Saturday 20 August 2016

अपने भीतर से बाहर तक झाँकती कविताएँ : संघर्ष का छोर नहीं


अपने भीतर से बाहर तक झाँकती कविताएँ : संघर्ष का छोर नहीं

हिंदी कविता के वर्तमान में डॉ. शुभदर्शन किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। सन् 1978 से अब तक उनके सात कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। समय के एक लंबे विस्तार में केवल सात कविता-संग्रह; जीवन की संघर्ष-चेतना, परिवेश के यथार्थ से संलग्नता और विचारों के घनत्व के कारण ऐसा उद्वेलन पैदा कर देने वाले हैं, जिन्हें संख्याबल से नहीं, वैचारिक फैलाव के नजरिए से खास माना जाएगा। कविता की उपज संवेदनाओं के घनत्व की भूमि पर तैयार शब्दों से होती है। संवेदनाएँ रासायनिक तत्त्वों की तरह प्रयोगशालाओं में तैयार नहीं होतीं, न ही वे वातानकूलित कक्षों में अपनी उपज के लिए उचित खाद-पानी पाती हैं। ऐसा कर सकने की सामर्थ्य रखने वाले आज के वैज्ञानिक युग के चंद कलमकारों की खरपतवार-सम उपज के बीच शुभदर्शन की कविताएँ माटी की सोंधी महक लिए हुए हैं। हकीकत का गमगमाता तीखापन उनमें यक्साँ है। पेशे से पत्रकार होने के कारण शुभदर्शन के लिए उस समाज का चेहरा देखना सुलभ है, जिसे टेलिस्कोप से नहीं देखा जा सकता, जिसे कमरे की खिड़की में बैठकर कॉफी का प्याला हाथ में लिए हुए नहीं देखा जा सकता है। शुभदर्शन की कविताओं में इसी कारण एक अलग-सा अहसास है, अलग-सी चेतना है और अलग ही संघर्ष है। उनके सद्यः प्रकाशित कविता-संग्रह संघर्ष का छोर नहीं से पहले सन् 1999 में संघर्ष जारी है, सन् 2011 में संघर्ष बस संघर्ष और सन् 2012 में संघर्ष ममता का कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। समाज की घनी पीड़ा के बीच जीवन जीने की अभिलाषा लिए निरंतर जूझते रहने की नियति और भौतिक-अभौतिक स्तर पर संघर्ष के लिए तैयार जमीन की अनुभतियाँ उनके काव्य-संग्रहों में परिलक्षित होती हैं, इस कारण उनके काव्य-संग्रहों का क्रम संघर्ष की धुरी पर बढ़ता प्रतीत होता है।
डॉ. शुभदर्शन की सद्यः प्रकाशित कृति के आत्मकथ्य में ही संघर्ष की झलक मिल जाती है। उन्होंने आत्मकथ्य को साहित्यिक अँधेरे से बगावत शीर्षक दिया है। वे बताते हैं कि अँधेरा आज हमारे सामने नहीं है, हमारे अंदर बैठ चुका है। वे लिखते हैं कि- अँधेरा आज मानवीय/नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक मूल्यों को ही अपने आगोश में लिए है, बल्कि भावी पीढ़ी का पथ-प्रदर्शक साहित्य धमनियों में भी अंधे स्वार्थ का रक्त तेजी से फैल रहा है। निष्कर्ष यह कि चापलूसों की एक पीढ़ी तैयार हो गई है। धुरंधर अपने-अपने मठ बनाए पट्ठों से मालिश कराने में व्यस्त झंडाबरदार होने का सुख भोग रहे हैं। धर्म व राजनीति की मानिंद गद्दी की परंपरा-सी बन गई है। उम्र भर चाटुकारिता का पुरस्कार मिलने/खुद अलमबरदार बनने पर वह भी आगामी पीढ़ी से यही अपेक्षा रखता है। (पृ.05) संघर्ष की यह स्थिति उस वर्ग के साथ है, जिस पर समाज को दिशा देने का भार है। अपनी गद्दी को ऊँची बनाने की कोशिशों में चापलूसी, पुरस्कार पाने की होड़ और राजनीतिक आकाओं के समक्ष नतमस्तक हो जाने की मानसिकता कीचड़ का ढेर जैसा बना रही, जिसमें गिरगिट की-सी प्रवृत्ति लिए, मौके की तलाश में बैठे साहित्य के अलमबरदार हैं। ऐसी दशा में कवि को लगता है कि- नए लोगों को ढूँढ़ना होगा, अपना नया आकाश- उकाब रहित। करनी होगी बग़ावत उकाब के पंखों से बढ़ रहे अँधेरे के ख़िलाफ़। (पृ06) कवि के ऐसे बगावती तेवर उनके संघर्ष की चेतना को उकेर देते हैं और काव्य-संग्रह अपनी शुरुआत के साथ ही ऐसे संघर्ष से पाठक को जोड़ देता है, जो संग्रह के आखिरी छोर पर एक नए संघर्ष की जमीन पाठक के मन में तैयार कर देता है, जिसका कोई छोर नहीं।
समीक्ष्य कृति में चौवन कविताएँ हैं। शुरुआत की तीन कविताएँ बहन-माँ-बाप के जरिए उस परिवार को देखने की कोशिश करती नजर आती हैं, जहाँ घर की दीवारें सारी दुनिया को अपने में कैद कर लेती हैं और सारी दुनिया घर में समा जाती है। आँख का मिजाज आदमी की उन आँखों की तासीर नापती है, जो कभी बिल्ली, कभी सियार, तो कभी लोमड़ की जैसी हो जाती हैं। बेजान लोग कविता में ऐसे बेजान लोग हैं, जो अपना वजूद खोकर नेताओं के हाथों की कठपुतली बन चुके हैं। कवि लिखता है-
नेताओं की पंचायत ने/ तय कर लिया कि/ भैंस के आगे बीन बजाना बेकार है/ और यह मुहावरा रटते-रटते खुद भैंस हो गई है जनता/ कान होने के बावजूद/ नहीं सुनती समय की बीन/ रंभाती है विरोध में/ करती है जुगाली देशभक्ति के तरानों की/ जिसके इवज में बंध गई खूंटे से।। (पृ. 15)
राजनीति के वर्तमान पर दयनीयता से पूर्ण व्यंग्य समय और समाज के गहरे अन्वेषण से निकला है और जिन बेजान लोगों की तासीर को उकेरता है, उनकी एक और पहचान कविता में मिलती है। बेजान लोग किसी विवेकशील, जीवित-जागृत व्यक्ति को सह नहीं सकते हैं, और हमेशा से ही दूसरों की स्वार्थपूर्ति का साधन बनते आए हैं। कवि 1857 में पालतू साँपों के गुच्छ फेंककर घेर लिए जाने वाले देशभक्तों (पृ. 15) के हवाले से अतीत की पड़ताल भी करता है और नेता व साँप, जनता व भैंस के पर्याय में वर्तमान का अवलोकन भी तीखेपन के साथ करता है।
अरमानों की दीया बाती, देवता का बुत, क्या और कोई रास्ता नहीं, इक उम्मीद, सूखा और बदली, ख़ामोश है साथी, क्या नाम दूँ, हम लड़ेंगे साथी, निहारना सूना आकाश, मिट पाएगी भूख?, बच्चे व बीज और हारे हुए लोग जैसी कविताएँ व्यक्ति से समाज तक, अतीत से वर्तमान तक अहसासों की उन परतों को उघाड़ने का प्रयास करती नजर आती हैं, जिनमें बिखराव, टकराव, अलगाव और संत्रास के स्याह रंग भरे हुए हैं; जिनमें संघर्ष के ऐसे आयाम खुलते हैं, जिनसे बचकर निकल पाना न तो व्यक्ति के स्तर पर संभव है और न ही समाज के स्तर पर। यहाँ संस्कृति और पुरातनता के प्रतीक भी हैं, जिन्हें त्यागकर आधुनिक बनने की कवायद में अपना-सा बहुत कुछ छूट जाता है, और जिनके प्रति लगाव की सहज-स्वाभाविक स्थिति अलगाव की अनचाही (या ओढ़ी हुई) स्थितियों के कारण उपजता अवसाद उभर पड़ता है। प्रकृति के कितनी पास थी माँ, कविता में भी ऐसे ही भाव उभरते हैं। माँ के जरिए गाँव और अपने परिवेश के सुख को स्मरण करते-करते बदलाव के दुःखद पक्ष को उकेरने का प्रयास कविता में होता है। कवि लिखता है-
बनेरों पर काग नहीं/ चलित फोन/ देते हैं/ पाहुन का संदेश
तुम ठीक कहती थी मां/ पर मुझे विश्वास नहीं हुआ/ प्राचीर से देखती रही/ मेरी आत्मा/ चौराहे पर पड़ा मेरा शव/ वर्षों तक नहीं आया/ कोई गिद्ध या कौआ/ तो जाना-तुम सही थीं। (पृ. 61-62)    
कविता में एक ओर संस्कृति और परंपरा के बिखराव का दर्द है, तो वहीं दूसरी ओर विज्ञान के असर से मिटती अनूठी पहचान का दर्द भी यक्साँ है। माँ की स्मृतियाँ और पुरनिया जीवन के एकाकार हो जाने की स्थितियाँ कविता में इस तरह गुँथी हुई हैं कि प्रकृति और माँ, दोनों से बिछड़ने का दुःख एक-सा ही लगता है। प्रकृति से अलगाव ही नहीं, संबंधों के बिखरने से उपजे अवसाद की तीव्रता को आधुनिकता के साथ होने वाले संघर्ष ने इतना तीव्र कर दिया है कि कविता की प्रत्येक पंक्ति एक नई संघर्षभूमि का सृजन करती प्रतीत होती है।
जौहर तो जौहर है, एकदम अलग तासीर की कविता है, जो अतीत से वर्तमान तक स्त्री की उस नियति की पड़ताल करती है, जो इतिहास में दर्ज भी है और दर्ज नहीं भी है। अपनी आन-बान की रक्षा के लिए जौहर की आग में जान दे देने वाली नारी जरूर इतिहास में दर्ज है, मगर- नारी जीवन का आईना/ नहीं है इतिहास/ जीवन भर समस्याओं से जूझना/ आज भी बाहर है/ इतिहास से। (पृ. 68) घर-परिवार के लिए हर पल, हर क्षण, जीवन-भर स्वयं को होम करती नारी का जौहर इतिहास नहीं देखता। इतिहास तो उस जौहर को देखता है, जो एक पुरुष के बदले कई स्त्रियों के होम हो जाने की विवशता को सुनहरे अक्षरों में लिखकर गर्व करता है।
ख्याल की बैसाखी और कमलगट्टा उदास है, में पसरी उदासी उन सपनों के बिखर जाने की है, जो जीवन को जीते रहने की विवशता के लिए प्रेरक थे। ऐसे ‘आतंकी सपने’ हर बार टूटकर भी सिर उठाते हैं और उनका आना फिर एक बार टूटने की प्रक्रिया की शुरुआत कर जाता है। बच्चा क्यों रोया..., बच्चे को रोने न दो..., यही होना था, आंसुओं का हिसाब और दांत उगने से पहले आदि कविताएँ बच्चों के जीवन की पड़ताल करती हैं। इन कविताओं में अपने बचपन को जी लेने की आस लिए मौन संघर्षरत बच्चों के मार्मिक चित्र हैं, जो अनेक विचारों को, उद्वेलनों को उपजा देते हैं। रो रही है लड़की और संवेदना के पंख जैसी कविताएँ आज के समाज की क्रूर बर्बरता को उकेरती हैं। अपने आसपास ही असुरक्षा के बोझ से दबी, डरी-सहमी लड़की अपने अस्तित्व में आने के बाद से ही जीवन-भर ऐसे बोझ को ढोती रहती है। उम्र के हर पड़ाव पर उसके लिए संघर्ष हैं, इन संघर्षों से जूझते-टकराते हुए वह अपने साये से भी डरती है। संवेदना के पंख उस बंतो के दर्द को बयाँ करते हैं, जो निर्भया जैसी परिणति को प्राप्त जरूर हुई, मगर निर्भया की तरह चर्चा में शामिल न हो सकी। कवि कहता है कि बंतो के लिए भी इस संसार में बहुत-कुछ है। कवि बंतो से कहता है-
बंतो! तुम अकेली नहीं/  ख़ौफ़ से भरा है, हर आकाश/  जिसके नीचे चलना/ तुम्हारी मज़बूरी है/ इस पूँजीवादी व्यवस्था में/ जहाँ/  राजनीति, धर्म, रख़ैल है उसकी/ और कभी जनवादी कभी/ लोकतंत्र का मुख़ौटा लिए/ घूमते हैं- बहेलिए। (पृ.135)
आज़ाद है भीख़ू का भीख़ू अपने आज़ाद होने का गर्व, अपने सपनों के देखे जाने की आज़ादी का साथ तब तक ही निभा सकता है, जब तक उसके सपने हकीकत में उतरने नहीं लगते हैं। उसके बाद खेत के किनारे चक्कर लगाते लाला के हरकारों की छलिया शाबासी और बाद में खलिहान में इच्छाओं के साथ ही तुल जाती फसलें ही उसके हिस्से में रह जाती हैं। आज़ाद भीख़ू की आज़ादी तो कब की जा चुकी है, उसकी सोच पर भी बंदिशें लग जाती हैं। उसके हिस्से में केवल भय और आशंका का सैलाब रह जाता है। एक अलग-सी चिंता को कवि ने भीख़ू के जरिए साझा किया। देखिए बानगी-
बिटिया छोटी है/ आधुनिकता की हवा में/ झुलस रहा समाज/ आतंक बन खड़ा है/ ज्यूं कटाई से पहले/ बरसात का कहर।
अभी से करनी होगी तैयारी/ टूट चुके हैं दूध के दांत/ ख़ुद दूधिया होने के सफ़र पर है बेटी/ मंडराने लगे हैं मंत्री के कारिंदे/ और/ मिंजर पड़ते ही/ ख़ेत में चिड़ियों की डार देख/ शुरू हो गई है/ भीख़ू की सोच पर बंदिशें।। (पृ. 128-129)
कवि का कथन है कि उसकी कविता- कविता नहीं सवाल के रूप में जानी जाए-
दोस्तो! मैं कोई/ कविता सुनाने नहीं/ आज पूछने आया हूं/ एक सवाल--/ कैसा लगता है/ जब/ भेड़ समझ जिसे सराहते रहे/ --वर्षों/ और/ एक दिन/ ख़ाल बदलते वक्त/ तुम्हें उसमें छिपा/ --भेड़िया दिख जाए। (पृ. 96)
यह साहित्य की ताकत होती है कि वह नीर-क्षीर विवेक के माध्यम से उस कटु यथार्थ की साझेदारी करता है, जिसका शब्दबद्ध होना समय और समाज के प्रति दायित्वों के निर्वहन हेतु अनिवार्य होता है। जब संक्रमण का काल होता है, तब साहित्य ही समाज को दिशा दिखाने के अपने दायित्व का निर्वहन करने हेतु अग्रसर होता है। कवि को कविता नहीं सवाल की जरूरत ही इसलिए पड़ी है, क्योंकि आज का समय उन विषमताओं से पूर्ण है, जिनके बीच कविता मन का रंजन करके नहीं रह सकती। यह तब भी संभव नहीं है, जब कलम किसी ऐसे सत्यान्वेषी, जागरूक, समर्पित, निष्पक्ष और जमीन से जुड़े कलमकार के हाथ में हो; समय की विसंगतियाँ, समाज की विद्रूपताएँ, जीवन के कटु यथार्थ और इन सबसे संघर्ष की आसन्न स्थितियाँ जिसके चेहरे पर मुस्कान नहीं, माथे पर चिंता की लकीरें खींच देती हों। साहित्य के साधक इस भूमिका से स्वयं को अलग नहीं कर सकते। डॉ. शुभदर्शन कविता नहीं सवाल के जरिए ऐसे ही सवाल उठाते हैं। कविता क्या होती है? इस प्रश्न के दो उत्तर दृष्टव्य हैं-
कविता तो वह होती/ जो/ गोबर सने हाथों से/ कर रही शर्म ढांपने का/ विफल प्रयास/ फटी कमीज में गढ़ती/ अपने पति से कर्ज़ वसूलने आए/ साहूकार की पैनी नज़र/ और/ एक ही सांस में/  निगल जाने को/ लपलपाती जीभ को भांप/ लाला की बेशर्म आंख/ और/ उसकी दलाली को उठे/ हाथों को/ सम्मानित करने की/ दास्तां होती। (पृ. 99)
कविता तो बेशर्मी और/ मर चुकी संवेदना की/ वह कहानी होती है/ जो/ डिग्री के नाम पर/ नकल की राह दिखा/ तैयार करती/ बौने, अधूरे/ साहित्यकारों की फौज/ जो करते अनुशंसा/ अपने आका को/ देने की राष्ट्रीय पुरस्कार/ या/ फिर अपने-अपने/ ख़ेमों में घिरे/ मठाधीशों को बनाने/ महान् विद्वान/ चकला घरों की तरह/ बनी संस्थाओं से/ मिले अवार्ड को/ दलालों की माफ़िक/ प्रचार करती/ अखबारों की प्रशंसा में/ झुकाती सर। (पृ. 100-101)
समकालीन परिदृश्य में कविता की पड़ताल करते ये उत्तर वास्तव में साहित्य के वर्तमान में गहरे तक उतरकर उस संकट को देखने की कोशिश करते हैं, जिसके कारण साहित्य का अपनी भूमिका से भटकाव प्रत्याशित है। इतने तीखेपन के साथ बात कहने का माद्दा भी उसी में हो सकता है, जो गहरे पानी पैठा हो। इतने साहस के साथ वही सवाल कर सकता है, जो ज्यों की त्यों कमरिया धर देने की सामर्थ्य रखता हो। साहित्यकार की खाल ओढ़कर प्रपंच रचने वालों से, अपनी स्वार्थपूर्ति को केंद्र में रखकर कागज में शब्द उकेरने वालों से संघर्ष की जो स्थिति है, उसे भी कवि ने बखूबी उकेरा है।
और अंत में संघर्ष तो करना होगा, इस जीवट के साथ संग्रह अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। जिस संघर्ष का छोर नहीं है, उसकी अनेक स्थितियों को खंगालते हुए जब कवि कहता है कि-
चिल्ला रहे थे लोग/ फैलते जा रहे थे उसके डैने/ मानवीकरण हो गया था/ बदल गई थी मानसिकता/ सभी ओर बढ़ रहे थे- काले साये/ कला, साहित्य, समाज, धर्म,/ राजनीति, हर रिश्ते की गरिमा/ बचाने की ख़ातिर/ संघर्ष तो करना होगा/ करनी होगी बग़ावत/ मुट्ठी भर आकाश से/ उकाबी पट्ठों की मार पर/ विभिन्न वादों के जाल में/ जकड़ के अपने/ सियासती षड्यंत्रों में लीन/ झंडाबरदारों के स्वार्थी पंखों से/ बढ़ रहे अंधेरे के खिलाफ। (पृ. 139-140)
  संघर्ष के लिए कटिबद्ध कवि की आत्मविश्वास से भरी पंक्तियाँ पाठक को भरोसा दिलाती हैं कि साहित्य का सारा आकाश भले ही उकाबों से भर गया हो; चापलूसों, पुरस्कारों, राजनीतिक आकाओं के कीचड़ को घनी आबादी वाले किनारे एकत्रित कर रखा हो, मगर अधिकांश जल इस कारण स्वतः ही साफ हो गया है। साहित्य की इस स्वच्छता को, इसकी निर्मलता और पवित्रता को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना होगा। साहित्य अपने दायित्व को निभाता रहे, इसके लिए भी संघर्ष का छोर नहीं है। इस संघर्ष की नियति रुकने की नहीं, निरंतर गतिमान रहने की है। प्रतीकों, बिंबों और शब्दों के सटीक प्रयोगों ने समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताओं में ऐसा पैनापन ला दिया है कि पाठक उनमें निहित वैचारिक गांभीर्य में स्वतः उतर जाता है। कविताओं को पढ़ते हुए जीवन की गति चलती जाती है। कवि के लिए जिस संघर्ष का अंत नहीं होता, वह संघर्ष पाठक का अपना भी हो जाता है। यही समीक्ष्य कृति की विशिष्टता है, जो इसे संग्रहणीय बनाती है।
समीक्ष्य कृति- संघर्ष का छोर नहीं, शुभदर्शन, सभ्या प्रकाशन, मायापुरी इंडस्ट्रियल एरिया, फेस-I, नई दिल्ली-64, सितंबर, 2015, मूल्य- रु. 250/-  
डॉ. राहुल मिश्र
(नूतनवाग्धारा, बाँदा, संयुक्तांक 24-25, वर्ष- 9, मार्च, 2016 में प्रकाशित)