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Wednesday, 14 May 2025





बदलते नामों और छाँह की दीवार का एक गाँव


चलिए, अब दोबारा कभी मिलना होगा....।

फिर कभी ऐसा संयोग बनेगा, तो मिलेंगे...। यादें साथ रह जाती हैं।

हमारा इतना कहना हुआ, कि तुरंत ही करनल साहब ने बड़े दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया- “साहब! जिंदगी में ऐसे ही मोड़ आते हैं, लोग मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं.....। यह तो एक पड़ाव है, ठिकाना है। जिंदगी भी ऐसी ही है, साहब।”

करनल साहब की बात सुनकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। पिछले तीन दिनों में हमने करनल सिंह को इतने दार्शनिकाना अंदाज में नहीं देखा था। परिचय भी तीन दिन ही पुराना था। निःसंदेह किसी आदमी को एक बार में नहीं जाना जा सकता.... और यहाँ कुल जमा तीन दिन यानि पैंसठ-सत्तर घंटे...। लोग तो बरसों-बरस साथ रहकर भी एक-दूसरे को नहीं जान पाते हैं। खैर, करनल साहब को समझने के लिए हमें इतने लंबे समय की आवश्यकता नहीं थी। खुला हुआ और सीधा-सपाट स्वभाव करनल सिंह का था। जटिलता नहीं थी, जिस कारण बातें सरल और सहज थीं। तब आखिर यह दार्शनिकाना अंदाज कहाँ से आ गया? प्रश्न मन में उठा, उत्तर भी कौंध गया।

वस्तुतः, यह स्थान का प्रभाव बोल रहा था। करनल सिंह जम्मू-काश्मीर पुलिस के संभवतः हवलदार रैंक के कर्मी थे। किसी सरकारी काम ने हमारे साथ करनल सिंह को तैनात कर दिया था, जिस कारण करनल सिंह तीन दिनों तक हमारे साथ थे। हम जिस स्थान पर थे, वह हमारे अनुमान से अतीत के एक रोचक अध्याय से कम न था। उसी स्थान का प्रभाव करनल सिंह के सिर चढ़कर बोल रहा था, ऐसा हमको अनुभूत हुआ, उनके इस कथन को सुनकर।

क्यागर, तिगर, टाईगर, टिगर जैसे नाम...। ये अलग-अलग नाम एक ही गाँव के हैं, जहाँ हम लोग पिछले तीन दिनों से डेरा डाले हुए थे, और आज की सुबह चल पड़ने के लिए तैयार खड़े थे। गाड़ी वाला गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने गया था, क्योंकि हमें लंबा रास्ता तय करना था, और ऊपर से खरदुंग ला को भी पार करना था। खरदुंग हमारे लिए खर तुंग है, जिसकी बड़ी तीव्र चढ़ाई-उतराई है..., तुंग है। विश्व की सबसे ऊँची ‘मोटरेबल रोड’ भी यही है। गाड़ी वाले के आने तक चारों ओर एक बार फिर से नजर दौड़ाकर पूरे क्यागर गाँव की सुंदरता को, इसके आकर्षण को अपनी स्मृतियों के लिए सँजो लेना चाहते थे।

क्यागर गाँव आज भले ही बड़ा शांत और ठहरा हुआ-सा दिख रहा हो, लेकिन अतीत की कल्पनाओं में मन उतरा, तो बहुत गहरे उतरता चला गया। रेशम मार्ग से लगा हुआ क्यागर गाँव एक समय में रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था। समरकंद बुखारा से लगाकर ईरान-ईराक-अफगानिस्तान तक चला जाने वाला यह रेशम मार्ग अपने साथ न जाने कितने लोगों को जोड़ता रहा, अनुमान लगाना कठिन है। अनुमान तो इसका भी नहीं लगाया जा सकता, कि कितनी संस्कृतियाँ, कितने विचार, कितने व्यवहार और कितनी प्रजातियाँ इस रेशम मार्ग से होकर आईं-गई-फैलीं-पसरीं और विचरीं...। इन अनेक यात्राओं के साक्षी रेशम मार्ग के किनारे बसे कितने गाँव और नगर होंगे, यह भी सहज ही नहीं जाना जा सकता।

क्यागर गाँव में न जाने कितने लोग आए होंगे, ठहरे होंगे, कुछ समय के लिए डेरा डाला होगा, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़े होंगे... ठीक वैसे ही, जैसे हम चल पड़ने को तैयार खड़े थे। हर बार जब किसी बटोही ने चल पड़ने के लिए अपना सामान बाँधा होगा, अपने साथियों से भावुक होकर फिर मिलने के वायदे किए होंगे, तब हर बार किसी साथी ने करनल सिंह की तरह दार्शिकाना अंदाज में उत्तर दिया होगा।

पिछले तीन दिनों से जिस आकर्षण में क्यागर ने बाँध रखा था, वह अब तक की हमारी यात्राओं से एकदम अलग था। इसकी गहनता बहुत थी, जो हर बार उस अतीत की कल्पनाओं में उतार रही थी, जिसे आज के समय में मात्र अनुभूत किया जा सकता है। रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र रहा है। लगभग सारी दुनिया ही इस मार्ग की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ी थी। अनेक छोटे-बड़े व्यापारिक मार्ग भी इससे जुड़कर रेशम मार्ग के नाम से जाने जाते थे। यह चीन से मध्य एशिया और फिर योरोप तक जाता था। समरकंद, बुखारा से यारकंद तक जाने वाले रेशम मार्ग को भारत के साथ जोड़ने वाला उपमार्ग क्यागर से होकर जाता था। क्यागर से हुंदर, पनामिक, दिस्किद, खालसर और फिर लेह तक जाने वाला रास्ता भले ही रेशम मार्ग का संपर्क मार्ग हो, लेकिन भारत की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े होने के कारण यह मार्ग बहुत महत्त्व का था। क्यागर रेशम मार्ग के यात्रियों-व्यापारियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था, और एक प्रकार से यह रेशम मार्ग के सबसे निकट का गाँव था। स्वाभाविक ही है, कि इस अतीत को जानकर और अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाए। हमारे जैसे लोगों के लिए तो यह बहुत रोमांचकारी था। एक-एक कण हमें मानों अनेक-अनेक इतिहास की परतों को सँजोए हुए दिख रहा था। पूरे रास्ते भर यही मन में चलता रहा, कि अगर समय से पहुँच जाएँगे, तो आज से ही जिज्ञासा-शमन के प्रयास चालू कर देंगे, दो-चार लोगों से तो मिल ही लेंगे। लेकिन क्यागर तक पहुँचते-पहुँचते धुँधलका हो चुका था। लद्दाख में धुँधलका होना आधी रात हो जाने जैसा ही होता है, क्योंकि सूरज के ढलते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। हमें तो प्रायः यही लगा, कि भीषण सर्दियों की आदतें गर्मियों के मौसम में भी बनी ही रह जाती हैं।


मई-जून का महीना लद्दाख में बहुत ठंडा नहीं होता। रात सात-आठ बजे तक घर के बाहर आसानी से रहा जा सकता है, लेकिन क्यागर में  ऐसा नहीं दिखा। रास्ते में आते समय लोगों को अपनी गायें, बकरियाँ आदि घर की तरफ ले जाते देखा था। हमारे क्यागर पहुँचने तक क्या जानवर और क्या आदमी... सभी अपने दड़बों में पहुँच चुके थे। हमारे पास केवल


विश्राम करने का विकल्प शेष था। भला हो श्रीमान टाशी जी का, वे अचानक ही प्रकट हो उठे थे। उनसे कुछ जानकारी मिल सकती है, ऐसा हमें भरोसा भी हो चुका था। टाशी आंगचुक सेना से रिटायर होकर अपने गाँव में रह रहे थे। प्राथमिक परिचय के बाद उनसे यही सवाल किया, कि आप लेह में क्यों नहीं बस गए? उत्तर मिला, गाँव का प्रेम खींच लाया है। नौकरी भर तो बाहर ही रहे हैं। अब गाँव में रहना अच्छा लगता है।

तो आपको अपने गाँव का अतीत भी पता होगा, कुछ गाँव के बारे में बताइए, तो....।

टाशी जी बोले, इतिहास तो बहुत पता नहीं है, लेकिन छाँह की दीवार के बारे में अपने बड़े-बूढ़ों से सुना है। गाँव सिल्क रूट से जुड़ा था, और बहुत संपन्न था, बस इतना ही पता है। लेकिन आपको कल अपने गाँव के मुखिया और राजपरिवार से संबंध रखने वाले एक महाशय से मिलाने के लिए जरूर ले जा सकते हैं। उनसे आपको बहुत कुछ जानने को मिलेगा। परंपरागत रसोईघर भी आप देख सकेंगे।

श्रीमान टाशी का यह प्रस्ताव मनोनुकूल था। तुरंत ही हामी भर दी। साथ में करनल सिंह भी इन बातों को सुन रहे थे, लेकिन उनकी इसमें कोई रुचि नहीं थी। करनल सिंह खाने की जुगत लगा रहे थे, और फिर उनका विश्राम करने का मन हो रहा था। ऐसा वो दो बार हमें बता चुके थे। टाशी जी भी घर जाना चाह रहे थे। लिहाजा तय हुआ, कि कल सुबह टाशी जी आएँगे और उनके साथ श्रीमान सोनम टुंडुप जी से मिलने के लिए जाएँगे। भोजन के उपरांत विश्राम के क्षणों में भी विचारों का मंथन चलता रहा। रह रहकर छाँह की दीवार, पुरानी रसोई, काराकोरम की गहन कृष्णता के मध्य बिंदु-सदृश आभासित महल के ध्वंसावशेष अपने साथ विगत की यात्रा पर मानों ले जाना चाह रहे थे। रास्ते की थकान कभी इन पर भारी पड़ती, तो कभी ये थकान पर....। कुल मिलाकर रात ऐसे ही कटी और भोर के उजास ने नई ऊर्जा का संचार किया। कल-कल निनाद करती नुबरा नदी का मद्धिम स्वर नीलांबर की वीतरागी शांति को भंग करता-सा लग रहा था। दूर-दूर तक काराकोरम की शृंखलाएँ अलग-अलग रंगों में पसरी हुई-सी ऐसी लग रहीं थीं, मानों तंद्रा में हैं और सुबह के आलस से निकल नहीं पाईं हैं। इन्हीं विचारों में खोए हुए थे, कि टाशी जी ने आकर बताया, कि हमें श्रीमान टुंडुप जी से मिलने चलना है। वे कहीं जाने वाले हैं, इसलिए अभी ही जाना होगा। हम भी तुरंत तैयार होकर चल पड़े।

गाँव के भीतर की गलियाँ अपेक्षाकृत चौड़ी और साफ-सुथरी थीं। घरों को बहुत करीने से सजाया-सँवारा गया था। सोनम टुंडुप जी का घर किसी गढ़ी के जैसा था। बहुत विशाल...। एक ओर जानवरों को बाँधने के लिए क्रम से कोठरियाँ बनी हुई थीं। मुख्य द्वार पर रिग्-सुम (तीन स्तूप) बने हुए थे। उनके नीचे से निकलकर घर में प्रवेश करना था। बड़े-से दरवाजे के दोनों ओर विशालकाय भंडारगृहों में जलाऊ लकड़ी को बड़े व्यवस्थित और कलात्मक क्रम से रखा गया था। पहले माले पर जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं, जिनसे होकर हम ऊपर पहुँचे। बड़े-से विश्राम कक्ष में अनेक सजावटी वस्तुएँ, जिन्हें दुर्लभ की श्रेणी में रखा जा सकता है, सहेजी गईं थीं। टुंडुप जी ने बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया।

टाशी आंगचुक पहले ही हमारे बारे में बता चुके थे, इस कारण हमको बहुत बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी। महाशय टुंडुप जी ने बात क्यागर के बारे में बताते हुए ही प्रारंभ की-- “आज का क्यागर पहले यहाँ नहीं था। यहाँ से पहले तीन जगहों में इसकी बसावट थी। पहले लुंगदो में यह हुआ करता था। लुंगदो से फिर जङ्लम में आकर बसा और इसके बाद जिम्सखङ गोङ्मा बसा।“

टुंडुप जी के बताने पर हम उस ध्वसांवशेष की पहचान कर सके, जिसे काराकोरम की विशाल शृंखलाओं के मध्य एक सफेद बिंदु की भाँति चमकते हुए देखा था। टुंडुप जी बता रहे थे.... 2015 के पहले तक वह महल देखने में ठीक-ठाक था। पहले आसपास तमाम घर भी थे। ये बसावट महल के साथ ही थी। महल को जिम्सखङ कहते थे। यह वास्तव में वंशावली का नाम है, जिससे हमारा खानदान पहचाना जाता है। 2015 की तबाही के बाद इधर सड़क के साथ लोग बस गए।

टुंडुप जी की बातों का क्रम रेशम मार्ग की ओर चल पड़ा था। हमारे साथ बैठे आंगचुक जी भी रेशम मार्ग से जुड़ी बातों को सुनने के लिए जरा सावधान होकर बैठ गए थे। वैसे तो टुंडुप जी ने रेशम मार्ग की गतिविधियों को नहीं देखा, लेकिन उनके पास बड़े-बूढ़ों से सुनी हुई बातों के सहारे अच्छा खासा स्मृतियों का भंडार था, जिसका आस्वाद आज हमको भी मिलने वाला था।

“पहले यहाँ यारकंद से आने वाले व्यापारी ठहरा करते थे। यहाँ पर घास के बड़े मैदान होते थे, जिनमें अलफा-अलफा घास बहुत पैदा होती थी। इसे हमारी भाषा में ओल बोला जाता है। व्यापारी अपने घोड़ों, ऊँटों आदि जानवरों को चराने के लिए यहाँ रुकते थे। व्यापारी सासोमा से तकशा और पनामिक होते हुए इस तरफ को आते थे, दो-तीन दिन रुकते थे और डिगर दर्रा पार करके लेह की तरफ चल पड़ते थे। वापसी भी ऐसे ही होती थी।“ टुंडुप जी इतना बताते हुए थोड़ा रुके, और फिर बड़ी गंभीर भंगिमा में बोल पड़े.... अब तो ओल दिखती ही नहीं हैं... पहले बड़े बुजुर्ग बताते थे कि ऊपर पहाड़ों तक में ओल हुआ करती थी....। अब समय बदल गया है।

“सिल्क रोड के साथ ही अलफा-अलफा भी खतम हो गया...।“ टुंडुप जी का यह कथन बड़ी वेदना में डूबा हुआ था।

रेशम मार्ग कभी देशों की सीमाओं में नहीं बँधा। इसी कारण अनेक संस्कृतियाँ, साहित्य, विचार, चिंतन, दर्शन, विज्ञान, विचार और व्यवहार आदि न जाने कितनी विधाएँ लंबी यात्राएँ करके आती रहीं, जाती रहीं और विस्तार पाती रहीं हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही मार्ग नहीं था। बहुत कुछ इसके साथ जुड़ा है, जिसे समेकित रूप में मानव सभ्यता के विकास-विस्तार के क्रम में जोड़ा जा सकता है। केवल अलफा-अलफा घास ही नहीं, ओल ही नहीं... बहुत कुछ उजड़ा है, रेशम मार्ग के रुक जाने के बाद....। हमारी सीमाएँ बन गईं हैं....।

हमारे मन में एक ओर ये विचार चल रहे थे, और दूसरी ओर टुंडुप जी धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे।

“आप चाय लेंगे, या दूध....” इस विकल्प के साथ आई एक आवाज ने हम दोनों को ही रोक दिया था। हमारे विचारों की गति भी रुक गई और टुंडुप जी भी रुक गए। कुल मिलाकर तय हुआ, कि बढ़िया दूध एक-एक गिलास पिया जाए। गाँव में गौवंश की कोई कमी नहीं थी। शुद्ध दूध-घी-मक्खन तो वैसे भी गाँवों में ही मिल पाते हैं। खैर....। बातों का क्रम फिर आगे बढ़ा...।

अब टुंडुप जी हमें अपनी वंशावली के बारे में बता रहे थे- “हमारा घर का नाम जिम्सखङ है। यह हमारी पहचान कराता है। जिम्सखङ की शाखा ही दिस्किद, हुंदर और खलसर में है। वहाँ पर हमारे वंश का कोई नहीं बचा है। केवल क्यागर में ही है। लेह में कलोन (प्रधानमंत्री) होता है, जो राजा के नीचे होता है। इसके बाद लोनपो (क्षत्रप) होते हैं। इन्हें जिम्सखङ भी कहते हैं।“

टुंडुप जी के इतना बताने के बाद हमारे सामने स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। लेह राजवंश का शासन यहाँ तक था, बगल में स्करदो और गिलगित-बल्टिस्थान आदि थे। हुंदर, दिस्किद, खालसर और क्यागर आदि क्षत्रपों के अधीन पूरी व्यवस्था यहाँ पर चलती थी। कुछ स्थानों पर सुरक्षा चौकियाँ जैसी भी होती थीं, जहाँ से व्यापारिक गतिविधियों की निगरानी हुआ करती थी। आज वे सब नहीं हैं। लेकिन खंडहरों में दबे अतीत को आज भी अनुभूत कर सकते हैं।

रास्ते में आते समय मील के पत्थरों पर टाइगर नाम लिखा हुआ देखा था। जिज्ञासावश इस प्रश्न को टुंडुप जी के सामने रखा, कि यह कोई दूसरी जगह है, या क्यागर विकृत होकर टाइगर बन गया है.....। हमारे इस प्रश्न ने टुंडुप जी की वेदना को ही मानों उखाड़ दिया था......।

“ये ग्रीफ वाले भी ना....। जाने बिना ही किलोमीटर में लिख देते हैं। यह नाम तो गलत है, लेकिन इस नाम से भी जगह को जानते हैं।“

आखिर यह नाम कब बदल गया? मेरे इस प्रश्न पर तुरंत ही टुंडुप जी बोले... बस ऐसे ही यह गाँव बदलते नामों वाला हो गया है....। कोई टाइगर कहता है, तो कोई टिगर कहता है, तो कोई तिगर कहता है.....। किसको क्या कहें......।

तो फिर सही क्या है? हमने पूछा।

सही तो क्यागर ही है....। हमारी भाषा में सफेद को करपो बोलते हैं। वो जो जिम्सखङ महल है ना.... वो दूर से सफेद नजर आता था, इस कारण करपो से क्यागर बन गया, यानि सफेद महल....।      

क्या कोई गाव ऐसा भी होता है जो अपने नाम बदला करे और अगर ऐसे किसी गाव का पता चले जो बदलते नामों वाला गाव है, तो सुनकर आश्चर्य तो अवश्य ही होगा....। हमको भी जब यह पता चला था, तो अलग ही रोमांच हुआ था।  टुंडुप जी के कहे अनुसार समझ में आ रहा था, कि गाँव में सड़क पहुँची, तो बहुत कुछ बदल गया....। यहाँ तक कि गाँव का नाम भी....। वैसे यह विषय बहुत भावुक कर देने वाला था। समय और स्थितियाँ कैसे बदला करती हैं, आज साक्षात् देख रहे थे। एक जमाने में अपनी हनक से पूरे क्षेत्र को प्रभावित करने वाला जिम्सखङ आज ध्वंसावशेष है...। टुंडुप जी बता रहे थे, कि जिम्सखङ की वंशावली में लोनपो सोनम जोलदन को लोग आज भी याद करते हैं। उनके कामों को आज भी याद किया जाता है। मने खङ, गोनपा आदि के निर्माण के साथ ही लोगों के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया है। सोनम जोलदन के बाद सोनम तरग्यास, सोनम दोरजे, सोनम रिगजिन, रिगजिन आंगमो...। महाशय टुंडुप जी रिगजिन आंगमो के दामाद हैं।

लद्दाख में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी है। धर्मराज सेङ्गे नामग्याल की माँ ग्यल खातून, सेङ्गे नामग्याल की पत्नी कलसङ डोलमा और राजा देस्क्योङ नमग्याल की रानी ञिलस़ा वङमो सहित अनेक ऐसी महिलाओं का नाम गिनाया जा सकता है, जिन्होंने राजपरिवार की सीमा से निकलकर सीधे प्रजा से अपने को जोड़ा है। यह जानकर अच्छा लगा, कि क्यागर के लोनपो परिवार की उत्तराधिकारी रिगजिन अंगमो हुईं, और यह क्रम उनकी बेटी ने आगे बढ़ाया है।

टुंडुप जी बता रहे थे, कि एक समय में यहाँ चूना भट्टी भी हुआ करती थी, जिसमें पकी ईंटे बनाई जाती थीं। पूरे लद्दाख में कम से कम हमने तो ऐसी चूना भट्टी नहीं ही देखी थी। लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर एकदम सीमा पर ऐसी व्यवस्था का पाया जाना सिद्ध कर रहा था, कि अपने समय में यह क्षेत्र बहुत समृद्ध रहा होगा। रेशम मार्ग के व्यापार की बंदी ने, फिर प्राकृतिक आपदाओं ने, और फिर सीमांत क्षेत्र के हिस्से आई उपेक्षाओं ने क्यागर सहित अनेक गाँवों को अपने हाल पर छोड़ दिया....।

टुंडुप जी अब छाँह की दीवार के बारे में बता रहे थे- “क्या पता चूना भट्टी से पकाई गई ईंटों से छाँह की दीवार बनाई गई हो.....।“

अब वह दीवार तो नहीं दिखती, लेकिन स्मृतियाँ जीवंत हैं। दूर-दूर तक फैले मैदान में छाँह ढूँढ़ना संभव नहीं...। नुबरा घाटी तो वैसे भी बर्फ का रेगिस्तान कही जाती है। हुंदर के आसपास रेगिस्तान जैसी आकृतियाँ मिलती हैं। संभवतः किसी शासक ने नया प्रयोग किया हो, और धूप से बचने के लिए छाँह की दीवार बनवा दी हो, जिसमें यात्री और जानवर दोनों ही ठहर सकें। धर्मशालाएँ और प्याऊ जैसे धर्मार्थ कार्य तो बहुत सुने होंगे, लेकिन यह काम अनूठा लगा...। टुंडुप जी छाँह की दीवार के बारे में बहुत तो नहीं बता सके, लेकिन इतना अवश्य संकेत दिया, कि जाते समय चूना भट्टी के खंडहरों को देखते हुए जाएँ। उस जगह को संरक्षित स्मारक के रूप में रखा गया है। सरकारी बोर्ड भी लगा है।

क्यागर गाँव की परिधि में बड़ा चरागाह हुआ करता था। समरकंद, बुखारा, यारकंद, लेह आदि से आने वाले व्यापारी यहाँ के लोगों से किराए पर चरागाह लेकर अपने जानवरों को चारा खिलाते थे। एक-दो दिन इसी बहाने रुकते थे, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते थे।

महाशय टुंडुप जी से लंबी वार्ता हो चुकी थी। परंपरागत रसोई भी देखी जा चुकी थी, जिसमें कलात्मक आकृतियों वाले ताँबे और पीतल के बर्तन सहेजे हुए थे। पुराने अंदाज का चूल्हा भी था, जिसके आसपास बैठकर भोजन के आस्वाद के साथ ही बतकही का आनंद लिया जा सकता था। शीत की विकरालता के समय रसोई लद्दाख के लोगों के लिए बड़ा सहारा हुआ करती थी। क्यागर गाँव में आज भी ऐसा ही है, यह जानकर मन को बड़ी तसल्ली मिली, कि परंपराएँ अभी भी जीवंत हैं।

महाशय टुंडुप जी से विदा लेकर हम और आंगचुक जी वापस लौट रहे थे। रास्ते भर हमलोग बतियाते चले आए। हमारे लिए अनुभूत करना सहज हुआ, कि कैसे यहाँ व्यापारी रुकते रहे होंगे, किस तरह अलग-अलग संस्कृतियों का मिलन होता रहा होगा....। न जाने कितने चित्र मन में चलते चले गए...। चित्रपट की तरह...। आंगचुक जी थोड़ी देर बाद आने को कहकर चले गए।

लौटने पर देखा, तो करनल जी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। साहब.... बहुत समय लगा दिया...। भोजन का समय हो गया है....। क्या करेंगे?

करनल जी के लिए यह रुचि का विषय नहीं है, इसलिए साथ ले जाना उचित नहीं समझा था। देर तो हो ही चुकी थी, साथ ही अपने काम में भी लगना था, जिसके लिए यहाँ आए थे....। अतः करनल जी से कहा, कि भोजन कर लेते हैं।

“रसोइया नहीं आया था, वह किसी जरूरी काम से अचानक ही चला गया है। किसी दूसरे को भेजने के लिए कह रहा था, तो मैंने ही मना कर दिया....।“ करनल सिंह ने बताया।

.....आज साहब को अपने हाथ का बना चावल खिलाना है।

हमने कहा, ठीक है....।

साहब! लेकिन आपको पसंद न आया, तो क्या करेंगे?

हमने कहा, चलो देखते हैं...।

करनल जी ने गरमागरम चावल निकाले, जो केवल प्याज से छौंक कर एकदम अलग तरीके से बनाए गए थे। सुंगध बरबस खींच रही। हमने पूछा, कि यह कौन-सा व्यंजन है?

करनल साहब ने बताया.... पुलाव है....।

हमने कहा, पुलाव तो ऐसा नहीं होता...। स्वाद भी अलग-सा है।

करनल जी ने कहा, कि हो सकता है.....।

हमने कहा, तो इस पुलाव को अलग नाम दे देते हैं....।

पनीर के कई सारे व्यंजन होते हैं, जैसे पनीर पसंदा, पनीर पक्का, पनीर टिक्का आदि....। वैसे ही पुलाव के भी कई नाम हो सकते हैं....।

करनल जी इस पर कुछ नहीं बोले, और उनके मौन को सहमति मानते हुए हमने इस विशेष विधि से बनाए गए पुलाव को करनल पुलाव नाम दे दिया...।

करनल पुलाव.....। हा! हा!...... साहब आप भी बड़े मजाकिया हैं....। करनल जी बोले...।

हमने कहा, इसी बहाने आपको, इस सुस्वादु भोजन को, इस स्थान को, आज के दिन को याद रखेंगे.....।

ठीक है, साहब...। कहकर करनल सिंह ने अपनी थाली में ध्यान केंद्रित कर लिया।

हमने भी तुरंत भोजन समाप्त किया और अपने काम में लग गए।

अगला दिन व्यस्तताओं भरा रहा, लेकिन क्यागर के अतीत में जब भी उतरने का अवसर मिलता, क्षण भर का ही सही... अवसर पाते ही मन उतर पड़ता। गाँव के कई लोगों से मिलना हुआ, तरह-तरह की बातें जानने को मिलीं...। गाँव के युवा शहरों को जा चुके थे, अधेड़ और वृद्धों की संख्या ही अधिक दिखती थी। सैलानियों की गाड़ियों से चहल-पहल बनी रहती थी। फिर भी एक रिक्तता, एक अजीब-सा वीरानापन, सूनापन अनुभूत होता था। शब्दों में जिसे बाँध पाना कठिन लगता है। मेहमानों के चले जाने पर घर जिस तरह सूना हो जाता है, कुछ वैसा ही...।

अगली सुबह यहाँ से हमें भी निकलना है। यह भी तब ध्यान में आया, जब करनल सिंह ने बताया, कि अब रात भर बितानी है....।

दरअसल करनल सिंह को तीन दिन बड़ी कठिनाई के लगे थे। नगरों-महानगरों की जैसी चहल-पहल यहाँ नहीं थी। बहुत धीमे-धीमे सब चल रहा था, रात भी धीरे-धीरे बीती...सुबह भी हो गई, और करनल साहब कील-काँटा, वर्दी-बूट दुरुस्त करके सुबह से ही तैनात हो गए थे। हमको ही कुछ देर हुई थी...।

भला हो, गाड़ी वाले का, कि निकलने से पहले गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने के लिए निकल गया था, सो हमें भी कुछ समय मिल गया....। खैर.... तैयार होकर गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे और पिछले तीन दिनों का घटनाक्रम चित्रपट की भाँति चल रहा था। कब गाड़ी वाला गाड़ी लेकर आ गया और सामान रखकर चलने को तैयार हो गया, पता ही नहीं चला....।

“चलें, साहब...। गाड़ी आ गई है, सामान भी रख गया ....।“ करनल सिंह ने कहा...।

हम भी उठे, और चल पड़े...।

केवल विदा करने वाले का मन भारी नहीं होता, विदा लेने वाले का मन भी भारी हो जाता है...। रास्ते में टाशी आंगचुक मिल गए थे...। उनसे विदाई ली...। फिर मिलेंगे, यह वायदा किया। गाड़ी चल पड़ी...। तेजी के साथ क्यागर गाँव का वह धवलाभ ध्वंसावशेष पीछे छूटता जा रहा था। काराकोरम की ऊँचाइयों पर कहीं रेशम मार्ग की छाप दिखाई दे रही थी। ऐसे ही सैकड़ों वर्षों से ये डेरा-पड़ाव लगते उखड़ते रहे होंगे...। लोग मिलते बिछुड़ते रहे होंगे...। अनगिनत कहानियाँ बनती रहीं होंगी...। बदलते नाम और छाँह की दीवार के इस गाँव ने अपने साथ कितने ही किस्से सहेज रखे होंगे...। और हमने करनल सिंह के साथ करनल पुलाव को भी जोड़ लिया, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे...।

-राहुल मिश्र

(राजस्थान साहित्य अकादमी की मुखपत्रिका मधुमती, वर्ष- 65, अंक- 03, मार्च 2025 में प्रकाशित)

 

Thursday, 2 May 2024

नंदी की कौन सुने....

 


नंदी की कौन सुने....

काशी का बाबा विश्वनाथ तीर्थक्षेत्र....। युगयुगीन प्रवाहित भागीरथी के तट पर अनंतकाल से जीवंत-जागृत काशी। काशी के अधिपति बाबा विश्वनाथ का स्थान, स्वयंभू विश्वेश्वर महादेव, और उनके सामने विराजमान नंदी...। अनेक पीढ़ियों ने इस दिव्य दर्शन को पाकर अपने जीवन को धन्य किया। आराधना-पूजा करके अपनी मनोकामनाओं को पूरा होते देखा। यह गौरवपूर्ण अतीत, यह आध्यात्मिक परंपरा, भक्ति की प्रवाहित धारा कब आक्रांताओं के आक्रमणों की भेंट चढ़ी, यह इतिहास का विषय है। इतिहास की पुस्तकों की सच की गहराई का स्तर अतीत की विभीषिका को आँकने का माध्यम अवश्य हो सकता है, किंतु प्रत्यक्ष का प्रमाण अतुलनीय होता है। इसी कारण विश्वेश्वर के नंदी की चर्चा आजकल खूब हो रही है।

हमारा बचपन आँखों के सामने घूम रहा है। हमारे पुराने समय में साधुओं का दल नंदी राजा को लेकर गाँव-गाँव घूमता था। नंदी राजा के आते ही मानों गाँव-जवार में हलचल-सी आ जाती। लोग नंदी राजा के लिए सीधा-पिसान लेकर आ जाते। बड़ी आस्था के साथ पाँव छूते। बड़ी सुंदर-सी झूल पीठ पर डाले, जिसमें कौड़ियों-सीपियों की कढ़ाई होती, तेल से चमचमाते हुए सींग, गठीली देहयष्टि, स्वयं में मगन नंदी राजा लोगों के लिए अनेक आशाएँ लेकर आते, सुनहरे सपनों के पंख लेकर आते...। इसी कारण नंदी राजा को भेंट-चढ़ावा देकर अपना-अपना भविष्य पूछने का क्रम चालू हो जाता। किसी को हाँ में सिर हिलाकर, तो किसी को ना में सिर हिलाकर नंदी राजा भविष्य बताते। लोग आस्था में नतमस्तक होकर नंदी राजा के माध्यम से औढरदानी महादेव तक अपना संदेश भिजवाते।

लोकजीवन इन्हीं बातों से सँवरता है। आस्था की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ नहीं गढ़ता..., घास-फूस की झोपड़ियों में ही प्रसन्न हो लेता है। शिवालयों में स्थापित नंदी के कान में धीमे से कुछ कहती बूढ़ी माई को देखकर, किसी परीक्षार्थी बच्चे को नंदी के कान में फुसफुसाते देखकर ऐसा ही लगता है। मानों वे नंदी के कान में अपनी याचना सुनाकर स्वयं को मुक्त कर लेते हैं। एक भरोसा अपने अंदर पा जाते हैं, कि गर्भगृह में महादेव से तो कह ही आए हैं, मगर कहीं व्यस्तता के बीच हमारी याचना पर ध्यान न दे पाएँ, तो नंदी राजा उन्हें अवश्य स्मरण करा देंगे। नंदी राजा इसी कारण लोक के अधिक निकट होते हैं। आस्थावान भक्तगण अनेक प्रकार से नंदी की आराधना करते हैं, क्योंकि औढरदानी को स्मरण कराने वाले वे ही हैं। संभावना जहाँ सिमट जाएँ, वहाँ फिर से भरोसा जगा देने वाले नंदी राजा ही हैं।

नंदी राजा भी अपने आराध्य महादेव के भक्तों को खूब पहचानते हैं। वे अपने प्रति आस्था रखने वाले शिवभक्तों को निराश नहीं करते। इन दिनों जिन नंदी की बात चल रही है, उन्हीं से जुड़ा एक प्रसंग महाराष्ट्र में बहुत प्रचलित है। कहते हैं, कि संत ज्ञानदेव जनाबाई के साथ काशी आए थे। ‘पंडित से पंडित मिले भईं-भईं पूछै बात....’ वाले न्याय से काशी के पंडितों ने संत ज्ञानेश्वर से शास्त्रार्थ चालू किया, फिर परीक्षा लेने लगे.....। जरा विश्वनाथ जी के नंदी को चारा खिलाकर दिखाओ, तो जानें...। अभी तक तो बहुत सारी कहानियाँ फैला रखीं हैं। संत ज्ञानेश्वर चिंता में पड़ गए, अब आखिर क्या करें? वे तो संत हैं, जो बातें उनके बारे में चमत्कार की तरह प्रचलित-प्रचारित हैं, उन बातों को उन्होंने स्वयं तो नहीं फैलाया है। उनके आस्थावान अनुयायियों ने कहा, तो वे क्या करें..। अब यहाँ काशी के पंडित प्रत्यक्ष प्रमाण माँगने पर अड़े हुए हैं। संत ज्ञानेश्वर की चिंता गुरु निवृत्तिनाथ से छिपी नहीं थी। संत ज्ञानेश्वर कातर भाव से गुरु निवृत्तिनाथ की ओर देखते हैं, दो आँसू टपक पड़ते हैं। निवृत्तिनाथ कहते हैं, कि नंदी भूखा दिखता है, घास खिला दो...। लोग दौड़कर घास ले आते हैं, और यह क्या... संत ज्ञानेश्वर ने जैसे ही विनत् भाव से चारे का गट्ठर नंदी राजा के आगे किया, वे स्वयं ही मुँह उठाकर चारा खाने लगे। निवृत्तिनाथ, संत नामदेव, जनाबाई और अनेक भक्तों ने नंदी को चारा खिलाया।

यह कथा आज भी महाराष्ट्र से काशी आने वाले भक्तों को भक्ति के भाव में डुबो देती है। उन्हें आज भी नंदी राजा चारा खाने के लिए गरदन मोड़े हुए बैठे दिखाई देते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे पंढरपुर में विठोबा कमर पर दोनों हाथ रखे हुए ईंट पर खड़े दिखाई देते हैं। पंढरपुर में महावैष्णव भक्तराज पुंडलीक अपने माता-पिता की सेवा में अनवरत् लगे रहते थे। ऐसे मातृ-पितृभक्त के दर्शन करने विष्णु के अवतार विट्ठल आते हैं। पुंडलीक से मिलने के लिए कहते हैं। पुंडलीक एक ईंट फेंककर उनसे कहते हैं, कि इसमें बैठकर प्रतीक्षा करें, वे माता-पिता का काम पूरा करके, सेवा-टहल करके मिलने आएँगे। विट्ठल उस ईंट पर खड़े होते हैं, कमर में हाथ रखकर... कुछ इस तरह से, कि मुझे कब तक प्रतीक्षा करनी होगी? भगवान अपने भक्त की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अद्भुत हैं पंढरीनाथ.., कब से अपने भक्त की प्रतीक्षा में खड़े हैं।

आस्था और विश्वास का जैसा संयोग पंढरपुर में है, वैसा ही तो काशी में है, काशी के अधिपति विश्वेश्वर महादेव के प्रिय भक्त नंदी के साथ जुड़ा है। संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, माता जनाबाई आदि अनेक भक्तों-संतों-आस्थावानों के तीर्थक्षेत्र में आते रहने का विधान उसी आस्था व विश्वास की अनंत गाथा को दोहराता है। अनगिनत भक्त अपनी भावनाओं को सहेजकर काशी के बाबा के दर्शन को आते हैं, नंदी राजा के दर्शन को आते हैं..... और अपनी मनोकामनाओं को, अपनी चिंताओं को नंदी राजा के कान में बताकर इस भरोसे के साथ लौटते हैं, कि उनकी मनोकामनाएँ पूरी होंगी, उनके दुःख और चिंताएँ दूर होंगी। बाबा पर भरोसा जो है, वह कभी टूटता भी नहीं है, आस्था के भाव को सदैव दृढ़ करता जाता है।

बाबा विश्वनाथ के भक्त महंत पन्ना ने जब देखा, कि आक्रांताओं-आततायियों की नीयत उनके आराध्य विश्वेश्वर महादेव को अपवित्र करने की है, और तीर्थक्षेत्र भी सुरक्षित नहीं बचा है तब वे भी नंदी के कान में अपनी पीड़ा और अपनी मनोकामना कहकर विश्वेश्वर महादेव के विग्रह को लेकर, शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी में कूद जाते हैं। महंत पन्ना के मन में असीम विश्वास उसी लोक-आस्था का एक अंश दिखता है, जो औढरदानी अविनाशी शिव तक बात पहुँचाने वाले नंदी राजा से अपने भरोसे को जोड़ती है। काशी तीर्थक्षेत्र के परिसर में विश्वेश्वर महादेव के अनन्य भक्त नंदी राजा ने एक वह समय भी देखा, जब आस्थावान भक्तों की भीड़ उनसे अपने दुःख-दर्द कह जाती, अपनी मनोकामनाएँ कह जाती थी। बाद में वह समय भी देखा, जब आततायियों ने अपनी कुत्सित भावनाओं से, आक्रमण और आतंक से सबकुछ तहस-नहस कर डाला। विश्वेश्वर महादेव भक्त पन्ना के साथ ज्ञानवापी कुएँ में भले ही डूब गए हों, लेकिन नंदी राजा अविचल रहे। समय के साक्ष्यों को सहेजते हुए प्रतीक्षारत रहे। नंदी राजा तो सबकी सुनते रहे, महादेव तक सबकी बात पहुँचाते रहे, मगर नंदी की कौन सुने...। नंदी अपनी वेदना किससे कहें। यह प्रश्न समय की गति के साथ, काल के घूमते चक्र के साथ घूमता ही रहा... तिरता-उतराता ही रहा। कितनी पीढ़ियों ने प्रश्न के उत्तर खोजने के यत्न किए। कितने कुचक्र रचे गए, कितनी चालें चली गईं, कैसे ताने-बाने बुने गए... यह सब नियति ने देखा है। इतिहास ने स्वयं में यह सब समेटा है। ऐसी विकट विषमता के लंबे काल में न तो नंदी ने अपनी प्रतीक्षा छोड़ी, ओर न ही महाकाल के भक्तों ने अपनी आस्था व विश्वास को छोड़ा।

समय किस तरह करवट बदलता है, यह आज के समय में दिखाई दे रहा है। नंदी की वर्षों की साधना पूरी होती दिख रही है। नंदी की प्रतीक्षा पूरी हुई...., ऐसा चारों ओर सुनाई देने लगा है। शिवभक्तों की आस्था, उनका भरोसा दृढ़ हुआ है। औढरदानी विश्वेश्वर महादेव अपने भक्तों की प्रतीक्षा में पथराई आँखों में प्रसन्नता की चमक भर रहे हैं। शिव के प्रिय गण नंदी राजा भी अपनी प्रतीक्षा को पूरा होते देख रहे हैं। युगों-युगों से शिवभक्तों की याचनाओं को महादेव तक पहुँचाने वाले नंदी की याचना भी शिव ने सुनी है। इतने वर्षों में अनेक विषमताओं को देखने के लिए विवश नंदी राजा की आँखों से प्रसन्नता के अश्रु बरबस ही बह उठे हैं, ऐसा अनुभूत होता है। यह अनुभूति चितेरों की तूलिकाओं से भी उतरती है। सोशल मीडिया के अनेक पटलों पर घूमते चित्र यही तो बता रहे हैं।

नंदी शिव के भवन के द्वारपाल हैं, कैलास के द्वारपाल हैं। वे बल और शक्ति के प्रतीक भी हैं। वे कर्मठता और संपन्नता के प्रतीक भी हैं। नंदी लोक की आस्थाओं में रचे-बसे हैं। यह कोई आज की बात नहीं, यह कोई आज के भारत की बात नहीं...। दुनिया की अनेक सभ्यताओं में नंदी बसे हैं, समाए हैं। सिंधु घाटी की प्राचीनतम् सभ्यता के साथ ही बेबीलोन, सुमेरु और असीरिया की सभ्यताएँ नंदी के प्रति आस्था को व्यक्त करती हैं। नंदी सनातन की अविरल परंपरा के संवाहक हैं। नंदी केवल लोकजीवन में ही नहीं, धर्म और अध्यात्म की उच्चतम् स्थितियों में भी प्रतिष्ठित हैं। नंदी भारतीय जनजीवन की सुंदर झाँकी गढ़ते हैं। नंदी की प्रतीक्षा सनातन भारतीय जीवन की प्रतीक्षा है। नंदी का उद्घोष भारत की भारतीयता का उद्घोष है।

नंदी शिव के हैं, शिव की सवारी हैं। धेनुएँ, गउएँ कान्हा की हैं, ब्रजक्षेत्र जितना कान्हा की गउओं के रँभाने से सँवरता है, उतना ही नंदियों की हुँकार से गूँजता है। कान्हा के अधरों पर वंशी है, गीत है, संगीत है...। शिव के चरणों में भी तो लय है, ताल है, तांडव है। गीत-संगीत-नृत्य समानधर्मा हैं, लोक की चिंताओं का शमन करने वाले, लोक का रंजन करने वाले हैं। शिव और पार्वती लोकरंजक भी हैं, लोकरक्षक भी...। शिव-पार्वती के लिए लोकरक्षक राम की बाललीला आकर्षक होती है। राम लंका विजय के पहले शिव को पूजते हैं, रामेश्वरम् में...। कान्हा और राम एक ही तो हैं, और शिव इन दोनों से जुड़े हैं। लोक की आस्था, लोक का जीवन इन्हीं जुड़ावों के साथ संलग्न है, अभिन्न भी है। राम की अयोध्या नगरी में सरजू जी का जल यदि निर्मल होता है, तो काशी की गंगा और ब्रज की यमुना भी अपने निर्मल जल के आनंद में लोक को डुबो देना चाहती हैं। नंदी तो लोक की बात कहने वाले हैं, लोक के उद्धारक आशुतोष से..., हर महेश्वर रुद्र से.... सत्य और सुंदर को सहेजने वाले शिव से...। नंदी की प्रतीक्षा लोक के हितार्थ गरल का पान कर लेने वाले हर महेश्वर रुद्र, नीलकंठ महादेव के पुनः लोकहितार्थ जागृत होने के लिए है, भक्तों और आस्थावानों की आशाओं-कामनाओं-याचनाओं की पूर्ति के लिए है, और यह सब नंदी की प्रतीक्षा की पूर्णता के साथ सहज सुलभ दिखता है।

-राहुल मिश्र

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ, आषाढ़-सावन ,2079, जुलाई-2022 के अंक में प्रकाशित)





Wednesday, 16 August 2023

ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह


 ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह

 

“गुरु जी! यह ऊँट मनाली नहीं जा सकता है। वहाँ ठंडक हो, तो बनी रहे। इसे जो खाने को चाहिए, वह तो मनाली में मिलेगा नहीं... यहाँ की जैसी ठंडक भी नहीं......। चार-पाँच साल पहले कुछ लोगों ने इस ऊँट की नस्ल को मनाली तक पहुँचाने की कोशिश की थी। इसके लिए वे ऊँटों के जोड़े लेकर गए, लेकिन मनाली पहुँचते ही ऊँट जिंदा नहीं रह पाए।”

इतना सुनने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था, कि आखिर वे लोग इस ऊँट को मनाली क्यों ले जाना चाहते थे? मैं भी इस प्रश्न को उसी तरह अपने अंदर रोक नहीं सका, जिस तरह आप नहीं रोक पा रहे थे, अभी एक क्षण पहले...। मैंने तुरंत ही अपना सवाल उनके सामने रख दिया।

वे बोले- “टूरिजम, टूरिज्म़ के ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में इन ऊँटों का बड़ा ‘रोल’ है।” उनके इस उत्तर ने मेरे सामने चित्र को बहुत-कुछ स्पष्ट कर दिया। पिछले दिन, जब हम दुनिया के सबसे ऊँचे रास्ते को खरदुंग-ला में पार कर रहे थे, तब वहाँ तमाम पर्यटक फोटो खिंचाने में व्यस्त थे। लेह से नुबरा घाटी की ओर जाने वाले रास्ते में खरदुंग-ला पड़ता है, जिसकी ऊँचाई समुद्रतल से लगभग 18,380 फीट है। लदाख आने वाले पर्यटकों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है। खरदुंग-ला की ‘कॉफ़ी शॉप’ से लगाकर शिव मंदिर तक तमाम पर्यटकों की चहल-पहल थी। कुछ खरदुंग की ऊँची चोटी पर चढ़कर फोटो खिंचा रहे थे, और कुछ चुपचाप बैठे प्रकृति के इस सौंदर्य का रसपान कर रहे थे। बातचीत से लग रहा था, कि उन पर्यटकों में बड़ी संख्या महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्से के लोगों की है। जिज्ञासावश किनारे बैठे एक मराठी पर्यटक से मैंने पूछा, कि- आपको यहाँ के पर्यटन में क्या देखना सबसे ज्यादा रोमांचित करता है। उसका जवाब था, कि पहले तो बर्फ और फिर दो कूबड़ वाले ऊँट की सवारी का रोमांच ही उसे यहाँ तक ले आया है। उस मराठी पर्यटक के उत्तर और आज की बातचीत के तालमेल को बिठाते हुए मेरे सामने स्पष्ट हो गया, कि मनाली में पर्यटकों को लदाख की ‘फीलिंग’ देते हुए कमाई करने के उद्देश्य से यारकंदी ऊँटों को यहाँ से ले जाने की कोशिशें की गई होंगी। इन्हीं का जिक्र नोरबू साहब मुझसे कर रहे थे।

सन् 2017 के अगस्त महीने में दूसरी बार मेरा नुबरा घाटी में जाना हुआ था। इससे पहले शायद 2011 में नुबरा जाना हुआ था। उस समय दो कूबड़ वाले ऊँटों के बारे में केवल सुना था, देखने का मौका नहीं मिल पाया था। इस बार पूरी तरह से तय कर लिया था, कि दो कूबड़ वाले ऊँटों के दर्शन जरूर करने हैं। खास तौर से इस कारण भी, कि देश और दुनिया के कोने-कोने से लोग तमाम जहमत उठाकर नुबरा घाटी आते हैं और हम लदाख में रहते हुए भी अगर लदाख की इस प्रसिद्धि से साक्षात्कार नहीं कर पाए, तो शायद समय भी हमें माफ नहीं कर पाएगा। यही जोश और जज्बा था, कि जिसके बूते हम यारकंदी ऊँटों के सामने खड़े थे। इनके बारे में बहुत-कुछ पढ़ा भी था, मगर यहाँ नोरबू साहब से जो जानकारी मिल रही थी, वह शायद अब तक किताबों या ‘विकीपीडिया’ जैसी ‘अंतर्जालिक’ तकनीकों में उपलब्ध नहीं हो पाई थी। मेरे विस्मित हो जाने का बड़ा कारण भी यही था। दरअसल नोरबू साहब के पास बीस यारकंदी उँट थे, जिनमें पर्यटकों को सैर कराने का व्यवसाय वे करते थे।मेरे एक शिष्य के पिता होने के नाते नोरबू साहब ने बड़ी आत्मीयता के साथ मुझसे मुलाकात की थी। मैं वहाँ पहुँचने वाला हूँ, यह सूचना मेरे शिष्य ने उन्हें दे रखी थी।

जब नोरबू साहब ने मुझे यारकंदी ऊँटों के बारे में बताना शुरू किया, तब अतीत की बातें परत-दर-परत ऐसी खुलती चली गईं, जिन्होंने विचारों को पंख दे दिए। नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खान-पान की आदतों से लगाकर उनके रहने के तौर-तरीकों तक के बारे में विस्तार से बताया। नोरबू साहब ने रेशम मार्ग, यानि ‘सिल्क रूट’ में यारकंदी ऊँटों के योगदान को भी इतने विस्तार से बताया, कि कालिदास और विद्योत्तमा के जीवन में ऊँट का योगदान भी बरबस ही मेरे विचारों में कौंध पड़ा। विद्वान आचार्यों ने विदुषी विद्योत्तमा को मजा चखाने के लिए बुद्धिहीन कालिदास के साथ धोखे से विवाह करा दिया। भला हो, ऊँटों का....., जो वे एक दिन विद्योत्तमा की हवेली के बाहर से गुजर पड़े और मूढ़ कालिदास उन्हें उट्र-उट्र कहकर चिल्लाने लगे। तब कहीं जाकर विद्योत्तमा को पता लगा, कि मेरे पतिदेव तो निहायत मूढ़-मगज हैं। तब क्या था, उपचार शुरू हो गया और इस तरह ‘उपमा कालिदासस्य’, अर्थात् अपनी विलक्षण-अद्बुत उपमाओं के लिए संस्कृत साहित्य के उज्ज्वल नक्षत्र के समान कालिदास का प्राकट्य हुआ।

विद्योत्तमा और कालिदास के जीवन को बदलने वाले ऊँट बेशक यारकंद वाले नहीं थे, मगर ऊँट किस तरह जीवन बदल देते हैं, अपनी करवट से ऊँट कैसे हालात बदल देते हैं, यह जरूर स्पष्ट था। यारकंदी ऊँटों ने भी अनेक लोगों के जीवन को बदला है। प्राचीनकाल ही नहीं मध्यकाल में, और फिर रेशम मार्ग से यातायात के बंद हो जाने के बाद आज के समय में ‘डेजर्ट सफ़ारी’ के रूप में यारकंदी ऊँटों के योगदान को देखा जा सकता है। चीन के रेशम से अपना नाम पाने वाला पूरा रेशम मार्ग लगभग दस हजार किलोमीटर का होगा, मगर आज रेशम मार्ग के उत्तरी छोर को ही प्रमुख रूप से जाना जाता है। उत्तरी रेशम मार्ग या ‘सिल्क रूट’ लगभग 6500 किलोमीटर लंबा था। इसका संबंध मुख्य रूप से हिमालय की कराकोरम श्रेणी से रहा है। यह चीन की प्राचीन राजधानी शिआन से पश्चिम की ओर चलते हुए टकलामकान रेगिस्तान से निकलकर मध्य एशिया के बैक्ट्रिया और पर्शिया राज्यों तक जाता था। इसके आगे का रास्ता बढ़कर ईरान और रोम तक पहुँचता था। टकलामकान, जैसा कि अपने नाम से ही स्पष्ट कर देता है, कि मध्य एशिया का ऐसा रेगिस्तान था, जो एकदम उजाड़ और डरावना था। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था, कि जो टकलामकान रेगिस्तान में घुस जाता है, वह बाहर नहीं आ पाता है। इसी डर के कारण रेशम मार्ग के व्यापारी इस रेगिस्तान को उत्तर या दक्षिण दिशा से पार किया करते थे। दोनों दिशाओं से आने वाले रास्ते काश्गर के नख़लिस्तान में मिलते थे, और फिर आगे कराकोरम श्रेणी की तरफ चल पड़ते थे। शायद इसी के कारण किसी गंजे व्यक्ति को टकला कहा जाना और किसी उजाड़-वीरान जगह पर अचानक रौनक बिखर जाने पर उसे नख़लिस्तान कहा जाना प्रचलन में आया होगा। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था; वरन् इसमें अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति, वैचारिकता भी अपनी यात्राएँ करती थीं। जिस तरह रेशम मार्ग के व्यापारी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अपने सामानों की अदला-बदली करके व्यापार को चलाते थे, उसी तरह सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी आदान-प्रदान के माध्यम से चलती रहती थीं।

टकलामकान के बर्फीले रेगिस्तान से लगाकर उसके आगे मध्य एशिया के सर्द-बर्फीले इलाकों के लिए यारकंदी ऊँटों से बेहतर सवारी कोई नहीं हो सकती थी। इसी कारण 6500 किलोमीटर के इस लंबे रास्ते के अतीत की चर्चा भी यारकंदी ऊँटों के बिना पूरी नहीं हो सकती है। यारकंद या बैक्ट्रिया में पाए जाने वाले दो कूबड़ वाले ऊँटों को क्षेत्र के हिसाब से यारकंदी या बैक्ट्रियन ऊँट कहा जाता है। ये थार के रेगिस्तान में मिलने वाले ऊँटों से कम लंबे होते हैं और इनके दो कूबड़ होते हैं। इस कारण इन्हें सामान्य रूप से दो कूबड़ वाले ऊँट के तौर पर जाना जाता है। इनके शरीर में बाल भी बहुत होते हैं, जो इन्हें भीषण सर्दी और बर्फीली हवाओं से बचाते हैं।

मेरे मन में तमाम विचार एकसाथ चल रहे थे। बर्फीले रेगिस्तान को अपनी पदचापों से जीतने के लिए मनुष्य ने कैसे इन यारकंदी ऊँटों को अपना हमसफ़र बना लिया, और इनकी पीठ पर लदकर वस्तुओं के साथ ही संस्कृति-विचार व जीवन के रंग-ढंग भी भूगोल की सीमाओं को कैसे तोड़ देते हैं, यह सोचना ही अपने आप में बहुत रोमांचकारी है। लदाख अंचल में नानवाई की दुकानें चलाने वाले यारकंदी व्यवसायियों के वंशजों को अपने पूर्वजों का वह सफ़र आज शायद ही याद होगा, जो कभी इन यारकंदी ऊँटों की पीठ पर बैठकर तय किया गया होगा। समोसा खाते समय शायद ही हमें याद आता होगा, कि आज भारत के सर्वाधिक प्रिय और देशव्यापी समोसा ने इन्हीं यारकंदी ऊँटों में बैठकर भारतवर्ष तक का सफ़र किया होगा। समोसे की दुकानें तो देश-भर में मिल जाएँगी, मगर नानवाई की दुकानें लदाख की अपनी निजी पहचान हैं। नानवाई तंदूर में रोटियाँ बनाते हैं, जिन्हें लदाखी में ‘तागी’ कहा जाता है। तंदूरी रोटी के रूप में होशियारपुर के व्यापारियों के साथ पंजाब, और फिर देश के दूसरे हिस्सों में पहुँचने वाली लदाखी ‘तागी’ भी यारकंद की सौगात है।

मेरे विचारों की कड़ियों में दखल देते हुए जब नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खानपान की आदतों के बारे में बताया, तो एकबारगी यह भी महसूस हुआ, कि यारकंदी ऊँटों से ज्यादा धैर्यवान और सहनशील जीव धरती पर खोजना बहुत कठिन है। जरा-से पानी या थोड़ी-सी बर्फ से अपने शरीर में जल का स्तर बनाए रखकर और कँटीली झाड़ियों को खाकर अपना पेट भर लेने वाले ऊँट मानव के लिए आत्मबलिदान ही तो करते रहे हैं.......शायद। उनकी पीठ पर चमड़े के बड़े-बड़े थैलों में भरा पानी, तंदूर में बनी नानवाई की रोटियों से भरे बंडल और रेगिस्तान के सफ़र में चटखारेदार भोजन की कमी को पूरा करने वाले समोसेनुमा व्यंजन से भरे पात्रों को लादकर रेशम मार्ग में चलने वाले ऊँटों के हिस्से में लेह बेरी जैसी कँटीली झाड़ियाँ ही आती रही होंगी।

यारकंदी ऊँट छः मन, यानि लगभग ढाई क्विंटल तक भार उठा सकते हैं। इनके लिए समतल रेगिस्तान में चलना तो आसान होता है, मगर घाटियों की चढ़ाई-उतराई और बर्फीली चट्टानों पर चलना कठिन होता है। नोरबू साहब के द्वारा दी गई इस जानकारी के बाद महसूस हुआ, कि रेशम मार्ग में पड़ने वाले लदाख के पनामिग गाँव से आगे तुरतुग-बोगदंग आदि बल्तिस्तानी गाँवों की तरफ चलने पर शयोग नदी के एक ओर कराकोरम और दूसरी ओर लदाख रेंज के पहाड़ों की दुर्गम ऊँचाइयों पर सिल्क रूट के ध्वंसावशेष पतली-सी लकीरों की तरह दिखाई पड़ते हैं। इनमें यातायात के अनुशासन को देखते हुए आने, और जाने के रास्ते भी बाकायदा अलग-अलग समझ में आते हैं। नोरबू साहब से ही पता लगा, कि याक, घोड़े और टट्टू ‘शटल’ सेवा की तरह सिल्क रूट में प्रयुक्त होते थे। हिमनदों और विकराल दर्रों को पार कराने में जहाँ याक विश्वसनीय होते थे, वहीं ऊँचाई पर चढ़ने और तेजी के साथ सामान की ढुलाई करने में घोड़ों और टट्टुओं का उपयोग किया जाता था। इस तरह अलग-अलग स्थानों पर किराए से इन भारवाहकों को उपलब्ध कराने वाले किरायाकशों की बस्तियाँ भी होती थीं।

नोरबू साहब ने बड़े गर्व के साथ बताया, कि सिल्क रूट में चलने वाले कारवाँ के कारण नुबरा घाटी गुलजार रहती थी। उन दिनों नुबरा घाटी लेह के आसपास के इलाकों से कहीं ज्यादा संपन्न थी। हमारे पुरखों के लिए समरकंद, बुखारा दुर्गम नहीं थे। पनामिग गाँव में उस समय मध्य एशियाई व्यापारियों के लिए बेहतर शरणगाह होती थी। यह एक तिराहा जैसा भी था, जहाँ से लेह के लिए संपर्क मार्ग बना हुआ था। हुंदर का राजमहल रेशम मार्ग के यातायात में नजर रखने के लिए बनवाया गया था। इसके भौगौलिक और सामरिक महत्त्व को देखते हुए कई आक्रमणकारियों ने इसे जीतने की कोशिश भी की। वे बताते हैं, कि नुबरा, यानि फूलों की घाटी सिल्क रूट में किसी नख़लिस्तान से कम नहीं थी। सिल्क रूट में व्यापार बंद हो जाने के बाद लंबे समय तक नुबरा घाटी उपेक्षित रही है।

वैसे उपेक्षा तो यारकंदी ऊँटों की भी हुई है। उनका स्वर्णिम अतीत, जो उन्हें सिल्क रूट के शहंशाह का खिताब दिलाता था, आज केवल किताबों में सिमट गया है। सन् 1870 में कुछ यारकंदी ऊँटों को लदाख के मुख्यालय लेह में पहुँचाया गया। पुराने समय में इनका उपयोग माल ढोने के लिए स्थानीय स्तर पर होता रहा, किंतु सड़कों के बन जाने और यातायात के साधनों के सुलभ हो जाने के बाद इनकी उपयोगिता नहीं रही। लेह से लगभग दस किलोमीटर दूर छुशोद नामक गाँव में एक ठिकाना यारकंदी ऊँटों के लिए बनवाया गया है। इस गाँव में अरगोन समूह के लोग भी रहते हैं, जिनका अपना अतीत सिल्क रूट व्यापार से जुड़ा रहा है। किराए पर भारवाहक पशुओं को उपलब्ध कराने और व्यापारियों को रास्ता दिखाने के अलावा ये व्यापार में भी थोड़ा-बहुत हाथ आजमा लेते थे। सिल्क रूट का व्यापार बंद हो जाने के बाद अरगोन और यारकंदी ऊँट, दोनों का जीवन बदल गया।

अपनी दो कूबड़ वाली पीठ पर मानव के जीवन को सैकड़ों वर्षों तक ढोने वाले यारकंदी ऊँटों के लिए अब शिआन से बैक्ट्रिया या वाह्लीक प्रांत का विशाल भूभाग, पामीर से हिंदुकुश या पारियात्र पर्वतश्रेणी तक की महान-पवित्र धरती अलग-अलग हिस्सों में बँट गई है। यहाँ के रहवासी अब यह भूल चुके हैं, कि वे कभी एक सूत्र से जुड़े हुए थे। रेशम मार्ग अब अतीत की रोचक पहेली की तरह आने वाली संततियों को शायद यह बता सकेगा, कि हिमालय में ऐसे कारवाँ भी कभी चलते रहे हैं, जिन्होंने आज के दर्जनों देशों तक व्यापारिक वस्तुएँ ही नहीं पहुँचाई हैं; वरन् संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन और वैचारिकता के ऐसे आदान-प्रदान भी किए हैं, जिनके कारण ‘वसुधैव-कुटुंबकम्’ के भाव सही अर्थों में स्थापित हुए। इन सबके पीछे केवल मानव रहा, यह कहना नितांत अतार्किक होगा। इसके लिए यारकंदी ऊँटों के प्रति कृतज्ञता का भाव उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार चेतक और बेंदुला के लिए होता है।

नोरबू साहब अब भी यारकंदी ऊँटों की ढेरों बातें बताते जा रहे थे। घड़ी की सुई दोपहर का एक बज गया है, ऐसा बता रही थी। नोरबू साहब के कथनानुसार अब ऊँटों के लंच का समय हो गया था। सामान्य-से कर्मचारियों की तरह ऊँटों को भी दो घंटे की छुट्टी मिली थी, पर्यटकों को मौज-मस्ती कराने के काम से। उनकी पीठ पर पड़ी झूलों को उतारा जा रहा था। उनकी नकेल को आजाद किया जा रहा था। अभ्यस्त दिनचर्या के अनुरूप सभी चल रहे थे। मेरे सामने यारकंदी ऊँटों की तीन पीढ़ियाँ थीं। इनमें बुजुर्गों से लगाकर युवाओं तक, और बच्चों की तरह उछल-कूद करते, अपनी ‘ड्यूटी’ से अनजान उष्ट्र शावकों में से किसी को भी यह अहसास नहीं होगा, कि एक जमाने में यहाँ उनके पुरखों की तूती बोलती थी। एक जमाने में वे सिल्क रूट के शहंशाह हुआ करते थे। यह अहसास तो उन पर्यटकों को भी नहीं होगा, जो दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी करने की उत्कट अभिलाषा लिए वहाँ पर मौजूद थे, और ‘शहंशाहों’ के अपनी नौकरी पर वापस लौटने का इंतजार कर रहे थे।

-राहुल मिश्र


(साहित्य संस्कार, त्रैमासिकी, जबलपुर के प्रवेशांक, जनवरी, 2019 में प्रकाशित)


Friday, 9 June 2023

निर्मल मन जन सो मोहिं पावा

 


निर्मल मन जन सो मोहिं पावा

इदं    तु     ते     गुह्यतमं    प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।1।।

राजविद्या       राजगुह्यं      पवित्रमिदमुत्तमम् ।

प्रत्यक्षावगमं    धर्म्यं    सुसुखं   कर्तुमव्ययम् ।।2।।

श्रीमद्भगवद्गीता के नवें अध्याय के प्रारंभ में श्रीकृष्ण और अर्जुन के मध्य संवाद होता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- हे अर्जुन! तुम दोष-दृष्टि से रहित मेरे परम भक्त हो, इसलिए इस परम गोपनीय ज्ञान को, जो विज्ञान से परिपूर्ण है, तुमसे भली-भाँति कहूँगा। इस ज्ञान को जानकर तुम इस दुःखरूपी संसार से मुक्त हो जाओगे। विज्ञान से परिपूर्ण यह ज्ञान सभी विद्याओं में श्रेष्ठ है, सभी रहस्यों का रहस्य है, अत्यंत पवित्र और उत्तम है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष फल देने वाला और धर्म से युक्त है। इस ज्ञान की साधना बहुत सरल है और इस ज्ञान का विनाश कभी नहीं होता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान, धर्म, भक्ति, शरणागति और योग आदि को बताने से पहले इनकी गोपनीयता, रहस्यमयता और इनके गूढ़ होने की ओर संकेत करते हैं। भक्ति, विज्ञान और नीति से जुड़े तत्त्वों का समग्र ज्ञान स्वयं में रहस्य से पूर्ण होता है और भक्ति, ज्ञान, तर्क या फिर नीति में से किसी एक के होने मात्र से ही इस रहस्य को नहीं जाना जा सकता। इसके लिए सर्वांगपूर्ण होना आवश्यक है। इसी आधार पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस ज्ञान की प्राप्ति हेतु उपयुक्त पात्र जानकर ही उसे इसका उपदेश दिया। वह भी तब, जब उसने इसे जानने की अपनी उत्कट अभिलाषा प्रकट की।

इस ज्ञान के अव्यय-भाव की ओर भी श्रीकृष्ण संदेश देते हैं-

इमं    विवस्वते    योगं  प्रोक्तवानहमव्ययम् ।

विवस्वान्मन्वे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।1।।

एवं     परम्पराप्राप्तमिमं     राजर्षयो  विदुः ।

  कालेनेह  महता  योगो  नष्टः परंतप ।।2।।

मैंने इस अविनाशी योग का वर्णन सूर्य से किया था। सूर्य ने इसे अपने पुत्र वैवस्वत मनु से बताया और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को बताया। हे परंतप अर्जुन! इस तरह परंपरा से प्राप्त इस अव्यय ज्ञान को राजर्षियों ने जाना और उसके बाद यह ज्ञान धरती पर बहुत समय तक लुप्तप्राय ही रहा। अब तुमको यह ज्ञान देकर सनातन परंपरा को पुनः स्थापित करूँगा।

श्रवण के माध्यम से गूढ़ रहस्य-ज्ञान के संचरण की परंपरा तुलसी के श्रीरामचरितमानस में भी है। राम-चरित के रचयिता भगवान शिव से भगवती पार्वती, महर्षि लोमश, लोमश ऋषि से काकभुशुंडि, काकभुशुंडि से याज्ञवल्क्य और याज्ञवल्क्य से महर्षि भरद्वाज ने रामकथा को सुना। यह रामकथा तुलसीदास ने सूकरखेत में अपने गुरु से सुनी। इस रामकथा को बाबा तुलसी ने जनसामान्य की भाषा में सरल, सहज, सुगम और सुबोध ढंग से लिखा, जो श्रीरामचरितमानस के रूप में पूर्ण हुई।

काल की गति को मापने वाली वृहदतम इकाइयों तक विस्तृत गूढ़, गुह्य, रहस्यपूर्ण विपुल ज्ञानराशि के प्रतिनिधि- श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस इसी कारण सामान्य-से और साधारण-से धर्मग्रंथ-मात्र नहीं हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में आराधक और आराध्य के संवाद हैं, एक जिज्ञासु की जिज्ञासाएँ और उनके समाधान हैं तथा विषय का सम्यक्, सर्वांग निरूपण है। इस कारण गीता के अनुशीलन में विद्वानों को भटकना नहीं पड़ता है। इसके विपरीत श्रीरामचरितमानस में राम के चरित्र के सहारे और रामकथा के अन्य पात्रों के माध्यम से बाबा तुलसी ज्ञान के गूढ़ रहस्य को स्थापित करते हैं।

मानस के प्रारंभ में ही बाबा तुलसी अपनी विनम्रता प्रकट करने के साथ ही रामकथा के गूढ़ तत्त्व की विवेचना करते हैं-

श्रोता    बकता    ग्याननिधि   कथा   राम   कै  गूढ़ ।

किमि समुझौं मैं जीव जड़, कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ।।1/30 (ख)।।

बाबा तुलसी की यह आत्मस्वीकार्यता रामचरित की गुह्यता और उसकी रहस्यमयता को स्पष्ट करने में सक्षम है। अपने विवेक से, अपने आत्मबोध से और अपनी सामर्थ्य से बाबा तुलसी रामकथा के गूढ़ तत्त्वों को जितना समझ पाए थे, वह भी उन्हें पर्याप्त नहीं लगा था और भ्रम में पड़ जाने का संदेह भी उन्हें था; संभवतः इसी कारण उन्होंने रामकथा को गूढ़ कहकर उसके स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया होगा। दूसरी ओर, कलिकाल की मूढ़ता से ग्रस्त अज्ञानी और जड़ जीव के लिए रामकथा को उसके वास्तविक अर्थ में ग्रहण कर पाने, समझ पाने की कठिनतम स्थितियों को भी बाबा तुलसी ने बड़ी सरलता के साथ स्पष्ट कर दिया था।

बाबा तुलसी का मानस आमजन के लिए, आम लोगों की भाषा में, समग्र लोकसंस्करण की भूमिका में है। वाल्मीकि रामायण, आनंद रामायण, अध्यात्म रामायण और ऐसे ही अनेक क्लिष्ट महाग्रंथों के रस-संचयन के उपरांत, सगुण-निर्गुण ब्रह्म के लोक में निरूपण के उपरांत तुलसी का यह लोकमहाकाव्य कहीं लोकरंजन की वस्तु-मात्र बनकर न रह जाए, ऐसी चिंता तुलसी के मन में बार-बार उठती रही; और इसी के फलस्वरूप वे राम की कथा को गूढ़, गुह्य, रहस्यपूर्ण कहकर इसके आध्यात्मिक, पारमार्थिक महत्त्व को स्थापित करने का निरंतर प्रयास करते रहे। यह प्रयास उस परंपरा का भी अंग था, जो श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को उपदेश देने से पहले निभाई गई थी।

जिस ज्ञान, विज्ञान, भक्ति, शरणागति के साथ विश्वकल्याण की, मानवता के उद्धार की, समाज के सच्चे-सात्विक विकास की अवधारणा जुड़ी हो और जो ज्ञान मोक्ष या मुक्ति या निर्वाण जैसी स्थितियों की प्राप्ति का माध्यम हो, उसे सामान्य या प्रचलित पद्धति में न तो बताया जा सकता है और न ही ग्रहण किया जा सकता है। ऐसे ज्ञान को ग्रहण करने के उपायकर्त्ता की पात्रता के विषय में चिंतित होना अत्यंत सामान्य बात है। इसी चिंता के कारण ज्ञान को बाँटने से पहले उसकी गुह्यता का, उसके रहस्य और गूढ़ता का वर्णन करके ज्ञान की महत्ता को रेखांकित किया जाना अनिवार्य बन जाता है। तुलसीदास जैसा विलक्षण और क्रांतिदृष्टा संत स्वयं को ‘जीव जड़’ और ‘कलिमल ग्रसित बिमूढ़’ कहकर अपनी अपात्रता को बताने का प्रयास करता है। यह भले ही उनकी विनम्रता हो, मगर इस कथन में निहित भाव को गूढ़-गुह्य ज्ञान की महत्ता के संदर्भ में देखा जाना अपेक्षित होगा।

गूढ़ता, गुह्यता, रहस्यमयता और अर्थ-सघनता के प्रति बाबा तुलसी का आग्रह उस तत्त्व को स्थापित करने के आशय से है, जो सांसारिक दुःखों-कष्टों, वेदनाओं, विकारों के त्रिस्तरीय परिहार के लिए अत्यंत आवश्यक है। जब उस तत्त्व की स्थापना समाज में हो जाती है, जब रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब मनुष्य दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से, त्रिस्तरीय बंधनों से मुक्त हो जाता है। यही तो रामराज्य की विशेषता है-

दैहिक, दैविक भौतिक तापा । रामराज्य नहिं काहिहु व्यापा ।।

रामराज्य पर महात्मा गांधी ने भी बहुत जोर दिया है। जब रामराज्य की स्थापना और उसकी अवधारणा की चर्चा होती है, तब अनेक चिंतक-विचारक धार्मिक संकीर्णता के छद्म आवरण में अवरुद्ध होकर  धर्मविशेष-मात्र की प्रभुसत्ता या वर्चस्व को देखने लगते हैं। महात्मा गांधी ने अपने जीवन-दर्शन को, अपने अनुभवों को, और भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व के कल्याण के हेतु अपने विचारों को ‘हिंद स्वराज’ में संकलित कर दिया है। ‘हिंद स्वराज’ गांधी दर्शन का सार है। इसमें रामराज्य की अवधारणा है, इसकी स्थापनाएँ हैं। इसमें बाबा तुलसी और बापू के राम के उस तत्त्व की विवेचना है, जिसमें त्रिविध तापों को दूर करने की क्षमता निहित है। इसमें राम के उस तत्त्व की विवेचना है, जो व्यष्टि से लगाकर समष्टि तक कल्याण की सामर्थ्य रखता है। बापू जीवन-पर्यंत इस राम तत्त्व की साधना करते रहे। उनके जीवन का अंतिम उद्गार भी ‘हे राम!’ था। बापू के राम किसी धर्म, मत, पंथ, संप्रदाय-विशेष के राम नहीं थे। इसी कारण उनके व्यक्तित्व का विस्तार सारे संसार में आज भी है।

बापू के राम, बाबा तुलसी के राम और उनकी गूढ़ कथा को समझने के लिए राम के त्रिविध स्वरूप को, और राम की त्रिस्तरीय भूमिका को जानना आवश्यक होगा। गूढ़ता, गुह्यता और रहस्यमयता यही है। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी । और निर्मल मन जन सो मोहिं पावा, मोहिं कपट छल छिद्र न भावा । आदि पंक्तियों के माध्यम से बाबा तुलसी राम के गूढ़, गुह्य और पारमार्थिक कल्याणकारी तत्त्व की प्राप्ति की पात्रता को स्पष्ट करते हैं। जो इस पात्रता को पूरा नहीं कर पाता, वह राम के स्वरूप को, राम तत्त्व को एकांगी-एकपक्षीय देखता और जानता-समझता है। वह भ्रम में पड़ जाता है। तब या तो वह कट्टर धार्मिक हो जाता है, या फिर कट्टर अधार्मिक बनकर रह जाता है।

राम का आधिभौतिक स्वरूप सामान्य मानव की भाँति सांसारिक क्रियाकलापों में विन्यस्त है। संसार के षड्यंत्रों, प्रपंचों, अपराधों, कुकर्मों और आसुरी प्रवृत्तियों से जूझता और परास्त करता राम का आधिभौतिक स्वरूप सामान्य और सहज बुद्धि वालों के लिए सुग्राह्य बन जाता है। लोक में राम की लीला राम के प्रति भक्तिभाव को जन्म देती है। आधिदैविक राम तत्त्व विष्णु का अवतार है, शिव का आराध्य है, इसलिए पूज्य है। नारायण की नर-लीला भक्ति में नया आयाम जोड़ती है। आधिदैविक राम तत्त्व से आधिभौतिक राम तत्त्व पुष्ट होता है, इस कारण सांसारिक क्रियाकलाप, असुरों का संहार और ऐसे अन्यान्य क्रियाकलाप बड़े चमत्कारिक ढंग से कुशलतापूर्वक संपन्न होते हैं। बाबा तुलसी के मानस में यह पक्ष तुलसी की राम के प्रति अनन्य भक्तिभावना के कारण पुष्ट होती है, जबकि वाल्मीकि रामायण में राम का आधिदैविक तत्त्व सामान्य मानव के अधिक समीप का दिखता है। राम का आध्यात्मिक तत्त्व ऐसे उत्कृष्टतम स्तर पर है, जिसने राम को मर्यादा की स्थापना करने वाले उत्तम पुरुष की श्रेणी में स्थापित किया है। राम के आध्यात्मिक  तत्त्व में ही वह गूढ़ता, गुह्यता निहित है, जिसे निर्मल मन के बिना पाया नहीं जा सकता, जाना भी नहीं जा सकता। ऐसा निर्मल मन विभीषण का था। जीवरूपी विभीषण सांसारिक आसक्ति, कामना और वासना की प्रतिरूप लंका में मोह, लोभ, द्वेष, कपट आदि के बीच छटपटाता है। जब कभी उसका विवेक उसे वैराग्य रूपी हनुमान के माध्यम से उसे कामना रहित धर्म की, विकार रहित मर्यादा की, सच्ची मानवता की और नीति-आदर्श के वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग सुलभ कराता है, तब उसकी परिणति राम की शरणागति के रूप में होती है।

राम का आधिभौतिक तत्त्व सार्थक और निष्काम कर्म के ज्ञान के प्रतीक महाराजा दशरथ और भक्तिस्वरूपा माता कौशल्या के माध्यम से उपजता है, जो विजय और विभूति की प्राप्ति के लिए जीवनपर्यंत धर्म का पालन करता है, मानवता की रक्षा करता है, जीवन के उच्चतम आदर्शों को, मर्यादाओं को स्थापित करता है; तथा यम-नियम रूपी दिग्पालों को मोहरूपी रावण से मुक्त कराकर मोक्ष का मार्ग दिखाता है। इस राम तत्त्व में परहित को धर्म से श्रेष्ठ और परपीड़ा को अधर्म से भी ज्यादा निकृष्ट बताकर जगत्कल्याण की जैसी भावना स्थापित की गई है; वह राम, अर्थात् मर्यादा और धैर्य, अर्थात् सीता के बिना संभव नहीं है।

मानस में अनेक स्थानों पर उपदेश देने के प्रसंगों के माध्यम से बाबा तुलसी ने राम के आध्यात्मिक तत्त्व की स्थापनाएँ की हैं। इसके साथ ही अज्ञान के अंधकार से आवृत्त जड़ जीव को ज्ञान का दीपक जलाकर तथा भक्ति की चिंतामणि को फेरकर शाश्वत प्रकाशपुंज का अंश बनने का उपदेश बाबा तुलसी उत्तरकांड में देते हैं।

राम का आध्यात्मिक तत्त्व राम और रावण के ऐतिहासिक या पौराणिक अस्तित्वमात्र को मानकर ही नहीं चलता, वरन् राम और रावण के शाश्वत स्वरूप को व्याख्यायित करता है। प्रत्येक मनुष्य में राम और रावण हैं। प्रत्येक मानव के आध्यात्मिक धरातल पर राम-रावण संग्राम भी चल रहा है। इस संग्राम का प्रतिफल मानव के कार्य-व्यवहार, आचरण, जीवन-शैली, वाणी, विचार और संबंध में प्रकट होता रहता है। इसी कारण भौतिक स्तर पर राम का भक्त दिखने वाला कोई भक्त अपने अभौतिक रूप में, अपने अचेतन में रावण का भक्त भी हो सकता है। ऐसे भक्तों को प्रभु की मूरत उनकी अपनी अज्ञानता के कारण वैसी ही दिखती है।

दूसरी बात आत्मबल और कर्म पर एकाग्रनिष्ठा की है। महाभारत के प्रसंग में विकट धनुर्धारी अर्जुन ने कर्म पर एकाग्रनिष्ठ और लक्ष्य पर एकाग्र होने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन द्रोपदी स्वयंवर के समय मछली की आँख पर निशाना साधकर कर दिया था। उसके अंदर आत्मबल और कर्मबल की शक्तियाँ तो थीं, किंतु सुषुप्तावस्था में थीं। श्रीकृष्ण को इसका आभास था, इस कारण कर्मयोग का उपदेश देकर उन्होंने अर्जुन की सुषुप्त शक्तियों को जागृत किया। कृष्ण को अर्जुन और अर्जुन को कृष्ण न मिलते, तो महाभारत का युद्ध तब भी नहीं जीता जा सकता था, और आज भी नहीं जीता जा सकता है।

कृष्ण को छलिया-प्रपंची मानने वाली; और साथ ही विभीषण को देशद्रोही, राम को शम्बूक वध का अपराधी देखने वाली आधुनिकताबोधी दृष्टि राम के गूढ़, गुह्य तत्त्व को उसके वास्तविक रूप में ग्रहण न कर पाने के कारण भटक जाती है। यह भटकाव धर्मभीरुता या धार्मिक कट्टरता या फिर धार्मिक विद्वेषजन्य विषमता को जन्म देता है। ऐसे में बाबा तुलसी के राम, बापू के राम और उनका रामराज्य समझ से परे हो जाता है।

राम के भौतिक तत्त्व से अधिक प्रबल राम का आध्यात्मिक तत्त्व है, क्योंकि वही जीवन के सच्चे, सार्थक, शाश्वत मूल्यों को, मर्यादा को, नैतिकता और आदर्श को युगों-युगों तक संरक्षित रख सकने की सामर्थ्य रखता है। इसी कारण राम से बड़ा राम का नाम है। इसी कारण बापू के राम ने ऐसे रामराज्य की परिकल्पना स्थापित की थी, जो इस विश्व को सुंदर बना सकता था। इसी कारण बाबा तुलसी ने अपने जीवन के अनेक कठिन संघर्षों को, विभीषिकाओं को धर्मानुरूप और सम्यक् भाव से विजित करने की क्षमता पाई थी। इस गूढ़ तत्त्व को समझकर; राम को नहीं, राम के नाम को जानकर कोई भी मनुष्य अपने जीवन को मोक्ष का पर्याय बना सकता है। इसके लिए गुह्य-गूढ़ ज्ञान को जानने की पात्रता को उपजाना होगा और उसके बाद दोनों महाग्रंथों- श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस के मूल रस का आस्वादन करके जीवन को सार्थक और कल्याणकारक बनाया जा सकता है।

-राहुल मिश्र

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के जून, 2023 अंक में प्रकाशित)