अनौपचारिक जनसंचार माध्यम के रूप में नाटक मंडलियाँ : एक अध्ययन
एक व्यक्ति
से दूसरे व्यक्ति तक अर्थपूर्ण संदेशों का संप्रेषण ही जनसंचार होता है। (डेनिस
मेकबेल)
विशेषीकृत
समूहों द्वारा तकनीकी साधनों- प्रेस, रेडियो, टेलिविज़न, फिल्म आदि के द्वारा
व्यापक असमरूप और बिखरे हुए श्रोताओं, दर्शकों तक संकेतों का प्रसार ही जनसंचार
है। (जैने बिट्ज)
इस प्रकार जनसंचार को एक विस्तृत प्रक्रिया कहा
जा सकता है। संचरण की प्रक्रिया समस्त प्राणियों में होती है, मगर मनुष्य के लिए
यह एक विशिष्ट प्रक्रिया है, क्योंकि उसने अपनी क्षमताओं और बुद्धि-बल के विस्तार
द्वारा इस प्रक्रिया को अन्य जीवधारियों की संचरण की प्रक्रिया से श्रेष्ठ और
विशिष्ट बनाया है। सामान्य रूप से संचरण के अंतर्गत व्यवहार, संपर्क और परस्पर
आदान-प्रदान को रखा जाता है। व्यवहार, संपर्क और परस्पर आदान-प्रदान की
प्रक्रियाएँ व्यापक जनसमुदाय के साथ जुड़कर जनसंचार कहलाने लगती हैं। संचार के साथ
‘जन’ का जुड़ जाना इसके व्यापक अर्थों को प्रकट करता है और इसकी एक विशिष्ट
प्रवृत्ति को प्रकट करता है। इसे स्पष्ट करते हुए डॉ. राजेंद्र मिश्र लिखते हैं
कि- जनसंचार की अपनी विशेषताएँ होती
हैं। सामाजिक परिवर्तन की जटिल प्रक्रिया को अंकित करना इसके केंद्र में होता है। मार्क्स
ने भी कहा है कि समाज में परिवर्तन का कारण अधिकतर आर्थिक होता है। यही कारण है कि
औद्योगिक क्रांति के बाद सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी सामने आई है। समाज में
ये परिवर्तन आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार के होते हैं। जनसंचार की इसमें व्यापक
भूमिका भी होती है। जनसंचार किसी भी उन्नत समाज की लंबी सांस्कृतिक परंपरा को
विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।1 इस
प्रकार जनसंचार अपने विशिष्ट अर्थों में समाज, संस्कृति, मानव-विकास और मानव-जीवन
से संबद्ध है।
‘मॉस मीडिया इन मॉडर्न सोसायटी’, पिटरसन और
जैक्सन की प्रमुख पुस्तक है, जिसमें जनसंचार की पाँच विशेषताएँ बताई गई हैं-
1.
जनसंचार एकतरफा होता है, जिसमें संदेश स्रोत से संग्राहक की ओर और संग्राहक से
स्रोत की ओर प्रवाहित होते हैं और इसका फीडबैक लिया जाता है।
2.
इसमें चयन की दोहरी प्रक्रिया होती है। एक ओर तो जन-माध्यम के रूप में सभी लोग
इसके संग्राहक होते हैं और यह तय करना पड़ता है कि उन्हें किस रूप में संदेश दिया
जा सकता है। इस तरह जनसंचार अपने संग्राहकों का चयन करता है।
3.
जनसंचार के विकसित माध्यम के कारण समाचार पत्रों को तुरंत समाचार और फोटो
पहुँच जाते हैं, जिन्हें प्रकाशित किया जाता है। यह एक तीव्र प्रक्रिया है।
4.
जनसंचार संप्रेषित संदेशों को बड़ी संख्या में लोगों को ग्रहण कराता है।
5.
जनसंचार सामाजिक संस्थान की तरह है और वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।2
इन विशिष्टताओं से युक्त जनसंचार जिन माध्यमों
के द्वारा संपन्न होता है, वे जनसंचार माध्यम कहलाते हैं। आज के तकनीकी और
वैज्ञानिक युग में जिस प्रकार जनसंचार का अपना विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ है, उसी
प्रकार जनसंचार माध्यमों की भी अपनी विशिष्ट परिभाषा है। अपने विशिष्ट पारिभाषिक
अर्थ में जनसंचार माध्यमों को अलग-अलग वर्गों के द्वारा जाना जाता है। इसमें
शब्द-संचार माध्यम अथवा मुद्रण माध्यम के अंतर्गत समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ,
पुस्तकें आदि आती हैं। श्रव्य-संचार माध्यम के अंतर्गत रेडियो, ऑडियो कैसेट्स आदि
आते हैं। दृश्य-संचार माध्यमों के अंतर्गत टेलिविज़न, वीडियो कैसेट्स, फिल्म आदि
का उल्लेख किया जा सकता है। नव-इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के अंतर्गत उपग्रह प्रणाली और
कंप्यूटर, इंटरनेट आदि को रखा जा सकता है। अपने रूढ़ और पारिभाषिक अर्थों में
इन्हीं जनसंचार माध्यमों का अध्ययन किया जाता है।
पिटरसन और जैक्सन द्वारा बताई गई जनसंचार की
विशेषताओं के आधार पर आधुनिक सूचना और संचार की तकनीकों का अनुशीलन किया जाता है।
इन तकनीकों के प्रचलन से पहले के कालखंड पर विचार करने पर नाटक मंडलियों या रंगमंच
के रूप में जनसंचार के अनौपचारिक माध्यम की रोमांचकारी उपस्थिति अनुभूत होती है।
पिटरसन और जैक्सन द्वारा बताई गई विशेषताएँ जनसंचार के इस अनौपचारिक माध्यम में भी
कमोबेश देखी जा सकती हैं। इसी कारण नाटक मंडलियों को अनौपचारिक जनसंचार माध्यम
माना जा सकता है। इन्हें अंतर-वैयक्तिक संचार माध्यम भी कहा जाता है, क्योंकि
इनमें संचार बिना किसी यांत्रिक उपकरण की मध्यस्थता के, आमने-सामने होता है।3
नाट्य-परंपरा आदिम मानव के सभ्य होने की कथा को
भी व्याख्यायित करती है। इसे बताते हुए रघुवरदयाल वार्ष्णेय लिखते हैं कि- बड़े-बड़े
कारखानों, छोटे-छोटे लघु उद्योग धंधों और खेतों में दिनभर कड़ी मेहनत करके उत्पादन
करने में व्यस्त रहता हुआ आदमी जब रात्रि को अवकाश पाता था, तब थकान मिटाने के लिए
नाटक, वृत्त और नृत्य प्रदर्शन द्वारा अपना मनोरंजन करता था। इसी सर्वव्यापकता और
सार्वभौमिकता के कारण ही विलास और ऐश्वर्य में डूबे इंद्र ने नाट्यवेद को ग्रहण
करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की थी और सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि भरत ने अपने
सौ पुत्रों सहित इसे लोककल्याण के लिए धारण किया था और इसमें केवल भारती, सात्वती
और आरभटी वृत्तियों को साकार किया था, जो उस समय की मेहनतकश जातियों की प्रवृत्ति
थी, क्योंकि इन वृत्तियों का संबंध भरत, सत्वत और अरभट जातियों से था। ये जातियाँ आर्टीजन
क्लास की थीं और आम आदमी का जीवन जीती थीं।4
इस प्रकार नाट्य-शास्त्र और नाट्य परंपरा की
उत्पत्ति व विकास आदिम मानव के सभ्य होते जाने की, उसके विचारवान होते जाने की
प्रवृत्तियों का द्योतक भी है और आदिम मानव के संघर्षों में उसके साथ संलग्न रहने
की स्थितियों को भी प्रकट करता है। अलग-अलग कालखंडों में नाट्य-परंपरा भले ही
मनोरंजन की भूमिका को कम या ज्यादा निभाती रही हो, मगर उसका घनिष्ठ और सीधा संबंध
लोक-हित से रहा है, लोक की जागृत चेतना से रहा है। इसी कारण नाट्य-परंपरा की
संवाहक नाटक मंडलियों को जनसंचार के अनौपचारिक माध्यम या अंतर-वैयक्तिक संचार
माध्यम की श्रेणी में रखा जा सकता है।
औपनिवेशिक भारत में नाट्य-मंडलियों को सर्वथा
नवीन भूमिका में देखा जा सकता है। हिंदी नाट्य-विधा को नए कलेवर के साथ स्थापित
करने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र से पूर्व नाट्य-विधा और इसके मंचन की परंपरा शिष्ट
साहित्य और अभिजात्य वर्ग, दोनों के लिए अछूत जैसी ही थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र के
साथ जुड़ा हुआ यह सर्वथा विलक्षण पक्ष है कि उन्होंने बड़ी शालीनता के साथ नाट्यशास्त्र
के जटिल और रूढ़ बंधनों को तोड़कर नाट्य-मंडलियों को जन-जागरण का सशक्त हथियार
बनाया। वे नयी नाट्य-परंपरा, अलग नाट्य-शिल्प और रंगमंच की स्वतंत्रता के लिए
संघर्षरत भी रहे और थियेटर्स की बँधी-बँधाई परिधि को तोड़कर समाज के करीब
लाने के लिए प्रयासरत भी रहे। भारतेंदु हरिश्चंद्र के लिए इस अभिनव प्रयोग की जमीन
तत्कालीन नाटक मंडलियों ने ही तैयार की थी, जिन्हें शिष्ट और संभ्रांत वर्ग में
हेय दृष्टि से देखा जाता था। भारतेंदु हरिश्चंद्र स्वयं पारसी नाटक मंडली द्वारा
अभिनीत शकुंतला नाटक में दुष्यंत और शकुंतला के फूहड़ प्रदर्शन को देखकर विचलित हो
उठे थे। इस तरह नाटक मंडलियों के दो अलग-अलग रूप उस दौर में दिखाई पड़ते हैं। एक
को स्तरहीन और फूहड़ कहा जाता था, और दूसरा शुद्धतावाद से पूर्ण माना जाता था।
गुलाम भारत में एक वर्ग और भी था, जहाँ विक्टोरियन शैली के नाटक खेले जाते
थे। यहाँ इस तीसरे वर्ग की विवेचना अपेक्षित नहीं है, क्योंकि इस वर्ग का संबंध
सीधे अंग्रेज अधिकारियों एवं कर्मचारियों से, और अंग्रेजी में मंचन किए जाने वाले
नाटकों से है।
अव्यवसायी नाटक मंडलियों की शुरुआत सन् 1898
में प्रयाग में ‘श्रीरामलीला नाटक मंडली’ की स्थापना के साथ होती है। इस मंडली
का प्रमुख उद्देश्य था- रामलीला प्रसंग से वर्तमान राजनीति की आलोचना करना। इस
मंडली ने सबसे पहला नाटक पं. माधव शुक्ल कृत ‘सीता स्वयंवर’ अभिनीत किया।5
इस नाटक में कविता के माध्यम से वीर भारतीय युवकों को उनके पराक्रमहीन होने पर
लताड़ते हुए उनके अंदर जोश जगाने का काम किया गया था। अनेक उतार-चढ़ावों के बीच कई
अव्यावसायिक नाटक मंडलियों की स्थापना होती रही, ये मंडलियाँ भंग होती रहीं और
नई-नई मंडलियाँ बनती रहीं। इन सबके बीच भारतेंदु नाटक मंडली, काशी नागरी नाटक
मंडली, हिंदी नाट्य मंडली, रंगवाणी- प्रयाग, आदर्श कला मंदिर- प्रयाग, इप्टा,
भारतीय नाट्य संघ, हिंदू यूनियन क्लब, श्री भारत मनोरंजनी सभा और हिंदी नाटक समाज-
आगरा जैसी अनेक अव्यवसायी नाटक मंडलियों का एकमात्र उद्देश्य सामाजिक समस्याओं,
कुप्रथाओं और कुरीतियों के खिलाफ जन-जागरण के साथ ही भारतीय नवजागरण के लिए,
अंग्रेजों के खिलाफ जन-जागरूकता के लिए कार्य करना था। जनसंचार के अनौपचारिक
माध्यम के रूप में इसी कारण तमाम अव्यवसायी नाटक मंडलियों का उल्लेखनीय योगदान
माना जा सकता है।
अव्यवसायी नाटक मंडलियों ने व्यावसायिक नाटक
मंडलियों को भी प्रभावित किया। अंग्रेजों के साथ भारतीय अभिजात्य वर्ग में लोकप्रिय
‘विक्टोरियन शैली’ के नाटकों से प्रेरित होकर पारसी व्यापारियों ने एकदम अलग किस्म
की नाटक मंडलियों को स्थापित किया। व्यावसायिक दृष्टिकोण से स्थापित किये गए इन
पारसी रंगमंचों में भारतीय संस्कार और भारतीय लोक-कला के, लोक-संगीत के अंश शामिल
थे। इनका पहला उद्देश्य धन कमाना था, मगर बाद में बदलते सामाजिक स्वरूप को,
नवजागरण की स्थितियों को, और लोगों के रुझान को आत्मसात् करते हुए ये नाटक
मंडलियाँ सामाजिक संदर्भों से, सामयिक अनिवार्यताओं से जुड़ने लगीं। यह बदलाव
अव्यवसायी नाटक मंडलियों के प्रभाव से भी आया। इस काल के नाटककार एक साथ तीन
परिदृश्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करने में पूर्ण सफल हो रहे थे- अंग्रेजी
राज्य के अत्याचार, भारतीयों में जागृति और गांधी, गोखले, तिलक आदि के व्यक्तित्व
की झलक। ये सब पौराणिक कथाओं के बीच से व्यक्त किया जाता था।6
पारसी रंगमंच में आए इस बदलाव को नारायणप्रसाद
बेताब, आगा हश्र कश्मीरी और राधेश्याम कथावाचक की त्रयी के आगमन के साथ खुलकर देखा
जा सकता है। मारधाड़, जादू-टोना, रहस्य-रोमांच की प्रस्तुति से निकलकर भारतीय समाज
की आजादी की छटपटाहट को पारसी रंगमंच ने
समझा और अपने सामाजिक दायित्व को निभाने के लिए स्वयं आगे भी आया। देश-भर में
भ्रमण करने वाली और वर्ष-पर्यंत अपनी नाट्य-प्रस्तुतियाँ देने वाली पारसी नाटक
मंडलियों ने जब इस दायित्व को संभाला, तब समाज में इसके प्रभाव भी परिलक्षित होने
लगे। राधेश्याम कथावाचक पारसी रंगमंच के इसी प्रभाव का रोचक वर्णन करते हुए अपने
एक संस्मरण में लिखते हैं कि- काशी में हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु
धन-संग्रह अभियान चल रहा था। इस अभियान के तहत महामना मदनमोहन मालवीय, दरभंगा
नरेश, शिवप्रसाद गुप्त और दीनदयालु शर्मा के साथ कई गणमान्य व्यक्ति बरेली पहुँचे।
इस अभियान के लिए राधेश्याम कथावाचक ने आठ-दस गीत लिखे। इन गीतों को गाया गया और
गीतों से प्रभावित होकर बरेली की जनता ने
कई हजार रुपये दान में दिये।7 उनके द्वारा लिखा गया एक गीत
निम्न है-
हिलमिल करो जाति-उद्धार, भाइयो समय न बारम्बार
।
कोटिपती दें लक्ष-लक्ष, लखपती हज़ार-हज़ार ।
मध्यम श्रेणी देंय सैकड़ों, निर्धन के दो-चार।
हमें दो पैसे भी स्वीकार- भाइयो, समय न
बारम्बार-
विक्टोरिया नाटक मंडली उस समय की प्रसिद्ध
पारसी नाटक मंडली थी। यह नाटक मंडली प्रायः समाज-हित के कार्यों हेतु धन-संग्रह
करने के लिए नाटकों के मंचन किया करती थी। इसके साथ ही धर्मार्थ-कार्यों हेतु
मुफ्त में भी मंचन किया करती थी।8 पारसी नाटक मंडलियाँ धर्मार्थ-कार्यों में सहयोग
के लिए जितना तत्पर रहती थीं, उतनी ही सक्रियता सामाजिक आंदोलनों में, नवजागरण में
भी होती थी। इसके उदाहरण कई नाटकों में देखने को मिलते हैं। अंग्रेज हुक्मरानों की
पैनी नज़र से स्वयं को बचाते हुए नाटक मंडलियों के कलाकार और लेखक सामाजिक
प्रश्नों को दर्शकों के सामने रख देते थे। मनोरंजन के माध्यम से जन-जागरण के संदेशों
का प्रसारण इन नाटक मंडलियों का अनूठा और सुखद पक्ष बन गया था। इसी संबंध में गरीब
हिंदुस्तान उर्फ़ स्वदेशी तहरीक नामक पारसी नाटक का उल्लेख किया जा सकता है,
जिसमें स्वदेशी आंदोलन के साथ ही स्त्री-शिक्षा की नसीहत को बड़ी कुशलता के साथ
पेश किया गया है। इस नाटक के एक गीत के बोल हैं-
जो चाहो ज़िंदगी अब
भी खरीदो अपनी चीजों को ।
हुनर सिखलाओ घर के जाहिलों को बदतमीजों को ।।
पढ़ाओ इल्म अपनी बीवियों को और
कनीज़ों को ।।9
इस प्रकार पारसी नाटक मंडलियाँ जनसंचार के
अनौपचारिक या अंतर-वैयक्तिक माध्यम के रूप में न केवल सक्रिय रही हैं, वरन्
जनसंचार माध्यमों के उद्देश्यों को पूर्ण करने का कार्य भी करती रहीं हैं। जिस
प्रकार शिष्ट-साहित्य और लोक-साहित्य की विविध विधाएँ अपने सामाजिक दायित्व को
निभाती रहीं हैं, उसी प्रकार पारसी नाटक मंडलियों ने भी अपनी जिम्मेदारी को निभाया
है। इसके बावजूद पारसी नाटक मंडलियाँ उस सम्मान को नहीं पा सकीं, जिसकी वे हकदार
थीं। साहित्य के इतिहासकारों ने नाटकों की इस विस्तृत दुनिया को असाहित्यिक
कहकर उसकी उपेक्षा की तथा हिंदी रंगमंच के इस लोकप्रिय विधान को नाटक के तत्त्वों
से रहित बताया। परंतु बात ऐसी नहीं है। पारसी रंगमंच के नाटकों ने हिंदी भाषा और
साहित्य के विकास तथा उसकी समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इनका
तथ्यात्मक मूल्यांकन इतिहास की सुरक्षा की दृष्टि से तो आवश्यक है ही, इस कालखंड की
नाट्य-विषयक गतिविधियों से परिचित होने के लिए भी आवश्यक है।10 शुद्धतावादियों
और परंपरावादियों के लिए जनसंचार माध्यम के रूप में व्यावसायिक या अव्यावसायिक
नाटक मंडलियों को स्वीकार करना सहज नहीं रहा है। आधुनिकताबोध ने इस दृष्टि को भी
बदला है। इसके लिए लक्ष्मेंद्र चोपड़ा के कथन पर विचार करना होगा। वे लिखते हैं
कि- लोक माध्यम या फ़ोक मीडिया मूलतः ऐसे माध्यम हैं, जिनका प्रत्यक्ष संबंध पंरपरागत
संस्कृति से है। सामाजिक संदर्भ में संस्कृति पर विचार करते हुए रेमंड विलियम्स ने
संस्कृति को सार्थकता की ऐसी व्यवस्था कहा है, जिसके माध्यम से सामाजिक व्यवस्था
का अनुभव, संप्रेषण, पुनरुत्पादन और अनुसंधान संभव होता है। ये पारंपरिक
लोक-माध्यम संदियों से संदेशों का संचार कर रहे हैं। लोकनाट्य, लोकगीत, लोकनृत्य,
तथा मौखिक लोकसाहित्य जैसे पारंपरिक लोक-माध्यम तथा आज के इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार
माध्यमों के समन्वित प्रयोगों से विकासशील देशों में विकास संचार के क्षेत्र में
अभिनव सफलता प्राप्त हुई है।11
सिनेमा और नुक्कड़ नाटक जैसी विधाएँ पारसी
रंगमंच से अपना जीवन पाई हैं। ये विधाएँ जनसंचार माध्यम के रूप में आज जितनी
प्रभावी और समर्थ हैं, उतनी ही सामर्थ्य इन विधाओं को जन्म देने वाली नाटक
मंडलियों में भी है। सूचना-संचार क्रांति के इस दौर में नाटक मंडलियों को उनकी
नवीन भूमिका में देखना होगा और उनसे रस-संचय करके आधुनिक जनसंचार माध्यमों को
समृद्ध करना होगा।
संदर्भ-
1. डॉ. राजेंद्र मिश्र, जनसंचार माध्यम, प्रयोजनमूलक
हिंदी और जनसंचार, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2010, पृ. 28,2. वही, पृ. 266,3. लक्ष्मेंद्र चोपड़ा, संचार का अर्थ व
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31-32,4. रघुवरदयाल वार्ष्णेय, रंगमंच की भूमिका और
हिंदी नाटक, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1979, पृ. 94,5. रघुवरदयाल वार्ष्णेय, अव्यवसायी रंगमंच, रंगमंच
की भूमिका और हिंदी नाटक, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1979, पृ. 284,6. रघुवरदयाल वार्ष्णेय, पारसी रंगमंच, रंगमंच की
भूमिका और हिंदी नाटक, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1979, पृ. 276,7. पं. राधेश्याम कथावाचक, तरुणावस्था
(पूर्वार्द्ध), मेरा नाटक-काल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, प्रथम सं.
2004, पृ. 43,8. सोमनाथ गुप्त, पारसी नाटक मंडलियाँ, पारसी
थियेटर : उद्भव और विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1981, पृ.
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नाटककार, पारसी थियेटर : उद्भव और विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं.
1981, पृ. 59,10. भवानीलाल भारतीय, सिनेमा पूर्व का रंगमंचीय परिदृश्य, बॉलीवुडनामा, सत्साहित्य
प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 2011, पृ. 203,11. लक्ष्मेंद्र चोपड़ा, जनसंचार माध्यम : सामाजिक अवधारणा, कार्य व सिद्धांत, जनसंचार
का समाजशास्त्र, आधार प्रकाशन, पंचकूला, प्रथम सं. 2002, पृ. 40-41 ।
डॉ. राहुल मिश्र
(कला, विज्ञान वाणिज्य महाविद्यालय, मनमाड (महाराष्ट्र) में आयोजित
राष्ट्रीय परिसंवाद- 2016 हेतु प्रस्तुत शोध-पत्र)