Wednesday 19 August 2015

नागवंशीय शासक और उनसे जुड़ी नागपूजा की परंपरा

नागवंशीय शासक और उनसे जुड़ी नागपूजा की परंपरा
सावन के शुक्लपक्ष की पंचमी को नागपंचमी के रूप में मनाया जाता है। इस तिथि को कल्कि अवतार जन्म और तक्षक पूजा के लिए भी जाना जाता है। हिंदू और जैन धर्मों में नागपूजा का बड़ा महत्त्व है। हिंदुओं के आराध्य शिव ने नाग को अपने गले में धारण किया, श्रीकृष्ण ने यमुना को कालिया नाग से मुक्त कराकर कालिया नाग को मोक्ष प्रदान किया, गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं नागों में अनंत (शेषनाग) हूँ। विष्णु ने भी शेष-शयन करके नागों के प्रति धार्मिक आस्था को स्थापित किया है। जैन धर्म के भगवान पार्श्वनाथ को शेषनाग पर बैठे हुए दर्शाया गया है। पुराणों में बताया गया है कि हमारी धरती शेषनाग के फन के ऊपर टिकी हुई है। इस तरह नाग हमारी धार्मिक आस्था से जुड़े हैं और इसी कारण नाग पंचमी का भी अपना विशिष्ट धार्मिक महत्त्व है। इसके साथ ही नाग पंचमी किसानों और खेती-किसानी से जुड़े लोगों के लिए हिंदू नववर्ष के मुताबिक पहला त्योहार होता है।
अगर इतिहास के दृष्टिकोण से देखें, तब भी नागवंश का अतीत महाभारत काल से भी पुराना नजर आता है। महाभारत काल में पूरे भारत, खासतौर पर हिमालय पर्वत उपत्यकाओं और कैलास पर्वत से लगे भूक्षेत्रों में इनका प्रभुत्त्व था। पौराणिक मान्यता के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री और कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू ने कश्मीर में आठ पुत्रों- अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक को जन्म दिया था। इन्होंने समूचे कश्मीर में अपना राज्य स्थापित किया। नागवंशावली में शेषनाग को नागों का पहला राजा माना जाता है। शेषनाग को अनंत नाम से भी जाना जाता है। कश्मीर का अनंतनाग नगरी इनकी राजधानी हुआ करती थी। वैसे ही तक्षशिला नगरी तक्षक नाग की राजधानी हुआ करती थी। मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। वासुकि का राज्य कैलास पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। नागवंशावली में यह क्रम कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनंत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना आदि शासकों से होते हुए चलता रहा। ये सभी नाग को पूजने वाले नागकुल थे, इसीलिए इन्होंने नागों की प्रजातियों पर अपने कुल का नाम रखा। भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में इनका राज्य था। छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर क्षेत्र में नल और नाग वंश तथा कवर्धा के फणि-नागवंशियों का उल्लेख मिलता है। मध्यप्रदेश के विदिशा में शेष, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि(यशनंदि) आदि नागवंशीय राजाओं के शासन का उल्लेख मिलता है। नाग जनजाति का शासन नर्मदा नदी घाटी में भी था। हैहयों ने नागवंश को पराजित कर दिया था, बाद में कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद नागों ने अपना राज्य फिर से स्थापित किया और ये नवनाग कहलाए। इन नवनागों ने अपने राज्य का विस्तार मथुरा, विदिशा, कांतिपुरी (कुंतवार) व पद्मावती (पवैया) तक कर लिया था। नागा आदिवासियों का संबंध भी नागों से ही माना जाता है। कुछ लोग नागदा नामक ग्राम को नागदाह की घटना, यानि जनमेजय के नागयज्ञ से जोड़ते हैं। इनके साथ ही आज भी कई परिवारों में सर्प को कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है। मालवा क्षेत्र में कई गाँवों में उनके चबूतरे बने हुए हैं। जनभाषा में उन्हें भीलट बाबा भी कहते हैं। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नागवंशीय जातियाँ आज भी हैं। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों के मूल निवासियों के उपनामों, जैसे- धूमल, कालिया, अनंत और फाहल आदि पर गौर करें, तो भारत में समृद्ध नागवंशीय परंपरा के वजूद को आज भी देखा जा सकता है। नागों ने अपने शासनकाल के दौरान वृषभ, त्रिशूल और सर्प के चित्रांकित सिक्के भी चलाए थे, जो खुदाई के दौरान यदा-कदा मिलते रहते हैं। नागकालीन सिक्के काकिणी के नाम से जाने जाते थे, जो अलग-अलग भार के होते थे। इस तरह एक लंबे कालखंड का जिक्र किया जा सकता है, जब समूचे अखंड भारत में और भारत के बाहर भी कई स्थानों पर नागवंशीय शासकों ने अपनी विजय पताका फहराई।
नागवंश की एक शाखा भारशिव भी है। सिर पर शिवलिंग धारण किए प्रतिमाएँ इनका प्रतीक है। नागवंश की इस शाखा के सबसे प्रतापी शासक धाराधीश मंजु थे। इनका राज्य उस समय धारा नगरी (वर्तमान धार) तक विस्तृत था, इसी कारण इन्हें धाराधीश की उपाधि मिली। मंजु के राज्यकाल तक नागों का विंध्य क्षेत्र में अस्तित्व रहा। गणपति नाग इस वंश का अंतिम शासक था। विंध्य पर्वत श्रेणी की तलहटी में गुप्त शासकों का परोक्ष शासन था, उस समय नागवंशी शासक उनके मांडलिक हुआ करते थे। दोनों राजवंशों के बीच रोटी-बेटी के संबंध कायम थे। चूँकि नागवंशी शासक अदिवासी जीवन बिताते थे और विदेशी आक्रांताओं से अपनी पहचान को बचाने के लिए प्राय: युद्ध में व्यस्त रहते थे, इस कारण उनके शासन के प्रतीक नहीं के बराबर ही मिलते हैं। चित्रकूट (उत्तरप्रदेश) के चर ग्राम का सोमनाथ मंदिर इसी कारण अद्वितीय स्थान रखता है, क्योंकि यह मंदिर भारत के समृद्ध नागवंश का दुर्लभ प्रतीक है। बीहड़ों ने इस मंदिर को बचाने का और साथ ही गुमनाम बनाए रखने का काम किया, किंतु अब इस मंदिर की स्थिति ऐसी है कि यदि इसे तत्काल सुरक्षित नहीं किया जाता, तो यह प्रतीक नष्ट हो जाएगा। बुंदेलखंड क्षेत्र के अनेक स्थान-नाम, जैसे- नचकांचन (नचना कुठार) पन्ना, भारगढ़ (बरगढ़), नगनेधी, भारकोट (बरकोठ) और भारगढ़ (बारीगढ़) आदि इस क्षेत्र में नागवंश के शासन-सूत्र की कड़ी को प्रमाणित करते हैं। इस तथ्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि इस क्षेत्र में ऐतिहासिक खोज करके पुरातन भारत की समृद्धि को जानने-समझने की जितनी बड़ी जरूरत थी, उतना ही कम कार्य इस क्षेत्र में किया गया है।
यह बात तो इतिहास की है, मगर इससे जुड़ा हुआ सांस्कृतिक-धार्मिक और पारिस्थितिकी तंत्रीय-पर्यावरणीय पक्ष भी है। नागवंशीय राजा सर्पपूजक थे। नागवंशियों के काल में सर्प की प्रतिमाएँ अनेक स्थानों पर स्थापित की गई थीं और आज भी कई जगह स्थापित हैं। ऐसा लगता है कि नदी, पर्वत, वृक्ष और तमाम जीव-जंतुओं के साथ ही नाग (सर्प) को धार्मिक आस्था के साथ जोड़कर तत्कालीन शासकों ने धरती के प्रति और अपनी आने वाली पीढ़ी के प्रति जितनी जिम्मेदारी का परिचय दिया था, वह आज भी हमारे लिए मिसाल है। शायद नागवंशी शासकों को आज के जीवविज्ञानियों से ज्यादा अनुभव था, जिस कारण खेती-किसानी में और धरती के पारिस्थितिकी तंत्र में नागों के योगदान की महत्ता को समझते हुए उन्होंने नागों के नाम पर अपने वंश चलाए और आम जनता को नागों के प्रति आस्थावान बनाने के लिए नागपंचमी के रूप में पूजा का विधान भी प्रचलित-प्रसारित किया।
हजारों-हजार वर्षों तक यह परंपरा अबाध रूप से चलती ही रही। देश में विदेशी आक्रांता आए भी, बस भी गए और चले भी गए, किंतु हम धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं भूले। जब अंग्रेजों ने भारत में भू-बंदोबस्त लागू किया, तब भी यह परंपरा चलती रही। दूसरी जगहों के लिए बता पाना तो कठिन है, मगर बुंदेलखंड क्षेत्र में इस परंपरा को देखा जा सकता है। अपने बचपन में, जब चीजों को उनकी सार्थकता के नजरिये से देखना नहीं आता था, तब वे चीजें बड़े अलग तरीके से रोमांचित करती थीं। और आज बचपन की उन यादों को सोचता हूँ तो लगता है कि हमारी पीढ़ी ने अपने अतीत से मिली नसीहतों को, उनके द्वारा हमारे प्रति बरती गई जिम्मेदारियों को इस तरह ताक पर रख दिया है, मानो अपनी आने वाली पीढ़ी को पुरानी अच्छी चीजें सौंपने की जिम्मेदारी हमारे ऊपर आकर खतम ही हो गई हो।
हमारे बचपन में, जब नागपंचमी का पर्व आता था, तब बड़ा उल्लास-उत्साह होता था। यह केवल बच्चों में ही नहीं, बड़ों में भी होता था। उनमें खासतौर से, जो खेती-किसानी से जुड़े होते थे। जो बड़े काश्तकार होते थे, उनके घर पर गाँव के लेखपाल-पटवारी जाते थे। उनके पास छापाखाने का छपा हुआ नागदेवता का चित्र होता था, जिसे वे दरवाजे के ऊपर गोबर से चिपकाते थे। फिर नागदेवता के चित्र की बड़े विधि-विधान से पूजा होती थी। सभी लोग कामना करते थे कि नई फसल, जो हमारे खेतों में तैयार होने जा रही है, उसे चूहों से बचाने के लिए नागदेवता कृपा करेंगे। बाद में सभी लोग पकवानों का मजा लेते थे। यह क्रम अपने घर पर कई बार देखा, अब तो यादों में ही देखने को मिलता है। बहुराष्ट्रीयकरण ने खेती-किसानी के तौर-तरीकों को बदल दिया है, किसानों को बदल दिया है। व्यवस्था में लगे घुन ने पटवारी-लेखपालों को बदल दिया है। बदलाव की इस बयार में नागदेवता पूज्यनीय तो रहेंगे नहीं, निरीह जरूर हो जाएँगे, इस धरती पर अपने वजूद को बचाने के लिए। पेटा और सेव द एनीमल जैसी संस्थाओं ने कब से इसकी चेतावनी भी जारी कर रखी है। मगर मानव ने इस प्लैनेट को केवल अपने लिए ही समझ रखा है। फिर पारिस्थितिकी-तंत्र की कड़ियाँ टूट जाने पर मानव का वजूद कैसे बचेगा, कोई नहीं जानता।
नागवंश के सूत्र भी हैं, उनके वंशज भी हैं और जरूरत भी है कि नागपंचमी के पीछे छिपे पवित्र उद्देश्य को पहचाना जाए और पूरी आस्था के साथ, पूरी श्रद्धा के साथ नागपंचमी मनाई जाए, सर्पों की प्रजातियों को बचाया जाए।
डॉ. राहुल मिश्र
(नूतनवाग्धारा, अंक- 22-23 में प्रकाशित)