Monday 19 May 2014

सुमित्रानंदन पंत : व्यक्तित्व और कृतित्व



सुमित्रानंदन पंत : व्यक्तित्व और कृतित्व

भारत माता
ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी
भारत माता
ग्राम वासिनी
और
धरती का आँगन इठलाता
शस्य श्यामला भू का यौवन
अंतरिक्ष का हृदय लुभाता
जौ गेहूँ की स्वर्णिम बाली
भू का अंचल वैभवशाली
इस अंचल से चिर अनादि से
अंतरंग मानव का नाता...
जैसी सुंदर और मनमोहक कविताएँ लिखने वाले, प्रकृति की सुंदरता को कविताओं में उतारने वाले सुमित्रानंदन पंत हिंदी के जाने-माने कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में 20 मई, सन् 1900 ई. को हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। उनकी दादी ने उनका पालन-पोषण किया। वे सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता गंगादत्त कौसानी में एक चाय बागान के प्रबंधक थे। उनके बचपन का नाम गुसाई दत्त था। उनकी प्राथमिक शिक्षा कौसानी के वर्नाक्युलर स्कूल में हुई। वे ग्यारह वर्ष की आयु में अल्मोड़ा आ गए, जहाँ गवर्नमेंट कॉलेज में उन्होंने हाईस्कूल में प्रवेश लिया। उन दिनों अल्मोड़ा में साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ लगातार चलती रहती थीं। पंत जी उनमें भाग लेने लगे। उन्होंने अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाली हस्तलिखित पत्रिका सुधाकर और अल्मोड़ा अखबार के लिए रचनाएँ लिखना शुरू कर दिया। वे सत्यदेव जी द्वारा स्थापित शुद्ध साहित्य समिति नामक पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ते, जिससे उन्हें भारत के विभिन्न विद्वानों के साथ ही विदेशी भाषाओं के साहित्य के अध्ययन का अवसर सुलभ हो गया था। वे शुरुआत में अपने परिचितों और संबंधियों को कविता में चिट्ठियाँ भी लिखा करते थे। अल्मोड़ा में उनका परिचय हिंदी के प्रसिद्ध नाटककार गोविंद वल्लभ पंत से हुआ। इसके साथ ही वे श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचंद्र जोशी और हेमचंद्र जोशी के संपर्क में आए। इन साहित्यकारों के संपर्क में आकर सुमित्रानंदन पंत के व्यक्तित्व का विकास हुआ। अल्मोड़ा में पंत जी को ऐसा साहित्यिक वातावरण मिला, जिसमें उनकी वैचारिकता का विकास हुआ। वैचारिकता के विकास के इस क्रम में उन्होंने सबसे पहले अपना नाम बदला। रामकथा के किरदार लक्ष्मण के व्यक्तित्व से, लक्ष्मण के चरित्र से प्रभावित होकर उन्होंने अपना नाम गुसाई दत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। बाद में पंत जी ने नेपोलियन बोनापार्ट के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर लंबे और घुंघराले बाल रख लिए।
 सन् 1918 में वे अपने भाई के साथ वाराणसी आ गए और क्वींस कॉलेज में अध्ययन करने लगे। क्वींस कॉलेज से माध्यमिक की परीक्षा पास करके वे इलाहाबाद आ गए और म्योर कॉलेज में इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद आकर वे गांधी जी के संपर्क में आए। सन् 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने म्योर कॉलेज को छोड़ दिया और आंदोलन में सक्रिय हो गए। वे घर पर रहकर और अपने प्रयासों से हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करने लगे।
सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति के उपासक और प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करने वाले कवि के रूप में जाना जाता है। पंत जी को ऐसी कविताएँ लिखने की प्रेरणा उनकी अपनी जन्मभूमि से ही मिली। जन्म के छह-सात घंटे बाद ही माँ से बिछुड़ जाने के दुख ने पंत जी को प्रकृति के करीब ला दिया था। प्रकृति की रमणीयता ने, प्रकृति की सुंदरता ने पंत जी के जीवन में माँ की कमी को न केवल पूरा किया, बल्कि अपनी ममता भरी छाँह में पंत जी के व्यक्तित्व का विकास किया। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत जीवन-भर प्रकृति के विविध रूपों को, प्रकृति के अनेक आयामों को अपनी कविताओं में उतारते रहे। पंत जी का जीवन-दर्शन, उनकी विचारधारा, उनकी मान्यताएँ और उनकी स्थापनाएँ प्रकृति के विभिन्न रूपों को साथ लेकर पनपती और विकसित होती रहीं। बर्फ से ढके पहाड़ों और उनके नीचे पसरी कत्यूर घाटी की हरी-भरी चादर; पर्वतों से निकलते झरनों; नदियों; आड़ू, खूबानी, चीड़ और बांज के सुंदर पेड़-पौधों और चिड़ियों-भौंरों के गुंजार से भरी-पूरी उनकी मातृभूमि कौसानी ने उन्हें माँ की गोद का जैसा नेह-प्रेम दिया। इन सबके बीच पंत जी का प्रकृति-प्रेमी कवि अपनी अभिव्यक्ति पाया। जिस तरह एक बच्चे के लिए उसकी माँ ही सबकुछ होती है, उसी तरह पंत जी के लिए प्रकृति ही सबकुछ थी। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है। प्रकृति-प्रेम का ही प्रभाव था कि जब वे चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तब सात वर्ष की उम्र में ही कविताएँ रचने लगे थे। गिरजे का घंटा, बागेश्वर का मेला, वकीलों के धनलोलुप स्वभाव और तंबाकू का धुआँ आदि उनकी शुरुआती दौर की कविताएँ हैं।
सुमित्रानंदन पंत को हिंदी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख कवि के रूप में जाना जाता है। 18वीं शती. के अंत में परंपरावाद की प्रतिक्रिया के रूप में स्वच्छंदतावाद या रोमेंटिसिज़्म का जन्म हुआ। यूरोप में स्वच्छंदतावाद रूसो, वाल्टेयर, गेटे, कीट्स और शैली आदि के द्वारा रचे गए लिरिकल बैलेड्स के माध्यम से विकसित हुआ। अंग्रेजी साहित्य के रोमेंटिसिज़्म का प्रभाव गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के माध्यम से बांग्ला साहित्य पर पड़ा। बांग्ला साहित्य से होता हुआ यह प्रभाव हिंदी साहित्य में आया। रोमेंटिसिज़्म का यह प्रभाव सुमित्रानंदन पंत की काव्य-साधना पर पड़ा। पंत जी के साथ ही जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की काव्य-साधना पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी साहित्य के रोमेंटिसिज़्म ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना के साथ मिलकर हिंदी में एक नए युग की शुरुआत की। सन् 1918 से 1938 तक के कालखंड में हिंदी साहित्य में अपना व्यापक प्रभाव डालने वाला यह युग छायावाद के नाम से जाना जाता है। छायावाद के प्रतिनिधि कवि के रूप में सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में भारतीय सांस्कृतिक चेतना का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इसके साथ ही स्वतंत्रता पाने की तीव्र इच्छा, बंधनों से मुक्ति, विद्रोह के स्वर और अपनी बात कहने के नए तरीकों को पंत जी की कविताओं में देखा जा सकता है। छायावाद के अन्य कवियों; जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की तरह सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में प्रकृति-प्रेम के माध्यम से सौंदर्यवाद और मानववाद की भावनाओं को देखा जा सकता है। पंत जी जब अपनी कविताओं में भारत के ग्रामीण समाज का चित्रण करते हैं, तब वे भारत के ग्रामीण समाज के दुखों, कष्टों, भेदभावों और गाँव के लोगों के सुख-सुविधाविहीन जीवन को भी प्रकट करते हैं। वे अमीर और गरीब के बीच के भेद को मिटाने की बात भी कहते हैं। वे सामाजिक समरसता की स्थापना की बात अपनी कविताओं में कहते हैं। वे अमीर और गरीब का भेद भी मिटाते हैं। वे कहते हैं-
अस्थि  मांस  के इन जीवों का ही यह जग घर,
आत्मा का अधिवास न यह, यह सूक्ष्म अवश्वर।
न्योछावर   है   आत्मा  नश्वर   रक्त   मांस  पर,
जग  का  अधिकारी  है  वह,  जो  है  दुर्बलतर।
पंत जी आज के अभावग्रस्त, शोषित, दलित और साधनविहीन समाज के दुखों और कष्टों को बड़ी गहराई तक उतरकर देखते हैं। इन सबके बीच वे अपराध और आतंक से भरी देश की स्थितियों को भी प्रकट करते हैं। उनकी यह भावधारा राष्ट्रीय स्तर पर भी है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है। पंत जी की इस भावधारा के पीछे उनके मार्क्सवादी चिंतन को देखा जा सकता है। वे जीवन के विकास के लिए एकता, समता, श्रद्धा, परिश्रमशीलता और मन की निर्मलता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे इसके लिए ऐसी क्रांति की बात करते हैं, जो मानवता के धरातल पर विकसित हो। वे ऐसी क्रांति की बात करते हैं, जो विभिन्न प्रकार के मतभेदों को भुलाकर नेह-प्रेम से भरे देश का और साथ ही सारे संसार का निर्माण कर सके। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत के काव्य-संसार को सत्यं, शिवं, सुंदरम् की साधना का काव्य कहा जाता है।
छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताओं में जिस प्रकार का रहस्यवाद और बौद्ध-दर्शन का प्रभाव है, वैसा भले ही पंत जी की कविताओं में न दिखता हो, फिर भी भारतीय सांस्कृतिक चेतना के रूप में इनकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति पंत जी की कविताओं में दिखाई पड़ती है। सत्य, शांति, अहिंसा, दया, क्षमा और करुणा जैसे मानवीय गुणों की चर्चा बौद्ध धर्म-दर्शन में प्रमुख रूप से होती है। इन्हें पंत जी की कविताओं में भी देखा जा सकता है। वे लिखते हैं-
बिना दुख के सब सुख निस्सार, बिना आँसू के जीवन भार, 
      दीन  दुर्बल  है  रे  संसार,  इसी  से  दया,  क्षमा और प्यार।
इसके साथ ही दो लड़के नामक कविता में वे लिखते हैं-
क्यों न एक हो  मानव मानव सभी परस्पर,
मानवता  निर्माण  करे  जग  में  लोकोत्तर!
जीवन  का  प्रासाद  उठे  भू  पर  गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने,--मानवहित निश्चय।
सुमित्रानंदन पंत ने अध्यात्म और दर्शन के साथ विज्ञान के समन्वय की बात अपनी कविताओं में कही है। इनके आपसी समन्वय के माध्यम से वे मानवता के कल्याण की कामना करते हैं। उनका मानना है कि ये युग-शक्तियाँ हैं और युग-उपकरण हैं, जिनका प्रयोग अगर मानवता के कल्याण के लिए किया जाएगा तो सारे विश्व का कल्याण होगा, दीन-दुखियों और जरूरतमंदों का कल्याण होगा। वे लिखते हैं-
नम्र शक्ति वह, जो सहिष्णु हो, निर्बल को बल करे प्रदान,
मूर्त प्रेम, मानव मानव हों  जिसके लिए  अभिन्न  समान!
वह  पवित्रता, जगती  के  कलुषों  से जो  न  रहे  संत्रस्त,
वह  सुख,  जो   सर्वत्र  सभी   के   लिए   रहे   संन्यस्त!
रीति नीति, जो विश्व प्रगति में बनें नहीं जड़ बंधन-पाश,
--ऐसे उपकरणों  से  हो भव-मानवता का पूर्ण विकास!
सुमित्रानंदन पंत अपनी युवावस्था में ही गांधी जी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गए थे। उनकी काव्य-यात्रा में गांधी-दर्शन का प्रभाव इसी कारण प्रमुख रूप से दिखाई देता है। सन् 1964 में पंत द्वारा रचित लोकायतन प्रबंध-काव्य गांधी दर्शन और चिंतन को बड़े ही भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। 12 मार्च, 1930 से शुरू हुए गांधी जी के नमक सत्याग्रह ने पंत जी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। वे गांधी जी को आधुनिक युग का ऐसा मसीहा मानते थे, जिनके जरिए देश में नई क्रांति आ सकती थी, जिनसे सारे देश को उम्मीद थी। लगभग सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य पंत जी ने अपने पिता को समर्पित किया। इस महाकाव्य पर उन्हें सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार मिला और उन्हें उत्तरप्रदेश शासन द्वारा भी सम्मानित किया गया। सुमित्रानंदन पंत अपने जीवन में कई दार्शनिकों-चिंतकों के संपर्क में आए। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और श्री अरविंद के प्रति उनकी आस्था थी। वे अपने समकालीन कवियों- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और हरिवंशराय बच्चन से भी प्रभावित हुए। हरिवंशराय बच्चन के पुत्र और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को अपना यह नाम भी पंत जी से ही मिला था।
पंत जी की रचनाओं में विचारधारा, दर्शन और चिंतन के स्तर पर ऐसी प्रगतिशीलता नजर आती है, जिसमें प्रकृति के बदलावों की तरह एक नयापन देखा जा सकता है। समकालीन कविता के क्षेत्र में वे एकमात्र कवि हैं, जिनका प्रकृति-चित्रण अनूठा है। उनका प्रकृति-चित्रण प्रगतिशीलता को साथ लेकर चलता है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, उत्तरा, युगपथ, चिदंबरा, कला और बूढ़ा चाँद तथा गीतहंस आदि काव्य-कृतियों के साथ ही पंत जी ने कुछ कहानियाँ भी लिखीं हैं। उन्होंने हार शीर्षक से एक उपन्यास की रचना भी की है। इसके साथ ही साठ वर्ष : एक रेखांकन नाम से पंत जी ने आत्मकथा भी लिखी है। सुमित्रानंदन पंत को 1961 में पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। सन् 1968 में चिदंबरा काव्य-कृति पर पंत जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से पंत जी को सम्मानित किया गया। उन्होंने सन् 1950 से 1957 तक आकाशवाणी, इलाहाबाद में हिंदी चीफ प्रोड्यूसर के रूप में अपनी सेवाएँ दीं। इसके बाद वे साहित्य सलाहकार के रूप में आकाशवाणी से जुड़े रहे। इसी दौरान 15 सितंबर, सन् 1959 को भारत में टेलिविजन इंडिया नाम से भारत में टेलिविजन प्रसारण शुरू हुआ। इसे दूरदर्शन नाम देने वाले भी सुमित्रानंदन पंत ही थे।
हिंदी साहित्य के विलियम वर्ड्सवर्थ और प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में प्रसिद्ध सुमित्रानंदन पंत ने लगभग पचास वर्षों की अपनी साहित्य-सेवा के माध्यम से हिंदी के काव्य-जगत् को समृद्ध किया। आबशारों, नदियों, पेड़-पर्वतों और प्रकृति के ऐसे ही तमाम सुंदर चित्रों के बीच समन्वय, सौहार्द, मानवता, क्रांति और नवजागरण की आवाज उठाने वाले इस ऊर्जावान, युग प्रवर्तक, भावुक और संवेदनशील कवि ने 28 दिसंबर सन् 1977 को इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश) में  हमसे हमेशा के लिए विदाई ले ली। सुमित्रानंदन पंत का हिंदी साहित्य में ही नहीं, बल्कि विश्व साहित्य में भी अद्वितीय स्थान है। सुमित्रानंदन पंत की काव्य-चेतना आशा और आस्था के साथ विकास की नई दिशा देने और बिना डरे हुए मानवता के कल्याण की प्रेरणा देती रहेगी।      
नव आशा से कुसुमित हो मग,
नव अभिलाषा से मुखरित पग
नव विकासमय, नवल प्रगतिमय,
निर्भय चरण धरो!
प्राणों में निखरो!


डॉ. राहुल मिश्र

(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 19. 05. 2014, प्रातः 0830 बजे)