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Wednesday, 14 May 2025





बदलते नामों और छाँह की दीवार का एक गाँव


चलिए, अब दोबारा कभी मिलना होगा....।

फिर कभी ऐसा संयोग बनेगा, तो मिलेंगे...। यादें साथ रह जाती हैं।

हमारा इतना कहना हुआ, कि तुरंत ही करनल साहब ने बड़े दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया- “साहब! जिंदगी में ऐसे ही मोड़ आते हैं, लोग मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं.....। यह तो एक पड़ाव है, ठिकाना है। जिंदगी भी ऐसी ही है, साहब।”

करनल साहब की बात सुनकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। पिछले तीन दिनों में हमने करनल सिंह को इतने दार्शनिकाना अंदाज में नहीं देखा था। परिचय भी तीन दिन ही पुराना था। निःसंदेह किसी आदमी को एक बार में नहीं जाना जा सकता.... और यहाँ कुल जमा तीन दिन यानि पैंसठ-सत्तर घंटे...। लोग तो बरसों-बरस साथ रहकर भी एक-दूसरे को नहीं जान पाते हैं। खैर, करनल साहब को समझने के लिए हमें इतने लंबे समय की आवश्यकता नहीं थी। खुला हुआ और सीधा-सपाट स्वभाव करनल सिंह का था। जटिलता नहीं थी, जिस कारण बातें सरल और सहज थीं। तब आखिर यह दार्शनिकाना अंदाज कहाँ से आ गया? प्रश्न मन में उठा, उत्तर भी कौंध गया।

वस्तुतः, यह स्थान का प्रभाव बोल रहा था। करनल सिंह जम्मू-काश्मीर पुलिस के संभवतः हवलदार रैंक के कर्मी थे। किसी सरकारी काम ने हमारे साथ करनल सिंह को तैनात कर दिया था, जिस कारण करनल सिंह तीन दिनों तक हमारे साथ थे। हम जिस स्थान पर थे, वह हमारे अनुमान से अतीत के एक रोचक अध्याय से कम न था। उसी स्थान का प्रभाव करनल सिंह के सिर चढ़कर बोल रहा था, ऐसा हमको अनुभूत हुआ, उनके इस कथन को सुनकर।

क्यागर, तिगर, टाईगर, टिगर जैसे नाम...। ये अलग-अलग नाम एक ही गाँव के हैं, जहाँ हम लोग पिछले तीन दिनों से डेरा डाले हुए थे, और आज की सुबह चल पड़ने के लिए तैयार खड़े थे। गाड़ी वाला गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने गया था, क्योंकि हमें लंबा रास्ता तय करना था, और ऊपर से खरदुंग ला को भी पार करना था। खरदुंग हमारे लिए खर तुंग है, जिसकी बड़ी तीव्र चढ़ाई-उतराई है..., तुंग है। विश्व की सबसे ऊँची ‘मोटरेबल रोड’ भी यही है। गाड़ी वाले के आने तक चारों ओर एक बार फिर से नजर दौड़ाकर पूरे क्यागर गाँव की सुंदरता को, इसके आकर्षण को अपनी स्मृतियों के लिए सँजो लेना चाहते थे।

क्यागर गाँव आज भले ही बड़ा शांत और ठहरा हुआ-सा दिख रहा हो, लेकिन अतीत की कल्पनाओं में मन उतरा, तो बहुत गहरे उतरता चला गया। रेशम मार्ग से लगा हुआ क्यागर गाँव एक समय में रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था। समरकंद बुखारा से लगाकर ईरान-ईराक-अफगानिस्तान तक चला जाने वाला यह रेशम मार्ग अपने साथ न जाने कितने लोगों को जोड़ता रहा, अनुमान लगाना कठिन है। अनुमान तो इसका भी नहीं लगाया जा सकता, कि कितनी संस्कृतियाँ, कितने विचार, कितने व्यवहार और कितनी प्रजातियाँ इस रेशम मार्ग से होकर आईं-गई-फैलीं-पसरीं और विचरीं...। इन अनेक यात्राओं के साक्षी रेशम मार्ग के किनारे बसे कितने गाँव और नगर होंगे, यह भी सहज ही नहीं जाना जा सकता।

क्यागर गाँव में न जाने कितने लोग आए होंगे, ठहरे होंगे, कुछ समय के लिए डेरा डाला होगा, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़े होंगे... ठीक वैसे ही, जैसे हम चल पड़ने को तैयार खड़े थे। हर बार जब किसी बटोही ने चल पड़ने के लिए अपना सामान बाँधा होगा, अपने साथियों से भावुक होकर फिर मिलने के वायदे किए होंगे, तब हर बार किसी साथी ने करनल सिंह की तरह दार्शिकाना अंदाज में उत्तर दिया होगा।

पिछले तीन दिनों से जिस आकर्षण में क्यागर ने बाँध रखा था, वह अब तक की हमारी यात्राओं से एकदम अलग था। इसकी गहनता बहुत थी, जो हर बार उस अतीत की कल्पनाओं में उतार रही थी, जिसे आज के समय में मात्र अनुभूत किया जा सकता है। रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र रहा है। लगभग सारी दुनिया ही इस मार्ग की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ी थी। अनेक छोटे-बड़े व्यापारिक मार्ग भी इससे जुड़कर रेशम मार्ग के नाम से जाने जाते थे। यह चीन से मध्य एशिया और फिर योरोप तक जाता था। समरकंद, बुखारा से यारकंद तक जाने वाले रेशम मार्ग को भारत के साथ जोड़ने वाला उपमार्ग क्यागर से होकर जाता था। क्यागर से हुंदर, पनामिक, दिस्किद, खालसर और फिर लेह तक जाने वाला रास्ता भले ही रेशम मार्ग का संपर्क मार्ग हो, लेकिन भारत की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े होने के कारण यह मार्ग बहुत महत्त्व का था। क्यागर रेशम मार्ग के यात्रियों-व्यापारियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था, और एक प्रकार से यह रेशम मार्ग के सबसे निकट का गाँव था। स्वाभाविक ही है, कि इस अतीत को जानकर और अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाए। हमारे जैसे लोगों के लिए तो यह बहुत रोमांचकारी था। एक-एक कण हमें मानों अनेक-अनेक इतिहास की परतों को सँजोए हुए दिख रहा था। पूरे रास्ते भर यही मन में चलता रहा, कि अगर समय से पहुँच जाएँगे, तो आज से ही जिज्ञासा-शमन के प्रयास चालू कर देंगे, दो-चार लोगों से तो मिल ही लेंगे। लेकिन क्यागर तक पहुँचते-पहुँचते धुँधलका हो चुका था। लद्दाख में धुँधलका होना आधी रात हो जाने जैसा ही होता है, क्योंकि सूरज के ढलते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। हमें तो प्रायः यही लगा, कि भीषण सर्दियों की आदतें गर्मियों के मौसम में भी बनी ही रह जाती हैं।


मई-जून का महीना लद्दाख में बहुत ठंडा नहीं होता। रात सात-आठ बजे तक घर के बाहर आसानी से रहा जा सकता है, लेकिन क्यागर में  ऐसा नहीं दिखा। रास्ते में आते समय लोगों को अपनी गायें, बकरियाँ आदि घर की तरफ ले जाते देखा था। हमारे क्यागर पहुँचने तक क्या जानवर और क्या आदमी... सभी अपने दड़बों में पहुँच चुके थे। हमारे पास केवल


विश्राम करने का विकल्प शेष था। भला हो श्रीमान टाशी जी का, वे अचानक ही प्रकट हो उठे थे। उनसे कुछ जानकारी मिल सकती है, ऐसा हमें भरोसा भी हो चुका था। टाशी आंगचुक सेना से रिटायर होकर अपने गाँव में रह रहे थे। प्राथमिक परिचय के बाद उनसे यही सवाल किया, कि आप लेह में क्यों नहीं बस गए? उत्तर मिला, गाँव का प्रेम खींच लाया है। नौकरी भर तो बाहर ही रहे हैं। अब गाँव में रहना अच्छा लगता है।

तो आपको अपने गाँव का अतीत भी पता होगा, कुछ गाँव के बारे में बताइए, तो....।

टाशी जी बोले, इतिहास तो बहुत पता नहीं है, लेकिन छाँह की दीवार के बारे में अपने बड़े-बूढ़ों से सुना है। गाँव सिल्क रूट से जुड़ा था, और बहुत संपन्न था, बस इतना ही पता है। लेकिन आपको कल अपने गाँव के मुखिया और राजपरिवार से संबंध रखने वाले एक महाशय से मिलाने के लिए जरूर ले जा सकते हैं। उनसे आपको बहुत कुछ जानने को मिलेगा। परंपरागत रसोईघर भी आप देख सकेंगे।

श्रीमान टाशी का यह प्रस्ताव मनोनुकूल था। तुरंत ही हामी भर दी। साथ में करनल सिंह भी इन बातों को सुन रहे थे, लेकिन उनकी इसमें कोई रुचि नहीं थी। करनल सिंह खाने की जुगत लगा रहे थे, और फिर उनका विश्राम करने का मन हो रहा था। ऐसा वो दो बार हमें बता चुके थे। टाशी जी भी घर जाना चाह रहे थे। लिहाजा तय हुआ, कि कल सुबह टाशी जी आएँगे और उनके साथ श्रीमान सोनम टुंडुप जी से मिलने के लिए जाएँगे। भोजन के उपरांत विश्राम के क्षणों में भी विचारों का मंथन चलता रहा। रह रहकर छाँह की दीवार, पुरानी रसोई, काराकोरम की गहन कृष्णता के मध्य बिंदु-सदृश आभासित महल के ध्वंसावशेष अपने साथ विगत की यात्रा पर मानों ले जाना चाह रहे थे। रास्ते की थकान कभी इन पर भारी पड़ती, तो कभी ये थकान पर....। कुल मिलाकर रात ऐसे ही कटी और भोर के उजास ने नई ऊर्जा का संचार किया। कल-कल निनाद करती नुबरा नदी का मद्धिम स्वर नीलांबर की वीतरागी शांति को भंग करता-सा लग रहा था। दूर-दूर तक काराकोरम की शृंखलाएँ अलग-अलग रंगों में पसरी हुई-सी ऐसी लग रहीं थीं, मानों तंद्रा में हैं और सुबह के आलस से निकल नहीं पाईं हैं। इन्हीं विचारों में खोए हुए थे, कि टाशी जी ने आकर बताया, कि हमें श्रीमान टुंडुप जी से मिलने चलना है। वे कहीं जाने वाले हैं, इसलिए अभी ही जाना होगा। हम भी तुरंत तैयार होकर चल पड़े।

गाँव के भीतर की गलियाँ अपेक्षाकृत चौड़ी और साफ-सुथरी थीं। घरों को बहुत करीने से सजाया-सँवारा गया था। सोनम टुंडुप जी का घर किसी गढ़ी के जैसा था। बहुत विशाल...। एक ओर जानवरों को बाँधने के लिए क्रम से कोठरियाँ बनी हुई थीं। मुख्य द्वार पर रिग्-सुम (तीन स्तूप) बने हुए थे। उनके नीचे से निकलकर घर में प्रवेश करना था। बड़े-से दरवाजे के दोनों ओर विशालकाय भंडारगृहों में जलाऊ लकड़ी को बड़े व्यवस्थित और कलात्मक क्रम से रखा गया था। पहले माले पर जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं, जिनसे होकर हम ऊपर पहुँचे। बड़े-से विश्राम कक्ष में अनेक सजावटी वस्तुएँ, जिन्हें दुर्लभ की श्रेणी में रखा जा सकता है, सहेजी गईं थीं। टुंडुप जी ने बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया।

टाशी आंगचुक पहले ही हमारे बारे में बता चुके थे, इस कारण हमको बहुत बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी। महाशय टुंडुप जी ने बात क्यागर के बारे में बताते हुए ही प्रारंभ की-- “आज का क्यागर पहले यहाँ नहीं था। यहाँ से पहले तीन जगहों में इसकी बसावट थी। पहले लुंगदो में यह हुआ करता था। लुंगदो से फिर जङ्लम में आकर बसा और इसके बाद जिम्सखङ गोङ्मा बसा।“

टुंडुप जी के बताने पर हम उस ध्वसांवशेष की पहचान कर सके, जिसे काराकोरम की विशाल शृंखलाओं के मध्य एक सफेद बिंदु की भाँति चमकते हुए देखा था। टुंडुप जी बता रहे थे.... 2015 के पहले तक वह महल देखने में ठीक-ठाक था। पहले आसपास तमाम घर भी थे। ये बसावट महल के साथ ही थी। महल को जिम्सखङ कहते थे। यह वास्तव में वंशावली का नाम है, जिससे हमारा खानदान पहचाना जाता है। 2015 की तबाही के बाद इधर सड़क के साथ लोग बस गए।

टुंडुप जी की बातों का क्रम रेशम मार्ग की ओर चल पड़ा था। हमारे साथ बैठे आंगचुक जी भी रेशम मार्ग से जुड़ी बातों को सुनने के लिए जरा सावधान होकर बैठ गए थे। वैसे तो टुंडुप जी ने रेशम मार्ग की गतिविधियों को नहीं देखा, लेकिन उनके पास बड़े-बूढ़ों से सुनी हुई बातों के सहारे अच्छा खासा स्मृतियों का भंडार था, जिसका आस्वाद आज हमको भी मिलने वाला था।

“पहले यहाँ यारकंद से आने वाले व्यापारी ठहरा करते थे। यहाँ पर घास के बड़े मैदान होते थे, जिनमें अलफा-अलफा घास बहुत पैदा होती थी। इसे हमारी भाषा में ओल बोला जाता है। व्यापारी अपने घोड़ों, ऊँटों आदि जानवरों को चराने के लिए यहाँ रुकते थे। व्यापारी सासोमा से तकशा और पनामिक होते हुए इस तरफ को आते थे, दो-तीन दिन रुकते थे और डिगर दर्रा पार करके लेह की तरफ चल पड़ते थे। वापसी भी ऐसे ही होती थी।“ टुंडुप जी इतना बताते हुए थोड़ा रुके, और फिर बड़ी गंभीर भंगिमा में बोल पड़े.... अब तो ओल दिखती ही नहीं हैं... पहले बड़े बुजुर्ग बताते थे कि ऊपर पहाड़ों तक में ओल हुआ करती थी....। अब समय बदल गया है।

“सिल्क रोड के साथ ही अलफा-अलफा भी खतम हो गया...।“ टुंडुप जी का यह कथन बड़ी वेदना में डूबा हुआ था।

रेशम मार्ग कभी देशों की सीमाओं में नहीं बँधा। इसी कारण अनेक संस्कृतियाँ, साहित्य, विचार, चिंतन, दर्शन, विज्ञान, विचार और व्यवहार आदि न जाने कितनी विधाएँ लंबी यात्राएँ करके आती रहीं, जाती रहीं और विस्तार पाती रहीं हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही मार्ग नहीं था। बहुत कुछ इसके साथ जुड़ा है, जिसे समेकित रूप में मानव सभ्यता के विकास-विस्तार के क्रम में जोड़ा जा सकता है। केवल अलफा-अलफा घास ही नहीं, ओल ही नहीं... बहुत कुछ उजड़ा है, रेशम मार्ग के रुक जाने के बाद....। हमारी सीमाएँ बन गईं हैं....।

हमारे मन में एक ओर ये विचार चल रहे थे, और दूसरी ओर टुंडुप जी धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे।

“आप चाय लेंगे, या दूध....” इस विकल्प के साथ आई एक आवाज ने हम दोनों को ही रोक दिया था। हमारे विचारों की गति भी रुक गई और टुंडुप जी भी रुक गए। कुल मिलाकर तय हुआ, कि बढ़िया दूध एक-एक गिलास पिया जाए। गाँव में गौवंश की कोई कमी नहीं थी। शुद्ध दूध-घी-मक्खन तो वैसे भी गाँवों में ही मिल पाते हैं। खैर....। बातों का क्रम फिर आगे बढ़ा...।

अब टुंडुप जी हमें अपनी वंशावली के बारे में बता रहे थे- “हमारा घर का नाम जिम्सखङ है। यह हमारी पहचान कराता है। जिम्सखङ की शाखा ही दिस्किद, हुंदर और खलसर में है। वहाँ पर हमारे वंश का कोई नहीं बचा है। केवल क्यागर में ही है। लेह में कलोन (प्रधानमंत्री) होता है, जो राजा के नीचे होता है। इसके बाद लोनपो (क्षत्रप) होते हैं। इन्हें जिम्सखङ भी कहते हैं।“

टुंडुप जी के इतना बताने के बाद हमारे सामने स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। लेह राजवंश का शासन यहाँ तक था, बगल में स्करदो और गिलगित-बल्टिस्थान आदि थे। हुंदर, दिस्किद, खालसर और क्यागर आदि क्षत्रपों के अधीन पूरी व्यवस्था यहाँ पर चलती थी। कुछ स्थानों पर सुरक्षा चौकियाँ जैसी भी होती थीं, जहाँ से व्यापारिक गतिविधियों की निगरानी हुआ करती थी। आज वे सब नहीं हैं। लेकिन खंडहरों में दबे अतीत को आज भी अनुभूत कर सकते हैं।

रास्ते में आते समय मील के पत्थरों पर टाइगर नाम लिखा हुआ देखा था। जिज्ञासावश इस प्रश्न को टुंडुप जी के सामने रखा, कि यह कोई दूसरी जगह है, या क्यागर विकृत होकर टाइगर बन गया है.....। हमारे इस प्रश्न ने टुंडुप जी की वेदना को ही मानों उखाड़ दिया था......।

“ये ग्रीफ वाले भी ना....। जाने बिना ही किलोमीटर में लिख देते हैं। यह नाम तो गलत है, लेकिन इस नाम से भी जगह को जानते हैं।“

आखिर यह नाम कब बदल गया? मेरे इस प्रश्न पर तुरंत ही टुंडुप जी बोले... बस ऐसे ही यह गाँव बदलते नामों वाला हो गया है....। कोई टाइगर कहता है, तो कोई टिगर कहता है, तो कोई तिगर कहता है.....। किसको क्या कहें......।

तो फिर सही क्या है? हमने पूछा।

सही तो क्यागर ही है....। हमारी भाषा में सफेद को करपो बोलते हैं। वो जो जिम्सखङ महल है ना.... वो दूर से सफेद नजर आता था, इस कारण करपो से क्यागर बन गया, यानि सफेद महल....।      

क्या कोई गाव ऐसा भी होता है जो अपने नाम बदला करे और अगर ऐसे किसी गाव का पता चले जो बदलते नामों वाला गाव है, तो सुनकर आश्चर्य तो अवश्य ही होगा....। हमको भी जब यह पता चला था, तो अलग ही रोमांच हुआ था।  टुंडुप जी के कहे अनुसार समझ में आ रहा था, कि गाँव में सड़क पहुँची, तो बहुत कुछ बदल गया....। यहाँ तक कि गाँव का नाम भी....। वैसे यह विषय बहुत भावुक कर देने वाला था। समय और स्थितियाँ कैसे बदला करती हैं, आज साक्षात् देख रहे थे। एक जमाने में अपनी हनक से पूरे क्षेत्र को प्रभावित करने वाला जिम्सखङ आज ध्वंसावशेष है...। टुंडुप जी बता रहे थे, कि जिम्सखङ की वंशावली में लोनपो सोनम जोलदन को लोग आज भी याद करते हैं। उनके कामों को आज भी याद किया जाता है। मने खङ, गोनपा आदि के निर्माण के साथ ही लोगों के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया है। सोनम जोलदन के बाद सोनम तरग्यास, सोनम दोरजे, सोनम रिगजिन, रिगजिन आंगमो...। महाशय टुंडुप जी रिगजिन आंगमो के दामाद हैं।

लद्दाख में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी है। धर्मराज सेङ्गे नामग्याल की माँ ग्यल खातून, सेङ्गे नामग्याल की पत्नी कलसङ डोलमा और राजा देस्क्योङ नमग्याल की रानी ञिलस़ा वङमो सहित अनेक ऐसी महिलाओं का नाम गिनाया जा सकता है, जिन्होंने राजपरिवार की सीमा से निकलकर सीधे प्रजा से अपने को जोड़ा है। यह जानकर अच्छा लगा, कि क्यागर के लोनपो परिवार की उत्तराधिकारी रिगजिन अंगमो हुईं, और यह क्रम उनकी बेटी ने आगे बढ़ाया है।

टुंडुप जी बता रहे थे, कि एक समय में यहाँ चूना भट्टी भी हुआ करती थी, जिसमें पकी ईंटे बनाई जाती थीं। पूरे लद्दाख में कम से कम हमने तो ऐसी चूना भट्टी नहीं ही देखी थी। लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर एकदम सीमा पर ऐसी व्यवस्था का पाया जाना सिद्ध कर रहा था, कि अपने समय में यह क्षेत्र बहुत समृद्ध रहा होगा। रेशम मार्ग के व्यापार की बंदी ने, फिर प्राकृतिक आपदाओं ने, और फिर सीमांत क्षेत्र के हिस्से आई उपेक्षाओं ने क्यागर सहित अनेक गाँवों को अपने हाल पर छोड़ दिया....।

टुंडुप जी अब छाँह की दीवार के बारे में बता रहे थे- “क्या पता चूना भट्टी से पकाई गई ईंटों से छाँह की दीवार बनाई गई हो.....।“

अब वह दीवार तो नहीं दिखती, लेकिन स्मृतियाँ जीवंत हैं। दूर-दूर तक फैले मैदान में छाँह ढूँढ़ना संभव नहीं...। नुबरा घाटी तो वैसे भी बर्फ का रेगिस्तान कही जाती है। हुंदर के आसपास रेगिस्तान जैसी आकृतियाँ मिलती हैं। संभवतः किसी शासक ने नया प्रयोग किया हो, और धूप से बचने के लिए छाँह की दीवार बनवा दी हो, जिसमें यात्री और जानवर दोनों ही ठहर सकें। धर्मशालाएँ और प्याऊ जैसे धर्मार्थ कार्य तो बहुत सुने होंगे, लेकिन यह काम अनूठा लगा...। टुंडुप जी छाँह की दीवार के बारे में बहुत तो नहीं बता सके, लेकिन इतना अवश्य संकेत दिया, कि जाते समय चूना भट्टी के खंडहरों को देखते हुए जाएँ। उस जगह को संरक्षित स्मारक के रूप में रखा गया है। सरकारी बोर्ड भी लगा है।

क्यागर गाँव की परिधि में बड़ा चरागाह हुआ करता था। समरकंद, बुखारा, यारकंद, लेह आदि से आने वाले व्यापारी यहाँ के लोगों से किराए पर चरागाह लेकर अपने जानवरों को चारा खिलाते थे। एक-दो दिन इसी बहाने रुकते थे, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते थे।

महाशय टुंडुप जी से लंबी वार्ता हो चुकी थी। परंपरागत रसोई भी देखी जा चुकी थी, जिसमें कलात्मक आकृतियों वाले ताँबे और पीतल के बर्तन सहेजे हुए थे। पुराने अंदाज का चूल्हा भी था, जिसके आसपास बैठकर भोजन के आस्वाद के साथ ही बतकही का आनंद लिया जा सकता था। शीत की विकरालता के समय रसोई लद्दाख के लोगों के लिए बड़ा सहारा हुआ करती थी। क्यागर गाँव में आज भी ऐसा ही है, यह जानकर मन को बड़ी तसल्ली मिली, कि परंपराएँ अभी भी जीवंत हैं।

महाशय टुंडुप जी से विदा लेकर हम और आंगचुक जी वापस लौट रहे थे। रास्ते भर हमलोग बतियाते चले आए। हमारे लिए अनुभूत करना सहज हुआ, कि कैसे यहाँ व्यापारी रुकते रहे होंगे, किस तरह अलग-अलग संस्कृतियों का मिलन होता रहा होगा....। न जाने कितने चित्र मन में चलते चले गए...। चित्रपट की तरह...। आंगचुक जी थोड़ी देर बाद आने को कहकर चले गए।

लौटने पर देखा, तो करनल जी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। साहब.... बहुत समय लगा दिया...। भोजन का समय हो गया है....। क्या करेंगे?

करनल जी के लिए यह रुचि का विषय नहीं है, इसलिए साथ ले जाना उचित नहीं समझा था। देर तो हो ही चुकी थी, साथ ही अपने काम में भी लगना था, जिसके लिए यहाँ आए थे....। अतः करनल जी से कहा, कि भोजन कर लेते हैं।

“रसोइया नहीं आया था, वह किसी जरूरी काम से अचानक ही चला गया है। किसी दूसरे को भेजने के लिए कह रहा था, तो मैंने ही मना कर दिया....।“ करनल सिंह ने बताया।

.....आज साहब को अपने हाथ का बना चावल खिलाना है।

हमने कहा, ठीक है....।

साहब! लेकिन आपको पसंद न आया, तो क्या करेंगे?

हमने कहा, चलो देखते हैं...।

करनल जी ने गरमागरम चावल निकाले, जो केवल प्याज से छौंक कर एकदम अलग तरीके से बनाए गए थे। सुंगध बरबस खींच रही। हमने पूछा, कि यह कौन-सा व्यंजन है?

करनल साहब ने बताया.... पुलाव है....।

हमने कहा, पुलाव तो ऐसा नहीं होता...। स्वाद भी अलग-सा है।

करनल जी ने कहा, कि हो सकता है.....।

हमने कहा, तो इस पुलाव को अलग नाम दे देते हैं....।

पनीर के कई सारे व्यंजन होते हैं, जैसे पनीर पसंदा, पनीर पक्का, पनीर टिक्का आदि....। वैसे ही पुलाव के भी कई नाम हो सकते हैं....।

करनल जी इस पर कुछ नहीं बोले, और उनके मौन को सहमति मानते हुए हमने इस विशेष विधि से बनाए गए पुलाव को करनल पुलाव नाम दे दिया...।

करनल पुलाव.....। हा! हा!...... साहब आप भी बड़े मजाकिया हैं....। करनल जी बोले...।

हमने कहा, इसी बहाने आपको, इस सुस्वादु भोजन को, इस स्थान को, आज के दिन को याद रखेंगे.....।

ठीक है, साहब...। कहकर करनल सिंह ने अपनी थाली में ध्यान केंद्रित कर लिया।

हमने भी तुरंत भोजन समाप्त किया और अपने काम में लग गए।

अगला दिन व्यस्तताओं भरा रहा, लेकिन क्यागर के अतीत में जब भी उतरने का अवसर मिलता, क्षण भर का ही सही... अवसर पाते ही मन उतर पड़ता। गाँव के कई लोगों से मिलना हुआ, तरह-तरह की बातें जानने को मिलीं...। गाँव के युवा शहरों को जा चुके थे, अधेड़ और वृद्धों की संख्या ही अधिक दिखती थी। सैलानियों की गाड़ियों से चहल-पहल बनी रहती थी। फिर भी एक रिक्तता, एक अजीब-सा वीरानापन, सूनापन अनुभूत होता था। शब्दों में जिसे बाँध पाना कठिन लगता है। मेहमानों के चले जाने पर घर जिस तरह सूना हो जाता है, कुछ वैसा ही...।

अगली सुबह यहाँ से हमें भी निकलना है। यह भी तब ध्यान में आया, जब करनल सिंह ने बताया, कि अब रात भर बितानी है....।

दरअसल करनल सिंह को तीन दिन बड़ी कठिनाई के लगे थे। नगरों-महानगरों की जैसी चहल-पहल यहाँ नहीं थी। बहुत धीमे-धीमे सब चल रहा था, रात भी धीरे-धीरे बीती...सुबह भी हो गई, और करनल साहब कील-काँटा, वर्दी-बूट दुरुस्त करके सुबह से ही तैनात हो गए थे। हमको ही कुछ देर हुई थी...।

भला हो, गाड़ी वाले का, कि निकलने से पहले गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने के लिए निकल गया था, सो हमें भी कुछ समय मिल गया....। खैर.... तैयार होकर गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे और पिछले तीन दिनों का घटनाक्रम चित्रपट की भाँति चल रहा था। कब गाड़ी वाला गाड़ी लेकर आ गया और सामान रखकर चलने को तैयार हो गया, पता ही नहीं चला....।

“चलें, साहब...। गाड़ी आ गई है, सामान भी रख गया ....।“ करनल सिंह ने कहा...।

हम भी उठे, और चल पड़े...।

केवल विदा करने वाले का मन भारी नहीं होता, विदा लेने वाले का मन भी भारी हो जाता है...। रास्ते में टाशी आंगचुक मिल गए थे...। उनसे विदाई ली...। फिर मिलेंगे, यह वायदा किया। गाड़ी चल पड़ी...। तेजी के साथ क्यागर गाँव का वह धवलाभ ध्वंसावशेष पीछे छूटता जा रहा था। काराकोरम की ऊँचाइयों पर कहीं रेशम मार्ग की छाप दिखाई दे रही थी। ऐसे ही सैकड़ों वर्षों से ये डेरा-पड़ाव लगते उखड़ते रहे होंगे...। लोग मिलते बिछुड़ते रहे होंगे...। अनगिनत कहानियाँ बनती रहीं होंगी...। बदलते नाम और छाँह की दीवार के इस गाँव ने अपने साथ कितने ही किस्से सहेज रखे होंगे...। और हमने करनल सिंह के साथ करनल पुलाव को भी जोड़ लिया, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे...।

-राहुल मिश्र

(राजस्थान साहित्य अकादमी की मुखपत्रिका मधुमती, वर्ष- 65, अंक- 03, मार्च 2025 में प्रकाशित)

 

Monday, 9 July 2018

बलखङ चौक से दीवानों की गली तक



बलखङ चौक से दीवानों की गली तक

आज न जाने क्यों धरती के उस निहायत छोटे-से टुकड़े पर लिखने के लिए कलम उठ गई। धरती का वह टुकड़ा, जो इतना छोटा-सा है, कि कुल जमा दो-सवा दो सौ कदमों से नापा जा सकता है। अगर कोई यह समझ बैठे, कि इन दो सौ-सवा दो सौ कदमों को वह ज्यादा से ज्यादा एक घंटे में तय कर लेगा, तो ऐसा भी संभव नहीं है। यह सफ़र सैकड़ों वर्षों का है। ऊन के धागों की तरह उलझे अतीत को सुलझाकर सीधा-सरल करने का है। हमारे जैसे कई लोगों ने सैकड़ों वर्षों के इस सफ़र को सैकड़ों बार तय किया होगा, मगर आज तक यह सफ़र पूरा हो पाया, कहना कठिन है। शायद इसी कारण बलखङ चौक से दीवानों की गली तक के दौ सौ कदमों के सफ़र को शब्दों में नापने की प्रबल इच्छा मुखर हो उठी, फिर पन्नों में बिखर पड़ी।
मध्य एशिया के चौराहे पर स्थित वह बड़ा बाजार, जो आकार में बहुत छोटा है, उसे अगर अपनी आत्मीय निकटता के कारण हमारे जैसे सिरफिरे लोग दुनिया की छत पर स्थित सबसे पुराना बाजार भी कह दें, तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। इतना ही नहीं, यह पुराना बाजार केवल उत्पादों या वस्तुओं के व्यापार के लिए ही नहीं, वरन् संस्कृतियों-तहजीबों-जीवन जीने के रंग-ढंगों की अदला-बदली के लिए भी अपनी अनूठी पहचान रखता है, फलतः इसे बाजार की परंपरागत परिभाषा तोड़ने वाला अनूठा बाजार भी कहा जा सकता है। अगर इस अनूठे-अतुलनीय बाजार को समूचे लदाख की जीवन-धारा कह दिया जाए, तो शायद शब्दों की बेमानी हो जाएगी। लदाख अंचल का धड़कता हुआ दिल अगर है, तो वह लेह बाजार ही है। इसीलिए सुदूर अतीत से लगाकर आँखों के सामने नजर आते वर्तमान तक लदाख अंचल की हर हरारत को लेह बाजार अपने में गिनता है, गुनता है, बुनता है। इसीलिए बलखङ चौक से लगाकर दीवानों की गली तक का एक फेरा लगाए बिना किसी भी पर्यटक की, किसी भी यात्री की लदाख यात्रा पूरी नहीं मानी जा सकती। इतना ही नहीं, लेह के आसपास के गाँवों में रहने वाला कोई व्यक्ति अगर लेह आया है, तो लेह बाजार का एक फेरा लगाए बिना उसकी यात्रा भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होती। लब्बो-लुबाब यह, कि बड़े-बड़े राजाओं-वजीरों से लगाकर जेब में हाथ डाले फोकट टहलने वाले अदने-से लोगों तक के लिए धरती का यह सुंदर-सा, छोटा-सा टुकड़ा आकर्षण का केंद्र रहा है।
बलखङ चौक कहने के लिए तो चौक है, मगर चौक जैसा कुछ नजर आता नहीं है। यहाँ दो तिराहों का मिलन है, और चारों दिशाओं की ओर जाते रास्तों को केवल महसूस किया जा सकता है। वैसे बलखङ चौक में एक बात और भी महसूस होती है, जो इस चौक के अपने नाम के साथ जुड़ी पहचान को खूबसूरत तरीके से सामने लाती है। बलखङ चौक से पूरब की ओर थोड़ा नीचे उतरने पर दाहिनी ओर एक सँकरी-सी गली अंदर जाती दिखती है, जो एकदम से बाजार की शक्ल अख्त़ियार कर लेती है। पुराने ढर्रे की छोटी-बड़ी कई दुकानें, जिनमें बर्तनों के साथ ही फटिंग (सूखी खूबानियाँ), छुरपे (याक के दूध का सूखा पनीर), पाबू (चमड़े के देशी जूते) जैसी लदाखी वस्तुएँ बिकती दिखाई देती हैं। इनके साथ ही देशी होटल, या कहें कि ‘चाय पर चर्चा’ और अड्डेबाजी के लिए मुफीद कुछ दुकानें भी हैं, जो सुबह से शाम तक गुलज़ार रहती हैं। इनमें थुक्पा (लदाखी नमकीन सेवइयाँ), पाबा (जौ के आटे में खड़ी मसूर दाल मिलाकर बनाया गया लदाखी व्यंजन), मोमोस, सोलज़ा (मीठी दूधवाली चाय), गुर-गुर (नमकीन मक्खन वाली चाय), तागी (नानवाई की तंदूरी रोटियाँ) और समोसा जैसे व्यंजनों की उपलब्धता रहती है। महँगे होटलों जैसी परंपरा यहाँ पर नहीं मिलती। एक गुर-गुर चाय के साथ आप घंटों बैठकर यहाँ गप्पें मार सकते हैं। ये दुकानें नुबरा, पुरिग और शम आदि इलाकों के बल्तियों की हैं। लदाख की प्रजातिगत व्यवस्था में मोन, दरद और बल्ती प्रजातियों का प्रभुत्व रहा है। आठवीं शताब्दी के बाद तिब्बत की तरफ से आने वाली भोट प्रजाति का वर्चस्व स्थापित होने के बाद दरद और मोन प्रजातियाँ हाशिये पर सिमटती गईं। बल्ती समुदाय की स्थिति अपेक्षाकृत सुदृढ़ रही।
बल्ती समुदाय को आर्यों की भारतीय-ईरानी शाखा और मंगोलों की मिश्रित प्रजाति का माना जाता है। हालाँकि बल्तियों के नाक-नख़्श-रंग और कद-काठी को देखकर मंगोलों की मिश्रित प्रजाति का कहा जाना उचित प्रतीत नहीं होता है। वैसे तो रेशम मार्ग में होने वाले व्यापार के साथ बल्तियों का वजूद बलखङ में स्थापित हो गया होगा, मगर लदाख में हुई राजनीतिक उथल-पुथल ने बड़े रोचक और रोमांचकारी तरीके से बल्तिस्तान के साथ लदाख को जोड़ दिया। यह घटना है, सन् 1600 ई. के आसपास की, जब बल्तिस्तान में खरच़े के सुलतान और चिगतन के सुलतान के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई थी; उसी समय लदाख के शासक राजा जमयङ नमग्यल अपने राजनीतिक लाभ के लिए दोनों के बीच कूद पड़े। अंत में हुआ यह, कि सारे बल्ती शासक इकट्ठे हो गए और स्करदो के बल्ती सुलतान अली मीर के नेतृत्व में राजा जमयंग नमग्यल को फोतो-ला दर्रे के पास ही घेर लिया। राजा जमयङ नमग्यल को सुलतान अली मीर ने कैद कर लिया और बल्ती सेना ने लदाख की अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहरों को तहस-नहस कर डाला। बाद में सुलतान अली मीर ने राजा जमयङ नमग्यल के सामने शर्त रखी, कि अगर वे इस्लाम कुबूल कर लें, सुलतान की पुत्री ग्यल खातून से शादी कर लें और उससे उत्पन्न पहली संतान को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दें, तो उन्हें आजाद कर दिया जाएगा। राजा ने अपनी जान बचाने के लिए इन शर्तों को स्वीकार कर लिया। कहा जा सकता है, कि ये शर्तें निहायत अपमानजनक थीं, किंतु रानी ग्यल खातून की सूझबूझ और महासिद्ध स्तगछ़ङ् रसपा के प्रभाव के कारण यह शर्त आने वाले समय में लदाख के लिए बदलाव की बयार लेकर आई।
बल्ती राजपरिवार से आई रानी ग्यल खातून अत्यंत कलाप्रेमी थी, इस कारण उसके साथ कई बल्ती संगीतकार, चित्रकार आदि भी लदाख पहुँचे। राजा जमयंग नमग्यल के वंशज और रानी ग्यल खातून के पुत्र राजा सेङगे नमग्यल ने सन् 1616 ई. में लदाख का राजपाट सँभाला। उस समय राजा अल्पवयस्क थे, इस कारण रानी ग्यल खातून ही राजकीय कार्यों को संचालित करती थीं। ऐसा माना जा सकता है, कि इस समय बलखङ के आसपास बल्ती व्यापारियों और कलाकारों की बस्ती विधिवत स्थापित हुई होगी। आवास को लदाखी भाषा में ‘खङ’ कहा जाता है। इस तरह बल्तियों के आवास के कारण कहलाए बलखङ से जुड़कर बलखङ चौक प्रसिद्ध हुआ होगा, ऐसा कहा जा सकता है।
बलखङ चौक के दूसरी ओर बने एक बगीचेनुमा खाली मैदान की दीवार के किनारे-किनारे तमाम विक्रेता अपनी परंपरागत वेशभूषा धारण किए हुए फटिंग, काजू, बादाम और देशी मक्खन आदि बेचते दिखाई देते हैं। इनमें से अधिकांश डोगपा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हैं। डोगपा समुदाय को आर्य प्रजाति के भारतीय-ईरानी समूह का माना जाता है। इन्हें दा-हानु के दरद के रूप में जाना जाता है। ‘दरद’ के रूप में इन्हें पहचानना भी अपने आप में एक रोमांचकारी कल्पना है। श्रीरामकथा-वाचक कैलास के अधिपति शिवजी के रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं-
कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनि चीरा ।। (01/106/06)
वे शिवजी की देह को दर, अर्थात् शंख के समान वर्ण वाला बताते हैं। संभव है, कि दरदिस्तान के दरदों के लिए यह पहचान उनकी ‘दर देह’, उनके गौरवर्ण, सुगठित-स्वस्थ शरीर, शंख समान सुंदर ग्रीवा आदि के कारण मिली हो। भले ही यह कल्पना-मात्र हो, किंतु इस कल्पना के माध्यम से पुरातन सांस्कृतिक सूत्रों को जोड़ने वाले ये दरद बलखङ चौक में अपनी उपस्थिति से एक सुंदर-सुखद अनुभूति को सहसा उपजा देते हैं। डोगपा समुदाय को आभूषणों और पुष्पों से बहुत प्रेम है, ऐसा सहज ही दिखाई दे जाता है। स्थानीय ‘टूरिस्ट-गाइड’ इनका परिचय भी बड़े रोचक तरीके से ‘गमला पार्टी’ के रूप में कराते हैं। बड़ी लंबी लटकनों वाले आभूषणों के साथ ही रंग-बिरंगी टोपी में कई तरह के फूलों को सजाए डोगपा समुदाय के लोग रास्ते चलते किसी भी व्यक्ति को सहज ही आकर्षित कर लेते हैं। इनके चेहरे पर खिली मुसकान, सर्दी के दिनों में रूखी-सूखी धरती पर सुगंधित पुष्पों की अनुभूति को साझा करती गमलेनुमा टोपी और इनकी सहजता-सरलता हर समय देखी जा सकती है। आप इनके साथ खड़े होकर आसानी से फोटो खिंचवा सकते हैं।
किसी ‘गमला पार्टी’ की दुकान के साथ खड़े होकर पश्चिम की ओर देखें, तो सामने जामा मसजिद अह्ली सुन्नती दिखाई देती है। कहा जाता है कि सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लदाख में तिब्बत की सेना ने हमला कर दिया था। उस समय मुगल सेना ने तिब्बती आक्रांताओं का डटकर मुकाबला किया था और लदाख को बचाया था। इस घटना के बाद दिल्ली के मुगल दरबार की शर्तों के अधीन लेह के मुख्य बाजार में इस जामा मसजिद का निर्माण राजा देलेग नमग्यल के शासनकाल में हुआ। वैसे मुगल दरबार का प्रत्यक्ष और बड़ा हस्तक्षेप लदाख अंचल में नहीं रहा, किंतु इस मसजिद के माध्यम से मुगल साम्राज्य की यादें लदाख अंचल के साथ जुड़ी हुई हैं।
बलखङ चौक से जामा मसजिद तक बिखरी रंग-बिरंगी रौशनियों और चहल-पहल की गवाहियों को दर्ज करती लेह बाजार की मुख्य सड़क है। अतीत से वर्तमान तक अनेक बदलाव इसने देखे हैं। आज का लेह बाजार जितनी गगनचुंबी इमारतों और रंग-बिरंगी रौशनियों से जगमग करता दिखाई देता है, उतना इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक से पहले नहीं था। इसका मतलब यह भी नहीं, कि लेह बाजार में रौनक नहीं होती थी। अंतर केवल इतना था, कि उस समय पक्की दुकानें गिनी-चुनी ही थीं, और दो-तीन मंजिला दुकानें तो थी हीं नहीं। इसके विपरीत आज पुरानी अदा वाली कच्ची ईंटों से बनी दुकानें एक या दो ही बची हैं, जो गुजरे अतीत की थोड़ी-सी झलक दिखा जाती हैं। लेह बाजार के सौंदर्यीकरण ने एक नई मादकता को अजीबोगरीब ढंग से बिखेर दिया है। लेह बाजार में घुसते ही एक ऊँचा-सा मंचनुमा प्लेटफार्म बन गया है, जिसका असल काम तो वाहनों के प्रवेश को रोकना है, मगर यह कभी-कभी दूसरी भूमिका भी निभा लेता है। ‘म्यूजिकल कंसर्ट’ और ‘ओपन एयर डांस शो’ जैसे आयातित आयोजनों के लिए यह एक अच्छा मंच बन जाता है। लेह घूमने आने वालों के लिए ऐसे आयोजन रोचक हो जाते हैं।
यह बदलाव भले ही इक्कीसवीं सदी के आधुनिक लेह बाजार को पेश करता हो, मगर बहुत कुछ अब भी नहीं बदला है। आसपास के गाँवों से ताजी हरी सब्जियाँ लेकर आने वाली लदाखी महिलाओं की ‘फुटपाथिया दुकानें’ दोपहर के चढ़ते ही सज जाती हैं। शायद घर के सारे कामकाज निबटाकर, खेतों से सब्जियाँ निकालकर ये महिलाएँ पूरी मुस्तैदी और तरो-ताजगी के साथ उपस्थित होती होंगी। भली बात यह है कि लदाख में अब भी पुराने देशी बीज उपलब्ध हैं, इस कारण देशी टमाटर, महकती धनिया-मेथी, मिठास से भरी मटर और लदाख की अपनी पहचान में शामिल ताजी खूबानियों से सजी दुकानें अपनी तरफ बरबस ही आकृष्ट कर लेती हैं। उम्रदराज दुकानदार को ‘आमा-ले, जूले’ अभिवादन करके आप तसल्ली से बैठकर खरीददारी कर सकते हैं। थोड़ा-बहुत हँसी-मजाक इस खरीददारी को रोचक बना देता है। अपने खेत का ही उत्पाद है, सो ‘आमा-ले’ आपको एक-दो खूबानियाँ या मटर की कुछ फलियाँ यूँ ही खाने के लिए दे सकती हैं। कम से कम इन ‘फुटपाथिया दुकानों’ में व्यावसायिक प्रतिबद्धता की जटिलता देखने को नहीं मिलेगी। वैसे पहाड़ी संस्कृति ऐसी मानी जाती है, जहाँ महिलाएँ ही सबसे ज्यादा खपती हैं, और अपने बूते परिवार की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की ताकत रखती हैं। इससे कहीं आगे अगर महिला सशक्तिकरण के सच्चे-सटीक उदाहरण को खोजना हो, तो इसके लिए लदाख की महिलाओं से बेहतर उदाहरण मिलना कठिन ही लगता है।
बदलाव तो लेह बाजार में स्थित हिंदू धर्मशाला की इमारत में भी देखने को नहीं मिलता है। आसपास की गगनचुंबी इमारतों और आलीशान दुकानों के बीच अपने कच्चे और पुराने ढर्रे के अटारीनुमा भवन के साथ आज भी कायम हिंदू धर्मशाला गौरवपूर्ण अतीत की साक्ष्य प्रतीत होती है। लेह से यारकंद तक का रास्ता रेशम मार्ग या सिल्क रूट का सहायक मार्ग माना जाता था। लेह में होशियारपुर और कुल्लू आदि के व्यापारी भी बड़ी संख्या में आते थे। व्यापारियों के लिए लेह में कई सराय और धर्मशालाएँ रही होंगी, मगर आज लेह में धर्मशाला के नाम पर यही एक धर्मशाला दिखाई पड़ती है। हिंदू धर्मशाला की पुरातनता का बोध इसमें लगे टीन के बोर्ड से भी हो जाता है। बोर्ड के मुताबिक धर्मशाला का अस्तित्व 23 भाद्रों, संवत् 1994 से है। हो सकता है, कि यह बोर्ड जीर्णोद्धार के बाद लगाया गया हो। अगर बोर्ड में उल्लिखित तिथि को ही आधार मान लें, तो अस्सी हिमपात और लदाखी बसंत हिंदू धर्मशाला ने भी देखे हैं। डोगरा शासकों के शासन को, रेशम मार्ग में होने वाली व्यापारिक गतिविधियों के अवसान को, देश की आजादी को, और फिर आज की आधुनिकता में बदलते अपने आसपास के परिवेश को, परिस्थितियों को हिंदू धर्मशाला ने देखा है, सुना है।

यह अलग बात है, कि आज इसकी देखरेख करने वाले लोगों में से बहुत कम ही इसके गौरवपूर्ण अतीत पर कुछ बता पाएँ। प्रसिद्ध घुमक्कड़शास्त्री और हिमालयी धर्म-संस्कृति-अध्यात्म-दर्शन को यत्नपूर्वक खोजकर सामने लाने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन अपनी लदाख यात्राओं के दौरान इसी हिंदू धर्मशाला में रुका करते थे, ऐसी मान्यता है। इसी धर्मशाला के किसी एकांत कक्ष में बैठकर उन्होंने लदाख के बारे में अपने अनुभवों को लिपिबद्ध किया होगा। अगर सच में ऐसा है, तो हिंदू धर्मशाला घुमक्कड़ी में रुचि रखने वाले लोगों के लिए तीर्थस्थान से कम नहीं।

वैसे एक अद्भुत और अनूठा तीर्थस्थान जामा मसजिद के ठीक पीछे भी है। यह ऐसा तीर्थस्थान है, जहाँ आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व ही पर्यावरण संरक्षण और हरियाली के संवर्धन का संदेश दिया गया था, वह भी लदाख के बर्फीले रेगिस्तान में बैठकर। सन् 1517 ई. में गुरु नानक अपनी दूसरी उदासी के दौरान लदाख पधारे थे, और लेह में भी उन्होंने समय बिताया था। ऐसी मान्यता है कि गुरु नानक ने अपनी दातून को यहाँ पर जमीन में खोंस दिया था, जिसने कालांतर में एक विशाल वृक्ष का रूप ले लिया। उस विशाल वृक्ष को आज भी देखा जा सकता है। गुरु नानक की दातून के कारण इस स्थान को गुरुद्वारा दातून साहिब कहा जाता है। लदाख की धरती भले ही रूखी-सूखी हो, किंतु यहाँ पर क़लम जैसे तनों को धरती में रोप देने पर वे भरे-पूरे वृक्ष का रूप ले लेते हैं। इस विशिष्टता को देखते हुए गुरुद्वारा दातून साहिब के प्रति आस्था बलवती हो जाती है। अगर देखा जाए, जो गुरुद्वारा दातून साहिब अन्य गुरुद्वारों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ गुरु नानक की उपस्थिति को अनुभूत किया जा सकता है, विशालकाय वृक्ष के माध्यम से।
गुरुद्वारा दातून साहिब के आसपास नानवाई की कई दुकाने हैं, जहाँ तंदूरी रोटी बनती है। लदाख के अतिरिक्त देश-भर में इस तरह नानवाई की दुकानें मिलना दुर्लभ हैं, क्योंकि इनका संबंध रेशम मार्ग के व्यापारियों से रहा है। लदाखी में ‘तागी’ के नाम से अपनी पहचान रखने वाली और आज के हिसाब से तंदूरी रोटी का आगमन यारकंद से यहाँ पर हुआ। रेशम मार्ग के व्यापारी अपनी यात्रा के लिए इन्हीं रोटियों को ले जाते थे। इस तरह नानवाई का काम भी यहाँ एक व्यवसाय के रूप में विकसित हो गया। रेशम मार्ग बंद हो जाने के बाद ये यहीं पर बस गए। यहीं पर आज का ‘सेंट्रल एशियन म्यूज़ियम’ भी है, जो रेशम मार्ग के चलन के समय इबातगाह और शरणगाह हुआ करता था। आजादी के बाद के वर्षों में कुछ संस्कृतिप्रेमी जागरूक नागरिकों ने इसे संग्रहालय का रूप दे दिया, जिसमें रेशम मार्ग से जुड़ी अनेक स्मृतियों को संचित करके रखा गया है। ऐसा कहा जाता है, कि आज के ‘सेंट्रल एशियन म्यूजियम’ के आसपास कहीं डोगरा शासकों की कुलदेवी का छोटा-सा मंदिर भी हुआ करता था, जिसे जनरल जोरावर सिंह ने बनवाया था।
स कथा-यात्रा के घुमावदार मोड़ की तरह जामा मसजिद से दाहिनी ओर, और एक बार फिर दाहिनी ओर मुड़कर मोरावियन मिशन चर्च और स्कूल तक पहुँचा जा सकता है। वैसे तो जामा मसजिद के पीछे नानवाई की दुकानों के बीच से होकर भी एक सँकरी-सी गली मोरावियन चर्च और स्कूल तक पहुँचती है। ऐसा माना जाता है कि लदाख में ईसाई मिशनरियों का आगमन 800 ई. के आसपास ही हो गया था, किंतु यहाँ की विषम जलवायु और निरंतर प्रतिकूलता के कारण मिशनरी यहाँ प्रभावहीन ही रहे। समूचे भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन स्थापित हो जाने के बाद प्रोटेस्टेंट ईसाई मिशनरियों का एक दल ‘हिमालयी मिशन’ की महत्त्वाकांक्षी योजना बनाकर लदाख पहुँचा था। उस समय कश्मीर के महाराजा ने इस मिशन को लदाख में चलाने की अनुमति नहीं दी, फलतः ‘मिशनरी’ हिमाचलप्रदेश के लाहुल-स्पीति क्षेत्र के मुख्यालय केलङ में बस गए और वहीं से उन्होंने लदाखी लोगों पर अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया। बाद में ब्रिटिश हुक्मरानों के अनुरोध के बाद महाराज कश्मीर ने अनुमति प्रदान की और सन् 1885 में मोरावियन मिशन की स्थापना लदाख में हुई। आज के मोरावियन मिशन चर्च व स्कूल का बड़ा योगदान लदाख में शिक्षा, विशेषकर आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में रहा है।
मोरावियन स्कूल के आसपास का इलाका चङ्स्पा के नाम से जाना जाता है। अगर बलखङ चौक बल्तियों के नाम से आबाद है, तो चङ्स्पा भी चङ्थङ के लोगों के कारण अपनी पहचान कायम किए हुए है। वैसे ‘चङ्’ का अर्थ होता है- उत्तर। इस तरह उत्तर की दिशा से आने वाले लोगों को भी चङ्स्पा कहा जाता है। चङ्स्पा, यानि चङ्थङ के निवासी घुमंतू होते थे, इस कारण उनकी आबादी यहाँ पर नहीं दिखाई देती है। चङ्थङ के व्यापारी भी लेह बाजार में आते थे। ये मुख्य रूप से नमक और पश्मीना भेड़ की ऊन आदि का व्यापार किया करते थे। चङ्थङ की छ़ोकर और छ़ोरुल झीलों में बनाए जाने वाले नमक का व्यापार करने वाले चङ्स्पा व्यापारियों के तंबुओं से बनने वाली अस्थायी बस्तियाँ शायद रेशम मार्ग के बंद होने के बाद उजड़ गई होंगी, मगर नाम आज भी जिंदा है। आज के चङ्स्पा में बिखरती पर्यटकों की रौनक को देखकर इसके सुनहरे अतीत को कल्पना में सँजोया जा सकता है। बलखङ चौक से चलते हुए दीवानों की गली तक का सफ़र भी यहीं आकर पूरा होता है। देश की आजादी के बाद के वर्षों में लदाख ने बहुत-कुछ बदलता हुआ देखा। इस समय तक रेशम मार्ग का व्यापार भी बंद हो चुका था। सीमाएँ खिंच गईं थीं, जिन्होंने अखंड भारतवर्ष की संततियों को बाँटकर पड़ोसी बना दिया था। जिस समय सारी दुनिया, और विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप तमाम उथल-पुथल और हलचलों में तंग था, उस समय भी चङ्स्पा में कैसी रौनक होती थी, उसका बड़ा मोहक वर्णन लदाख में तैनात तत्कालीन सेना-प्रमुख कर्नल पी. एन. कौल ने अपनी पुस्तक ‘फ्रंटियर कॉलिंग’ में किया है।
कर्नल कौल अतीत की स्मृतियों को सँजोते हुए अपनी पुस्तक में बताते हैं कि मोरावियन मिशन स्कूल के बगल में सेना की छावनी होती थी, और छावनी के बगल से एक झरना बहता था। झरना इसलिए विशेष महत्त्व का था, क्योंकि लेह की आबादी के लिए पीने का पानी उपलब्ध कराने वाला यह इकलौता ठिकाना था। शाम को अपनी-अपनी गगरियाँ लिए पानी भरने को महिलाओं-युवतियों का आगमन यहाँ पर होता था। इसी रंगत और रौनक के कारण कर्नल कौल ने रास्ते को ‘लवर्स लेन’ नाम दे दिया। अब शायद आप भी समझ ही गए होंगे, कि यही वह दीवानों की गली है, जहाँ आज भी अजीब-सी गुलाबी रंगत चढ़ी रहती है।
भारतवर्ष के अनेक गाँवों की अनूठी पहचान उनके पनघट होते हैं। बड़े-बड़े ‘कॉफ़ी हाउसेज़’ और ‘किटी पार्टीज़’ जैसी आयातित व्यवस्थाओं से बहुत पहले महिलाओं के लिए पनघट और पुरुषों के लिए अथाइयाँ-चौपालें अपने सुख-दुःखों को बाँटने, कुछ मनोरंजन करने और भविष्य की तमाम कार्य-योजनाओं को बनाने का सहज-सरल-सरस मंच उपलब्ध करा देती थीं। भारतवर्ष के अनेक गाँवों में जीवित-जीवंत परंपरा को लेह में देखकर कर्नल कौल इसका जिक्र किए बिना नहीं रह सके, ऐसा सरलता के साथ कहा जा सकता है।
आज दीवानों की गली का वह खूबसूरत झरना सिमट गया है। आसपास उग आए सीमेंट-कंक्रीट के बड़े-बड़े होटलों ने यहाँ की नैसर्गिक सुंदरता को सोख लिया है। घरों में चलने वाली ‘वाटर सप्लाई’ ने पनघट के ‘कान्सेप्ट’ को पुराना साबित कर दिया है। बदलाव की बयार ने स्वाभाविक-सरल और सहज आत्मीय मिलन को व्यावसायिक और बनावटी बना दिया है। सर्दियों की दुपहरी और गर्मियों की साँझ में आज भी ‘लवर्स लेन’ या दीवानों की गली गुलज़ार होती है, मगर पहले जैसी बात अब कहाँ?
बलखङ चौक से लगाकर दीवानों की गली तक अब सबकुछ बदला-सा दिखाई देता है। लेह बाजार के ऊपर प्रहरी की तरह खड़ा ‘लेह पैलेस’ अपने निर्माणकर्ता धर्मराज सेङ्गे नमग्यल को आज भी याद करता है। लेह दोसमो-छे, यानि लेह का सालाना धर्मानुष्ठान आज भी मनाया जाता है। उस समय की अनूठी घुड़सवारी और घुड़सवारों के स्वागत में लेह बाजार में छङ् (लदाखी सोमरस) लेकर कतारबद्ध खड़ी होने वाली महिलाओं को अपने वीर योद्धाओं का उत्साहवर्धन करते हुए देखने वाला लेह बाजार आज पर्यटकों के स्वागत में सजा दिखाई देता है। बलखङ चौक से दीवानों की गली, यानि पूरब से चलते हुए पश्चिम तक पहुँचते-पहुँचते लगभग दौ सौ कदमों में हम बदलती भौगौलिक स्थितियों-सामाजिक संरचनाओं से ही नहीं गुज़र जाते, वरन् तहजीबों-संस्कृतियों के कई पड़ावों को भी पार कर जाते हैं। कई बार बलखङ की अड्डेबाजी से किसी बड़े और महँगे ‘कॉफ़ी हाउस’ में भी पहुँच जाते हैं, खुद को आधुनिक दिखाने के फेर में।









डॉ. राहुल मिश्र

(बाँदा, उत्तरप्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘मुक्तिचक्र’ के प्रवेशांक, जून-2018 में प्रकाशित; संपादक- गोपाल गोयल)

Thursday, 26 October 2017

वारकरी संप्रदाय की उत्पत्ति के आधार और इनका वैशिष्ट्य


वारकरी संप्रदाय की उत्पत्ति के आधार और इनका वैशिष्ट्य

भारतवर्ष की सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था धर्मप्रधान रही है और प्रमुख तत्त्व के रूप में भक्ति की व्याप्ति को भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में देखा जा सकता है। भारतीय विद्वानों के साथ ही अनेक विदेशी विद्वानों ने इस तथ्य पर अपनी सहमति दी है। भक्ति के विविध स्वरूपों का, विभिन्न मतों-संप्रदायों का विकास और विस्तार इस धारणा को निरंतर पुष्ट करता रहा है। इसके साथ युगानुरूप चेतना और उपासकों-भक्तों के वैचारिक संघर्षों के साथ मतों-संप्रदायों का उत्थान-पतन भी होता रहा है। ब्रह्मपुराण में एक श्लोक आता है-
ब्रह्मा कृत युगे पूज्यः स्त्रेतायां यज्ञउच्चते।
द्वापरे पूज्यते विष्णुरहं पूज्यश्चतुर्ष्वापि।। (33.20)
इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मा का संप्रदाय कृतयुग (सतयुग) में प्रचलित था। त्रेतायुग में वैदिक संप्रदाय अपनी यज्ञप्रधान व्यवस्था के साथ प्रचलित हुआ। द्वापर युग में वैष्णव भक्ति प्रचलित हुई और शिव की पूजा-उपासना प्रत्येक युग में प्रचलित रही है। यह श्लोक भारतीय उपासना-पद्धतियों और मतों-संप्रदायों के विकास-क्रम को भी स्पष्ट करता है। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मा की उपासना सबसे पुरानी थी। आज सगुण एवं निर्गुण उपासना जगत् में ब्रह्मा के नाम कोई संप्रदाय नहीं चलता। शताब्दियों के पहले ही अन्य संप्रदायों ने उसे दबा दिया और ब्रह्मा को अपने संप्रदायों के प्रतिष्ठाताओं की अपेक्षा गौण स्थान प्रदान किया। यह प्राचीन जातियों पर नवागत जातियों के विजय का परिचायक है। ब्रह्मा संप्रदाय भारत का प्राचीनतम संप्रदाय था। वेदपूर्व युग के अवैदिक ब्राह्मण जाति के बीच में यह लोकप्रिय रहता था। अनेक देवताओं तथा संप्रदायों का जन्म इसी से हुआ। अतएव ब्रह्मा के संप्रदाय को संप्रदायों का पिता मानना गलत नहीं होगा। वैदिक धर्म से संघर्ष करके वह परिक्षीण हो गया। शिव के शापवश ब्राह्म के संप्रदाय के लुप्त होने की कथा शैव धर्मावलंबियों के नाशकारी आक्रमण की परिचायक है। जैन, बौद्ध, शैव एवं वैष्णव धर्मों ने उसको आत्मसात् करने में पर्याप्त विजय पाई।1  वैदिक संप्रदाय कर्मकांडों पर आधारित था और वैदिक साहित्य भी ज्ञान-तत्त्व को प्रधानता देता था। इस कारण वैदिक साहित्य यज्ञ और नियम के विधानों में इस तरह उलज्ञा कि उसमें पौरोहित्य की प्रधानता हो गई, जिसने कालांतर में ऐसे विरोध को जन्म दिया, जिसकी परिणति वैष्णव भक्ति के रूप में प्रकट हुई। वैदिक धर्म में वर्णित देव-मंडल में विष्णु को प्रधान स्थान प्राप्त नहीं था, किंतु कालांतर में उपासना-शास्त्र के प्रधान देवता के रूप में विष्णु को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ। विष्णु को उपास्य मानकर प्रचलित होने वाले वैष्णव धर्म की व्यापकता के पीछे उसकी धार्मिक, दार्शनिक स्थापनाओं की विशेषता थी और साथ ही समन्वय की अपूर्व भावना भी थी-
किरात  हूणांध्र-पुलिंद  पुल्कसा  आभीर-लङ्का  यवनाश्वशादयः ।
यो न्यै च या या यदुपाश्रया श्रयाः शुद्धन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नमः ।।
भारतवर्ष की अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता के नितांत विलक्षण स्वरूप को प्रकाशित करता श्रीमद्भागवत् का यह श्लोक एक ओर भारतवर्ष के गौरवपूर्ण इतिहास का साक्ष्य प्रस्तुत करता है, तो दूसरी ओर इसमें विष्णु का आश्रय लेकर ब्राह्मण पौरोहित्यवाद के खिलाफ जन-संघर्ष मुखर होता है। भारत में बाहर से आने वाली अनेक जातियों और धर्मों के आक्रांता स्परूप को परिवर्तित और परिशुद्ध करके आत्मसात् कर लेने की यह प्रवृत्ति ऐतिहासिक और भौगोलिक सीमाओं में अद्भुत है। हूण, यवन, ग्रीक, आंध्र और पुलिंद आदि बाह्य आक्रमणकारी जातियों ने विष्णु की उपासना का आश्रय लिया और विष्णु के नाम से प्रवर्तित वैष्णव धर्म को समृद्ध किया। वैष्णव धर्म के प्रमुख ग्रंथ भागवत में इसी कारण उनका उल्लेख आदरपूर्वक किया गया है। ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में वैष्णव भक्ति-धारा के आंदोलन के रूप में विकसित होने का प्रमुख कारण जैन और बौद्ध धर्मों का विकास भी माना जा सकता है। इस संदर्भ में भगवतशरण उपाध्याय लिखते हैं- भागवतधर्म को पुष्टि अधिकतर निम्नश्रेणी के लोगों से मिली। इसके पश्चातकाल में तो इसके गुरुओं तक में अधिकतर निम्नवर्गीय अछूत तक हुए। और एक समय तो बौद्ध-धर्म और भागवत-धर्म की सीमायें एक हो गईं, जब बुद्ध, वैष्णवों के अवतार मान लिये गये और उनकी मूर्ति पुरी के विष्णु मंदिर में जगन्नाथ के रूप में स्थापित की गई। आज भी इस मंदिर के प्राचीरों के भीतर वर्णविधान नहीं है और आर्य जाति, निम्नवर्ण, सवर्ण और अछूत तक एक साथ प्रसाद पाते हैं। इन बौद्ध-धर्म और भागवत-धर्म के सम्मिलित प्रहार ने कम से कम परिणाम रूप में ब्राह्मण वर्णव्यवस्था को चूर-चूर कर दिया। भागवत धर्म में काफी संख्या में विदेशीय विजातीय भी सम्मिलित हुए थे उन्होंने उस धर्म को अपने कंधे दिये। द्वितीय सदी ईस्वी पूर्व के अंत में तक्षशिला के यवन (ग्रीक) राजा अन्तलिखिद ने शुंग वंशीय काशिपुत्र भागभद्र के पास विदिशा के दरबार में हेलियोपोर नाम का अपना ग्रीक राजदूत भेजा था। वह हेलियोपोर वैष्णव हो गया और बेस नगर में विष्णु के नाम पर उसने एक स्तम्भ खड़ा करवाया।2 विष्णु का वामन अवतार भी वैष्णव धर्म के विकास की तीव्र प्रक्रिया और इसके असीमित भौगोलिक विस्तार की विशिष्टता को व्याख्यायित करता है, जिसमें वामन के रूप में तीन पगों में ही सारी धरती को नाप लेने का प्रसंग आता है। ऋग्वेद में वर्णित है-
इदं विष्णुविर्चक्रमे त्रेधानिदधे पदम्। समूलमस्य पांसुरे।। (122-7)
भागवतधर्म के आधार ग्रंथ श्रीमद्भागवत में विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन है। श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध में राम के और दशम स्कंध में कृष्ण के अवतार का वर्णन है। ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व जिस तरह राम को विष्णु का अवतार मान लिया गया था, उसी तरह कृष्ण को भी विष्णु का अवतार मान लिया गया था। इस तरह राम और कृष्ण, दोनों ही भागवत धर्म के प्रमुख आराध्य के रूप में प्रचलित हुए। इतना अवश्य है कि भागवत धर्म में कृष्ण की महत्ता अपेक्षाकृत अधिक प्रतीत होती है। राम का स्वरूप लोकरक्षक के रूप में विकसित हुआ और इस कारण रामकथा ने, रामभक्ति ने वैचारिक गंभीरता और सामाजिक मर्यादा को केंद्र में रखकर विकास किया। वैष्णव धर्म का अंग होने के बावजूद रामभक्ति की धारा अलग तरीके से विकसित हुई और भागवत धर्म या वैष्णव धर्म का प्रसंग उठने पर प्रायः कृष्ण की लीलाओं का वर्णन ही रूढ़ होने लगा।
कृष्ण का लोकरंजक स्वरूप समाज के विभिन्न वर्गों के लिए अपेक्षाकृत सुगम और सुग्राह्य हुआ। डॉ. भण्डारकर के अनुसार प्राचीनकाल में वैष्णव धर्म, मुख्यतः तीन तत्त्वों के योग से उत्पन्न हुआ था। पहला तत्त्व तो यह विष्णु नाम ही है, जिसका वेद में उल्लेख सूर्य के अर्थ में मिलता है। दूसरा तत्त्व नारायण धर्म का है, जिसका विवरण महाभारत के शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में है। और तीसरा तत्त्व वासुदेव मत का है। यह वासुदेव मत वसुदेव नामक एक ऐतिहासिक पुरुष (समय 600 ई.) के इर्द-गिर्द विकसित हुआ था। इन्हीं तीनों तत्त्वों ने एक होकर वैष्णव धर्म को उत्पन्न किया। लेकिन, उसमें कृष्ण के ग्वाल रूप की कल्पना और राधा के साथ उनके प्रेम की कथा बाद में आयी और ये कथाएँ, शायद, आर्येतर जातियों में प्रचलित थीं।3 इस तरह वैष्णव धर्म वैदिक और अवैदिक विचारधाराओं के संघर्ष के फलस्वरूप विकसित हुआ और इसमें कृष्ण के ग्वाल रूप, कृष्ण का श्याम वर्ण, उनके नृत्य-गायन और उनकी रासलीलाएँ उत्तर और दक्षिण के समन्वय के रूप में देखी जा सकतीं हैं। दक्षिण के तिरुमाल या मायोन या कन्नन, उनकी प्रिया नाम्पिन्ने को राधा और कृष्ण के रूप में देखा जा सकता है। दक्षिण भारत में दूसरी-तीसरी शताब्दी से प्रचलित भक्ति-विषयक कविताएँ पाण्डित्य के स्तर पर प्रभावशाली न होते हुए भी आम जनता में भक्ति की धारणा को पुष्ट करने में समर्थ थीं। इन कविताओं का संपादन सर्वप्रथम आलवार कवि नाथमुनि ने किया और यह संग्रह प्रबंधम् के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विष्णु के लोकप्रचलित अवतारों के प्रति आस्था, कर्म के प्रति निष्ठा, सादगी, सहजता, सरलता, समन्वय, समर्पण और निष्काम भक्ति के सुगम संस्करण को पूर्णता के साथ पाने हेतु प्रबंधम् अपेक्षाकृत सफल सिद्ध हुआ होगा, जिसके कारण भक्ति की अविरल धारा का प्रवाह दक्षिण में बहा, जिसमें आलवार संतों-भक्तों का योगदान अविस्मरणीय है। प्रत्येक आलवार का समय निश्चित करने में मतभेद अवश्य है। परन्तु, इस बात पर प्रायः सभी लोग सहमत हैं कि ये बारह विशिष्ट आलवार ईसा की तीसरी सदी से लेकर नवीं सदी तक के बीच हुए हैं। अतएव, यह बात पूर्ण रूप से निश्चित है कि प्रपत्ति, शरणागति, आत्म-समर्पण और एकान्तनिष्ठा से विभूषित भक्ति का सम्यक् विकास और प्रचार आलवारों के साहित्य द्वारा नवीं सदी के पूर्व ही संपन्न हो चुका था तथा उस समय तक दक्षिण की जनता भक्ति से, पूर्णतः, विभोर भी होने लगी थी।4 उत्तर में फैले हुए वेद-विरोधी आंदोलनों के कारण हिंदुत्व का शुद्ध रूप खिसककर दक्षिण चला गया था। यही कारण है कि जिन दिनों उत्तर भारत के बौद्ध-सिद्ध धर्म के बाह्योपचारों की खिल्ली उड़ा रहे थे, उन्हीं दिनों दक्षिण के आलवार और नायनार संत शिव और विष्णु के प्रेम में पागल हो रहे थे।5
बौद्ध-सिद्ध-नाथ परंपराओं के साथ संघर्ष की प्रवृत्ति कालांतर में स्थानांतरित होकर विदेशों से आगत धर्म के साथ स्थापित हुई, फलस्वरूप एक नए आंदोलन का सूत्रपात हुआ। भारत की पुरातन भक्ति-परंपरा के संघर्ष के कालखंड से लेकर नवागत इस्लाम के साथ संघर्ष के कालखंड में दक्षिण भारत का अपना योगदान रहा। आठवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जिन महानुभावों ने कार्य किया, उनमें बहुसंख्यक का आविर्भाव दक्षिण में ही हुआ था; यथा- शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बार्क, माध्व, सायण, बल्लभ आदि। इन मनीषियों ने परंपरागत धर्म एवं दर्शन की नयी-नयी व्याख्याएँ प्रस्तुत करके समस्त भारत की हिंदू जनता को धार्मिक नेतृत्व प्रदान किया।6 समस्त भारतवर्ष में भक्ति-आंदोलन के प्रणेता के रूप में दक्षिण के आलवार और नायन्मार कवियों-संतों के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक भक्त आचार्यों, संतों, कवियों ने अनेक मतों- पंथों-संप्रदायों को वैचारिक आधार देकर स्थापित किया। दक्षिण भारत में प्रायः 600 ई. के आसपास विकसित हुए आंदोलन के उत्तर भारतीय संस्करण और उसके पूर्वापर संबंधों में विभिन्न मतों-पंथों-संप्रदायों को देखा जा सकता है। इनमें से प्रत्येक नवीन विचारधारा या संप्रदाय की उत्पत्ति पूर्ववर्ती या समकालीन संप्रदाय के विरोध और संप्रदाय-विशेष के अनुयायियों की सामाजिक प्रतिष्ठा पर आधारित होती थी। सुधारवादी संतों के देहावसान के बाद उनके शिष्य अपने गुरू की पूजा शुरू करते थे और उनके नाम से नया पंथ चला देते थे।7 इस प्रकार अनेक विद्वान आचार्यों और संप्रदायों की विस्तृत परंपरा को देखा जा सकता है। उनकी उत्पत्ति और विकास के क्रम का प्रवाह तमिल-तेलगू-कन्नड़-मलयालम और फिर मराठी भाषाओं के क्षेत्रों से होता हुआ हिंदीभाषी क्षेत्रों तक पहुँचा। इनके विकास-क्रम में आने वाला वारकरी संप्रदाय अपनी विशिष्टता के कारण न केवल महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, वरन् इस संप्रदाय में भक्ति आंदोलन के दोनों सोपानों के वैशिष्ट्य-विकास के व्यवस्थित क्रम को भी देखा जा सकता है।
वारकरी संप्रदाय के आराध्य देव विट्ठल या विठोबा और रुक्मिणी या रखुमाई की आराधना महाराष्ट्र में अत्यंत प्राचीन है। दक्षिण में जब आर्यों का प्रवेश हुआ, तब यहाँ के मूल आदिवासियों के प्रमुख उपास्य का भी आर्यीकरण अवश्य हुआ होगा। इसी समन्वयीकरण के ही कार्यस्वरूप पंढरपुर के विठोबा-विट्टल-विष्णु के बालरूप माने गये और अवतार भी समझे गये।8 पंढरपुर के विट्ठल के साथ भक्त पुंडलीक की कथा भी प्रचलित है। भक्त पुंडलीक को ऐतिहासिक माना जाए, या काल्पनिक माना जाए, इसे लेकर विद्वानों के बीच मतभेद भले ही हो, मगर लोक-धारा में भक्त पुंडलीक की मातृ-पितृभक्ति प्रसिद्ध है। वे विठोबा का वरदान पाने से ज्यादा जरूरी अपने माता-पिता की सेवा मानते हैं।9 पुंडलीक की कर्मठता और माता-पिता के प्रति उनकी भक्ति-भावना को देखकर वरदान देने आए विठोबा को पुंडलीक ने रुकने के लिए कहा, तो विठोबा ने पूछा कि मैं कहाँ पर आसन ग्रहण करूँ? इस पर पुंडलीक ने एक ईंट उनकी ओर फेंककर उसपर बैठने को कहा। जब पुंडलीक विठोबा के पास आए, तब पुंडलीक ने वरदान माँगा कि इसी रूप में वे अपने भक्तों को दर्शन देते रहें, तब से पुंडलीक की फेंकी ईंट पर विठोबा अपने दोनों हाथ कमर में रखे हुए खड़े हैं। देवशयनी एकादशी में विठोबा (विट्ठल) अपने शयन के लिए नहीं जाते और अपने भक्तों के लिए अनेकानेक वर्षों से इसी प्रकार खड़े हुए हैं। विठोबा का यह स्वरूप लोकदेवता का है, जिसने भाषा-भूषा-जाति-पंथ के भेद को मिटा दिया। विठोबा को पंडरगे, पंढरीनाथ, पांडुरंग और विठाई माउली आदि नामों से भी जाना जाता है।10 इसी विट्ठल देवता को अपनी भक्ति में रँगकर प्रस्तुत करते हुए अनेक भक्त कवियों ने अपनी-अपनी मानसिकता के अनुसार अलग-अलग रूप दिया। अनेक कहानियों, प्रसंगों, घटनाओं का काव्यात्मक सृजन किया। महिलाओं ने विट्ठल को अपनी भावना में रँगकर अपने निकट देखा, मानवीय रूप दिया। विट्ठल और रखुमाई के प्रेम-प्रसंगों को लेकर अपने मन की अनेक मधुर कल्पनाओं को चित्रमय अभिव्यक्ति दी। कुछ ऐसी रचना भी मिलती हैं, जहाँ विट्ठल-रखुमाई के साथ जनाबाई को जोड़कर प्रेम-त्रिकोण की परिकल्पनाएँ की गयी हैं। सारांश विट्ठल सामान्य जनता का भावनात्मक आलंबन दैवत था। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है, भारत में जनता विशिष्ट देवता का एकांतिक समर्थन या विरोध नहीं करती। अपनी रुचियों, प्रवृत्तियों, स्वप्नों, विचारों, उद्देश्यों के अनुसार देवता की मूर्ति और जीवन को ढालती है, अपने मिथकों की सर्जना करती है। ‘विट्ठल’ यही वह मूर्ति है। परिणामतः सभी प्रकार की समभावना को यहाँ स्थान है। दुर्गा भागवत जी ने तो विट्ठल को महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक की एकात्म संस्कृति का प्रतीक माना है।11 इस परंपरा की प्राचीनता को खोजना असंभव की हद तक कठिन कार्य है। भक्त पुंडलीक के सदृश्य भक्ति को धारण करते हुए अपने आराध्य के प्रति अपने समर्पण को प्रकट करने के लिए गले में तुलसी की माला धारण करने वाले भक्त-समाज को मालकरी संप्रदाय का नाम कब मिला और कालांतर में विट्ठल के दर्शन के लिए भक्त समूहों की वारी (यात्रा) की परंपरा को वारकरी संप्रदाय कब कहा जाने लगा, इसके विषय में विद्वानों ने अपने अनुमान के आधार पर भले ही काल-निर्धारण करने की कोशिश की हो, मगर वारकरी संप्रदाय के नाम से प्रसिद्धि पाने वाली यह भक्ति-धारा, जिसका संबंध पंढरपुर के विठोबा से जुड़ता है, उसने भक्ति आंदोलन में अपने अनूठे स्वरूप का सर्जन किया है।
डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर अपने शोध-ग्रंथ में उद्धृत करते हैं कि- वारकरी संप्रदाय अपने उत्पादकों के नाम से नहीं चला है। वैदिक धर्म के विरुद्ध आवाज इस संप्रदाय ने नहीं उठाई, वरन् उसके तत्त्वों से ही मानवी समता भूमि पर समन्वय करते हुए इस संप्रदाय ने अपना विकास किया है।12 ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि वारकरी संप्रदाय वैदिक धर्म के विरोध के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले भक्ति आंदोलन के प्रभाव से उत्पन्न नहीं हुआ, वरन् अपने प्राचीनतम स्वरूप को समयानुकूल परिवर्तित करते हुए विकसित हुआ है। यह तथ्य ब्रह्म संप्रदाय के साथ इस संप्रदाय के केंद्र पंढरपुर की समकालीनता को भी सिद्ध करता है।
संत ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव ने वारकरी संप्रदाय के तात्विक और दार्शनिक आधार को तैयार करने का काम किया। उन्होंने लोक-प्रचलित भाषा में ज्ञानेश्वरी गीता और अमृतानुभव आदि ग्रंथों का सृजन किया। नामदेव ने अपने अभंग पदो के माध्यम से वारकरी संप्रदाय की लोकप्रियता का विस्तार पंजाब तक किया। नामदेव के साथ ही सांवता माली, जनाबाई, रोहीदास चर्मकार, चोखा महार और नरहरि सोनार आदि भी इस संप्रदाय के विकास में सहायक हुए। ज्ञानदेव के भाई निवृत्तिनाथ, सोपाननाथ और बहन मुक्ताबाई ने वारकरी संप्रदाय के विकास में योगदान दिया। संत भानुदास ने विजयनगर से विट्ठल की मूर्ति वापस लाकर पंढरपुर में मंदिर का भव्य निर्माण करवाया। एकनाथ ने वाराणसी में एकनाथी भागवत का सृजन करके ज्ञान के साथ ही कीर्तन-भजन के माध्यम से भक्ति के सहज स्वरूप को विकसित किया। संत तुकाराम ने अभंग पदों की रचना और उनके संकीर्तन के प्रसार के साथ वारकरी संप्रदाय को समृद्ध किया। इसी तरह निळोबा ने भी विठोबा की भक्ति का प्रसार किया। इनके साथ ही वारकरी संप्रदाय की समन्वय भावना से प्रभावित होकर कीर्तन करनेवाले मुस्लिम कीर्तनिए भी इस संप्रदाय के साथ में आए और यह परंपरा आज भी देखी जा सकती है।13 इस वारकरी पंथ में निम्न जातियों के संतों को भी उनकी साधना के आधार पर सम्मान का स्थान मिला है। इसीलिए नामदेव को खेचर को गुरु मानने में संकोच नहीं हुआ। ज्ञानेश्वर के सखा, सहचर, मित्र, बंधु नामदेव के आत्मीय जनों का परिदृश्य देखने पर पता चलता है कि मध्ययुग में एक महान ‘संत जाति’ निर्मित हो रही थी, जो शूद्र जातिभेदों से ऊपर उठकर श्रद्धेय गं.भा. सरदार के शब्दों से ‘अध्यात्मनिष्ठ मानवतावाद’ का प्रभावपूर्ण आलोक वितरित कर रही थी।14  
उत्तर भारत में भक्ति-आंदोलन का स्वरूप प्रायः दार्शनिक विवेचनों और सांप्रदायिक कट्टरता पर आधारित रहा, साथ ही संतों की अलग-अलग गद्दियों, आचार्यों की विविध मान्यताओं के निर्माण ने ऐसी व्यापकता का सृजन किया, जिसे सरलता के साथ वर्गीकृत कर देना हिंदी साहित्येतिहास के आचार्यों के लिए सुलभ हुआ। जिस समय उत्तर भारत में महिलाओं को साधना में बाधक समझा जा रहा था, मीरां को विष दिया जा रहा था, उस समय मुक्ताबाई और जनाबाई आदि की प्रेरणा से महिलाएँ भी वारकरी की वारी में खुलकर भागीदारी कर रही थीं। जिस समय उत्तर भारत में सगुण-निर्गुण और रामभक्ति-कृष्णभक्ति के दायरे बँध रहे थे, उस समय भी वारकरी संप्रदाय के संत इन सबके समन्वय के लिए समग्र निष्ठा के साथ लगे हुए थे। सगुण और निर्गुण की कट्टरता उत्तर भारत में इतनी ज्यादा थी कि गोस्वामी तुलसीदास को ‘सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा’ कहकर स्थिति को संभालने का प्रयास करना पड़ा। वारकरी पंथ समन्वय का अद्भुत रूप है। विविध हिंदू जातियों, लोक समुदायों के आराध्य दैवतों का समन्वित रूप वारकरी पंथ का आराध्य दैवत है- विट्ठल। गोप, मछुवारे, धनगर इत्यादि निम्न जात के लोगों ने भी विट्ठल में अपने दैवत को देखा और शिवभक्तों ने शिव का रूप भी। नामसंकीर्तन की महत्ता को व्यक्त करते समय ज्ञानेश्वर ने लिखा है- ‘कृष्ण-विष्णु-हरि-गोविंद । एयां नामांचे निखिल प्रबंध.’ अर्थात् कृष्ण, विष्णु, हरि या गोविंद किसी भी नाम से देवता का संकीर्तन किया जा सकता है।15 पंढरपुर को दक्षिण काशी के नाम से भी जाना जाता है, जिससे यहाँ पर शैव संप्रदाय के साथ संबंधों को समझा जा सकता है।
उपासनाभेद का आश्रय लेकर उत्तर भारत में विकसित हुई भक्ति-धारा में ‘संत’ की उपाधि निर्गुण धारा के लिए रूढ़ हो गई, जबकि महाराष्ट्र में ‘संत’ की उपाधि सज्जन और निष्काम-समर्पित भक्ति की धारा में डूब जाने वालों के लिए थी। इसी आधार पर ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ आदि को जनसामान्य ने ‘संत’ की उपाधि से विभूषित किया। ‘संत’ की उपाधि के कारण उत्तर भारतीय भक्ति परंपरा में इनका वर्गीकरण भी कर दिया गया, जिसे वारकरी संप्रदाय की परंपरा और उसकी जीवंत-जागृत चेतना के आधार पर तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है। वैष्णव धारा के प्रमुख ग्रंथ के रूप में मान्य गीता को वैदिक आडंबरों और पौरोहित्य के विरुद्ध संघर्ष का, विरोध का काव्य भी माना जाता है।15 गीता की टीका के रूप में ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई ज्ञानेश्वरी गीता में किसी का विरोध नहीं, बल्कि लोकभाषा में रचित यह काव्य-ग्रंथ समाज को एकजुट करने और नीति का मार्ग दिखाने में अप्रतिम सिद्ध हुआ है। इस ग्रंथ के प्रणयन के माध्यम से संत ज्ञानेश्वर ने जीवन की ओर देखने, जीवन को सफल-सार्थक बनाने की सीख दी है। संत ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी, संत एकनाथ की एकनाथी भागवत और संत तुकाराम की गाथा को वारकरी संप्रदाय की प्रस्थानत्रयी के रूप में देखा जा सकता है, जिनमें किसी के विरोध के स्थान पर सकारात्मक भाव की प्रधानता है, इसी कारण वारकरी संप्रदाय में किसी भी मत-संप्रदाय-विचारधारा और यहाँ तक कि धर्मों के समन्वय को देखा जा सकता है। सभी धर्मों-मतों-पंथों की मूल भावना के समग्र रूप को, विराट के साथ एकाकार होने के भाव को इसी कारण वारकरी संप्रदाय में देखा जा सकता है। वारकरी संप्रदाय की यह विशिष्टता अद्भुत है। इसके साथ ही वारकरी संप्रदाय की एक अन्य विशिष्टता को रेखांकित करना अनिवार्य हो जाता है। मालकरी भक्त गले में तुलसी की माला धारण करते थे और अपने-अपने स्तर पर पूजा-उपासना करते थे। परवर्ती वारकरी भक्तों ने भक्ति के सामाजिक संस्करण को तैयार किया और इस तरह दूर-दराज से चलने वाली कीर्तन मंडलियों के माध्यम से आत्मानंद के सागर में डूबते-तिरते भक्तों ने सामाजिक जीवन, सहकार, संगठन और सामाजिक एकीकरण की ऐसी भावना का विकास किया, जिसे अन्यत्र खोजना संभव नहीं है।
समग्रतः, महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय को विशिष्टताओं के उस पुंज के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें पुरातन भक्ति और उपासना के समस्त संप्रदायों, पद्धतियों, विशेषताओं की ज्योति प्रज्ज्वलित होती है। वारकरी संप्रदाय को परंपरा के क्रम में सीधे उस विधान से जोड़ा जा सकता है, जिसमें मानव-सभ्यता के विकास के साथ आराध्य और आराधक के, उपास्य और उपासक के संबंधों की उत्पत्ति हुई, विकास हुआ। सगुण और निर्गुण के समन्वय के साथ ही जैन-बौद्ध मतों का समन्वय भी पंढरपुर में देखा जा सकता है, कुछ विद्वानों ने अपने शोधों में ऐसा सिद्ध किया है। वारकरी संप्रदाय की इस विशेषता के पीछे भी लोकदेवता विट्ठल की भूमिका को देखा जा सकता है। मतों और संप्रदायों के आपसी विभेदों और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में भक्ति के वास्तविक स्वरूप को भुला देने वाली मान्यताओं के लिए, विद्वान आचार्यों के लिए वारकरी संप्रदाय ने एक दिशा देने का काम किया, संभवतः इसी कारण विठोबा और उनके भक्तों के बीच का संबंध युगों-युगों की यात्रा करके आज भी समन्वय, सौहार्द और अद्धितीय भक्ति-भावना को जीवंत किए हुए है। समूचा पंढरपुर आज भी विट्ठल-विट्ठल के गजर से भरा है। आज भी पताकाओं को लिए हुए भक्तों की टोलियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। हरिकीर्तनों की धूम वहाँ पर मची रहती है और वहाँ चोखा (महार होकर भी) गले लग जाता है।                                    
विट्ठल विट्ठल गजरी । अवधी दुमदुमली पंढरी
होतो नामाचा गजर । दिंहयापताकांचे भार
निवृत्ति ज्ञानदेव सोपान । अपार वैष्णव ते जन
हरिकीर्तनाथो दाटी । तेथे चोखा घानली मिठो ।
संदर्भ-
1. उपासना प्रणालियों तथा भक्ति संप्रदायों का विकास, भक्ति-आंदोलन और साहित्य, डॉ. एम जॉर्ज, प्रगति प्रकाशन, आगरा, प्रथम सं. 1978, पृ. 139,
2. भारतीय चिन्तन की द्वन्द्वात्मक प्रगति, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, भगवतशरण उपाध्याय, जनवाणी प्रेस एण्ड पब्लिकेशनस् लि., बनारस, प्रथम सं. 1950, पृ. 54-55,
3. आर्य और आर्येतर संस्कृतियों का मिलन, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 98,
4. भक्ति आन्दोलन और इस्लाम, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 377,
5. इस्लाम का हिंदुत्व पर प्रभाव, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 366,
6. पौराणिक भक्ति आंदोलन : सामान्य पृष्ठभूमि, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास- प्रथम खंड, डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 179,
7. उपासना प्रणालियों तथा भक्ति संप्रदायों का विकास, भक्ति-आंदोलन और साहित्य, डॉ. एम जॉर्ज, प्रगति प्रकाशन, आगरा, प्रथम सं. 1978, पृ. 137-138,
8. वैष्णव धर्म और दर्शन का क्रमिक विकास, हिंदी एवं मराठी के वैष्णव संत साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा,1968, पृ. 67,
11. मराठी कविता में सर्वधर्म समभाव, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 27,
12. वैष्णव मतों की विभिन्न शाखाएँ संप्रदाय और उनका हिंदी मराठी क्षेत्र में क्रमिक विकास, हिंदी एवं मराठी के वैष्णव संत साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा,1968, पृ. 133,
13. मध्यकालीन हिंदी मराठी के संत कवि, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 12,
14. वही, पृ. 12,
15. मराठी कविता में सर्वधर्म समभाव, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 27,
16. गीता-दर्शन अथवा संघर्ष, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, भगवतशरण उपाध्याय, जनवाणी प्रेस एण्ड पब्लिकेशंस लि., बनारस, प्रथम सं. 1950, पृ. 27-40 ।

{लालबहादुर शास्त्री कॉलेज आफ आर्ट्स, सायंस एंड कॉमर्स, सतारा (महाराष्ट्र) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध-पत्र एवं तन्वी प्रकाशन, 857,ब, शनिवार पेठ, सातारा (महाराष्ट्र) द्वारा प्रकाशित (ISBN 978-81-934308-5-9), संपादक- डॉ. भरत सगरे, सहसंपादक- डॉ. विट्ठल नाईक}