Showing posts with label समाज. Show all posts
Showing posts with label समाज. Show all posts

Wednesday, 14 May 2025





बदलते नामों और छाँह की दीवार का एक गाँव


चलिए, अब दोबारा कभी मिलना होगा....।

फिर कभी ऐसा संयोग बनेगा, तो मिलेंगे...। यादें साथ रह जाती हैं।

हमारा इतना कहना हुआ, कि तुरंत ही करनल साहब ने बड़े दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया- “साहब! जिंदगी में ऐसे ही मोड़ आते हैं, लोग मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं.....। यह तो एक पड़ाव है, ठिकाना है। जिंदगी भी ऐसी ही है, साहब।”

करनल साहब की बात सुनकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। पिछले तीन दिनों में हमने करनल सिंह को इतने दार्शनिकाना अंदाज में नहीं देखा था। परिचय भी तीन दिन ही पुराना था। निःसंदेह किसी आदमी को एक बार में नहीं जाना जा सकता.... और यहाँ कुल जमा तीन दिन यानि पैंसठ-सत्तर घंटे...। लोग तो बरसों-बरस साथ रहकर भी एक-दूसरे को नहीं जान पाते हैं। खैर, करनल साहब को समझने के लिए हमें इतने लंबे समय की आवश्यकता नहीं थी। खुला हुआ और सीधा-सपाट स्वभाव करनल सिंह का था। जटिलता नहीं थी, जिस कारण बातें सरल और सहज थीं। तब आखिर यह दार्शनिकाना अंदाज कहाँ से आ गया? प्रश्न मन में उठा, उत्तर भी कौंध गया।

वस्तुतः, यह स्थान का प्रभाव बोल रहा था। करनल सिंह जम्मू-काश्मीर पुलिस के संभवतः हवलदार रैंक के कर्मी थे। किसी सरकारी काम ने हमारे साथ करनल सिंह को तैनात कर दिया था, जिस कारण करनल सिंह तीन दिनों तक हमारे साथ थे। हम जिस स्थान पर थे, वह हमारे अनुमान से अतीत के एक रोचक अध्याय से कम न था। उसी स्थान का प्रभाव करनल सिंह के सिर चढ़कर बोल रहा था, ऐसा हमको अनुभूत हुआ, उनके इस कथन को सुनकर।

क्यागर, तिगर, टाईगर, टिगर जैसे नाम...। ये अलग-अलग नाम एक ही गाँव के हैं, जहाँ हम लोग पिछले तीन दिनों से डेरा डाले हुए थे, और आज की सुबह चल पड़ने के लिए तैयार खड़े थे। गाड़ी वाला गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने गया था, क्योंकि हमें लंबा रास्ता तय करना था, और ऊपर से खरदुंग ला को भी पार करना था। खरदुंग हमारे लिए खर तुंग है, जिसकी बड़ी तीव्र चढ़ाई-उतराई है..., तुंग है। विश्व की सबसे ऊँची ‘मोटरेबल रोड’ भी यही है। गाड़ी वाले के आने तक चारों ओर एक बार फिर से नजर दौड़ाकर पूरे क्यागर गाँव की सुंदरता को, इसके आकर्षण को अपनी स्मृतियों के लिए सँजो लेना चाहते थे।

क्यागर गाँव आज भले ही बड़ा शांत और ठहरा हुआ-सा दिख रहा हो, लेकिन अतीत की कल्पनाओं में मन उतरा, तो बहुत गहरे उतरता चला गया। रेशम मार्ग से लगा हुआ क्यागर गाँव एक समय में रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था। समरकंद बुखारा से लगाकर ईरान-ईराक-अफगानिस्तान तक चला जाने वाला यह रेशम मार्ग अपने साथ न जाने कितने लोगों को जोड़ता रहा, अनुमान लगाना कठिन है। अनुमान तो इसका भी नहीं लगाया जा सकता, कि कितनी संस्कृतियाँ, कितने विचार, कितने व्यवहार और कितनी प्रजातियाँ इस रेशम मार्ग से होकर आईं-गई-फैलीं-पसरीं और विचरीं...। इन अनेक यात्राओं के साक्षी रेशम मार्ग के किनारे बसे कितने गाँव और नगर होंगे, यह भी सहज ही नहीं जाना जा सकता।

क्यागर गाँव में न जाने कितने लोग आए होंगे, ठहरे होंगे, कुछ समय के लिए डेरा डाला होगा, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़े होंगे... ठीक वैसे ही, जैसे हम चल पड़ने को तैयार खड़े थे। हर बार जब किसी बटोही ने चल पड़ने के लिए अपना सामान बाँधा होगा, अपने साथियों से भावुक होकर फिर मिलने के वायदे किए होंगे, तब हर बार किसी साथी ने करनल सिंह की तरह दार्शिकाना अंदाज में उत्तर दिया होगा।

पिछले तीन दिनों से जिस आकर्षण में क्यागर ने बाँध रखा था, वह अब तक की हमारी यात्राओं से एकदम अलग था। इसकी गहनता बहुत थी, जो हर बार उस अतीत की कल्पनाओं में उतार रही थी, जिसे आज के समय में मात्र अनुभूत किया जा सकता है। रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र रहा है। लगभग सारी दुनिया ही इस मार्ग की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ी थी। अनेक छोटे-बड़े व्यापारिक मार्ग भी इससे जुड़कर रेशम मार्ग के नाम से जाने जाते थे। यह चीन से मध्य एशिया और फिर योरोप तक जाता था। समरकंद, बुखारा से यारकंद तक जाने वाले रेशम मार्ग को भारत के साथ जोड़ने वाला उपमार्ग क्यागर से होकर जाता था। क्यागर से हुंदर, पनामिक, दिस्किद, खालसर और फिर लेह तक जाने वाला रास्ता भले ही रेशम मार्ग का संपर्क मार्ग हो, लेकिन भारत की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े होने के कारण यह मार्ग बहुत महत्त्व का था। क्यागर रेशम मार्ग के यात्रियों-व्यापारियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था, और एक प्रकार से यह रेशम मार्ग के सबसे निकट का गाँव था। स्वाभाविक ही है, कि इस अतीत को जानकर और अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाए। हमारे जैसे लोगों के लिए तो यह बहुत रोमांचकारी था। एक-एक कण हमें मानों अनेक-अनेक इतिहास की परतों को सँजोए हुए दिख रहा था। पूरे रास्ते भर यही मन में चलता रहा, कि अगर समय से पहुँच जाएँगे, तो आज से ही जिज्ञासा-शमन के प्रयास चालू कर देंगे, दो-चार लोगों से तो मिल ही लेंगे। लेकिन क्यागर तक पहुँचते-पहुँचते धुँधलका हो चुका था। लद्दाख में धुँधलका होना आधी रात हो जाने जैसा ही होता है, क्योंकि सूरज के ढलते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। हमें तो प्रायः यही लगा, कि भीषण सर्दियों की आदतें गर्मियों के मौसम में भी बनी ही रह जाती हैं।


मई-जून का महीना लद्दाख में बहुत ठंडा नहीं होता। रात सात-आठ बजे तक घर के बाहर आसानी से रहा जा सकता है, लेकिन क्यागर में  ऐसा नहीं दिखा। रास्ते में आते समय लोगों को अपनी गायें, बकरियाँ आदि घर की तरफ ले जाते देखा था। हमारे क्यागर पहुँचने तक क्या जानवर और क्या आदमी... सभी अपने दड़बों में पहुँच चुके थे। हमारे पास केवल


विश्राम करने का विकल्प शेष था। भला हो श्रीमान टाशी जी का, वे अचानक ही प्रकट हो उठे थे। उनसे कुछ जानकारी मिल सकती है, ऐसा हमें भरोसा भी हो चुका था। टाशी आंगचुक सेना से रिटायर होकर अपने गाँव में रह रहे थे। प्राथमिक परिचय के बाद उनसे यही सवाल किया, कि आप लेह में क्यों नहीं बस गए? उत्तर मिला, गाँव का प्रेम खींच लाया है। नौकरी भर तो बाहर ही रहे हैं। अब गाँव में रहना अच्छा लगता है।

तो आपको अपने गाँव का अतीत भी पता होगा, कुछ गाँव के बारे में बताइए, तो....।

टाशी जी बोले, इतिहास तो बहुत पता नहीं है, लेकिन छाँह की दीवार के बारे में अपने बड़े-बूढ़ों से सुना है। गाँव सिल्क रूट से जुड़ा था, और बहुत संपन्न था, बस इतना ही पता है। लेकिन आपको कल अपने गाँव के मुखिया और राजपरिवार से संबंध रखने वाले एक महाशय से मिलाने के लिए जरूर ले जा सकते हैं। उनसे आपको बहुत कुछ जानने को मिलेगा। परंपरागत रसोईघर भी आप देख सकेंगे।

श्रीमान टाशी का यह प्रस्ताव मनोनुकूल था। तुरंत ही हामी भर दी। साथ में करनल सिंह भी इन बातों को सुन रहे थे, लेकिन उनकी इसमें कोई रुचि नहीं थी। करनल सिंह खाने की जुगत लगा रहे थे, और फिर उनका विश्राम करने का मन हो रहा था। ऐसा वो दो बार हमें बता चुके थे। टाशी जी भी घर जाना चाह रहे थे। लिहाजा तय हुआ, कि कल सुबह टाशी जी आएँगे और उनके साथ श्रीमान सोनम टुंडुप जी से मिलने के लिए जाएँगे। भोजन के उपरांत विश्राम के क्षणों में भी विचारों का मंथन चलता रहा। रह रहकर छाँह की दीवार, पुरानी रसोई, काराकोरम की गहन कृष्णता के मध्य बिंदु-सदृश आभासित महल के ध्वंसावशेष अपने साथ विगत की यात्रा पर मानों ले जाना चाह रहे थे। रास्ते की थकान कभी इन पर भारी पड़ती, तो कभी ये थकान पर....। कुल मिलाकर रात ऐसे ही कटी और भोर के उजास ने नई ऊर्जा का संचार किया। कल-कल निनाद करती नुबरा नदी का मद्धिम स्वर नीलांबर की वीतरागी शांति को भंग करता-सा लग रहा था। दूर-दूर तक काराकोरम की शृंखलाएँ अलग-अलग रंगों में पसरी हुई-सी ऐसी लग रहीं थीं, मानों तंद्रा में हैं और सुबह के आलस से निकल नहीं पाईं हैं। इन्हीं विचारों में खोए हुए थे, कि टाशी जी ने आकर बताया, कि हमें श्रीमान टुंडुप जी से मिलने चलना है। वे कहीं जाने वाले हैं, इसलिए अभी ही जाना होगा। हम भी तुरंत तैयार होकर चल पड़े।

गाँव के भीतर की गलियाँ अपेक्षाकृत चौड़ी और साफ-सुथरी थीं। घरों को बहुत करीने से सजाया-सँवारा गया था। सोनम टुंडुप जी का घर किसी गढ़ी के जैसा था। बहुत विशाल...। एक ओर जानवरों को बाँधने के लिए क्रम से कोठरियाँ बनी हुई थीं। मुख्य द्वार पर रिग्-सुम (तीन स्तूप) बने हुए थे। उनके नीचे से निकलकर घर में प्रवेश करना था। बड़े-से दरवाजे के दोनों ओर विशालकाय भंडारगृहों में जलाऊ लकड़ी को बड़े व्यवस्थित और कलात्मक क्रम से रखा गया था। पहले माले पर जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं, जिनसे होकर हम ऊपर पहुँचे। बड़े-से विश्राम कक्ष में अनेक सजावटी वस्तुएँ, जिन्हें दुर्लभ की श्रेणी में रखा जा सकता है, सहेजी गईं थीं। टुंडुप जी ने बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया।

टाशी आंगचुक पहले ही हमारे बारे में बता चुके थे, इस कारण हमको बहुत बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी। महाशय टुंडुप जी ने बात क्यागर के बारे में बताते हुए ही प्रारंभ की-- “आज का क्यागर पहले यहाँ नहीं था। यहाँ से पहले तीन जगहों में इसकी बसावट थी। पहले लुंगदो में यह हुआ करता था। लुंगदो से फिर जङ्लम में आकर बसा और इसके बाद जिम्सखङ गोङ्मा बसा।“

टुंडुप जी के बताने पर हम उस ध्वसांवशेष की पहचान कर सके, जिसे काराकोरम की विशाल शृंखलाओं के मध्य एक सफेद बिंदु की भाँति चमकते हुए देखा था। टुंडुप जी बता रहे थे.... 2015 के पहले तक वह महल देखने में ठीक-ठाक था। पहले आसपास तमाम घर भी थे। ये बसावट महल के साथ ही थी। महल को जिम्सखङ कहते थे। यह वास्तव में वंशावली का नाम है, जिससे हमारा खानदान पहचाना जाता है। 2015 की तबाही के बाद इधर सड़क के साथ लोग बस गए।

टुंडुप जी की बातों का क्रम रेशम मार्ग की ओर चल पड़ा था। हमारे साथ बैठे आंगचुक जी भी रेशम मार्ग से जुड़ी बातों को सुनने के लिए जरा सावधान होकर बैठ गए थे। वैसे तो टुंडुप जी ने रेशम मार्ग की गतिविधियों को नहीं देखा, लेकिन उनके पास बड़े-बूढ़ों से सुनी हुई बातों के सहारे अच्छा खासा स्मृतियों का भंडार था, जिसका आस्वाद आज हमको भी मिलने वाला था।

“पहले यहाँ यारकंद से आने वाले व्यापारी ठहरा करते थे। यहाँ पर घास के बड़े मैदान होते थे, जिनमें अलफा-अलफा घास बहुत पैदा होती थी। इसे हमारी भाषा में ओल बोला जाता है। व्यापारी अपने घोड़ों, ऊँटों आदि जानवरों को चराने के लिए यहाँ रुकते थे। व्यापारी सासोमा से तकशा और पनामिक होते हुए इस तरफ को आते थे, दो-तीन दिन रुकते थे और डिगर दर्रा पार करके लेह की तरफ चल पड़ते थे। वापसी भी ऐसे ही होती थी।“ टुंडुप जी इतना बताते हुए थोड़ा रुके, और फिर बड़ी गंभीर भंगिमा में बोल पड़े.... अब तो ओल दिखती ही नहीं हैं... पहले बड़े बुजुर्ग बताते थे कि ऊपर पहाड़ों तक में ओल हुआ करती थी....। अब समय बदल गया है।

“सिल्क रोड के साथ ही अलफा-अलफा भी खतम हो गया...।“ टुंडुप जी का यह कथन बड़ी वेदना में डूबा हुआ था।

रेशम मार्ग कभी देशों की सीमाओं में नहीं बँधा। इसी कारण अनेक संस्कृतियाँ, साहित्य, विचार, चिंतन, दर्शन, विज्ञान, विचार और व्यवहार आदि न जाने कितनी विधाएँ लंबी यात्राएँ करके आती रहीं, जाती रहीं और विस्तार पाती रहीं हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही मार्ग नहीं था। बहुत कुछ इसके साथ जुड़ा है, जिसे समेकित रूप में मानव सभ्यता के विकास-विस्तार के क्रम में जोड़ा जा सकता है। केवल अलफा-अलफा घास ही नहीं, ओल ही नहीं... बहुत कुछ उजड़ा है, रेशम मार्ग के रुक जाने के बाद....। हमारी सीमाएँ बन गईं हैं....।

हमारे मन में एक ओर ये विचार चल रहे थे, और दूसरी ओर टुंडुप जी धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे।

“आप चाय लेंगे, या दूध....” इस विकल्प के साथ आई एक आवाज ने हम दोनों को ही रोक दिया था। हमारे विचारों की गति भी रुक गई और टुंडुप जी भी रुक गए। कुल मिलाकर तय हुआ, कि बढ़िया दूध एक-एक गिलास पिया जाए। गाँव में गौवंश की कोई कमी नहीं थी। शुद्ध दूध-घी-मक्खन तो वैसे भी गाँवों में ही मिल पाते हैं। खैर....। बातों का क्रम फिर आगे बढ़ा...।

अब टुंडुप जी हमें अपनी वंशावली के बारे में बता रहे थे- “हमारा घर का नाम जिम्सखङ है। यह हमारी पहचान कराता है। जिम्सखङ की शाखा ही दिस्किद, हुंदर और खलसर में है। वहाँ पर हमारे वंश का कोई नहीं बचा है। केवल क्यागर में ही है। लेह में कलोन (प्रधानमंत्री) होता है, जो राजा के नीचे होता है। इसके बाद लोनपो (क्षत्रप) होते हैं। इन्हें जिम्सखङ भी कहते हैं।“

टुंडुप जी के इतना बताने के बाद हमारे सामने स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। लेह राजवंश का शासन यहाँ तक था, बगल में स्करदो और गिलगित-बल्टिस्थान आदि थे। हुंदर, दिस्किद, खालसर और क्यागर आदि क्षत्रपों के अधीन पूरी व्यवस्था यहाँ पर चलती थी। कुछ स्थानों पर सुरक्षा चौकियाँ जैसी भी होती थीं, जहाँ से व्यापारिक गतिविधियों की निगरानी हुआ करती थी। आज वे सब नहीं हैं। लेकिन खंडहरों में दबे अतीत को आज भी अनुभूत कर सकते हैं।

रास्ते में आते समय मील के पत्थरों पर टाइगर नाम लिखा हुआ देखा था। जिज्ञासावश इस प्रश्न को टुंडुप जी के सामने रखा, कि यह कोई दूसरी जगह है, या क्यागर विकृत होकर टाइगर बन गया है.....। हमारे इस प्रश्न ने टुंडुप जी की वेदना को ही मानों उखाड़ दिया था......।

“ये ग्रीफ वाले भी ना....। जाने बिना ही किलोमीटर में लिख देते हैं। यह नाम तो गलत है, लेकिन इस नाम से भी जगह को जानते हैं।“

आखिर यह नाम कब बदल गया? मेरे इस प्रश्न पर तुरंत ही टुंडुप जी बोले... बस ऐसे ही यह गाँव बदलते नामों वाला हो गया है....। कोई टाइगर कहता है, तो कोई टिगर कहता है, तो कोई तिगर कहता है.....। किसको क्या कहें......।

तो फिर सही क्या है? हमने पूछा।

सही तो क्यागर ही है....। हमारी भाषा में सफेद को करपो बोलते हैं। वो जो जिम्सखङ महल है ना.... वो दूर से सफेद नजर आता था, इस कारण करपो से क्यागर बन गया, यानि सफेद महल....।      

क्या कोई गाव ऐसा भी होता है जो अपने नाम बदला करे और अगर ऐसे किसी गाव का पता चले जो बदलते नामों वाला गाव है, तो सुनकर आश्चर्य तो अवश्य ही होगा....। हमको भी जब यह पता चला था, तो अलग ही रोमांच हुआ था।  टुंडुप जी के कहे अनुसार समझ में आ रहा था, कि गाँव में सड़क पहुँची, तो बहुत कुछ बदल गया....। यहाँ तक कि गाँव का नाम भी....। वैसे यह विषय बहुत भावुक कर देने वाला था। समय और स्थितियाँ कैसे बदला करती हैं, आज साक्षात् देख रहे थे। एक जमाने में अपनी हनक से पूरे क्षेत्र को प्रभावित करने वाला जिम्सखङ आज ध्वंसावशेष है...। टुंडुप जी बता रहे थे, कि जिम्सखङ की वंशावली में लोनपो सोनम जोलदन को लोग आज भी याद करते हैं। उनके कामों को आज भी याद किया जाता है। मने खङ, गोनपा आदि के निर्माण के साथ ही लोगों के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया है। सोनम जोलदन के बाद सोनम तरग्यास, सोनम दोरजे, सोनम रिगजिन, रिगजिन आंगमो...। महाशय टुंडुप जी रिगजिन आंगमो के दामाद हैं।

लद्दाख में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी है। धर्मराज सेङ्गे नामग्याल की माँ ग्यल खातून, सेङ्गे नामग्याल की पत्नी कलसङ डोलमा और राजा देस्क्योङ नमग्याल की रानी ञिलस़ा वङमो सहित अनेक ऐसी महिलाओं का नाम गिनाया जा सकता है, जिन्होंने राजपरिवार की सीमा से निकलकर सीधे प्रजा से अपने को जोड़ा है। यह जानकर अच्छा लगा, कि क्यागर के लोनपो परिवार की उत्तराधिकारी रिगजिन अंगमो हुईं, और यह क्रम उनकी बेटी ने आगे बढ़ाया है।

टुंडुप जी बता रहे थे, कि एक समय में यहाँ चूना भट्टी भी हुआ करती थी, जिसमें पकी ईंटे बनाई जाती थीं। पूरे लद्दाख में कम से कम हमने तो ऐसी चूना भट्टी नहीं ही देखी थी। लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर एकदम सीमा पर ऐसी व्यवस्था का पाया जाना सिद्ध कर रहा था, कि अपने समय में यह क्षेत्र बहुत समृद्ध रहा होगा। रेशम मार्ग के व्यापार की बंदी ने, फिर प्राकृतिक आपदाओं ने, और फिर सीमांत क्षेत्र के हिस्से आई उपेक्षाओं ने क्यागर सहित अनेक गाँवों को अपने हाल पर छोड़ दिया....।

टुंडुप जी अब छाँह की दीवार के बारे में बता रहे थे- “क्या पता चूना भट्टी से पकाई गई ईंटों से छाँह की दीवार बनाई गई हो.....।“

अब वह दीवार तो नहीं दिखती, लेकिन स्मृतियाँ जीवंत हैं। दूर-दूर तक फैले मैदान में छाँह ढूँढ़ना संभव नहीं...। नुबरा घाटी तो वैसे भी बर्फ का रेगिस्तान कही जाती है। हुंदर के आसपास रेगिस्तान जैसी आकृतियाँ मिलती हैं। संभवतः किसी शासक ने नया प्रयोग किया हो, और धूप से बचने के लिए छाँह की दीवार बनवा दी हो, जिसमें यात्री और जानवर दोनों ही ठहर सकें। धर्मशालाएँ और प्याऊ जैसे धर्मार्थ कार्य तो बहुत सुने होंगे, लेकिन यह काम अनूठा लगा...। टुंडुप जी छाँह की दीवार के बारे में बहुत तो नहीं बता सके, लेकिन इतना अवश्य संकेत दिया, कि जाते समय चूना भट्टी के खंडहरों को देखते हुए जाएँ। उस जगह को संरक्षित स्मारक के रूप में रखा गया है। सरकारी बोर्ड भी लगा है।

क्यागर गाँव की परिधि में बड़ा चरागाह हुआ करता था। समरकंद, बुखारा, यारकंद, लेह आदि से आने वाले व्यापारी यहाँ के लोगों से किराए पर चरागाह लेकर अपने जानवरों को चारा खिलाते थे। एक-दो दिन इसी बहाने रुकते थे, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते थे।

महाशय टुंडुप जी से लंबी वार्ता हो चुकी थी। परंपरागत रसोई भी देखी जा चुकी थी, जिसमें कलात्मक आकृतियों वाले ताँबे और पीतल के बर्तन सहेजे हुए थे। पुराने अंदाज का चूल्हा भी था, जिसके आसपास बैठकर भोजन के आस्वाद के साथ ही बतकही का आनंद लिया जा सकता था। शीत की विकरालता के समय रसोई लद्दाख के लोगों के लिए बड़ा सहारा हुआ करती थी। क्यागर गाँव में आज भी ऐसा ही है, यह जानकर मन को बड़ी तसल्ली मिली, कि परंपराएँ अभी भी जीवंत हैं।

महाशय टुंडुप जी से विदा लेकर हम और आंगचुक जी वापस लौट रहे थे। रास्ते भर हमलोग बतियाते चले आए। हमारे लिए अनुभूत करना सहज हुआ, कि कैसे यहाँ व्यापारी रुकते रहे होंगे, किस तरह अलग-अलग संस्कृतियों का मिलन होता रहा होगा....। न जाने कितने चित्र मन में चलते चले गए...। चित्रपट की तरह...। आंगचुक जी थोड़ी देर बाद आने को कहकर चले गए।

लौटने पर देखा, तो करनल जी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। साहब.... बहुत समय लगा दिया...। भोजन का समय हो गया है....। क्या करेंगे?

करनल जी के लिए यह रुचि का विषय नहीं है, इसलिए साथ ले जाना उचित नहीं समझा था। देर तो हो ही चुकी थी, साथ ही अपने काम में भी लगना था, जिसके लिए यहाँ आए थे....। अतः करनल जी से कहा, कि भोजन कर लेते हैं।

“रसोइया नहीं आया था, वह किसी जरूरी काम से अचानक ही चला गया है। किसी दूसरे को भेजने के लिए कह रहा था, तो मैंने ही मना कर दिया....।“ करनल सिंह ने बताया।

.....आज साहब को अपने हाथ का बना चावल खिलाना है।

हमने कहा, ठीक है....।

साहब! लेकिन आपको पसंद न आया, तो क्या करेंगे?

हमने कहा, चलो देखते हैं...।

करनल जी ने गरमागरम चावल निकाले, जो केवल प्याज से छौंक कर एकदम अलग तरीके से बनाए गए थे। सुंगध बरबस खींच रही। हमने पूछा, कि यह कौन-सा व्यंजन है?

करनल साहब ने बताया.... पुलाव है....।

हमने कहा, पुलाव तो ऐसा नहीं होता...। स्वाद भी अलग-सा है।

करनल जी ने कहा, कि हो सकता है.....।

हमने कहा, तो इस पुलाव को अलग नाम दे देते हैं....।

पनीर के कई सारे व्यंजन होते हैं, जैसे पनीर पसंदा, पनीर पक्का, पनीर टिक्का आदि....। वैसे ही पुलाव के भी कई नाम हो सकते हैं....।

करनल जी इस पर कुछ नहीं बोले, और उनके मौन को सहमति मानते हुए हमने इस विशेष विधि से बनाए गए पुलाव को करनल पुलाव नाम दे दिया...।

करनल पुलाव.....। हा! हा!...... साहब आप भी बड़े मजाकिया हैं....। करनल जी बोले...।

हमने कहा, इसी बहाने आपको, इस सुस्वादु भोजन को, इस स्थान को, आज के दिन को याद रखेंगे.....।

ठीक है, साहब...। कहकर करनल सिंह ने अपनी थाली में ध्यान केंद्रित कर लिया।

हमने भी तुरंत भोजन समाप्त किया और अपने काम में लग गए।

अगला दिन व्यस्तताओं भरा रहा, लेकिन क्यागर के अतीत में जब भी उतरने का अवसर मिलता, क्षण भर का ही सही... अवसर पाते ही मन उतर पड़ता। गाँव के कई लोगों से मिलना हुआ, तरह-तरह की बातें जानने को मिलीं...। गाँव के युवा शहरों को जा चुके थे, अधेड़ और वृद्धों की संख्या ही अधिक दिखती थी। सैलानियों की गाड़ियों से चहल-पहल बनी रहती थी। फिर भी एक रिक्तता, एक अजीब-सा वीरानापन, सूनापन अनुभूत होता था। शब्दों में जिसे बाँध पाना कठिन लगता है। मेहमानों के चले जाने पर घर जिस तरह सूना हो जाता है, कुछ वैसा ही...।

अगली सुबह यहाँ से हमें भी निकलना है। यह भी तब ध्यान में आया, जब करनल सिंह ने बताया, कि अब रात भर बितानी है....।

दरअसल करनल सिंह को तीन दिन बड़ी कठिनाई के लगे थे। नगरों-महानगरों की जैसी चहल-पहल यहाँ नहीं थी। बहुत धीमे-धीमे सब चल रहा था, रात भी धीरे-धीरे बीती...सुबह भी हो गई, और करनल साहब कील-काँटा, वर्दी-बूट दुरुस्त करके सुबह से ही तैनात हो गए थे। हमको ही कुछ देर हुई थी...।

भला हो, गाड़ी वाले का, कि निकलने से पहले गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने के लिए निकल गया था, सो हमें भी कुछ समय मिल गया....। खैर.... तैयार होकर गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे और पिछले तीन दिनों का घटनाक्रम चित्रपट की भाँति चल रहा था। कब गाड़ी वाला गाड़ी लेकर आ गया और सामान रखकर चलने को तैयार हो गया, पता ही नहीं चला....।

“चलें, साहब...। गाड़ी आ गई है, सामान भी रख गया ....।“ करनल सिंह ने कहा...।

हम भी उठे, और चल पड़े...।

केवल विदा करने वाले का मन भारी नहीं होता, विदा लेने वाले का मन भी भारी हो जाता है...। रास्ते में टाशी आंगचुक मिल गए थे...। उनसे विदाई ली...। फिर मिलेंगे, यह वायदा किया। गाड़ी चल पड़ी...। तेजी के साथ क्यागर गाँव का वह धवलाभ ध्वंसावशेष पीछे छूटता जा रहा था। काराकोरम की ऊँचाइयों पर कहीं रेशम मार्ग की छाप दिखाई दे रही थी। ऐसे ही सैकड़ों वर्षों से ये डेरा-पड़ाव लगते उखड़ते रहे होंगे...। लोग मिलते बिछुड़ते रहे होंगे...। अनगिनत कहानियाँ बनती रहीं होंगी...। बदलते नाम और छाँह की दीवार के इस गाँव ने अपने साथ कितने ही किस्से सहेज रखे होंगे...। और हमने करनल सिंह के साथ करनल पुलाव को भी जोड़ लिया, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे...।

-राहुल मिश्र

(राजस्थान साहित्य अकादमी की मुखपत्रिका मधुमती, वर्ष- 65, अंक- 03, मार्च 2025 में प्रकाशित)

 

Thursday, 1 August 2024

अवध राजु सुर राजु सिहाई...

 

अवध राजु सुर राजु सिहाई...

अवध  राजु सुर राजु सिहाई । दसरथ  धनु सुनि  धनदु लजाई ।

तेंहि पुर बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।

श्रीरामचरितमानस में प्रसंग आता है...। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को जा चुके हैं। भरत नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं। श्रीराम की चरण पादुकाएँ सिंहासन पर रखकर अयोध्या के राजपाट को चला रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास इस प्रसंग पर बल देते हैं। वे भरत के राज की विशेष रूप से व्याख्या करते हैं। बाबा तुलसी की भरत के प्रति अगाध निष्ठा है। वे कहते हैं, कि जिस अयोध्या के राज्य को देखकर देवराज इंद्र ललचाते थे, जिन राजा दशरथ की संपत्ति को सुनकर कुबेर लज्जित होते थे, उसी अयोध्या के राज्य और राजा दशरथ की असीमित संपत्ति की आसक्ति से मुक्त रहकर भरत उसी प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चंपक के वन में भौंरा रहता है। यहाँ त्याग का अप्रतिम उदाहरण देखते ही बनता है। माता कैकेयी ने मंथरा के कहने पर अपने पुत्र-मोह को उस चरम बिंदु तक पहुँचा दिया था, जहाँ से बिखराव प्रारंभ हो जाता है। विघटन का क्रम चल पड़ता है। राजा दशरथ ने अपने पौरुष से जिस अयोध्या को कुबेर की संपदा से भी अधिक संपन्न बनाया था, वह अयोध्या राम के लिए भी त्याज्य हो गई, और भरत के लिए भी....। चाहे राम हों या भरत, अयोध्या का राजपाट और अकूत संपदा का लोभ-लालच या उसे पाने की लालसा दोनों में से किसी को भी नहीं है। दोनों के बीच का प्रेम-स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि धन-संपदा उसे जरा-सा भी प्रभावित नहीं कर पाती है।

जब राम को वनवास जाने के लिए कहा जाता है, तब राम के मन में तनिक भी यह भाव नहीं आता, कि मैं अयोध्या का भावी राजा हूँ। वे हर्षित होते हैं। कारण यहाँ भी स्पष्ट है, इंद्र के मन में भी लालच पैदा कर देने वाली अयोध्या राम के लिए पिता की आज्ञा से बड़ी नहीं है। पिता की आज्ञा का पालन उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। गोस्वामी जी लिखते हैं-

नव  गयंदु  रघुबीर   मनु   राजु   अलान  समान ।

छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ।।

नये पकडे गए हाथी के समान राम का मन है और राज्य गज को बाँधने वाली बेड़ियों के समान है। राम को जब पता चलता है कि उन्हें वनगमन करना है और वे राज्य-संचालन करने की बेड़ियों से मुक्त हो गए हैं, तब उनके हृदय में आनंद का आधिक्य हो जाता है। बाबा तुलसी ने राम के इस मनोभाव का सुंदर चित्रण करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि राम को राज्य-लिप्सा नहीं है। भरत और राम के मध्य अयोध्या का राजपाट कंदुक-सम खेला जा रहा है।

आधुनिकताबोध यह सिद्ध करता है, कि कैकेयी के मन में भी कोई खोट नहीं था। कैकेयी राज्य-संचालन में अत्यंत निपुण थी। कैकेयी को दो वरदान ही युद्ध के मैदान में मिले थे, राजा दशरथ से....। देवासुर संग्राम में इंद्र की दशा बहुत खराब हो गई थी। इंद्र ने राजा दशरथ को सहायता के लिए बुलाया। रानी कैकेयी भी राजा दशरथ के साथ चल पड़ीं, सारथी बनकर....। दुर्योगवश राजा दशरथ के रथ की कील निकल गई और युद्धक्षेत्र में राजा दशरथ के लिए जीवन का संकट आ गया। रानी कैकेयी ने तुरंत अपनी उंगली कील के स्थान पर लगाई। राजा दशरथ को जीवनदान मिला और उन्होंने प्रसन्न होकर कैकेयी को दो वरदान माँगने को कहा। कैकेयी ने यही वरदान माँगे थे। भरत को राजपाट और राम को वनवास....। राम ने पहले भी वन की यात्रा की थी, गुरु विश्वामित्र के साथ और अनेक राक्षसों को मारकर वन प्रांतरों को, वहाँ साधना में लीन ऋषि-मुनियों को भयमुक्त किया था।

पिछली बार गुरु विश्वामित्र हठ करके राजा दशरथ से माँगकर राम और लक्ष्मण को ले गए थे, राजा दशरथ इसके लिए सहमत नहीं थे, लेकिन विवशता थी....। दूसरी बार कैकेयी के सामने राजा दशरथ विवश हो गए...। राम के लिए दोनों बार आज्ञा-पालन का ध्येय था। राम के मन में कोई क्लेश पैदा नहीं होता। वे इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। इसी कारण राम की नाराजगी कहीं पर भी माता कैकेयी के प्रति प्रकट नहीं होती है। इतना ही नहीं; राम वनवास के प्रसंग में, जब चित्रकूट में राम से भेंट करने के लिए तीनों माताएँ आती हैं, तब राम सबसे पहले माता कैकेयी से भेंट करते हैं। बाबा तुलसी इस प्रसंग का उल्लेख करते हैं, और माता कैकेयी से राम की भेंट को विशेष रूप से उद्धृत करते हैं। कैकेयी के प्रति राम के मन में कोई विद्वेष नहीं है। राम तो भरत को भी डाँट देते हैं, जब वे माता कैकेयी को भला-बुरा करते हैं।

आज के समय में....., आधुनिकता के मानदंड में देखने पर माता कैकेयी का व्यक्तित्व अलग दिखाई देता है। वे अयोध्या के राजपाट के प्रति समर्पित दिखती हैं, क्योंकि राम को वन भेजना भरत को राजपाट दिलाने-मात्र के लिए नहीं था, वरन् राक्षसों के संहार के लिए भी था। राम इसके लिए उपयुक्त थे... गुरु विश्वामित्र के साथ जाकर उन्होंने इस बात को प्रमाणित किया था। गोस्वामी जी माता कैकेयी के लिए राम की श्रद्धा को, उनके निःछल प्रेम को उभारते हैं। राम भरत को सीख देते हैं, कि गुरु, पिता, माता या स्वामी... इनकी सीख आँख बंद करके माननी चाहिए। भले ही ऐसा लगे, कि इनके द्वारा गलत कहा जा रहा है, हम गलत राह पर जा रहे हैं, लेकिन हमारा पग खाले नहीं पड़ता, हमारा काम गलत नहीं होता और भविष्य में परिणाम भी सही आते हैं, अच्छे आते हैं। तात्कालिक रूप से अनुचित लगने पर भी ये निर्देश दीर्घकाल में सही सिद्ध होते हैं। राम कहते हैं, कि ऐसा विचार करते हुए, आज्ञा का पालन करते हुए जाओ और अवधि भर के लिए अयोध्या का पालन करो-

गुरु पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ।।

अस बिचारि  सब सोच  बिहाई ।  पालहु अवध  अवधि भर जाई ।।

एक अन्य वार्तालाप को देखें....। यह भी चित्रकूट में चल रहा है। श्रीराम को अयोध्या वापस ले आने के लिए पूरी अयोध्या नगरी ही गई है। तीनों माताएँ भी हैं। लक्ष्मण की माता सुमित्रा, सीता की माता सुनयना और राम की माता कौशल्या के मध्य वार्तालाप चल रहा है। अत्यंत आर्त स्वर में... रूँधे गले से माता कौशल्या  कह रहीं हैं, कि राम, लक्ष्मण और सीता वन को जाएँ, इसका परिणाम भला है, निकृष्ट नहीं है; किंतु मुझे चिंता भरत के जीवन की है। यहाँ माता कौशल्या के हृदय की वेदना भ्रातृ-प्रेम को बड़ी सहजता से प्रकट कर देती है-

लखनु राम सिय  जाहँ बन भल  परिनाम न  पोचु ।

गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ।।4

माता सुमित्रा ने वन जाते समय लक्ष्मण को सीख दी थी- गुरु, पिता, माता, बंधु, देवता और स्वामी की प्राणों की भाँति सेवा करनी चाहिए। इस कारण सभी के मित्र और स्वार्थहीन व्यक्तित्व वाले श्रीराम के साथ वन को जाकर संसार में जन्म लेने के लाभ को अर्जित करो, अर्थात् अपने कर्मों से जीवन की सार्थकता को सिद्ध करो। भ्राता लक्ष्मण ने माता की सीख को आत्मसात किया, और पूरी निष्ठा के साथ इसका पालन भी किया।

अयोध्या का राजपाट राम के वनगमन के केंद्र में है। सामान्य रूप से तो ऐसा ही प्रतीत होता है, लेकिन गहरे उतरकर विचार करें, तो यह वनगमन प्रसंग परिवार की एकजुटता को भी प्रस्तुत कर देता है। धन-धान्य, समृद्धि, यश, वैभव आदि की लालसा कहीं रह ही नहीं जाती है। लोभ किसी को छू नहीं पाता है। राम को आदेश मिलता है, वन जाने का.... और वे सहर्ष चल देते हैं। भरत को पता चलता है, कि उनके लिए राम को अयोध्या से जाना पड़ा है, तो वे भी अयोध्या को त्याग ही देते हैं... नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहने लगते हैं। परिवार किसी भी दशा में टूटता नहीं है, छूटता नहीं है। भरत जी राम को वापस ले आने के लिए चित्रकूट तक जाते हैं। राम चौदह वर्षो के बाद ही अयोध्या लौटने की बात कहते हैं। लेकिन चित्रकूट में केवल इतना ही नहीं होता... वहाँ रामराज्य की संकल्पना रची जाती है। राजा को कैसा होना चाहिए, शासक के धर्म क्या होते हैं, परिवार से लगाकर समाज और देश-काल में मर्यादाओं की स्थापना, उनका पालन कैसे हो.... इस बात को विस्तार के साथ कहा और सुना जाता है। भरत जी के साथ गई लगभग पूरी ही अयोध्या नगरी पाँच दिनों तक चित्रकूट में अपना डेरा-पड़ाव डाले रहती है। इन पाँच दिनों में अनवरत चलने पाली चर्चाएँ, उपदेश, वार्ताएँ आदि सभी बड़ी महत्त्व की हैं। नीति-नैतिकता के व्यवहार पक्ष हेतु अनेक उपयोगी बातें सामने आती हैं। गोस्वामी जी विस्तार के साथ चित्रकूट प्रसंग को प्रस्तुत करते हैं।

व्यक्ति से ऊपर परिवार है, परिवार से ऊपर समाज है, और समाज से ऊपर राज्य है-राष्ट्र है....। अयोध्या में राम के वनगमन से लगाकर चित्रकूट तक... भरत के राजपाट सँभालने तक, और फिर राम के अयोध्या लौटने तक पूरी कथा के विस्तार में यह तथ्य परिलक्षित होता है, दिखाई पड़ता है। इसके लिए संबंधों की मर्यादाएँ निभाई जाती हैं, संबंधों की गुरुता को-गरिमा को अनुभूत किया जाता है, सम्मान दिया जाता है।

श्रीरामचरितमानस का रचनाकाल भी बहुत महत्त्व रखता है। सामयिक स्थितियों से गोस्वामी जी परिचित थे। वह समय ऐसा था, कि म्लेच्छ आक्रांताओं ने अपनी स्वार्थ लिप्साओं के अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर दिए थे। भाई से भाई का वैर, पिता से पुत्र की दुश्मनी के अनेक किस्से सामने आ रहे थे। धन के लिए... सत्ता के लिए परिवार की मर्यादाएँ टूट रहीं थीं। भारतीय समाज के लिए ये स्थितियाँ भयावह थीं। लोग विवश होकर संत समाज की ओर देख रहे थे, कि उनका पथ-प्रदर्शन हो सके, वे सही राह को जान सकें। ऐसी विषमताओं के मध्य गोस्वामी जी ने परिवार की मर्यादाओं से लगाकर समाज व राष्ट्र-राज्य तक की मर्यादाओं की स्थापना की बात कही। विश्व के कल्याण का संदेश दिया। गोस्वामी जी के राम इसका माध्यम बने... अयोध्या का पूरा राज-परिवार ही उदाहरण बन गया। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम मर्यादा के प्रतीक ही बन गए। राम का अर्थ ही मर्यादा हो गया। उसी रूप में श्रीराम को अन्य संतों ने स्वीकारा। कबीर ने भी स्वीकार किया- कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाई । राम सनेही यूँ मिले दून्यू बरन गँवाई ।।

सामाजिक मूल्यों का प्रशिक्षण परिवार में ही सबसे पहले मिलता है। स्नेह-प्रेम, सेवा, सद्भाव, सहिष्णुता और समरसता आदि की सीख सबसे पहले परिवार में मिलती है। यदि परिवार ही बिखर जाए, तो समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व तक मानवीय मूल्यों, नीति-नौतिकताओं, मर्यादा-आदर्शों आदि के विस्तार को सबल करने वाली, पोष्ण करने वाली व्यवस्था ही सिमट जाएगी.... जड़ ही सूख जाएगी। इस कारण परिवार का महत्त्व है। दैवीय पक्ष को हटाकर यदि विचार करें, तो श्रीरामचरितमानस में परिवार की संरचना केंद्र में दिखाई देती है। यह परिवार क्रमशः विस्तार पाता है। अयोध्या से राम का वनगमन एक घटना-मात्र नहीं रह जाती, वरन् समूची अयोध्या को एक सूत्र में बाँध देने का कारण बन जाती है। भरत जी के नेतृत्व में अयोध्या का विशाल जनसमूह आत्मप्रेरित होकर चल पड़ता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को पुनः अयोध्या लाने के लिए। यह यात्रा प्रकारांतर से मर्यादा की सामाजिक स्थापना के हेतु प्रती होती है। श्रीराम भले ही अयोध्या न लौटे हों, लेकिन जिन सीख-सिखावनों को, उपदेशों के सार को लेकर अयोध्या का जनसमुदाय लौटा था, उनके सहारे ही रामराज्य की संकल्पना धरातल पर उतरी थी।

व्यक्ति और समाज के मध्य संबंधों को समरसता और सह-अस्तित्व की भूमि पर स्थापित करने का प्रयोग भी मानस में दिखता है। श्रीराम चित्रकूट में रहते हुए उस विशाल समाज को अपने साथ मिला लेते हैं, जो उपेक्षित और तिरस्कृत रहा। व्यक्ति से परिवार और समाज तक विस्तार का यह क्रम राम के चित्रकूट निवास के साथ विस्तार पाता है, दक्षिण की ओर बढ़ते हुए भी इस विस्तार को हम देखते हैं। वनवासी, गिरिजन, बालक, महिलाएँ, वृद्ध और यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी रामादल के साथ हो जाते हैं। एक सूत्र में बँध जाते हैं। जटायु की कथा और गिलहरी के प्रयास रामकथा के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, अंश हैं।

यह विस्तार लोक के कल्याण से जुड़ता है। जिस परिवार में भाई का सम्मान न हो, पत्नी की बात न सुनी जाए... अनैतिकता से भरा आचरण हो, उस परिवार की दशा का अनुमान लंकाधिपति की दारुण दशा देखकर लगा सकते हैं। मंदोदरी रावण की मृत्यु पर विलाप करते हुए कहती हैं-

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई । सुत परिजन बल बरनि न जाई ।।

राम विमुख अस हाल तुम्हारा ।  रहा न  कोउ कुल रोवनिहारा ।।

रावण की प्रभुता सारे संसार को भली-भाँति पता है। संसार रावण के बल को जानता है। पुत्रों और परिजनों के बल का वर्णन नहीं किया जा सकता, लेकिन राम से विमुख होने के कारण रावण के कुल में कोई रोने वाला तक नहीं बचता है। जब मर्यादा टूटती है, तब सर्वनाश ही होता है। रावण के साथ भी यही हुआ। भाई की सीख भी रावण को अच्छी नहीं लगी, अपमानित करके राज्य से निकाल दिया।

अपने लौकिक, सामाजिक, मानवीय और व्यावहारिक संदर्भों में बाबा तुलसी के मानस की यही विशिष्टता है कि वहाँ एक आदर्श परिवार की बात विविध कथा-प्रसंगों के माध्यम से कही जाती है। रामराज्य की परिकल्पना एक आदर्श परिवार से ही निकलती है। लोकमंगल की साधना भी यहीं से अपनी जड़ों को रोपती है। मानस के ऐसे कथा-प्रसंगों से गुजरते हुए कई बार ऐसा अनुभूत होता है कि भविष्यदृष्टा के रूप में बाबा तुलसी ने आज की विषम-जटिल परिस्थितियों को जान लिया था। इसी कारण उत्तरकांड में बाबा तुलसी कागभुशुंडि के पूर्वजन्म की कथा का प्रसंग उठाते हुए कलियुग का वर्णन करते हैं। आज के जीवन की तमाम स्थितियाँ प्रतीक के रूप में, लक्षणों के रूप में कलियुग के वर्णन द्वारा इस प्रकार प्रकट होती हैं, जिन्हें पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा तुलसी ने उस समय ही आज के जीवन को देख लिया था, जान लिया था। वे कलियुग प्रसंग में लिखते हैं-

सब  नर  काम  लोभ  रत  क्रोधी । देव  बिप्र  श्रुति  संत  बिरोधी ।।

गुन  मंदिर  सुंदर  पति   त्यागी । भजहिं  नारि  पर  पुरुष  अभागी ।।

सौभागिनी    बिभूषन    हीना । विधवन्ह    के    सिंगार   नवीना ।।

गुरु सिष  बधिर  अंध का लेखा । एक   सुनइ  एक  नहिं  देखा ।।

हरहिं  सिष्य   धन  सोक  न हरइ । सो  गुरु  घोर  नरक  महुँ  परइ ।।

मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं । उदर भरै सोइ धरम सिखावहिं ।।14

आज का समय उन्हीं लक्षणों से भरा हुआ है, जिनका वर्णन बाबा तुलसी ने उपरोक्त पंक्तियों में किया है। वैश्वीकरण के प्रभाव के रूप में इन्हें देखा जा सकता है। व्यक्ति से लेकर परिवार और फिर समाज तक मर्यादा के पतन की गंभीर स्थितियाँ किसी से छिपी हुई नहीं हैं। शिक्षा-व्यवस्था भी मर्यादा से च्युत होकर दिग्भ्रमित हो गई है। इसी के प्रभाव से आज माता-पिता अपने बच्चों को सदाचारी बनने की सीख देने से ज्यादा प्राथमिकता उस सीख को देते हैं, जिससे वे अपना उदर भर सकें, धन कमा सकें। ऐसी अनेक स्थितियों का वर्णन तुलसीदास ने किया है। यहाँ भी तुलसीदास परिवार को ही केंद्र में रखते हैं।

श्रीरामचरितमानस में औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण और आर्थिक उदरीकरण के कारण उपजने वाले दुष्प्रभावों का शमन करने की सामर्थ्य है, किंतु यह व्यवहार से, दैनंदिन जीवन से दूर होते जाने के कारण अपनी प्रासंगिकता और अनिवार्यता का बोध कराने में विफल हो गई है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत घर की सीमाओं से बाहर ही होती है। उदारीकरण अर्थ के क्षेत्र में जितना हुआ; उसने मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं और नैतिकताओं के संदर्भ में अन-उदारीकृत होना स्वीकार किया। यह स्वीकृति सहज नहीं है, वरन् आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप अनिवार्य है। अन-उदारता का यह क्रम व्यवसाय और व्यावसायिक हितों को पूरा करते-करते एक समय घर की देहरी पर आ गया, दरवाजे पर ही आ गया.... और आज परिवार तक पैठ चुका है। इसी कारण एक छत के नीचे रहते हुए परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने हितों को साधते और स्वार्थ से पूर्ण प्रतीत होते हैं। परिवारों के विघटन का सबसे बड़ा कारण यही है। यद्यपि विभिन्न संस्कृतियों के आगमन, आधुनिकता के प्रभाव और निरंतर गतिमान विकास के चक्र के फलस्वरूप स्थितियाँ पहले ही अच्छी नहीं थीं, किंतु वैश्वीकरण ने बहुत कुछ बदला है, बहुत तेजी से बदला है। इस अवधि में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ी है। विवाह-व्यवस्था की शुचिता प्रभावित हुई है और ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसी व्यवस्थाओं ने परिवाररूपी संस्था को तोड़कर रख दिया है। संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है और इतना ही नहीं, अब परिवार के स्थान पर व्यक्ति ही सबसे छोटी इकाई बनने लगा है। ये सारे बदलाव नीति-नैतिकताओं, मर्यादाओं और आदर्शों के तिरोहित हो जाने के कारण हुए हैं। आज वैश्वीकरण के कारण व्यक्ति जितना वैश्वीकृत हुआ है, उतना ही जटिल और संकुचित वृत्त में अपने परिवेश का होकर रह गया है। इसके कारण मनोविकृतियाँ भी बढ़ी हैं और अपराध-अन्याय भी बढ़े हैं।

विकास का यह क्रम अनवरत चलता रहेगा, किंतु जिन पारिवारिक मूल्यों, मर्यादाओं, आदर्शों, नैतिकताओं और उदात्त गुणों की कीमत पर विकास का क्रम संचालित हो रहा है, उनके सिमटने के बाद विकास के नाम पर क्या शेष बचेगा, यह आज का यक्ष प्रश्न है। इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास के मानस को ही रखा जा सकता है-

रघुबंसभूषन  चरित  यह  नर  कहहिं  सुनहिं जे गावहीं ।

कलिमल मनोमल धोइ बिनु स्रम रामधाम सिधावहीं ।।

-राहुल मिश्र

 

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के आषाढ़-श्रावण, सं. 2081 तदनुसार जुलाई, 2024 अंक में प्रकाशित)

Wednesday, 15 May 2024

धन्य भरत जय राम गोसाईं

 

धन्य भरत जय राम गोसाईं

अयोध्या से चित्रकूट की ओर पूरी अयोध्या नगरी ही चल पड़ी है। अयोध्या की देखभाल करने के लिए कुछ वृद्ध और अशक्तजन ही बचे हैं, जो लंबी यात्रा नहीं कर सकते। अनेक लोग अपनी अक्षमता के बाद भी यात्रा पर चल पड़े हैं। एक कसक, एक टीस जो रह-रहकर उभरती रही थी, उसके समाधान का मार्ग अब इस यात्रा में ही सूझ रहा है। सभी के पैरों की गति मानों यही बता रही है। यह यात्रा कोई सहज-साधारण यात्रा नहीं है। राजपरिवार के सभी जन, नर-नारी, बालक-युवा सभी एकसाथ चले जा रहे हैं। इस यात्रा का अनुष्ठान भरत ने किया है। भरत अयोध्या के भावी राजा हैं, क्योंकि राजा दशरथ परलोक सिधार चुके हैं, और उनक दिए गए वचन के अनुसार राम को वनवास मिला है, भरत को अयोध्या का राजपाट मिला है। दृष्टि भरत पर जाकर टिक जाती है। भरत पैदल जा रहे हैं, और देखने वाले एक भावी राजा के तन और मन, दोनों की गतियों को देख रहे हैं-

मानव ही नहीं देवता तक वह दृश्य निहार लजाते हैं,

हैं साथ पालकी अश्व बहुत, पर भरत ‘पयादे’ जाते हैं ।

हे जग के धनवानों, देखो धन रहते धनपति निर्धन हैं,

यह राजयति की छवि है, यह शाही फकीर के दर्शन हैं ।

रामलीला में यह प्रसंग इतना मार्मिक और भावुक कर देने वाला होता है, कि दर्शकों की आँखें गीली हो जाती हैं। रामलीला के विभिन्न प्रसंगों की लीलाओं में भरत-मिलाप की लीला का अपना ही महत्त्व है। रामकथा के ऐसे प्रसंग, जो अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं, और लोक के महत्त्व के लिए जिनका मंचन अनिवार्य समझा जाता है, उनमें सर्वप्रमुख लीला भरत-मिलाप की होती है। भरत-मिलाप के पूर्व अयोध्या की दशा का अत्यंत मार्मिक वर्णन विभिन्न रामकथाओं में है। महाकवि कंबन, जो रामकथा रचकर महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उनकी कंब रामायण में अत्यंत मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है। लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व रचित तमिल के महाकाव्य- कंब रामायण में विरह से व्याकुल अयोध्या नगरी का वर्णन मिलता है। अयोध्या महाराजा दशरथ के परलोकगमन की वेदना से कहीं अधिक व्याकुल राम के वियोग से है। इस पर भी भरत ने अयोध्या के राजपाट को स्वीकारा नहीं है। लेकिन भरत ने यह घोषणा कर दी है, कि वे वनवासी राम को मनाने के लिए जाएँगे, और मनाकर ले आएँगे। इस घोषणा के कारण सारी अयोध्या चैतन्य हो उठी है। वियोग के अनेक उपमानों-प्रतीकों-बिंबों के मध्य उमंग-उल्लास का परस्पर विरोधाभासी वर्णन कितने सुंदर तरीके से कंब रामायण में हुआ है, देखते ही बनता है। राम को ले आने के लिए अयोध्या के समग्र जन-समुदाय का चल पड़ना, गजों-अश्वों का प्रस्थान, मार्ग के विविध प्रसंग आदि कंब रामायण में विस्तार से मिलते हैं।

कथा-वाचस्पति, श्रीहरिकथा विशारद, कविरत्न राधेश्याम कथावाचक ने अपनी राधेश्याम रामायण में भरत-मिलाप का सुंदर वर्णन किया है। चित्रकूट में राम और लक्ष्मण के सामने भरत का पहुँचना कोई साधारण घटना नहीं थी। पूरे सैन्य-बल के साथ वनवासी राम के सम्मुख भरत का आगमन लक्ष्मण के मन में संदेह पैदा कर देता है। कुछ रामायण-पाठों में राम और सीता भी संदेह से भरे हुए दिखते हैं। लेकिन राधेश्याम रामायण में अत्यंत भावुकतापूर्ण वर्णन है, जो अन्यत्र इस भाँति तो नहीं ही मिलता है। लक्ष्मण के मन का संदेह आज कुछ कर गुजरने को है। कोल-भीलों द्वारा दी गई सूचना और सूचना की सत्यता प्रकट करते लक्षण अवश्य ही संदेह पैदा करते हैं, लेकिन राम विचलित नहीं होते हैं। उनका धैर्य और मन का विश्वास अडिग है। उन्हें भरत पर भरोसा है, कि वे किसी दुर्भावना के साथ यहाँ नहीं आए होंगे। वे लक्ष्मण को रोकते हैं, सचेत करते हैं, लेकिन लक्ष्मण मानते नहीं हैं। अचानक एक बावला सामने आकर खड़ा हो जाता है, और पूरा परिवेश ही एकदम बदल जाता है। राधेश्याम कथावाचक कहते हैं-

नंगे   थे   पाँव   बावले  के—कीचड-मिट्टी   में   लिसे  हुए ।

कुछ कुछ  बह रहा रक्त भी था, काँटे भी थे कुछ चुभे हुए ।।

थे  काले  बाल  धूलि-धूसर,   पीले   मुखड़े   पर   पड़े  हुए ।

जिस  भाँति   भयानक  आँधी  में  श्रीसूर्य देव हों छिपे हुए ।।

उस पर उसकी  उस हालत पर, दर्दीली चितवन जमा तुरत ।

आगे  को  सीतानाथ    बढ़े—आजानु   भुजाएँ   बढ़ा  तुरत ।।

वह व्याकुलता थी  बढ़ने की, धनु कहीं कहीं पर तीर गिरा ।।

महि पर-तर्कश के  साथ-साथ  वह मुनियोंवाला चीर गिरा ।।

बावला   चाहता   है  पहले  रघुवर  को  शीश  झुका  लूँ मैं ।

रघुवीर—चाहते   हैं   पहले    छाती  से  उसे  लगा  लूँ  मैं ।।

आखिर  रघुवर की विजय हुई, हाथों पर उठा लिया उसको ।

वह  चरण  छुए  उससे  पहले छाती से लगा लिया उसको ।।

जब हृदय हृदय का मिलन हुआ-तो दूर विरह का ताप हुआ ।

अब  सबने  देखा— ‘चित्रकूट’ में  ऐसे-'भरत-मिलाप’ हुआ ।।

चित्रकूट का पावन-पुनीत स्थल दो भाइयों के अगाध-असीम स्नेह का भी साक्षी बनता है। शंकाएँ दूर हो जाती हैं। मन के विषाद मिट जाते हैं। चित्रकूट तो वैसे भी अवलोकन-मात्र से विषादों को हर लेने वाला है। यहाँ अयोध्या की प्रजा अपने प्रिय राम को देखकर आह्लादित है। माता कैकेयी, सुमित्रा, कौशल्या आदि माताओं के साथ ही गुरुजन उपस्थित हैं। विदेहराज जनक भी भरत की इस यात्रा का समाचार पाकर सीधे चित्रकूट आ जाते हैं। विंध्य की छाँह तले चित्रकूट गिरि, चित्रकूट परिक्षेत्र अब अनजाना-सा नहीं रह जाता। मिथिला के राजा जनक, निषादराज गुह, अयोध्या का पूरा राजपरिवार और समूची सेना चित्रकूट में जुट जाती है। चित्रकूट की भूमिका एक नए रूप में प्रकट होती है।

भक्तकवि सूरदास के लिए भरत और राम का मिलन बहुत भावुक कर देने वाला है। सूरदास ने इस मेल के प्रसंग का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। रामकथा पर लिखे उनके पदों का संकलन सूर-राम चरितावली में है। भक्तकवि सूरदास कहते हैं-

   भ्रात मुख निरखि राम बिलखाने।

मुंडित केस सीस, बिहबल दोउ, उमँगि कंठ लपटाने ।।

तात-मरन  सुनि  स्रवन कृपानिधि  धरनि  परे मुरझाइ ।

मोह-मगन, लोचन जल-धारा,  विपति न हृदय समाइ ।।

लोटति धरनि परी  सुनि सीता,  समुझति नहिं समुझाई ।

दारुन दुख दवारि ज्यों तृन-बन, नाहिंन बुझति बुझाई ।।

दुरभ   भयौ   दरस   दसरथ कौ,  सो  अपराध   हमारे ।

‘सूरदास’  स्वामी  करुनामय,   नैन     जात   उघारे ।।

राजा दशरथ का परलोकगमन श्रीराम को विचलित कर देता है। अयोध्या का दुर्योग ऐसा था, कि राजा दशरथ के प्राणांत के समय उनका कोई भी पुत्र वहाँ उपस्थित नहीं था। पुत्र-वियोग से कहीं अधिक भाई-भाई के मध्य विवाद का दंश राजा दशरथ को भीतर ही भीतर तोड़ रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। अयोध्या इस विषम काल की प्रत्यक्षदर्शी बनती है, लेकिन चित्रकूट...। यहाँ आज सत्ता के सारे केंद्र सिमटकर इकट्ठे हो गए हैं। राजा दशरथ के परलोकगमन के बाद अयोध्या किसकी होगी, यह तय करने का काम आज चित्रकूट के हिस्से आ गया है।

चित्रकूट में भरत-मिलाप कोई सामान्य घटना नहीं रह जाती, वरन् भविष्य की कार्य-योजना तय करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो जाती है। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी इस प्रसंग की गंभीरता को प्रस्तुत करते हैं। उनके लिए भरत पूज्य हैं, वंदनीय हैं। भरत और राम के प्रेम का वर्णन वे विस्तार के साथ करते हैं। चित्रकूट में राम और भरत का मिलन दैवलोक तक हर्ष और उल्लास का प्रसार करता है-

धन्य  भरत  जय  राम  गोसाईं ।  कहत  देव  हरषत  बरिआईं ।।

मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू । भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ।।

भरत  राम  गुन  ग्राम   सनेहू ।  पुलकि   प्रसंसत   राउ  बिदेहू ।।

अयोध्याकांड में प्रसंग आता है, कि अयोध्या के सभी नर-नारी चित्रकूट पहुँचते हैं, और पाँच दिनों तक रुकते हैं। छठवें दिन सभी प्रस्थान करते हैं। भरतजी एक विश्वास अपने मन में लेकर आए थे, कि वे अपनी माता के अपराध का प्रायश्चित्त भी करेंगे और श्रीराम को अयोध्या ले आएँगे। यदि इतने से बात नहीं बनी, तो वे स्वयं वन में रुक जाएँगे, और श्रीराम को अयोध्या जाने के लिए कहेंगे। पाँच दिनों तक इस विषय को लेकर मंथन चलता है। इसी अवधि में विंध्य गिरि के तले एक प्राचीन पवित्र सिद्ध-स्थल में कूप तैयार कर, उसमें सभी तीर्थों का जल डालकर स्थान को नया नाम भरतकूप का दिया जाता है। भरतजी इस अवधि में चित्रकूट के सभी दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करते हैं, और चित्रकूट में रम रहे श्रीराम के गुणों का श्रवण कर आनंदित होते हैं। पाँच दिनों के मंथन का नवनीत छठवें दिन निकलता है। इसी दिन सबको अयोध्या के लिए प्रस्थान भी करना है। मानस में भरत-मिलाप के प्रसंग का छठवाँ दिन बड़े महत्त्व का है। बाबा तुलसी लिखते हैं-

भोर  न्हाइ  सबु  जुरा समाजू ।  भरत  भूमिसुर  तेरहुति  राजू ।।

भल दिन आजु जानि मन माहीं । राम कृपाल कहत सकुचाहीं ।।

करि  दंडवत  कहत कर जोरी ।  राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ।।

मोहिं  लगि सबहिं  सहेउ संतापू ।  बहुत भाँति दुखु पावा आपू ।।

अब  गोसाईं  मोहि  देउ रजाई ।  सेवौं  अवध  अवधि भर जाई ।।

जेहिं  उपाय  पुनि  पाय   जनु   देखै  दीनदयाल ।

सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ।।

आरति  मोर  नाथ कर   छोहू ।  दुहुँ मिलि कीन्ह दीठु हठि मोहू ।।

यह बड़ दोषु दूर करि स्वामी । तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ।।

भरत  बिनय सुनि सबहिं  प्रसंसी । खीर नीर  बिबरन  गति हंसी ।।

अनुकूल समय जानकर भरत जी अपनी बात कहते हैं। राम और भरत का स्नेहभाव ही यहाँ बचा है। बीच का कलुष-कल्मष धुल चुका है। दोनों भाइयों के बीच स्नेह की अविरल मंदाकिनी, मंदाकिनी के तीर पर बह रही है। राम को अयोध्या का राजपाट नहीं चाहिए। भरत को भी ‘अवधि भर’ के लिए ही अवध को पालना है, फिर राम को वापस लौटा देना है। संपत्ति का मोह दोनों में से किसी को नहीं है। भरत स्वयं ही श्रीराम से कहते हैं, कि मेरे आर्त भाव ने, और आपके आत्मीय प्रेम ने मुझे हठी बना दिया है, इसी कारण मैं हठ कर रहा हूँ। मेरे दोष को दूर करके, और अपने संकोच को मिटा करके आप अपने इस अनुगामी को सीख दें, कि मैं किस तरह से ‘अवधि भर’ के लिए अवध का पालन करूँ?

मोर   तुम्हार  परम  पुरषारथु । स्वारथु   सुजसु  धरम   परमारथु ।।

पितु   आयसु  पालिहिं  दुहु  भाई ।  लोक  बेद  भल  भूप  भलाई ।।

गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ।।

अस  बिचारि सब सोच बिहाई । पालहु  अवध  अवधि  भर  जाई ।।

श्रीराम कहते हैं, कि मेरा और तुम्हारा परम पुरुषार्थ, परमार्थ, स्वार्थ, धर्म और सुयश सभी कुछ इसी में है, कि हम दोनों ही भाई पिता की आज्ञा का पालन करें, ताकि लोक और शास्त्र दोनों में राजा का हित हो, अर्थात् राजा की मान-प्रतिष्ठा को कहीं पर भी कोई ठेस न पहुँचे। गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने पर कुमार्ग में चलने पर भी पैर नीचे नहीं पड़ता, कर्म में पतन नहीं होता है। ऐसा विचार मन में रखते हुए चिंता को त्याग करके जाओ और ‘अवधि भर’ के लिए अवध का पालन करो।

दोनों भाइयों की स्थिति एकदम स्पष्ट है। दोनों को केवल अपने-अपने भाग्य के कर्म करने हैं। अयोध्या का साम्राज्य दोनों में से किसी के मन में लेशमात्र भी लालच उत्पन्न नहीं कर पाता है। चित्रकूट की पुण्यश्लोका धरा साक्षी बनती है, कि अयोध्या का समृद्धशाली साम्राज्य किस तरह कंदुक-सम दोनों भाइयों के बीच एक पाले से दूसरे पाले में जा रहा है। दोनों में से कोई भी अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं कर रहा। यह हमारी सनातन परंपरा का ऐसा जाज्वल्यमान उदाहरण है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। और इस प्रसंग को बाबा तुलसी ने इतना विस्तार से लिखा, तो आखिर क्यों? बाबा तुलसी का रचनाकाल भारत की पराधीनता का समय था। विदेशी आक्रांताओं के साम्राज्य कैसे बनते-बिगड़ते थे, यह बाबा तुलसी ने देखा था। पिता अपने पुत्र को बंदी बना रहा था, तो पुत्र अपने पिता और भाइयों की हत्या करके बादशाह बन रहा था। इस विषमता के कालखंड में बाबा तुलसी की लेखनी भरत और राम के प्रेम को विस्तार से बखानती है, पथभ्रष्टों को रास्ता दिखाती है।

श्रीराम से भरत पूछ रहे हैं, और राम बता रहे हैं-

मुखिया  मुख  सो  चाहिए  खान पान कहुँ एक ।

पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ।।

राजधरम  सरबसु एतनोई ।  जिमि मन माँह मनोरथ गोई ।।

बंधु प्रबोध कीन्ह बहु भाँती । बिनु अधार मन तोषु न साँती ।।

मुखिया को मुख की भाँति होना चाहिए। उसे भेदभाव नहीं करना चाहिए। मुख खान-पान में एक होता है, लेकिन जो भी ग्रहण करता है, उससे सारे शरीर का पालन विवेकपूर्ण ढंग से करता है। जिस तरह मन में मनोरथ छिपे होते हैं, और अन्य कार्य-व्यवहार उससे निकलकर प्रकट होते हैं, उसी प्रकार राजधर्म होता है। राजधर्म का सार भी इतना ही है। भरत जी के लिए ये सीख दिशा-निर्देशक बन जाती है, किंतु उन्हें भौतिक आधार के बिना संतोष नहीं होता। राम अपनी चरण पादुकाएँ उतारकर दे देते हैं। भरत उन्हें अपने सिर पर रख लेते हैं। वाल्मीकि रामायण के दाक्षिणात्य पाठ में हेमभूषित पादुकाएँ बताई गईं हैं, तो गौड़ीय पाठ में शरभंग ऋषि द्वारा भेजी गईं कुश-पादुकाओं को राम द्वारा दिए जाने की बात कही गई है। जातक कथाओं में पादुकाओं द्वारा न्याय किए जाने की बात आती है।

भरत के लिए राम की चरण पादुकाएँ संबल बनती हैं। वे विधिवत् उन्हें सिंहासन में स्थापित करते हैं। स्वयं नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहते हैं।

राम  मातु  गुर  पद सिरु नाई ।  प्रभु  पद पीठ  रजायसु पाई ।।

नंदिगाँव  करि परन कुटीरा ।  कीन्ह निवासु  धरम  धुर धीरा ।।

जटाजूट  सिर  मुनिपट धारी ।  महि खनि कुस साँथरी सँवारी ।।

असन बसन बासन ब्रत नेमा ।  करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ।।

भूषन  बसन  भोग सुख  भूरी ।  मन तन  बचन  तजे तिन तूरी ।।

अवध  राजु  सुर राजु सिहाई ।  दसरथ  धनु सुनि धनदु लजाई ।।

तेंहि  पुर बसत भरत बिनु रागा ।  चंचरीक  जिमि  चंपक बागा ।।

भरत के लिए अयोध्या का राजपाट सुखभोग के लिए नहीं है। वे कठिन साधना करते हैं, ऋषिधर्म का निर्वाह करते हैं। जिस अयोध्या नगरी की समृद्धि को देखकर देवता भी ललचाते हैं, जिस अयोध्या नगरी की संपन्नता को सुनकर धनपति कुबेर भी लजाते हैं, उस अयोध्या नगरी का मोल भरत के लिए तृण के समान है। जैसे चंपक के वन में भौंरा रहता है, वैसे ही संसक्ति से विहीन होकर भरत रह रहे हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भरत द्वारा अयोध्या के राजपाट के संचालन का विशद-व्यापक वर्णन किया है। वे समकालीन परिस्थितियों के मध्य एक दीपस्तंभ की तरह भरत को प्रस्तुत करते हैं। सत्ता के मद में, शक्ति के अहंकार में, धन के घमंड में चूर समाज के समक्ष वे भरत को प्रस्तुत करते हैं। मानस में भरत का विराट व्यक्तित्व प्रकट होता है। रामराज्य की बात बार-बार कही जाती है। यह रामराज्य स्थापित कैसे हुआ, इस प्रश्न का उत्तर तुलसी के मानस में मिलता है। जब भरत जैसा शासक संसक्तिविहीन होकर राजपाट को चलाता है, तब राजमद नहीं होता। जब शासक आसक्ति से मुक्त होकर संन्यस्त-भाव से राजपाट को चलाता है, तब राजमोह नहीं होता। वह अपने दायित्व को ‘अवधि भर’ निभाने से आगे नहीं जाता, अपना अधिकार नहीं जताता। वह निर्विकार-निर्लिप्त भाव से सत्ता सौंप देने के लिए तत्पर रहता है, तैयार रहता है। रामराज्य तभी बनता है। रामराज्य के प्रवर्तक-संस्थापक भरत बनते हैं। भरत ही रामराज्य स्थापित कर पाते हैं। इसी कारण राम के सबसे प्रिय भरत हैं। लक्ष्मण से भी अधिक....। इसी कारण लक्ष्मण के मन में उठने वाली शंका पर राम मौन रहते हैं, लक्ष्मण को समझाते हैं। राम भरत को लेकर आश्वस्त हैं, इसी कारण वे लक्ष्मण के मन में उठी शंकाओं का शमन करते हैं, उन्हें समझाते हैं।

भरत और राम का मिलन इसी कारण रामकथा में, रामलीलाओं में अपना विशेष महत्त्व रखता है। भरत और राम का मिलन रामकथा में दो बार आता है। भरत-मिलाप के दो प्रसंग हैं। एक चित्रकूट में, दूसरा अयोध्या में...। एक वनवास गए राम के साथ, दूसरा वन से लंका-विजय करके लौटे राम के साथ...। वाराणसी में दूसरे भरत-मिलाप का प्रसंग खेला जाता है। वाराणसी की नाटी इमली की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है। वैसे तो शिव की नगरी में जब राम उतरते हैं, तो सारी नगरी ही एक रंगमंच बन जाती है। कहीं लंका, तो कहीं अयोध्या...। पूरे वाराणसी में रामलीला के अलग-अलग प्रसंग अलग-अलग स्थानों में खेले जाते हैं। एकदम अनूठा ही रंग दिखता है। नाटी इमली की रामलीला भरत-मिलाप के प्रसंग से जुड़ी है।

राम ने लंका को जीत लिया है। विभीषण को लंका का राजपाट सौंप दिया है, और स्वयं अयोध्या की ओर चल पड़े हैं। भरत, जो नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं, उनके पास समाचार आता है, कि राम अयोध्या पहुँच रहे हैं। भरत की हठ है, कि राम यदि सूर्य ढलने के पहले उनसे आकर नहीं मिलेंगे, तो वे अपने प्राण त्याग देंगे। यह हठ राम के स्नेह के कारण है, दोनों भाइयों के आपसी प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण है। अनेक लोगों से मिलते-मिलते राम को देर हो जाती है, और राम अचानक चिंतित हो उठते हैं, भरते के लिए। उधर सूरज ढलने को है। राम दौड़कर जाते हैं, और भरत को गले लगा लेते हैं। यह प्रसंग नाटी इमली की रामलीला में इसी भाव के साथ खेला जाता है। मैदान में एक विशेष स्थान पर जब ढलते सूरज की किरणें पड़ रहीं होती हैं, तब राम और भरत का मिलाप होता है। उपस्थित जन-समुदाय भावावेश में विह्वल हो उठता है। इस रामलीला को देखने स्वयं काशी नरेश आते हैं।

भरत और राम के प्रेम को रामकथाओं के साथ ही लोकजीवन ने अपनाया है। इसी कारण भरत-मिलाप की लीला लोक को सुहाती है। लोककथाओं में भरत और राम का प्रेम दिखता है। गोस्वामी तुलसीदास के लिए भरत आदर्श हैं, प्रेरणा के स्रोत हैं। वे बार-बार अपने आराध्य श्रीराम से भरत के गुण कहलाते हैं-

लखन  तुम्हार  सपथ पितु आना ।  सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ।।

भरतु  हंस  रबिबंस  तड़ागा ।   जनमि  कीन्ह  गुन  दोष बिभागा ।।

कहत   भरत  गुन  सील सुभाऊ ।   पेम  पयोधि  मगन  रघुराऊ ।।

जौं न होत जग जनम भरत को । सकल धरम धुर धरनि धरत को ।।

कबि कुल  अगम  भरत गुन गाथा ।  को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा ।।

यदि भरत न होते, तो संसार में समस्त धर्मों की धुरी कौन धारण करता। भरत तो धर्म की धुरी हैं। श्रीराम भरत के गुणों के गायक हैं, वाचक हैं, प्रस्तोता हैं। भरत के गुणों की कथा अगम्य है, और श्रीराम के बिना उन गुणों को कोई नहीं जान सकता।

वाराणसी में नाटी इमली की भरत-मिलाप की लीला के साथ लोकमान्यता जुड़ी है, कि श्रीराम स्वयं इस लीला में उपस्थित होते हैं। बाबा तुलसी द्वारा स्थापित रामलीलाओं के मंचन की परंपरा को मेधा भगत ने आगे बढ़ाया था। मेधा भगत को श्रीराम ने नाटी इमली की रामलीला स्थली में दर्शन दिए थे। श्रीराम का भरत के प्रति अगाध प्रेम लोक को भाता है, क्योंकि लोक इस भाव से रस-संचय कर अपने लिए सीख लेता है, अपने को सीख देता है। गोपीगंज की भरत-मिलाप की लीला भी बहुत प्रसिद्ध है। भाइयों के बीच निष्काम प्रेम-भाव, परिवार के मेल-जोल और निर्विकार-निर्लिप्त राजशासन की भावना भरत-मिलाप की लीला को हर स्थान पर प्रिय बनाती है। चित्रकूट के साथ जितना गहरा संबंध राम का है, उतना ही गहरा संबंध भरत का भी है।

चित्रकूट ने भरतजी के त्याग को, उनके समर्पण को, उनके निर्विकार भाव को, उनके सहज आत्मीय स्वभाव को देखा है। इसी कारण आज भी चित्रकूट में भरतजी की जय-जयकार होती है। रामघाट की संध्या आरती में, विभिन्न मंदिरों की आरती में आज भी भरत जी के नाम का जयकारा लगाया जाता है। लोक सदा से ही राम को धन्य कहता आया है, और भरत की जय-जयकार करता आया है। लोक की आकांक्षा भरत-मिलाप की लीला में पूर्ण होती है।

-राहुल मिश्र

(वार्षिक कर्तव्य मार्ग, जम्मू के वर्ष-2, अंक-2, 2024 में प्रकाशित)