अवध राजु
सुर राजु सिहाई...
अवध राजु सुर राजु सिहाई । दसरथ धनु सुनि
धनदु लजाई ।
तेंहि पुर
बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।
श्रीरामचरितमानस में
प्रसंग आता है...। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को जा चुके हैं। भरत नंदिग्राम में
पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं। श्रीराम की चरण पादुकाएँ सिंहासन पर रखकर अयोध्या के
राजपाट को चला रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास इस प्रसंग पर बल देते हैं। वे भरत के
राज की विशेष रूप से व्याख्या करते हैं। बाबा तुलसी की भरत के प्रति अगाध निष्ठा
है। वे कहते हैं, कि जिस
अयोध्या के राज्य को देखकर देवराज इंद्र ललचाते थे, जिन राजा दशरथ की संपत्ति को
सुनकर कुबेर लज्जित होते थे, उसी अयोध्या के राज्य और राजा दशरथ की असीमित संपत्ति
की आसक्ति से मुक्त रहकर भरत उसी प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चंपक के वन में
भौंरा रहता है। यहाँ त्याग का अप्रतिम उदाहरण देखते ही बनता है। माता कैकेयी ने
मंथरा के कहने पर अपने पुत्र-मोह को उस चरम बिंदु तक पहुँचा दिया था, जहाँ से
बिखराव प्रारंभ हो जाता है। विघटन का क्रम चल पड़ता है। राजा दशरथ ने अपने पौरुष
से जिस अयोध्या को कुबेर की संपदा से भी अधिक संपन्न बनाया था, वह अयोध्या राम के
लिए भी त्याज्य हो गई, और भरत के लिए भी....। चाहे राम हों या भरत, अयोध्या का
राजपाट और अकूत संपदा का लोभ-लालच या उसे पाने की लालसा दोनों में से किसी को भी
नहीं है। दोनों के बीच का प्रेम-स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि धन-संपदा उसे जरा-सा भी
प्रभावित नहीं कर पाती है।
जब राम को वनवास जाने के लिए कहा जाता है, तब
राम के मन में तनिक भी यह भाव नहीं आता, कि मैं अयोध्या का भावी राजा हूँ। वे
हर्षित होते हैं। कारण यहाँ भी स्पष्ट है, इंद्र के मन में भी लालच पैदा कर देने
वाली अयोध्या राम के लिए पिता की आज्ञा से बड़ी नहीं है। पिता की आज्ञा का पालन
उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। गोस्वामी जी लिखते हैं-
नव गयंदु
रघुबीर मनु राजु
अलान समान ।
छूट जानि
बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ।।
नये पकडे गए हाथी के समान राम का मन है और
राज्य गज को बाँधने वाली बेड़ियों के समान है। राम को जब पता चलता है कि उन्हें
वनगमन करना है और वे राज्य-संचालन करने की बेड़ियों से मुक्त हो गए हैं, तब उनके
हृदय में आनंद का आधिक्य हो जाता है। बाबा तुलसी ने राम के इस मनोभाव का सुंदर
चित्रण करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि राम को राज्य-लिप्सा नहीं है। भरत
और राम के मध्य अयोध्या का राजपाट कंदुक-सम खेला जा रहा है।
आधुनिकताबोध यह सिद्ध करता है, कि कैकेयी के मन
में भी कोई खोट नहीं था। कैकेयी राज्य-संचालन में अत्यंत निपुण थी। कैकेयी को दो
वरदान ही युद्ध के मैदान में मिले थे, राजा दशरथ से....। देवासुर संग्राम में
इंद्र की दशा बहुत खराब हो गई थी। इंद्र ने राजा दशरथ को सहायता के लिए बुलाया।
रानी कैकेयी भी राजा दशरथ के साथ चल पड़ीं, सारथी बनकर....। दुर्योगवश राजा दशरथ
के रथ की कील निकल गई और युद्धक्षेत्र में राजा दशरथ के लिए जीवन का संकट आ गया।
रानी कैकेयी ने तुरंत अपनी उंगली कील के स्थान पर लगाई। राजा दशरथ को जीवनदान मिला और
उन्होंने प्रसन्न
होकर कैकेयी को दो वरदान माँगने को कहा। कैकेयी ने यही वरदान माँगे थे। भरत को
राजपाट और राम को वनवास....। राम ने पहले भी वन की यात्रा की थी, गुरु विश्वामित्र
के साथ और अनेक राक्षसों को मारकर वन प्रांतरों को, वहाँ साधना में लीन
ऋषि-मुनियों को भयमुक्त किया था।
पिछली बार गुरु विश्वामित्र हठ करके राजा दशरथ
से माँगकर राम और लक्ष्मण को ले गए थे, राजा दशरथ इसके लिए सहमत नहीं थे, लेकिन
विवशता थी....। दूसरी बार कैकेयी के सामने राजा दशरथ विवश हो गए...। राम के लिए
दोनों बार आज्ञा-पालन का ध्येय था। राम के मन में कोई क्लेश पैदा नहीं होता। वे
इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। इसी कारण राम की नाराजगी कहीं पर भी माता कैकेयी के
प्रति प्रकट नहीं होती है। इतना ही नहीं; राम वनवास के प्रसंग में, जब चित्रकूट
में राम से भेंट करने के लिए तीनों माताएँ आती हैं, तब राम सबसे पहले माता कैकेयी
से भेंट करते हैं। बाबा तुलसी इस प्रसंग का उल्लेख करते हैं, और माता कैकेयी से
राम की भेंट को विशेष रूप से उद्धृत करते हैं। कैकेयी के प्रति राम के मन में कोई
विद्वेष नहीं है। राम तो भरत को भी डाँट देते हैं, जब वे माता कैकेयी को भला-बुरा
करते हैं।
आज के समय में....., आधुनिकता के मानदंड में
देखने पर माता कैकेयी का व्यक्तित्व अलग दिखाई देता है। वे अयोध्या के राजपाट के
प्रति समर्पित दिखती हैं, क्योंकि राम को वन भेजना भरत को राजपाट दिलाने-मात्र के
लिए नहीं था, वरन् राक्षसों के संहार के लिए भी था। राम इसके लिए उपयुक्त थे...
गुरु विश्वामित्र के साथ जाकर उन्होंने इस बात को प्रमाणित किया था। गोस्वामी जी
माता कैकेयी के लिए राम की श्रद्धा को, उनके निःछल प्रेम को उभारते हैं। राम भरत
को सीख देते हैं, कि गुरु, पिता, माता या स्वामी... इनकी सीख आँख बंद करके माननी चाहिए।
भले ही ऐसा लगे, कि इनके द्वारा गलत कहा जा रहा है, हम गलत राह पर जा रहे हैं,
लेकिन हमारा पग खाले नहीं पड़ता, हमारा काम गलत नहीं होता और भविष्य में परिणाम भी
सही आते हैं, अच्छे आते हैं। तात्कालिक रूप से अनुचित लगने पर भी ये निर्देश
दीर्घकाल में सही सिद्ध होते हैं। राम कहते हैं, कि ऐसा विचार करते हुए, आज्ञा का
पालन करते हुए जाओ और अवधि भर के लिए अयोध्या का पालन करो-
गुरु पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं
न खालें ।।
अस बिचारि सब सोच
बिहाई । पालहु अवध अवधि भर जाई ।।
एक अन्य वार्तालाप को
देखें....। यह भी चित्रकूट में चल रहा है। श्रीराम को अयोध्या वापस ले आने के लिए
पूरी अयोध्या नगरी ही गई है। तीनों माताएँ भी हैं। लक्ष्मण की माता सुमित्रा, सीता की माता सुनयना
और राम की माता कौशल्या के मध्य वार्तालाप चल रहा है। अत्यंत आर्त स्वर में...
रूँधे गले से माता कौशल्या कह
रहीं हैं, कि राम,
लक्ष्मण और सीता वन को जाएँ, इसका परिणाम भला है, निकृष्ट नहीं है; किंतु मुझे
चिंता भरत के जीवन की है। यहाँ माता कौशल्या के हृदय की वेदना भ्रातृ-प्रेम को
बड़ी सहजता से प्रकट कर देती है-
लखनु राम
सिय जाहँ बन भल परिनाम न
पोचु ।
गहबरि
हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ।।4
माता सुमित्रा ने वन जाते समय लक्ष्मण को सीख
दी थी- गुरु, पिता, माता, बंधु, देवता और स्वामी की प्राणों की भाँति सेवा करनी
चाहिए। इस कारण सभी के मित्र और स्वार्थहीन व्यक्तित्व वाले श्रीराम के साथ वन को
जाकर संसार में जन्म लेने के लाभ को अर्जित करो, अर्थात् अपने कर्मों से जीवन की
सार्थकता को सिद्ध करो। भ्राता लक्ष्मण ने माता की सीख को आत्मसात किया, और पूरी
निष्ठा के साथ इसका पालन भी किया।
अयोध्या का राजपाट राम
के वनगमन के केंद्र में है। सामान्य रूप से तो ऐसा ही प्रतीत होता है, लेकिन गहरे
उतरकर विचार करें, तो यह वनगमन प्रसंग परिवार की एकजुटता को भी प्रस्तुत कर देता
है। धन-धान्य, समृद्धि, यश, वैभव आदि की लालसा कहीं रह ही नहीं जाती है। लोभ किसी
को छू नहीं पाता है। राम को आदेश मिलता है, वन जाने का.... और वे सहर्ष चल देते
हैं। भरत को पता चलता है, कि उनके लिए राम को अयोध्या से जाना पड़ा है, तो वे भी
अयोध्या को त्याग ही देते हैं... नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहने लगते हैं। परिवार
किसी भी दशा में टूटता नहीं है, छूटता नहीं है। भरत जी राम को वापस ले आने के लिए
चित्रकूट तक जाते हैं। राम चौदह वर्षो के बाद ही अयोध्या लौटने की बात कहते हैं।
लेकिन चित्रकूट में केवल इतना ही नहीं होता... वहाँ रामराज्य की संकल्पना रची जाती
है। राजा को कैसा होना चाहिए, शासक के धर्म क्या होते हैं, परिवार से लगाकर समाज
और देश-काल में मर्यादाओं की स्थापना, उनका पालन कैसे हो.... इस बात को विस्तार के
साथ कहा और सुना जाता है। भरत जी के साथ गई लगभग पूरी ही अयोध्या नगरी पाँच दिनों
तक चित्रकूट में अपना डेरा-पड़ाव डाले रहती है। इन पाँच दिनों में अनवरत चलने पाली
चर्चाएँ, उपदेश, वार्ताएँ आदि सभी बड़ी महत्त्व की हैं। नीति-नैतिकता के व्यवहार
पक्ष हेतु अनेक उपयोगी बातें सामने आती हैं। गोस्वामी जी विस्तार के साथ चित्रकूट
प्रसंग को प्रस्तुत करते हैं।
व्यक्ति से ऊपर परिवार
है, परिवार से ऊपर समाज है, और समाज से ऊपर राज्य है-राष्ट्र है....। अयोध्या में
राम के वनगमन से लगाकर चित्रकूट तक... भरत के राजपाट सँभालने तक, और फिर राम के
अयोध्या लौटने तक पूरी कथा के विस्तार में यह तथ्य परिलक्षित होता है, दिखाई पड़ता
है। इसके लिए संबंधों की मर्यादाएँ निभाई जाती हैं, संबंधों की गुरुता को-गरिमा को
अनुभूत किया जाता है, सम्मान दिया जाता है।
श्रीरामचरितमानस का
रचनाकाल भी बहुत महत्त्व रखता है। सामयिक स्थितियों से गोस्वामी जी परिचित थे। वह
समय ऐसा था, कि म्लेच्छ आक्रांताओं ने अपनी स्वार्थ लिप्साओं के अनेक उदाहरण
प्रस्तुत कर दिए थे। भाई से भाई का वैर, पिता से पुत्र की दुश्मनी के अनेक किस्से
सामने आ रहे थे। धन के लिए... सत्ता के लिए परिवार की मर्यादाएँ टूट रहीं थीं।
भारतीय समाज के लिए ये स्थितियाँ भयावह थीं। लोग विवश होकर संत समाज की ओर देख रहे
थे, कि उनका पथ-प्रदर्शन हो सके, वे सही राह को जान सकें। ऐसी विषमताओं के मध्य
गोस्वामी जी ने परिवार की मर्यादाओं से लगाकर समाज व राष्ट्र-राज्य तक की
मर्यादाओं की स्थापना की बात कही। विश्व के कल्याण का संदेश दिया। गोस्वामी जी के
राम इसका माध्यम बने... अयोध्या का पूरा राज-परिवार ही उदाहरण बन गया।
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम मर्यादा के प्रतीक ही बन गए। राम का अर्थ ही मर्यादा हो
गया। उसी रूप में श्रीराम को अन्य संतों ने स्वीकारा। कबीर ने भी स्वीकार किया-
कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाई । राम सनेही यूँ मिले दून्यू बरन गँवाई ।।
सामाजिक मूल्यों का
प्रशिक्षण परिवार में ही सबसे पहले मिलता है। स्नेह-प्रेम, सेवा, सद्भाव,
सहिष्णुता और समरसता आदि की सीख सबसे पहले परिवार में मिलती है। यदि परिवार ही
बिखर जाए, तो समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व तक मानवीय मूल्यों, नीति-नौतिकताओं,
मर्यादा-आदर्शों आदि के विस्तार को सबल करने वाली, पोष्ण करने वाली व्यवस्था ही
सिमट जाएगी.... जड़ ही सूख जाएगी। इस कारण परिवार का महत्त्व है। दैवीय पक्ष को
हटाकर यदि विचार करें, तो श्रीरामचरितमानस में परिवार की संरचना केंद्र में दिखाई
देती है। यह परिवार क्रमशः विस्तार पाता है। अयोध्या से राम का वनगमन एक
घटना-मात्र नहीं रह जाती, वरन् समूची अयोध्या को एक सूत्र में बाँध देने का कारण
बन जाती है। भरत जी के नेतृत्व में अयोध्या का विशाल जनसमूह आत्मप्रेरित होकर चल
पड़ता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को पुनः अयोध्या लाने के लिए। यह यात्रा
प्रकारांतर से मर्यादा की सामाजिक स्थापना के हेतु प्रती होती है। श्रीराम भले ही
अयोध्या न लौटे हों, लेकिन जिन सीख-सिखावनों को, उपदेशों के सार को लेकर अयोध्या
का जनसमुदाय लौटा था, उनके सहारे ही रामराज्य की संकल्पना धरातल पर उतरी थी।
व्यक्ति और समाज के
मध्य संबंधों को समरसता और सह-अस्तित्व की भूमि पर स्थापित करने का प्रयोग भी मानस
में दिखता है। श्रीराम चित्रकूट में रहते हुए उस विशाल समाज को अपने साथ मिला लेते
हैं, जो उपेक्षित और तिरस्कृत रहा। व्यक्ति से परिवार और समाज तक विस्तार का यह
क्रम राम के चित्रकूट निवास के साथ विस्तार पाता है, दक्षिण की ओर बढ़ते हुए भी इस
विस्तार को हम देखते हैं। वनवासी, गिरिजन, बालक, महिलाएँ, वृद्ध और यहाँ तक कि
पशु-पक्षी भी रामादल के साथ हो जाते हैं। एक सूत्र में बँध जाते हैं। जटायु की कथा
और गिलहरी के प्रयास रामकथा के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, अंश हैं।
यह विस्तार लोक के
कल्याण से जुड़ता है। जिस परिवार में भाई का सम्मान न हो, पत्नी की बात न सुनी
जाए... अनैतिकता से भरा आचरण हो, उस परिवार की दशा का अनुमान लंकाधिपति की दारुण
दशा देखकर लगा सकते हैं। मंदोदरी रावण की मृत्यु पर विलाप करते हुए कहती हैं-
जगत बिदित तुम्हारि
प्रभुताई । सुत परिजन बल बरनि न जाई ।।
राम विमुख अस हाल
तुम्हारा । रहा न कोउ कुल रोवनिहारा ।।
रावण की प्रभुता सारे
संसार को भली-भाँति पता है। संसार रावण के बल को जानता है। पुत्रों और परिजनों के
बल का वर्णन नहीं किया जा सकता, लेकिन राम से विमुख होने के कारण रावण के कुल में
कोई रोने वाला तक नहीं बचता है। जब मर्यादा टूटती है, तब सर्वनाश ही होता है। रावण
के साथ भी यही हुआ। भाई की सीख भी रावण को अच्छी नहीं लगी, अपमानित करके राज्य से
निकाल दिया।
अपने लौकिक, सामाजिक, मानवीय और व्यावहारिक
संदर्भों में बाबा तुलसी के मानस की यही विशिष्टता है कि वहाँ एक आदर्श परिवार की
बात विविध कथा-प्रसंगों के माध्यम से कही जाती है। रामराज्य की परिकल्पना एक आदर्श
परिवार से ही निकलती है। लोकमंगल की साधना भी यहीं से अपनी जड़ों को रोपती है।
मानस के ऐसे कथा-प्रसंगों से गुजरते हुए कई बार ऐसा अनुभूत होता है कि
भविष्यदृष्टा के रूप में बाबा तुलसी ने आज की विषम-जटिल परिस्थितियों को जान लिया
था। इसी कारण उत्तरकांड में बाबा तुलसी कागभुशुंडि के पूर्वजन्म की कथा का प्रसंग
उठाते हुए कलियुग का वर्णन करते हैं। आज के जीवन की तमाम स्थितियाँ प्रतीक के रूप
में, लक्षणों के रूप में कलियुग के वर्णन द्वारा इस प्रकार प्रकट होती हैं,
जिन्हें पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा तुलसी ने उस समय ही आज के जीवन को देख
लिया था, जान लिया था। वे कलियुग प्रसंग में लिखते हैं-
सब नर काम लोभ रत क्रोधी । देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ।।
गुन मंदिर सुंदर पति
त्यागी । भजहिं नारि पर
पुरुष अभागी ।।
सौभागिनी बिभूषन हीना । विधवन्ह के सिंगार नवीना ।।
गुरु सिष बधिर अंध का लेखा । एक न सुनइ एक नहिं
देखा ।।
हरहिं सिष्य धन सोक न हरइ । सो गुरु घोर नरक
महुँ परइ ।।
मातु पिता
बालकन्हि बोलावहिं । उदर भरै सोइ धरम सिखावहिं ।।14
आज का समय उन्हीं लक्षणों से भरा हुआ है, जिनका
वर्णन बाबा तुलसी ने उपरोक्त पंक्तियों में किया है। वैश्वीकरण के प्रभाव के रूप
में इन्हें देखा जा सकता है। व्यक्ति से लेकर परिवार और फिर समाज तक मर्यादा के
पतन की गंभीर स्थितियाँ किसी से छिपी हुई नहीं हैं। शिक्षा-व्यवस्था भी मर्यादा से
च्युत होकर दिग्भ्रमित हो गई है। इसी के प्रभाव से आज माता-पिता अपने बच्चों को
सदाचारी बनने की सीख देने से ज्यादा प्राथमिकता उस सीख को देते हैं, जिससे वे अपना
उदर भर सकें, धन कमा सकें। ऐसी अनेक स्थितियों का वर्णन तुलसीदास ने किया है। यहाँ
भी तुलसीदास परिवार को ही केंद्र में रखते हैं।
श्रीरामचरितमानस में औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण,
वैश्वीकरण और आर्थिक उदरीकरण के कारण उपजने वाले दुष्प्रभावों का शमन करने की
सामर्थ्य है, किंतु यह व्यवहार से, दैनंदिन जीवन से दूर होते जाने के कारण अपनी
प्रासंगिकता और अनिवार्यता का बोध कराने में विफल हो गई है। वैश्वीकरण और आर्थिक
उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत घर की सीमाओं से बाहर ही होती है। उदारीकरण अर्थ
के क्षेत्र में जितना हुआ; उसने मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं और नैतिकताओं के संदर्भ
में अन-उदारीकृत होना स्वीकार किया। यह स्वीकृति सहज नहीं है, वरन् आर्थिक उदारीकरण
के फलस्वरूप अनिवार्य है। अन-उदारता का यह क्रम व्यवसाय और व्यावसायिक हितों को
पूरा करते-करते एक समय घर की देहरी पर आ गया, दरवाजे पर ही आ गया.... और आज परिवार
तक पैठ चुका है। इसी कारण एक छत के नीचे रहते हुए परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने
हितों को साधते और स्वार्थ से पूर्ण प्रतीत होते हैं। परिवारों के विघटन का सबसे
बड़ा कारण यही है। यद्यपि विभिन्न संस्कृतियों के आगमन, आधुनिकता के प्रभाव और
निरंतर गतिमान विकास के चक्र के फलस्वरूप स्थितियाँ पहले ही अच्छी नहीं थीं, किंतु
वैश्वीकरण ने बहुत कुछ बदला है, बहुत तेजी से बदला है। इस अवधि में वृद्धाश्रमों
की संख्या बढ़ी है। विवाह-व्यवस्था की शुचिता प्रभावित हुई है और ‘लिव इन
रिलेशनशिप’ जैसी व्यवस्थाओं ने परिवाररूपी संस्था को तोड़कर रख दिया है। संयुक्त
परिवारों का विघटन हुआ है और इतना ही नहीं, अब परिवार के स्थान पर व्यक्ति ही सबसे
छोटी इकाई बनने लगा है। ये सारे बदलाव नीति-नैतिकताओं, मर्यादाओं और आदर्शों के
तिरोहित हो जाने के कारण हुए हैं। आज वैश्वीकरण के कारण व्यक्ति जितना वैश्वीकृत
हुआ है, उतना ही जटिल और संकुचित वृत्त में अपने परिवेश का होकर रह गया है। इसके
कारण मनोविकृतियाँ भी बढ़ी हैं और अपराध-अन्याय भी बढ़े हैं।
विकास का यह क्रम अनवरत चलता रहेगा, किंतु जिन
पारिवारिक मूल्यों, मर्यादाओं, आदर्शों, नैतिकताओं और उदात्त गुणों की कीमत पर विकास
का क्रम संचालित हो रहा है, उनके सिमटने के बाद विकास के नाम पर क्या शेष बचेगा,
यह आज का यक्ष प्रश्न है। इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास के मानस को ही रखा जा
सकता है-
रघुबंसभूषन
चरित
यह नर कहहिं सुनहिं
जे गावहीं ।
कलिमल
मनोमल धोइ बिनु स्रम रामधाम सिधावहीं ।।
-राहुल मिश्र
(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के आषाढ़-श्रावण, सं. 2081 तदनुसार जुलाई, 2024 अंक में प्रकाशित)
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