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Friday, 5 September 2025

 

अपराजेय योद्धा श्रीमंत बाजीराव बल्लाळ भट्ट

हिंदवी साम्राज्य के स्वप्न को साकार करने वाले अपराजेय योद्धा श्रीमंत बाजीराव बल्लाळ भट्ट की पुण्यतिथि पर विगत 28 अप्रैल को रावेरखेड़ी में भव्य आयोजन हुआ। मध्यप्रदेश के खारगौन जनपद में रावेरखेड़ी नर्मदा के तट पर स्थित एक अनजाना-सा गाँव है, लेकिन हिंदवी साम्राज्य के अपराजेय योद्धा की समाधि ने इस गाँव को न केवल वैश्विक मानचित्र पर उकेरा है, वरन् भारतीय शौर्य और सनातन आस्था के समर्पित जनों के लिए तीर्थ की भाँति पूज्यनीय बनाया है।

दिल्ली से विजय-पताका फहराते हुए लौट रहे पेशवा बाजीराव का पड़ाव रावेरखेड़ी में पड़ा था। यहीं उनका स्वास्थ खराब हुआ और 28 अप्रैल, 1740 को उन्होंने देवलोकगमन किया। श्रीमंत के स्वामिभक्त ग्वालियर के सिंधिया राजे ने उनकी समाधि बनवाई। समाधि-स्थल भव्य किले के रूप में है, लेकिन यह स्थान और साथ ही रावेरखेड़ी इतिहास के पन्नों में अनजाना-सा रहा है। सच्चाई तो यह है, कि बाजीराव पेशवा को भी कम लोग ही जानते होंगे। वर्ष 2015 में एक फिल्म आई थी- बाजीराव मस्तानी। यह फिल्म नागनाथ इनामदार के मराठी उपन्यास राऊ पर केंद्रित थी। इस फिल्म ने बाजीराव पेशवा का जैसा परिचय समाज को देने का प्रयास किया, वह भारत के गौरवपूर्ण अतीत का अनुशीलन और समाज का सच से निदर्शन नहीं करा सका है। पेशवा बाजीराव की अद्भुत युद्धकला, उनका संगठन-कौशल, उनका शौर्य और पराक्रम, उनकी वीरता के अनेक गौरवपूर्ण अध्यायों पर एक मनगढंत प्रेमकथा का आवरण डाला गया है। मस्तानी बुंदेल-केसरी वीर छत्रसाल की धर्म-पुत्री थी, और पराक्रम में भी किसी से कम नहीं थी। महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को अपना पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड के राज्य का एक तिहाई भाग बाजीराव पेशवा को दिया था। कुँवरि मस्तानी ने महाराजा छत्रसाल के गुरु महामति प्राणनाथ द्वारा प्रवर्तित प्रणामी संप्रदाय की विधिवत् दीक्षा ली थी। बाजीराव पेशवा और मस्तानी कुँवरि के संबंध अतीत की सच्चाई हैं, लेकिन इनका केवल कल्पनाजन्य विस्तार ही कथा-उपन्यासों और फिल्मों तक आता है। खेदजनक तो यह है, कि बाजीराव-मस्तानी के संबंधों का सम्यक मूल्यांकन और ऐतिहासिक शोधपरक अध्ययन इतिहासकारों के अध्ययन-क्षेत्र में नहीं आ सका। फलतः सही व सर्वाङ्गपूर्ण जानकारी का अभाव हमारे चरितनायक को, भारतीय शौर्य की गौरवशाली परंपरा के प्रमुख मानबिंदु को, बाजीराव बल्लाळ भट्ट को अपेक्षित मान नहीं दिला सका।

सैन्य-अध्ययन में बहुत प्रचलित युद्ध-तकनीक है- ब्लिट्जक्रेग। हिंदी में इसे विद्युतगति युद्ध कह सकते हैं। इस युद्ध पद्धति के जनक पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने गुरिल्ला युद्ध पद्धति के द्वारा मुगलों को अनेक युद्धों में परास्त किया था। उनकी इस युद्ध-पद्धति को सामयिक आवश्यकता और अनिवार्यता के अनुरूप विस्तारित करते हुए श्रीमंत बाजीराव ने बिजली की गति से शत्रु पर टूट पड़ने की युद्ध पद्धति को अपनाया। शत्रु जब तक युद्ध के हालात को समझ पाए, तब तक शत्रु पर चारों ओर से एकसाथ आक्रमण कर देना। उनकी इसी युद्ध पद्धति के कारण उन्हें हर युद्ध में विजयश्री मिली। ब्रिटिश सेना के फील्ड मार्शल बर्नार्ड लॉ मांटगोमरी द्वितीय विश्वयुद्ध के सबसे सफल और प्रमुख कमांडर थे। जनरल मांटगोमरी की प्रसिद्ध पुस्तक है- हिस्ट्री आफ वारफेयर। इस पुस्तक में उन्होंने बाजीराव पेशवा की अश्वसेना सहित उनकी बिजली-युद्ध पद्धति की बहुत प्रशंसा की है। वे लिखते हैं, कि- “पेशवा बाजीराव प्रथम एक भी युद्ध नहीं हारे। वे सदैव संख्याबल में कम, किंतु कुशल घुड़सवार सैनिकों के साथ बिजली की गति से आक्रमण कर दुश्मन की लाखों की सेना को परास्त कर देते थे।“

28 फरवरी, 1728 को संभाजीनगर (पूर्ववर्ती औरंगाबाद) के निकट पालखेड़ गाँव के समीप हुए पालखेड़ का युद्ध उनके इस रणकौशल का उत्कृष्टतम उदाहरण है। पालखेड़ के युद्ध में उनकी नवोन्मेषी युद्धनीति, रणनीति और राजनीतिक कुशलता का अद्भुत साम्य देखने को मिलता है। इसी कारण पालखेड़ का युद्ध विश्व के चर्चित और प्रसिद्ध युद्धों में अपना स्थान भी रखता है और आज भी ‘केस-स्टडी’ के रूप में पढ़ा-पढ़ाया जाता है। ब्रिटेन और अमरीका में आज भी सैन्य-अध्ययन के अंतर्गत पालखेड़ का युद्ध ‘केस-स्टडी’ के रूप में पढ़ाया जाता है।

पिता बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के उपरांत छत्रपति शाहूजी महाराज के समक्ष पेशवा के पद को लेकर बड़ा संकट खड़ा हो गया था। उस समय बाजीराव की आयु 19 वर्ष के आसपास थी। अल्पवय के बाजीराव की वीरता और कर्मठता ने शाहूजी महाराज को बहुत प्रभावित किया, और उन्होंने बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया। इसके उपरांत बीस वर्षों तक बाजीराव पेशवा ने कभी अपनी कमर की तलवार नहीं खोली, कभी अश्व की सवारी नहीं छोड़ी और अटक से कटक तक भगवा ध्वज फहराकर शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज के स्वप्न को साकार किया। विश्व का इतिहास साक्षी है, कि शक्तिशाली सेनापति हो या सामान्य-सा सैनिक, या फिर परिवार का ही व्यक्ति... अवसर पाते ही सत्ता हथियाने के प्रयास प्रारंभ कर देता है। भारत का मध्यकाल तो ऐसे विश्वासघातों से भरा पड़ा है, जहाँ सत्ता पाने के लिए भाई अपने भाइयों को मार डालता है, पिता को बंदी बना लेता है... भतीजा अपने चाचा की धोखे से हत्या कर देता है, आदि...आदि। इसी मध्यकाल में अप्रतिम योद्धा बाजीराव बल्लाळ भट्ट की स्वामिभक्ति, उनका त्याग और समर्पण, आदर्श और नैतिकता की अक्षय कीर्ति सनातन भारतीय परंपरा के, उदात्त भारतीय जीवन-पद्धति और जीवन दर्शन के जीवंत-जागृत साक्ष्य के रूप में हमारे समक्ष है। पेशवा बाजीराव की प्रधान मुद्रा में अंकित एक-एक शब्द उनके विराट व्यक्तित्व को उद्घोषित करता है। उनकी मुद्रा में अंकित है-

“श्रीराजा शाहूजी नरपती हर्षनिधान-बाजीराव बल्लाळ पंतप्रधान”

पंतप्रधान बाजीराव बल्लाळ छत्रपति शाहूजी महाराज की ओर से मुद्रा अंकित करते हैं। दक्षिण से उत्तर तक अपने अश्वों की पदचाप से विधर्मी आक्रांताओं द्वारा पददलित भारतभूमि को स्वातंत्र्य का अमृतपान कराने वाले इस अपराजेय योद्धा ने कभी भी राज्यलिप्सा नहीं पाली, कभी भी यश की लालसा नहीं पाली...। अखंड भारत के लिए, हिंदवी स्वराज के लिए अपने तन-मन को गलाया, समर्पित किया। बाजीराव पेशवा को ‘राऊ’ कहकर पुकारा जाता था। ‘राऊ’ अर्थात् सरदारों में सर्वश्रेष्ठ...। यह उपाधि उन पर खरी बैठती थी। मराठा साम्राज्य का विस्तार और म्लेच्छ आक्रांताओं की कुत्सित चालों व नीतियों का दमन करते हुए दिल्ली तक अपनी कीर्ति-पताका फहराने वाले बाजीराव पेशवा को ‘महाराष्ट्र केसरी’, ‘हिंद केसरी’ के रूप में हम जानते हैं। ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष करते हुए सिंह की भाँति विधर्मियों पर टूट पड़ने वाले श्रीमंत बाजीराव ने मुगलों को दिल्ली के आसपास तक सीमित कर दिया था। इतना ही नहीं, पेशवा बाजीराव के भय से मुगल शासकों को दिल्ली भी हाथ से जाती दिख रही थी। पेशवा बाजीराव ने ही समूचे भारतदेश की अखंडता और हिंदू राजसत्ता पर आधृत हिंदू पदपादशाही का सिद्धांत दिया था, जिसका विस्तार के साथ उल्लेख स्वातंत्र्यवीर सावरकर की इसी नाम से रचित पुस्तक में मिलता है। पेशवा बाजीराव का ही पराक्रम था, कि उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में शक्तिकेंद्र स्थापित किए। होलकर, पवार, सिंधिया, गायकवाड़, शिंदे आदि वीर राजे-रजवाड़े पेशवा बाजीराव के प्रयासों से ही सशक्त और समर्थ होकर सक्रिय हुए।

 अप्रतिम योद्धा, माँ भारती के अमर सपूत, भारतीय शौर्य परंपरा के संवाहक, शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज को साकार करने वाले पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट को हमारी नई पीढ़ी कितना जानती है? यह प्रश्न हमारे सामने है। निःसंदेह ‘फिल्मी नैरेटिव’ ने बहुत गलत संदेश दिया है, जिसका सुधार करना हमारा दायित्य है। हमारा इतिहास केवल पराजय का इतिहास नहीं है, जैसा कि बताया जाता है, पढ़ाया जाता है। हमारा इतिहास पेशवा बाजीराव जैसे महान योद्धाओं की अपरिमित शौर्यगाथाओं से भरा हुआ है। पेशवा बाजीराव ने अपने लगभग चालीस वर्ष के छोटे-से जीवन में, बीस वर्ष के अंतराल में चालीस लड़ाइयाँ लड़ीं, और सभी में विजय प्राप्त की। विश्व इतिहास में सिकंदर को महान बताया जाता है, अपराजेय बताया जाता है। लेकिन वह भी परास्त हुआ था, भारत को जीतने का उसका सपना कभी सच नहीं हो सका था। यहाँ से उसे वापस लौटकर जाना पड़ा था। ऐसे में जो जीता, वो सिकंदर कैसे हुआ? पेशवा बाजीराव ने शत प्रतिशत युद्ध जीते। इसलिए जो जीता, वह बाजीराव कहा जाना चाहिए।

‘जो जीता, वो बाजीराव’ का उद्घोष करते हुए पेशवा बाजीराव के प्रति आस्थावान देशभक्तों का एकत्रीकरण रावेरखेड़ी में हुआ। सनातन भारतीय परंपरा के रक्षक, रण-धुरंधर, पराक्रमी, अद्वितीय योद्धा, हिंद केसरी, प्रबल प्रतापी पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट का समाधि-स्थल उनकी पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम के कारण 28 अप्रैल को चर्चा में आया, यहाँ चहल-पहल हुई, लेकिन शेष समय में यह पवित्र स्थल उपेक्षित ही रहता है। ज्ञात हुआ है, कि कुछ समय पूर्व कुछ जागरूक लोगों के प्रयासों से आवागमन के साधन सुलभ हुए हैं, लेकिन अब भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। विशेष रूप से अपनी आने वाली पीढ़ी को ऐसे अद्वितीय नायक, अपराजेय योद्धा के बारे में बताया जाना.....।

-राहुल मिश्र

(पाञ्चजन्य, नई दिल्ली में प्रकाशित, ज्येष्ठ कृष्ण 5, वि.सं. 2082, युगाब्द 5127 तदनुसार 18 मई, 2025)

हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों का प्रभाव


हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों का प्रभाव


हिंदी साहित्य के वर्तमान में उपन्यास विधा की उत्पत्ति और विकास सर्वथा नवीन भावबोध और भारतीय नवजागरण के प्रयासों से अनुप्राणित है। इस कारण भारतीय नवजागरण से संबद्ध विचारकों-समाजसेवकों के प्रयासों और उनके विचारों का उपन्यास विधा में प्रतिफलित होना भी सर्वथा प्रासंगिक और युक्तिपूर्ण है। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यास प्रायः अंग्रेजी और बांगला से अनूदित थे और उनमें इसी अनुरूप कथ्य का प्रतिपादन भी किया गया था। हिंदी के प्रारंभिक मौलिक उपन्यासों का क्रम प्रायः 1900 ई. से शुरू होता है और 1950 ई. तक के उपन्यासों को हिंदी के प्रारंभिक मौलिक उपन्यास कहा जा सकता है। सन् 1900 से 1915-16 की अवधि में एक ओर तिलिस्मी-ऐयारी-जासूसी कथानक वाले उपन्यासों का प्रभाव देखने को मिलता है, तो दूसरी ओर भारतीय नवजागरण के प्रभावों के फलस्वरूप सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित नीतिवादी-शिक्षाप्रद-उपदेशात्मक उपन्यासों का। इस अवधि के उपन्यासों में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरोध के स्थान पर उसके कारण उपजी समस्याओं को उच्च मध्यवर्गीय समाज के सीमित दायरे में रखकर चित्रित किया गया है। “इस अवधि का उपन्यास देश के उस विशाल जनसमुदाय से कटा हुआ है, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के शोषणचक्र में पिस रहा था। यह जनसमुदाय किसानों का था, जो मुख्यतः गाँवों में रहता था और विदेशी सरकार, जमींदार, महाजन और पुरोहित, सबका भक्ष्य बना हुआ था। किशोरीलाल गोस्वामी, भुवनेश्वर मिश्र, महता लज्जाराम शर्मा आदि कुछ उपन्यासकारों ने किसानों पर जमींदारों के अत्याचार, ग्रामीणों की निर्धनता, अशिक्षा तथा उनकी दीनहीन स्थिति का यत्रतत्र चित्रण किया है, किंतु यथार्थ के इस ज्वलंत पक्ष पर उनकी सर्जनात्मक दृष्टि नहीं पड़ी।”1 गोपालकृष्ण गोखले द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज, जी. के. देवघर द्वारा स्थापित सेवासदन, राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज और केशवचंद्र सेन की प्रेरणा से स्थापित प्रार्थना समाज सहित दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज ने धार्मिक प्रेरणा और अतीत के गौरवपूर्ण सांस्कृतिक स्वरूप का समाज-सुधार के क्षेत्र में प्रयोग किया, जो इस अवधि के उपन्यासों में परिलक्षित होता रहा।

इस प्रकार 1900 से 1915-16 की अवधि में नवजागरण की दिशा और दशा सामाजिक सुधार बनाम राजनीतिक सक्रियता के दो अलग-अलग वर्गों में बँटी थी। इसके परिणामस्वरूप एक ओर बालगंगाधर तिलक और उनके समर्थकों ने राजनीतिक सक्रियता को प्रश्रय दिया, तो दूसरी ओर गोपालकृष्ण गोखले जैसे राजनीतिज्ञों ने समाज-कार्य को। एक लक्ष्य की ओर चलती दो परस्पर विरोधी विचारधाराएँ समाज को सही दिशा देने के स्थान पर दिग्भ्रम जैसी स्थितियों का सर्जन कर रही थीं। ऐसे समय में आगमन होता है, महात्मा गांधी का। दक्षिण अफ्रीका से संत बनकर लौटे गांधी जी ने परस्पर विरोधी तत्त्वों को समीप लाने और उन्हें अपनी ताकत बनाने का प्रयोग किया। “गांधी जी ने सामाजिक समस्याओं तथा राजनीतिक प्रश्नों को एक समन्वित रूप दे दिया था। इसीलिए गांधी जी खादी, हिंदू-मुसलिम एकता तथा अछूतोद्धार, स्वराज्य के तीन स्तंभ मानते थे।”2 तत्कालीन भारतीय राजनीति और भारतीय समाजनीति पर गांधी जी की स्वराज्य की अवधारणा न केवल स्थापित हुई, वरन् तीव्रता के साथ जनस्वीकार्य भी हुई। साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। गांधी जी के विचारों एवं जीवन-दृष्टि के आधार पर औपन्यासिक चरित्रों का प्रतिरूप बनाया गया, गांधी जी के जीवन की घटनाओं का प्रतिबिंब प्रस्तुत किया गया, गांधी जी द्वारा प्रवर्तित राष्ट्रीय आंदोलनों का चित्ररूप दर्शन कराया गया, गांधी जी के कुछ सिद्धांतों की मीमांसा करने के लिए कथाओं की संरचना की गई। उदाहरणस्वरूप- हृदय-परिवर्तन, अहिंसक प्रतिरोध, सत्य का स्वरूप-विवेचन, ट्रस्टीशिप की परिकल्पना, औद्योगिक विकास के दौरान बढ़ने वाली अनैतिकता, दलित-पीड़ित-पतित-शोषित समाज के प्रति सहानुभूति आदि।”3 हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों के द्वितीय सोपान में गांधी-दर्शन और गांधीवाद के आगमन को साहित्य और समाज में बड़े क्रांतिकारी बदलाव से कम नहीं कहा जा सकता है।

‘परीक्षागुरु’ से ‘सेवासदन’ तक, अर्थात् 1882 से 1916 तक हिंदी उपन्यास साहित्य को प्रयोगकाल कहा जा सकता है। इस काल के उपन्यासों की सृष्टि किसी साहित्यिक उद्देश्य को सम्मुख रखकर नहीं की गई थी, वरन् नीति, शिक्षा, प्रेम, रोमांस, तिलिस्म और जासूसी प्रवृत्तियों का चित्रण करके जनता का मनोरंजन करना अथवा कौतूहल की सृष्टि करना मात्र था।4 ‘सेवासदन’ के साथ प्रेमचंद द्वारा हिंदी उपन्यास-लेखन का प्रारंभ किया जाना और राजनीतिक-समाजसेवक के रूप में महात्मा गांधी का भारत में आगमन, दो ऐसी घटनाएँ हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य और भारतीय समाज, दोनों के लिए युगांतकारी कहा जा सकता है।

प्रेमचंद का उपन्यास ‘सेवासदन’ सन् 1918 में हिंदी में प्रकाशित हुआ और समाज में उपेक्षित ‘आधी दुनिया’ के जटिल यथार्थ को पहली बार देखने का प्रयास हुआ। गांधी जी महिलाओं की दयनीय दशा को लेकर चिंतित थे, और वे महिलाओं को पुरुषों के समान सामाजिक मान-प्रतिष्ठा और अधिकार दिलाने के प्रबल पक्षधर थे। इसी कारण उन्होंने स्त्री-अशिक्षा और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का विरोध किया। “1930 ई. में गांधी जी ने स्त्रियों को विदेशी वस्तुओं की दुकानों, शराबघरों और सरकारी संस्थानों पर धरना देने का संदेश दिया। इस आह्वान पर हजारों स्त्रियों ने स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया और जेल गयीं। खुद प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी भी जेल गयीं। इसका असर प्रेमचंद के उपन्यासों के नारी पात्रों पर भी दिखाई देता है।”5 इसी कारण दहेज प्रथा और वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखा गया ‘सेवासदन’ गांधी जी के विचारों के समीप का प्रकट होता है। प्रेमचंद के उपन्यासों में ‘सेवासदन’ की शांता; ‘गोदान’ की मालती; ‘कर्मभूमि’ की सुखदा, मुन्नी, नैना, रेणुका देवी, पठानिन और सकीना तथा ‘प्रेमाश्रम’ की श्रद्धा और विद्या आदि ऐसी नारी-पात्र हैं, जिनके माध्यम से प्रेमचंद ने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से गांधी जी के नारी-विषयक विचारों को प्रकट करने का प्रयास किया है।

प्रेमचंद अपने उपन्यासों के नारी पात्रों के साथ ही अन्य पात्रों के माध्यम से भी गांधीवादी चिंतन और तत्कालीन आंदोलनों के प्रभावों को प्रकट करते हैं। “गांधी विदेशी शिक्षा-प्रणाली, विदेशी औद्योगीकरण, शहरीकरण के प्रबल विरोधी थे, प्रेमचंद ने ज़मींदार-किसान, अमीर-गरीब का भेद तो दिखाया है, लेकिन उसे वर्ग-भेद का रूप नहीं दिया है और न ही वर्ग-संघर्ष और क्रांति के जरिये उसका समाधान प्रस्तुत किया। अहिंसात्मक सत्याग्रह और हृदय परिवर्तन ही उनके समाज-परिवर्तन के साधन रहे थे। जहाँ ऐसा होने की संभावना नहीं है, वहाँ उन्होंने यथार्थ का दामन नहीं छोड़ा है, लेकिन हिंसा को प्रश्रय नहीं दिया है। प्रेमचंद गांधी के ‘वर्ग-समन्वय’ के सिद्धांत पर, ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत पर भी यकीन करते थे।”6 प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यासों में गांधीवाद के दर्शन होते हैं। यहाँ ‘प्रेमाश्रम’ के प्रेमशंकर, ‘कर्मभूमि’ के अमरकांत, ‘रंगभूमि’ के सूरदास और ‘कायाकल्प’ के चक्रधर का उल्लेख किया जा सकता है, जिनके माध्यम से प्रेमचंद गांधी जी के विचारों को स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

प्रेमचंद ने जिस राजनीतिक-सामाजिक चेतना को व्यक्त करने की परंपरा की शुरुआत की, उसे आगे बढ़ाने का कार्य उनके समकालीन और परवर्ती उपन्यासकारों ने किया। हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद पहले ऐसे उपन्यासकार भी थे, जिन्होंने गांधीवाद को उपन्यास विधा में स्थापित करने का सफल प्रयास किया। प्रेमचंद के साथ ही उनके समकालीन श्री नाथ सिंह ने गांधीवादी दृष्टिकोण से अनेक उपन्यासों की रचना की। उनके ‘उलझन’, ‘जागरण’, ‘प्रभावती’, ‘प्रजामण्डल’ आदि उपन्यासों में ग्राम-सुधार, नारी उद्धार, अछूतोद्धार जैसे विषय हैं।7 गांधीवादी विचारधारा को कविताओं के साथ ही उपन्यासों में उतारने वाले सियारामशरण गुप्त के दो उपन्यासों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। ‘गोद’ उपन्यास में उन्होंने नारी की दयनीय सामाजिक स्थिति का चित्रण करते हुए नारी स्वातंत्र्य के विषय को गांधीवादी विचारधारा के अनुरूप प्रकट किया है। उनके दूसरे उपन्यास ‘अंतिम आकांक्षा’ में सामाजिक विषमता के प्रश्न को उठाया गया है। इस उपन्यास में रामलाल निर्धन, निम्नवर्गीय पात्र है, जिसके प्रति समाज के अभिजात्य वर्ग की मानवीय सहानुभूति का उपजना गुप्त जी के गांधीवादी दृष्टिकोण को संकेतित करता है।8 

गुरुदत्त ने अपने उपन्यास ‘स्वराज्य दान’ में अहिंसा के महत्त्व को स्थापित करने का प्रयास किया है, साथ ही उनके ‘स्वाधीनता के पथ पर’, ‘पथिक’ और ‘भावुकता का मूल्य’ आदि उपन्यासों में विभिन्न सामाजिक समस्याओं का चित्रण है। जगदीश झा विमल के उपन्यास ‘खरा सोना’, ‘आशा पर पानी’, ‘लीलावती’ और ‘गरीब’, जहाँ एक ओर प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, वहीं दूसरी ओर गांधी जी के विचारों को भी प्रकट करते हैं। प्रतापनारायण श्रीवास्तव ने ‘विजय’, ‘विकास’ और ‘बयालीस’ आदि उपन्यासों में राजनीतिक-सामाजिक समस्याओं का हल गांधीवादी विचारधारा के अनुरूप प्रस्तुत करके हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों की उपस्थिति को दृढ़ता प्रदान की है। ऋषभचरण जैन का उपन्यास ‘सत्याग्रह’ दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन के जरिए गांधीवादी विचारों को प्रकट करता है। उनके अन्य उपन्यासों में ‘मयखाना’ और ‘तीन इक्के’ भी उल्लेखनीय हैं, जिनमें शराबखोरी और जुआखोरी के दुर्गुणों का चित्रण हुआ है।

उस दौर के अन्य प्रसिद्ध उपन्यासकार, ‘उग्र’ पर नग्नता का आरोप लगता रहा है, किंतु उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ गांधीवादी विचारों का चित्रण अपने उपन्यासों में किया है। “पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ राजनीतिक धरातल पर गांधी जी के विचारों से प्रभावित थे। वह दो उपन्यासों, ‘चन्द हसीनों के खतूत’ तथा ‘सरकार तुम्हारी आँखों में’, हिंदू-मुसलिम एकता के उद्देश्य से लिखते हैं। ‘शराबी’ उपन्यास मद्यनिषेध विषय पर लिखा गया है, जो राष्ट्रीय कांग्रेस का मुख्य रचनात्मक कार्यक्रम था। ‘मनुष्यानंद’ उपन्यास में अछूतोद्धार आंदोलन चलता है।”9 उषादेवी मित्रा के उपन्यासों, ‘वचन का मोल’, ‘जीवन की मुसकान’ और ‘पथचारी’ में नारी-जीवन की ऐसी विषमताएँ उभरती हैं, जिनका सीधा संबंध गांधी जी के नारी-विषयक विचारों से जुड़ा है। “परिवार से सामाजिक आंदोलनों की ओर आती भारतीय स्त्री की संक्रमणकालीन मनोदशाओं का अंकन उषादेवी मित्रा ने पर्याप्त विश्वसनीय रूप में किया है।”10

इसी प्रकार निराला कृत ‘अलका’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘तितली’ और ‘कंकाल’, वृंदावनलाल वर्मा  कृत ‘प्रत्यागत’ और ‘कुण्डली-चक्र’, भगवतीप्रसाद वाजपेयी कृत ‘पतिता की साधना’, जैनेन्द्र कृत ‘सुनीता’, चतुरसेन शास्त्री कृत ‘आत्मदाह’, भवानीदयाल कृत ‘नेटाली हिंदू’ और मन्नन द्विवेदी कृत ‘कल्याणी’ में गांधी जी के विचार कहीं सीधे तौर पर, तो कहीं प्रतीकात्मक रूप में स्थापित होते हैं। कृष्णलाल वर्मा कृत ‘पुनरुत्थान’, धनीराम प्रेम कृत ‘मेरा देश’, मोहिनी मोहन कृत ‘देशोद्धार’ और छविनाथ पांडेय कृत ‘प्रोत्साहन’ आदि उपन्यासों में स्वाधीनता आंदोलन तथा गांधीवादी विचारों का खुला प्रतिपादन किया गया है।11 यहाँ उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि प्रयोगवाद की अवधारणा के जनक अज्ञेय का उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’, गांधी जी के अछूतोद्धार के विचार को नए प्रयोग के साथ प्रकट करता है। इस उपन्यास का नायक शेखर है। “विद्रोही शेखर ब्राह्मण छात्रों का छात्रावास छोड़कर अछूत छात्रों के छात्रावास में रहने लगता है। वह सदाशिव, राघवन आदि अछूत छात्रों की सहायता से अछूतोद्धार-समिति का निर्माण करता है, तथा अछूत बालकों के लिए स्कूल खोलकर स्वयं पढ़ाता है। सवर्ण एवं रूढ़िवादी वर्ग से संघर्ष संगठित रूप में ही किया जा सकता है, लेकिन शेखर वैयक्तिक धरातल पर समाज को चुनौती देता है।”12

गांधी जी और गांधीवादी विचारधारा के संबंध में प्रेमचंद अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहते हैं कि- “दुनिया में मैं महात्मा गांधी को सबसे बड़ा मानता हूँ। उनका ध्येय भी यही है कि मजदूर और किसान सुखी हों। वह इन लोगों को आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन चला रहे हैं, मैं लिखकर उनकी हिमायत कर रहा हूँ।”13 संभवतः इसी कारण हिंदी उपन्यासों के क्षेत्र में प्रेमचंद ऐसे पहले उपन्यासकार बने, जिन्होंने गांधी जी के विचारों को हिंदी उपन्यासों में प्रतिष्ठापित करने का कार्य किया। प्रेमचंद के समकालीन और उनके परवर्ती उपन्यासकारों ने इस परंपरा को विकसित करने में योगदान दिया। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में, सन् 1916 से 1950 ई. तक हिंदी उपन्यासों में जितनी शिद्दत के साथ गांधी जी के सिद्धांत और उनकी विचारधारा प्रकट होती है, उसका दर्शन परवर्ती कालखंडों में दुर्लभ होता गया, यही इस कालखंड की विशेषता है, विशिष्टता है।

संदर्भ-

1.    गोपाल राय, रोमांस, पाठक और उपन्यास, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 123-124,

2.    डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 109,

3.    वेब रेफ़रेंस- http://www.hindi.mkgandhi.org/gmarg/chap20.htm

4.    डॉ. सरोजनी त्रिपाठी, प्रेमचंद के हिंदी उपन्यासों में वस्तु-विन्यास का विकास, आधुनिक हिंदी उपन्यास में वस्तु-विन्यास, ग्रन्थम, कानपुर, प्रथम सं. 1973, पृ. 108,

5.    गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 136,

6.    राजम नटराजम पिल्लै, प्रेमचंद और गांधीवादी दर्शन, प्रेमचंद के आयाम, संपादक- ए. अरविंदाक्षन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2006, पृ. 264,

7.    डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त, हिंदी उपन्यास का विकास, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, बारहवाँ सं. 2010, पृ. 426,

8.    गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 157,

9.    डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 262,

10.         मधुरेश प्रेमचंद युगीन अन्य उपन्यासकार, हिंदी उपन्यास का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 2009, पृ. 65,

11.         गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 166,

12.         डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 368,

13.         क़मर रईस, प्रेमचंद : विचार-यात्रा, प्रेमचंद : विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता, संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह एवं रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2006, पृ. 452 ।


-राहुल मिश्र


(हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई द्वारा प्रकाशित होने वाली पत्रिका हिंदुस्तानी ज़बान के मार्च, 2025 अंक में प्रकाशित)

Wednesday, 19 March 2025

प्रात लेइ जो नाम हमारा....

 

प्रात लेइ जो नाम हमारा....

श्रीरामचरितमानस के सुंदर कांड में अत्यंत रुचिकर प्रसंग आता है। प्रसंग माता सीता का पता लगाने के लिए हनुमान जी को लंका भेजने का है। हनुमान अपने बल को भूले हुए बैठे हैं। जामवंत के याद दिलाने पर उन्हें अपनी शक्ति का अनुभव होता है। वे तुरंत लंका के लिए प्रस्थान करते हैं। मार्ग में अनेक बाधाएँ और संकट आए, जिनको पार करके भक्तप्रवर हनुमान लंका पहुँचते हैं। लंका राक्षसों की नगरी है। वहाँ भले लोग कैसे मिलेंगे? एक अजनबी की भाँति हनुमान लंका में प्रवेश करते हैं। स्थान-स्थान पर बाधाएँ हैं, पहरे हैं, राक्षसों की क्रूरता के चिह्न हैं....। ऐसे विकट-भयावह स्थान पर माता सीता कैसे जीवन बिता रहीं हैं...., यह चिंता भी हनुमान को होती है।

सुख और समृद्धि भले ही एक-दूसरे के साथ जोड़कर व्यवहृत हों, लेकिन समृद्धि होने से सुख सुनिश्चित नहीं हो जाता। लंका नगरी में संपन्नता की कोई कमी नहीं है। हनुमान जी पूरी लंका नगरी का भ्रमण करते हैं। बाबा तुलसी ने बहुत संक्षेप में वर्णन किया है, लेकिन आद्यकवि वाल्मीकि ने रामायण में लंका का विशद-व्यापक वर्णन किया है। लंका नगरी की समृद्धि का वर्णन वाल्मीकि रामायण में मिलता है। वहाँ समृद्धि के अनेक प्रतिमान हैं, लेकिन सुख की अनुभूति नहीं मिलती.... उल्लास, उमंग, हर्ष, आत्मिक शांति और जीवंतता नहीं दिखती। आद्यकवि वाल्मीकि ने संपन्नता का वर्णन करते हुए इस पक्ष को विशेष रूप से इंगित किया है। गोस्वामी जी केवल संकेत देते हुए आगे बढ़ जाते हैं, और हनुमान-विभीषण संवाद का विस्तृत वर्णन करते हैं। उनकी दृष्टि सत्संग के वैशिष्ट्य को स्थापित करने में केंद्रित होती है। गोस्वामी जी हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद के माध्यम से सद्भावना, सहकार, समन्वय और समरसता को उकेरते हैं। गोस्वामी जी मानस में वर्णन करते हैं, कि लंका नगरी में भ्रमण करते हुए हनुमान को कहीं भी भले लोग नहीं दिखते। एक घर ऐसा दिखाई दे जाता है, जो हनुमान जी की धारण को बदल देता है। उस घर के बाहर रामायुध अंकित है,और तुलसी का चौरा भी है। यह देखकर हनुमान जी को भरोसा हो जाता है, कि यहाँ संत-सज्जन व्यक्ति का निवास है। वे पुकारते हैं। विभीषण भी उनके राम-नाम स्मरण को सुनकर हर्षित होते हैं। दोनों रामभक्त बैठते हैं।


हनुमान और विभीषण का संवाद वाल्मीकि रामायण में नहीं है... अध्यात्म रामायण में भी नहीं है।
गोस्वामी जी सायास इस प्रसंग को लाते हैं। उनका उद्देश्य भक्ति-भावना की पुष्टि का तो है ही, साथ ही वे सामयिक संदर्भों की ओर भी संकेत करते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद अत्यंत रुचिकर है। राम के दो अनन्य भक्त मिलते हैं। विभीषण अपने मन की वेदना कहते हैं। हनुमान उन्हें सांत्वना देते हैं-

कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबही बिधि हीना ।।

 प्रात  लेइ  जो नाम  हमारा ।  तेहि दिन  ताहि न मिलै अहारा ।।

अस मैं अधम सखा सुनु मोहूँ पर रघुबीर ।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।

मैं कौन-सा बहुत कुलीन व्यक्ति हूँ...। आप ही बताइए...। मैं तो चंचल कपि हूँ, और सभी स्तरों से हीन हूँ, तुच्छ हूँ। मैं मानव नहीं हूँ, मैं गुणवान भी नहीं हूँ। मेरी चंचलता ऐसी है, कि जिसके लिए मुझे श्राप तक दिया जा चुका है...। मैं अधम हूँ, हेय हूँ। मेरा नाम तक लेने से लोग कतराते हैं। अगर कोई सुबह मेरा नाम ले लेता है, तो उसे उस दिन भोजन तक नहीं मिलता...। ऐसे अधम और हीन वानर पर भी श्रीराम की कृपा है। श्रीराम की कृपा का स्मरण कर हनुमान के नयन भावविभोर होकर अश्रु-प्लावित हो जाते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य का संवाद दो संतों के मध्य हो रही चर्चा के जैसा प्रतीत होता है, सत्संग का रूप ले लेता है। विभीषण कह रहे हैं-

क्या मुझ अनाथ निशचर के भी- रघुनाथ बनेंगे नाथ कभी ।

क्या मुझसे अधम दास को भी रक्खेंगे राघव साथ कभी ।।

विभीषण की वेदना वानरश्रेष्ठ हनुमान के सम्मुख प्रकट होती है। विभीषण कहते हैं, कि मैं तो लंका नगरी में वैसे ही रह रहा हूँ, जैसे दाँतों के मध्य जीभ होती है। राधेश्याम कथावाचक इस वार्ता को रुचिकर बनाते हैं। राधेश्याम रामायण में संवाद चलता है-

कपि बोले मुँह की बत्तीसी सब टूट फूट गिर जाएगी ।

पर, जिह्वा-जीवनभर रहकर-श्रीराम-नाम गुण गाएगी ।।

भक्त विभीषण, धन्य तुम, धन्य तुम्हारा प्रेम !

धन्य तुम्हारी धारणा, धन्य तुम्हारा नेम !!

जो सज्जन हैं, सत्संगी है, वे कहीं छिपाए छिपते हैं?

एक ही पन्थ के दो पन्थी-इस प्रकार देखो मिलते हैं ।।

विभीषण और हनुमान भ्रातृ-प्रेम में आबद्ध हो जाते हैं। राम का नाम दोनों के मध्य संबंधों को स्थापित करने का माध्यम बनता है। कबीर का एक बहुत प्रसिद्ध पद है-

कबीर हरदी पीयरी, चूना उज्जल भाइ ।

राम सनेही यूँ मिले दून्यू बरन गँवाइ ।।

संबंधों में मर्यादा ही तो राम-सनेह है, भगवान श्रीराम मर्यादा के प्रतीक हैं। कर्म की मर्यादा, धर्म की मर्यादा, नीति-नैतिकता के पालन की मर्यादा ही तो राम से व्याख्यायित होती है। संबंधों की मर्यादा टूटने पर ही विभीषण अपने घर में तिरस्कृत हैं। लंका नगरी की समृद्धि अमर्यादित कार्य-व्यवहारों के कारण ही अपनी आभा खो बैठी है। भौतिक संपन्नता एक ऐसे खोखलेपन के साथ लंका नगरी में देखी जा सकती है, जहाँ उद्दंडता है, उच्छृंखलता है, मनमानी है, मनमौजीपन है। यह रामकथा के अंत में विशेष रूप से प्रकट होती है। रावण के वध के उपरांत मंदोदरी विलाप करती है-

राम विमुख अस हाल तुम्हारा । रहा न कोउ कुल रोवनहारा ।।

गोस्वामी तुलसीदास यदि चाहते, तो हनुमान और विभीषण की भेंट का सामान्य और प्रसंगानुकूल वर्णन करके कथा को आगे बढ़ा देते, लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं। उनके सामने हनुमान और विभीषण की भेंट का प्रसंग कथा के अंतर्गत आने वाले मात्र एक पड़ाव की भाँति नहीं है। बाबा तुलसी की दृष्टि दूर तक जाती है। गोस्वामी जी रामायण काल तक ही नहीं रहते, वे वर्तमान से भी जुड़ते हैं। रामकथा को सामयिक बनाते हैं। गोस्वामी जी का समय अनेक संघर्षों से भरा हुआ था। समूचा भक्ति आंदोलन ही जन-जन को चैतन्य बनाने के लिए था, क्रूर आक्रांताओं से आहत भारतीय जनसमुदाय के पथ-प्रदर्शक की भूमिका में था। गोस्वामी जी की दृष्टि भी यही थी। उन्हें समग्र भारतीय समाज को, सनातन परंपरा के सभी घटकों-अंगों को संगठित करना था, जोड़ना था। इसी कारण वे श्रीराम के ’सर्वभूत हिते रतः’ के भाव को प्रमुख रूप से प्रस्तुत करते हैं। श्रीराम सभी के हित में संलग्न हैं, ऐसा इस प्रसंग में ध्वनित होता है। वस्तुतः सुंदरकांड इसी कारण सुंदर कांड है, क्योंकि इसमें अनेक लोगों की संघटना है, कई लोगों का जुड़ाव है। यहाँ जाति-प्रजाति का, उत्तर-दक्षिण का, नर-वानर का भेद नहीं है। यहाँ सभी एक होते हैं, जुटते हैं... और राम काज के लिए जुटते हैं। जिसके पास जो कुछ भी है, उसको लेकर वो जुटता है, अपना योगदान देता है।

गोस्वामी तुलसीदास जब हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद को प्रस्तुत करते हैं, तो उनकी दृष्टि इस जुड़ाव की ओर होती है। विभीषण को लगता है, कि वो कैसे जुड़ पाएँगे। वे तो बहुत दूर पड़े हुए हैं। उनके साथ रावण का नाम जुड़ा हुआ है। क्रूर-आततायी रावण का भाई विभीषण राम का प्रिय कैसे हो सकता है? रावण ने सीता का हरण किया है। सीता लंका में बंदी हैं, और विभीषण लंकेश के भाई....। राम तो कभी भी विभीषण को स्वीकार नहीं करेंगे। विभीषण भले ही स्वयं में सही हैं, सीधे-सच्चे हैं। रावण से उनका सैद्धांतिक मतभेद है। वे रावण की नीतियों के विरुद्ध हैं। इसी कारण लंका में उपेक्षित और तिरस्कृत जीवन जी रहे हैं, लेकिन रावण के साथ संबंध विख्यात है। संगति का असर है, जो विभीषण को भी राक्षसों की श्रेणी में रखता है।

हनुमान भी शापित हैं। बचपन में उन्हें श्राप मिला था, कि वे अपने बल को भूल जाएँगे। उनकी बाल सुलभ चंचलता थी, कि उन्होंने सूर्य को अपना ग्रास बना लिया था। साधु-संन्यासियों के आश्रमों में वे खूब उछल-कूद मचाते थे, जिससे साधनारत संन्यासियों का ध्यानभंग होता था। फलतः उन्हें श्राप मिला, कि वे बल को भूल जाएँगे और यदि कोई उन्हें स्मरण कराएगा, तभी वे अपने बल को जानेंगे, और बल का प्रयोग कर सकेंगे। इसे श्राप कहें, या व्यवहार को संयमित करने की सीख...। इसके बाद हनुमान जी का व्यवहार एकदम बदल गया। वे संत प्रवृत्ति के हो गए। सुंदरकांड में जब जामवंत ने उन्हें बल का स्मरण कराया, तो वे अपनी सामर्थ्य को जानकर प्रसन्न हुए और राम-काज में अपनी शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग करने हेतु प्रस्तुत हुए। हनुमान जी के बल का वर्णन प्रायः सभी रामकथाओं में मिलता है। तमिल में हनुमान का एक नाम ‘तिरुवड़ि’ है। तिरुवड़ि, अर्थात् विष्णुपाद....। कंब रामायण में प्रसंग आता है, कि समुद्र पार करने के लिए हनुमान ने विराट रूप धारण किया। जिस तरह धरती को नाप लेने के लिए भगवान विष्णु के वामन अवतार ने अपना लंबा डग रखा था, वैसे ही यहाँ हनुमान ने रखा है। इसी कारण हनुमान तिरुवड़ि हैं, विष्णुपाद हैं।

कंब रामायण की स्थापना के अनुसार हनुमान विष्णु के स्वरूप हैं। उन्हें शिव का अवतार भी माना जाता है। वैष्णव सी भक्ति और शैव सी शक्ति का समन्वित रूप हनुमान का है। लंका नगरी में विभीषण के साथ सत्संग में वैष्णव और लंका के ध्वंस में शिव के अवतार हनुमान....। विभीषण के साथ संवाद में हनुमान राम के अनन्य भक्त और वैष्णव संत के सदृश प्रतीत होते हैं। वे विभीषण को अपनी ओर से आश्वासन देते हैं, कि राम उन्हें अवश्य स्वीकार करेंगे। राम और रामादल के मध्य संबंधों की निकटता इतनी है, कि हनुमान को आश्वासन देने के लिए राम की अनुमति आवश्यकता नहीं होती। राम सभी के लिए सहज हैं, सुलभ हैं।

गोस्वामी तुलसीदास हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद के माध्यम से संगठन की शक्ति को व्याख्यायित करते हैं। श्रीराम किसी से किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करते। हनुमान जैसे शापित और मानवेतर जीव भी राम के लिए प्रिय हैं, अनन्य हैं। और इतने निकट हैं, कि हनुमान बेधड़क राम की ओर से विभीषण को आश्वासन दे रहे हैं। राम की संगठन-शक्ति सभी को लेकर बनती है। वहाँ कोई भेदभाव नहीं है। सभी समान हैं, सभी के लिए अधिकार भी समान हैं।

गोस्वामी जी का सम-काल अनेक विषमताओं से भरा था। विशेष रूप से म्लेच्छ आक्रांताओं के समक्ष भारतीय समाज अनेक वर्गों उपवर्गों में बँटा हुआ था। इस कारण भारतीय समाज दिशाहीन होकर, असंगित रहकर क्रूर आक्रांताओं के आघातों को झेल रहा था, क्षत-विक्षत हो रहा था। ऐसी विषम स्थिति में सभी को संगठित करने की आवश्यकता थी। मत-पंथ के नाम पर, जाति-उपजाति के नाम पर भेदभाव के खतरे गोस्वामी जी के सामने स्पष्ट थे। इस कारण वे सभी विभेदों को दूर करके एक होने की बात कहते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद को इसका एक अंग कह सकते हैं। प्रायः गोस्वामी जी पर वर्ण-भेद के आक्षेप लगाए जाते रहे हैं। यह प्रसंग इन आक्षेपों का भी खुलकर उत्तर देता है। भक्तकवि तुलसीदास के आराध्य राम समाज के सभी वर्गों के हैं। राम के सम्मुख कोई भेद नहीं है। श्रीरामचरितमानस की पूरी कथा में स्थान-स्थान पर ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं। सुंदरकांड विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ रामादल की संगठन-शक्ति प्रकट होती है। जामवंत, सुग्रीव, नल, नील, अंगद आदि सभी स्वतः स्फूर्त ऊर्जा से रामकाज में संल्गन होते हैं। क्रूरकर्मा, आततायी रावण पर विजय पाने के लिए सभी अपनी-अपनी सामर्थ्य-भर योगदान देते हैं। विभीषण भी रामादल में आ जाते हैं। जब गोस्वामी जी के आराध्य किसी से भेद नहीं करते, तो गोस्वामी जी कैसे वर्ण-भेद कर सकते हैं?

भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास के आराध्य श्रीराम सभी को साथ लेकर चलते हैं। गोस्वामी जी इस वैशिष्ट्य को न केवल उभारते हैं, वरन् अपने समकाल में पनपती विकृतियों विषमताओं के मध्य संदेश देते हैं, संगठित होने का, समन्वय और सहकार के भाव को साथ लेकर धर्मार्थ कार्य के लिए संलग्न होने का, बिना विलंब किए हुए विकृति-कुसंगति को त्यागकर धर्मोन्मुख होने का, और नीति-नैतिकता के मार्ग पर चलने का।

-राहुल मिश्र

(त्रैमासिक साहित्य परिक्रमा के आश्विन-मार्गशीष, युगाब्द 5126 तदनुसार अक्टूबर-दिसंबर, 2024, वर्ष- 25, अंक- 02 में प्रकाशित)





Wednesday, 15 May 2024

धन्य भरत जय राम गोसाईं

 

धन्य भरत जय राम गोसाईं

अयोध्या से चित्रकूट की ओर पूरी अयोध्या नगरी ही चल पड़ी है। अयोध्या की देखभाल करने के लिए कुछ वृद्ध और अशक्तजन ही बचे हैं, जो लंबी यात्रा नहीं कर सकते। अनेक लोग अपनी अक्षमता के बाद भी यात्रा पर चल पड़े हैं। एक कसक, एक टीस जो रह-रहकर उभरती रही थी, उसके समाधान का मार्ग अब इस यात्रा में ही सूझ रहा है। सभी के पैरों की गति मानों यही बता रही है। यह यात्रा कोई सहज-साधारण यात्रा नहीं है। राजपरिवार के सभी जन, नर-नारी, बालक-युवा सभी एकसाथ चले जा रहे हैं। इस यात्रा का अनुष्ठान भरत ने किया है। भरत अयोध्या के भावी राजा हैं, क्योंकि राजा दशरथ परलोक सिधार चुके हैं, और उनक दिए गए वचन के अनुसार राम को वनवास मिला है, भरत को अयोध्या का राजपाट मिला है। दृष्टि भरत पर जाकर टिक जाती है। भरत पैदल जा रहे हैं, और देखने वाले एक भावी राजा के तन और मन, दोनों की गतियों को देख रहे हैं-

मानव ही नहीं देवता तक वह दृश्य निहार लजाते हैं,

हैं साथ पालकी अश्व बहुत, पर भरत ‘पयादे’ जाते हैं ।

हे जग के धनवानों, देखो धन रहते धनपति निर्धन हैं,

यह राजयति की छवि है, यह शाही फकीर के दर्शन हैं ।

रामलीला में यह प्रसंग इतना मार्मिक और भावुक कर देने वाला होता है, कि दर्शकों की आँखें गीली हो जाती हैं। रामलीला के विभिन्न प्रसंगों की लीलाओं में भरत-मिलाप की लीला का अपना ही महत्त्व है। रामकथा के ऐसे प्रसंग, जो अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं, और लोक के महत्त्व के लिए जिनका मंचन अनिवार्य समझा जाता है, उनमें सर्वप्रमुख लीला भरत-मिलाप की होती है। भरत-मिलाप के पूर्व अयोध्या की दशा का अत्यंत मार्मिक वर्णन विभिन्न रामकथाओं में है। महाकवि कंबन, जो रामकथा रचकर महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उनकी कंब रामायण में अत्यंत मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है। लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व रचित तमिल के महाकाव्य- कंब रामायण में विरह से व्याकुल अयोध्या नगरी का वर्णन मिलता है। अयोध्या महाराजा दशरथ के परलोकगमन की वेदना से कहीं अधिक व्याकुल राम के वियोग से है। इस पर भी भरत ने अयोध्या के राजपाट को स्वीकारा नहीं है। लेकिन भरत ने यह घोषणा कर दी है, कि वे वनवासी राम को मनाने के लिए जाएँगे, और मनाकर ले आएँगे। इस घोषणा के कारण सारी अयोध्या चैतन्य हो उठी है। वियोग के अनेक उपमानों-प्रतीकों-बिंबों के मध्य उमंग-उल्लास का परस्पर विरोधाभासी वर्णन कितने सुंदर तरीके से कंब रामायण में हुआ है, देखते ही बनता है। राम को ले आने के लिए अयोध्या के समग्र जन-समुदाय का चल पड़ना, गजों-अश्वों का प्रस्थान, मार्ग के विविध प्रसंग आदि कंब रामायण में विस्तार से मिलते हैं।

कथा-वाचस्पति, श्रीहरिकथा विशारद, कविरत्न राधेश्याम कथावाचक ने अपनी राधेश्याम रामायण में भरत-मिलाप का सुंदर वर्णन किया है। चित्रकूट में राम और लक्ष्मण के सामने भरत का पहुँचना कोई साधारण घटना नहीं थी। पूरे सैन्य-बल के साथ वनवासी राम के सम्मुख भरत का आगमन लक्ष्मण के मन में संदेह पैदा कर देता है। कुछ रामायण-पाठों में राम और सीता भी संदेह से भरे हुए दिखते हैं। लेकिन राधेश्याम रामायण में अत्यंत भावुकतापूर्ण वर्णन है, जो अन्यत्र इस भाँति तो नहीं ही मिलता है। लक्ष्मण के मन का संदेह आज कुछ कर गुजरने को है। कोल-भीलों द्वारा दी गई सूचना और सूचना की सत्यता प्रकट करते लक्षण अवश्य ही संदेह पैदा करते हैं, लेकिन राम विचलित नहीं होते हैं। उनका धैर्य और मन का विश्वास अडिग है। उन्हें भरत पर भरोसा है, कि वे किसी दुर्भावना के साथ यहाँ नहीं आए होंगे। वे लक्ष्मण को रोकते हैं, सचेत करते हैं, लेकिन लक्ष्मण मानते नहीं हैं। अचानक एक बावला सामने आकर खड़ा हो जाता है, और पूरा परिवेश ही एकदम बदल जाता है। राधेश्याम कथावाचक कहते हैं-

नंगे   थे   पाँव   बावले  के—कीचड-मिट्टी   में   लिसे  हुए ।

कुछ कुछ  बह रहा रक्त भी था, काँटे भी थे कुछ चुभे हुए ।।

थे  काले  बाल  धूलि-धूसर,   पीले   मुखड़े   पर   पड़े  हुए ।

जिस  भाँति   भयानक  आँधी  में  श्रीसूर्य देव हों छिपे हुए ।।

उस पर उसकी  उस हालत पर, दर्दीली चितवन जमा तुरत ।

आगे  को  सीतानाथ    बढ़े—आजानु   भुजाएँ   बढ़ा  तुरत ।।

वह व्याकुलता थी  बढ़ने की, धनु कहीं कहीं पर तीर गिरा ।।

महि पर-तर्कश के  साथ-साथ  वह मुनियोंवाला चीर गिरा ।।

बावला   चाहता   है  पहले  रघुवर  को  शीश  झुका  लूँ मैं ।

रघुवीर—चाहते   हैं   पहले    छाती  से  उसे  लगा  लूँ  मैं ।।

आखिर  रघुवर की विजय हुई, हाथों पर उठा लिया उसको ।

वह  चरण  छुए  उससे  पहले छाती से लगा लिया उसको ।।

जब हृदय हृदय का मिलन हुआ-तो दूर विरह का ताप हुआ ।

अब  सबने  देखा— ‘चित्रकूट’ में  ऐसे-'भरत-मिलाप’ हुआ ।।

चित्रकूट का पावन-पुनीत स्थल दो भाइयों के अगाध-असीम स्नेह का भी साक्षी बनता है। शंकाएँ दूर हो जाती हैं। मन के विषाद मिट जाते हैं। चित्रकूट तो वैसे भी अवलोकन-मात्र से विषादों को हर लेने वाला है। यहाँ अयोध्या की प्रजा अपने प्रिय राम को देखकर आह्लादित है। माता कैकेयी, सुमित्रा, कौशल्या आदि माताओं के साथ ही गुरुजन उपस्थित हैं। विदेहराज जनक भी भरत की इस यात्रा का समाचार पाकर सीधे चित्रकूट आ जाते हैं। विंध्य की छाँह तले चित्रकूट गिरि, चित्रकूट परिक्षेत्र अब अनजाना-सा नहीं रह जाता। मिथिला के राजा जनक, निषादराज गुह, अयोध्या का पूरा राजपरिवार और समूची सेना चित्रकूट में जुट जाती है। चित्रकूट की भूमिका एक नए रूप में प्रकट होती है।

भक्तकवि सूरदास के लिए भरत और राम का मिलन बहुत भावुक कर देने वाला है। सूरदास ने इस मेल के प्रसंग का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। रामकथा पर लिखे उनके पदों का संकलन सूर-राम चरितावली में है। भक्तकवि सूरदास कहते हैं-

   भ्रात मुख निरखि राम बिलखाने।

मुंडित केस सीस, बिहबल दोउ, उमँगि कंठ लपटाने ।।

तात-मरन  सुनि  स्रवन कृपानिधि  धरनि  परे मुरझाइ ।

मोह-मगन, लोचन जल-धारा,  विपति न हृदय समाइ ।।

लोटति धरनि परी  सुनि सीता,  समुझति नहिं समुझाई ।

दारुन दुख दवारि ज्यों तृन-बन, नाहिंन बुझति बुझाई ।।

दुरभ   भयौ   दरस   दसरथ कौ,  सो  अपराध   हमारे ।

‘सूरदास’  स्वामी  करुनामय,   नैन     जात   उघारे ।।

राजा दशरथ का परलोकगमन श्रीराम को विचलित कर देता है। अयोध्या का दुर्योग ऐसा था, कि राजा दशरथ के प्राणांत के समय उनका कोई भी पुत्र वहाँ उपस्थित नहीं था। पुत्र-वियोग से कहीं अधिक भाई-भाई के मध्य विवाद का दंश राजा दशरथ को भीतर ही भीतर तोड़ रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। अयोध्या इस विषम काल की प्रत्यक्षदर्शी बनती है, लेकिन चित्रकूट...। यहाँ आज सत्ता के सारे केंद्र सिमटकर इकट्ठे हो गए हैं। राजा दशरथ के परलोकगमन के बाद अयोध्या किसकी होगी, यह तय करने का काम आज चित्रकूट के हिस्से आ गया है।

चित्रकूट में भरत-मिलाप कोई सामान्य घटना नहीं रह जाती, वरन् भविष्य की कार्य-योजना तय करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो जाती है। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी इस प्रसंग की गंभीरता को प्रस्तुत करते हैं। उनके लिए भरत पूज्य हैं, वंदनीय हैं। भरत और राम के प्रेम का वर्णन वे विस्तार के साथ करते हैं। चित्रकूट में राम और भरत का मिलन दैवलोक तक हर्ष और उल्लास का प्रसार करता है-

धन्य  भरत  जय  राम  गोसाईं ।  कहत  देव  हरषत  बरिआईं ।।

मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू । भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ।।

भरत  राम  गुन  ग्राम   सनेहू ।  पुलकि   प्रसंसत   राउ  बिदेहू ।।

अयोध्याकांड में प्रसंग आता है, कि अयोध्या के सभी नर-नारी चित्रकूट पहुँचते हैं, और पाँच दिनों तक रुकते हैं। छठवें दिन सभी प्रस्थान करते हैं। भरतजी एक विश्वास अपने मन में लेकर आए थे, कि वे अपनी माता के अपराध का प्रायश्चित्त भी करेंगे और श्रीराम को अयोध्या ले आएँगे। यदि इतने से बात नहीं बनी, तो वे स्वयं वन में रुक जाएँगे, और श्रीराम को अयोध्या जाने के लिए कहेंगे। पाँच दिनों तक इस विषय को लेकर मंथन चलता है। इसी अवधि में विंध्य गिरि के तले एक प्राचीन पवित्र सिद्ध-स्थल में कूप तैयार कर, उसमें सभी तीर्थों का जल डालकर स्थान को नया नाम भरतकूप का दिया जाता है। भरतजी इस अवधि में चित्रकूट के सभी दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करते हैं, और चित्रकूट में रम रहे श्रीराम के गुणों का श्रवण कर आनंदित होते हैं। पाँच दिनों के मंथन का नवनीत छठवें दिन निकलता है। इसी दिन सबको अयोध्या के लिए प्रस्थान भी करना है। मानस में भरत-मिलाप के प्रसंग का छठवाँ दिन बड़े महत्त्व का है। बाबा तुलसी लिखते हैं-

भोर  न्हाइ  सबु  जुरा समाजू ।  भरत  भूमिसुर  तेरहुति  राजू ।।

भल दिन आजु जानि मन माहीं । राम कृपाल कहत सकुचाहीं ।।

करि  दंडवत  कहत कर जोरी ।  राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ।।

मोहिं  लगि सबहिं  सहेउ संतापू ।  बहुत भाँति दुखु पावा आपू ।।

अब  गोसाईं  मोहि  देउ रजाई ।  सेवौं  अवध  अवधि भर जाई ।।

जेहिं  उपाय  पुनि  पाय   जनु   देखै  दीनदयाल ।

सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ।।

आरति  मोर  नाथ कर   छोहू ।  दुहुँ मिलि कीन्ह दीठु हठि मोहू ।।

यह बड़ दोषु दूर करि स्वामी । तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ।।

भरत  बिनय सुनि सबहिं  प्रसंसी । खीर नीर  बिबरन  गति हंसी ।।

अनुकूल समय जानकर भरत जी अपनी बात कहते हैं। राम और भरत का स्नेहभाव ही यहाँ बचा है। बीच का कलुष-कल्मष धुल चुका है। दोनों भाइयों के बीच स्नेह की अविरल मंदाकिनी, मंदाकिनी के तीर पर बह रही है। राम को अयोध्या का राजपाट नहीं चाहिए। भरत को भी ‘अवधि भर’ के लिए ही अवध को पालना है, फिर राम को वापस लौटा देना है। संपत्ति का मोह दोनों में से किसी को नहीं है। भरत स्वयं ही श्रीराम से कहते हैं, कि मेरे आर्त भाव ने, और आपके आत्मीय प्रेम ने मुझे हठी बना दिया है, इसी कारण मैं हठ कर रहा हूँ। मेरे दोष को दूर करके, और अपने संकोच को मिटा करके आप अपने इस अनुगामी को सीख दें, कि मैं किस तरह से ‘अवधि भर’ के लिए अवध का पालन करूँ?

मोर   तुम्हार  परम  पुरषारथु । स्वारथु   सुजसु  धरम   परमारथु ।।

पितु   आयसु  पालिहिं  दुहु  भाई ।  लोक  बेद  भल  भूप  भलाई ।।

गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ।।

अस  बिचारि सब सोच बिहाई । पालहु  अवध  अवधि  भर  जाई ।।

श्रीराम कहते हैं, कि मेरा और तुम्हारा परम पुरुषार्थ, परमार्थ, स्वार्थ, धर्म और सुयश सभी कुछ इसी में है, कि हम दोनों ही भाई पिता की आज्ञा का पालन करें, ताकि लोक और शास्त्र दोनों में राजा का हित हो, अर्थात् राजा की मान-प्रतिष्ठा को कहीं पर भी कोई ठेस न पहुँचे। गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने पर कुमार्ग में चलने पर भी पैर नीचे नहीं पड़ता, कर्म में पतन नहीं होता है। ऐसा विचार मन में रखते हुए चिंता को त्याग करके जाओ और ‘अवधि भर’ के लिए अवध का पालन करो।

दोनों भाइयों की स्थिति एकदम स्पष्ट है। दोनों को केवल अपने-अपने भाग्य के कर्म करने हैं। अयोध्या का साम्राज्य दोनों में से किसी के मन में लेशमात्र भी लालच उत्पन्न नहीं कर पाता है। चित्रकूट की पुण्यश्लोका धरा साक्षी बनती है, कि अयोध्या का समृद्धशाली साम्राज्य किस तरह कंदुक-सम दोनों भाइयों के बीच एक पाले से दूसरे पाले में जा रहा है। दोनों में से कोई भी अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं कर रहा। यह हमारी सनातन परंपरा का ऐसा जाज्वल्यमान उदाहरण है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। और इस प्रसंग को बाबा तुलसी ने इतना विस्तार से लिखा, तो आखिर क्यों? बाबा तुलसी का रचनाकाल भारत की पराधीनता का समय था। विदेशी आक्रांताओं के साम्राज्य कैसे बनते-बिगड़ते थे, यह बाबा तुलसी ने देखा था। पिता अपने पुत्र को बंदी बना रहा था, तो पुत्र अपने पिता और भाइयों की हत्या करके बादशाह बन रहा था। इस विषमता के कालखंड में बाबा तुलसी की लेखनी भरत और राम के प्रेम को विस्तार से बखानती है, पथभ्रष्टों को रास्ता दिखाती है।

श्रीराम से भरत पूछ रहे हैं, और राम बता रहे हैं-

मुखिया  मुख  सो  चाहिए  खान पान कहुँ एक ।

पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ।।

राजधरम  सरबसु एतनोई ।  जिमि मन माँह मनोरथ गोई ।।

बंधु प्रबोध कीन्ह बहु भाँती । बिनु अधार मन तोषु न साँती ।।

मुखिया को मुख की भाँति होना चाहिए। उसे भेदभाव नहीं करना चाहिए। मुख खान-पान में एक होता है, लेकिन जो भी ग्रहण करता है, उससे सारे शरीर का पालन विवेकपूर्ण ढंग से करता है। जिस तरह मन में मनोरथ छिपे होते हैं, और अन्य कार्य-व्यवहार उससे निकलकर प्रकट होते हैं, उसी प्रकार राजधर्म होता है। राजधर्म का सार भी इतना ही है। भरत जी के लिए ये सीख दिशा-निर्देशक बन जाती है, किंतु उन्हें भौतिक आधार के बिना संतोष नहीं होता। राम अपनी चरण पादुकाएँ उतारकर दे देते हैं। भरत उन्हें अपने सिर पर रख लेते हैं। वाल्मीकि रामायण के दाक्षिणात्य पाठ में हेमभूषित पादुकाएँ बताई गईं हैं, तो गौड़ीय पाठ में शरभंग ऋषि द्वारा भेजी गईं कुश-पादुकाओं को राम द्वारा दिए जाने की बात कही गई है। जातक कथाओं में पादुकाओं द्वारा न्याय किए जाने की बात आती है।

भरत के लिए राम की चरण पादुकाएँ संबल बनती हैं। वे विधिवत् उन्हें सिंहासन में स्थापित करते हैं। स्वयं नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहते हैं।

राम  मातु  गुर  पद सिरु नाई ।  प्रभु  पद पीठ  रजायसु पाई ।।

नंदिगाँव  करि परन कुटीरा ।  कीन्ह निवासु  धरम  धुर धीरा ।।

जटाजूट  सिर  मुनिपट धारी ।  महि खनि कुस साँथरी सँवारी ।।

असन बसन बासन ब्रत नेमा ।  करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ।।

भूषन  बसन  भोग सुख  भूरी ।  मन तन  बचन  तजे तिन तूरी ।।

अवध  राजु  सुर राजु सिहाई ।  दसरथ  धनु सुनि धनदु लजाई ।।

तेंहि  पुर बसत भरत बिनु रागा ।  चंचरीक  जिमि  चंपक बागा ।।

भरत के लिए अयोध्या का राजपाट सुखभोग के लिए नहीं है। वे कठिन साधना करते हैं, ऋषिधर्म का निर्वाह करते हैं। जिस अयोध्या नगरी की समृद्धि को देखकर देवता भी ललचाते हैं, जिस अयोध्या नगरी की संपन्नता को सुनकर धनपति कुबेर भी लजाते हैं, उस अयोध्या नगरी का मोल भरत के लिए तृण के समान है। जैसे चंपक के वन में भौंरा रहता है, वैसे ही संसक्ति से विहीन होकर भरत रह रहे हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भरत द्वारा अयोध्या के राजपाट के संचालन का विशद-व्यापक वर्णन किया है। वे समकालीन परिस्थितियों के मध्य एक दीपस्तंभ की तरह भरत को प्रस्तुत करते हैं। सत्ता के मद में, शक्ति के अहंकार में, धन के घमंड में चूर समाज के समक्ष वे भरत को प्रस्तुत करते हैं। मानस में भरत का विराट व्यक्तित्व प्रकट होता है। रामराज्य की बात बार-बार कही जाती है। यह रामराज्य स्थापित कैसे हुआ, इस प्रश्न का उत्तर तुलसी के मानस में मिलता है। जब भरत जैसा शासक संसक्तिविहीन होकर राजपाट को चलाता है, तब राजमद नहीं होता। जब शासक आसक्ति से मुक्त होकर संन्यस्त-भाव से राजपाट को चलाता है, तब राजमोह नहीं होता। वह अपने दायित्व को ‘अवधि भर’ निभाने से आगे नहीं जाता, अपना अधिकार नहीं जताता। वह निर्विकार-निर्लिप्त भाव से सत्ता सौंप देने के लिए तत्पर रहता है, तैयार रहता है। रामराज्य तभी बनता है। रामराज्य के प्रवर्तक-संस्थापक भरत बनते हैं। भरत ही रामराज्य स्थापित कर पाते हैं। इसी कारण राम के सबसे प्रिय भरत हैं। लक्ष्मण से भी अधिक....। इसी कारण लक्ष्मण के मन में उठने वाली शंका पर राम मौन रहते हैं, लक्ष्मण को समझाते हैं। राम भरत को लेकर आश्वस्त हैं, इसी कारण वे लक्ष्मण के मन में उठी शंकाओं का शमन करते हैं, उन्हें समझाते हैं।

भरत और राम का मिलन इसी कारण रामकथा में, रामलीलाओं में अपना विशेष महत्त्व रखता है। भरत और राम का मिलन रामकथा में दो बार आता है। भरत-मिलाप के दो प्रसंग हैं। एक चित्रकूट में, दूसरा अयोध्या में...। एक वनवास गए राम के साथ, दूसरा वन से लंका-विजय करके लौटे राम के साथ...। वाराणसी में दूसरे भरत-मिलाप का प्रसंग खेला जाता है। वाराणसी की नाटी इमली की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है। वैसे तो शिव की नगरी में जब राम उतरते हैं, तो सारी नगरी ही एक रंगमंच बन जाती है। कहीं लंका, तो कहीं अयोध्या...। पूरे वाराणसी में रामलीला के अलग-अलग प्रसंग अलग-अलग स्थानों में खेले जाते हैं। एकदम अनूठा ही रंग दिखता है। नाटी इमली की रामलीला भरत-मिलाप के प्रसंग से जुड़ी है।

राम ने लंका को जीत लिया है। विभीषण को लंका का राजपाट सौंप दिया है, और स्वयं अयोध्या की ओर चल पड़े हैं। भरत, जो नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं, उनके पास समाचार आता है, कि राम अयोध्या पहुँच रहे हैं। भरत की हठ है, कि राम यदि सूर्य ढलने के पहले उनसे आकर नहीं मिलेंगे, तो वे अपने प्राण त्याग देंगे। यह हठ राम के स्नेह के कारण है, दोनों भाइयों के आपसी प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण है। अनेक लोगों से मिलते-मिलते राम को देर हो जाती है, और राम अचानक चिंतित हो उठते हैं, भरते के लिए। उधर सूरज ढलने को है। राम दौड़कर जाते हैं, और भरत को गले लगा लेते हैं। यह प्रसंग नाटी इमली की रामलीला में इसी भाव के साथ खेला जाता है। मैदान में एक विशेष स्थान पर जब ढलते सूरज की किरणें पड़ रहीं होती हैं, तब राम और भरत का मिलाप होता है। उपस्थित जन-समुदाय भावावेश में विह्वल हो उठता है। इस रामलीला को देखने स्वयं काशी नरेश आते हैं।

भरत और राम के प्रेम को रामकथाओं के साथ ही लोकजीवन ने अपनाया है। इसी कारण भरत-मिलाप की लीला लोक को सुहाती है। लोककथाओं में भरत और राम का प्रेम दिखता है। गोस्वामी तुलसीदास के लिए भरत आदर्श हैं, प्रेरणा के स्रोत हैं। वे बार-बार अपने आराध्य श्रीराम से भरत के गुण कहलाते हैं-

लखन  तुम्हार  सपथ पितु आना ।  सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ।।

भरतु  हंस  रबिबंस  तड़ागा ।   जनमि  कीन्ह  गुन  दोष बिभागा ।।

कहत   भरत  गुन  सील सुभाऊ ।   पेम  पयोधि  मगन  रघुराऊ ।।

जौं न होत जग जनम भरत को । सकल धरम धुर धरनि धरत को ।।

कबि कुल  अगम  भरत गुन गाथा ।  को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा ।।

यदि भरत न होते, तो संसार में समस्त धर्मों की धुरी कौन धारण करता। भरत तो धर्म की धुरी हैं। श्रीराम भरत के गुणों के गायक हैं, वाचक हैं, प्रस्तोता हैं। भरत के गुणों की कथा अगम्य है, और श्रीराम के बिना उन गुणों को कोई नहीं जान सकता।

वाराणसी में नाटी इमली की भरत-मिलाप की लीला के साथ लोकमान्यता जुड़ी है, कि श्रीराम स्वयं इस लीला में उपस्थित होते हैं। बाबा तुलसी द्वारा स्थापित रामलीलाओं के मंचन की परंपरा को मेधा भगत ने आगे बढ़ाया था। मेधा भगत को श्रीराम ने नाटी इमली की रामलीला स्थली में दर्शन दिए थे। श्रीराम का भरत के प्रति अगाध प्रेम लोक को भाता है, क्योंकि लोक इस भाव से रस-संचय कर अपने लिए सीख लेता है, अपने को सीख देता है। गोपीगंज की भरत-मिलाप की लीला भी बहुत प्रसिद्ध है। भाइयों के बीच निष्काम प्रेम-भाव, परिवार के मेल-जोल और निर्विकार-निर्लिप्त राजशासन की भावना भरत-मिलाप की लीला को हर स्थान पर प्रिय बनाती है। चित्रकूट के साथ जितना गहरा संबंध राम का है, उतना ही गहरा संबंध भरत का भी है।

चित्रकूट ने भरतजी के त्याग को, उनके समर्पण को, उनके निर्विकार भाव को, उनके सहज आत्मीय स्वभाव को देखा है। इसी कारण आज भी चित्रकूट में भरतजी की जय-जयकार होती है। रामघाट की संध्या आरती में, विभिन्न मंदिरों की आरती में आज भी भरत जी के नाम का जयकारा लगाया जाता है। लोक सदा से ही राम को धन्य कहता आया है, और भरत की जय-जयकार करता आया है। लोक की आकांक्षा भरत-मिलाप की लीला में पूर्ण होती है।

-राहुल मिश्र

(वार्षिक कर्तव्य मार्ग, जम्मू के वर्ष-2, अंक-2, 2024 में प्रकाशित)