप या प्राग्ज्योतिष एक राज्य रहा है। देश की स्वाधीनता के बाद विभिन्न क्षेत्रीय पहचानों और भाषायी विविधता ने इसे अलग-अलग राज्यों में बाँटा। मिजोरम, मेघालय और नागालैंड आदि इसी आधार पर अलग-अलग राज्य बने। यह तत्कालीन नीति-निर्धारकों या राज्य-विभाजन की योजना बनाने वाले लोगों का दायित्व बनता था, कि सीमाओं का निर्धारण इस तरह से किया जाए, कि भविष्य में विवाद की स्थितियाँ पैदा नहीं हों। किंतु संभवतः उस समय ऐसा नहीं हो सका। इसके पीछे के कारण शोध के विषय हैं। कुल मिलाकर तब से ही अलग-अलग तरीकों से, अलग-अलग रूपों में पूर्वोत्तर के विवाद समाचारों की सुर्खियों में आते रहे हैं। यह भी बड़ा महत्त्वपूर्ण तथ्य है, कि इन सुर्खियों को न तो पहले कभी दिल्ली ने गंभीरता से लिया, न कभी देश के अन्य हिस्सों ने। इतना अवश्य हुआ, कि इन विवादों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकी गईं, राजनीतिक दलों ने अपनी सत्ता की लिप्सा को शांत करने के यत्न किए।

आमजन के लिए ये स्थितियाँ कितनी कष्टदायक रहीं होंगी, इसका आकलन विगत वर्ष 26 जुलाई की मात्र एक घटना से ही लगा सकते हैं, जिसमें रोते-बिलखते बच्चों, माताओं, बहनों, बुजुर्गों के आँसू सारे देश ने देखे थे। यह तो एक घटना थी... पीछे ऐसी कितनी ही घटनाएँ हुई होंगी, अनुमान लगाना और उन घटनाओं की वेदना को अनुभूत करना बहुत ही कठिन है। यदि 26 जुलाई, 2021 की हृदय-विदारक घटना से सबक लेते हुए प्रांतीय विधानमंडलों और केंद्रीय सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति ऐसे सीमा विवादों को हल करने के लिए प्रतिबद्ध होती है, तो उसमें बड़ा अंश आमजन की वेदना और दुःख को अनुभूत करने वाली वैचारिकता का है।

देश के केंद्रीय नेतृत्व की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ अपने पिछले कार्यकाल से ही प्रभावी रही है, मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह ‘पॉलिसी’ अपना मूर्त रूप तेजी से पाती है। साथ ही अपनी संवेनशीलता को सकारात्मकता के साथ आमजन की स्थिति से जोड़ते हुए कार्य के लिए प्रतिबद्ध होती है। इसी कारण असम और मेघालय के बीच सीमा-विवाद को सुलझाने के लिए पहली बार जनता की राय को, जनमत को प्राथमिकता दी गई है। असम-मेघालय सीमा में जिन 06 जगहों पर विवाद को समाप्त किया गया है, वहाँ पर पुराने नक्शों और ऐतिहासिक पक्षों-बिंदुओं की जगह जनता के विचारों को पहले स्थान पर रखा गया है। इन 06 चिन्हित जगहों पर बसे 36 गाँवों के लोगों की मंशा को, उनकी अपेक्षा और उनके विचारों-प्रतिक्रियाओं को संकलित करके विवाद को हल करने की वार्ता प्रारंभ की गई थी, मसौदा तैयार किया गया।

असम-मेघालय सीमा विवाद को हल करने के लिए विगत वर्ष अगस्त में तीन-तीन समितियाँ बनाई गईं थीं। कह सकते हैं, कि 26 जुलाई की घटना के तुरंत बाद राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने सक्रियता दिखाते हुए इस दिशा में काम प्रारंभ किया। दोनों राज्यों की समितियों द्वारा सिफारिशों और समझौते के मसौदे को तैयार किया गया था। इसे 31 जनवरी को असम और मेघालय के मुख्यमंत्रियों ने संयुक्त रूप गृह मंत्रालय को सौंपा था। गृह मंत्रालय ने दो महीने के अंदर ही तथ्यों व स्थितियों की पड़ताल करके समझौते के प्रारूप को हरी झंडी दे दी। इसके परिणामस्वरूप 29 मार्च, 2022 को नई दिल्ली में देश के गृहमंत्री के समक्ष दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने समझौता-ज्ञापन पर हस्ताक्षर करके 06 स्थानों के 36 गाँवों की 36.79 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र के सीमा-विवाद पर पूर्ण विराम लगा दिया। इस समझौते के तहत असम को 18.51 वर्ग किमी. और मेघालय को 18.28 वर्ग किमी. क्षेत्र मिला है।

असम और मेघालय के बीच सीमा-विवाद अपने पहले चरण में 06 स्थानों पर हल हुआ है, जबकि शेष 06 स्थानों पर विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया अभी चल रही है। असम-मेघालय के मध्य 12 स्थानों पर विवाद मेघालय के अस्तित्व में आने के समय से ही चला आ रहा है। सन् 1971 में असम राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत अस्तित्व में आए मेघालय ने सन् 1972 में ही इस अधिनियम को चुनौती दे दी थी। तब से ही असम-मेघालय के सीमावर्ती 12 क्षेत्रों में विवाद की स्थितियाँ बनी हुईं थीं। सन् 2010 में लंगपीह नामक एक सीमावर्ती क्षेत्र में भीषण रक्तरंजित संघर्ष हुआ था, जो सीमा विवाद की ही देन था। इस संघर्ष में चार लोगों की मृत्यु हुई थी और कई लोग गोलीबारी में घायल हुए थे। इस बड़ी घटना के अलावा अनेक छोटी-छोटी झड़पों की गिनती करना भी कठिन है। दोनों राज्यों की सीमा के निर्धारण में आँकड़ों की कारीगरी और इच्छाशक्ति के अभाव ने क्षेत्रीय अस्मिता व जातीय संघर्ष को इस स्तर तक पहुँचा दिया था, कि अपने ज्ञात अतीत से भी कहीं आगे के समय से एक साथ रहते चले आ रहे लोग महज राज्य पुनर्गठन अधिनियम के कारण एक-दूसरे के शत्रु बन गए थे। सन् 1972 से लगातार यह वैमनस्य उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा, विवाद के क्षेत्र बढ़ते रहे, लेकिन पहले कभी भी इन विवादों को रोकने के प्रयास निष्पक्ष भाव से दिखाई नहीं दिए। इन कारणों से भी 29 मार्च, 2022 को अविस्मरणीय दिन के रूप में सदैव याद रखा जाएगा।

हालाँकि चुनौतियाँ अभी भी समाप्त नहीं हुईं हैं। असम और मेघालय के बीच 12 स्थानों में से छह स्थानों पर ही सीमा विवाद हल हुआ है। भले ही यह सीमा-विवाद का 70 प्रतिशत हो, लेकिन शेष 30 प्रतिशत अभी हल किया जाना शेष है। कहा जा सकता है, कि असम के साथ मेघालय का विवाद तो अब मात्र 30 प्रतिशत ही बचा है, लेकिन असम के साथ अन्य राज्यों का सीमा विवाद अभी भी बरकरार है। सन् 1971 में असम राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अस्तित्व में आने के साथ ही समूचा पूर्वोत्तर क्षेत्र अशांति की भेंट चढ़ गया था। इसके पहले भी इस क्षेत्र के लिए अधिसूचनाएँ बनाई और लगाई गईं थीं। जातीय अस्मिता, धार्मिक विविधता, भौगौलिक जटिलता और विविधता को मंडित करने वाली राजनीतिक चेष्टाओं ने इन स्थितियों को जटिल बनाकर रखा था। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा, दोनों ने ही अपनी प्रबल इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इस ग्रंथि का शमन किया है। केंद्र की मोदी सरकार, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी और भारत के गृहमंत्री अमित शाह के प्रयासों का तो कोई सानी ही नहीं है। असम-मेघालय सीमा समझौते के समय प्रधानमंत्री मोदी के एक बयान की भी बड़ी चर्चा रही। प्रधानमंत्री मोदी अकसर कहते रहते हैं, कि जब भारत-बांग्लादेश सीमा विवाद सुलझ सकता है, तो भारत के दो राज्यों के बीच सीमा विवाद सुलझना कोई बड़ी बात नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी का आत्मविश्वास और उनकी कार्यशैली इस तथ्य की परिचायक है, कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, सूझबूझ और सहजता के साथ वर्षों पुरानी जटिल समस्याओं को भी शांति के साथ हल किया जा सकता है। चुनौतियाँ भले ही बड़ी हों, गहरी हों, और जटिल हो... इच्छाशक्ति और निष्काम कर्मशीलता अवश्य ही उन्हें हल कर देती है। असम-मेघालय के सीमा-विवाद का अगला चरण आगामी छह माह में पूरा होने वाला है। इतना ही नहीं, इस प्रयास ने भविष्य के अनेक रास्तों को खोला है, संभावनाओं को जन्म दिया है।साथ ही इस विश्वास को भी प्रबल किया है, कि देश के अंदर राज्यों के बीच अब सीमा-विवाद पुराने समय की बात हो चुकी है। अब हम एक राष्ट्र के रूप में एकसाथ आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा व महत्त्वपूर्ण राज्य- असम और पूर्वोत्तर का मेघ से आच्छादित प्रकृति की सुरम्यता से पूरित राज्य- मेघालय अपने-अपने पड़ोसियों के साथ विवाद को सुलझाकर यह सिद्ध कर रहे हैं, कि पूर्वोत्तर सही अर्थों में देश का विकास इंजन है।

-आचार्य अनामय (राहुल मिश्र)

 (मासिक पत्रिका सीमा संघोष, नई दिल्ली के अप्रैल, 2022 अंक में प्रकाशित)

Saturday 19 March 2022

पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

 


पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

पूर्वोत्तर भारत, भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश। किसी समय इस समग्र प्रदेश को ‘नेफा’, यानि ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ के नाम से जाना जाता था। ईशान्य ही ‘नार्थ-ईस्ट’ है। भारतीय वाङ्मय के अंतर्गत आने वाले शिल्पशास्त्र में वास्तुशिल्प का अपना विशिष्ट स्थान है और इसे विधिवत् शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। वास्तुशिल्पशास्त्र में ईशान्य का विशेष महत्त्व बताया गया है। ईशान, अर्थात् हरमहेश्वर रुद्र और प्रकृति के आदिपुरुष शिव से भी इस दिशा को पहचान सकते हैं। वास्तुपुरुष मंडल में उत्तर-पूर्व की दिशा मस्तक की होती है। यह ग्रहाधिपति सूर्य की दिशा होने के कारण सर्वाधिक ऊर्जावान होती है। इस कारण प्रवेश-द्वार, द्वारमंडप और ध्यान-पूजा इत्यादि के लिए इस दिशा को सर्वथा उपयुक्त बताया गया है। भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश, या पूर्वोत्तर प्रदेश इसी दृष्टि से अत्यंत समृद्ध, प्राचीन और विशिष्ट है। इसी कारण भक्ति के भावों की व्याप्ति पूर्वोत्तर के कण-कण में है। इसी कारण पूर्वोत्तर के जीवन में भक्ति के भाव रचे-बसे हुए हैं।

भक्ति-साहित्य, स्वंय में एक रूढ़ शब्द है, जो काल-विशेष में रची गई भक्तिपरक रचनाओं का द्योतक है। मध्यकाल के पूर्वार्ध में, सन् 1350 से 1650 ई. के आसपास दक्षिण भारत के भक्तकवियों की रचनाओं के उत्तर भारत में आते प्रभावों के फलस्वरूप उत्तरभारत के भक्तकवियों द्वारा रची गई भक्तिपरक रचनाएँ ही सामान्यतः भक्ति-साहित्य की श्रेणी में रखी जाती हैं। इसी कारण भक्तिकाल और भक्ति-साहित्य एक विशेष कालखंड और उस कालखंड में रची गई रचनाओं के लिए रूढ़ हैं। इस दृष्टि से अगर देखें, तो पूर्वोत्तर भारत के भक्ति-साहित्य के अनुशीलन हेतु एक सीमारेखा बनी हुई प्रतीत होने लगती है, जो स्वयं में संकुचित और अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों-विषयों को अपनी परिधि से बाहर छोड़ देती हुई दिखाई पड़ती है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य को इस सीमारेखा में बाँधकर जानना-परखना इसी कारण उचित नहीं होगा।

इस निश्चित सीमा से अलग हटकर यदि भक्ति के भाव से ओतप्रोत साहित्य को देखें, तो सृष्टि के आदिम काल से ही भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य दिखाई पड़ने लगता है, जिसमें श्रद्धा और प्रेम का सम्मिश्रण मानवीय अभिव्यक्तियों में मुखर होता है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को इसी दृष्टि से यहाँ बताने का प्रयास किया गया है। पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति अपने स्वरूप और अपने परिचालन में इतनी प्राचीन है, कि उसमें श्रद्धा और प्रेम के भाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में भक्ति कह सकते हैं, सृष्टि की दृश्य-अदृश्य शक्तियों के प्रति प्रकट होते रहे हैं। इसका प्रथम दर्शन पूर्वोत्तर के शिष्ट या लिखित साहित्य से कहीं आगे प्रकीर्ण साहित्य में होता है; लोकगीतों, किस्सों-कथाओं, लोकनृत्यों आदि में होता है।

अविभाजित पूर्वोत्तर, अर्थात् भाषायी-जातीय-क्षेत्रीय पहचान के आधार पर आठ अलग राज्यों में बँटे पूर्वोत्तर का प्राचीन स्वरूप ऐसा रहा है, जहाँ जनजातीय समूहों के बीच प्रकृति की पूजा का क्रम अलग-अलग विधि-विधानों के साथ एकसमान रूप से चलता रहा है। यही एक तत्त्व विभिन्न भाषायी-जनजातीय विभेदों को किनारे रखकर समूचे पूर्वोत्तर को एक सूत्र में बाँधे रहा है। प्रकृति की पूजा में भी प्रकृति के आदि पुरुष और प्रकृति की आदिशक्ति, अर्थात् शिव और शक्ति की पूजा होती रही है। असम के बोडो जनजातीय समूह में दिवा और दिवि को आद्य देवी-देवता की मान्यता प्राप्त है। ये शिव और पार्वती के प्रतीक हैं। इसी प्रकार देउरी जनजातीय समूह में गिरा और गिराची की पूजा होती है। लालुंग समूह फा महादेव को अपना आदिदेव मानते हैं और स्वयं को उनका ही वंशज मानते हैं। तिवा (लालुंग) आदिवासियों द्वारा पूजा हेतु स्थापित किया जाने वाला त्रिपद, त्रिनेत्रधारी शिव का ही प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी जनजातीय समूहों में शिव के अनेक रूप प्रचलित हैं। शिव को शक्ति के साथ ही पूर्णता मिलती है। ये शिव किसी मंदिर में विराजने वाले नहीं हैं, अलौकिक सिंगार करने वाले भी नहीं हैं। आदिम-आदिवासी जीवन में रचे-बसे हुए हैं। इसी कारण पूर्वोत्तर के अनेक लोकगीतों- लोककथाओं में वे पूरी तरह से देशी रूप में, भंग-धतूरे के सेवनकर्ता और फक्कड़ दिखाई देते हैं। शिव का यह स्वरूप आदिवासी जीवन के अत्यंत निकट होने के कारण ही सहजता के साथ जन-स्वीकार्य हो जाता है। शिव का पशुपति रूप भी यहाँ बहुत प्रचलित है। नंदी की उपस्थिति गौवंश के प्रति जनजातीय आस्था को पुष्ट करती है। अनेक रीति-रिवाजों में गौपूजन अनिवार्य होता है।

असम का बिहू पूर्वोत्तर भारत की पहचान से जुड़ा हुआ पर्व है। यह भी गौपूजन के बिना संपन्न नहीं होता है। वस्तुतः यह पर्व प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति आस्था और श्रद्धा का पर्व है। बहाग (वैशाख), काति (कार्तिक) और माघ बिहू के तीन बड़े आयोजनों के साथ ही पूर्वोत्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में बिहू के कुछ अन्य स्थनीय संस्करण भी होते हैं। बिहू पर्व की इतनी विविधता और पर्व में कृषि के साथ जुड़े उत्सवों की प्रधानता बिहू के प्रकृतिपूजक स्वभाव को व्याख्यायित करती है। जब प्रकृति वसंत के विभिन्न रंगों से रंग जाती है, तब बहाग बिहू अपने स्थानीय नाम, अर्थात् रंगाली बिहू के रूप में मनाया जाता है। काति बिहू का दूसरा नाम कंगाली बिहू भी है, जो कि कार्तिक के समय किसानों के खाली अन्न-भांडारों या कंगाली को प्रकट करता है। रिक्तता का अपना उत्सव है। तुलसी चौरे की पूजा के साथ ही खेतों में दीपक जलाकर अच्छी फसल की कामना करते हुए कंगाली बिहू अनाज के कोठारों को खूब भर देने की कामना के साथ मनाया जाता है। माघ बिहू को भोगाली बिहू भी कहते हैं, जिसमें धन-धान्य से परिपूर्ण भोग-आनंद का उत्सव होता है। फसल की कटाई के साथ कृषि-प्रधान जीवन में उमंग और उल्लास भर जाता है, जो इस पर्व में प्रकट होता है। सोलुंग, सोरी, दारांग, माहोहो, आओलिं मोन्यु, चांग नागा समुदाय का ‘नाक्नयुलेम’ पर्व, लेपचा समुदाय का ‘तेंदोंग-ल्हो-रम-फत’ और मिजो समुदाय का ‘न्हुआई-पुई’ आदि पर्व-अनुष्ठान अलग-अलग तरीकों से प्रकृति पूजा के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर्वों-अनुष्ठानों में लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनृत्यों का विशेष स्थान होता है। इनके माध्यम से आदिवासी समूह प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को प्रकट करते आए हैं। प्रकृति-पूजा के साथ ही इन पर्वों-अनुष्ठानों में आदिवासी समुदायों के आदिपुरुषों, वीर योद्धाओं के जीवन-चरित और उनकी कथाएँ भी जुड़ती चली गईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश में ‘आबो-तानी’ के नाम से ऐसे शक्तिशाली पुरुष को पूजा जाता है, जो लोगों को प्राकृतिक आपदाओं और संकटों से बचाने वाला है। इसी कारण वे ‘आबो-तानी’ को अपना जन्मदाता मानते हैं। ‘आबो-तानी’ की छः संताने हैं, जो अलग-अलग जनजातीय पहचान बना चुकी हैं। इनको तानी वर्ग का जनजातीय समूह कहा जाता है। यह समूह मानता है, कि दोइनि-पोल्लो (सूर्य-चंद्र) आकाश में विराजते हैं और दुनिया के सारे कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। ये अच्छे लोगों का मार्गदर्शन भी करते हैं और बुरे लोगों को दंड भी देते हैं। सूर्य और चंद्रमा की पूजा प्रकृति से जुड़ी हुई है। नदी, तारे, झरने, वन आदि की पूजा पूर्वोत्तर के प्रकृतिपूजक समाज की आस्थाओं को व्याख्यायित करती है।

मणिपुर का मैतेयी जनजातीय समूह ‘सने-मही’ की पूजा करता है। ‘सने-मही’ मुख्य रूप से प्रकृति के देवता हैं। इनके प्रति समूचे पूर्वोत्तर में आस्था देखी जा सकती है। ‘सने-मही’ मत का मैतेयी में लिखा आदिग्रंथ है- पूया। यह वस्तुतः ‘पू’ और ‘याथङ्’ से बना है, जिसका अर्थ है- पूर्वजों द्वारा दिये गए निर्देश। इस ग्रंथ में ‘लाइ-हाइ-लाओबा’, अर्थात् भगवान् के आनंद, के साथ ‘लाइ-हराओबा’ नामक पर्व को जोड़ा गया है। भगवान को आनंद प्रकृति के निर्माण और संचालन में आता है, अपनी सृष्टि को प्रसन्न देखने में आता है। इस कारण ‘लाइ-हराओबा’ सीधे-सीधे सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा और प्रकृति की पूजा से जुड़ जाता है। यह पर्व अनेक नृत्यों, लोकगीतों और पर्वानुष्ठानों का समन्वित रूप है। इसमें उमंगलाई, अर्थात् वन के देवी-देवताओं की पूजा होती है। पोखरों-तालाबों की पूजा होती है। इसमें तीन सौ से अधिक ग्रामदेवी-देवताओं की पूजा होती है, पूर्वजों की पूजा होती है।

‘लाइ-हराओबा’ के इस दीर्घ नृत्य-नाट्यानुष्ठान में पूर्वोत्तर की उस वैचारिकता की झलक भी मिलती है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सजग रही है। यह धार्मिक नृत्य-नाट्यानुष्ठान इसी कारण प्रेमकथाओं की उपस्थिति के बाद भी विशुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को स्वयं में जीवंत रखता है। सृष्टि के निर्माण और संचालन में नर-नारी की उपस्थित, उनकी लौकिक-ऐहिक भाव-भंगिमाएँ असंयमित नहीं करती हैं; मन में विकृत भावों को, कामोत्तेजना को उत्पन्न नहीं करती हैं। यह समग्र अनुष्ठान पुस्तकीय ज्ञान से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का अद्भुत माध्यम बन जाता है।

‘लाइ-हराओबा’ के नृत्य-नाट्यानुष्ठान का एक महत्त्वपूर्ण अंश होता है- ‘खंबा-थोइबी’ नृत्य। यह भी नाट्य-नृत्य है। इसमें लोककथा भी समाहित है। ‘खंबा’ एक साधारण युवक है, और ‘थोइबी’ राजकुमारी है। मणिपुर का पुरातन नगर है- मोइरङ। यह मोइरङ वंश के 52 प्रतापी शासकों की राजधानी रहा है। ‘खंबा-थोइबी’ की उत्पत्ति भी इसी प्राचीनतम नगर में हुई है, ऐसी मान्यता ‘मोइरङ परब’ नामक मणिपुरी महाकाव्य में व्यक्त हुई है। खंबा-थोइबी 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के ऐसे नायक-नायिका हैं, जिन्होंने प्रेम की अनूठी परिभाषा को समाज के सामने रखा था। अनाथ खंबा की बहन खाममू ने मेहनत-मजदूरी करके, और भीख माँग-माँगकर खंबा को पाला था। थोइबी मोइरङ राजपरिवार की राजकुमारी थी। मोइरङ राजा और उनके भाई के बीच वह इकलौती संतान थी। खंबा और थोइबी के पवित्र प्रेम के बीच कोङ्ग्याङ्बा आ जाता है। वह मोइरङ राजपरिवार के विश्वस्त अधिकारी का बेटा है। तमाम कथा-प्रसंगों के बीच खंबा और थोइबी का प्रेम सफल हो जाता है, किंतु जरा-सी एक भूल होती है, और थोइबी के हाथों खंबा की हत्या हो जाती है। अंत में थोइबी भी आत्महत्या कर लेती है।

इस लोकनाट्य-नृत्य में नटराज की अनेक नृत्यमुद्राएँ आती हैं। इस कारण यह नृत्य-नाट्य शिव के तांडव और नटराज रूप से भी जुड़ जाता है। धूनी रमाने वाले, वन-प्रांतरों में निवास करने वाले शिव को ‘खंबा’ में, और राजा हिमांचल की पुत्री राजकुमारी पार्वती को ‘थोइबी’ में देखते हुए ‘खंबा-थोइबी’ नामक यह लोकनृत्य-नाट्य शिव-पार्वती की कथा से जुड़ जाता है। भले ही शिव और पार्वती के जीवन की कथा पूरी तरह से खंबा-थोइबी की कथा से मेल न खाती हो, फिर भी इस प्रेमकथा में शिव और पार्वती के आगमन से यह ऐसे प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसे भक्तिकाल की प्रेममार्गी काव्यधारा के पूर्वोत्तरीय संस्करण के रूप में देख सकते हैं। शिव के साथ शक्ति के रौद्र और सौम्य रूप, यथा- कामाख्या और त्रिपुरसुंदरी पूर्वोत्तर में शाक्त-साधना के प्रतीक हैं।

पूर्वोत्तर की एक अन्य प्रमुख जनजाति है- मिकिर। यह स्वयं को ‘करबी’ भी कहती है। ‘करबी’ का स्थानीय बोली में अर्थ होता है- मनुष्य। ये स्वयं को ब्रह्मा से उत्पन्न मानते हैं। इस प्रकार ये देव से उत्पन्न मनुष्य हैं। इस समुदाय के द्वारा पूर्वजों के श्राद्धकर्म के समय लोकगीत गाया जाता है, जिसमें किसी महान पक्षी द्वारा अनेक अंडे दिये जाने का वर्णन मिलता है। मिकिरों या करबियों के अनुसार ये अंडे ब्रह्मा के दिये हुए थे, और इन अंडों में से ही मनुष्यों की अलग-अलग प्रजातियाँ उत्पन्न हुईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जनपद में परशुराम कुंड है। यह कुंड मिशिम प्रदेश के हृदय में स्थित है। अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय व्यवस्था में मिश्मी जनजाति की बड़ी संख्या है। पुराने समय में ये परशुराम कुंड की व्यवस्था करने और यात्रियों से कर वसूलने का काम करते थे। मिश्मी लोग स्वयं को कुंडिनपुर के राजा भीष्मक के पुत्र रुक्मि का वंशज मानते हैं। रुक्मिणी के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल से रुक्मिणी के विवाह को रुकवाया था, और स्वयं विवाह किया था। इस पर रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भयंकर संघर्ष भी हुआ। कहा जाता है, कि रुक्मिणी के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का ऐसा प्रहार किया, कि रुक्मिणी के भाई रुक्मि का अजीब तरीके से केश-कर्तन हो गया। इस कारण आज भी मिश्मी समुदाय के लोग बहुत छोटे केश रखते हैं। इसी तरह हार से दुःखी मिश्मी समुदाय के लोग अपने कपाल पर ‘कॉपलि’ नामक चाँदी का पट्टा धारण करते हैं।

आज के नागालैंड का दीमापुर हिडिंबापुर से विकृत होकर बना है, ऐसा माना जाता है। नागालैंड का एक जनजातीय समूह स्वयं को अज्ञातवासी भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानता है। दीमापुर में  स्थित हिडिम्बा के बाड़ा में चौसर खेल की बड़ी-बड़ी गोटियाँ जैसी प्रस्तर आकृतियाँ रखी हैं, जिनसे किसी जमाने में भीम और उनका पुत्र घटोत्कच चौसर खेला करते थे, ऐसी भी मान्यता है।

बृहत् असम, अर्थात् कामरूप अर्थात् प्राग्ज्योतिष का राजा शैलाधिपति भगदत्त अपने किरात सैनिकों, अर्थात् वर्तमान नागालैंड के मूल निवासियों को साथ लेकर कौरवों की तरफ से महाभारत के युद्ध में लड़ने के लिए गया था। कुरुवंशीय राजा ययाति के पुत्र द्रहु की 38वीं पीढ़ी के राजा त्रिपुर से त्रिपुरा को अपना यह नाम मिला था। महाभारत का गंधर्वलोक, अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का नैहर और अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन द्वारा संचालित राजवंश का जीवंत साक्ष्य आज का मणिपुर है।

पूर्वोत्तर की तीवा (लालुंग) जनजाति अपने को माता सीता का वंशज मानती है। इसी प्रकार करवी जनजाति स्वयं को बालि और सुग्रीव का वंशज मानती है। पूर्वोत्तर में रामकथा का आगमन वाल्मीकि की रामायण के साथ होता है। इसके अतिरिक्त बंगाल की कृत्तिवासी रामायण का प्रभाव पूर्वोत्तर में पड़ा। 14वीं-15वीं शताब्दी में माधव कंदली द्वारा रचित सप्तकांड रामायण पूर्वोत्तर के लिखित भक्तिसाहित्य का पहला ग्रंथ कहा जा सकता है। यह देववाणी के रूप में नहीं, बल्कि लौकिक कथा के रूप में है, इस कारण बृहत् असम के लोकजीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इसमें दिखाई पड़ते हैं। असमीया रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा के प्रसंग में राम और सीता का संवाद भी है। इसमें अग्निपरीक्षा के लिए कहने पर सीता बहुत क्रोधित होती हैं। अन्य रामकथाओं की तरह असमीया रामकथा की सीता अबला नहीं दिखती हैं। यह प्रसंग पर्वतीय महिलाओं की संघर्षशीलता और उनके साहस को प्रकट करता है।

तिवा जनजाति में ‘रामायने खरङ्’ नाम से रामकथा का मौखिक रूप प्रचलित रहा है। इसमें वाल्मीकि रामयण के विभिन्न कथा-प्रसंग अलग-अलग लोकगीतों के रूप में आते हैं। ‘लिकछा लामाङ्’ खामति जनजाति की रामकथा है। इसमें बौद्ध प्रभाव है, और जातक कथाओं के प्रसंग भी इसमें आते हैं। करवी समुदाय में ‘छाबिन-आलुन्’ नामक लोकगीत गाए जाते हैं। ये लोकगीत रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित होते हैं। चूँकि ये लिखित रूप में नहीं थे, इस कारण अलग-अलग गीत-खंडों में अलग-अलग कथाएँ होती हैं। ‘छाबिन-आलुन्’ का संकलित रूप ही करवी रामायण कहलाता है। इसमें करवी समुदाय का जीवन, उनका रहन-सहन और उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताएँ समग्र रूप में समाहित हो गईं हैं। उदाहरण के रूप में, करवी रामायण के राम और लक्ष्मण परंपरागत झूम खेती करते हैं। राजा जनक भी झूम खेती करते हैं। सीता अपने पिता के लिए कलेवा लेकर, साथ ही धान से बनी देशी मदिरा लेकर खेत में जाती है। एक बार सीता अपने घर में साफ-सफाई करते समय भारी-से लोहे के धनुष को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देती हैं, और तब जनक यह तय करते हैं कि वे अपनी बेटी का विवाह ऐसे वीर युवक से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। तिवा, खामति और करवी रामकथाओं के लोक-संस्करणों की तरह अन्य जनजातीय समूहों में रामकथाएँ प्रचलित हैं। इन सभी में एक समानता है, कि इनमें जनजातीय-पर्वतीय जीवन इस तरह से घुला-मिला है, कि रामकथा और राम इन्हीं जनजातीय समूहों के अपने होकर रह गए हैं।

ये पूर्वोत्तर के जनजातीय समाजों के श्रद्धा और प्रेम के भाव ही कहे जाएँगे; जिन्होंने राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिव और शक्ति को अपने में ढाल लिया और उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया। भक्ति का यह ऐसा उदात्त और विलक्षण स्वरूप है, जिसे अन्यत्र खोज पाना जटिल और दुर्लभ है। श्रद्धा और प्रेम के भावों से भक्ति की निर्मिति को शाण्डिल्य और नारद ऋषियों ने बताया है। इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्याख्यायित किया है। श्रद्धा और प्रेम के समन्वित भावों से निर्मित भक्ति और इस भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य पूर्वोत्तर की अपनी विशेष पहचान गढ़ता है। अतीत से वर्तमान तक समग्र पूर्वोत्तरीय भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार इसी भावभूमि पर हुआ है।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक जनजातीय समुदायों का यह विशाल लोकसाहित्य, या कहें भक्तिसाहित्य लोककंठों में ही जीवित रहा। बाद में इसके लिखित संस्करण भी जागरूक साहित्यसेवियों द्वारा तैयार किये गए। सन् 1993 में रूपसिंह देउरी ने ‘रामायने खराङ्’ का असमीया लिपि में मुद्रित संस्करण तैयार किया। इसी प्रकार डॉ. देवेनचंद्र दास ने ‘छाबिन आलुन्’ को देवनागरी में लिपिबद्ध करके सन् 2000 ई. में प्रकाशित कराया। ऐसे अनेक प्रयास पूर्वोत्तर में हुए हैं, और इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है।

समग्रतः; प्रकृति-पूजा, प्रकृति पुरुष शिव और शक्ति से क्रमशः महाभारत-रामकथा के कथा-प्रसंगों ने पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को निर्मित किया। यह आधार मुख्यतः लोकजीवन, लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं-लोककलाओं का है। इसी कारण पौराणिक कथा-प्रसंग लोकसंस्करण में विकसित हुए, विस्तृत हुए। पूर्वोत्तर की यह ऐसी विशिष्टता है, जिसने युगों-युगों तक यहाँ के आस्थावान जनजातीय समूहों को एक सूत्र में बाँधे रखा। भले ही वैचारिक संक्रमणों, उन्माद और बर्बरता की स्थितियों ने, जातीय-क्षेत्रीय-भाषायी अस्मिता के संघर्षों और धार्मिक असंतुलनों ने पूर्वोत्तर की अपनी पुरानी पहचान को, जड़ों को गहराई में दबा दिया हो, मगर इस एक्य के सूत्र को, समन्वय को भक्ति साहित्य के लोकसंस्करणों के माध्यम से पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

भक्ति-साहित्य का यह लोक-संस्करण भले ही शिष्ट साहित्य की परिधि से बाहर हो, किंतु इसी के रस-संचय से कालांतर में वैष्णव भक्ति (जात्रा, नामघर आदि) तक भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार पूर्वोत्तर में हुआ है। भक्ति-साहित्य के समग्र स्वरूप को पूर्वोत्तर के संदर्भ में माधवदेव द्वारा रचित निम्न पंक्तियों के आलोक में देखा जा सकता है-

धन्य-धन्य कलिकाल / धन्य नरतनु भाल / धन्य-धन्य भारतबरिषे (बरगीत / माधवदेव)

संदर्भ ग्रंथ-

1. भारत की लोकसंस्कृति, सं. हेमंत कुकरेती, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018,

2. भारतीय साहित्य की पहचान, सं. डॉ. सियाराम तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2015,

3. पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य, सं. डॉ. अनुशब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2017,

4. कृतिरूप संघ दर्शन, संकलन व संपादन- हो. वे. शेषाद्रि, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, अष्टम सं. 2015,

5. असम : लोक-संस्कृति और साहित्य, जोगेश दास, हिंदी अनुवाद कृष्ण गोपाल अग्रवाल, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, सं. 1976

6. मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में, डॉ. देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2006 ।

{पूर्वोत्तर भारत का भक्ति साहित्य (पुस्तक), संपादक डॉ. मंदाकिनी शर्मा, प्रकाशक- अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली में प्रकाशित}

-डॉ. राहुल मिश्र


यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद

 



यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद

प्रगति का साधारण अर्थ है- आगे बढ़ना। जो साहित्य जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक हो, वही प्रगतिशील साहित्य है। इस दृष्टि से विचार करेंगे तो तुलसीदास सबसे बड़े प्रगतिशील लेखक प्रमाणित होते हैं। भारतेंदु बाबू और द्विवेदी युग के लेखक, मुख्यतः मैथिलीशरण गुप्त भी प्रगतिशील लेखक हैं। परंतु आज का प्रगतिवादी इनमें से किसी को भी प्रगतिशील नहीं मानेगा- ये सभी तो उसके अनुसार प्रगतिक्रियावादी लेखक हैं। अतः प्रगति का अर्थ आगे बढ़ना अवश्य है, परंतु एक विशेष ढंग से, एक विशेष दिशा में। उसकी एक विशिष्ट परिभाषा है। इस परिभाषा का आधार है- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद।1

सच्ची बात तो यह है कि हमारे अधिकांश साहित्यकार, जो प्रगतिवादी वर्ग के नेता माने जाते हैं, स्वयं किसी पूँजीपति से कम नहीं हैं। पहाड़ियों के वैभवपूर्ण वातावरण में बैठकर निश्चिंतता से मजदूरों के दुःख-दर्द के गीत लिखे जा सकते हैं, किंतु उनमें अनुभूति की सजीवता आ जाय, यह आवश्यक नहीं। फलतः प्रगतिवादी  साहित्य हमारे हृदय को बहुत कम स्पर्श करता है।2

हिंदी के जाने-माने समीक्षक-आलोचक डॉ. नगेंद्र और हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्येतिहासकार डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त के उक्त कथनों के माध्यम से हिंदी साहित्य के प्रगतिवाद को जाना-समझा जा सकता है। प्रगतिवाद अपने सीधे-सरल अर्थों में भले ही प्रगति की विचारधारा का पोषण करने के अर्थ को व्याख्यायित करता हो, किंतु हिंदी साहित्य में जिस रूढ़ और विशिष्ट अर्थों से संपृक्त प्रगतिवाद की चर्चा की जाती है, वह प्रगति के सीधे और सरल स्वरूप से पूर्णतः भिन्न है। इसी कारण प्रगतिवाद के सामान्य, सीधे और सरल अर्थ को ग्रहण कर लेने पर उसी प्रकार की स्थिति का जन्म हो जाता है, जैसी कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत के साथ बन गई थी, जैसी कि प्रेमचंद के साथ बनी थी। डॉ. नगेंद्र अपने निबंध- ‘प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य’ में लिखते हैं-

हिंदी में प्रगतिवाद का आदिग्रंथ ‘गोदान’ है। परंतु गांधीजी में आस्था रखने वाले प्रेमचंद को शुद्ध प्रगतिवादी शायद न माना जा सके। वे मानववाद के आगे नहीं जा सके। प्रगतिवाद की रूपरेखा पिछले दो-तीन वर्षों से ही बननी आरंभ हुई है। यह एक विचित्र संयोग है कि हिंदी में प्रगतिवाद का भी सबसे पहला लेखक- जिसने उसे गौरव दिया- यही व्यक्ति है, जो छायावाद का भी एक प्रमुख प्रवर्तक था। मेरा आशय कवि पंत से है।

इस वर्ग के कवि-लेखकों में केवल एक ही प्रवृत्ति सर्व-सामान्य है- क्रांति। शुद्ध प्रगतिवादी दृष्टिकोण तो शायद पंत और नये कवियों में नरेंद्र ने ही ग्रहण किया है। और सच तो पंत और नरेंद्र में भी यह बुद्धि की प्रेरणा, संस्कार अभी उनके पीछे को ही दौड़ रहे हैं। शेष लेखक-कवि तो अंशतः ही प्रगतिशील हैं।3

अपने इस लेख के उपरोक्त संदर्भ में नगेंद्र एक टिप्पणी (फुटनोट) भी लिखते हैं- परंतु अब इन दोनों (सुमित्रानंदन पंत और नरेंद्र शर्मा) को भी प्रगतिवादी पार्टी के चीफ व्हिप डॉक्टर रामविलास शर्मा ने पार्टी से निकाल दिया है।4 यह टिप्पणी सिद्ध करती है, कि जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की पक्षधरता प्रगतिवाद का एक प्रमुख आयाम कहा जाता है, वह सैद्धांतिक रूप से यहाँ दिखाई नहीं पड़ता है। यहाँ सुमित्रानंदन पंत की ‘युगवाणी’ में संकलित कविता ‘चींटी’ के एक अंश को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं-

निद्रा, भय, मैथुनाहार / -ये पशु लिप्साएँ चार- / हुईं तुम्हें सर्वस्व-सार? /

धिक् मैथुन आहार यंत्र! / क्या इन्हीं बालुका भीतों पर / रचने जाते हो भव्य, अमर / तुम जन समाज का नव्य तंत्र? / मिली यही मानव में क्षमता? / पशु, पक्षी, पुष्पों से समता? / मानवता पशुता समान है? / प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है? /

बाह्य नहीं आंतरिक साम्य / जीवों से मानव को प्रकाम्य! / मानव को आदर्श चाहिए, / संस्कृति, आत्मोत्कर्ष चाहिए, /

बाह्य विधान उसे हैं बंधन, / यदि न साम्य उनमें अंतरतम- / मूल्य न उनका चींटी के सम, / वे हैं जड़, चींटी है चेतन! / जीवित चींटी, जीवन वाहक, / मानव जीवन का वर नायक, / वह स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक!/5

यहाँ पंत ने जिस प्रकार प्रगतिवाद की संकीर्ण वैचारिकता पर तीखी चोट की है, उसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी तीखी आलोचना को पचा पाना प्रगतिवादियों के लिए सहज नहीं रहा होगा। इसी प्रकार प्रेमचंद के प्रगतिवादियों से संबंध को व्याख्यायित करना होगा। सज्जाद ज़हीर के प्रयासों से लंदन में सन् 1935 में स्थापित होने वाला प्रगतिशील लेखक संघ भारत पहुँचता है। भारत के अनेक साहित्यकारों- जैनेंद्र, गंगानाथ झा, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सच्चिदानंद सिन्हा, शिवदान सिंह चौहान, नरेंद्र शर्मा, हसरत मोहानी, जोश मलिहाबादी और डॉ. अब्दुल हक़ सहित रवींद्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद इस समूह के संपर्क में आए। प्रारंभ में सज्जाद ज़हीर का कहना था, कि यह समूह भारतीय अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव-प्रेम, उसकी यथार्थप्रियता और उसके सौंदर्यतत्त्व लेने के पक्ष में है।6  इस प्रकार प्रगतिवाद की एकदम अलग और प्रायः सर्वस्वीकृत विचारधारा को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन 09-10 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन के सभापति प्रेमचंद थे। यहाँ उल्लेखनीय है कि दो बैलों की कथा, पूस की रात, आत्माराम, स्वत्व रक्षा, अधिकार चिंता, नागपूजा, पूर्व संस्कार, सैलानी बंदर, मुक्तिधन, और ऐसी ही तमाम कहानियों के साथ ही उपन्यासों में प्रेमचंद जितने पशु-पक्षियों के प्रति सहृदय प्रतीत होते हैं, उतना ही लगाव और आकर्षण भारत के ग्राम्य जीवन और भारतीय संस्कृति के प्रतीकों के लिए प्रकट होता है। ऐसी अद्भुत, विलक्षण और कालजयी रचनाएँ करने वाले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की विचारधारा से जुड़कर भारतीय संस्कृति और भारतीयता के प्रतीकों को विस्मृत कर बैठें होंगे, यह स्वीकार करना असंभव है। उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन से पूर्व प्रेमचंद का इस विचारधारा के साथ कोई जुड़ाव नहीं था और इस अधिवेशन के लगभग छह माह बाद ही प्रेमचंद का असामयिक निधन हो गया। कहना न होगा, कि प्रेमचंद की सभी रचनाओं को अपने अनुरूप प्रस्तुत करते हुए प्रगतिवाद के झंडाबरदारों ने प्रेमचंद को अपने खेमे का साहित्यकार घोषित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। यह क्रम आज भी देखा जा सकता है, जबकि वास्तविकता यह है कि यदि प्रेमचंद जीवित होते, तो उन्हें भी पंत और नरेंद्र शर्मा की तरह प्रगतिवादी पार्टी से कब का निष्कासित कर दिया गया होता, या फिर वे जैनेंद्र और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की तरह स्वयं ही अलग हो गए होते। इसी प्रकार रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के कोलकाता अधिवेशन (सन् 1938) की अध्यक्षता की थी। टैगोर का साहित्य, उनकी संगीत-साधना और उनका जीवन किसी भी प्रकार से प्रगतिवाद की विचारधारा से मेल खाने वाला प्रतीत नहीं होता। इसी कारण कालांतर में रवींद्रनाथ ठाकुर भी प्रगतिवाद के खेमे से बाहर हो गए। इस संदर्भ में डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त लिखते हैं-

वस्तुतः मुंशी प्रेमचंद और गुरुदेव टैगोर- दोनों ने ही प्रगतिशीलता को एक व्यापक एवं उदात्त रूप में ही ग्रहण किया था, जबकि परवर्ती साहित्यकारों ने इसे मार्क्सवाद की संकीर्ण सीमाओं में अवरुद्ध करके इसे ‘प्रगतिशीलता’ से ‘प्रगतिवाद’ का रूप दे दिया। प्रगतिशीलता जहाँ किसी वाद-विशेष की सूचक नहीं है। कोई भी विचार, जो समाज की प्रगति में सहायक होता है, ‘प्रगतिशील’ कहा जा सकता है, जबकि ‘प्रगतिवाद’ का अर्थ विशुद्ध मार्क्सवादी विचारों से लिया जाता है। इसीलिए ‘प्रगतिवाद’ की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है।7

रूस की जारशाही को नष्ट करके मार्क्स का जीवन-दर्शन सारी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर चुका था। इस आकर्षण ने लंदन से होते हुए भारत में पदार्पण किया। भारत की सनातन परंपरा, जो अतीत के अनेक उतार-चढ़ावों को देखते-भोगते और विषम परिस्थितियों से जूझते हुए अखंड-अक्षुण्ण बनी हुई थी, उसमें सेध लगाने के लिए जिस प्रकार प्रगतिवाद अर्थात् मार्क्सवाद को ‘प्रगतिशीलता’ के आवरण में छिपाकर प्रस्तुत किया गया, उसने अवश्य ही अनेक बुद्धिजीवियों-साहित्यसेवियों को भ्रमित किया, परंतु भ्रम की यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रह सकी। इस अवधि में ‘प्रगतिवाद’ ने अवश्य ही ऐसा वर्ग तैयार कर लिया था, जो क्रांति की बात करके, द्वंद्वांत्मक भौतिकवाद की बात करके अपना वर्ग तैयार करने के प्रयास में सक्रियता के साथ लगा हुआ था। इसी के फलस्वरूप अवसर का लाभ उठाते हुए ऐसे साहित्यकारों को अपने खेमे में दिखाने का प्रयास ‘प्रगतिवाद’ की धारा के लोग करने लगे, जिनके साहित्य का उल्लेख करके, जिनके स्वयं के प्रभाव का वर्णन करके ‘प्रगतिवाद’ की ओर सामान्य जन को, आम पाठकों को आकर्षित किया जा सके।

यह स्थिति राजनीति के क्षेत्र में भी बनने लगी थी। यहाँ उल्लेख करना होगा, कि इसके लिए सीधा और सरल-सा रास्ता कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) में ही बन गया था। इस अधिवेशन के अध्यक्षीय उद्बोधन में जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं को साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी घोषित करते हुए कहा- मैं तो साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी हूँ।8 उनके द्वारा ‘साम्यवाद’ शब्द किस अर्थ में प्रयोग किया गया है, इसे जाने बगैर पंडित नेहरू के (अंध) अनुयायियों ने साम्यवाद को, और फिर कालांतर में ‘प्रगतिवाद’ को अपना लिया। राजनीति के राजपथ में बिना प्रयास के, बिना किसी संघर्ष के उन ‘क्रांतिकारियों’ ने स्थान पा लिया था, जिन्हें अनेक सुख-सविधाओं के बीच पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों जैसे जीवन को जीते हुए सर्वहारा वर्ग की पीड़ाओं और चिंताओं को कलमबद्ध करने में महारथ हासिल थी। देश के तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दल में साम्यवादियों की यह घुसपैठ कभी आलोचना का विषय नहीं बन सकी। यह अत्यंत रोचक तथ्य है कि कांग्रेस की अपनी नीतियों के निर्धारण में भी इनकी दखल होती रही और इसे स्वीकार किया जाता रहा।

भारतीय समाज-जीवन में धर्म और आस्था का विशिष्ट महत्त्व रहा है। आध्यात्मिकता के बिना भारतीय समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इसके एकदम विपरीत है। इस कारण भारतीय समाज में अपना स्थान बनाने हेतु यह भी आवश्यक था, कि भारतीय आध्यात्मिकता, धर्म-साधना और आस्थावान जीवन-पद्धति को तोड़ा जाए। इस कारण राजनीति और साहित्य में अपनी घुसपैठ से उत्साहित होकर ‘प्रगतिवाद’ या ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ या ‘मार्क्सवाद’ ने धर्म में घुसपैठ का रास्ता खोजना शुरू किया। बौद्धधर्म के अनात्मवाद, अनीश्वरवाद और विज्ञानवाद ने इस रास्ते को सरल बना दिया। भगवान बुद्ध द्वारा जिन बातों को अव्याकृत कहा गया था। जिन बातों पर वे मौन रहे थे, उन्हीं को आधार बनाकर यह प्रचारित-प्रसारित किया जाने लगा, कि बौद्धमत अतीत का, और मार्क्सवाद वर्तमान का जीवन-दर्शन है। इस कारण बौद्ध धर्म को अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा। यह भी प्रचारित किया गया, कि बौद्ध धर्म ही वास्तव में ऐसा धर्म है, जो सर्वहारा समाज के कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकता है। इसी कारण ‘नव बौद्ध’ का विचार समाज में न केवल प्रचलित हुआ, वरन् राजनीतिक हथकंडे के रूप में प्रयोग किए जाने का माध्यम भी बन गया। इसी कारण हजारों वर्षों की उपेक्षा और तिरस्कार की दुहाई दे-देकर राजनीति की रोटियाँ सेंकीं गईं। हजारों-लाखों का समूह बनाकर लोग धर्म-परिवर्तन करने लगे।

इस प्रकार साहित्य, राजनीति और धर्म के क्षेत्र में परजीवी की भाँति सक्रिय होकर भारतीय समाज और संस्कृति पर कुठाराघात करने का श्रेय द्वंद्वात्मक भौतिकवाद या प्रगतिवाद या मार्क्सवाद को जाता है। प्रगतिवादी कविताओं में अनल-गान, अनिल-गान, विप्लव-गान और क्रांति-आह्वान के ऐसे अनेक स्वर उभरने लगे थे, कि मानों सारा देश अनेक बुराइयों-विकृतियों से भर गया है और इस क्रांति-गान से एकदम बदल ही जाएगा। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए परजीवी बनकर रह जाने वाली यह क्रांति की धारा धीरे-धीरे अपने पथ से भटकती चली गई और इसी कारण सबसे पहले साहित्य में इसका स्थान हाशिये पर सिमटकर रह गया। सन् 1950 तक आते-आते यह क्रांति-धारा, यह विप्लव-धारा अपने अवसान की ओर चल पड़ी। राजनीति में स्वयं कभी अपना स्थान नहीं पाकर भी इस धारा के लोग सत्ता के सुख का स्वाद चखते रहे और सत्ता के केंद्र तक अपनी पकड़ बनाए रखने वाले ये परजीवी अपनी विकृत मानसिकता के परिणामस्वरूप अपनी जीवनदायिनी सत्ता-शक्ति को भी ले डूबे। आज धर्म के क्षेत्र में भी इस परजीवी और विकृत-कुत्सित मानसिकता को जाना-समझा जा रहा है और वहाँ भी शुद्धि-परिष्कार का क्रम चल पड़ा है। भारतीय समाज-जीवन के संदर्भों में अप्रासंगिक और अस्वीकार्य इस परजीवी वैचारिकता के अवसान का साक्ष्य बना आज का समय देख रहा है कि सनातन भारतीय परंपरा को तोड़ने वाले, भारतीय समाज की सहकार और सद्भाव वाली संस्कृति को विकृत करने की सोच रखने वाले तत्त्व किस प्रकार बहिष्कृत होते हैं।

संदर्भ-

1.       डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ. त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 877,

2.       डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ. 143,

3.       डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ. त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 882-883,

4.       वही, पृ. 883,

5.       सुमित्रानंदन पंत, चींटी, युगवाणी, हिंदी कविता डॉट कॉम,

6.       अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ, हिंदी विकीपीडिया डॉट आर्ग.,

7.       डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ. 125,

8.       वही, पृ. 128।

(अखिल भारतीय साहित्य परिषद की पत्रिका साहित्य परिक्रमा के जनवरी-मार्च, 2022 अंक में प्रकाशित)

-डॉ. राहुल मिश्र