Sunday 30 April 2023

महाबाहु सिंधु, उसकी सखियाँ और हिमगिरि का लीलाभवन...

 




महाबाहु सिंधु, उसकी सखियाँ और हिमगिरि का लीलाभवन...


अगस्त-सितंबर आते-आते सिंधु का जोश मानों कुछ कम-सा हो जाता है। उधर हिमानियों में शीत का असर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, वैसे ही उनका पिघलना-गलना कम होने लगता है, असर सिंधु में दिखने लगता है। सितंबर के माह में ही पितृपक्ष आता है। तर्पण-श्राद्ध के लिए सिंधु तट पर जाना पितृपक्ष की दैनंदिनी में सम्मिलित हो जाता है। एक दिन हमें सिंधु में तर्पण करते कुछ सैलानी देखते हैं। उत्सुकतावश आकर पूछ बैठते हैं.... कौन-सी नदी है, यह? हम अवाक् उनके चेहरे को ताकते हुए किंचित् अचरज के साथ कहते हैं- आपको क्या नहीं पता, ये सिंधु हैं...। सैलानियों में से एक वृद्ध महाशय तुरंत भक्ति के भाव में डूबकर जयकारा लगाते हैं, सिंधु मइया की जय हो...। अन्य सैलानी भी उनके सुर में सुर मिलाकर जयकारा लगा देते हैं—जय हो... जय हो...। कुछ की आवाज धीमी, तो कुछ की तेज होती है...। प्रातःकाल की वेला में नील कुसुमित गगन की आभा को दर्पण की तरह समेटे नीरव सिंधु और उसका तट इस जयकारे से गुंजायमान हो उठता है।

यह जयकारा तो ठीक था.... लेकिन सिंधु का परिचय ही यहाँ बदल गया था। पर्यटकों का भक्ति-भाव स्तुत्य था, लेकिन संशोधन आवश्यक था, इस कारण उनको बड़े विनम्र भाव के साथ हमने बताया, कि सिंधु मइया नहीं हैं, नदी नहीं हैं...। सिंधु में मातृत्व नहीं, पितृत्व है..। सिंधु नद हैं, महाबाहु हैं। हे सिंधु देव! वंदन है, आपका...। हमारा यह कथन पर्यटकों को आश्चर्य में डालने के लिए पर्याप्त था, ऐसा अनुभूत करते हुए एक ओर हम अपने तर्पण कार्य में लग गए, दूसरी ओर वे संभवतः हमारे संवाद की परतों को उधेड़ने-बुनने में लगे हुए थे।

लेह नगर से लगभग बारह-पंद्रह किलोमीटर दूर सिंधु घाट ने अपने कई रूप देखे हैं। हम जब पहले-पहल आए थे, तब यहाँ टीन की चादरें लगी थीं और लोगों के बैठने के लिए एक खुला मंच जैसा हुआ करता था। अब तमाम नया निर्माण हो गया है। पर्यटक तब भी खूब आते थे, अब भी आते हैं। क्या पता, उन्हें तब सिंधु के बारे में जानकारी रहती होगी, या आज के जैसे ही सिंधु का घाट पर्यटकों के लिए केवल सैर-सपाटा और प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने का ठिकाना-मात्र रहता होगा। कुछ भी हो... अंग्रेजी ने यहाँ भी एक बड़ी गड़बड़ पैदा कर रखी है, ऐसा हमें तब भी लगता था, आज के इस संवाद ने पुनः हमारे विचार को मजबूती प्रदान कर दी थी। अंग्रेजी में ‘रिवर’ के स्त्रीलिंग या पुल्लिंग रूप नहीं हैं। दूसरा कारण यह भी हो सकता है, कि अधिकांश नदियाँ ही हैं...। इनकी संगत में नद भी नदियों के रूप में मान लिए जाते हैं, जाने-अनजाने में...। सिंधु के साथ भी कुछ ऐसा ही समझ में आता है।

ब्रह्मपुत्र, सोन और सिंधु; ये तीनों नद हैं। नद के रूप में सबसे कम पहचान सिंधु की है। सिंधु का तट सर्वस्तिवादी बौद्ध मतानुयायियों से जीवंत है। सर्वस्तिवादी बौद्धमत के ग्रंथों में सिंधु नद के रूप में अंकित है। भारत के मानचित्र को देखें, तो पूर्व में ब्रह्मपुत्र और पश्चिम में सिंधु का विशाल प्रवाह दिखता है। ऐसा प्रतीत होता है, कि ब्रह्मपुत्र और सिंधु दोनों भारतमाता की दो भुजाओं की तरह हैं। इसी कारण ये महाबाहु हैं। नदों की कथाएँ बड़ी रोचक होती हैं। ब्रह्मपुत्र की कथा में भी अनेक पड़ाव हैं, सिंधु में भी हैं, लेकिन भौगौलिक कारकों ने सिंधु के साथ मानव का मेल-मिलाप उतना नहीं रहने दिया, जितना सोन और ब्रह्मपुत्र का है। सोन भी नद है, गोंडवाना क्षेत्र में सोन का प्रवाह है। सोन वस्तुतः शोणभद्र है। शोणभद्र का स्वभाव भी भद्र है। यह अलग बात है, कि नर्मदा के साथ शोणभद्र की पटरी नहीं बैठी। एक छोटी-सी भ्रांति ने, एक मिथ्याबोध ने सोन और नर्मदा को अलग-अलग कर दिया। आज भी नर्मदा विपरीत दिशा में प्रवाहमान हैं, सोन के निकट से निकलते हुए भी मिलती नहीं हैं। शोण भी अपने भद्र स्वभाव को त्यागकर उच्छृंखल नहीं होता। वह शांत-संयत रहता है।

 सिंधु शोण की तरह शांत नहीं है। लेह के पास सिंधु का जो प्रवाह देखने को मिलता है, वह थोड़ा-सा आगे चलते ही कई गुना तेज हो जाता है। लोक में सिंधु के स्वभाव की जानकारी कम ही पाई जाती है। सिंधु के नाम से सामान्य जन की जानकारी सिंधु घाटी सभ्यता और सिंधु से हिंदु व हिंदुस्थान तक ही जाती है। सिंधु नद है, नद के रूप में आखिर सिंधु क्यों मान्य है, ये बातें कम लोग ही जानते होंगे। कम-से-कम नई पीढ़ी में तो यही स्थिति होगी। वैसे इन तथ्यों को जानने के लिए अतीत की बड़ी गहरी परतों को उधेड़ना पड़ता है।

गंगा च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।

नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिम् कुरु ।।

-------

गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा,

कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्यवती वेदिका ।

क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया गण्डकी,

पूर्णाः पूर्णजलैः समुद्रसहिताः कुर्वन्तु मे मंगलम् ।।

 

भारतीय वाङ्मय में सिंधु का वर्णन अनेक ग्रंथों में है। लोक-व्यवहार में सभी पवित्र नदियों का आह्वान स्नानादि कार्यों के लिए, पूजापाठ के लिए जब किया जाता है, तब सिंधु का भी आह्वान होता है। सिंधु का महत्त्व और माहात्म्य सनातन परंपरा में गंगा से पहले का है, और गंगा से अधिक भी है। प्राकृतिक बाधाओं और जटिलताओं ने सिंधु तक श्रद्धालुओं की पहुँच को कठिन बनाया, लेकिन सिंधु की प्रतीकात्मक उपस्थिति लोक में हर जन के साथ रही है, आज भी है...। समस्त पवित्र नदियों-नदों के जल की सन्निधि, यह सन्निधान धार्मिक संदर्भ-मात्र नहीं है। यह तो सांस्कृतिक ऐक्य का अभिधान है, प्रयास है। एक छोर पर गोदावरी-कावेरी, तो दूसरे छोर पर सिंधु, गंगा, यमुना हैं। सरयू, महेंद्रतनया, नर्मदा मध्य में हैं। यह आर्यावर्त की सांस्कृतिक परिधि का अंकन करने के साथ ही सांस्कृतिक एकता के मंत्र का पाठ भी है। सभी नदों-नदियों का जल से पूर्ण होना, सांस्कृतिक गठबंधन को जलराशि से बाँधना मानव के लिए मंगलकारक है, मंगलदायी है।

सिंधु सदियों से इसी भावधारा को निभाता रहा है। लद्दाख अंचल में एक स्वाँग खेला जाता है- लामा-जोगी का...। लामा बौद्ध भिक्षु है, लाल चीवर धारण किए हुए केशों का मुंडन कराए हुए..., जोगी श्वेत धोती धारण किए हुए है, लंबी धवल केश-राशि और दाढ़ी-मूँछों के साथ...। दोनों ही साथ-साथ जाते हैं, हाथों में अक्षत लिए हुए गाँवों की गलियों से जब निकलते हैं, तो श्रद्धालुजन स्वतः प्रेरणा से बाहर आकर अभिवादन करते हैं, परंपरागत पद्धति से पूजा-अर्जना करते हैं। लामा-जोगी समवेत स्वर से गृहस्वामी और अन्य परिजनों के लिए मंगलकामनाएँ करते हैं। जोगी लद्दाख में सिंधु के सहारे आए, अपनी सनातन परंपरा को अपनी तीर्थयात्राओं से अभिसिंचित करते हुए। यात्राओं की जटिलता ने, बदलते परिवेश ने, बदलती हवाओं ने और संस्कृतियों पर आक्रमणों के बाद बदलती धारणाओं-भावनाओं ने जोगियों का आना भले ही बाधित कर दिया हो, लेकिन लोक में जीवित और जीवंत परंपराएँ गहरे उतरकर जिस भावबोध से साक्षात् कराती हैं, उन्हें सिंधु ने अपने जल से सींचा है, पाला और पोसा है।

इतिहास घूम-घूमकर आता है, स्वयं को दोहरा लेता है। सिंधु दर्शन यात्रा ने पिछले साल ही अपने पचीस वर्षों की यात्रा पूरी की है। वर्ष 1997 में पहली बार सिंधु दर्शन यात्रा का आयोजन हुआ था। इसका प्रारंभ सिंधु की गौरवगाथा को गुनने-सुनने की भावभूमि पर हुआ था। पचीस वर्षों में सिंधु यात्रा ने देश ही नहीं, विदेशों के असंख्य लोगों को जोड़ा है। सिंधु दर्शन यात्रा के आज जिस आधुनिक संस्करण को देखते हैं, उसके पुरातन रूप को लामा-जोगी के स्वांग के साथ अनूभूत किया जा सकता है। सिंधु के किनारे-किनारे चलने वाली धार्मिक यात्राएँ एक ओर कैलास मानसरोवर तक, तो दूसरी ओर काश्मीर की धरती पर अमरनाथ और वैष्णवी देवी तक चलती रहती थीं।

सिंधु का उद्गम कैलास मानसरोवर से होता है। महायान परंपरा की बौद्ध मान्यताओं के अनुसार सिंधु का उद्गम शेर-मुख से हुआ है। कैलास की वह प्राकृतिक निर्मिति, जो शेर के समान दिखती है, उससे सिंधु का उद्गम होता है। इस कारण लद्दाखी भाषा में सिंधु ‘सेङ्गे खबब’ है। सिंधु के तट पर ही महाराजा पोरस ने सिकंदर की विश्व-विजय की कामना को धूल चटा दी थी। सिंधु के जल का यह प्रभाव कह सकते हैं, कि सिंह के मुख से निकलने वाले सिंधु का जल सिंह के सदृश वीरत्व के गुणों को धारण करने वाला है। सिंधु के किनारे-किनारे दरद, मोन-किरात आदि प्रजातियों का निवास रहा है। आज के जाटों की प्रजातियाँ भी यहाँ रही होंगी, ऐसे अध्ययन भी सामने आने लगे हैं। दरदों ने कौरवों ती तरफ से और किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध लड़ा था। सिंधु के किनारे संस्कृतियों के संघर्षों की अनेक गाथाएँ आज भी गूँजती हैं।

सिंधु की लीलाभूमि हिमगिरि के उत्तुंग शिखरों-मेखलाओं में विस्तृत है। सिंधु अपने साथ हिमगिरि की अन्य नदियों को मिलाकर लंबी यात्रा तय करने वाला नद है। हिमालय का पश्चिमी भाग सिंधु के हिस्से में है। वितस्ता, चिनाब, चंद्रा, भागा और जाङ्स्कर आदि नदियाँ सिंधु के साथ मिलकर अपना सर्वस्व अर्पित कर देती हैं। सिंधु यदि महाबाहु हैं, सिंह के मुख से निकलकर अपने गर्जन से धरती को गुंजायमान कर देने वाले हैं, तो पर्वतप्रदेश के अधिपति इंद्र भी कमतर नहीं हैं। वे वर्षा के देव हैं, बादलों के प्रतिरूप हैं। कृष्ण के लिए भी इंद्र चुनौती बने थे, सिंधु के लिए भी इंद्र चुनौती बने। विवश सिंधु को अपना रास्ता बदलना पड़ा। ऋग्वेद के द्वितीय मंडल में पंद्रहवाँ सूक्त है-

सोदञ्चं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव।

अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥

(ऋग्वेद द्वितीय मण्डल 15वाँ सूक्त)

इंद्र ने उषा के रथ को अपनी सेना के बल से बलहीन कर दिया, तेजहीन कर दिया और सिंधु के मार्ग को बदल दिया। बलवान सोमरस की शक्ति के बल पर इंद्र द्वारा सिंधु का मार्ग बदले जाने के कारण सिंधु का प्रवाह उत्तर की ओर हो जाता है। आज भी सिंधु का प्रवाह गिलगित तक उत्तर की ओर दिखता है। स्करदो के केरस नामक स्थान पर शयोक नदी सिंधु से मिलती है। सिंधु का प्रवाह यहाँ बदल जाता है। स्करदो में अपने साथ शिगर नदी को मिलाकर सिंधु का प्रवाह दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर हो जाता है। स्करदो एक समय लद्दाख का भाग हुआ करता था। स्करदो में लद्दाख की शीतकालीन राजधानी होती थी। इससे पहले यह त्रिवेणी के समान मान्य रहा होगा। शिगर, शयोक और सिंधु की त्रिवेणी यहाँ एक समय में सनातन परंपरा के लिए आस्था के बड़े केंद्र के रूप में रही होगी, जो कालांतर में सांस्कृतिक संघर्षों की परतों के बीच अपने अतीत को किसी एकांत खंडहर में छिपाए हुए होगी। अध्येताओं को यह भूमि अपनी ओर बुलाती है, आज भी...।

ंद्र के पौरुष का आख्यान यदि भारतीय वाङ्मय से आता है, तो इसे पुष्ट करती भूवैज्ञानिक खोजें बताती हैं, कि किस तरह टेथेस सागर बदलकर हिमालय की निर्मिति करता है, और किस तरह सिंधु का मार्ग बनता है, जिससे सागर का जल निकलकर प्रवाहित होता है। जुरासिक काल में हिमालय नहीं था। यहाँ टेथेस सागर की लहरें हिलोरें मारती थीं। भूगर्भीय प्लेटों के टकराने और एक-दूसरे के ऊपर चढ़ते जाने के कारण जब हिमालय की निर्मिति होने लगी, तब टेथेस सागर के जल की निकासी के मार्ग बनने लगे। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ बना, जिसने शयोक को जन्म दिया। इसी प्रवाह के कारण प्रसिद्ध पङ्गोङ झील का निर्माण हुआ। सिंधु-शयोक तांतव संधि-क्षेत्र भी इसी भूगर्भीय हलचल से बना, जिसमें सिंधु का प्रवाह है, और केरिस में शयोक व सिंधु का मिलन है। पङ्गोङ की तरह कई छोटी-बड़ी झीलें सिंधु-शयोक तांतव-संधि क्षेत्र में हैं, जिनका पानी खारा है। एकदम समुद्री है। एक समय इस संधिक्षेत्र के निवासी नमक बनाने का काम किया करते थे, जैसा कि उड़ीसा की चिलका झील या अन्य समुद्रतटीय क्षेत्रों में होता है। चङ्थङ् के निवासी पहले रेशम मार्ग के उपमार्ग से होकर लेह तक नमक का व्यापार करने आते थे। आज के पाकिस्तान में उन दिनों चङ्थङ् के नमक का स्वाद ही तैरता था। ऐसा कहा जाता है, कि वहाँ नमक बहुत कठिनाई से पहुँचता था, इस कारण लोग नमक की बरबादी बिलकुल भी नहीं करते थे।

शयोक और सिंधु का मिलन न केवल भूगर्भीय घटना का परिणाम है, वरन् इनके बीच एक अलग-सा संबंध अनुभूत कर सकते हैं। हिमाचल में बारालाचा दर्रा है। इसे लोग बड़ालाचा भी कहते हैं। यह मनोहर श्याम जोशी की कथाभूमि में भी रचता-बसता है। इसी के चंद्रताल से निकली चंद्रा और सूर्यताल से निकला भागा का मिलन तांदी में होता है। लाहुल-स्पीति की लोककथाओं में चंद्रा और भागा की प्रेमकथा रस ले-लेकर सुनी-सुनाई जाती है। तांदी में जो चंद्रभागा है, वह थोड़ा आगे बढ़ते ही चेनाब हो जाती है। इसे ही वैदिक काल की असिक्नी के रूप में जानते हैं। यह आम बोलचाल में इशकमती हो जाती है, साथ ही अपने रूप-गुण को भी ऐसे ही निभाते चलती है। हीर-राँझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ इसी इशकमती के किनारे फलती-फूलती हैं। शयोक और सिंधु के बीच भी यह संबंध एक कवि-मन के द्वारा देखा जा सकता है, यह हमने तब अनुभूत किया, जब एक लंबा समय हरहराकर बहती शयोक के किनारे पर बिताया। खरतुंग से नीचे उतरती शयोक ऐसे गरजते हुए बहती है, मानों खरतुंग से अपनी नाराजगी प्रकट कर रही हो। अगर खरतुंग बीच रास्ते में न खड़ा होता, तो शयोक को अपने सिंधु से मिलने के लिए केरिस तक की लंबी यात्रा न करनी पड़ती। सिंधु की तुलना में शयोक कुछ अधिक ही अल्हड़ और तीखी है। केरिस तक, सिंधु से मिलन तक कितने बल खाती है, कितनी चालें बदलती है, कितने नखरे दिखाती है, जरा सियाचिन की तलहठी में..... काराकोरम की छाँह में घूमकर देख तो लीजिए।

शयोक का गहरा नाता रेशम मार्ग से भी रहा है। जब रेशम मार्ग और उसके उपमार्ग चलन में थे, तब कई स्थानों पर शयोक को पार करना पड़ता था। शयोक में अचानक आ जाने वाली बाढ़ और तेज बहाव आदि रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ी मुसीबत बनते थे। शयोक के किनारे बसे गाँवों के रहवासी तो शयोक से खासे नाराज रहते हैं। उनके खेतों और उनकी बस्तियों को बरबाद करने में शयोक को तनिक भी देर नहीं लगती। इसी कारण नाराजगी में ये लोग शयोक का पानी अपने खेतों में भी नहीं सींचते। आज भले ही स्थितियाँ बदल गईं हों, लेकिन पहले के लोगों ने नदी के कारण जीवन नहीं, विस्थापन को देखा है। इसी कारण शयोक के प्रति लोक की नाराजगी कथाओं-किस्सों में भी देखने को मिल जाती है।

स्करदो में, जहाँ शयोक और शिगर नदियाँ सिंधु से मिलती हैं, वह निश्चित रूप से बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा होगा। यहाँ संस्कृतियों के संघर्ष ने, आक्रमणों की विभीषिकाओं ने भले ही बहुत-कुछ बदल दिया हो, लेकिन सिंधु का प्रवाह जब तक रहेगा, तब तक अतीत की गौरवगाथा को, सिंधु सभ्यता को, सप्त-सिंधु के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक वैभव को स्मरण रखा जाएगा। स्करदो से आगे बढ़कर सिंधु के मुलतान पहुँचने पर चिनाब का मिलन सिंधु से होता है। इस संगम के निकट ही आदित्य मंदिर है। जामवंत की पुत्री जामवंती श्रीकृष्ण की रानी थीं। इनके पुत्र का नाम सांब था। श्रीकृष्ण के श्राप के कारण सांब कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए थे। सांब ने सूर्य की तपस्या की। सूर्य ने प्रसन्न होकर चंद्रभागा नदी में स्नान करने को कहा। आज भी चंद्रभागा कोढ़ ठीक करने वाली नदी के रूप में जानी जाती है। संभवतः सांब का शासन वर्तमान मुलतान में भी रहा होगा। इसी कारण चिनाब-सिंधु के मिलन-स्थल पर सांब ने अपने आराध्य आदित्य देव का मंदिर बनवाया। यह कोणार्क के सूर्य मंदिर की तरह का है। आज इसके भग्नावशेष ही दिखते हैं। सांब और सांबा सेक्टर एक ऐसा साम्य उत्पन्न करते हैं, जो अतीत की कड़ियों से वर्तमान को जोड़ता है। सिंधु नद मुलतान से आगे बढ़ते हुए अपने साथ हिंगोल नदी को मिलाता है। पाकिस्तान के बलोचिस्थान प्रांत में माता हिंगलाज का मंदिर है। माता हिंगलाज का यह मंदिर बावन शक्तिपीठों में से एक है।

सिंधु नद कैलास-मानससरोवर से अपनी यात्रा प्रारंभ करते हुए कराची के दक्षिण में सिंधु सागर से मिल जाता है। सिंधु सागर नाम भी सिंधु नद के मिलने के कारण पड़ा है। सिंधु सागर का एक नाम अरब सागर भी है, जो संभवतः तटवर्ती अरब के देशों के कारण पड़ा होगा। सिंधु सागर के किनारे की कृष्ण की द्वारिका है। सिंधु-चेनाब के संगम में कृष्ण के पुत्र सांब की नगरी है, आदित्य मंदिर है। सिंधु के किनारे-किनारे उन सभी प्रजातियों का निवास है, जो महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों के बीच बँटकर लड़ी थीं। रामायण में सिंधु महानदी है, महाभारत में सिंधु का विस्तार है, क्योंकि महाभारत का सिंधु से बहुत गहरा नाता है। सैंधवों, गंधर्वों के क्षेत्र, वर्तमान मिथन कोट या कोट मिट्ठन में राजा शिवि के पुत्र वृषदर्भ की राजधानी, दरदों, मोनों-किरातों आदि के ठिकाने सिंधु के तट पर ही हैं। ये सभी महाभारत के महासंग्राम के साक्षी रहे हैं। सिंधु नद और उसकी सखियाँ हिमगिरि के लीलाभवन में न केवल भौगौलिक निर्मितियाँ गढ़ती हैं, वरन् अनेक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक संदर्भों को सहेजती हैं। कभी हिमगिरि के लीलाभवन में इनके स्वरों को सुनिए.... मौन होकर, ध्यान लगाकर, चिंतन में गहरे उतरकर, इतिहास की परतों को उलट-पलटकर...। अनेक अनसुनी कहानियाँ, अनेक अनकहे किस्से, ढेरों बातें इनके प्रवाह में आपको मिलेंगी। पर्यटक के रूप में नहीं, सैलानी के रूप में नहीं... अपनी संस्कृति और अपने धर्म के प्रतिनिधि बनकर इनके तट पर आइए तो...।

(कश्फ़, अमृतसर, संयुक्तांक- 2022-2, 2023-1, वर्ष-21-22, पंज- 13-14, दिसंबर, 2022 से जून 2023 अंक में प्रकाशित)


Monday 17 April 2023

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

 

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

लदाख का नाम आते ही एकदम अलग तरह की छवि मन में बनने लगती है। शीत की अधिकता के बीच किस तरह जीवन बीतता होगा, यह चिंता हर किसी के मन में आ जाती है। शीत की अधिकता के बीच, वीरान-सी पर्वतमालाओं के बीच, जहाँ हरियाली और चहल-पहल दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती, वहाँ मन का रंजन, कलात्मकता का विस्तार आखिर कैसे होता होगा? यह प्रश्न हर किसी के मन में उठता है। वस्तुतः सच्चाई इसके विपरीत है। भले ही जीवन की रंगीनियाँ, चहल-पहल लद्दाख में कम हों, लेकिन कलात्मकता में लद्दाख बेजोड़ है, अनुपम है।

लद्दाख एक समय में सिल्क रूट या रेशम मार्ग का हिस्सा होता था। इस कारण अनेक संस्कृतियाँ, सभ्यताएँ यहाँ से गुजरीं और ठहर-ठहर कर इस बर्फीले रेगिस्तान में अपनी छवियाँ बिखेरती रहीं हैं। भारतीय संस्कृति से अनुप्रणित लद्दाख में न केवल बौद्ध धर्म की सर्वस्तिवादी शाखा का विस्तार हुआ, वरन् कालांतर में तिब्बत से होते हुए महायान परंपरा का विस्तार भी हुआ। हिमाचलप्रदेश के रिवाल्सल (रिवरसल) से गुरु पद्मसंभव का धार्मिक अनुष्ठान न केवल तिब्बत तक गया, वरन् लद्दाख अंचल में भी विस्तृत हुआ।

लद्दाख में भारतीय बौद्ध परंपरा ही नहीं आई, अनेक कला शैलियाँ और स्थापत्य का भी आगमन हुआ। इसी कारण आज के लद्दाख में जगह-जगह कलात्मक मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। बौद्ध मंदिरों-मठों, जिन्हें लद्दाख में गनपा कहा जाता है, अनेक प्रकार के देवी देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित होकर आस्था के केंद्र के रूप में जाने जाते हैं। लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही धातु से बनी, संगमरमर आदि कीमती पत्थरों से बनी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।

अगर लद्दाख की मूर्तिकला के अतीत में उतरकर देखें, तो पता चलता है कि लद्दाख में सबसे पहले पाषाण मूर्तिकला का प्रचार हुआ। लदाख में इस कला का प्रचार-प्रसार काश्मीर शासक ललितादित्य (724-760) के समय या इसके आस-पास  हुआ। दसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध अनुवादक लोचावा रिनछेन जङ्पो (958-1055) तिब्बत से काश्मीर आए और वापस लौटते समय अपने साथ काश्मीर से अनेक कलाकारों को लेते आए। लोचावा रिंचेन जङ्पो के प्रयासों से लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही काष्ठ-मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। उनकी जीवनी से ज्ञात होता है, कि उन्होंने अपने पिता की स्मृति में काश्मीर में भीधक नामक एक कुशल शिल्पकार से अपने पिता के शरीर के बराबर महाकारुणिक आर्यावलोकितेश्वर की एक मूर्ति का निर्माण करवाया, जिसका प्रतिष्ठापन गुरु श्रद्धाकर वर्मा ने किया था। इस मूर्ति का निर्माण धातु को पिघलाकर किया गया था।

लोचावा रिनछेन जङ्पो काश्मीर से अपने साथ बत्तीस कलाकारों को लेकर लद्दाख आए थे। इन कलाकारों में मृण्मूर्ति, काष्ठ-मूर्ति, धातु की मूर्ति बनाने वाले कुशल शिल्पकारों के अतिरिक्त कुशल चित्रकार भी सम्मिलित थे। ये कलाकार लद्दाख के अलग-अलग स्थानों में बस गए और अपनी कला की अनेक बानगियाँ यहाँ बिखेरते रहे। लोचावा रिंचेन जङ्पो द्वारा आज से लगभग 1000 वर्ष पहले बनवाया गया अलची बौद्ध विहार न केवल लद्दाख, वरन् पुरातन भारतीय स्थापत्य कला की अद्भुत निशानी है। लोचावा के साथ आए कलाकारों द्वारा यहाँ अनेक देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ बनाई गईं हैं। साथ ही भित्तिचित्र भी बनाए गए हैं। इनमें पत्थर के परंपरात रंगों का प्रयोग किया गया है। भवन की निर्मिति भी ऐसी है, कि अनेक वर्षों तक मौसम की मार झेलकर भी अपने स्थापत्य के सौंदर्य को, अपनी मूर्तिकला की धरोहर को सहेजे हुए है।

लोचावा रिनछेन सङ्पो के पश्चात लद्दाख के कलाप्रिय और धर्मभीरु राजाओं ने मूर्ति-निर्माण कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। प्रस्तर और धातु की मूर्तियों के साथ ही मृण्मूर्तियों के निर्माण का प्रचलन लद्दाख में आया। मिट्टी से बनी मूर्तियाँ धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष अंग बनने लगीं। धर्मराज ल्हछेन ङोसडुब गोन, धर्मराज डगपा बुम दे, राजा टशी नमग्याल, धर्मराज सेङ्गे नमग्याल और धर्मराज देलदन नमग्याल ने अपने राज्यकाल में अनेक मूर्तियों का निर्माण कराया, जो वर्तमान में लद्दाख के विभिन्न अंचलों के बौद्ध मठों-मंदिरों (गोनपाओं) में स्थापित हैं, और लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य का प्रदर्शन कर रहीं हैं।

लद्दाख में बनने वाली मृण्मूर्तियों में काश्मीर की मूर्तिकला के साथ ही प्राचीन गांधार शैली के दर्शन होते हैं। लद्दाख में प्रमुख रूप से बुद्ध, बोधिसत्व, आर्य अवलोकितेश्वर, आर्य मंजुश्री, मैत्रेय, वज्रपाणि के साथ ही तंत्रयान के देवी, देवता, रक्षक आदि की मूर्तियों का निर्माण होता है। मूर्ति-निर्माण से संबंधित विभिन्न ग्रंथों की रचना भारतीय शास्त्रों के आधार पर की गई है। स्तनग्युर में बौद्ध कला और शिल्प के रूप में ये पृथक ग्रंथ के रूप में संग्रहीत हैं। मूर्ति-निर्माण परंपरा यहाँ गुरु-शिष्य के रूप में चलती है। एक गुरु के अनेक शिष्य इस कला को विस्तार देते हैं। मूर्तियों के निर्माण के लिए पुराने समय में मूर्तिकारों द्वारा ही सामग्री तैयार की जाती थी। वर्तमान में भी यह परंपरा चल रही है। लद्दाख में पाई जाने वाली चिकनी पीली मिट्टी के साथ ही मोटा कपड़ा और धागा-साँचा आदि प्रयोग में लाया जाता है। मूर्ति का साँचा बनाकर उसमें लेपन करके फिर रंग भरे जाते हैं।

बौद्ध शास्त्रों के अनुसार मूर्ति के शीर्ष मुकुट से लगाकर चरण तक अलग-अलग मंत्र हैं, जिन्हें लिखकर मूर्ति के निश्चित भागों में डालना होता है। इसे धारणी कहते हैं। धारणी के अतिरिक्त धातु,अन्न, वस्त्र आदि भी मूर्ति के अंदर डाले जाते हैं। इसके पश्चात् बौद्ध आचार्यगण मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। लद्दाख के विभिन्न मठों-मंदिरों में अनेक प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके साथ ही विभिन्न स्थानों पर स्थापित की गईं मूर्तियाँ लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य को दिखाती हैं। समय के बदलाव के साथ सीमेंट और प्लास्टर आफ पेरिस से भी मूर्तियाँ बनाने का चलन लद्दाख में आया है। इसमें तैलीय रंगों का प्रयोग भी नया है।

कुल मिलाकर लद्दाख की पहचान का एक बड़ा हिस्सा लद्दाख की विशिष्ट मूर्तिकला से बना है। लद्दाख में अनेक कलात्मक मूर्तियों का निर्माण होता है, जो देश ही नहीं दुनिया के अनेक हिस्सों में सजावट के लिए जाती रहती हैं।



(मासिक पत्रिका हस्ताक्षर, इंदौर, मध्यप्रदेश के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित)

Sunday 2 April 2023

पंजाब : कल से कल तक.....


पंजाब : कल से कल तक.....

पंचनद, अर्थात् पंजाब....। सतलुज, व्यास, रावी, चेनाब और झेलम नदियों से सिंचित पंचनद.....। धन-धान्य से परिपूर्ण और उल्लास-उमंग में जीने वाला पंजाब….। ढोल की थाप पर थिरकते पाँव, भांगड़ा और गिद्दा नृत्यों की उल्लासपूर्ण भंगिमाओं के बीच स्वाभाविक-सहज उमंग को साझा करते पंजाबी लोगों के साथ खड़े अन्य लोग भी उसी उमंग और उल्लास में डूब जाते, डूबते ही चले जाते। मक्के दी रोटी, सरसों दा साग पंजाब की अपनी पहचान गढ़ता है। तंदूरी रोटी भी चाव से खाई जाती...। पंजाब की लस्सी का बड़ा-सा गिलास और स्वादिष्ट लस्सी के आस्वाद को कौन भुला सकता है? सतलुज, व्यास, रावी नदियों की अठखेलियाँ करती प्रवाह-राशियाँ कितनी ही उल्लासपूर्ण जीवनगाथाएँ अपने साथ लेकर चलती हैं, इन सबका वर्णन करना समय की सीमा के पार निकल जाना होगा।

चाहे भांगड़ा-गिद्दा नृत्य का उल्लास हो, चाहे सरसों की रोटी और मक्के के साग का स्वाद हो, चाहे असिक्नी के साथ गुनी-सुनी जाती अनेक लोकगाथाएँ-प्रेम के गीत हों, चाहे ‘पंजाब पुत्र’ दुल्ला भट्टी की अनेक लोकगाथाओं की बात हो... यह धरोहर पंजाब के साथ ही पूरे भारत की है। समूचे भारत देश में सरसों का साग ओर मक्के की रोटी, लस्सी का गिलास, लोहड़ी का त्योहार, तंदूर की रोटी, भांगड़ा का नाच पंजाब को अपने साथ जोड़ लेता है, पंजाब के साथ हो लेता है। यह केवल बाहर दिखने वाला जुड़ाव नहीं है, वरन् हृदय की अनंत गहराइयों के साथ इस जुड़ाव को देखा और समझा जा सकता है।

अतीत की परतों को खँगालें, तो अनेक ऐसे प्रसंग और तथ्य निकलकर आते हैं, जो पंजाब की गौरवपूर्ण गाथा को गर्व के साथ गुनगुनाते-दुहराते हैं। रामचंद्र शास्त्री द्वारा रचित एक पुस्तक- पंजाब के नवरतन का उल्लेख करना यहाँ बीते हुए कल के पंजाब के संदर्भ में, पंजाब के अतीत के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगा। रामचंद्र शास्त्री ने पंजाब के अनेक महापुरुषों के मध्य से नौ ऐसे श्रेष्ठतम महापुरुषों के जीवन-चरित से इस कृति में साक्षात् कराया है, जिनका नाम देश ही नहीं, दुनिया के लिए भी अनजाना नहीं है, जिन पर सारे देश को गर्व ही नहीं, जिनसे एक आस्था भी जुड़ी है। शास्त्री जी ने इस कृति में महाराज पुरु (पोरस), गुरु नानक, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, धर्मवीर हकीकत राय, महाराजा रणजीत सिंह, सरदार हरिसिंह नलवा, स्वामी रामतीर्थ और लाला लाजपत राय के जीवन-चरित को उकेरा है। पंजाब के इन नवरतनों के अतिरिक्त असंख्य ऐसे वीर पंजाब की धरती पर जनमे हैं, जिन्होंने धर्म-रक्षा, राष्ट्र-रक्षा, समाज-कल्याण, सीमांत सुरक्षा और मानव-मूल्यों के विस्तार में अप्रतिम योगदान दिया है।

गुरु नानक की उदासियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके सबद, उनके कीर्तन-भजन और उनके उपदेश देश ही नहीं, दुनिया में किस तरह से प्रचारित-प्रसारित हुए, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। मानव के कल्याण के लिए, विश्व को एक परिवार की तरह जीने की सीख देने के लिए वे जीवन-पर्यंत यात्रा करते रहे। गुरु नानक लद्दाख भी पहुँचे, तिब्बत के साथ भी उनका जुड़ाव हुआ। इसी कारण उनको महायान बौद्ध परंपरा के निङ्मा संप्रदाय में नानक लामा के रूप में स्थान प्राप्त है। एक समय था, जब तिब्बत के निङ्मा संप्रदाय के धर्मभीरु लोग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने और स्नान करने अवश्य जाते थे। स्वर्ण मंदिर भारतीय समाज के लिए आस्था का केंद्र सदैव रहा है।

सिखों की गुरु-परंपरा में सभी गुरुओं का जीवन अनुकरणीय रहा है। विशेष रूप से संत सिपाही गुरु गोविंद सिंह का जीवन धर्म की रक्षा के लिए ही समर्पित रहा। उन्होंने मुगलों के साथ चौदह लड़ाइयाँ लड़ीं, और अपने जीवनकाल में अपने पूरे परिवार का ही बलिदान कर दिया। इसी कारण सरबंसदानी के रूप में गुरु गोविंद सिंह को जाना जाता है। उनके चलाए खालसा पंथ के उद्घोष- जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल, वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह..., को सुनकर मन आस्था के समंदर में गोते लगाने लगता है। इसी खालसा पंथ से लंगर की परंपरा आती है। गुरुद्वारों में बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी ऊँच-नीच के एक साथ एक पंगत में सबको भोजन मिलता है। नर सेवा ही नारायण सेवा का यह अनूठा उपक्रम अतुलनीय है, वंदनीय है।

पंजाब वीरों की धरती रही है। वृहत्तर पंजाब के शूरवीर महाराजा पोरस की वीरता, उनका पराक्रम अन्यतम् है। महाराज पोरस की गथाएँ आज भी गर्व के साथ सुनी-सुनाई जाती हैं। अखंड भारतवर्ष की सीमा पर जिस प्रकार वे डटे रहे, उस गाथा का स्मरण आज भी असीमित गर्व भर देता है। यही शौर्य भाव महाराजा रणजीत सिंह के व्यक्तित्व में दिखता है, जिन्होंने विषम स्थितियों के मध्य वृहत्तर पंजाब का अस्तित्व बनाए रखा। लाला लाजपतराय जिस तरह अंग्रेज शासकों के सामने डटकर खड़े थे, वह तब भी प्रेरणा का स्रोत था, और स्वतंत्रता के बाद भी आने वाली पीढ़ियों को सदैव स्वातंत्र्य-चेतना की प्रेरणा देता रहेगा। सरदार भगत सिंह प्रभृति अनेक क्रांतिवीरों का जीवन भी प्रेरणा का स्रोत है।

पंजाब के गौरवपूर्ण अतीत के एक अन्य अध्याय की चर्चा के बिना बात कुछ अधूरी-सी रह जाएगी। एक पुस्तक हाल ही में आई है- भारतीय छंद परंपरा में पंजाब के रीत्याचार्य कवि। पुस्तक की लेखिका हैं- डॉ. अतुला भास्कर। पुस्तक यद्यपि साहित्यिक शोध-प्रबंध के स्तर की है, तथापि इस कृति का अनुशीलन पंजाब की साहित्यिक और लोक परंपरा के संदर्भों में भी किया जा सकता है। पंजाब के रीत्याचार्य कवि, जैसे- आचार्य गिरधारी, आचार्य हरिरामदास निरंजनी, आचार्य निहाल सिंह, आचार्य बदन सिंह, आचार्य प्रमोद आदि संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परंपरा के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जिनके साहित्यिक योगदान को पंजाबी-गुरुमुखी और संस्कृत के मध्य एक सेतु के रूप में देखा जा सकता है। पंजाब के इन रीत्याचार्य कवियों की गुरुमुखी में रचित रचनाएँ पंजाब के साहित्य को समृद्ध करने के साथ ही साहित्य के स्तर पर राष्ट्र की एकता के भाव से सुवासित प्रतीत होती हैं।

कुल मिलाकर अतीत के पंजाब की, बीते कल के पंजाब की ये कुछ ऐसी बाते हैं, जिन्हें आज के संदर्भों में अनुभूत करना न जाने क्यों वर्तमान की जटिलता के मध्य अतीत की सुंदर स्मृतियों में खो जाने जैसा ही लगता है। पंजाब की सांस्कृतिक समृद्धि, पंजाब का धन-धान्य से पूर्ण समाज-जीवन, पंजाब के वीरों का शौर्यभाव, पंजाब का नरसेवा ही नारायण सेवा का भाव आज से नहीं, वरन् अतीत के पिछले कई कालखंडों से आक्रांताओं को खटकता रहा होगा, विधर्मियों और विस्तावादियों को खटकता रहा होगा, इसे जानकर ही आज की स्थितियों का विश्लेषण कर सकते हैं। पंजाब को लूट लेने, पंजाब को बाँट देने और यहाँ की शांति को अशांति में बदल देने के प्रयास लंबे समय से होते रहे हैं। महाराजा पुरु से लगाकर महाराजा रणजीत सिंह तक कितने महान वीरों ने इन अलगाववादी-विघटनकारी तत्त्वों से संघर्ष किया। गुरु गोविंद सिंहजी ने तो अपने पूरे परिवार का ही बलिदान दे दिया। आक्रांताओं के कृत्यों से, उनके दुष्चक्रों से इतिहास भरा पड़ा है।

देश के विभाजन के साथ हमने पंजाब और बंगाल के विभाजन को जो दंश झेला है, उसे भविष्य कितने लंबे समय तक अपने दामन में काँटों की तरह अनुभूत करेगा, कहना कठिन है। एक ओर  बंगाल, तो दूसरी ओर पंजाब अंग्रेज शासकों के लिए सदैव चुनौतीपूर्ण रहा। इसी कारण इन दोनों के विभाजन की नीति चली जाती रही। देश के विभाजन के साथ बंगाल भी बँटा, और पंजाब भी...। झेलम और चेनाब पंचनद से अलग हो चलीं। विभाजन की त्रासदी ने पंजाब को बहुत भीतर तक तोड़ा, लेकिन पंजाब का उत्सवधर्मी समाज इस टूटन उबरकर फिर अपने अस्तित्व को देश की समृद्धि के साथ जोड़ने लगा। मेहनत के बल पर पंजाब ने फिर कृषिकार्य एवं अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित किया।

पंजाब जिस तरह विभाजन की विभीषिका को झेलकर आया था, उस ‘बुरे स्वप्न’ को भुलाकर जितनी तेजी से मुख्यधारा में लौटा, और समृद्धिशील हुआ, वह भारत के अन्य प्रांतों के संदर्भ में अद्वितीय ही कहा जाएगा। तमाम विपरीत स्थितियों के बाद भी लंगर न कभी रुका, और न कभी कोई भूखा सोया। लेकिन यह कथा यहीं आकर ठहर नहीं जाती है। आज ऐसा लगता है, मानों यह सब किसी दिवास्वप्न की तरह है। कल की बातें आज के समय की जटिलता के साथ अपना साम्य नहीं बैठा पा रहीं, ऐसा भी अनुभूत होता है।

वर्ष 2016 में एक फिल्म आई थी- उड़ता पंजाब। अनेक विवादों के बीच इस फिल्म ने कितने ही सवाल पंजाब से लगाकर सारे देश के सामने उछाल दिए थे। कई सवालों के उत्तर तो हम न चाहकर भी ‘हाँ’ में देने के लिए विवश थे। अतीत के पंजाब की गौरवगाथाओं का स्मरण करते-कराते कई-कई बार वर्तमान की विषमता स्वीकार नहीं हो पाती, किंतु कबूतरबाजी (चोरी छिपे विदेश जाना), प्रतिबंधित नशीले पदार्थों की तस्करी सहित अपराध की बड़ी दुनिया के साथ पंजाब का वास्ता आज के समय की बड़ी सच्चाई है, नहीं नकारी जा सकने वाली सच्चाई है। पृथक खालिस्तान की माँग के साथ किन रास्तों का चयन कर लिया गया, अपराध और आतंक के किन गलियारों की तरफ मुड़ लिया गया, वह आज किसी से छिपा हुआ नहीं है।

हाल ही में नार्को-टेरर मॉड्यूल को अमृतसर पुलिस ने पकड़ा है, भंडाफोड़ किया है। ऐसा भी कहा जा रहा है, कि ऐसी आतंकी गतिविधियों और कामों के लिए हमारा पड़ोसी देश भी सहयोग दे रहा है। सच्चाई कुछ भी हो, लेकिन पंजाब के उल्लासपूर्ण वातावरण में आज न तो उमंग-उल्लास दिखता है, और न ही भयमुक्तता। एक अलग-सी ही हवा पंजाब में चल रही है। कई आतंकी गतिविधियाँ और टेरर मॉड्यूल विगत वर्षों में सामन आए हैं। इनमें विभाजनकारी घटक भी जुड़े हुए हैं, जो एक अलग देश की मंशा पाले हुए भारत-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं। विरोध का स्तर भी ऐसा है, कि भाषा से लगाकर भूषा तक, हर किसी का विरोध है। इस पूरे अभियान के तार देश के अंदर भी जुड़े हैं, और विदेश तक फैले हैं। विदेशों में छिटपुट आंदोलन की घटनाएँ और साथ ही मंदिरों में तोड़फोड़ की घटनाएँ पृथकता की, अलगाव की पराकाष्ठा की स्थितियाँ बताती हैं। पृथकता के उन्माद में कई बार उन लोगों के साथ भी गलबहियाँ दिखाई देती हैं, जिन लोगों का अतीत गुरुओं पर कुठार चलाने, प्रहार करने, अमानवीय अत्याचार करने के लिए जाना जाता है।

यह बदलते पंजाब की एक झलक है, आज के पंजाब का यथार्थ है। पंजाब में साँझा चूल्हा की परंपरा भी रही है, अर्थात् मिल-जुलकर रहने-खाने की परंपरा। उस पंचनद में आज कितने साँझा चूल्हा होंगे, कहना कठिन लगता है। देश को छोड़कर अलग देश बनाने की मानसिकता ने कितने स्तरों पर उन सूक्ष्म तंतुओं को, संबंधों के कोमल धागों को विचलित और कमजोर किया है, यह गहन चिंतन का विषय है। यदि सांप्रदायिक सद्भाव वैमनस्य में बदल रहा है, तो यह चिंता का विषय है। यदि सामाजिक समरसता के स्थान पर क्षेत्रीयता और असहिष्णुता का विस्तार हो रहा है, तो यह चिंता की बात है। यदि भय का साम्राज्य बढ़ रहा है, तो चिंता का विषय है। आज के पंजाब के सामने ये विषय चिंतन के लिए भी हैं, और यक्ष-प्रश्न ती तरह खड़े हुए भी हैं। कहा जाता है, कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है, बदनाम कर देती है। विघटनकारी तत्त्वों के कृत्यों और आपराधिक-आतंकी गतिविधियों के कारण छवि धूमिल हो रही है। ऐसी दशा में समाज के जागरूक लोगों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। आज भी पंजाब का बहुसंख्य समाज अपने गौरवपूर्ण अतीत की थाती को सहेजे चल रहा है, और उसे ही इन स्थितियों को रोकने के लिए आगे आना होगा।

विषमताओं के मध्य कई ऐसे भी पक्ष हैं, जो भविष्य की आश्वस्ति देते हैं, एक आश्वासन देते हैं, कि पंचनद के नवरतनों सहित अनेक संतों, गुरुओं के साथ समस्त भारत का जुड़ाव, संस्कृति के विभिन्न सूत्रों का परस्पर गुंथन वर्तमान की विषमता का शमन कर सकेगा। अलगाववादियों की नीति-नीयत भी अधिक समय तक चल नहीं सकेगी। भय का वातावरण भी दूर होगा। गुरुबानियाँ, गुरुओं की शिक्षाएँ अमल में लाई जाने लगेंगी। गुरु तेग बहादुर जी की सीख व्यवहार में उतरेगी।

भै काहू केउ देत  नहिं,  नहिं  भै मानत आन ।।

कहु नानक सुनि रे मना, गियानी ताहि बखान।।

http://