Thursday, 26 October 2017

वारकरी संप्रदाय की उत्पत्ति के आधार और इनका वैशिष्ट्य


वारकरी संप्रदाय की उत्पत्ति के आधार और इनका वैशिष्ट्य

भारतवर्ष की सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था धर्मप्रधान रही है और प्रमुख तत्त्व के रूप में भक्ति की व्याप्ति को भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में देखा जा सकता है। भारतीय विद्वानों के साथ ही अनेक विदेशी विद्वानों ने इस तथ्य पर अपनी सहमति दी है। भक्ति के विविध स्वरूपों का, विभिन्न मतों-संप्रदायों का विकास और विस्तार इस धारणा को निरंतर पुष्ट करता रहा है। इसके साथ युगानुरूप चेतना और उपासकों-भक्तों के वैचारिक संघर्षों के साथ मतों-संप्रदायों का उत्थान-पतन भी होता रहा है। ब्रह्मपुराण में एक श्लोक आता है-
ब्रह्मा कृत युगे पूज्यः स्त्रेतायां यज्ञउच्चते।
द्वापरे पूज्यते विष्णुरहं पूज्यश्चतुर्ष्वापि।। (33.20)
इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मा का संप्रदाय कृतयुग (सतयुग) में प्रचलित था। त्रेतायुग में वैदिक संप्रदाय अपनी यज्ञप्रधान व्यवस्था के साथ प्रचलित हुआ। द्वापर युग में वैष्णव भक्ति प्रचलित हुई और शिव की पूजा-उपासना प्रत्येक युग में प्रचलित रही है। यह श्लोक भारतीय उपासना-पद्धतियों और मतों-संप्रदायों के विकास-क्रम को भी स्पष्ट करता है। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मा की उपासना सबसे पुरानी थी। आज सगुण एवं निर्गुण उपासना जगत् में ब्रह्मा के नाम कोई संप्रदाय नहीं चलता। शताब्दियों के पहले ही अन्य संप्रदायों ने उसे दबा दिया और ब्रह्मा को अपने संप्रदायों के प्रतिष्ठाताओं की अपेक्षा गौण स्थान प्रदान किया। यह प्राचीन जातियों पर नवागत जातियों के विजय का परिचायक है। ब्रह्मा संप्रदाय भारत का प्राचीनतम संप्रदाय था। वेदपूर्व युग के अवैदिक ब्राह्मण जाति के बीच में यह लोकप्रिय रहता था। अनेक देवताओं तथा संप्रदायों का जन्म इसी से हुआ। अतएव ब्रह्मा के संप्रदाय को संप्रदायों का पिता मानना गलत नहीं होगा। वैदिक धर्म से संघर्ष करके वह परिक्षीण हो गया। शिव के शापवश ब्राह्म के संप्रदाय के लुप्त होने की कथा शैव धर्मावलंबियों के नाशकारी आक्रमण की परिचायक है। जैन, बौद्ध, शैव एवं वैष्णव धर्मों ने उसको आत्मसात् करने में पर्याप्त विजय पाई।1  वैदिक संप्रदाय कर्मकांडों पर आधारित था और वैदिक साहित्य भी ज्ञान-तत्त्व को प्रधानता देता था। इस कारण वैदिक साहित्य यज्ञ और नियम के विधानों में इस तरह उलज्ञा कि उसमें पौरोहित्य की प्रधानता हो गई, जिसने कालांतर में ऐसे विरोध को जन्म दिया, जिसकी परिणति वैष्णव भक्ति के रूप में प्रकट हुई। वैदिक धर्म में वर्णित देव-मंडल में विष्णु को प्रधान स्थान प्राप्त नहीं था, किंतु कालांतर में उपासना-शास्त्र के प्रधान देवता के रूप में विष्णु को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ। विष्णु को उपास्य मानकर प्रचलित होने वाले वैष्णव धर्म की व्यापकता के पीछे उसकी धार्मिक, दार्शनिक स्थापनाओं की विशेषता थी और साथ ही समन्वय की अपूर्व भावना भी थी-
किरात  हूणांध्र-पुलिंद  पुल्कसा  आभीर-लङ्का  यवनाश्वशादयः ।
यो न्यै च या या यदुपाश्रया श्रयाः शुद्धन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नमः ।।
भारतवर्ष की अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता के नितांत विलक्षण स्वरूप को प्रकाशित करता श्रीमद्भागवत् का यह श्लोक एक ओर भारतवर्ष के गौरवपूर्ण इतिहास का साक्ष्य प्रस्तुत करता है, तो दूसरी ओर इसमें विष्णु का आश्रय लेकर ब्राह्मण पौरोहित्यवाद के खिलाफ जन-संघर्ष मुखर होता है। भारत में बाहर से आने वाली अनेक जातियों और धर्मों के आक्रांता स्परूप को परिवर्तित और परिशुद्ध करके आत्मसात् कर लेने की यह प्रवृत्ति ऐतिहासिक और भौगोलिक सीमाओं में अद्भुत है। हूण, यवन, ग्रीक, आंध्र और पुलिंद आदि बाह्य आक्रमणकारी जातियों ने विष्णु की उपासना का आश्रय लिया और विष्णु के नाम से प्रवर्तित वैष्णव धर्म को समृद्ध किया। वैष्णव धर्म के प्रमुख ग्रंथ भागवत में इसी कारण उनका उल्लेख आदरपूर्वक किया गया है। ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में वैष्णव भक्ति-धारा के आंदोलन के रूप में विकसित होने का प्रमुख कारण जैन और बौद्ध धर्मों का विकास भी माना जा सकता है। इस संदर्भ में भगवतशरण उपाध्याय लिखते हैं- भागवतधर्म को पुष्टि अधिकतर निम्नश्रेणी के लोगों से मिली। इसके पश्चातकाल में तो इसके गुरुओं तक में अधिकतर निम्नवर्गीय अछूत तक हुए। और एक समय तो बौद्ध-धर्म और भागवत-धर्म की सीमायें एक हो गईं, जब बुद्ध, वैष्णवों के अवतार मान लिये गये और उनकी मूर्ति पुरी के विष्णु मंदिर में जगन्नाथ के रूप में स्थापित की गई। आज भी इस मंदिर के प्राचीरों के भीतर वर्णविधान नहीं है और आर्य जाति, निम्नवर्ण, सवर्ण और अछूत तक एक साथ प्रसाद पाते हैं। इन बौद्ध-धर्म और भागवत-धर्म के सम्मिलित प्रहार ने कम से कम परिणाम रूप में ब्राह्मण वर्णव्यवस्था को चूर-चूर कर दिया। भागवत धर्म में काफी संख्या में विदेशीय विजातीय भी सम्मिलित हुए थे उन्होंने उस धर्म को अपने कंधे दिये। द्वितीय सदी ईस्वी पूर्व के अंत में तक्षशिला के यवन (ग्रीक) राजा अन्तलिखिद ने शुंग वंशीय काशिपुत्र भागभद्र के पास विदिशा के दरबार में हेलियोपोर नाम का अपना ग्रीक राजदूत भेजा था। वह हेलियोपोर वैष्णव हो गया और बेस नगर में विष्णु के नाम पर उसने एक स्तम्भ खड़ा करवाया।2 विष्णु का वामन अवतार भी वैष्णव धर्म के विकास की तीव्र प्रक्रिया और इसके असीमित भौगोलिक विस्तार की विशिष्टता को व्याख्यायित करता है, जिसमें वामन के रूप में तीन पगों में ही सारी धरती को नाप लेने का प्रसंग आता है। ऋग्वेद में वर्णित है-
इदं विष्णुविर्चक्रमे त्रेधानिदधे पदम्। समूलमस्य पांसुरे।। (122-7)
भागवतधर्म के आधार ग्रंथ श्रीमद्भागवत में विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन है। श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध में राम के और दशम स्कंध में कृष्ण के अवतार का वर्णन है। ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व जिस तरह राम को विष्णु का अवतार मान लिया गया था, उसी तरह कृष्ण को भी विष्णु का अवतार मान लिया गया था। इस तरह राम और कृष्ण, दोनों ही भागवत धर्म के प्रमुख आराध्य के रूप में प्रचलित हुए। इतना अवश्य है कि भागवत धर्म में कृष्ण की महत्ता अपेक्षाकृत अधिक प्रतीत होती है। राम का स्वरूप लोकरक्षक के रूप में विकसित हुआ और इस कारण रामकथा ने, रामभक्ति ने वैचारिक गंभीरता और सामाजिक मर्यादा को केंद्र में रखकर विकास किया। वैष्णव धर्म का अंग होने के बावजूद रामभक्ति की धारा अलग तरीके से विकसित हुई और भागवत धर्म या वैष्णव धर्म का प्रसंग उठने पर प्रायः कृष्ण की लीलाओं का वर्णन ही रूढ़ होने लगा।
कृष्ण का लोकरंजक स्वरूप समाज के विभिन्न वर्गों के लिए अपेक्षाकृत सुगम और सुग्राह्य हुआ। डॉ. भण्डारकर के अनुसार प्राचीनकाल में वैष्णव धर्म, मुख्यतः तीन तत्त्वों के योग से उत्पन्न हुआ था। पहला तत्त्व तो यह विष्णु नाम ही है, जिसका वेद में उल्लेख सूर्य के अर्थ में मिलता है। दूसरा तत्त्व नारायण धर्म का है, जिसका विवरण महाभारत के शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में है। और तीसरा तत्त्व वासुदेव मत का है। यह वासुदेव मत वसुदेव नामक एक ऐतिहासिक पुरुष (समय 600 ई.) के इर्द-गिर्द विकसित हुआ था। इन्हीं तीनों तत्त्वों ने एक होकर वैष्णव धर्म को उत्पन्न किया। लेकिन, उसमें कृष्ण के ग्वाल रूप की कल्पना और राधा के साथ उनके प्रेम की कथा बाद में आयी और ये कथाएँ, शायद, आर्येतर जातियों में प्रचलित थीं।3 इस तरह वैष्णव धर्म वैदिक और अवैदिक विचारधाराओं के संघर्ष के फलस्वरूप विकसित हुआ और इसमें कृष्ण के ग्वाल रूप, कृष्ण का श्याम वर्ण, उनके नृत्य-गायन और उनकी रासलीलाएँ उत्तर और दक्षिण के समन्वय के रूप में देखी जा सकतीं हैं। दक्षिण के तिरुमाल या मायोन या कन्नन, उनकी प्रिया नाम्पिन्ने को राधा और कृष्ण के रूप में देखा जा सकता है। दक्षिण भारत में दूसरी-तीसरी शताब्दी से प्रचलित भक्ति-विषयक कविताएँ पाण्डित्य के स्तर पर प्रभावशाली न होते हुए भी आम जनता में भक्ति की धारणा को पुष्ट करने में समर्थ थीं। इन कविताओं का संपादन सर्वप्रथम आलवार कवि नाथमुनि ने किया और यह संग्रह प्रबंधम् के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विष्णु के लोकप्रचलित अवतारों के प्रति आस्था, कर्म के प्रति निष्ठा, सादगी, सहजता, सरलता, समन्वय, समर्पण और निष्काम भक्ति के सुगम संस्करण को पूर्णता के साथ पाने हेतु प्रबंधम् अपेक्षाकृत सफल सिद्ध हुआ होगा, जिसके कारण भक्ति की अविरल धारा का प्रवाह दक्षिण में बहा, जिसमें आलवार संतों-भक्तों का योगदान अविस्मरणीय है। प्रत्येक आलवार का समय निश्चित करने में मतभेद अवश्य है। परन्तु, इस बात पर प्रायः सभी लोग सहमत हैं कि ये बारह विशिष्ट आलवार ईसा की तीसरी सदी से लेकर नवीं सदी तक के बीच हुए हैं। अतएव, यह बात पूर्ण रूप से निश्चित है कि प्रपत्ति, शरणागति, आत्म-समर्पण और एकान्तनिष्ठा से विभूषित भक्ति का सम्यक् विकास और प्रचार आलवारों के साहित्य द्वारा नवीं सदी के पूर्व ही संपन्न हो चुका था तथा उस समय तक दक्षिण की जनता भक्ति से, पूर्णतः, विभोर भी होने लगी थी।4 उत्तर में फैले हुए वेद-विरोधी आंदोलनों के कारण हिंदुत्व का शुद्ध रूप खिसककर दक्षिण चला गया था। यही कारण है कि जिन दिनों उत्तर भारत के बौद्ध-सिद्ध धर्म के बाह्योपचारों की खिल्ली उड़ा रहे थे, उन्हीं दिनों दक्षिण के आलवार और नायनार संत शिव और विष्णु के प्रेम में पागल हो रहे थे।5
बौद्ध-सिद्ध-नाथ परंपराओं के साथ संघर्ष की प्रवृत्ति कालांतर में स्थानांतरित होकर विदेशों से आगत धर्म के साथ स्थापित हुई, फलस्वरूप एक नए आंदोलन का सूत्रपात हुआ। भारत की पुरातन भक्ति-परंपरा के संघर्ष के कालखंड से लेकर नवागत इस्लाम के साथ संघर्ष के कालखंड में दक्षिण भारत का अपना योगदान रहा। आठवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जिन महानुभावों ने कार्य किया, उनमें बहुसंख्यक का आविर्भाव दक्षिण में ही हुआ था; यथा- शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बार्क, माध्व, सायण, बल्लभ आदि। इन मनीषियों ने परंपरागत धर्म एवं दर्शन की नयी-नयी व्याख्याएँ प्रस्तुत करके समस्त भारत की हिंदू जनता को धार्मिक नेतृत्व प्रदान किया।6 समस्त भारतवर्ष में भक्ति-आंदोलन के प्रणेता के रूप में दक्षिण के आलवार और नायन्मार कवियों-संतों के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक भक्त आचार्यों, संतों, कवियों ने अनेक मतों- पंथों-संप्रदायों को वैचारिक आधार देकर स्थापित किया। दक्षिण भारत में प्रायः 600 ई. के आसपास विकसित हुए आंदोलन के उत्तर भारतीय संस्करण और उसके पूर्वापर संबंधों में विभिन्न मतों-पंथों-संप्रदायों को देखा जा सकता है। इनमें से प्रत्येक नवीन विचारधारा या संप्रदाय की उत्पत्ति पूर्ववर्ती या समकालीन संप्रदाय के विरोध और संप्रदाय-विशेष के अनुयायियों की सामाजिक प्रतिष्ठा पर आधारित होती थी। सुधारवादी संतों के देहावसान के बाद उनके शिष्य अपने गुरू की पूजा शुरू करते थे और उनके नाम से नया पंथ चला देते थे।7 इस प्रकार अनेक विद्वान आचार्यों और संप्रदायों की विस्तृत परंपरा को देखा जा सकता है। उनकी उत्पत्ति और विकास के क्रम का प्रवाह तमिल-तेलगू-कन्नड़-मलयालम और फिर मराठी भाषाओं के क्षेत्रों से होता हुआ हिंदीभाषी क्षेत्रों तक पहुँचा। इनके विकास-क्रम में आने वाला वारकरी संप्रदाय अपनी विशिष्टता के कारण न केवल महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, वरन् इस संप्रदाय में भक्ति आंदोलन के दोनों सोपानों के वैशिष्ट्य-विकास के व्यवस्थित क्रम को भी देखा जा सकता है।
वारकरी संप्रदाय के आराध्य देव विट्ठल या विठोबा और रुक्मिणी या रखुमाई की आराधना महाराष्ट्र में अत्यंत प्राचीन है। दक्षिण में जब आर्यों का प्रवेश हुआ, तब यहाँ के मूल आदिवासियों के प्रमुख उपास्य का भी आर्यीकरण अवश्य हुआ होगा। इसी समन्वयीकरण के ही कार्यस्वरूप पंढरपुर के विठोबा-विट्टल-विष्णु के बालरूप माने गये और अवतार भी समझे गये।8 पंढरपुर के विट्ठल के साथ भक्त पुंडलीक की कथा भी प्रचलित है। भक्त पुंडलीक को ऐतिहासिक माना जाए, या काल्पनिक माना जाए, इसे लेकर विद्वानों के बीच मतभेद भले ही हो, मगर लोक-धारा में भक्त पुंडलीक की मातृ-पितृभक्ति प्रसिद्ध है। वे विठोबा का वरदान पाने से ज्यादा जरूरी अपने माता-पिता की सेवा मानते हैं।9 पुंडलीक की कर्मठता और माता-पिता के प्रति उनकी भक्ति-भावना को देखकर वरदान देने आए विठोबा को पुंडलीक ने रुकने के लिए कहा, तो विठोबा ने पूछा कि मैं कहाँ पर आसन ग्रहण करूँ? इस पर पुंडलीक ने एक ईंट उनकी ओर फेंककर उसपर बैठने को कहा। जब पुंडलीक विठोबा के पास आए, तब पुंडलीक ने वरदान माँगा कि इसी रूप में वे अपने भक्तों को दर्शन देते रहें, तब से पुंडलीक की फेंकी ईंट पर विठोबा अपने दोनों हाथ कमर में रखे हुए खड़े हैं। देवशयनी एकादशी में विठोबा (विट्ठल) अपने शयन के लिए नहीं जाते और अपने भक्तों के लिए अनेकानेक वर्षों से इसी प्रकार खड़े हुए हैं। विठोबा का यह स्वरूप लोकदेवता का है, जिसने भाषा-भूषा-जाति-पंथ के भेद को मिटा दिया। विठोबा को पंडरगे, पंढरीनाथ, पांडुरंग और विठाई माउली आदि नामों से भी जाना जाता है।10 इसी विट्ठल देवता को अपनी भक्ति में रँगकर प्रस्तुत करते हुए अनेक भक्त कवियों ने अपनी-अपनी मानसिकता के अनुसार अलग-अलग रूप दिया। अनेक कहानियों, प्रसंगों, घटनाओं का काव्यात्मक सृजन किया। महिलाओं ने विट्ठल को अपनी भावना में रँगकर अपने निकट देखा, मानवीय रूप दिया। विट्ठल और रखुमाई के प्रेम-प्रसंगों को लेकर अपने मन की अनेक मधुर कल्पनाओं को चित्रमय अभिव्यक्ति दी। कुछ ऐसी रचना भी मिलती हैं, जहाँ विट्ठल-रखुमाई के साथ जनाबाई को जोड़कर प्रेम-त्रिकोण की परिकल्पनाएँ की गयी हैं। सारांश विट्ठल सामान्य जनता का भावनात्मक आलंबन दैवत था। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है, भारत में जनता विशिष्ट देवता का एकांतिक समर्थन या विरोध नहीं करती। अपनी रुचियों, प्रवृत्तियों, स्वप्नों, विचारों, उद्देश्यों के अनुसार देवता की मूर्ति और जीवन को ढालती है, अपने मिथकों की सर्जना करती है। ‘विट्ठल’ यही वह मूर्ति है। परिणामतः सभी प्रकार की समभावना को यहाँ स्थान है। दुर्गा भागवत जी ने तो विट्ठल को महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक की एकात्म संस्कृति का प्रतीक माना है।11 इस परंपरा की प्राचीनता को खोजना असंभव की हद तक कठिन कार्य है। भक्त पुंडलीक के सदृश्य भक्ति को धारण करते हुए अपने आराध्य के प्रति अपने समर्पण को प्रकट करने के लिए गले में तुलसी की माला धारण करने वाले भक्त-समाज को मालकरी संप्रदाय का नाम कब मिला और कालांतर में विट्ठल के दर्शन के लिए भक्त समूहों की वारी (यात्रा) की परंपरा को वारकरी संप्रदाय कब कहा जाने लगा, इसके विषय में विद्वानों ने अपने अनुमान के आधार पर भले ही काल-निर्धारण करने की कोशिश की हो, मगर वारकरी संप्रदाय के नाम से प्रसिद्धि पाने वाली यह भक्ति-धारा, जिसका संबंध पंढरपुर के विठोबा से जुड़ता है, उसने भक्ति आंदोलन में अपने अनूठे स्वरूप का सर्जन किया है।
डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर अपने शोध-ग्रंथ में उद्धृत करते हैं कि- वारकरी संप्रदाय अपने उत्पादकों के नाम से नहीं चला है। वैदिक धर्म के विरुद्ध आवाज इस संप्रदाय ने नहीं उठाई, वरन् उसके तत्त्वों से ही मानवी समता भूमि पर समन्वय करते हुए इस संप्रदाय ने अपना विकास किया है।12 ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि वारकरी संप्रदाय वैदिक धर्म के विरोध के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले भक्ति आंदोलन के प्रभाव से उत्पन्न नहीं हुआ, वरन् अपने प्राचीनतम स्वरूप को समयानुकूल परिवर्तित करते हुए विकसित हुआ है। यह तथ्य ब्रह्म संप्रदाय के साथ इस संप्रदाय के केंद्र पंढरपुर की समकालीनता को भी सिद्ध करता है।
संत ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव ने वारकरी संप्रदाय के तात्विक और दार्शनिक आधार को तैयार करने का काम किया। उन्होंने लोक-प्रचलित भाषा में ज्ञानेश्वरी गीता और अमृतानुभव आदि ग्रंथों का सृजन किया। नामदेव ने अपने अभंग पदो के माध्यम से वारकरी संप्रदाय की लोकप्रियता का विस्तार पंजाब तक किया। नामदेव के साथ ही सांवता माली, जनाबाई, रोहीदास चर्मकार, चोखा महार और नरहरि सोनार आदि भी इस संप्रदाय के विकास में सहायक हुए। ज्ञानदेव के भाई निवृत्तिनाथ, सोपाननाथ और बहन मुक्ताबाई ने वारकरी संप्रदाय के विकास में योगदान दिया। संत भानुदास ने विजयनगर से विट्ठल की मूर्ति वापस लाकर पंढरपुर में मंदिर का भव्य निर्माण करवाया। एकनाथ ने वाराणसी में एकनाथी भागवत का सृजन करके ज्ञान के साथ ही कीर्तन-भजन के माध्यम से भक्ति के सहज स्वरूप को विकसित किया। संत तुकाराम ने अभंग पदों की रचना और उनके संकीर्तन के प्रसार के साथ वारकरी संप्रदाय को समृद्ध किया। इसी तरह निळोबा ने भी विठोबा की भक्ति का प्रसार किया। इनके साथ ही वारकरी संप्रदाय की समन्वय भावना से प्रभावित होकर कीर्तन करनेवाले मुस्लिम कीर्तनिए भी इस संप्रदाय के साथ में आए और यह परंपरा आज भी देखी जा सकती है।13 इस वारकरी पंथ में निम्न जातियों के संतों को भी उनकी साधना के आधार पर सम्मान का स्थान मिला है। इसीलिए नामदेव को खेचर को गुरु मानने में संकोच नहीं हुआ। ज्ञानेश्वर के सखा, सहचर, मित्र, बंधु नामदेव के आत्मीय जनों का परिदृश्य देखने पर पता चलता है कि मध्ययुग में एक महान ‘संत जाति’ निर्मित हो रही थी, जो शूद्र जातिभेदों से ऊपर उठकर श्रद्धेय गं.भा. सरदार के शब्दों से ‘अध्यात्मनिष्ठ मानवतावाद’ का प्रभावपूर्ण आलोक वितरित कर रही थी।14  
उत्तर भारत में भक्ति-आंदोलन का स्वरूप प्रायः दार्शनिक विवेचनों और सांप्रदायिक कट्टरता पर आधारित रहा, साथ ही संतों की अलग-अलग गद्दियों, आचार्यों की विविध मान्यताओं के निर्माण ने ऐसी व्यापकता का सृजन किया, जिसे सरलता के साथ वर्गीकृत कर देना हिंदी साहित्येतिहास के आचार्यों के लिए सुलभ हुआ। जिस समय उत्तर भारत में महिलाओं को साधना में बाधक समझा जा रहा था, मीरां को विष दिया जा रहा था, उस समय मुक्ताबाई और जनाबाई आदि की प्रेरणा से महिलाएँ भी वारकरी की वारी में खुलकर भागीदारी कर रही थीं। जिस समय उत्तर भारत में सगुण-निर्गुण और रामभक्ति-कृष्णभक्ति के दायरे बँध रहे थे, उस समय भी वारकरी संप्रदाय के संत इन सबके समन्वय के लिए समग्र निष्ठा के साथ लगे हुए थे। सगुण और निर्गुण की कट्टरता उत्तर भारत में इतनी ज्यादा थी कि गोस्वामी तुलसीदास को ‘सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा’ कहकर स्थिति को संभालने का प्रयास करना पड़ा। वारकरी पंथ समन्वय का अद्भुत रूप है। विविध हिंदू जातियों, लोक समुदायों के आराध्य दैवतों का समन्वित रूप वारकरी पंथ का आराध्य दैवत है- विट्ठल। गोप, मछुवारे, धनगर इत्यादि निम्न जात के लोगों ने भी विट्ठल में अपने दैवत को देखा और शिवभक्तों ने शिव का रूप भी। नामसंकीर्तन की महत्ता को व्यक्त करते समय ज्ञानेश्वर ने लिखा है- ‘कृष्ण-विष्णु-हरि-गोविंद । एयां नामांचे निखिल प्रबंध.’ अर्थात् कृष्ण, विष्णु, हरि या गोविंद किसी भी नाम से देवता का संकीर्तन किया जा सकता है।15 पंढरपुर को दक्षिण काशी के नाम से भी जाना जाता है, जिससे यहाँ पर शैव संप्रदाय के साथ संबंधों को समझा जा सकता है।
उपासनाभेद का आश्रय लेकर उत्तर भारत में विकसित हुई भक्ति-धारा में ‘संत’ की उपाधि निर्गुण धारा के लिए रूढ़ हो गई, जबकि महाराष्ट्र में ‘संत’ की उपाधि सज्जन और निष्काम-समर्पित भक्ति की धारा में डूब जाने वालों के लिए थी। इसी आधार पर ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ आदि को जनसामान्य ने ‘संत’ की उपाधि से विभूषित किया। ‘संत’ की उपाधि के कारण उत्तर भारतीय भक्ति परंपरा में इनका वर्गीकरण भी कर दिया गया, जिसे वारकरी संप्रदाय की परंपरा और उसकी जीवंत-जागृत चेतना के आधार पर तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है। वैष्णव धारा के प्रमुख ग्रंथ के रूप में मान्य गीता को वैदिक आडंबरों और पौरोहित्य के विरुद्ध संघर्ष का, विरोध का काव्य भी माना जाता है।15 गीता की टीका के रूप में ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई ज्ञानेश्वरी गीता में किसी का विरोध नहीं, बल्कि लोकभाषा में रचित यह काव्य-ग्रंथ समाज को एकजुट करने और नीति का मार्ग दिखाने में अप्रतिम सिद्ध हुआ है। इस ग्रंथ के प्रणयन के माध्यम से संत ज्ञानेश्वर ने जीवन की ओर देखने, जीवन को सफल-सार्थक बनाने की सीख दी है। संत ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी, संत एकनाथ की एकनाथी भागवत और संत तुकाराम की गाथा को वारकरी संप्रदाय की प्रस्थानत्रयी के रूप में देखा जा सकता है, जिनमें किसी के विरोध के स्थान पर सकारात्मक भाव की प्रधानता है, इसी कारण वारकरी संप्रदाय में किसी भी मत-संप्रदाय-विचारधारा और यहाँ तक कि धर्मों के समन्वय को देखा जा सकता है। सभी धर्मों-मतों-पंथों की मूल भावना के समग्र रूप को, विराट के साथ एकाकार होने के भाव को इसी कारण वारकरी संप्रदाय में देखा जा सकता है। वारकरी संप्रदाय की यह विशिष्टता अद्भुत है। इसके साथ ही वारकरी संप्रदाय की एक अन्य विशिष्टता को रेखांकित करना अनिवार्य हो जाता है। मालकरी भक्त गले में तुलसी की माला धारण करते थे और अपने-अपने स्तर पर पूजा-उपासना करते थे। परवर्ती वारकरी भक्तों ने भक्ति के सामाजिक संस्करण को तैयार किया और इस तरह दूर-दराज से चलने वाली कीर्तन मंडलियों के माध्यम से आत्मानंद के सागर में डूबते-तिरते भक्तों ने सामाजिक जीवन, सहकार, संगठन और सामाजिक एकीकरण की ऐसी भावना का विकास किया, जिसे अन्यत्र खोजना संभव नहीं है।
समग्रतः, महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय को विशिष्टताओं के उस पुंज के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें पुरातन भक्ति और उपासना के समस्त संप्रदायों, पद्धतियों, विशेषताओं की ज्योति प्रज्ज्वलित होती है। वारकरी संप्रदाय को परंपरा के क्रम में सीधे उस विधान से जोड़ा जा सकता है, जिसमें मानव-सभ्यता के विकास के साथ आराध्य और आराधक के, उपास्य और उपासक के संबंधों की उत्पत्ति हुई, विकास हुआ। सगुण और निर्गुण के समन्वय के साथ ही जैन-बौद्ध मतों का समन्वय भी पंढरपुर में देखा जा सकता है, कुछ विद्वानों ने अपने शोधों में ऐसा सिद्ध किया है। वारकरी संप्रदाय की इस विशेषता के पीछे भी लोकदेवता विट्ठल की भूमिका को देखा जा सकता है। मतों और संप्रदायों के आपसी विभेदों और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में भक्ति के वास्तविक स्वरूप को भुला देने वाली मान्यताओं के लिए, विद्वान आचार्यों के लिए वारकरी संप्रदाय ने एक दिशा देने का काम किया, संभवतः इसी कारण विठोबा और उनके भक्तों के बीच का संबंध युगों-युगों की यात्रा करके आज भी समन्वय, सौहार्द और अद्धितीय भक्ति-भावना को जीवंत किए हुए है। समूचा पंढरपुर आज भी विट्ठल-विट्ठल के गजर से भरा है। आज भी पताकाओं को लिए हुए भक्तों की टोलियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। हरिकीर्तनों की धूम वहाँ पर मची रहती है और वहाँ चोखा (महार होकर भी) गले लग जाता है।                                    
विट्ठल विट्ठल गजरी । अवधी दुमदुमली पंढरी
होतो नामाचा गजर । दिंहयापताकांचे भार
निवृत्ति ज्ञानदेव सोपान । अपार वैष्णव ते जन
हरिकीर्तनाथो दाटी । तेथे चोखा घानली मिठो ।
संदर्भ-
1. उपासना प्रणालियों तथा भक्ति संप्रदायों का विकास, भक्ति-आंदोलन और साहित्य, डॉ. एम जॉर्ज, प्रगति प्रकाशन, आगरा, प्रथम सं. 1978, पृ. 139,
2. भारतीय चिन्तन की द्वन्द्वात्मक प्रगति, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, भगवतशरण उपाध्याय, जनवाणी प्रेस एण्ड पब्लिकेशनस् लि., बनारस, प्रथम सं. 1950, पृ. 54-55,
3. आर्य और आर्येतर संस्कृतियों का मिलन, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 98,
4. भक्ति आन्दोलन और इस्लाम, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 377,
5. इस्लाम का हिंदुत्व पर प्रभाव, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 366,
6. पौराणिक भक्ति आंदोलन : सामान्य पृष्ठभूमि, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास- प्रथम खंड, डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 179,
7. उपासना प्रणालियों तथा भक्ति संप्रदायों का विकास, भक्ति-आंदोलन और साहित्य, डॉ. एम जॉर्ज, प्रगति प्रकाशन, आगरा, प्रथम सं. 1978, पृ. 137-138,
8. वैष्णव धर्म और दर्शन का क्रमिक विकास, हिंदी एवं मराठी के वैष्णव संत साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा,1968, पृ. 67,
11. मराठी कविता में सर्वधर्म समभाव, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 27,
12. वैष्णव मतों की विभिन्न शाखाएँ संप्रदाय और उनका हिंदी मराठी क्षेत्र में क्रमिक विकास, हिंदी एवं मराठी के वैष्णव संत साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा,1968, पृ. 133,
13. मध्यकालीन हिंदी मराठी के संत कवि, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 12,
14. वही, पृ. 12,
15. मराठी कविता में सर्वधर्म समभाव, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 27,
16. गीता-दर्शन अथवा संघर्ष, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, भगवतशरण उपाध्याय, जनवाणी प्रेस एण्ड पब्लिकेशंस लि., बनारस, प्रथम सं. 1950, पृ. 27-40 ।

{लालबहादुर शास्त्री कॉलेज आफ आर्ट्स, सायंस एंड कॉमर्स, सतारा (महाराष्ट्र) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध-पत्र एवं तन्वी प्रकाशन, 857,ब, शनिवार पेठ, सातारा (महाराष्ट्र) द्वारा प्रकाशित (ISBN 978-81-934308-5-9), संपादक- डॉ. भरत सगरे, सहसंपादक- डॉ. विट्ठल नाईक}

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