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Friday, 5 September 2025

हमें एक जलता युग दिखा है, जो देखा वही कागजों पर लिखा है... : डॉ. अजय प्रसून से डॉ. राहुल मिश्र की बातचीत


हमें एक जलता युग दिखा है, जो देखा वही कागजों पर लिखा

 है... : डॉ. अजय प्रसून से डॉ. राहुल मिश्र की बातचीत

हिंदी के जाने-माने कवि डॉ. अजय प्रसून (डॉ. अजय कुमार द्विवेदी) लखनऊ (उत्तरप्रदेश) में रहते हुए विगत पैंतालीस से अधिक वर्षों से साहित्यसेवा में संलग्न हैं। डॉ. प्रसून का जन्म 18 जनवरी, 1954 को लखनऊ में हुआ। आपके माता-पिता श्रीमती कांतीदेवी द्विवेदी व श्री सरोज कुमार द्विवेदी धर्मनिष्ठ व सरल-सहज स्वभाव के थे। डॉ. प्रसून लखनऊ स्थित प्रशिक्षण एवं सेवायोजन निदेशालय में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएँ देते हुए भी वे कवि-कर्म में संलग्न रहे और संप्रति, सेवानिवृत्ति के उपरांत अनवरत् साहित्य-साधना में संलग्न हैं।

डॉ. अजय प्रसून अनागत कविता आंदोलन के प्रेरक, प्रवर्तक और प्रस्तावक हैं। ‘कठिन वर्तमान को जीते हुए स्वर्णिम भविष्य की कामना’ के ध्येय-वाक्य पर डॉ. फ3सून द्वारा अनागत कविता आंदोलन को उस समय स्वर दिया था, जब कविता में नकारात्मकता और नैराश्य का भाव बढ़ता दिख रहा था। सत्तर के दशक में, जब कविता में संत्रास, त्रासदी, मोहभंग, हताशा, निराशा जैसे भाव दिख रहे थे, उन दिनों में अनागत कविता आंदोलन के माध्यम से डॉ. प्रसून ने कविता को लोकरंजन के साथ ही पथ-प्रदर्शन के सकारात्मक पक्ष से जोड़ने की बात कही। सनातन परंपरा में कर्म की प्रधानता और भविष्य के प्रति सकारात्मकता का सिद्धांत उनके द्वारा प्रवर्तित अनागत कविता आंदोलन के ध्येय-वाक्य में परिलक्षित होता है।

डॉ. अजय प्रसून द्वारा रचित 1. युग के आँसू (खंडकाव्य), 2. गाओ गीत सुनाओ गीत (बाल-काव्य / उ.प्र. शासन द्वारा पुरस्कृत), 3. बच्चों की प्यारी कविताएँ (बाल-काव्य), 4. बच्चे गायें गीत (बाल-काव्य), 5. बच्चों शिष्टाचार न भूलो (बाल-काव्य), 6. महानगर के बीच (हिंदी गजल), 7. बाँसुरी की भीतरी तह में (अनागत काव्य-संग्रह), 8. दर्पण शिलालेख हो जाये (अनागत गीत-संग्रह), 9. आँसुओं का बयान जारी है (अनागत गजल-संग्रह / उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा अनुदान प्राप्त), 10. श्री हनिमान अस्सीसा, 11. श्री शनि अस्सीसा, 12. कालजयी हम प्यास लिये (अनागत गीत-संग्रह), 13. प्रश्न अनशन किये जो बैठे हैं (मुक्तक संग्रह) आदि कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी तीन काव्य-कृतियाँ प्रकाशनाधीन हैं।

संपादक के रूप में डॉ. प्रसून ने शब्द नए गढ़ने हैं, अनागत के कमल हैं हम... सहित हिंदी की प्रमुख काव्य-केंद्रित त्रैमासिकी ‘ताम्रपर्णी’ के संपादन सहित हिंदी की शोध-संदर्भ पत्रिका नूतनवाग्धारा के संयुक्त विशेष-अंक 44-48, वर्ष 14, दिसंबर, 2021 (अनागत कविता आंदोलन : नई सुबह की आहट)  का संपादन (अतिथि संपादक) किया है।

डॉ. प्रसून को समकालीन बाल साहित्यकार के रूप में भी जाना जाता है। वे हिंदी बाल-साहित्य का इतिहास में बाल-साहित्यकार के रूप में स्थापित रचनाकार हैं। डॉ. प्रसून का कवि-जीवन ही बाल साहित्यकार के रूप में प्रारंभ हुआ। प्रकाशित बाल-काव्य संग्रहों के अतिरिक्त हिंदी की प्रतिष्ठित बाल-साहित्य की पत्रिकाओं व समाचारपत्रों के परिशिष्ट, यथा- बाल भारती, नंदन, कच्ची धूप, बाल कविता, बाल दर्शन, मानवी, यू.एस.एम. पत्रिका, बाल गीतांजलि, बाल वाणी, बाल परंपरा, आज, स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण, नवजीवन, मेला, योजना, बाल साहित्य समीक्षा, स्वतंत्र भारत सुमन, खिले अधखिले, दिल्ली मासिक, शब्दलता, नया प्रभात, पराग, कुटकुट, बाल मन, यश कमल, बाल गीत, पत्रिका, जनलोक, संगीत, दृष्टिकोण बाल विशेषांक आदि में बाल-कविताएँ प्रकाशित हुईं है। हिंदी की प्रतिष्ठित ताम्रपर्णी पत्रिका के बाल-विशेषांक का संपादन भी डॉ. प्रसून ने किया है।

डॉ. प्रसून को विभिन्न सम्मानों एवं पुरस्कारों से पुरस्कृत किया गया हैं। इसमें कुछ प्रमुख सम्मान व पुरस्कार हैं- कृति ‘गाओ गीत सुनाओ गीत’ के लिए उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा अनुशंसा पुरस्कार- 1981, राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी जी की इच्छा पर लखनऊ की संस्थाओं द्वारा अभिनंदन, 28.02.1980 को, मुगलसराय लायंस क्लब द्वारा सम्मान, 1992, कवितालोक सृजन संस्थान द्वारा गीतिका-गंगोत्री सम्मान- 2015, काव्य-गंगोत्री सम्मान- 2017, महिला उत्थान समिति द्वारा साहित्य सुधाकर सम्मान- 2019, राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान द्वारा साहित्य गौरव सम्मान- 2019, यू.पी. प्रेस क्लब द्वारा साहित्य सृजन सम्मान- 2017, सुंदरम् संस्थान द्वारा सुंदरम् रत्न सम्मान- 2018, जी.डी. फाउंडेशन द्वारा अवधश्री सम्मान- 2019, सालासार (राजस्थान) में साहित्य सुधाकर सम्मान- 2019, स्नेह वेलफेयर फाउंडेशन द्वारा साहित्य सूर्य सम्मान- 2018, कविता लोक बिजनौर द्वारा कवितालोक आदित्य सम्मान- 2019, काव्यक्षेत्र संस्था द्वारा काव्यक्षेत्र काव्य किरीट सम्मान, युवा रचनाकार मंच, लखनऊ द्वारा ‘डॉ. अनंत माधव चिपलूणकर स्मृति सम्मान- 2019, भारतीय अटल सेना (राष्ट्रवादी) द्वारा प्रदत्त ‘भारतीय अटल लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड- 2020, श्री शब्द सरिता द्वारा सम्मान, 2021, युवा रचनाकार मंच द्वारा आजीवन साहित्यिक सेवा सम्मान- 2021, शिवभार गुर्जर लखनवी संस्था द्वारा ‘आचार्य पिंगल साहित्यश्री सम्मान’, पं. दुर्गाप्रसाद मित्र साहित्य सभा द्वारा पं. दुर्गा प्रसाद मित्र साहित्य शिरोमणि सम्मान- 2020, साहित्यिक संस्था काव्य प्रवाह का ‘काव्य गौरव सम्मान’, मार्तण्ड साहित्य संस्था द्वारा सम्मान- 2020, उत्तरप्रदेश राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, लखनऊ द्वारा अनागत मुक्तक-संग्रह- प्रश्न अनशन किये जो बैठे हैं पर एक लाख रुपये का अकबर इलाहाबादी पुरस्कार- 2021, युगधारा फाउंडेशन द्वारा ‘साहित्य प्रभाकर सम्मान- 2022’, कविता लोक द्वारा ‘गीतिका सम्मान- 2022, सुजान साहित्य संस्थान, जरई कलाँ, सुलतानपुर द्वारा ‘साहित्य शिरोमणि सम्मान- 2022’, अभिभावक कल्याण संघ, लखनऊ द्वारा ‘समाजसेवा प्रतिनिधत्व सम्मान’, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा सोहनलाल द्विवेदी बाल कविता सम्मान- 2021 आदि।

डॉ. प्रसून को अपनी युवावस्था में डॉ. रामकुमार वर्मा के साथ भी मंच पर कविता पढ़ने का अवसर मिला है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी, बलवीर सिंह ‘रंग’, शारदा प्रसाद भुशुण्डि, उमादत्त त्रिवेदी आदि प्रख्यात कवियों के साथ मंच पर उपस्थिति रही है। विगत पैंतालीस से अधिक वर्षों से हिंदी के नामचीन कवियों के मध्य ख्याति है। आज भी अनेक मंचों पर आपकी कविताएँ सराही जाती हैं। कविताओं व गीतों के वीडियो यू-ट्यूब आदि सोशल नेटवर्किंग के पटल पर उपलब्ध हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्रों से नियमित प्रसारण, आकाशवाणी के अनुबंधित रचनाकार। इसके साथ ही सारेगामा प्रा. लि. ने आपके गीतों पर एक अलबम तैयार किया है। इसमें जगजीत सिंह के साथ आपके भी गीत हैं, जिसे देश के जाने-माने गायकों ने स्वर दिए हैं। डॉ. प्रसून एक अनौपचारिक गुरुकल की भाँति युवा पीढ़ी को कविता के गुर सिखाते हैं, और प्रोत्याहित भी करते हैं। इस हेतु उनके द्वारा विभिन्न सम्मानों, जैसे- अनागत कविता मार्तण्ड सम्मान (कवियों हेतु), अनागत कविता चंद्रिका सम्मान (कवयित्रियों हेतु), अनागत कविता भारती सम्मान, अनागत कविता पितृ स्मृति सम्मान आदि प्रदान किए जाते हैं, जो नवोदित कवियों-कवयित्रियों को प्रेरणा व प्रोत्साहन देते हैं।

सरल-सहज व्यक्तित्व के धनी और प्रचार-तंत्र से सर्वदा दूर वाग्देवी की आराधना और सेवा में संलग्न रहने वाले डॉ. अजय प्रसून ऐसे रचनाकार, कवि और साहित्यसेवी हैं, जिन्होंने कविता की विभिन्न पद्धतियों और विधाओं, जैसे- हिंदी गजल, गीतिका, दोहा, मुक्तक, मुक्तछंद, नवगीत, अवधी लोकगीत आदि में प्रचुर मात्रा में लेखन किया है। विगत दिनों उनसे भेंट के समय डॉ. राहुल मिश्र ने उनसे हिंदी कविता के सामयिक संदर्भों सहित विभिन्न पक्षों पर वार्ता की। प्रस्तुत हैं इस वार्ता के महत्त्वपूर्ण अंश-

डॉ. राहुल मिश्र- हाल ही में आपको उत्तरप्रदेश राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, लखनऊ द्वारा अनागत मुक्तक-संग्रह- प्रश्न अनशन किये जो बैठे हैं पर एक लाख रुपये का अकबर इलाहाबादी पुरस्कार- 2021 तथा उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा सोहनलाल द्विवेदी बाल कविता सम्मान- 2021 प्रदान किए गए हैं। इनके लिए शुभकामनाएँ स्वीकार कीजिए।

डॉ. अजय प्रसून- हार्दिक धन्यवाद, आपका।

डॉ. राहुल मिश्र- आप विगत पैंतालीस वर्षों से साहित्य-साधना में संलग्न हैं। आपका लेखन-कार्य मुख्यतः कविता के क्षेत्र में रहा है। अपने विस्तृत रचना-संसार पर आपका क्या कहना है?

डॉ. अजय प्रसून- मेरा लेखन 45 वर्षों से नहीं अपितु 52 वर्षों से चल रहा है। यह सही है, कि इस दौरान अधिकांशतः मैंने काव्य का ही सृजन किया है, लेकिन अनेक कहानियों एवं नाटकों का सृजन भी मेरे द्वारा संपन्न हुआ है। मैंने इस बीच तीन खंडकाव्य भी रचे हैं, साथ ही विभिन्न विषयों पर लेख भी लिखे हैं। ताम्रपर्णी (त्रैमासिक पत्रिका) का प्रकाशन एवं संपादन भी किया है। अब तक मेरी 15 काव्य-कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं, साथ ही मैंने अपने संपादन में कई अनागत काव्य-कृतियाँ सहयोगी रचनाकारों की कविताओं सहित प्रकाशित की हैं। एचएमबी सारेगामा द्वारा मेरे गीतों का एल्बम भी निकाला गया है। अनेकानेक शोध-प्रबंधों में मेरी चर्चा भी शामिल है। बाल-कविताओं का सृजन भी प्रचुर मात्रा में मेरे द्वारा किया गया है।

डॉ. राहुल मिश्र- सत्तर के दशक में जब आपने अनागत कविता आंदोलन की प्रस्तावना रखी, प्रवर्तन किया, उस समय हिंदी कविता की दशा-दिशा क्या थी, और अनागत कविता आंदोलन की प्रासंगिकता उस समय आप किस प्रकार देखते थे?

डॉ. अजय प्रसून- सन 70 से ही मेरा काव्य-सृजन शुरू हुआ। उस समय बड़े-बड़े दिग्गज कवियों का जमावड़ा साहित्य व कविता के क्षेत्र में था। कविता उस समय अपने चरमोत्कर्ष पर थी। कविता मंचों पर काव्य-पुष्पों की वर्षा होती थी, किंतु ऐसी स्थिति में नए कवियों की उपेक्षा भी अपने चरम पर थी। अपना स्थान बना पाना अति दुष्कर कार्य था, किंतु पूरी लगन और मन से किए गए प्रयास व्यर्थ नहीं जाते, अतः मुझे भी अवसर प्राप्त होते गए और मेरी कविता अपने लक्ष्य को प्राप्त करती रही। सन 1981 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा मेरी बाल-कृति ‘गाओ गीत सुनाओ गीत’ को अनुशंसा पुरस्कार भी मिला। ऐसे समय में मैंने अनागत कविता आंदोलन की प्रस्तावना भी सहित्य के सम्मुख प्रस्तुत की। थोड़े विरोध और सहयोग के बीच उसकी चर्चा भी प्रचुर रूप में चल पड़ी। अनागत कविता आंदोलन की प्रस्तावना रखने, प्रवर्तन करने आदि के संबंध में अपनी कुछ पंक्तियाँ कहना चाहूँगा-

हमें एक जलता युग दिखा है, / जो देखा वही कागजों पर लिखा है ।

हमारा सृजन तो सृजन ही नहीं है, / अनागत के इतिहास की भूमिका है।

डॉ. राहुल मिश्र- विगत पैंतालीस से अधिक वर्षों की काव्य-यात्रा में आपने अनेक उतार-चढ़ावों को कविता के क्षेत्र में देखा होगा। अनेक वाद और आंदोलन भी इस अवधि में आए, और चले गए, किंतु अनागत कविता आंदोलन के अनवरत चलते रहने का कारण क्या दिखता है?

डॉ. अजय प्रसून- यह सत्य है, कि जिस समय मैंने अनागत कविता आंदोलन की शुरुआत की थी, प्रवर्तन किया था, उस समय कई वाद और आंदोलन चल रहे थे। कई विलुप्त भी हो गए थे, और अनेक आंदोलन बाद के वर्षों में अचर्चित हो गए, किंतु अनागत कविता आंदोलन आज भी मुखर है, अनवरत प्रवाहमान है। इसके पीछे दार्शनिक विवेचन और भारतीय जीवन-दर्शन व सिद्धांत हैं। यह शाश्वत भावों और विचारों से सराबोर मानव के लिए हितचिंतक और नवीन पीढ़ी को नई दिशा देने वाला आंदोलन है। अनागत के मूल में कठिन वर्तमान जीते हुए स्वर्णिम भविष्य की कल्पना साकार होती हुई दिखती है। इसमें सकारात्मकता है, फल की कामना के स्थान पर कर्म की प्रधानता है और नकारात्मकता के स्थान पर कल के सुंदर व सुखद होने की कामना है। ये सभी जीवन को गतिशील और ऊर्जावान बनाने वाले पक्ष हैं। इसी कारण अनागत कविता आंदोलन अविरल गतिमान है, लोगों को जीवन जीने की दिशा दे रहा है।

डॉ. राहुल मिश्र- अनागत कविता आंदोलन में सहभागी रहने वाले पुराने और वरिष्ठ कवियों के साथ ही वर्तमान में अनागत कविता की सर्जनात्मक दिशा और दशा के बारे में कुछ बताइए?

डॉ. अजय प्रसून- अनागत कविता आंदोलन को साकार रूप प्रदान करने के लिए पुराने और वरिष्ठ कवियों का सहयोग तो मिला ही, साथ ही उस समय के युवा कवियों का भरपूर सहयोग भी मिला। इसी के परिणामस्वरूप लगभग 4 अनागत कविता-संग्रह मेरे संपादन में प्रकाशित हुए, जिसमें 100 से अधिक रचनाकारों की कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। आज की स्थिति में अगर हम देखें, तो अनागत काव्य-गोष्ठियों के माध्यम से कई सौ रचनाकार इस आंदोलन से जुड़े हैं। कोरोना के कालखंड में, व इसके बाद भी आनलाइन अनागत काव्य-गोष्ठियों का क्रम चलता आ रहा है। प्रतिमास द्वितीय रविवार को अनागत काव्य गोष्ठियाँ आयोजित करने का क्रम भी निरंतर चल रहा। इन गोष्ठियों में नए रचनाकारों को जुड़ने का, सीखने का और साथ ही अपनी रचनाशीलता को साझा करने का अवसर मिलता है। इन काव्य-गोष्ठियों में देश-विदेश के रचनाकार और कवि सम्मिलित होते रहते हैं। विगत 23 जनवरी को अनागत दिवस के अवसर पर श्री राम दुलारे सिंह जी के अनागत कविता-संग्रह ‘वर्तमान तो पल भर का है’ का लोकार्पण भी संपन्न हुआ। वर्ष 2020 में अनागत कविता आंदोलन को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगोष्ठी आयोजति हुई थी। इसमें विदेशों से जुड़े विद्वानों ने, विशेषकर मॉरीशस से जुड़े विद्वानों ने अपने शोध-प्रबंध प्रस्तुत करते हुए यह स्थापित किया, कि विदेशों की धरती पर भी रचे जा रही कविताओं में अनागत कविता की प्रवृत्तियाँ परिलक्षित होती हैं। यह संगोष्ठी अनागत कविता आंदोलन के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रही। यू-ट्यूब में इस संगोष्ठी के वीडियो बहुत देखे गए हैं।

डॉ. राहुल मिश्र- अनागत कविता के दार्शनिक संदर्भ या समसामयिक स्थितियों के व्यावहारिक संदर्भ कौन-से हैं, जिनके कारण आज की पीढ़ी भी इस विचार के साथ जुड़ी दिखती है?

डॉ. अजय प्रसून- अनागत कविता आंदोलन की अवधारणा पूर्णरूपेण दार्शनिक है। वह इसलिए, कि अनागत केवल आज की नहीं, वरन युगों पुरानी मान्यताओं को भी स्वीकारता है। आज की, यानि समसामयिक स्थितियों को भी स्वर प्रदान करता है। अगर हम श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड का अवलोकन करें, तो पूरा उत्तरकांड अनागत कविता को बल प्रदान करता है, क्योंकि इसमें कलियुग में घटने वाली घटनाओं के पूर्वानुमान भी प्रस्तुत किए गए हैं, जो आज की स्थितियों में हम स्पष्ट रूप से देख पा रहे हैं। अनागत भविष्य की बात भी करता है, और वर्तमान की विषमताओं से दो-चार होने के लिए एक रास्ता भी दिखाता है। गीता का कर्मयोग इसमें परिलक्षित होता है। नकारात्मकता के स्थान पर सकारात्मकता के कारण युवा पीढ़ी इस आंदोलन से जुड़ी है।

डॉ. राहुल मिश्र- कविता-लेखन के अपने प्रारंभिक दिनों का कोई संस्मरण यदि ना सकें, तो अच्छा लगेगा?

डॉ. अजय प्रसून- सन् 1978 में बाराबंकी के जवाहरलाल नेहरू कॉलेज में एक अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन हुआ था, जिसमें देश के स्वनामधन्य साहित्यकार, कवि मंच पर मौजूद थे। डॉ. रामकुमार वर्मा जी भी आए थे। उन्होंने सरस्वती-वंदना से कवि-सम्मेलन की शुरुआत की, तत्पश्चात मुझे काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित किया गया। काव्य-पाठ में मैंने अपना शृंगारिक गीत-

इतना मन को छुओ न श्यामल तन की प्यास रेख हो जाए,

ऐसा भी शर्माना क्या है दर्पण शिलालेख हो जाए ।।.....

पढ़ा। पढ़ते ही वातावरण एकदम शांत हो गया। यह देखकर मुझे अनुभव हुआ कि मेरा गीत व्यर्थ हुआ, कोई प्रतिक्रिया ही नहीं हुई। अतः गीत पढ़कर मैंने माइक छोड़ दिया और हताश होकर जाने लगा। तभी डॉ. कुँवर चंद्रप्रकाश सिंह जी ने कहा अभी और पढ़िए..... आपने बहुत अच्छा गीत पढ़ा है। पूरे पांडाल में तालियों की गड़गड़ाहट हुई। मंच और पांडाल की करतल ध्वनि सम्मिलित रूप से सुनाई पड़ी, जिसे सुनकर मेरी हताशा दूर हुई और फिर मैंने मन मुताबिक और अन्य गीत पढ़े।

डॉ. राहुल मिश्र- आपका सारा जीवन लखनऊ में बीता है। लखनऊ तो साहित्य की भी राजधानी रही है। अनेक ख्यातिलब्ध साहित्यकार, कवि लखनऊ में हुए हैं, या जुड़े रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में पुराने लखनऊ के साथ ही आज के समय को आप देखते हुए क्या कहना चाहेंगे?

डॉ. अजय प्रसून- मेरा सारा जीवन लखनऊ में ही बीता। सर्वश्री अमृतलाल नागर, श्री भगवतीचरण वर्मा, श्री दिवाकर अग्निहोत्री, श्री गिरिजा दयाल गिरीश, श्री विष्णु कुमार त्रिपाठी राकेश, श्री महेश प्रसाद, श्री विनोद चंद्र पांडे, श्री शिव सिंह सरोज, श्री ठाकुर प्रसाद सिंह, श्री सिद्धेश्वर क्रांति, श्री देवी शंकर मिलन, श्री महेश प्रसाद श्रमिक आदि श्रेष्ठ रचनाकारों से लखनऊ की पहचान होती थी। व्यक्तिगत रूप से मेरा बहुत जुड़ाव किसी से नहीं रहा, लेकिन अनेक साहित्यिक आयोजनों में इन विभूतियों के साथ रहने का अवसर प्रायः मिलता रहता था। आज भी मैं स्वांतः सुखाय के भाव से सृजन में संलग्न रहता हूँ। आज की स्थिति में साहित्य की एक बड़ी भीड़ है, और सभी अपनी क्षमता-अनुसार अच्छा लिख भी रहे हैं, लेकिन जो कविता का रसानंद पूर्व में साहित्यिक आयोजनों में आता था, अब उसका उस रूप में अनुभव नहीं होता है।

डॉ. राहुल मिश्र- आप मंचीय कविता के भी सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपने देश के विभिन्न स्थानों में कविता-पाठ किया है। मंचीय कविता के पुराने समय और वर्तमान के बारे में आपका क्या कहना है?

डॉ. अजय प्रसून- मंचीय कविता की जाए, तो पहले के मंचों पर बहुत जाँच-परख कर ही कवियों को मंचों पर आमंत्रित किया जाता था। और चुने हुए मंच-सिद्ध कवि की कविता-पाठ कर पाते थे, किंतु आज यह स्थिति नहीं है। आज के कवि मात्र छह माह या एक साल की अवधि में अखिल भारतीय स्तर के कवि बन जाते हैं और अपने आप को बड़े रचनाकारों की पंक्ति में शामिल करवा लेते हैं। इससे नवोदित कवियों का बड़ा नुकासन भी होता है, क्योंकि मंचीय कविता की बारीकियों को सीखने के लिए भी समय देना होता है।

डॉ. राहुल मिश्र- बाल साहित्यकार के रूप में वर्तमान बाल-साहित्य को किस प्रकार देखते हैं? बीस-पचीस वर्ष पहले बाल-साहित्य की क्या स्थिति थी, आपका क्या कहना है?

डॉ. अजय प्रसून- कविता के साथ-साथ बाल साहित्य से मैं लगातार जुड़ा रहा हूँ। पिछले वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा सोहनलाल द्विवेदी बाल कविता सम्मान भी दिया गया है। बीस-पचीस वर्ष पहले भी देखा जाए तो बाल-साहित्य का स्वरूप उत्कृष्ट था, और आज की स्थिति में भी हम देखते हैं कि जो भी बाल-साहित्यकार अपना सृजन कर रहे हैं, वह उत्कृष्ट कोटि का है। एक साहित्यकार की पूर्णता तभी मानी जाती है, जब वह बाल-साहित्य के सृजन में स्थापित हो जाता है। कारण, बाल-साहित्य देश के कर्णधारों को तैयार करने वाला होता है, उनके अंदर संस्कार डालने वाला होता है। इस दृष्टि से स्वयं को धन्य मानता हूँ, कि मैंने बाल-साहित्यकार के रूप में जितना भी सृजन किया, उसे समाज ने स्वीकार, हिंदीसेवी संस्थाओं और अन्य सुधी पाठकों से सराहा।

डॉ. राहुल मिश्र- आज की कविता पर आपके क्या विचार हैं? कविता की दिशा मूलतः किस ओर होनी चाहिए, या समाज कैसी कविताई की अपेक्षा रखता है?

डॉ. अजय प्रसून- आज की कविता के प्रति मेरे यही विचार है, कि जो भी लिखा जा रहा है वह समसामयिक परिस्थितियों व समस्याओं को समेटते हुए लिखा जा रहा है। इसमें समाज को दिशा देने, समस्याओं के निराकरण करने का पक्ष भी होना चाहिए। आज की कविता अनेक राजनीतिक व समाजिक-धार्मिक प्रपंचों व कुविचारों से आहत दिखती है। हमारा प्रयास तो यही रहा है और रहेगा कि आज की कविता इन कुचेष्टाओं से दूर रहकर शुद्ध कविता के ही रूप में सामने आए। यही आने वाले समय की कविता के लिए उचित होगा।


डॉ. राहुल मिश्र-
आपकी प्रिय कविता या गजल, की चार पंक्तियाँ बानगी के रूप में सुनकर कृतार्थ होना चाहेंगे।

डॉ. अजय प्रसून- मेरी प्रिय पंक्तियों के रूप में मेरा एक छंद प्रस्तुत है, जो बहुत पसंद किया जाता है, और जिसे आप मेरा ‘टाइटल सांग’ भी कह सकते हैं-

एक राह खोजिए हजार राहें पाइएगा, / लक्ष्य बिखरे पड़े हैं कितने स्वराज के।

जिंदगी को कर्म में ही लीन होने दीजिए तो, / द्वार खुल जाएँगे मुक्ति के जहाज के ।

टूटते हुए पलों की ओर मत देखिएगा, स्वप्न देखिएगा चेतना के स्वर साज के ।

एक बीज धरती की कोख में दबाइए तो, लाख-लाख बीज होंगे सामने समाज के ।।

डॉ. राहुल मिश्र- लंबी वार्ता को विराम देने से पहले आप आज के नवोदित कवियों-कवयित्रियों को क्या संदेश देना चाहेंगे? विशेष रूप से आपके द्वारा प्रारंभ किए गए पुरस्कारों के संदर्भ के साथ...।

डॉ. अजय प्रसून- आज के नवोदित कवि और कवयित्रियों के लिए मुझे यही कहना है, कि हम जो भी लिखें, उसे महज वाहवाही पाने के लिए ना लिखें। ऐसा साहित्य, ऐसा काव्य सृजित करें, जो मानव और मानवता के लिए हो, जो कि पीड़ितों और दुःखी लोगों की वेदना व कष्ट को दूर कर सके। हम समाज को सकारात्मक मार्ग प्रदर्शित करने के लिए सृजन करें। यही अनागत कविता आंदोलन की जिजीविषा है। इसके साथ ही सृजन कठिन वर्तमान को जीते हुए स्वर्णिम भविष्य की कल्पना को साकार रूप प्रदान करने वाला हो। आज की पीढ़ी के लिए इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मेरी संस्था अखिल भारतीय अनागत साहित्य संस्थान द्वारा कवियों के लिए ‘अनागत मार्तंड’ एवं कवयित्रियों के लिए ‘अनागत चंद्रिका सम्मान’ प्रतिमाह प्रदान किया जाता है। वार्षिक सम्मानों में ‘अनागत कविता भारती सम्मान’ एवं ‘अनागत पितृ-स्मृति सम्मान’ हैं।

डॉ. राहुल मिश्र- आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार। आपने अपनी व्यस्ततता के बीच से यह समय निकाला, साहित्य और कविता पर अनेक रुचिकर व महत्त्वपूर्ण बातें आपसे जानने को मिलीं। पुनः आपके प्रति आभार और कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। सादर प्रणाम।

डॉ. अजय प्रसून- आपका भी धन्यवाद और आभार।


Wednesday, 19 March 2025

प्रात लेइ जो नाम हमारा....

 

प्रात लेइ जो नाम हमारा....

श्रीरामचरितमानस के सुंदर कांड में अत्यंत रुचिकर प्रसंग आता है। प्रसंग माता सीता का पता लगाने के लिए हनुमान जी को लंका भेजने का है। हनुमान अपने बल को भूले हुए बैठे हैं। जामवंत के याद दिलाने पर उन्हें अपनी शक्ति का अनुभव होता है। वे तुरंत लंका के लिए प्रस्थान करते हैं। मार्ग में अनेक बाधाएँ और संकट आए, जिनको पार करके भक्तप्रवर हनुमान लंका पहुँचते हैं। लंका राक्षसों की नगरी है। वहाँ भले लोग कैसे मिलेंगे? एक अजनबी की भाँति हनुमान लंका में प्रवेश करते हैं। स्थान-स्थान पर बाधाएँ हैं, पहरे हैं, राक्षसों की क्रूरता के चिह्न हैं....। ऐसे विकट-भयावह स्थान पर माता सीता कैसे जीवन बिता रहीं हैं...., यह चिंता भी हनुमान को होती है।

सुख और समृद्धि भले ही एक-दूसरे के साथ जोड़कर व्यवहृत हों, लेकिन समृद्धि होने से सुख सुनिश्चित नहीं हो जाता। लंका नगरी में संपन्नता की कोई कमी नहीं है। हनुमान जी पूरी लंका नगरी का भ्रमण करते हैं। बाबा तुलसी ने बहुत संक्षेप में वर्णन किया है, लेकिन आद्यकवि वाल्मीकि ने रामायण में लंका का विशद-व्यापक वर्णन किया है। लंका नगरी की समृद्धि का वर्णन वाल्मीकि रामायण में मिलता है। वहाँ समृद्धि के अनेक प्रतिमान हैं, लेकिन सुख की अनुभूति नहीं मिलती.... उल्लास, उमंग, हर्ष, आत्मिक शांति और जीवंतता नहीं दिखती। आद्यकवि वाल्मीकि ने संपन्नता का वर्णन करते हुए इस पक्ष को विशेष रूप से इंगित किया है। गोस्वामी जी केवल संकेत देते हुए आगे बढ़ जाते हैं, और हनुमान-विभीषण संवाद का विस्तृत वर्णन करते हैं। उनकी दृष्टि सत्संग के वैशिष्ट्य को स्थापित करने में केंद्रित होती है। गोस्वामी जी हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद के माध्यम से सद्भावना, सहकार, समन्वय और समरसता को उकेरते हैं। गोस्वामी जी मानस में वर्णन करते हैं, कि लंका नगरी में भ्रमण करते हुए हनुमान को कहीं भी भले लोग नहीं दिखते। एक घर ऐसा दिखाई दे जाता है, जो हनुमान जी की धारण को बदल देता है। उस घर के बाहर रामायुध अंकित है,और तुलसी का चौरा भी है। यह देखकर हनुमान जी को भरोसा हो जाता है, कि यहाँ संत-सज्जन व्यक्ति का निवास है। वे पुकारते हैं। विभीषण भी उनके राम-नाम स्मरण को सुनकर हर्षित होते हैं। दोनों रामभक्त बैठते हैं।


हनुमान और विभीषण का संवाद वाल्मीकि रामायण में नहीं है... अध्यात्म रामायण में भी नहीं है।
गोस्वामी जी सायास इस प्रसंग को लाते हैं। उनका उद्देश्य भक्ति-भावना की पुष्टि का तो है ही, साथ ही वे सामयिक संदर्भों की ओर भी संकेत करते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद अत्यंत रुचिकर है। राम के दो अनन्य भक्त मिलते हैं। विभीषण अपने मन की वेदना कहते हैं। हनुमान उन्हें सांत्वना देते हैं-

कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबही बिधि हीना ।।

 प्रात  लेइ  जो नाम  हमारा ।  तेहि दिन  ताहि न मिलै अहारा ।।

अस मैं अधम सखा सुनु मोहूँ पर रघुबीर ।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।

मैं कौन-सा बहुत कुलीन व्यक्ति हूँ...। आप ही बताइए...। मैं तो चंचल कपि हूँ, और सभी स्तरों से हीन हूँ, तुच्छ हूँ। मैं मानव नहीं हूँ, मैं गुणवान भी नहीं हूँ। मेरी चंचलता ऐसी है, कि जिसके लिए मुझे श्राप तक दिया जा चुका है...। मैं अधम हूँ, हेय हूँ। मेरा नाम तक लेने से लोग कतराते हैं। अगर कोई सुबह मेरा नाम ले लेता है, तो उसे उस दिन भोजन तक नहीं मिलता...। ऐसे अधम और हीन वानर पर भी श्रीराम की कृपा है। श्रीराम की कृपा का स्मरण कर हनुमान के नयन भावविभोर होकर अश्रु-प्लावित हो जाते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य का संवाद दो संतों के मध्य हो रही चर्चा के जैसा प्रतीत होता है, सत्संग का रूप ले लेता है। विभीषण कह रहे हैं-

क्या मुझ अनाथ निशचर के भी- रघुनाथ बनेंगे नाथ कभी ।

क्या मुझसे अधम दास को भी रक्खेंगे राघव साथ कभी ।।

विभीषण की वेदना वानरश्रेष्ठ हनुमान के सम्मुख प्रकट होती है। विभीषण कहते हैं, कि मैं तो लंका नगरी में वैसे ही रह रहा हूँ, जैसे दाँतों के मध्य जीभ होती है। राधेश्याम कथावाचक इस वार्ता को रुचिकर बनाते हैं। राधेश्याम रामायण में संवाद चलता है-

कपि बोले मुँह की बत्तीसी सब टूट फूट गिर जाएगी ।

पर, जिह्वा-जीवनभर रहकर-श्रीराम-नाम गुण गाएगी ।।

भक्त विभीषण, धन्य तुम, धन्य तुम्हारा प्रेम !

धन्य तुम्हारी धारणा, धन्य तुम्हारा नेम !!

जो सज्जन हैं, सत्संगी है, वे कहीं छिपाए छिपते हैं?

एक ही पन्थ के दो पन्थी-इस प्रकार देखो मिलते हैं ।।

विभीषण और हनुमान भ्रातृ-प्रेम में आबद्ध हो जाते हैं। राम का नाम दोनों के मध्य संबंधों को स्थापित करने का माध्यम बनता है। कबीर का एक बहुत प्रसिद्ध पद है-

कबीर हरदी पीयरी, चूना उज्जल भाइ ।

राम सनेही यूँ मिले दून्यू बरन गँवाइ ।।

संबंधों में मर्यादा ही तो राम-सनेह है, भगवान श्रीराम मर्यादा के प्रतीक हैं। कर्म की मर्यादा, धर्म की मर्यादा, नीति-नैतिकता के पालन की मर्यादा ही तो राम से व्याख्यायित होती है। संबंधों की मर्यादा टूटने पर ही विभीषण अपने घर में तिरस्कृत हैं। लंका नगरी की समृद्धि अमर्यादित कार्य-व्यवहारों के कारण ही अपनी आभा खो बैठी है। भौतिक संपन्नता एक ऐसे खोखलेपन के साथ लंका नगरी में देखी जा सकती है, जहाँ उद्दंडता है, उच्छृंखलता है, मनमानी है, मनमौजीपन है। यह रामकथा के अंत में विशेष रूप से प्रकट होती है। रावण के वध के उपरांत मंदोदरी विलाप करती है-

राम विमुख अस हाल तुम्हारा । रहा न कोउ कुल रोवनहारा ।।

गोस्वामी तुलसीदास यदि चाहते, तो हनुमान और विभीषण की भेंट का सामान्य और प्रसंगानुकूल वर्णन करके कथा को आगे बढ़ा देते, लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं। उनके सामने हनुमान और विभीषण की भेंट का प्रसंग कथा के अंतर्गत आने वाले मात्र एक पड़ाव की भाँति नहीं है। बाबा तुलसी की दृष्टि दूर तक जाती है। गोस्वामी जी रामायण काल तक ही नहीं रहते, वे वर्तमान से भी जुड़ते हैं। रामकथा को सामयिक बनाते हैं। गोस्वामी जी का समय अनेक संघर्षों से भरा हुआ था। समूचा भक्ति आंदोलन ही जन-जन को चैतन्य बनाने के लिए था, क्रूर आक्रांताओं से आहत भारतीय जनसमुदाय के पथ-प्रदर्शक की भूमिका में था। गोस्वामी जी की दृष्टि भी यही थी। उन्हें समग्र भारतीय समाज को, सनातन परंपरा के सभी घटकों-अंगों को संगठित करना था, जोड़ना था। इसी कारण वे श्रीराम के ’सर्वभूत हिते रतः’ के भाव को प्रमुख रूप से प्रस्तुत करते हैं। श्रीराम सभी के हित में संलग्न हैं, ऐसा इस प्रसंग में ध्वनित होता है। वस्तुतः सुंदरकांड इसी कारण सुंदर कांड है, क्योंकि इसमें अनेक लोगों की संघटना है, कई लोगों का जुड़ाव है। यहाँ जाति-प्रजाति का, उत्तर-दक्षिण का, नर-वानर का भेद नहीं है। यहाँ सभी एक होते हैं, जुटते हैं... और राम काज के लिए जुटते हैं। जिसके पास जो कुछ भी है, उसको लेकर वो जुटता है, अपना योगदान देता है।

गोस्वामी तुलसीदास जब हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद को प्रस्तुत करते हैं, तो उनकी दृष्टि इस जुड़ाव की ओर होती है। विभीषण को लगता है, कि वो कैसे जुड़ पाएँगे। वे तो बहुत दूर पड़े हुए हैं। उनके साथ रावण का नाम जुड़ा हुआ है। क्रूर-आततायी रावण का भाई विभीषण राम का प्रिय कैसे हो सकता है? रावण ने सीता का हरण किया है। सीता लंका में बंदी हैं, और विभीषण लंकेश के भाई....। राम तो कभी भी विभीषण को स्वीकार नहीं करेंगे। विभीषण भले ही स्वयं में सही हैं, सीधे-सच्चे हैं। रावण से उनका सैद्धांतिक मतभेद है। वे रावण की नीतियों के विरुद्ध हैं। इसी कारण लंका में उपेक्षित और तिरस्कृत जीवन जी रहे हैं, लेकिन रावण के साथ संबंध विख्यात है। संगति का असर है, जो विभीषण को भी राक्षसों की श्रेणी में रखता है।

हनुमान भी शापित हैं। बचपन में उन्हें श्राप मिला था, कि वे अपने बल को भूल जाएँगे। उनकी बाल सुलभ चंचलता थी, कि उन्होंने सूर्य को अपना ग्रास बना लिया था। साधु-संन्यासियों के आश्रमों में वे खूब उछल-कूद मचाते थे, जिससे साधनारत संन्यासियों का ध्यानभंग होता था। फलतः उन्हें श्राप मिला, कि वे बल को भूल जाएँगे और यदि कोई उन्हें स्मरण कराएगा, तभी वे अपने बल को जानेंगे, और बल का प्रयोग कर सकेंगे। इसे श्राप कहें, या व्यवहार को संयमित करने की सीख...। इसके बाद हनुमान जी का व्यवहार एकदम बदल गया। वे संत प्रवृत्ति के हो गए। सुंदरकांड में जब जामवंत ने उन्हें बल का स्मरण कराया, तो वे अपनी सामर्थ्य को जानकर प्रसन्न हुए और राम-काज में अपनी शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग करने हेतु प्रस्तुत हुए। हनुमान जी के बल का वर्णन प्रायः सभी रामकथाओं में मिलता है। तमिल में हनुमान का एक नाम ‘तिरुवड़ि’ है। तिरुवड़ि, अर्थात् विष्णुपाद....। कंब रामायण में प्रसंग आता है, कि समुद्र पार करने के लिए हनुमान ने विराट रूप धारण किया। जिस तरह धरती को नाप लेने के लिए भगवान विष्णु के वामन अवतार ने अपना लंबा डग रखा था, वैसे ही यहाँ हनुमान ने रखा है। इसी कारण हनुमान तिरुवड़ि हैं, विष्णुपाद हैं।

कंब रामायण की स्थापना के अनुसार हनुमान विष्णु के स्वरूप हैं। उन्हें शिव का अवतार भी माना जाता है। वैष्णव सी भक्ति और शैव सी शक्ति का समन्वित रूप हनुमान का है। लंका नगरी में विभीषण के साथ सत्संग में वैष्णव और लंका के ध्वंस में शिव के अवतार हनुमान....। विभीषण के साथ संवाद में हनुमान राम के अनन्य भक्त और वैष्णव संत के सदृश प्रतीत होते हैं। वे विभीषण को अपनी ओर से आश्वासन देते हैं, कि राम उन्हें अवश्य स्वीकार करेंगे। राम और रामादल के मध्य संबंधों की निकटता इतनी है, कि हनुमान को आश्वासन देने के लिए राम की अनुमति आवश्यकता नहीं होती। राम सभी के लिए सहज हैं, सुलभ हैं।

गोस्वामी तुलसीदास हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद के माध्यम से संगठन की शक्ति को व्याख्यायित करते हैं। श्रीराम किसी से किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करते। हनुमान जैसे शापित और मानवेतर जीव भी राम के लिए प्रिय हैं, अनन्य हैं। और इतने निकट हैं, कि हनुमान बेधड़क राम की ओर से विभीषण को आश्वासन दे रहे हैं। राम की संगठन-शक्ति सभी को लेकर बनती है। वहाँ कोई भेदभाव नहीं है। सभी समान हैं, सभी के लिए अधिकार भी समान हैं।

गोस्वामी जी का सम-काल अनेक विषमताओं से भरा था। विशेष रूप से म्लेच्छ आक्रांताओं के समक्ष भारतीय समाज अनेक वर्गों उपवर्गों में बँटा हुआ था। इस कारण भारतीय समाज दिशाहीन होकर, असंगित रहकर क्रूर आक्रांताओं के आघातों को झेल रहा था, क्षत-विक्षत हो रहा था। ऐसी विषम स्थिति में सभी को संगठित करने की आवश्यकता थी। मत-पंथ के नाम पर, जाति-उपजाति के नाम पर भेदभाव के खतरे गोस्वामी जी के सामने स्पष्ट थे। इस कारण वे सभी विभेदों को दूर करके एक होने की बात कहते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद को इसका एक अंग कह सकते हैं। प्रायः गोस्वामी जी पर वर्ण-भेद के आक्षेप लगाए जाते रहे हैं। यह प्रसंग इन आक्षेपों का भी खुलकर उत्तर देता है। भक्तकवि तुलसीदास के आराध्य राम समाज के सभी वर्गों के हैं। राम के सम्मुख कोई भेद नहीं है। श्रीरामचरितमानस की पूरी कथा में स्थान-स्थान पर ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं। सुंदरकांड विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ रामादल की संगठन-शक्ति प्रकट होती है। जामवंत, सुग्रीव, नल, नील, अंगद आदि सभी स्वतः स्फूर्त ऊर्जा से रामकाज में संल्गन होते हैं। क्रूरकर्मा, आततायी रावण पर विजय पाने के लिए सभी अपनी-अपनी सामर्थ्य-भर योगदान देते हैं। विभीषण भी रामादल में आ जाते हैं। जब गोस्वामी जी के आराध्य किसी से भेद नहीं करते, तो गोस्वामी जी कैसे वर्ण-भेद कर सकते हैं?

भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास के आराध्य श्रीराम सभी को साथ लेकर चलते हैं। गोस्वामी जी इस वैशिष्ट्य को न केवल उभारते हैं, वरन् अपने समकाल में पनपती विकृतियों विषमताओं के मध्य संदेश देते हैं, संगठित होने का, समन्वय और सहकार के भाव को साथ लेकर धर्मार्थ कार्य के लिए संलग्न होने का, बिना विलंब किए हुए विकृति-कुसंगति को त्यागकर धर्मोन्मुख होने का, और नीति-नैतिकता के मार्ग पर चलने का।

-राहुल मिश्र

(त्रैमासिक साहित्य परिक्रमा के आश्विन-मार्गशीष, युगाब्द 5126 तदनुसार अक्टूबर-दिसंबर, 2024, वर्ष- 25, अंक- 02 में प्रकाशित)





Thursday, 1 August 2024

अवध राजु सुर राजु सिहाई...

 

अवध राजु सुर राजु सिहाई...

अवध  राजु सुर राजु सिहाई । दसरथ  धनु सुनि  धनदु लजाई ।

तेंहि पुर बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।

श्रीरामचरितमानस में प्रसंग आता है...। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को जा चुके हैं। भरत नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं। श्रीराम की चरण पादुकाएँ सिंहासन पर रखकर अयोध्या के राजपाट को चला रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास इस प्रसंग पर बल देते हैं। वे भरत के राज की विशेष रूप से व्याख्या करते हैं। बाबा तुलसी की भरत के प्रति अगाध निष्ठा है। वे कहते हैं, कि जिस अयोध्या के राज्य को देखकर देवराज इंद्र ललचाते थे, जिन राजा दशरथ की संपत्ति को सुनकर कुबेर लज्जित होते थे, उसी अयोध्या के राज्य और राजा दशरथ की असीमित संपत्ति की आसक्ति से मुक्त रहकर भरत उसी प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चंपक के वन में भौंरा रहता है। यहाँ त्याग का अप्रतिम उदाहरण देखते ही बनता है। माता कैकेयी ने मंथरा के कहने पर अपने पुत्र-मोह को उस चरम बिंदु तक पहुँचा दिया था, जहाँ से बिखराव प्रारंभ हो जाता है। विघटन का क्रम चल पड़ता है। राजा दशरथ ने अपने पौरुष से जिस अयोध्या को कुबेर की संपदा से भी अधिक संपन्न बनाया था, वह अयोध्या राम के लिए भी त्याज्य हो गई, और भरत के लिए भी....। चाहे राम हों या भरत, अयोध्या का राजपाट और अकूत संपदा का लोभ-लालच या उसे पाने की लालसा दोनों में से किसी को भी नहीं है। दोनों के बीच का प्रेम-स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि धन-संपदा उसे जरा-सा भी प्रभावित नहीं कर पाती है।

जब राम को वनवास जाने के लिए कहा जाता है, तब राम के मन में तनिक भी यह भाव नहीं आता, कि मैं अयोध्या का भावी राजा हूँ। वे हर्षित होते हैं। कारण यहाँ भी स्पष्ट है, इंद्र के मन में भी लालच पैदा कर देने वाली अयोध्या राम के लिए पिता की आज्ञा से बड़ी नहीं है। पिता की आज्ञा का पालन उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। गोस्वामी जी लिखते हैं-

नव  गयंदु  रघुबीर   मनु   राजु   अलान  समान ।

छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ।।

नये पकडे गए हाथी के समान राम का मन है और राज्य गज को बाँधने वाली बेड़ियों के समान है। राम को जब पता चलता है कि उन्हें वनगमन करना है और वे राज्य-संचालन करने की बेड़ियों से मुक्त हो गए हैं, तब उनके हृदय में आनंद का आधिक्य हो जाता है। बाबा तुलसी ने राम के इस मनोभाव का सुंदर चित्रण करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि राम को राज्य-लिप्सा नहीं है। भरत और राम के मध्य अयोध्या का राजपाट कंदुक-सम खेला जा रहा है।

आधुनिकताबोध यह सिद्ध करता है, कि कैकेयी के मन में भी कोई खोट नहीं था। कैकेयी राज्य-संचालन में अत्यंत निपुण थी। कैकेयी को दो वरदान ही युद्ध के मैदान में मिले थे, राजा दशरथ से....। देवासुर संग्राम में इंद्र की दशा बहुत खराब हो गई थी। इंद्र ने राजा दशरथ को सहायता के लिए बुलाया। रानी कैकेयी भी राजा दशरथ के साथ चल पड़ीं, सारथी बनकर....। दुर्योगवश राजा दशरथ के रथ की कील निकल गई और युद्धक्षेत्र में राजा दशरथ के लिए जीवन का संकट आ गया। रानी कैकेयी ने तुरंत अपनी उंगली कील के स्थान पर लगाई। राजा दशरथ को जीवनदान मिला और उन्होंने प्रसन्न होकर कैकेयी को दो वरदान माँगने को कहा। कैकेयी ने यही वरदान माँगे थे। भरत को राजपाट और राम को वनवास....। राम ने पहले भी वन की यात्रा की थी, गुरु विश्वामित्र के साथ और अनेक राक्षसों को मारकर वन प्रांतरों को, वहाँ साधना में लीन ऋषि-मुनियों को भयमुक्त किया था।

पिछली बार गुरु विश्वामित्र हठ करके राजा दशरथ से माँगकर राम और लक्ष्मण को ले गए थे, राजा दशरथ इसके लिए सहमत नहीं थे, लेकिन विवशता थी....। दूसरी बार कैकेयी के सामने राजा दशरथ विवश हो गए...। राम के लिए दोनों बार आज्ञा-पालन का ध्येय था। राम के मन में कोई क्लेश पैदा नहीं होता। वे इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। इसी कारण राम की नाराजगी कहीं पर भी माता कैकेयी के प्रति प्रकट नहीं होती है। इतना ही नहीं; राम वनवास के प्रसंग में, जब चित्रकूट में राम से भेंट करने के लिए तीनों माताएँ आती हैं, तब राम सबसे पहले माता कैकेयी से भेंट करते हैं। बाबा तुलसी इस प्रसंग का उल्लेख करते हैं, और माता कैकेयी से राम की भेंट को विशेष रूप से उद्धृत करते हैं। कैकेयी के प्रति राम के मन में कोई विद्वेष नहीं है। राम तो भरत को भी डाँट देते हैं, जब वे माता कैकेयी को भला-बुरा करते हैं।

आज के समय में....., आधुनिकता के मानदंड में देखने पर माता कैकेयी का व्यक्तित्व अलग दिखाई देता है। वे अयोध्या के राजपाट के प्रति समर्पित दिखती हैं, क्योंकि राम को वन भेजना भरत को राजपाट दिलाने-मात्र के लिए नहीं था, वरन् राक्षसों के संहार के लिए भी था। राम इसके लिए उपयुक्त थे... गुरु विश्वामित्र के साथ जाकर उन्होंने इस बात को प्रमाणित किया था। गोस्वामी जी माता कैकेयी के लिए राम की श्रद्धा को, उनके निःछल प्रेम को उभारते हैं। राम भरत को सीख देते हैं, कि गुरु, पिता, माता या स्वामी... इनकी सीख आँख बंद करके माननी चाहिए। भले ही ऐसा लगे, कि इनके द्वारा गलत कहा जा रहा है, हम गलत राह पर जा रहे हैं, लेकिन हमारा पग खाले नहीं पड़ता, हमारा काम गलत नहीं होता और भविष्य में परिणाम भी सही आते हैं, अच्छे आते हैं। तात्कालिक रूप से अनुचित लगने पर भी ये निर्देश दीर्घकाल में सही सिद्ध होते हैं। राम कहते हैं, कि ऐसा विचार करते हुए, आज्ञा का पालन करते हुए जाओ और अवधि भर के लिए अयोध्या का पालन करो-

गुरु पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ।।

अस बिचारि  सब सोच  बिहाई ।  पालहु अवध  अवधि भर जाई ।।

एक अन्य वार्तालाप को देखें....। यह भी चित्रकूट में चल रहा है। श्रीराम को अयोध्या वापस ले आने के लिए पूरी अयोध्या नगरी ही गई है। तीनों माताएँ भी हैं। लक्ष्मण की माता सुमित्रा, सीता की माता सुनयना और राम की माता कौशल्या के मध्य वार्तालाप चल रहा है। अत्यंत आर्त स्वर में... रूँधे गले से माता कौशल्या  कह रहीं हैं, कि राम, लक्ष्मण और सीता वन को जाएँ, इसका परिणाम भला है, निकृष्ट नहीं है; किंतु मुझे चिंता भरत के जीवन की है। यहाँ माता कौशल्या के हृदय की वेदना भ्रातृ-प्रेम को बड़ी सहजता से प्रकट कर देती है-

लखनु राम सिय  जाहँ बन भल  परिनाम न  पोचु ।

गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ।।4

माता सुमित्रा ने वन जाते समय लक्ष्मण को सीख दी थी- गुरु, पिता, माता, बंधु, देवता और स्वामी की प्राणों की भाँति सेवा करनी चाहिए। इस कारण सभी के मित्र और स्वार्थहीन व्यक्तित्व वाले श्रीराम के साथ वन को जाकर संसार में जन्म लेने के लाभ को अर्जित करो, अर्थात् अपने कर्मों से जीवन की सार्थकता को सिद्ध करो। भ्राता लक्ष्मण ने माता की सीख को आत्मसात किया, और पूरी निष्ठा के साथ इसका पालन भी किया।

अयोध्या का राजपाट राम के वनगमन के केंद्र में है। सामान्य रूप से तो ऐसा ही प्रतीत होता है, लेकिन गहरे उतरकर विचार करें, तो यह वनगमन प्रसंग परिवार की एकजुटता को भी प्रस्तुत कर देता है। धन-धान्य, समृद्धि, यश, वैभव आदि की लालसा कहीं रह ही नहीं जाती है। लोभ किसी को छू नहीं पाता है। राम को आदेश मिलता है, वन जाने का.... और वे सहर्ष चल देते हैं। भरत को पता चलता है, कि उनके लिए राम को अयोध्या से जाना पड़ा है, तो वे भी अयोध्या को त्याग ही देते हैं... नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहने लगते हैं। परिवार किसी भी दशा में टूटता नहीं है, छूटता नहीं है। भरत जी राम को वापस ले आने के लिए चित्रकूट तक जाते हैं। राम चौदह वर्षो के बाद ही अयोध्या लौटने की बात कहते हैं। लेकिन चित्रकूट में केवल इतना ही नहीं होता... वहाँ रामराज्य की संकल्पना रची जाती है। राजा को कैसा होना चाहिए, शासक के धर्म क्या होते हैं, परिवार से लगाकर समाज और देश-काल में मर्यादाओं की स्थापना, उनका पालन कैसे हो.... इस बात को विस्तार के साथ कहा और सुना जाता है। भरत जी के साथ गई लगभग पूरी ही अयोध्या नगरी पाँच दिनों तक चित्रकूट में अपना डेरा-पड़ाव डाले रहती है। इन पाँच दिनों में अनवरत चलने पाली चर्चाएँ, उपदेश, वार्ताएँ आदि सभी बड़ी महत्त्व की हैं। नीति-नैतिकता के व्यवहार पक्ष हेतु अनेक उपयोगी बातें सामने आती हैं। गोस्वामी जी विस्तार के साथ चित्रकूट प्रसंग को प्रस्तुत करते हैं।

व्यक्ति से ऊपर परिवार है, परिवार से ऊपर समाज है, और समाज से ऊपर राज्य है-राष्ट्र है....। अयोध्या में राम के वनगमन से लगाकर चित्रकूट तक... भरत के राजपाट सँभालने तक, और फिर राम के अयोध्या लौटने तक पूरी कथा के विस्तार में यह तथ्य परिलक्षित होता है, दिखाई पड़ता है। इसके लिए संबंधों की मर्यादाएँ निभाई जाती हैं, संबंधों की गुरुता को-गरिमा को अनुभूत किया जाता है, सम्मान दिया जाता है।

श्रीरामचरितमानस का रचनाकाल भी बहुत महत्त्व रखता है। सामयिक स्थितियों से गोस्वामी जी परिचित थे। वह समय ऐसा था, कि म्लेच्छ आक्रांताओं ने अपनी स्वार्थ लिप्साओं के अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर दिए थे। भाई से भाई का वैर, पिता से पुत्र की दुश्मनी के अनेक किस्से सामने आ रहे थे। धन के लिए... सत्ता के लिए परिवार की मर्यादाएँ टूट रहीं थीं। भारतीय समाज के लिए ये स्थितियाँ भयावह थीं। लोग विवश होकर संत समाज की ओर देख रहे थे, कि उनका पथ-प्रदर्शन हो सके, वे सही राह को जान सकें। ऐसी विषमताओं के मध्य गोस्वामी जी ने परिवार की मर्यादाओं से लगाकर समाज व राष्ट्र-राज्य तक की मर्यादाओं की स्थापना की बात कही। विश्व के कल्याण का संदेश दिया। गोस्वामी जी के राम इसका माध्यम बने... अयोध्या का पूरा राज-परिवार ही उदाहरण बन गया। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम मर्यादा के प्रतीक ही बन गए। राम का अर्थ ही मर्यादा हो गया। उसी रूप में श्रीराम को अन्य संतों ने स्वीकारा। कबीर ने भी स्वीकार किया- कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाई । राम सनेही यूँ मिले दून्यू बरन गँवाई ।।

सामाजिक मूल्यों का प्रशिक्षण परिवार में ही सबसे पहले मिलता है। स्नेह-प्रेम, सेवा, सद्भाव, सहिष्णुता और समरसता आदि की सीख सबसे पहले परिवार में मिलती है। यदि परिवार ही बिखर जाए, तो समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व तक मानवीय मूल्यों, नीति-नौतिकताओं, मर्यादा-आदर्शों आदि के विस्तार को सबल करने वाली, पोष्ण करने वाली व्यवस्था ही सिमट जाएगी.... जड़ ही सूख जाएगी। इस कारण परिवार का महत्त्व है। दैवीय पक्ष को हटाकर यदि विचार करें, तो श्रीरामचरितमानस में परिवार की संरचना केंद्र में दिखाई देती है। यह परिवार क्रमशः विस्तार पाता है। अयोध्या से राम का वनगमन एक घटना-मात्र नहीं रह जाती, वरन् समूची अयोध्या को एक सूत्र में बाँध देने का कारण बन जाती है। भरत जी के नेतृत्व में अयोध्या का विशाल जनसमूह आत्मप्रेरित होकर चल पड़ता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को पुनः अयोध्या लाने के लिए। यह यात्रा प्रकारांतर से मर्यादा की सामाजिक स्थापना के हेतु प्रती होती है। श्रीराम भले ही अयोध्या न लौटे हों, लेकिन जिन सीख-सिखावनों को, उपदेशों के सार को लेकर अयोध्या का जनसमुदाय लौटा था, उनके सहारे ही रामराज्य की संकल्पना धरातल पर उतरी थी।

व्यक्ति और समाज के मध्य संबंधों को समरसता और सह-अस्तित्व की भूमि पर स्थापित करने का प्रयोग भी मानस में दिखता है। श्रीराम चित्रकूट में रहते हुए उस विशाल समाज को अपने साथ मिला लेते हैं, जो उपेक्षित और तिरस्कृत रहा। व्यक्ति से परिवार और समाज तक विस्तार का यह क्रम राम के चित्रकूट निवास के साथ विस्तार पाता है, दक्षिण की ओर बढ़ते हुए भी इस विस्तार को हम देखते हैं। वनवासी, गिरिजन, बालक, महिलाएँ, वृद्ध और यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी रामादल के साथ हो जाते हैं। एक सूत्र में बँध जाते हैं। जटायु की कथा और गिलहरी के प्रयास रामकथा के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, अंश हैं।

यह विस्तार लोक के कल्याण से जुड़ता है। जिस परिवार में भाई का सम्मान न हो, पत्नी की बात न सुनी जाए... अनैतिकता से भरा आचरण हो, उस परिवार की दशा का अनुमान लंकाधिपति की दारुण दशा देखकर लगा सकते हैं। मंदोदरी रावण की मृत्यु पर विलाप करते हुए कहती हैं-

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई । सुत परिजन बल बरनि न जाई ।।

राम विमुख अस हाल तुम्हारा ।  रहा न  कोउ कुल रोवनिहारा ।।

रावण की प्रभुता सारे संसार को भली-भाँति पता है। संसार रावण के बल को जानता है। पुत्रों और परिजनों के बल का वर्णन नहीं किया जा सकता, लेकिन राम से विमुख होने के कारण रावण के कुल में कोई रोने वाला तक नहीं बचता है। जब मर्यादा टूटती है, तब सर्वनाश ही होता है। रावण के साथ भी यही हुआ। भाई की सीख भी रावण को अच्छी नहीं लगी, अपमानित करके राज्य से निकाल दिया।

अपने लौकिक, सामाजिक, मानवीय और व्यावहारिक संदर्भों में बाबा तुलसी के मानस की यही विशिष्टता है कि वहाँ एक आदर्श परिवार की बात विविध कथा-प्रसंगों के माध्यम से कही जाती है। रामराज्य की परिकल्पना एक आदर्श परिवार से ही निकलती है। लोकमंगल की साधना भी यहीं से अपनी जड़ों को रोपती है। मानस के ऐसे कथा-प्रसंगों से गुजरते हुए कई बार ऐसा अनुभूत होता है कि भविष्यदृष्टा के रूप में बाबा तुलसी ने आज की विषम-जटिल परिस्थितियों को जान लिया था। इसी कारण उत्तरकांड में बाबा तुलसी कागभुशुंडि के पूर्वजन्म की कथा का प्रसंग उठाते हुए कलियुग का वर्णन करते हैं। आज के जीवन की तमाम स्थितियाँ प्रतीक के रूप में, लक्षणों के रूप में कलियुग के वर्णन द्वारा इस प्रकार प्रकट होती हैं, जिन्हें पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा तुलसी ने उस समय ही आज के जीवन को देख लिया था, जान लिया था। वे कलियुग प्रसंग में लिखते हैं-

सब  नर  काम  लोभ  रत  क्रोधी । देव  बिप्र  श्रुति  संत  बिरोधी ।।

गुन  मंदिर  सुंदर  पति   त्यागी । भजहिं  नारि  पर  पुरुष  अभागी ।।

सौभागिनी    बिभूषन    हीना । विधवन्ह    के    सिंगार   नवीना ।।

गुरु सिष  बधिर  अंध का लेखा । एक   सुनइ  एक  नहिं  देखा ।।

हरहिं  सिष्य   धन  सोक  न हरइ । सो  गुरु  घोर  नरक  महुँ  परइ ।।

मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं । उदर भरै सोइ धरम सिखावहिं ।।14

आज का समय उन्हीं लक्षणों से भरा हुआ है, जिनका वर्णन बाबा तुलसी ने उपरोक्त पंक्तियों में किया है। वैश्वीकरण के प्रभाव के रूप में इन्हें देखा जा सकता है। व्यक्ति से लेकर परिवार और फिर समाज तक मर्यादा के पतन की गंभीर स्थितियाँ किसी से छिपी हुई नहीं हैं। शिक्षा-व्यवस्था भी मर्यादा से च्युत होकर दिग्भ्रमित हो गई है। इसी के प्रभाव से आज माता-पिता अपने बच्चों को सदाचारी बनने की सीख देने से ज्यादा प्राथमिकता उस सीख को देते हैं, जिससे वे अपना उदर भर सकें, धन कमा सकें। ऐसी अनेक स्थितियों का वर्णन तुलसीदास ने किया है। यहाँ भी तुलसीदास परिवार को ही केंद्र में रखते हैं।

श्रीरामचरितमानस में औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण और आर्थिक उदरीकरण के कारण उपजने वाले दुष्प्रभावों का शमन करने की सामर्थ्य है, किंतु यह व्यवहार से, दैनंदिन जीवन से दूर होते जाने के कारण अपनी प्रासंगिकता और अनिवार्यता का बोध कराने में विफल हो गई है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत घर की सीमाओं से बाहर ही होती है। उदारीकरण अर्थ के क्षेत्र में जितना हुआ; उसने मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं और नैतिकताओं के संदर्भ में अन-उदारीकृत होना स्वीकार किया। यह स्वीकृति सहज नहीं है, वरन् आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप अनिवार्य है। अन-उदारता का यह क्रम व्यवसाय और व्यावसायिक हितों को पूरा करते-करते एक समय घर की देहरी पर आ गया, दरवाजे पर ही आ गया.... और आज परिवार तक पैठ चुका है। इसी कारण एक छत के नीचे रहते हुए परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने हितों को साधते और स्वार्थ से पूर्ण प्रतीत होते हैं। परिवारों के विघटन का सबसे बड़ा कारण यही है। यद्यपि विभिन्न संस्कृतियों के आगमन, आधुनिकता के प्रभाव और निरंतर गतिमान विकास के चक्र के फलस्वरूप स्थितियाँ पहले ही अच्छी नहीं थीं, किंतु वैश्वीकरण ने बहुत कुछ बदला है, बहुत तेजी से बदला है। इस अवधि में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ी है। विवाह-व्यवस्था की शुचिता प्रभावित हुई है और ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसी व्यवस्थाओं ने परिवाररूपी संस्था को तोड़कर रख दिया है। संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है और इतना ही नहीं, अब परिवार के स्थान पर व्यक्ति ही सबसे छोटी इकाई बनने लगा है। ये सारे बदलाव नीति-नैतिकताओं, मर्यादाओं और आदर्शों के तिरोहित हो जाने के कारण हुए हैं। आज वैश्वीकरण के कारण व्यक्ति जितना वैश्वीकृत हुआ है, उतना ही जटिल और संकुचित वृत्त में अपने परिवेश का होकर रह गया है। इसके कारण मनोविकृतियाँ भी बढ़ी हैं और अपराध-अन्याय भी बढ़े हैं।

विकास का यह क्रम अनवरत चलता रहेगा, किंतु जिन पारिवारिक मूल्यों, मर्यादाओं, आदर्शों, नैतिकताओं और उदात्त गुणों की कीमत पर विकास का क्रम संचालित हो रहा है, उनके सिमटने के बाद विकास के नाम पर क्या शेष बचेगा, यह आज का यक्ष प्रश्न है। इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास के मानस को ही रखा जा सकता है-

रघुबंसभूषन  चरित  यह  नर  कहहिं  सुनहिं जे गावहीं ।

कलिमल मनोमल धोइ बिनु स्रम रामधाम सिधावहीं ।।

-राहुल मिश्र

 

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के आषाढ़-श्रावण, सं. 2081 तदनुसार जुलाई, 2024 अंक में प्रकाशित)