बदलते
नामों और छाँह की दीवार का एक गाँव
चलिए, अब दोबारा कभी मिलना होगा....।
फिर कभी ऐसा संयोग बनेगा, तो मिलेंगे...। यादें साथ रह
जाती हैं।
हमारा इतना कहना हुआ, कि तुरंत ही करनल साहब ने बड़े
दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया- “साहब! जिंदगी में ऐसे ही मोड़ आते हैं, लोग मिलते
हैं, बिछड़ जाते हैं.....। यह तो एक पड़ाव है, ठिकाना है। जिंदगी भी ऐसी ही है,
साहब।”
करनल साहब की बात सुनकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। पिछले
तीन दिनों में हमने करनल सिंह को इतने दार्शनिकाना अंदाज में नहीं देखा था। परिचय
भी तीन दिन ही पुराना था। निःसंदेह किसी आदमी को एक बार में नहीं जाना जा सकता....
और यहाँ कुल जमा तीन दिन यानि पैंसठ-सत्तर घंटे...। लोग तो बरसों-बरस साथ रहकर भी
एक-दूसरे को नहीं जान पाते हैं। खैर, करनल साहब को समझने के लिए हमें इतने लंबे
समय की आवश्यकता नहीं थी। खुला हुआ और सीधा-सपाट स्वभाव करनल सिंह का था। जटिलता
नहीं थी, जिस कारण बातें सरल और सहज थीं। तब आखिर यह दार्शनिकाना अंदाज कहाँ से आ
गया? प्रश्न मन में उठा, उत्तर भी कौंध गया।
वस्तुतः, यह स्थान का प्रभाव बोल रहा था। करनल सिंह
जम्मू-काश्मीर पुलिस के संभवतः हवलदार रैंक के कर्मी थे। किसी सरकारी काम ने हमारे
साथ करनल सिंह को तैनात कर दिया था, जिस कारण करनल सिंह तीन दिनों तक हमारे साथ
थे। हम जिस स्थान पर थे, वह हमारे अनुमान से अतीत के एक रोचक अध्याय से कम न था।
उसी स्थान का प्रभाव करनल सिंह के सिर चढ़कर बोल रहा था, ऐसा हमको अनुभूत हुआ,
उनके इस कथन को सुनकर।
क्यागर, तिगर, टाईगर, टिगर जैसे नाम...। ये अलग-अलग नाम
एक ही गाँव के हैं, जहाँ हम लोग पिछले तीन दिनों से डेरा डाले हुए थे, और आज की
सुबह चल पड़ने के लिए तैयार खड़े थे। गाड़ी वाला गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने
गया था, क्योंकि हमें लंबा रास्ता तय करना था, और ऊपर से खरदुंग ला को भी पार करना
था। खरदुंग हमारे लिए खर तुंग है, जिसकी बड़ी तीव्र चढ़ाई-उतराई है..., तुंग है।
विश्व की सबसे ऊँची ‘मोटरेबल रोड’ भी यही है। गाड़ी वाले के आने तक चारों ओर एक
बार फिर से नजर दौड़ाकर पूरे क्यागर गाँव की सुंदरता को, इसके आकर्षण को अपनी
स्मृतियों के लिए सँजो लेना चाहते थे।
क्यागर गाँव आज भले ही बड़ा शांत और ठहरा हुआ-सा दिख रहा
हो, लेकिन अतीत की कल्पनाओं में मन उतरा, तो बहुत गहरे उतरता चला गया। रेशम मार्ग
से लगा हुआ क्यागर गाँव एक समय में रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ा ठिकाना
हुआ करता था। समरकंद बुखारा से लगाकर ईरान-ईराक-अफगानिस्तान तक चला जाने वाला यह
रेशम मार्ग अपने साथ न जाने कितने लोगों को जोड़ता रहा, अनुमान लगाना कठिन है।
अनुमान तो इसका भी नहीं लगाया जा सकता, कि कितनी संस्कृतियाँ, कितने विचार, कितने
व्यवहार और कितनी प्रजातियाँ इस रेशम मार्ग से होकर आईं-गई-फैलीं-पसरीं और
विचरीं...। इन अनेक यात्राओं के साक्षी रेशम मार्ग के किनारे बसे कितने गाँव और
नगर होंगे, यह भी सहज ही नहीं जाना जा सकता।
क्यागर गाँव में न जाने कितने लोग आए होंगे, ठहरे होंगे,
कुछ समय के लिए डेरा डाला होगा, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़े होंगे... ठीक वैसे
ही, जैसे हम चल पड़ने को तैयार खड़े थे। हर बार जब किसी बटोही ने चल पड़ने के लिए
अपना सामान बाँधा होगा, अपने साथियों से भावुक होकर फिर मिलने के वायदे किए होंगे,
तब हर बार किसी साथी ने करनल सिंह की तरह दार्शिकाना अंदाज में उत्तर दिया होगा।
पिछले तीन दिनों से जिस आकर्षण में क्यागर ने बाँध रखा
था, वह अब तक की हमारी यात्राओं से एकदम अलग था। इसकी गहनता बहुत थी, जो हर बार उस
अतीत की कल्पनाओं में उतार रही थी, जिसे आज के समय में मात्र अनुभूत किया जा सकता
है। रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र रहा है।
लगभग सारी दुनिया ही इस मार्ग की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ी थी। अनेक
छोटे-बड़े व्यापारिक मार्ग भी इससे जुड़कर रेशम मार्ग के नाम से जाने जाते थे। यह चीन
से मध्य एशिया और फिर योरोप तक जाता था। समरकंद, बुखारा से यारकंद तक जाने वाले
रेशम मार्ग को भारत के साथ जोड़ने वाला उपमार्ग क्यागर से होकर जाता था। क्यागर से
हुंदर, पनामिक, दिस्किद, खालसर और फिर लेह तक जाने वाला रास्ता भले ही रेशम मार्ग
का संपर्क मार्ग हो, लेकिन भारत की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े होने के कारण यह
मार्ग बहुत महत्त्व का था। क्यागर रेशम मार्ग के यात्रियों-व्यापारियों के लिए
बड़ा ठिकाना हुआ करता था, और एक प्रकार से यह रेशम मार्ग के सबसे निकट का गाँव था।
स्वाभाविक ही है, कि इस अतीत को जानकर और अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाए।
हमारे जैसे लोगों के लिए तो यह बहुत रोमांचकारी था। एक-एक कण हमें मानों अनेक-अनेक
इतिहास की परतों को सँजोए हुए दिख रहा था। पूरे रास्ते भर यही मन में चलता रहा, कि
अगर समय से पहुँच जाएँगे, तो आज से ही जिज्ञासा-शमन के प्रयास चालू कर देंगे,
दो-चार लोगों से तो मिल ही लेंगे। लेकिन क्यागर तक पहुँचते-पहुँचते धुँधलका हो
चुका था। लद्दाख में धुँधलका होना आधी रात हो जाने जैसा ही होता है, क्योंकि सूरज
के ढलते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। हमें तो प्रायः यही लगा, कि
भीषण सर्दियों की आदतें गर्मियों के मौसम में भी बनी ही रह जाती हैं।
मई-जून का महीना लद्दाख में बहुत ठंडा नहीं होता। रात
सात-आठ बजे तक घर के बाहर आसानी से रहा जा सकता है, लेकिन क्यागर में ऐसा नहीं दिखा। रास्ते में आते समय लोगों को
अपनी गायें, बकरियाँ आदि घर की तरफ ले जाते देखा था। हमारे क्यागर पहुँचने तक क्या
जानवर और क्या आदमी... सभी अपने दड़बों में पहुँच चुके थे। हमारे पास केवल
विश्राम करने का विकल्प शेष था। भला हो श्रीमान टाशी जी का, वे अचानक ही प्रकट हो उठे थे। उनसे कुछ जानकारी मिल सकती है, ऐसा हमें भरोसा भी हो चुका था। टाशी आंगचुक सेना से रिटायर होकर अपने गाँव में रह रहे थे। प्राथमिक परिचय के बाद उनसे यही सवाल किया, कि आप लेह में क्यों नहीं बस गए? उत्तर मिला, गाँव का प्रेम खींच लाया है। नौकरी भर तो बाहर ही रहे हैं। अब गाँव में रहना अच्छा लगता है।
तो आपको अपने गाँव का अतीत भी पता होगा, कुछ गाँव के
बारे में बताइए, तो....।
टाशी जी बोले, इतिहास तो बहुत पता नहीं है, लेकिन छाँह
की दीवार के बारे में अपने बड़े-बूढ़ों से सुना है। गाँव सिल्क रूट से जुड़ा था,
और बहुत संपन्न था, बस इतना ही पता है। लेकिन आपको कल अपने गाँव के मुखिया और
राजपरिवार से संबंध रखने वाले एक महाशय से मिलाने के लिए जरूर ले जा सकते हैं।
उनसे आपको बहुत कुछ जानने को मिलेगा। परंपरागत रसोईघर भी आप देख सकेंगे।
श्रीमान टाशी का यह प्रस्ताव मनोनुकूल था। तुरंत ही हामी
भर दी। साथ में करनल सिंह भी इन बातों को सुन रहे थे, लेकिन उनकी इसमें कोई रुचि
नहीं थी। करनल सिंह खाने की जुगत लगा रहे थे, और फिर उनका विश्राम करने का मन हो
रहा था। ऐसा वो दो बार हमें बता चुके थे। टाशी जी भी घर जाना चाह रहे थे। लिहाजा
तय हुआ, कि कल सुबह टाशी जी आएँगे और उनके साथ श्रीमान सोनम टुंडुप जी से मिलने के
लिए जाएँगे। भोजन के उपरांत विश्राम के क्षणों में भी विचारों का मंथन चलता रहा।
रह रहकर छाँह की दीवार, पुरानी रसोई, काराकोरम की गहन कृष्णता के मध्य बिंदु-सदृश
आभासित महल के ध्वंसावशेष अपने साथ विगत की यात्रा पर मानों ले जाना चाह रहे थे।
रास्ते की थकान कभी इन पर भारी पड़ती, तो कभी ये थकान पर....। कुल मिलाकर रात ऐसे
ही कटी और भोर के उजास ने नई ऊर्जा का संचार किया। कल-कल निनाद करती नुबरा नदी का
मद्धिम स्वर नीलांबर की वीतरागी शांति को भंग करता-सा लग रहा था। दूर-दूर तक
काराकोरम की शृंखलाएँ अलग-अलग रंगों में पसरी हुई-सी ऐसी लग रहीं थीं, मानों
तंद्रा में हैं और सुबह के आलस से निकल नहीं पाईं हैं। इन्हीं विचारों में खोए हुए
थे, कि टाशी जी ने आकर बताया, कि हमें श्रीमान टुंडुप जी से मिलने चलना है। वे
कहीं जाने वाले हैं, इसलिए अभी ही जाना होगा। हम भी तुरंत तैयार होकर चल पड़े।
गाँव के भीतर की गलियाँ अपेक्षाकृत चौड़ी और साफ-सुथरी
थीं। घरों को बहुत करीने से सजाया-सँवारा गया था। सोनम टुंडुप जी का घर किसी गढ़ी
के जैसा था। बहुत विशाल...। एक ओर जानवरों को बाँधने के लिए क्रम से कोठरियाँ बनी
हुई थीं। मुख्य द्वार पर रिग्-सुम (तीन स्तूप) बने हुए थे। उनके नीचे से निकलकर घर
में प्रवेश करना था। बड़े-से दरवाजे के दोनों ओर विशालकाय भंडारगृहों में जलाऊ
लकड़ी को बड़े व्यवस्थित और कलात्मक क्रम से रखा गया था। पहले माले पर जाने के लिए
सीढ़ियाँ थीं, जिनसे होकर हम ऊपर पहुँचे। बड़े-से विश्राम कक्ष में अनेक सजावटी
वस्तुएँ, जिन्हें दुर्लभ की श्रेणी में रखा जा सकता है, सहेजी गईं थीं। टुंडुप जी
ने बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया।
टाशी आंगचुक पहले ही हमारे बारे में बता चुके थे, इस
कारण हमको बहुत बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी। महाशय टुंडुप जी ने बात क्यागर के
बारे में बताते हुए ही प्रारंभ की-- “आज का क्यागर पहले यहाँ नहीं था। यहाँ से
पहले तीन जगहों में इसकी बसावट थी। पहले लुंगदो में यह हुआ करता था। लुंगदो से फिर
जङ्लम में आकर बसा और इसके बाद जिम्सखङ गोङ्मा बसा।“
टुंडुप जी के बताने पर हम उस ध्वसांवशेष की पहचान कर
सके, जिसे काराकोरम की विशाल शृंखलाओं के मध्य एक सफेद बिंदु की भाँति चमकते हुए
देखा था। टुंडुप जी बता रहे थे.... 2015 के पहले तक वह महल देखने में ठीक-ठाक था।
पहले आसपास तमाम घर भी थे। ये बसावट महल के साथ ही थी। महल को जिम्सखङ कहते थे। यह
वास्तव में वंशावली का नाम है, जिससे हमारा खानदान पहचाना जाता है। 2015 की तबाही
के बाद इधर सड़क के साथ लोग बस गए।
टुंडुप जी की बातों का क्रम रेशम मार्ग की ओर चल पड़ा
था। हमारे साथ बैठे आंगचुक जी भी रेशम मार्ग से जुड़ी बातों को सुनने के लिए जरा
सावधान होकर बैठ गए थे। वैसे तो टुंडुप जी ने रेशम मार्ग की गतिविधियों को नहीं
देखा, लेकिन उनके पास बड़े-बूढ़ों से सुनी हुई बातों के सहारे अच्छा खासा स्मृतियों
का भंडार था, जिसका आस्वाद आज हमको भी मिलने वाला था।
“पहले यहाँ यारकंद से आने वाले व्यापारी ठहरा करते थे।
यहाँ पर घास के बड़े मैदान होते थे, जिनमें अलफा-अलफा घास बहुत पैदा होती थी। इसे
हमारी भाषा में ओल बोला जाता है। व्यापारी अपने घोड़ों, ऊँटों आदि जानवरों को
चराने के लिए यहाँ रुकते थे। व्यापारी सासोमा से तकशा और पनामिक होते हुए इस तरफ
को आते थे, दो-तीन दिन रुकते थे और डिगर दर्रा पार करके लेह की तरफ चल पड़ते थे।
वापसी भी ऐसे ही होती थी।“ टुंडुप जी इतना बताते हुए थोड़ा रुके, और फिर बड़ी
गंभीर भंगिमा में बोल पड़े.... अब तो ओल दिखती ही नहीं हैं... पहले बड़े बुजुर्ग
बताते थे कि ऊपर पहाड़ों तक में ओल हुआ करती थी....। अब समय बदल गया है।
“सिल्क रोड के साथ ही अलफा-अलफा भी खतम हो गया...।“
टुंडुप जी का यह कथन बड़ी वेदना में डूबा हुआ था।
रेशम मार्ग कभी देशों की सीमाओं में नहीं बँधा। इसी कारण
अनेक संस्कृतियाँ, साहित्य, विचार, चिंतन, दर्शन, विज्ञान, विचार और व्यवहार आदि न
जाने कितनी विधाएँ लंबी यात्राएँ करके आती रहीं, जाती रहीं और विस्तार पाती रहीं
हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही मार्ग नहीं था। बहुत कुछ इसके साथ जुड़ा है,
जिसे समेकित रूप में मानव सभ्यता के विकास-विस्तार के क्रम में जोड़ा जा सकता है।
केवल अलफा-अलफा घास ही नहीं, ओल ही नहीं... बहुत कुछ उजड़ा है, रेशम मार्ग के रुक
जाने के बाद....। हमारी सीमाएँ बन गईं हैं....।
हमारे मन में एक ओर ये विचार चल रहे थे, और दूसरी ओर टुंडुप
जी धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे।
“आप चाय लेंगे, या दूध....” इस विकल्प के साथ आई एक आवाज
ने हम दोनों को ही रोक दिया था। हमारे विचारों की गति भी रुक गई और टुंडुप जी भी
रुक गए। कुल मिलाकर तय हुआ, कि बढ़िया दूध एक-एक गिलास पिया जाए। गाँव में गौवंश
की कोई कमी नहीं थी। शुद्ध दूध-घी-मक्खन तो वैसे भी गाँवों में ही मिल पाते हैं।
खैर....। बातों का क्रम फिर आगे बढ़ा...।
अब टुंडुप जी हमें अपनी वंशावली के बारे में बता रहे थे-
“हमारा घर का नाम जिम्सखङ है। यह हमारी पहचान कराता है। जिम्सखङ की शाखा ही
दिस्किद, हुंदर और खलसर में है। वहाँ पर हमारे वंश का कोई नहीं बचा है। केवल
क्यागर में ही है। लेह में कलोन (प्रधानमंत्री) होता है, जो राजा के नीचे होता है। इसके बाद
लोनपो (क्षत्रप) होते हैं। इन्हें जिम्सखङ भी कहते हैं।“
टुंडुप जी के इतना बताने के बाद हमारे सामने स्थिति
स्पष्ट हो चुकी थी। लेह राजवंश का शासन यहाँ तक था, बगल में स्करदो और गिलगित-बल्टिस्थान
आदि थे। हुंदर, दिस्किद, खालसर और क्यागर आदि क्षत्रपों के अधीन पूरी व्यवस्था
यहाँ पर चलती थी। कुछ स्थानों पर सुरक्षा चौकियाँ जैसी भी होती थीं, जहाँ से
व्यापारिक गतिविधियों की निगरानी हुआ करती थी। आज वे सब नहीं हैं। लेकिन खंडहरों
में दबे अतीत को आज भी अनुभूत कर सकते हैं।
रास्ते में आते समय मील के पत्थरों पर टाइगर नाम लिखा
हुआ देखा था। जिज्ञासावश इस प्रश्न को टुंडुप जी के सामने रखा, कि यह कोई दूसरी
जगह है, या क्यागर विकृत होकर टाइगर बन गया है.....। हमारे इस प्रश्न ने टुंडुप जी
की वेदना को ही मानों उखाड़ दिया था......।
“ये ग्रीफ वाले भी ना....। जाने बिना ही किलोमीटर में
लिख देते हैं। यह नाम तो गलत है, लेकिन इस नाम से भी जगह को जानते हैं।“
आखिर यह नाम कब बदल गया? मेरे इस प्रश्न पर तुरंत ही
टुंडुप जी बोले... बस ऐसे ही यह गाँव बदलते नामों वाला हो गया है....। कोई टाइगर
कहता है, तो कोई टिगर कहता है, तो कोई तिगर कहता है.....। किसको क्या कहें......।
तो फिर सही क्या है? हमने पूछा।
सही तो क्यागर ही है....। हमारी भाषा में सफेद को करपो
बोलते हैं। वो जो जिम्सखङ महल है ना.... वो दूर से सफेद नजर आता था, इस कारण करपो
से क्यागर बन गया, यानि सफेद महल....।
क्या
कोई गाँव
ऐसा भी होता है जो अपने नाम बदला करे और अगर ऐसे किसी गाँव का पता चले जो बदलते
नामों वाला गाँव
है, तो सुनकर आश्चर्य तो अवश्य ही होगा....। हमको भी जब यह पता चला था, तो अलग ही
रोमांच हुआ था। टुंडुप जी के कहे अनुसार
समझ में आ रहा था, कि गाँव में सड़क पहुँची, तो बहुत कुछ बदल गया....। यहाँ तक कि
गाँव का नाम भी....। वैसे यह विषय बहुत भावुक कर देने वाला था। समय और स्थितियाँ
कैसे बदला करती हैं, आज साक्षात् देख रहे थे। एक जमाने में अपनी हनक से पूरे
क्षेत्र को प्रभावित करने वाला जिम्सखङ आज ध्वंसावशेष है...। टुंडुप जी बता रहे
थे, कि जिम्सखङ की वंशावली में लोनपो सोनम जोलदन को लोग आज भी याद करते हैं। उनके
कामों को आज भी याद किया जाता है। मने खङ, गोनपा आदि के निर्माण के साथ ही लोगों
के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया है। सोनम जोलदन के बाद सोनम तरग्यास, सोनम
दोरजे, सोनम रिगजिन, रिगजिन आंगमो...। महाशय टुंडुप जी रिगजिन आंगमो के दामाद हैं।
लद्दाख
में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी है। धर्मराज सेङ्गे नामग्याल की माँ ग्यल खातून,
सेङ्गे नामग्याल की पत्नी कलसङ डोलमा और राजा देस्क्योङ नमग्याल की रानी ञिलस़ा
वङमो सहित अनेक ऐसी महिलाओं का नाम गिनाया जा सकता है, जिन्होंने राजपरिवार की
सीमा से निकलकर सीधे प्रजा से अपने को जोड़ा है। यह जानकर अच्छा लगा, कि क्यागर के
लोनपो परिवार की उत्तराधिकारी रिगजिन अंगमो हुईं, और यह क्रम उनकी बेटी ने आगे
बढ़ाया है।
टुंडुप
जी बता रहे थे, कि एक समय में यहाँ चूना भट्टी भी हुआ करती थी, जिसमें पकी ईंटे
बनाई जाती थीं। पूरे लद्दाख में कम से कम हमने तो ऐसी चूना भट्टी नहीं ही देखी थी।
लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर एकदम सीमा पर ऐसी व्यवस्था का पाया जाना सिद्ध कर
रहा था, कि अपने समय में यह क्षेत्र बहुत समृद्ध रहा होगा। रेशम मार्ग के व्यापार
की बंदी ने, फिर प्राकृतिक आपदाओं ने, और फिर सीमांत क्षेत्र के हिस्से आई
उपेक्षाओं ने क्यागर सहित अनेक गाँवों को अपने हाल पर छोड़ दिया....।
टुंडुप
जी अब छाँह की दीवार के बारे में बता रहे थे- “क्या पता चूना भट्टी से पकाई गई
ईंटों से छाँह की दीवार बनाई गई हो.....।“
अब
वह दीवार तो नहीं दिखती, लेकिन स्मृतियाँ जीवंत हैं। दूर-दूर तक फैले मैदान में
छाँह ढूँढ़ना संभव नहीं...। नुबरा घाटी तो वैसे भी बर्फ का रेगिस्तान कही जाती है।
हुंदर के आसपास रेगिस्तान जैसी आकृतियाँ मिलती हैं। संभवतः किसी शासक ने नया
प्रयोग किया हो, और धूप से बचने के लिए छाँह की दीवार बनवा दी हो, जिसमें यात्री
और जानवर दोनों ही ठहर सकें। धर्मशालाएँ और प्याऊ जैसे धर्मार्थ कार्य तो बहुत
सुने होंगे, लेकिन यह काम अनूठा लगा...। टुंडुप जी छाँह की दीवार के बारे में बहुत
तो नहीं बता सके, लेकिन इतना अवश्य संकेत दिया, कि जाते समय चूना भट्टी के खंडहरों
को देखते हुए जाएँ। उस जगह को संरक्षित स्मारक के रूप में रखा गया है। सरकारी
बोर्ड भी लगा है।
क्यागर
गाँव की परिधि में बड़ा चरागाह हुआ करता था। समरकंद, बुखारा, यारकंद, लेह आदि से
आने वाले व्यापारी यहाँ के लोगों से किराए पर चरागाह लेकर अपने जानवरों को चारा
खिलाते थे। एक-दो दिन इसी बहाने रुकते थे, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते थे।
महाशय
टुंडुप जी से लंबी वार्ता हो चुकी थी। परंपरागत रसोई भी देखी जा चुकी थी, जिसमें
कलात्मक आकृतियों वाले ताँबे और पीतल के बर्तन सहेजे हुए थे। पुराने अंदाज का
चूल्हा भी था, जिसके आसपास बैठकर भोजन के आस्वाद के साथ ही बतकही का आनंद लिया जा
सकता था। शीत की विकरालता के समय रसोई लद्दाख के लोगों के लिए बड़ा सहारा हुआ करती
थी। क्यागर गाँव में आज भी ऐसा ही है, यह जानकर मन को बड़ी तसल्ली मिली, कि
परंपराएँ अभी भी जीवंत हैं।
महाशय
टुंडुप जी से विदा लेकर हम और आंगचुक जी वापस लौट रहे थे। रास्ते भर हमलोग बतियाते
चले आए। हमारे लिए अनुभूत करना सहज हुआ, कि कैसे यहाँ व्यापारी रुकते रहे होंगे,
किस तरह अलग-अलग संस्कृतियों का मिलन होता रहा होगा....। न जाने कितने चित्र मन
में चलते चले गए...। चित्रपट की तरह...। आंगचुक जी थोड़ी देर बाद आने को कहकर चले
गए।
लौटने
पर देखा, तो करनल जी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। साहब.... बहुत समय लगा दिया...।
भोजन का समय हो गया है....। क्या करेंगे?
करनल
जी के लिए यह रुचि का विषय नहीं है, इसलिए साथ ले जाना उचित नहीं समझा था। देर तो
हो ही चुकी थी, साथ ही अपने काम में भी लगना था, जिसके लिए यहाँ आए थे....। अतः
करनल जी से कहा, कि भोजन कर लेते हैं।
“रसोइया
नहीं आया था, वह किसी जरूरी काम से अचानक ही चला गया है। किसी दूसरे को भेजने के
लिए कह रहा था, तो मैंने ही मना कर दिया....।“ करनल सिंह ने बताया।
.....आज
साहब को अपने हाथ का बना चावल खिलाना है।
हमने
कहा, ठीक है....।
साहब!
लेकिन आपको पसंद न आया, तो क्या करेंगे?
हमने
कहा, चलो देखते हैं...।
करनल
जी ने गरमागरम चावल निकाले, जो केवल प्याज से छौंक कर एकदम अलग तरीके से बनाए गए
थे। सुंगध बरबस खींच रही। हमने पूछा, कि यह कौन-सा व्यंजन है?
करनल
साहब ने बताया.... पुलाव है....।
हमने
कहा, पुलाव तो ऐसा नहीं होता...। स्वाद भी अलग-सा है।
करनल
जी ने कहा, कि हो सकता है.....।
हमने
कहा, तो इस पुलाव को अलग नाम दे देते हैं....।
पनीर
के कई सारे व्यंजन होते हैं, जैसे पनीर पसंदा, पनीर पक्का, पनीर टिक्का आदि....।
वैसे ही पुलाव के भी कई नाम हो सकते हैं....।
करनल
जी इस पर कुछ नहीं बोले, और उनके मौन को सहमति मानते हुए हमने इस विशेष विधि से
बनाए गए पुलाव को करनल पुलाव नाम दे दिया...।
करनल
पुलाव.....। हा! हा!...... साहब आप भी बड़े मजाकिया हैं....। करनल जी बोले...।
हमने
कहा, इसी बहाने आपको, इस सुस्वादु भोजन को, इस स्थान को, आज के दिन को याद
रखेंगे.....।
ठीक
है, साहब...। कहकर करनल सिंह ने अपनी थाली में ध्यान केंद्रित कर लिया।
हमने
भी तुरंत भोजन समाप्त किया और अपने काम में लग गए।
अगला
दिन व्यस्तताओं भरा रहा, लेकिन क्यागर के अतीत में जब भी उतरने का अवसर मिलता,
क्षण भर का ही सही... अवसर पाते ही मन उतर पड़ता। गाँव के कई लोगों से मिलना हुआ,
तरह-तरह की बातें जानने को मिलीं...। गाँव के युवा शहरों को जा चुके थे, अधेड़ और
वृद्धों की संख्या ही अधिक दिखती थी। सैलानियों की गाड़ियों से चहल-पहल बनी रहती
थी। फिर भी एक रिक्तता, एक अजीब-सा वीरानापन, सूनापन अनुभूत होता था। शब्दों में
जिसे बाँध पाना कठिन लगता है। मेहमानों के चले जाने पर घर जिस तरह सूना हो जाता
है, कुछ वैसा ही...।
अगली
सुबह यहाँ से हमें भी निकलना है। यह भी तब ध्यान में आया, जब करनल सिंह ने बताया,
कि अब रात भर बितानी है....।
दरअसल
करनल सिंह को तीन दिन बड़ी कठिनाई के लगे थे। नगरों-महानगरों की जैसी चहल-पहल यहाँ
नहीं थी। बहुत धीमे-धीमे सब चल रहा था, रात भी धीरे-धीरे बीती...सुबह भी हो गई, और
करनल साहब कील-काँटा, वर्दी-बूट दुरुस्त करके सुबह से ही तैनात हो गए थे। हमको ही
कुछ देर हुई थी...।
भला
हो, गाड़ी वाले का, कि निकलने से पहले गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने के लिए निकल
गया था, सो हमें भी कुछ समय मिल गया....। खैर.... तैयार होकर गाड़ी की प्रतीक्षा
कर रहे थे और पिछले तीन दिनों का घटनाक्रम चित्रपट की भाँति चल रहा था। कब गाड़ी
वाला गाड़ी लेकर आ गया और सामान रखकर चलने को तैयार हो गया, पता ही नहीं चला....।
“चलें,
साहब...। गाड़ी आ गई है, सामान भी रख गया ....।“ करनल सिंह ने कहा...।
हम
भी उठे, और चल पड़े...।
केवल
विदा करने वाले का मन भारी नहीं होता, विदा लेने वाले का मन भी भारी हो जाता
है...। रास्ते में टाशी आंगचुक मिल गए थे...। उनसे विदाई ली...। फिर मिलेंगे, यह
वायदा किया। गाड़ी चल पड़ी...। तेजी के साथ क्यागर गाँव का वह धवलाभ ध्वंसावशेष
पीछे छूटता जा रहा था। काराकोरम की ऊँचाइयों पर कहीं रेशम मार्ग की छाप दिखाई दे
रही थी। ऐसे ही सैकड़ों वर्षों से ये डेरा-पड़ाव लगते उखड़ते रहे होंगे...। लोग
मिलते बिछुड़ते रहे होंगे...। अनगिनत कहानियाँ बनती रहीं होंगी...। बदलते नाम और
छाँह की दीवार के इस गाँव ने अपने साथ कितने ही किस्से सहेज रखे होंगे...। और हमने
करनल सिंह के साथ करनल पुलाव को भी जोड़ लिया, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम
आवे...।
-राहुल मिश्र
(राजस्थान साहित्य अकादमी की मुखपत्रिका मधुमती, वर्ष-
65, अंक- 03, मार्च 2025 में प्रकाशित)