Friday 29 August 2014

एक युग के समापन के बीस बरस

श्रद्धांजलि/स्मरण
एक युग के समापन के बीस बरस
लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के गांधी वार्ड में लड़खड़ाती-सी, डूबती-सी आवाज- आई एम स्टिल ट्रीटेड अनट्रीट के शांत होने के साथ ही एक युग का अंत हो गया था, मेरे जीवन में। हमारे परिवार के साथ लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज का रिश्ता कभी अच्छा नहीं रहा। जिनकी उपस्थिति एक शीतल अहसास देती रही है, हमारे परिवार के उन लोगों को छीनने का काम मेडिकल कॉलेज ने किया है। पहले बाबाजी पंडित गणेश मिश्र, फिर प्रमोद चाचा, फिर अजित भइया और फिर मेरे पिता- मेजर विनोद कुमार मिश्र। आधी रात की मौत-सी खामोशी के बीच अपने पिता के मित्र डॉ. रूपनारायण गुप्त से जिस समय इस खबर को सुना था कि अब मेरे पिता का शरीर नहीं रहा, तब किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज के बारे में ऐसी भयावह धारणा मेरे किशोर मन में बनी थी, जो आज तक मिट नहीं पाई है। कई वर्षों तक, जब भी उस कॉलेज के सामने से गुजरता, तब पूरी कोशिश इस बात पर रहती कि उसकी तरफ देखने से खुद को बचाए रखूँ।
29 अगस्त, 1994 से बीस वर्ष गुजर गए, कैसे और कब गुजर गए, इसका मूल्यांकन कर पाना भी मेरे लिए बहुत कठिन है। अपने पिता के पर्वत-से व्यक्तित्व के सामने खुद को जाँचते-परखते ही इतना लंबा समय गुजर गया, शायद। लखनऊ विश्वविद्यालय से मेरे पिता ने अंग्रेजी में एम. ए. किया था। उसके बाद बाजपुर कॉलेज, नैनीताल में लगभग दो वर्षों तक अध्यापन कार्य और फिर हिंदू कॉलेज, अतर्रा में अंग्रेजी प्राध्यापक के रूप में उन्होंने अपनी सेवाएँ दीं। नेशनल कैडेट कोर (एन.सी.सी.) के केयर टेकर से लगाकर 60 उ.प्र. वाहिनी एन.सी.सी. के समादेशन अधिकारी तक क्रमशः अपने दायित्वों का निर्वाह किया। समाजकार्य के क्षेत्र में एक छोटी-सी संस्था- गौपैक को जन्म देकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया। अपने पिता के बारे में इतना-सा परिचय देते हुए लगता है, जैसे पर्वत की तुलना राई से की जा रही हो। अपने माता-पिता, अपने निकटस्थ परिजन हर किसी को प्रिय, महान और सर्वश्रेष्ठ लगते हैं। बीस वर्षों के लंबे कालखंड में जब भी अपने पिता के मित्रों या उनके शिष्यों से मिला और उनकी भीगी हुई पलकों को देखा, तब हर बार अहसास किया कि मेरे पिता केवल मेरे लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी महान और श्रेष्ठ थे।
इतिहास और पुराणों में अपना विशेष स्थान रखने वाली सई नदी के किनारे पर बसा हमारा छोटा-सा गाँव हाजीपुर गोशा अपनी भौगोलिक विशिष्टता के कारण ऐसा रहा कि आजादी के बाद भी वहाँ विकास के भागते मानदंडों को खोज पाना कठिन है। इन विषम परिस्थितियों के बीच हमारे बाबाजी पंडित गणेश मिश्र सरकारी पाठशाला के प्रधानाध्यापक के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे। हमारे गाँव में ही नहीं, पूरे क्षेत्र में पंडितजी के नाम से पहचाने जाने वाले हमारे बाबाजी हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान थे। अवधी लोकसंस्कृति से भी उनका गहरा जुड़ाव था। बनरा उपनाम से वे कविताएँ और गीत भी लिखा करते थे। उन्होंने अत्यंत सरल भाषा में श्रीमद्भगवद्गीता का पद्यानुवाद भी किया, जो सन् 1937 में पं. मदनमोहन शुक्ल ‘मदनेश’ के साहित्य मंदिर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित हुआ। एक ओर लोकसाहित्य तो दूसरी ओर शिष्ट साहित्य के सर्जन की परस्पर विरोधी स्थितियाँ उनके व्यावहारिक जीवन में भी देखने को मिलती थीं। अंग्रेज हुक्मरानों और तत्कालीन शिक्षा विभाग के आला अफसरानों के दौरों का प्रबंधन बाबाजी के हाथों में ही हुआ करता था। हफ्तों तक एक स्थान से दूसरे स्थान पर पड़ाव डालकर अंग्रेज मुलाजिम जाँच-पड़ताल करते रहते और पंडितजी का सहयोग उन्हें मिलता रहता। बरसात का मौसम आते ही पतली-सी जलधारा के रूप में बहने वाली सई नदी विकराल रूप ले लेती, उसके भरोसे जिंदा रहने वाले छोटे-बड़े नाले भी उफना उठते थे। इसके कारण हमारा गाँव टापू जैसा बन जाता। देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों के लिए बरसात के चार महीने काटना बहुत कठिन हुआ करता था, क्योंकि उन दिनों अंग्रेजों से स्वयं को बचाने के लिए भागना और अपने जीवन को बचाना कठिन हो जाता था। अंग्रेज अफसर भी शायद इसी मौके की तलाश में रहते थे। तब हमारा गाँव और हमारे बाबाजी नई भूमिका में होते। प्राकृतिक रूप से सुरक्षा के घेरे में बंद हो जाने वाला हमारा गाँव क्रांतिकारियों के लिए सुरक्षित शरणगाह बन जाता।
हमारे गाँव से लगभग बीस-पचीस किलोमीटर दूर स्थित काकोरी का देश के स्वाधीनता आंदोलन में बड़ा नाम है। काकोरी की ट्रेन डकैती ने अवध में अंग्रेज हुक्मरानों की पेशानी पर बल डाल दिए थे। काकोरी कांड से हमारे गाँव का क्या संबंध है, इसके ऐतिहासिक साक्ष्य जुटा पाना कठिन है, फिर भी हमारे बाबाजी द्वारा स्थापित ककोर बाबा का छोटा-सा मंदिर मुझे कई मायनों में इन सूत्रों को जोड़ता हुआ प्रतीत होता है। गाँव से बाहर ऐसे स्थान पर, जहाँ पहुँच पाना आसान न हो, वहाँ बाबाजी ने ककोर बाबा की प्राण-प्रतिष्ठा कराई, एक तालाब भी खुदवाया। खेत में बना यह कच्चा तालाब बना रहे, इसके लिए यह मान्यता भी प्रचलित हो गई कि जो व्यक्ति इस तालाब से पाँच अँजुरी मिट्टी निकालेगा, उसे साल भर फोड़े-फुंसियाँ या चर्मरोग नहीं होगा। आज भी उस तालाब का अस्तित्व बरकरार है। हमारे कुलदेवता के रूप में पूजे जाने वाले ककोर बाबा की नियमित पूजा की परंपरा भी बरकरार है।
इन्हीं विशिष्टताओं को लेकर खानदान-ए-गणेशी (आनंद चाचा इस शब्द का अकसर उपयोग किया करते हैं।) ने पुख्ता शक्ल अख्तियार की। विनोद, प्रमोद, आनंद और अशोक। प्रफुल्लता, उत्साह और उमंग से भरी मनःस्थितियों को व्याख्यायित करती ये चार स्थितियाँ उन चार लोगों के नाम बनीं, जिन्हें वल्दियत के रूप में पंडितजी सरीखा कर्मठ किसान, निष्काम कर्मयोगी, समर्पित शिक्षक और आस्थावान देशभक्त मिला था। स्वाभाविक ही था कि पैतृक और परिवेशगत उपलब्धियाँ अपनी छाप छोड़ें। आनंद चाचा अकसर बताते हैं कि जब तक घर में साइकिल नहीं आई थी, तब तक लखनऊ पैदल ही जाना होता था। मोहान के रास्ते से लखनऊ तक की पैदल यात्रा करके पढ़ाई की ललक लिए, कंधे में टंगे झोले में राशन-पानी ढोते हुए उस कर्मठता की इबारत लिखी जाती, जिसकी कल्पना कर पाना भी हमलोगों के लिए असंभव है।
आनंद चाचा की नौकरी सबसे पहले लगी। वे डाक विभाग में मुलाजिम बने और साथ ही लखनऊ और गाँव के बीच संपर्क-सेतु भी बने, अपनी नई साइकिल के जरिए। छुट्टी के दिनों में वे साइकिल में राशन-पानी बाँधकर लखनऊ पहुँचाते। लखनऊ की टिकायतराय कॉलोनी में पिताजी रहते थे। उन्ही दिनों लखनऊ में सिटी स्टेशन के पास बड़ी बुआ (स्व. श्रीमती कांति द्विवेदी) का मकान बन रहा था। फूफाजी उत्तरप्रदेश सचिवालय में थे। बुआजी के निर्माणाधीन मकान में पिताजी और उनके मित्रों श्री चंद्रप्रकाश बडथ्वाल, श्री रामप्रताप द्विवेदी और श्री रामप्रकाश गुप्त का जमावड़ा रहता। श्री रामप्रकाश गुप्त बाद में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने। उस समय प्रमोद चाचा लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. (राजनीतिविज्ञान) में गोल्ड मेडल लेकर उत्तीर्ण हुए थे। प्रमोद चाचा लखनऊ विश्विद्यालय के छात्रावास में रहते थे, वहीं एक दिन वे मरणासन्न हालत में पाए गए। मेडिकल कॉलेज में उन्हें भर्ती किया गया और वहीं पर उनका देहांत हो गया। हमारे बाबाजी पिताजी को बच्चूलाल कहा करते थे। पिता और पुत्र के बीच महीनों मुलाकात नहीं हो पाती थी। अशोक चाचा बहुत छोटे थे और गाँव की पाठशाला में पढ़ते थे। बाबाजी और पिताजी के बीच पत्राचार के जरिए ही संवाद होता। इन पत्रों के विषय भी साहित्यिक गंभीरता से पूर्ण और वैचारिकता के शीर्ष पर स्थित होते थे।
लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्र-राजनीति का उत्तरप्रदेश की विधानसभा तक दबदबा रहा करता था। पिताजी विश्वविद्यालय छात्रसंघ के जूनियर लाइब्रेरियन चुने गए। उन दिनों देश और प्रदेश की राजनीति में बड़े उतार-चढ़ाव हो रहे थे। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू अकसर लखनऊ आया करते और उनकी सभाओं के संचालन का जिम्मा प्रायः पिताजी पर होता था। गोविंद वल्लभ पंत संयुक्त प्रांत (यूनाइटेड प्राविएंसेस) के प्रधानमंत्री बने थे और बाद में उत्तरप्रदेश के गठन के बाद पहले मुख्यमंत्री बने थे। काकोरी कांड के साथ पंत जी का गहरा संबंध था। उन्होंने शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह और अन्य क्रांतिकारियों को बचाने के लिए अदालत में जबरदस्त पैरवी की थी। बाद में पं. मदनमोहन मालवीय जी के साथ मिलकर उन्होंने वायसराय को एक पत्र भी लिखा था, किंतु गांधी जी का सहयोग न मिलने के कारण काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को बचा पाना संभव नहीं हुआ। पिताजी पंत जी के संपर्क में आए। उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुए कि 1983 में उन्होंने गोविंद वल्लभ पंत शिक्षा पारितोषिक संकाय (गोपैक) को मूर्त रूप दिया। वे अकसर कहा करते कि यह संस्था उनका पाँचवाँ बेटा है। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गोपैक के प्रति उनका असीमित समर्पण मुझे अकसर ही बाल-सुलभ ईर्ष्या के लिए प्रेरित कर दिया करता था। मेरी माताजी श्रीमती रंजना मिश्रा को भी शायद ऐसा महसूस होता रहा। हालाँकि पिताजी के जाने के बाद हमलोगों की धारण एकदम बदल गई और विरासत के रूप में मिली इस जिम्मेदारी को पूरे मनोयोग से निभाने के प्रयास में हमलोग आज भी लगे हैं।
आदरणीया सुचेता कृपलानी उत्तरप्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी थीं। देश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने का खिताब भी उनके हिस्से में ही है। आचार्य जे. बी. कृपलानी कांग्रेस विरोधी राजनीति के अग्रिम पंक्ति के नेता थे। पंडित नेहरू के देहांत के बाद लालबहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने थे। शास्त्री जी के साथ देश में नई क्रांति आई। देश में कांग्रेस का चेहरा भी बदलने लगा था। एक बँधे-बँधाए दायरे की राजनीति से निकलकर नएपन की सुगबुगाहट महसूस की जा रही थी। लखनऊ भी बदल रहा था। इसके सूत्रधार शायद शास्त्री जी ही थे। पिताजी भी इस क्रांति के, इस बदलाव के सहभागी बने। वे शास्त्री जी से जब भी मिलते, नई ऊर्जा ग्रहण करते। इस ऊर्जा का पहला सामाजिक उपयोग उन्होंने गाँव-जवार की दयनीय-विषम स्थिति से राजनेताओं का साक्षात्कार कराने में किया। केंद्र सरकार के नेताओं-मंत्रियों के साथ ही प्रदेश सरकार के मंत्रियों-विधायकों का जमावड़ा हमारे गाँव में अकसर लगा रहता। पिताजी को शास्त्री जी के व्यक्तित्व ने बहुत प्रभावित किया। उन्होंने शास्त्री जी के चित्रों का एक संकलन भी तैयार किया था। ताशकंद में जब शास्त्री जी का आकस्मिक निधन हुआ, तो पिताजी को भी गहरा आघात लगा था। मैंने अवधी में लिखी उनकी एक कविता- रहैं देही मा दुई पसुरी, मुलु नेता रहै गरीबन क्यार को पढ़कर उनकी वेदना का और उनकी तत्कालीन मनःस्थिति का अनुमान लगाया। शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के साथ देश की राजनीति एक परिवार के दायरे से बाहर निकलकर आई थी और उनके देहांत के बाद पुरानी स्थिति और विकृत होकर हावी हुई थी। आने वाले समय में देश ने आपातकाल भी देखा था।
जिन दिनों पिताजी लखनऊ में थे, उन दिनों लखनऊ साहित्यिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र होता था। हजरतगंज के कॉफ़ी हाउस में साहित्यिक-सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियाँ शिद्दत के साथ महसूस की जाती थीं। कॉफ़ी हाउस के साथ ही विश्वविद्यालय परिसर में, हज़रतगंज, क़ेसरबाग, चौक और अमीनाबाद की छोटी-बड़ी चाय की दूकानों में साहित्य-चर्चा के दौर चलते ही रहते थे। लखनऊ को वैसे भी नजाकत और नफ़ासत का शहर माना जाता है। पिताजी ने लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग द्वारा प्रकाशित की जाने वाली वार्षिक पत्रिका के छात्र-संपादक एवं अतिथि संपादक के रूप में कई वर्षों तक कार्य किया। हिंदी साहित्य के तत्कालीन नामचीन साहित्यकारों- अमृतलाल नागर, डॉ. धर्मवीर भारती और डॉ. भगवतीचरण वर्मा के सानिध्य ने पिताजी के साहित्यकार को विकसित किया, तो वी. के. कृष्ण मेनन, मोरारजी देसाई और नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. तुलसी गिरि व तत्कालीन शिक्षामंत्री यदुनाथ खनाल आदि के सानिध्य ने उनकी राजनीतिक-सामाजिक चेतना को विकसित किया था। लखनऊ विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलसचिव प्रो. ए. वी. राव और विधि संकाय के अधिष्ठाता प्रो. वी. एन. शुक्ल के संरक्षण में उनके व्यक्तित्व का विकास हुआ। उन्होंने विदेशी छात्रों के साथ लंबा समय गुजारा और भाषा अभियान के तहत देश-विदेश की कई यात्राएँ भी कीं। आजाद देश के हिस्से में एक दर्द यह भी था कि आजादी दिलाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली हिंदी को देश के कई हिस्सों में पसंद नहीं किया जाता था। संपूर्णानंद और जयप्रकाश नारायण के प्रयासों को युवा हाथों की ताकत मिल रही थी।
उन दिनों सार्वजनिक जीवन भी सादगी और सरलता से भरा होता था। साहित्यकार, राजनीतिज्ञ और सहृदय के बीच भेद नहीं होता था। उन दिनों को स्मरण करते हुए विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं कि हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की बैठकों में पुरानी-सी फटी दरी पर बड़े और छोटे, सभी बिना किसी भेदभाव के बैठते थे। वहाँ पर सारे अंतर मिट जाते थे। बड़प्पन जूते-चप्पलों के साथ दरवाजे पर ही उतर जाता था। वे एक प्रसंग उठाते हैं- एक सभा के दौरान विजलक्ष्मी पंडित को संपूर्णानंद जी देख रहे थे। एक अदने-से कवि ने व्यंग्य में लिखा- विजयलक्ष्मी ढिग लसत इमि संपूर्णानंद, जिमि अशोक वाटिका महि सियहिं लहावत दसकंध। कागज के टुकड़े में लिखी ये पंक्तियाँ हाथों-हाथ चलती हुई संपूर्णानंद जी तक पहुँचीं, उन्होंने पंक्तियों के रचनाकार को तलाशना चाहा, मगर तब तक कवि महोदय वहाँ से खिसक चुके थे। एक क्षण में ही संपूर्णानंद जी के चेहरे पर मुसकान तैर गई। पूरा सभागार ठहाकों से भर उठा। आज वैसी सादगी, सरलता और सहृदयता खोज पाना बहुत कठिन हो गया है। साहित्यकार, राजनेता और सहृदय व्यक्ति के अलग-अलग वर्ग बन गए हैं। इनका एकसाथ मिल पाना संभव नहीं रहा है। इन सबमें सहृदयता सबसे ज्यादा दुर्लभ हो गई है। उस समय के नामचीन साहित्यकार भी यह मानते थे कि समाज से उन्हें साहित्य-सर्जन हेतु प्रेरणा मिलती है, इस कारण वे समाज के प्रति कृतज्ञ होते थे, समाज भी उन्हें सिर-आँखों पर बैठाता था। आज के साहित्यकार ऐसे हैं, जैसे दूसरे लोक से बैठकर इस दुनिया को देखते हैं, फिर लिखते हैं। इस कारण समाज से उनका भावनात्मक जुड़ाव नहीं हो पाता है। पुराने साहित्यकार समाज के लिए प्रेरणास्रोत भी बनते थे, आदर्श भी बनते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि पिताजी जिन साहित्यकारों, समाजसेवकों, राजनीतिज्ञों के संपर्क में आए, उन्होंने पिताजी के बहुमुखी विकास में सकारात्मक योगदान दिया। पिताजी ने सामयिक विषयों पर अखबारों में कॉलम भी लिखे, हिंदी और अंग्रेजी में आलेख लिखे और कुछ कविताएँ, कहानियाँ और व्यंग्य भी लिखे। उनके द्वारा रचित व्यंग्य- अहमदी चच्चू तथा दो आलेख- टीनोपाल में धुले चावल और पत्र तथा ये बहरूपिया नैन मैंने बहुत पहले पढ़े थे, कई बार पढ़े थे, मगर उस समय की तासीर का, सामयिक यथार्थ का तल्ख, सटीक और समग्र विवरण उनके लेखन में समझ पाने में मुझे कई वर्ष लग गए।
मेरे पिता ने मुझसे कभी जिक्र नहीं किया, मगर बड़ी बुआ के बड़े बेटे विनय दद्दू ने मुझे बताया कि लखनऊ में सिटी मांटेसरी स्कूल की स्थापना में पिताजी का योगदान रहा है। उन्होंने सिटी मांटेसरी स्कूल के प्रबंधक और संस्थापक डॉ. जगदीश गांधी के साथ पिताजी के संबंधों की चर्चा भी मुझसे कई बार की। अपने पिता के पुराने चित्रों में से सन् 1960-61 के कुछ चित्र और उनके कुछ पुराने कागजात इस बात की पुष्टि भी करते हैं। बाद के वर्षों में क्या हुआ, यह तो अतीत के गर्त में दबकर रह गया है, मगर जब सिटी मांटेसरी स्कूल की सफलता की खबरें सुनता या देखता हूँ तो एक सुखद अनुभूति होती है। विनय दद्दू ने यह भी बताया कि सिटी मांटेसरी स्कूल की स्थापना, विकास और बाद में उससे संबंध-विच्छेद ने उनके मामाजी के सामने ऐसी चुनौती खड़ी कर दी, जिसे पूर्ण करने के लिए उन्होंने अस्सी के दशक में बुंदेलखंड के पाठा-तिरहार क्षेत्र के अत्यंत पिछड़े इलाक में समाजकार्य का अनूठा और अपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया। अस्सी के दशक में बाँदा जनपद के पाठा और तिरहार क्षेत्र में डकैतों, पूँजीपति दबंगों और सरकारी मुलाजिमों का ऐसा कहर बरपता था कि सीधे-सादे गरीब लोगों का जीवन गुलामों से भी बदतर होकर रह गया था। इन विषम स्थितियों को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए पिताजी ने पाठा-तिरहार क्षेत्र में पहली बार महिलाओं को घर की चहारदीवारी से बाहर निकाला, उन्हें संगठित किया। लगभग बीस अनौपचारिक-व्यावसायिक शिक्षण केंद्रों, पुस्तकालयों और विधिक परामर्श केंद्रों के माध्यम से इस क्षेत्र में जन-जागरूकता लाने का अनूठा-अभिनव प्रयोग उन्होंने किया।
एक आदर्श शिक्षक के रूप में, एक जिम्मेदार-जागरूक नागरिक के रूप में उनकी सक्रियता को जितना मैंने देखा था, उससे कहीं ज्यादा महसूस किया, उनके जाने के बाद। उनके जीते-जी उनको इतनी गहराई से समझ पाना शायद मेरे लिए संभव नहीं हो पाता। अपने जीवन में संघर्षों-बाधाओं से डटकर मुकाबला करते हुए मेरे पिता ने जिस जीवन को जिया, वह मेरे लिए और शायद कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बन गया, प्रतीक बन गया। उनके जाने के साथ ही मेरे जीवन में एक युग का अंत हो गया, बीस बरस गुजर गए, मगर लगता है कि यह कल की ही बात हो। अपने पिता को याद करके मेरी आँखों में आँसू नहीं आते, क्योंकि मुझे अपने जीवन के हर-एक मोड़ पर उनकी उपस्थिति का अहसास होता है।
सन् 2000 में मैं अपने गाँव गया हुआ था। घर के बाहर बैठा था, तभी पता लगा कि ककोर बाबा के मंदिर के पास एक पेड़ पर दो कबूतर बैठे हुए हैं और उनकी उपस्थिति असामान्य-सी है। मैं खुद को रोक नहीं सका और वहाँ पहुँच गया। भारी भीड़ के बावजूद दोनों कबूतर निडर होकर बैठे हुए थे, लोगों ने बताया कि वे सुबह से बैठे हुए हैं। लोगों का अच्छा-खासा मजमा सुबह से ही लगा हुआ था। उन्हें देखकर लगा कि वे आपस में मशविरा कर रहे हैं। आठ अगस्त की शाम की इस घटना के अगले दिन काकोरी कांड की पचहत्तरवीं सालगिरह मनाई गई थी।
आचार्य जे. बी. कृपलानी और श्रद्धेया सुचेता कृपलानी से मेरे पिता को विशेष स्नेह मिला। वे दोनों मेर पिता को पुत्रवत् मानते थे। आचार्य कृपलानी के कद्दावर, निडर, साहसी और दृढ़ व्यक्तित्व ने, उनके भाषण-कौशल ने और एक आदर्श शिक्षक की उनकी भूमिका ने मेरे पिता के व्यक्तित्व का निर्माण किया। गोविंद वल्लभ पंत और लालबहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व ने मेरे पिता को गढ़ा था। इनके साथ ही मेरे बाबाजी और साथ ही ककोर बाबा ऐसे प्रतीकों के रूप में मेरे जीवन में आए, जिनके व्यक्तित्व का समेकित पुंज मैंने अपने पिता में देखा। नियति ने उस महामना के वंशज के रूप में जो पहचान मुझे दी, उसकी गरिमा को बनाए रखने की जद्दोजहद के बीच हर साल अपने पिता को स्मरण करना मुझे दुःख, अपार वेदना और असुरक्षा का अहसास कराता है। बड़े पेड़ की छत्रछाया के नीचे एक ओर छोटे पौधे पनप नहीं पाते, वहीं दूसरी ओर आँधी-पानी के संकट से सुरक्षित रखने में बड़े पेड़ का योगदान रहता है। बड़े पेड़ के गिरने के बाद असुरक्षा का भाव अजीब दहशत भर देता है। उस दहशत को जीते-भोगते बीस वर्षों के अंतराल में, जब खुद को बड़े पेड़ की भूमिका में पाता हूँ, तब भी उस दहशत से खुद को मुक्त नहीं रख पाता हूँ। मुझे आज भी उनकी लड़खड़ाती आवाज का अहसास होता है- आई एम स्टिल ट्रीटेड अनट्रीट, उनको समझ पाने में शायद मैं भी असफल रहा, उनके संपर्क के लोग भी असफल रहे और आज भी उन्हें समझ पाना कठिन लगता है। फिर भी उनके अभाव को उनके जाने के बाद महसूस करना ही नियति है, काल की गति में लिखी सच्चाई है। एक भरोसा, एक आत्मविश्वास जरूर मुझे शक्ति देता है, जब मैं अपने पिता की अशरीरी उपस्थिति को अपने नजदीक पाता हूँ।    
डॉ. राहुल मिश्र
(अपने पिताजी के कुछ पुराने चित्रों के माध्यम से उनकी स्मृतियों को साझा करने का प्रयास किया है।)  






श्रद्धेय अमृतलाल नागर, डॉ. धर्मवीर भारती और डॉ. भगवतीचरण वर्मा के साथ

गौपैक द्वारा आयोजित समाज संस्कार बाल मेला


स्काट प्रोफेसर पीटर ड्राई का स्वागत, मुख्य वक्ता प्रो. मोहन












प्रो. वी. एन. शुक्ल (अधिष्ठाता, विधि संकाय), श्री अशोक निगम (शोध-छात्र), प्रो. ए. वी. राव (उपकुलपति), डॉ. तुलसी गिरि (प्रधानमंत्री, नेपाल सरकार), श्री सत्यदेव त्रिपाठी (शोध-छात्र), श्री विजय त्रिवेदी (शोध-छात्र) तथा श्री विनोद मिश्र

श्री जेफरी सुरेश राम, श्री विनोद मिश्र, श्री अशोक निगम, मा. श्री वी. के. कृष्ण मेनन (प्रतिरक्षा मंत्री, भारत सरकार), प्रो. ए. वी. राव (उपकुलपति), श्री विजय त्रिवेदी (शोध-छात्र), प्रो. वी. एन. शुक्ल (अधिष्ठाता, विधि संकाय) एवं श्री गोमती भारतीय

हिंदू कॉलेज, अतर्रा में प्राचार्य श्री कामतानाथ उपाध्याय के साथ
     

Sunday 17 August 2014

सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान


सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान
सआदत हसन मंटो उर्दू के सर्वाधिक विवादास्पद, चर्चित और महत्त्वपूर्ण लेखक के रुप में जाने जाते हैं। मुंशी प्रेमचंद के बाद उर्दू कहानी को एक नया आयाम देने और अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से उर्दू कहानियों में नए आयाम सृजित करने का कार्य सआदत हसन मंटो ने किया। मंटो की खूबी यह है कि वे अपने जीवनकाल में जितने चर्चित रहे, उतने ही चर्चित और प्रासंगिक आज भी हैं। मंटो का रचनाकाल आज के दौर से एकदम अलग था। उस समय साहित्य से अपेक्षाएँ थीं कि साहित्य अपने माध्यम से देश की आजादी की लड़ाई के लिए योगदान दे, किंतु मंटो ने इस भूमिका को अलग अंदाज में निभाया। उन्होंने समाज के उस क्रूर और कटु यथार्थ को, उस हकीकत को तरजीह दी, जो उस जमाने में वर्जित हुआ करती थी। इसी कारण वे जीवन-भर विवादों में रहे। उन पर आरोप भी लगे, उन्हें ताने-उलाहने भी मिले और उन पर मुकदमे भी चले। मंटो की रचनाओं में जितनी विविधता, जितना संघर्ष और जितनी सपाटबयानी नज़र आती है, वही सब उनकी जिंदगी में भी देखने को मिलती है।
उर्दू जुबान के इस नामचीन अफ़सानानिगार का जन्म पंजाब के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1911 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के खानदान में हुआ था। उनके वालिद गुलाम हसन नामचीन बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था। मंटो उन्हें बीबीजान कहा करते थे। उनके पिता जितने सख्तमिजाज थे, उनकी माता उतनी ही नर्म स्वभाव वाली थीं। मंटो अपने माता-पिता के बारे में एक जगह लिखते हैं कि- उनके वालिद, ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तग़ीर थे, और उनकी वालिदा बेहद नर्मदिल। इन दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाज़ा आप कर सकते हैं। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार थे और शरारती भी थे। उर्दू में कमजोर होने के कारण एंट्रेंस इम्तिहान में दो बार फेल होने के बाद मंटो को अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में दाखिला मिला। इन्ही दिनों मंटो ने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक मंडली बनाई। इस नाटक मंडली ने आगा हश्र के एक नाटक के मंचन की तैयारी भी शुरू कर दी। एक खानदानी बैरिस्टर को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था कि उसका बेटा नाच-गाने जैसी निम्न और समाज में बुरी नज़र से देखी जाने वाली गतिविधि में शामिल हो, लिहाजा मंटो के वालिद साहब ने एक रोज़ मंटो के हारमोनियम और तबले फोड़ दिए। इसके बाद नाटक मंडली ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। मंटो के वालिद ने उन्हें तीखे अल्फाज़ में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शगल उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। इसके बावजूद मंटो की रचनाधर्मिता थमी नहीं। सन् 1931 में मंटो का दाखिला हिंदू महासभा कॉलेज में हुआ। उन दिनों देश की आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। 1919 के जलियाँवाला बाग की घटना ने सात वर्ष के बालक मंटो के दिल और दिमाग पर गहरा प्रभाव डाला था। अपने आसपास क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर, इंकलाब जिंदाबाद के नारे सुनकर मंटो की इच्छा भी होती थी कि वह क्रांतिकारी गतिविधियों में शरीक हो जाए, मगर हर बार वालिद की सख़्तगीरी आड़े आ जाती थी। पिता के सख्त विरोध के बावजूद मंटो अदब से मुखातिब हुए और उनका पहला अफ़साना ‘तमाशा’ नाम से तैयार हो गया। इस कहानी में मंटो ने सात वर्ष के बालक खालिद की मानसिक स्थिति के जरिए जलियाँवाला बाग की घटना को अंजाम देने वाली विनाशक-क्रूर ताकतों की बर्बरता को पेश किया। सन् 1934 में 22 वर्ष की उम्र में मंटो ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, तब उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई। प्रगतिशील विचारधारा और देश की आजादी की लड़ाई की प्रेरणा से सन् 1935 में उनकी दूसरी कहानी- इनक़िलाब पसंद आई, जो अलीगढ़ मैगजीन में प्रकाशित हुई। मंटो की एक और कहानी- 1919 की बात में भी यही संदर्भ देखने को मिलता है। इस कहानी में इतिहास के जरिए कहानी बुनने के हुनर को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को कहानी में पिरोकर कहने की परंपरा मुंशी प्रेमचंद के जमाने में थी। मंटो ने भी ऐसा ही किया, मगर अपने खास अंदाज में। देश की आजादी की लड़ाई को मंटो ने अपनी कई कहानियों में अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया है। नया कानून कहानी में मंगू कोचवान के जरिए मंटो ने आजादी के दिनों की आम आदमी की मानसिकता को व्यक्त किया है। स्वराज्य के लिए कहानी में मंटो की क्रांतिकारी-साम्यवादी विचारधारा का गांधीवाद के साथ विरोध प्रकट होता है। इस कहानी के पात्रों- गुलाम अली और निगार के बीच संबंधों के जरिए आजादी की लड़ाई में शामिल दो अलग-अलग विचारधाराओं की पड़ताल की गई है। दो कौमें, एक ख़त, दो गड्ढे, नारा, यजीद और खाली बोतलें खाली डिब्बे कहानियों में मंटो ने राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों को बड़ी शिद्दत से व्यक्त किया है।
मंटो को अफ़सानानिगार बनने की प्रेरणा रूसी साम्यवादी साहित्य और फ्रांसीसी साहित्य के अनुवाद कार्य करने से मिली। अब्दुल वारी नामक एक पत्रकार की प्रेरणा से मंटो ने अपने लेखन की शुरुआत अनुवाद के माध्यम से की थी। सन् 1932 में मंटो के वालिद का इंतकाल हो गया था, उन्ही दिनों भगत सिंह को फाँसी की सजा दी गई थी, लिहाजा मंटो ने अपने कमरे में अपने वालिद की फोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखकर कमरे के बाहर ‘लाल कमरा’ लिख दिया था। मंटो की इस साम्यवादी वैचारिक पृष्ठभूमि ने उनके लेखन की नींव डालने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मंटो की कहानियों में राजनीतिक और सामाजिक पड़ताल के नजरिए का विकास उनकी साम्यवादी चिंतनधारा और प्रगतिशील वैचारिकता के कारण हुआ।
राजनीति और समाज के अलावा मंटो ने अपनी कहानियों के जरिए धर्म और साहित्य की हकीकतों का पर्दाफाश भी किया है। शहीद साज़ और शहदौले का चूहा कहानियों में मंटो ने अंधविश्वासों में जकड़े समाज की ऐसी कड़वी हकीकत को साझा किया है, जिसे सभ्य समाज द्वारा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कहानियों में मंटो ने सभ्य कहे जाने वाले समाज की भ्रष्टता को बड़ी कलात्मकता और व्यंग्य के साथ उभारा है। खुदा की कसम कहानी के जरिए मंटो ने उन साहित्यकारों की खबर ली है, जो अपने समय और समाज की हकीकतों से दूर ख्वाबों की दुनिया में मशगूल रहते थे। साहित्य की समाज और सच्चाई से दूरी को मंटो ने न केवल महसूस किया, वरन् इस संकट का डटकर मुकाबला भी किया। मंटो के द्वारा लीक से हटकर चलने की इस कोशिश ने उर्दू कहानी को भी एक नई दिशा दी। आज की उर्दू कहानी अगर समय की सच्चाई से, समाज की हकीकत से और कथ्य की प्रभावोत्पादकता से जुड़ी है, तो इसे मंटो का योगदान ही माना जाएगा।
 मंटो ने अपने आसपास की जिंदगी को, अपने समय की सच्चाई को खुली आँखों से न केवल देखा था, वरन् उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके अफसाना बनाया था। उस दौर की एक और कड़वी सच्चाई थी, देश का विभाजन और विभाजन के बाद होने वाले दंगे। गंगा-जमुनी तहजीब को लहूलुहान कर देने वाला यह जख़्म मंटो की कहानियों में लगातार रिसता रहा। मंटो के लिए विभाजन की त्रासदी को सह पाना बहुत कठिन था। इसी कारण दंगों के दुष्प्रभाव और विकृत स्थितियों का जितना मार्मिक चित्रण मंटो की कहानियों में देखने को मिलता है, उसे कहीं और ढूँढ़ पाना बहुत कठिन है। मंटो की बहुचर्चित कहानी- टोबा टेकसिंह इसी तासीर की बहुत मार्मिक कहानी है। कहानी में दो देशों के बीच की जगह में चीख-चीखकर अपनी जान दे देने वाला टोबा टेकसिंह राजनीति की क्रूरता के सामने दम तोड़ने वाली गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है। इसी तरह टिटवाल का कुत्ता कहानी में  विभाजित देश की सीमाओं में एक ओर तैनात सूबेदार हिम्मत खाँ और दूसरी ओर तैनात जमादार हरनाम सिंह की गोलियों से छलनी होकर मरने वाला टिटवाल का कुत्ता उस आम आदमी की प्रतीक है, जिसे कभी हिंदुस्तानी होकर तो कभी पाकिस्तानी होकर राजनीतिक वहशीपन का शिकार होना पड़ता है। ठंडा गोश्त, खोल दो और नंगी आवाजें कहानियों को लेकर मंटो के ऊपर अश्लीलता के आरोप लगे थे और उन पर मुकदमा भी चला था। इन कहानियों को भले ही अश्लील कहकर मंटो पर आरोप लगाए जाएँ, मगर दंगों की भयावहता के बीच मानवता को शर्मसार करने वाली स्थितियों को जितनी शिद्दत के साथ इन कहानियों में प्रकट किया गया है, उसे कहीं और देख पाना संभव नहीं है। गुरमुख सिंह की वसीयत, शरीफन, रामखेलावन और मोजेल भी ऐसी ही कहानियाँ हैं, जिनके जरिए देश विभाजन के वक्त दंगों की भयावहता को और दंगों के पीछे काम कर रही क्रूर मानसिकता को समझा जा सकता है। दंगों पर ही केंद्रित कहानी- सहाय में मंटो लिखते हैं कि- वे लोग बेवकूफ हैं, जो समझते हैं कि बंदूकों से मजहब शिकार किए जा सकते हैं- मजहब, दीन, ईमान, धर्म, यकीन, विश्वास- ये जो कुछ भी हैं हमारे जिस्म में नहीं, आत्मा में होते हैं- छुरे, चाकू और गोली से ये कैसे फ़ना हो सकते हैं। मंटो का यह विचार इंसानियत के प्रति असीमित आस्था को, उनके मानवीय दृष्टिकोण को प्रकट करता है। आज के वैश्विक संदर्भ में मंटो का यह कथन एकदम सही और सटीक लगता है।
सआदत हसन मंटो की कहानियों में जिस तरह की हकीकत और बेचैनी यक्साँ है, वैसी ही उनके जीवन में भी दिखती है। मंटो 1935 में अलीगढ़ से लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने पारस अखबार में काम किया और मुसव्विर का संपादन भी किया। वे कुछ दिन बाद ही मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने फिल्मों की पटकथाएँ लिखने और फिल्म-जगत् की पत्रिकाओं में लेखन कार्य किया। मुंबई में चार साल गुजारने के बाद मंटो दिल्ली आ गए और और लगभग डेढ़ वर्षों तक आकाशवाणी में काम किया। यहीं पर उन्होंने बेहतरीन रेडियो-नाटक लिखे, जो आओ, मंटो के ड्रामे, जनाज़े और तीन औरतें संग्रहों में प्रकाशित हुए। दिल्ली प्रवास के दौरान ही मंटो का लेख-संग्रह- मंटो के मज़ामीन प्रकाशित हुआ। दिल्ली से एक बार फिर मंटो मुंबई चले गए। मुंबई के अपने प्रवास के दौरान मंटो ने अपनी नगरिया, आठ दिन और मिर्जा गालिब फिल्मों की पटकथाएँ लिखीं।
मंटो को भले ही अफ़सानानिगार के रूप में पहचान मिली हो, मगर मंटो बेहतरीन नाटककार भी थे। मंटो ने खासतौर पर रेडियो-नाटक लिखे हैं, मगर उनके नाटकों में मानसिकता की पड़ताल, समय और समाज की हकीकत और मानवीय संबंधों की जटिलता को उसी तल्खी के साथ देखा जा सकता है, जैसी उनके अफ़सानों में नज़र आती है। कबूतरी, नीली रगें, कमरा नंबर 9, रणधीर पहलवान, माचिस की डिबिया, रासपुतिन की मौत, नेपोलियन की मौत और चंगेज खाँ की मौत आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।
मंटो ने अपने जीवन में अनेक संघर्षों को झेलते हुए, अश्लीलता के आरोपों में अदालतों के चक्कर लगाते हुए, समाज की विकृतियों से विचलित होकर भटकते हुए बदकिस्मती को भोगते हुए सारा जीवन गुजार दिया। यह अजीब इत्तेफ़ाक था कि जिस दिन मंटो ने लाहौर में आखिरी साँस ली थी, उस दिन मंटो की लिखी फिल्म मिर्जा ग़ालिब दिल्ली में हाउसफुल चल रही थी। अंतोव चेखव के बाद मंटो ही ऐसे कहानीकार थे, जो अपनी कहानियों के बूते ही प्रसिद्ध हो गए। यह अलग बात है कि उनके जीते-जी उनका उचित मूल्यांकन नहीं हो सका। हिंदी और उर्दू के वर्तमान साहित्य में मंटो जितने चर्चित हुए हैं, उतनी चर्चा किसी दूसरे साहित्यकार की नहीं हुई है। हिंदी और उर्दू के आधुनिक कथा-साहित्य में मंटो की बराबरी करने वाला कोई साहित्यकार नज़र नहीं आता है। वर्तमान साहित्य यथार्थ और समय की हकीकत से जुड़ रहा है, इस कारण मंटो के लेखन को देखने का नया नजरिया विकसित हुआ है।  
उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौक़ी के मुताबिक- दुनिया अब मंटो को समझ रही है। भारत और पाकिस्तान में उन पर बहुत शोध-कार्य हो रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिए सौ वर्ष भी कम हैं। वे लिखते हैं कि- शुरुआत में मंटो को दंगों, फिरकावाराना वारदातों और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य-सा साहित्यकार माना जाता था, लेकिन मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाटबयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं।
मंटो ने अपने 19 साल के साहित्यिक जीवन में लगभग 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द-चित्र और 70 लेखों की रचना की। अपने छोटे-से साहित्यिक जीवन में उर्दू और हिंदी साहित्य को नई दिशा देने और कालजयी रचनाओं के जरिए समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू कराने वाला यह अफ़सानानिगार तमाम जिल्लतें, अनेक ताने-उलाहने, ढेरों मुसीबतें और अभाव से भरी हुई जिंदगी को अपने बेबाक-बिंदास अंदाज में जीते हुए 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में हमें अलविदा कह गया।   

 डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 अगस्त, 2014 को प्रातः 0830 बजे प्रसारित)