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Saturday, 19 March 2022

यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद

 



यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद

प्रगति का साधारण अर्थ है- आगे बढ़ना। जो साहित्य जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक हो, वही प्रगतिशील साहित्य है। इस दृष्टि से विचार करेंगे तो तुलसीदास सबसे बड़े प्रगतिशील लेखक प्रमाणित होते हैं। भारतेंदु बाबू और द्विवेदी युग के लेखक, मुख्यतः मैथिलीशरण गुप्त भी प्रगतिशील लेखक हैं। परंतु आज का प्रगतिवादी इनमें से किसी को भी प्रगतिशील नहीं मानेगा- ये सभी तो उसके अनुसार प्रगतिक्रियावादी लेखक हैं। अतः प्रगति का अर्थ आगे बढ़ना अवश्य है, परंतु एक विशेष ढंग से, एक विशेष दिशा में। उसकी एक विशिष्ट परिभाषा है। इस परिभाषा का आधार है- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद।1

सच्ची बात तो यह है कि हमारे अधिकांश साहित्यकार, जो प्रगतिवादी वर्ग के नेता माने जाते हैं, स्वयं किसी पूँजीपति से कम नहीं हैं। पहाड़ियों के वैभवपूर्ण वातावरण में बैठकर निश्चिंतता से मजदूरों के दुःख-दर्द के गीत लिखे जा सकते हैं, किंतु उनमें अनुभूति की सजीवता आ जाय, यह आवश्यक नहीं। फलतः प्रगतिवादी  साहित्य हमारे हृदय को बहुत कम स्पर्श करता है।2

हिंदी के जाने-माने समीक्षक-आलोचक डॉ. नगेंद्र और हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्येतिहासकार डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त के उक्त कथनों के माध्यम से हिंदी साहित्य के प्रगतिवाद को जाना-समझा जा सकता है। प्रगतिवाद अपने सीधे-सरल अर्थों में भले ही प्रगति की विचारधारा का पोषण करने के अर्थ को व्याख्यायित करता हो, किंतु हिंदी साहित्य में जिस रूढ़ और विशिष्ट अर्थों से संपृक्त प्रगतिवाद की चर्चा की जाती है, वह प्रगति के सीधे और सरल स्वरूप से पूर्णतः भिन्न है। इसी कारण प्रगतिवाद के सामान्य, सीधे और सरल अर्थ को ग्रहण कर लेने पर उसी प्रकार की स्थिति का जन्म हो जाता है, जैसी कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत के साथ बन गई थी, जैसी कि प्रेमचंद के साथ बनी थी। डॉ. नगेंद्र अपने निबंध- ‘प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य’ में लिखते हैं-

हिंदी में प्रगतिवाद का आदिग्रंथ ‘गोदान’ है। परंतु गांधीजी में आस्था रखने वाले प्रेमचंद को शुद्ध प्रगतिवादी शायद न माना जा सके। वे मानववाद के आगे नहीं जा सके। प्रगतिवाद की रूपरेखा पिछले दो-तीन वर्षों से ही बननी आरंभ हुई है। यह एक विचित्र संयोग है कि हिंदी में प्रगतिवाद का भी सबसे पहला लेखक- जिसने उसे गौरव दिया- यही व्यक्ति है, जो छायावाद का भी एक प्रमुख प्रवर्तक था। मेरा आशय कवि पंत से है।

इस वर्ग के कवि-लेखकों में केवल एक ही प्रवृत्ति सर्व-सामान्य है- क्रांति। शुद्ध प्रगतिवादी दृष्टिकोण तो शायद पंत और नये कवियों में नरेंद्र ने ही ग्रहण किया है। और सच तो पंत और नरेंद्र में भी यह बुद्धि की प्रेरणा, संस्कार अभी उनके पीछे को ही दौड़ रहे हैं। शेष लेखक-कवि तो अंशतः ही प्रगतिशील हैं।3

अपने इस लेख के उपरोक्त संदर्भ में नगेंद्र एक टिप्पणी (फुटनोट) भी लिखते हैं- परंतु अब इन दोनों (सुमित्रानंदन पंत और नरेंद्र शर्मा) को भी प्रगतिवादी पार्टी के चीफ व्हिप डॉक्टर रामविलास शर्मा ने पार्टी से निकाल दिया है।4 यह टिप्पणी सिद्ध करती है, कि जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की पक्षधरता प्रगतिवाद का एक प्रमुख आयाम कहा जाता है, वह सैद्धांतिक रूप से यहाँ दिखाई नहीं पड़ता है। यहाँ सुमित्रानंदन पंत की ‘युगवाणी’ में संकलित कविता ‘चींटी’ के एक अंश को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं-

निद्रा, भय, मैथुनाहार / -ये पशु लिप्साएँ चार- / हुईं तुम्हें सर्वस्व-सार? /

धिक् मैथुन आहार यंत्र! / क्या इन्हीं बालुका भीतों पर / रचने जाते हो भव्य, अमर / तुम जन समाज का नव्य तंत्र? / मिली यही मानव में क्षमता? / पशु, पक्षी, पुष्पों से समता? / मानवता पशुता समान है? / प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है? /

बाह्य नहीं आंतरिक साम्य / जीवों से मानव को प्रकाम्य! / मानव को आदर्श चाहिए, / संस्कृति, आत्मोत्कर्ष चाहिए, /

बाह्य विधान उसे हैं बंधन, / यदि न साम्य उनमें अंतरतम- / मूल्य न उनका चींटी के सम, / वे हैं जड़, चींटी है चेतन! / जीवित चींटी, जीवन वाहक, / मानव जीवन का वर नायक, / वह स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक!/5

यहाँ पंत ने जिस प्रकार प्रगतिवाद की संकीर्ण वैचारिकता पर तीखी चोट की है, उसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी तीखी आलोचना को पचा पाना प्रगतिवादियों के लिए सहज नहीं रहा होगा। इसी प्रकार प्रेमचंद के प्रगतिवादियों से संबंध को व्याख्यायित करना होगा। सज्जाद ज़हीर के प्रयासों से लंदन में सन् 1935 में स्थापित होने वाला प्रगतिशील लेखक संघ भारत पहुँचता है। भारत के अनेक साहित्यकारों- जैनेंद्र, गंगानाथ झा, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सच्चिदानंद सिन्हा, शिवदान सिंह चौहान, नरेंद्र शर्मा, हसरत मोहानी, जोश मलिहाबादी और डॉ. अब्दुल हक़ सहित रवींद्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद इस समूह के संपर्क में आए। प्रारंभ में सज्जाद ज़हीर का कहना था, कि यह समूह भारतीय अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव-प्रेम, उसकी यथार्थप्रियता और उसके सौंदर्यतत्त्व लेने के पक्ष में है।6  इस प्रकार प्रगतिवाद की एकदम अलग और प्रायः सर्वस्वीकृत विचारधारा को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन 09-10 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन के सभापति प्रेमचंद थे। यहाँ उल्लेखनीय है कि दो बैलों की कथा, पूस की रात, आत्माराम, स्वत्व रक्षा, अधिकार चिंता, नागपूजा, पूर्व संस्कार, सैलानी बंदर, मुक्तिधन, और ऐसी ही तमाम कहानियों के साथ ही उपन्यासों में प्रेमचंद जितने पशु-पक्षियों के प्रति सहृदय प्रतीत होते हैं, उतना ही लगाव और आकर्षण भारत के ग्राम्य जीवन और भारतीय संस्कृति के प्रतीकों के लिए प्रकट होता है। ऐसी अद्भुत, विलक्षण और कालजयी रचनाएँ करने वाले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की विचारधारा से जुड़कर भारतीय संस्कृति और भारतीयता के प्रतीकों को विस्मृत कर बैठें होंगे, यह स्वीकार करना असंभव है। उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन से पूर्व प्रेमचंद का इस विचारधारा के साथ कोई जुड़ाव नहीं था और इस अधिवेशन के लगभग छह माह बाद ही प्रेमचंद का असामयिक निधन हो गया। कहना न होगा, कि प्रेमचंद की सभी रचनाओं को अपने अनुरूप प्रस्तुत करते हुए प्रगतिवाद के झंडाबरदारों ने प्रेमचंद को अपने खेमे का साहित्यकार घोषित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। यह क्रम आज भी देखा जा सकता है, जबकि वास्तविकता यह है कि यदि प्रेमचंद जीवित होते, तो उन्हें भी पंत और नरेंद्र शर्मा की तरह प्रगतिवादी पार्टी से कब का निष्कासित कर दिया गया होता, या फिर वे जैनेंद्र और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की तरह स्वयं ही अलग हो गए होते। इसी प्रकार रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के कोलकाता अधिवेशन (सन् 1938) की अध्यक्षता की थी। टैगोर का साहित्य, उनकी संगीत-साधना और उनका जीवन किसी भी प्रकार से प्रगतिवाद की विचारधारा से मेल खाने वाला प्रतीत नहीं होता। इसी कारण कालांतर में रवींद्रनाथ ठाकुर भी प्रगतिवाद के खेमे से बाहर हो गए। इस संदर्भ में डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त लिखते हैं-

वस्तुतः मुंशी प्रेमचंद और गुरुदेव टैगोर- दोनों ने ही प्रगतिशीलता को एक व्यापक एवं उदात्त रूप में ही ग्रहण किया था, जबकि परवर्ती साहित्यकारों ने इसे मार्क्सवाद की संकीर्ण सीमाओं में अवरुद्ध करके इसे ‘प्रगतिशीलता’ से ‘प्रगतिवाद’ का रूप दे दिया। प्रगतिशीलता जहाँ किसी वाद-विशेष की सूचक नहीं है। कोई भी विचार, जो समाज की प्रगति में सहायक होता है, ‘प्रगतिशील’ कहा जा सकता है, जबकि ‘प्रगतिवाद’ का अर्थ विशुद्ध मार्क्सवादी विचारों से लिया जाता है। इसीलिए ‘प्रगतिवाद’ की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है।7

रूस की जारशाही को नष्ट करके मार्क्स का जीवन-दर्शन सारी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर चुका था। इस आकर्षण ने लंदन से होते हुए भारत में पदार्पण किया। भारत की सनातन परंपरा, जो अतीत के अनेक उतार-चढ़ावों को देखते-भोगते और विषम परिस्थितियों से जूझते हुए अखंड-अक्षुण्ण बनी हुई थी, उसमें सेध लगाने के लिए जिस प्रकार प्रगतिवाद अर्थात् मार्क्सवाद को ‘प्रगतिशीलता’ के आवरण में छिपाकर प्रस्तुत किया गया, उसने अवश्य ही अनेक बुद्धिजीवियों-साहित्यसेवियों को भ्रमित किया, परंतु भ्रम की यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रह सकी। इस अवधि में ‘प्रगतिवाद’ ने अवश्य ही ऐसा वर्ग तैयार कर लिया था, जो क्रांति की बात करके, द्वंद्वांत्मक भौतिकवाद की बात करके अपना वर्ग तैयार करने के प्रयास में सक्रियता के साथ लगा हुआ था। इसी के फलस्वरूप अवसर का लाभ उठाते हुए ऐसे साहित्यकारों को अपने खेमे में दिखाने का प्रयास ‘प्रगतिवाद’ की धारा के लोग करने लगे, जिनके साहित्य का उल्लेख करके, जिनके स्वयं के प्रभाव का वर्णन करके ‘प्रगतिवाद’ की ओर सामान्य जन को, आम पाठकों को आकर्षित किया जा सके।

यह स्थिति राजनीति के क्षेत्र में भी बनने लगी थी। यहाँ उल्लेख करना होगा, कि इसके लिए सीधा और सरल-सा रास्ता कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) में ही बन गया था। इस अधिवेशन के अध्यक्षीय उद्बोधन में जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं को साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी घोषित करते हुए कहा- मैं तो साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी हूँ।8 उनके द्वारा ‘साम्यवाद’ शब्द किस अर्थ में प्रयोग किया गया है, इसे जाने बगैर पंडित नेहरू के (अंध) अनुयायियों ने साम्यवाद को, और फिर कालांतर में ‘प्रगतिवाद’ को अपना लिया। राजनीति के राजपथ में बिना प्रयास के, बिना किसी संघर्ष के उन ‘क्रांतिकारियों’ ने स्थान पा लिया था, जिन्हें अनेक सुख-सविधाओं के बीच पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों जैसे जीवन को जीते हुए सर्वहारा वर्ग की पीड़ाओं और चिंताओं को कलमबद्ध करने में महारथ हासिल थी। देश के तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दल में साम्यवादियों की यह घुसपैठ कभी आलोचना का विषय नहीं बन सकी। यह अत्यंत रोचक तथ्य है कि कांग्रेस की अपनी नीतियों के निर्धारण में भी इनकी दखल होती रही और इसे स्वीकार किया जाता रहा।

भारतीय समाज-जीवन में धर्म और आस्था का विशिष्ट महत्त्व रहा है। आध्यात्मिकता के बिना भारतीय समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इसके एकदम विपरीत है। इस कारण भारतीय समाज में अपना स्थान बनाने हेतु यह भी आवश्यक था, कि भारतीय आध्यात्मिकता, धर्म-साधना और आस्थावान जीवन-पद्धति को तोड़ा जाए। इस कारण राजनीति और साहित्य में अपनी घुसपैठ से उत्साहित होकर ‘प्रगतिवाद’ या ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ या ‘मार्क्सवाद’ ने धर्म में घुसपैठ का रास्ता खोजना शुरू किया। बौद्धधर्म के अनात्मवाद, अनीश्वरवाद और विज्ञानवाद ने इस रास्ते को सरल बना दिया। भगवान बुद्ध द्वारा जिन बातों को अव्याकृत कहा गया था। जिन बातों पर वे मौन रहे थे, उन्हीं को आधार बनाकर यह प्रचारित-प्रसारित किया जाने लगा, कि बौद्धमत अतीत का, और मार्क्सवाद वर्तमान का जीवन-दर्शन है। इस कारण बौद्ध धर्म को अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा। यह भी प्रचारित किया गया, कि बौद्ध धर्म ही वास्तव में ऐसा धर्म है, जो सर्वहारा समाज के कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकता है। इसी कारण ‘नव बौद्ध’ का विचार समाज में न केवल प्रचलित हुआ, वरन् राजनीतिक हथकंडे के रूप में प्रयोग किए जाने का माध्यम भी बन गया। इसी कारण हजारों वर्षों की उपेक्षा और तिरस्कार की दुहाई दे-देकर राजनीति की रोटियाँ सेंकीं गईं। हजारों-लाखों का समूह बनाकर लोग धर्म-परिवर्तन करने लगे।

इस प्रकार साहित्य, राजनीति और धर्म के क्षेत्र में परजीवी की भाँति सक्रिय होकर भारतीय समाज और संस्कृति पर कुठाराघात करने का श्रेय द्वंद्वात्मक भौतिकवाद या प्रगतिवाद या मार्क्सवाद को जाता है। प्रगतिवादी कविताओं में अनल-गान, अनिल-गान, विप्लव-गान और क्रांति-आह्वान के ऐसे अनेक स्वर उभरने लगे थे, कि मानों सारा देश अनेक बुराइयों-विकृतियों से भर गया है और इस क्रांति-गान से एकदम बदल ही जाएगा। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए परजीवी बनकर रह जाने वाली यह क्रांति की धारा धीरे-धीरे अपने पथ से भटकती चली गई और इसी कारण सबसे पहले साहित्य में इसका स्थान हाशिये पर सिमटकर रह गया। सन् 1950 तक आते-आते यह क्रांति-धारा, यह विप्लव-धारा अपने अवसान की ओर चल पड़ी। राजनीति में स्वयं कभी अपना स्थान नहीं पाकर भी इस धारा के लोग सत्ता के सुख का स्वाद चखते रहे और सत्ता के केंद्र तक अपनी पकड़ बनाए रखने वाले ये परजीवी अपनी विकृत मानसिकता के परिणामस्वरूप अपनी जीवनदायिनी सत्ता-शक्ति को भी ले डूबे। आज धर्म के क्षेत्र में भी इस परजीवी और विकृत-कुत्सित मानसिकता को जाना-समझा जा रहा है और वहाँ भी शुद्धि-परिष्कार का क्रम चल पड़ा है। भारतीय समाज-जीवन के संदर्भों में अप्रासंगिक और अस्वीकार्य इस परजीवी वैचारिकता के अवसान का साक्ष्य बना आज का समय देख रहा है कि सनातन भारतीय परंपरा को तोड़ने वाले, भारतीय समाज की सहकार और सद्भाव वाली संस्कृति को विकृत करने की सोच रखने वाले तत्त्व किस प्रकार बहिष्कृत होते हैं।

संदर्भ-

1.       डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ. त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 877,

2.       डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ. 143,

3.       डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ. त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 882-883,

4.       वही, पृ. 883,

5.       सुमित्रानंदन पंत, चींटी, युगवाणी, हिंदी कविता डॉट कॉम,

6.       अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ, हिंदी विकीपीडिया डॉट आर्ग.,

7.       डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ. 125,

8.       वही, पृ. 128।

(अखिल भारतीय साहित्य परिषद की पत्रिका साहित्य परिक्रमा के जनवरी-मार्च, 2022 अंक में प्रकाशित)

-डॉ. राहुल मिश्र


Wednesday, 12 May 2021

छायावाद : अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...

 

छायावाद : अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...

छायावाद के बारे में यह प्रचलित मजाक था कि जो समझ में न  आवे, अस्पष्ट हो, वह छायावाद है। पुराने अध्यापकों को छायावादी कविताएँ पढ़ाना अब भी अटपटा लगता है और फिर अपनी या अपने छोटे भाई या अपने छात्रों की गवाही दूँ तो सूर, तुलसी, बिहारी और रत्नाकर जैसी स्पष्टता या रस इन कविताओं में प्रारंभ में उपलब्ध नहीं होता। प्रसाद के बारे में तो यह प्रसिद्ध है कि बाद को अपनी किसी कविता का अर्थ वह स्वयं नहीं बता पाए थे। इस तरह आधुनिक हिंदी काव्य के प्रसंग में बोधगम्यता का सवाल छायावादकाल से माना जा सकता है। यह बात एक सहज साहित्यिक स्तर पर उठने वाले सामान्य प्रश्न के लिए कही जा रही है।1

हिंदी के प्रख्यात आलोचक-समीक्षक देवीशंकर अवस्थी की लेखनी से उद्धृत ये विचार हिंदी के छायावाद के संदर्भ में की गईं प्रारंभिक टिप्पणियों से संबद्ध हैं। वे नई कविता और बोधगम्यता के प्रश्न की पड़ताल करते-करते मूल उत्स तक जाने का यत्न करते हैं। अध्यापकों और छात्रों के अलावा रचनाकार, आलोचक और सामान्य पाठकों द्वारा नई कविता के प्रसंग में बोधगम्यता पर उठाए जाने वाले प्रश्नों के संदर्भ में वे अपना मत रखते हैं, कि क्यों न इस प्रश्न को काल की दृष्टि से भी देख लिया जाए। उनकी आलोचनात्मक दृष्टि इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए छायावाद काल में जाकर टिकती है।

आचार्य देवीशंकर अवस्थी छायावाद काल की रचनाओं को अस्पष्ट और बोधगम्यता के स्तर पर जटिल मानने वालों के समर्थन में खड़े नहीं दिखते, वरन् वे इसके पीछे के कारणों को तलाशते हुए स्पष्ट करते हैं, कि- “पहले सहृदय, प्रमाता या रसज्ञ की शिक्षा और संस्कारों पर बल दिया जाता था—रचना दुरूह है यह कोई नहीं कहता था, रसज्ञ असंस्कारी है, यह कहा जाता था। संस्कृत के आचार्य ने बता दिया था, ‘येषां काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयी भवन योग्यता से स्वहृदयसंवादभाजः सहृदयाः।’ पर आज का पंडित इस संस्कारशीलता पर जोर नहीं देता। वह तो सीधे-सीधे रचना को ही पाठ के स्तर पर ले आना बोधगम्यता मानता है। इस प्रकार बोधगम्यता की बात पाठक से रचना पर आधुनिक काल में आरोपित कर दी गई है।”2

इस प्रकार बोधगम्यता के जिस प्रश्न को नई कविता का पूर्ववर्ती कालखंड, अर्थात् छायावाद का काल देखता है, उसकी बोधगम्यता के प्रश्न और उसकी अस्पष्टता का बहुत तार्किक विश्लेषण आचार्य देवीशंकर अवस्थी द्वारा किया जाता है। उनकी कही बातों के क्रम के साथ ही हिंदी के छायावाद काल के विविध संदर्भों को देखें, तो कमोबेश इन्हीं प्रश्नों के आसपास छायावाद का आरंभिक मूल्यांकन और स्थिति हमें दिखाई देती है। छायावाद का कालखंड अनेक ऐतिहासिक और सम-सामयिक स्थितियों से प्रभावित रहा है, और पहचाना गया है। इसके साथ ही साहित्येतिहास की निर्धारित की गई कालावधियों के मध्य छायावाद की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अस्पष्टता और बोधगम्यता के प्रश्न इन स्थितियों से न जुड़े हों, ऐसा नहीं माना जा सकता। भारतेंदु हरिश्चंद के साथ प्रारंभ हुए हिंदी के भारतेंदु युग में खड़ी बोली हिंदी का आगमन होता है, सारे देश की एक भाषा के रूप में इसकी उपस्थिति होती है, किंतु साहित्य के क्षेत्र में खड़ी बोली हिंदी के लिए स्थान बनाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि उसमें ‘ठेठपन’ या ‘खरापन’ है। उस समय सामान्य रूप से यह मान्यता थी, कि- ‘खड़ीबोली की कविता ब्रजभाषा के देखे रूखी होती है।’ यह रूखापन सरसता के साथ ही समझ या बोधगम्यता के लिए भी जटिल होता था।

भारतेंदु युग को नवजागरण काल के रूप में भी जानते हैं। यह नवजागरण अपने अतीत के गौरव के प्रति, भाषा के संस्कारों के प्रति, और साथ ही सुषुप्त-अवस्था में छूट गई संस्कृत-संस्कृति को पुनः गौरव प्रदान करने में भी संलग्न हुआ। परिणामस्वरूप नवजागरण काल में विशुद्धतावाद का आगमन हुआ। “इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य को सर्वप्रथम मार्ग भारतेंदु जी ने ही दिखाया। यदि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को नव-जागरण का प्रधान पोषक मान लें, तो भारतेंदु जी अवश्य ही उसके जन्मदाता थे। काव्य क्षेत्र में द्विवेदी जी ने ही आधुनिक कविता के स्वरूप को प्रतिष्ठित किया। इन्होंने जिस साहित्य की प्रेरणा प्रदान की है वह उपदेश गर्भित तथा सुधारवादी था।”3 द्विवेदी युग में इन विशिष्टताओं को स्थापित करने में हिंदी के मानकीकरण ने भी बहुत बड़ा योगदान दिया। यह अधिक प्रबल तब हुआ, जब साहित्य के लिए प्रयुक्त होने वाली खड़ी बोली हिंदी का मानकीकरण होने लगा, शुद्धीकरण होने लगा। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के विराट व्यक्तित्व और संपादन-कौशल ने खड़ी बोली हिंदी को संस्कृतनिष्ठ, तत्समप्रधान बनाने की शुरुआत की। यह नवजागरण काल से आगे जागरण-सुधार काल के रूप में जाना जाता है। इस कालखंड में नवजागरण की प्रवृत्तियों की सघनता को उसके विशुद्ध रूप के साथ देखा जाने लगा।

इस तरह नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम की अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में एक ओर खड़ी बोली हिंदी अपना आकार ग्रहण कर रही थी, दूसरी ओर काव्य-सृजन की पुरानी परिपाटी काव्य की सर्वप्रिय ब्रजभाषा में ही चल रही थी। भारतेंदु और द्विवेदी युग में गद्य भले ही खड़ी बोली हिंदी में रचा जा रहा था, किंतु काव्य ब्रजभाषा के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहा था। “एक समय ब्रजभाषा के पुराने गौरवशाली काव्य का ऐसा नशा था कि कविता को खड़ी बोली की तरफ खिसकाना कठिन कार्य था। यह अतीत का मोह-बंधन ही न था। आधुनिक युग में किसी समय ब्रजभाषा में ही काव्य-लेखन पर इतना जोर वस्तुतः हिंदी को लेकर तंग नजरिये का सूचक था। इसलिए कविता को ब्रजभाषा से खड़ी बोली की जमीन पर लाने की कोशिशें महज शैली परिवर्तन की नहीं थीं। ये सौंदर्य और मूल्य के एक पूरे संसार को बदलने की लड़ाइयाँ थीं। इनकी वजह से धर्म, शिक्षा, राजनीति और मानवीय संवेदना के एक साथ बहुत सारे मामलों में काफी उथल-पुथल आई।”4

भारतेंदु युग के परवर्ती द्विवेदी युग में गद्य भले ही खड़ी बोली हिंदी में रचा जाने लगा हो, लेकिन प्रतापनारायण मिश्र के द्वारा कही गई उक्ति- ‘खड़ीबोली ब्रजभाषा के देखे रूखी होती है।’, के बंधन से मुक्त नहीं हो पाई थी। इस बंधन को टूटता हुआ देखते हैं- छायावाद के कालखंड में...। कवित्त, सवैया आदि छंदों के लिए खड़ीबोली हिंदी उपयुक्त नहीं रही। ऐसा माना जाता रहा, कि इनकी मृदुल-मंजुल-कोमलकांति खड़ी बोली में नहीं उतर पाई है। छायावाद की भाषा विशुद्ध खड़ीबोली हिंदी थी, लिहाजा हिंदी की कविता में रस के आग्रही और परंपरा का पोषण करने वाले अनेक साहित्यसेवियों के लिए, पाठकों के लिए, अध्येताओं और शिक्षकों-छात्रों के लिए छायावाद की कविता एकदम अलग-अनूठे तरीके से आई, और अस्पष्ट हो गई। देवीशंकर अवस्थी के लिए भी यही स्थिति थी, जिसका उल्लेख उन्होंने अपने आलोचना-आधारित निबंधों में किया।

छायावाद के रूप में आई कविता-क्रांति ने तत्कालीन आलोचकों-समीक्षकों को ऐसा विस्मित किया, कि छायावाद की अनेक रोचक परिभाषाएँ लिखी जाने लगीं। यहाँ गणपतिचंद्र गुप्त के कथन का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं- “हिंदी की कुछ पत्र-पत्रिकाओं— ‘श्री शारदा’ और ‘सरस्वती’—में क्रमशः सन् 1920  और 1921 में मुकुटधर पांडेय और श्री सुशीलकुमार द्वारा दो लेख ‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक से प्रकाशित हुए थे, अतः कहा जा सकता है कि इस नाम का प्रयोग सन् 1920 या उससे पूर्व से होने लग गया था। संभव है कि श्री मुकुटधर पांडेय ने ही इसका सर्व-प्रथम आविष्कार किया हो। यह भी ध्यान रहे, पांडेय जी ने इसका प्रयोग व्यंग्यात्मक रूप में– छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिए किया था, किंतु आगे चलकर यही नाम स्वीकृत हो गया। स्वयं छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े प्रेम से स्वीकार किया है...।”5 बाद के आलोचकों और हिंदी साहित्येतिहास के अध्येताओं ने छायावाद को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने के प्रयास किए। किसी ने ‘सूक्ष्म के प्रति स्थूल का विद्रोह’, किसी ने ‘वस्तुवाद और रहस्यवाद के मध्य स्थित वाद’ बताया है। आचार्य रामचंद्र  शुक्ल ने छायावाद को दो अलग-अलग स्तरों पर स्थित बताया है- काव्य-वस्तु के रूप में चित्रमयी भाषा के साथ व्यक्त अज्ञात-अनंत प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण; और काव्य-शैली के रूप में ब्रजभाषा और परंपरागत रचना-विधानों से मुक्त एक नए प्रयोग के रूप में....।

गणपतिचंद्र गुप्त छायावाद के लिए सर्वसम्मत परिभाषा की अनुपलब्धता के लिए छायावाद के ऊपरी लक्षणों या उसके कुछ बाह्य पक्षों को ही देखने की बात कहते हुए सम्यक् मूल्यांकन की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं, और अपना पक्ष भी रखते हैं। वे छायावाद की मूल चेतना को विश्लेषित करते हुए  इसे पाश्चात्य साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ या स्वच्छंदता का काव्य बताते हैं। छायावाद को स्वच्छंदतावाद के रूप में अभिहित करने के लिए वे तर्क भी देते हैं- “जिस काव्य में इस प्रकार (बाह्य जगत् की अपेक्षा अंतर्जगत को, बौद्धिकता की अपेक्षा भावात्मकता को, यथार्थ की अपेक्षा कल्पना को, सत्य की अपेक्षा सौंदर्य को, परंपरा की अपेक्षा नूतनता को एवं संघर्ष की अपेक्षा प्रेम को अधिक महत्त्व देने) की अंतर्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति होती है, उसे सामान्यतः स्वच्छंदतावाद का नाम दिया जाता है। हिंदी के छायावाद पर भी उपर्युक्त सारी बातें लागू होती हैं।”6 इस तरह छायावाद के संबंध में अस्पष्टता के साथ एक अलग पहचान स्वच्छंदतावाद के रूप में परिलक्षित होती है।

प्रथम विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य के कालखंड में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक उथल-पुथल के बीच बांग्ला साहित्य से होकर हिंदी में आ रही साहित्य की नवीन चेतना परिवर्तित अवश्य हुई, और अंग्रेजी या यूरोपीय प्रभाव सीधे हिंदी में आया, किंतु छायावाद पूरी तरह से यूरोपीय साहित्य के प्रभाव से निकला है, या अंग्रेजी साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ का असर हिंदी में छायावाद बनकर उभरा है, इसे भी स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं लगता है। कुछ विद्वान छायावाद को अंग्रेजी के ‘रोमैंटिसिज्म’ का भारतीय संस्करण कहकर परिभाषित करते हैं, किंतु वस्तुस्थिति इससे विपरीत समझ आती है। जब गणपतिचंद्र गुप्त छायावाद को ‘स्वच्छंदतावाद’ के रूप में व्याख्यायित करते हैं, तब उनका आशय इसे यूरोपीय साहित्य या अंग्रेजी के ‘रोमैंटिसिज्म’ के अनुसरणकर्ता के रूप में बताना नहीं होता। इन बातों के मध्य बारीक विभेद है, जो भ्रम की स्थिति पैदा करता है। डॉ. नगेंद्र स्वयं इस तथ्य को मानते थे, किंतु बाद में उन्होंने अपना मत परिवर्तित किया।7

छायावाद की अस्पष्टता को रहस्य के रूप में देखने के प्रयास भी कम नहीं हुए। यह रहस्य उस बिना रूप-रंग वाले, नाक-नख्श वाले, निराकार प्रेमी के प्रति समर्मण के भाव के रूप में देखा जाता है। प्रेमी अज्ञात है, उसके आदि-अंत का भी कुछ पता नहीं है....। ऐसे प्रेमी के प्रति उपजते भावों को रहस्य के रूप में देखते हुए छायावाद के लिए यह नाम मिलता है। “यह भाव-धारा कवि की समवय तथा रुचियों के अनुसार रंग बदलकर आगे बढ़ती रही, जिसे कहीं रहस्यवाद और कहीं छायावाद के नाम से पुकारा गया, किंतु सबके मूल में प्राचीनता के ऊपर नवीनता का आरोप तथा वर्तमान के हीनतर बंधनों से मुक्त होकर श्रेष्ठतर स्वच्छंदता में विचरण करने के भाव विद्यमान हैं।”8

इस तरह छायावाद के लिए रहस्य, अस्पष्टता और यूरोपीय रोमैंटिसिज्म के प्रभाव से उपजे स्वच्छंदतावाद की गढ़ी गई प्राचीरों के दायरे से बाहर निकलने पर छायावाद के काव्य की भाषा, शिल्प, शब्द-संघटना, छंद-योजना, संरचना, वैचारिकता, भावाभिव्यक्ति की तीव्रता-तरलता, कल्पना की व्यापकता आदि अनेक पक्ष देखने को मिलते हैं। “निराला के मुक्त छंदों का उदाहरण लें, तो कवित्त जैसे छंद में नयी जान फूँक गयी। पंत ने ललित पदावलियों की झड़ी लगा दी। पंत, प्रसाद, निराला और बाद में आईं महादेवी, सबने— किसी ने अधिक तो किसी ने थोड़ा कम- मृदुल मंजुल पदावलियों से कविता खजाना भर दिया। निराला ने पौरुषमय भाषा की रचना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संस्कृत कविता में क्या होता था- यानी कालिदास, भवभूति आदि के यहाँ वह अपनी जगह है, लेकिन आधुनिक युग में संस्कृत पदावलियों की असली शक्ति का पता छायावाद में ही चला।”9

छायावाद के साथ स्वच्छंदतावाद और अंग्रेजी साहित्य के रोमैंटिसिज्म के संबंधों पर डॉ. शिवदान सिंह चौहान की टिप्पणी का उल्लेख यहाँ आवश्यक हो जाता है। वे लिखते हैं- “अतः यह कहना जैसे गलत होगा कि फ्रांसीसी धारा, जर्मन धारा के अनुकरण पर चली या अंग्रेजी धारा, फ्रांसीसी धारा की अनुवर्तिनी थी,  उसी तरह यह कहना भी गलत होगा कि हिंदी की छायावादी कविता पाश्चात्य धारा की नकल है और यदि फैशन की नकल की जाती है तो तत्कालीन समसामयिक फैशन की... सौ वर्ष पुराने फैशन की नहीं...। किंतु उस स्वच्छंदतावादी धारा का, जिससे छायावाद की कविता प्रभावित है, सत्तर वर्ष पहले अवसान हो चुका था, और प्रथम महायुद्ध के बाद की पाश्चात्य कविता स्वच्छंदतावाद के अवशिष्ट ह्रासोन्मुख, घोर व्यक्तिवादी, अनास्थावादी और असामाजिक तत्त्वों को ही एकांगी अभिव्यक्ति दे रही थी। छायावादी यदि सहसा उनकी परिपाटी पर चल पड़ते, तो उन पर अनुकरण वृत्ति का आरोप सही उतरता।”10 डॉ. शिवदान सिंह चौहान की यह टिप्पणी छायावाद पर लगे अनुकरण के आरोप का तार्किक खंडन-मात्र नहीं करती, प्रत्युत् छायावाद के सम्यक्-सर्वाङ्गपूर्ण मूल्यांकन की अनिवार्यता को भी प्रकट करती है।

अपनी लगभग बीस वर्षों की अल्प काल-अवधि में ही हिंदी के छायावाद ने आधुनिक हिंदी कविता को जितनी विपुल साहित्य-राशि दी है, जितनी विविधता और व्यापकता से साक्षात् कराया है, उसे अन्यत्र खोजना कठिन है। इस वैविध्य और व्यापकता के साथ ही भावों की सघनता और विचारों की गंभीरता के बल पर छायावाद का काव्य अपनी पूर्ववर्ती काव्य-प्रवृत्तियों के सामने खड़े होने का सामर्थ्य जुटाता है; और आलोचनाओं-प्रतिक्रियाओं के  बाद भी सिद्ध करता है, कि छायावाद अस्पष्ट छाया का सृजन नहीं, बल्कि विचारों की गंभीरता और भावों की सघनता का काव्य है। इसमें प्राचीन भारतीय दर्शन के तत्त्व भी हैं, और आधुनिकता का बोध भी है। परंपरा के प्रति लगाव भी है, और बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट भी है। इसमें विविधता के इतने सारे रंग हैं, कि यह काव्य के आकाश में इंद्रधनुष-सम प्रतीत होता है।

छायावाद की प्रारंभिक अवस्था में, छायावाद के विस्तार में, और उसकी परवर्ती काल-अवधि में छायावाद को अस्पष्टता के काव्य और बोधगम्यता के स्तर पर दुरूह-जटिल काव्य के रूप में प्रस्तुत और प्रकट किए जाने के पीछे परंपरा से चली आ रही व्यवस्था के बंध टूटने और यूरोपीय प्रभावों के प्रति भारतीय जनमानस की विद्रोही वृत्तियों के कारक परिलक्षित होते हैं। जबकि बाद के वर्षों में यह स्थिति इस प्रकार बदली है, कि छायावाद का काव्य-संसार हिंदी के लिए अमूल्य निधि के रूप में अपनी पहचान बना सका है। इतना अवश्य है, कि आलोचना-समीक्षा के क्षेत्र में पुराने गढ़े गए प्रतिमानों से निकलकर छायावाद को नवीन दृष्टि से देखने-लिखे जाने की आवश्यकता अब भी शेष है।

संदर्भ-

1.      देवीशंकर अवस्थी, नई कविता और बोधगम्यता का प्रश्न, रचना और आलोचना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1995, पृ. 47,

2.      वही, पृ. 48,

3.      डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 224,

4.      शंभुनाथ, हिंदी की धर्मनिरपेक्षता का बिगुल, स्मृति-ग्रंथ : बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री, संपा. सिद्धिनाथ मिश्र, प्रका. अयोध्याप्रसाद खत्री जयंती समारोह समिति, मुजफ्फरपुर, सं. 2007, पृ. 69,

5.      गणपतिचंद्र गुप्त, स्वच्छंदतावादी (छायावादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, बारहवाँ सं. 2010, पृ. 72,

6.      वही, पृ. 73,

7.      वही, पृ. 76,

8.      डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 228,

9.      सुधीर रंजन सिंह, छायावादी काव्य-रूप और परवर्ती कविता, कविता की समझ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018, पृ. 68,

10.     डॉ. शिवकुमार शर्मा, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, सप्तम सं. 1977, पृ. 494 ।


डॉ. राहुल मिश्र

(अनुसंधान, हिंदी एवं आधुनिक भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज उत्तरप्रदेश, संपादक- डॉ. राजेश कुमार गर्ग, वर्ष- 16, अंक- 15-16, जुलाई-दिसंबर 2020 में प्रकाशित)


Tuesday, 1 December 2020

 





शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है...

कहते हैं, पहाड़ी नदियाँ बड़ी शोख़ होती हैं, चंचल होती हैं। लहराना, बल खा-खाकर चलना ऐसा,  कि ‘आधी दुनिया’ को भी इन्हीं से यह हुनर सीखना पड़े। पहाड़ी नदियाँ तो बेशक ऐसी ही होती हैं, मगर कभी हिमानियों से अपना रूप और आकार पाने वाली नदियों के बारे में सोचा है? वैसे तो ये भी पहाड़ों की ही हैं। इसलिए शोख़ी और चंचलता, बाँकपन और अदाकारी इनमें नहीं होगी, ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता है। देख लीजिए अलकनंदा और भागीरथी को, देख लीजिए लोहित और असिक्नी को....., और इनकी जैसी अनेक नदियों को....। एक अलग-सा सौंदर्य, अनूठा अल्हड़पन इनमें नजर आएगा। हिमनदों की इन आत्मजाओं का अनूठा सौंदर्य हिमालय की ऊँचाइयों पर ही देखा जा सकता है। अपने उद्गम से आगे बढ़ते हुए इनकी चंचलता मैदानों तक पहुँचते-पहुँचते गंभीरता में बदल जाती है। ठीक बचपन और बुढ़ापे की तरह...।

हिमनदों की इन चंचल बेटियों में एक शयोक भी है, जो अपनी कुछ अलग ही तासीर रखती है। यह चंद्रा और लोहित की तरह, अलकनंदा की तरह, या फिर भागीरथी की तरह सीधी-सरल और शांत नहीं है। लेह की तरफ से खरदुंग दर्रे को पार करते ही जैसे हम नुबरा घाटी में पहुँचते हैं, हरहराती हुई और तेजी से भागती हुई शयोक जैसे अगवानी करने को तैयार मिलती है। नुबरा घाटी में हम जितने दिन गुजारते हैं, उतने दिनों तक शयोक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। नुबरा घाटी में घूमते हुए कई-कई बार हमें इसके साथ, तो कई बार इसे पार करके दर्शनीय स्थलों में पहुँचना होता है। इतना ही नहीं, शयोक अपने प्रवाह के साथ अपनी एक उपघाटी या अपना मैदानी इलाका भी बनाती है।

  अल्हड़ शयोक अपने उद्गम स्थान से निकलकर ‘गप्शन’ तक पश्चिम और दक्षिण तक बहती है और ‘गप्शन’ से ‘मंदरालिङ’ तक पूर्व दिशा में  बहती है। अपने उद्गम से आगे निकलकर यह गलवाँ और चंङ छेनमो नदियों को अपने साथ ले लेती है। इसके साथ ही यह इस इलाके में मंगोलियन तिब्बत और लद्दाख के बीच एक प्राकृतिक विभाजक रेखा भी खींचती है।  ‘मंदरालिङ’ से ‘शयोग’ तक दक्षिण और ‘शयोग’ से ‘हुंदर’ तक पश्चिमोत्तर बहते हुए बाद में पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए बल्तिस्थान में प्रवेश कर जाती है। बल्तिस्थान के प्रमुख शहर स्करदो के पूर्व की ओर स्थित ‘केरिस’ के नजदीक सिंधु से मिल जाती है।

कई-कई बार शयोक की अल्हड़ चाल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह ‘खरदुंग-ला’ से बहुत नाराज हो। ‘खरदुंग-ला’, यानि खरदुंग दर्रा....भोटभाषा में ‘ला’ दर्रे को कहते हैं। ‘ला’ तो ठीक है, लेकिन ‘खरदुंग’ तो ‘खर’ और ‘तुंग’ का मिश्रण समझ में आता है, जो प्रजातियों-पीढ़ियों की जुबानों में घिस-घिसकर ‘खरदुंग’ हो गया है, शायद। एकदम खड़ी-सी, ऊँची और कठिन चढ़ाई वाला तुंग....खरतुंग। आखिर यह शयोक के रास्ते में आया ही क्यों? उत्तर आसान-सा है, सरल-सा ही है...। पहाड़ हमेशा धीर-गंभीर और वीरव्रती ही नहीं होते, ये खलनायक की भूमिका में भी कभी-कभी आ जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे दुर्गम और कठिन दर्रों के कारण ही लदाख के लिए कहा जाता है, कि यहाँ पर बहुत घनिष्ठ मित्र या बहुत कट्टर दुश्मन ही पहुँच सकता है। मध्यम स्तर वालों के लिए यहाँ आना सुगम नहीं...संभव नहीं। कारण... पहाड़ ही यहाँ पर चुनौतियों के  द्वार खोलते हैं। शायद इसी कारण शयोक की कथा में खरदुंग-ला किसी खलनायक से कम नजर नहीं आता। ऐसी ही एक कथा लाहुल-स्पीति के लोककंठों में जीवंत मिलती है। इस कथा में बारालाचा की दुर्गम ऊँचाइयाँ चंद्रा और भागा के लिए अवरोधक बनती हैं।

बड़े गहरे उतरे स्नेह-भाव के कारण कुछ लोगों द्वारा बड़ालाचा भी कहे जाने वाले बारालाचा के चंद्रताल से निकली चंद्रमा की बेटी चंद्रा, और सूर्यताल से निकला सूरज का बेटा भागा अपने प्रेम को जल तत्त्व में उतारकर साकार करते हैं। वैसे सूर्य का एक नाम भाकर भी है। भाकर का अंश भागा, और चंद्रमा की चंद्रा...। बारालाचा के शिखर से उनकी यात्रा शुरू होती है, मिलन के लिए...। भागा को कुछ ज्यादा ही भागना पड़ता है, दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपना रास्ता बनाना होता है। अंततः ताँदी में दोनों मिलते हैं, और एक प्रयाग, एक संगम वहाँ बन जाता है, आस्था का...प्रेम की पराकाष्ठा का। लाहुल-स्पीति की अनेक लोककथाओं के बीच चंद्रा और भागा की यह प्रेमकथा बड़ी रुचि के साथ सुनी जाती है। ताँदी से आगे चंद्रभागा चेनाब बन जाती है, वैदिककाल की असिक्नी या आज के आम बोलचाल की इशकमती बन जाती है। इसी के किनारे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ पनपती हैं, पंजाबियों के रीति-रिवाज परवान चढ़ते हैं। चंद्रा और भागा का अमर प्रेम मैदानी इलाकों को अपने रंग में रंग देता है।

यही अमर प्रेम शयोक और सिंधु में भी तो दिखता है, इसी कारण मिलन की राह में खड़े खर-तुंग से नाराज शयोक एकदम अपनी दिशा बदलकर बहने लगती है। इसीलिए खरदुंग-ला के पदतल में, हमें जैसे ही शयोक के दर्शन होते हैं, उसका भर्राया हुआ गला, नाराजगी से भरा स्वर सुनाई देता है। नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों में स्वयं को देखने की, मानवीय गुणों और प्रवृत्तियों को देखने की अनूठी भारतीय पंरपरा दुनिया में विलक्षण है, अद्भुत है। इसी कारण शयोक के ही नहीं, हमारे अपने स्वर भी दो प्रेमियों के मिलन की राह में बाधक बनने वाले खलनायक खरदुंग-ला के लिए नाराजगी से भर जाते हैं। बारालाचा में अगर सूरज का बेटा है, तो यहाँ रिमो हिमानी की बेटी है। उधर चंद्रा है, जो बड़ी शालीन और संयत है। इधर शालीनता सिंधु नद के हिस्से में है। वैसे ‘रिमो’ भी भोटभाषा का शब्द है, और धारीदार पहाड़ के लिए इसे प्रयोग किया जाता है। जब माई ही इतनी तीखी है, तो बिटिया शांत-संयत कैसे हो सकती है? कई बार यह विचार शयोक की अल्हड़ चाल के कारणों को खोजते समय मन में उतर पड़ता है।

वैसे शयोक को कुछ और करीब से जानना हो, तो पाँच-छः घंटे का समय निकालकर स्याम गोनबो की लगभग सात-आठ सौ फीट की ऊँचाई पर चढ़ जाइए। धरती के टुकड़े को चाकू से काटती तेज धार की तरह शयोक का बहाव दिखाई पड़ेगा। एक तरफ हिमालय की लदाख पर्वतश्रेणी है, तो दूसरी तरफ काराकोरम पर्वतश्रेणी है। बीच में शयोक है, दो पर्वतश्रेणियों को एक-दूसरे से जुदा करती हुई। यह विभाजन पहाड़ों की बनावट का भी है, और बुनावट का भी...रंग भी दोनों के अलग-अलग...चट्टानें भी अलग और मिट्टी भी अलग। एक तरफ लालिमा है, तो दूसरी ओर कारा जैसी कालिमा...। स्याम गोनबो की ऊँचाई से शयोक को देखकर मन में  सबसे पहला विचार यही आता है, कि, भला हो... शयोक तुम्हारा! जो तुमने  दोनों श्रेणियों को अलग-अलग कर दिया.... कहीं हम एक ही समझ बैठते, तो आखिर क्या होता? यह तो ठीक है, लेकिन क्या तुम्हें एक गति से चलना नहीं आता है?

हे शयोक! हमने भी स्याम गोनबो की ऊँचाइयों से तुम्हें निहारा है। केवल निहारा ही नहीं है, तुम्हारे सानिध्य में पाँच-छः घंटे भी बिताए हैं। सुबह के समय तुम्हारी चाल थमी हुई-सी होती है। उस समय लगता है, कि तुम घुटुरुअन चल रही हो। कोई भी तुम्हारे पास जा सकता है। सिर पर सूरज के चढ़ते-चढ़ते तुम्हारे किनारों के रेतीले मैदानों में नमी पसरने लगती है। कई-कई जलधाराएँ उग आती हैं। साँझ ढलते-ढलते तुम्हारी चाल बहुत तेज हो जाती है। तुम्हारे सहमे-सिकुड़े से किनारे दूर-दूर तक फैल जाते हैं। रात के अँधेरों में भी तुम्हारी तेजी बनी ही रहती है, और सुबह-सवेरे फिर वही वीतरागी मद्धिम चाल....। कहीं तुम्हारे नाम के पीछे तुम्हारी चाल का असर तो नहीं है? अपने ‘ओक’ में, रिमो की गोद में ‘शयन’ कर रहीं तुम आलसियों की तरह दिन चढ़ने पर जागती हो, और देर हो जाने की बदहवासी में तेजी से दौड़ लगा देती हो। तुम्हारी दिन-भर की कलाएँ देखकर ही हमारे मन में ऐसे विचार आते हैं। हो सकता है, दूसरे लोगों के मन में ऐसे विचार आते हों। ‘शय’ और ‘ओक’ के मिलन से बनने वाले तुम्हारे नाम के पीछे भी यही विचार हो सकते हैं।

वैसे यारकंदी लोग शयोक को इस नाम से नहीं जानते। उनके लिए शयोक मौत की नदी है। दरअसल, काराकोरम की विकराल ऊँचाइयों से गुजरने वाले रेशम मार्ग का सहायक मार्ग नुबरा घाटी से जुड़ा हुआ था। लेह को रेशम मार्ग से जोड़ने वाले इस सहायक मार्ग की यात्रा करते समय यारकंदी व्यापारियों को लगभग बीस बार शयोक नदी को पार करना  पड़ता था। गर्मियों में तो इसे पार करना असंभव ही होता था, मगर सर्दियों में भी यह कम कठिन नहीं होता था। अपनी आदत के हिसाब से शयोक एकदम तेजी के साथ बह पड़ती, और यारकंदी व्यापारियों के कारवाँ में शामिल ऊँटों, घोड़ों, आदमियों तक को बहा ले जाती। शयोक के किनारे रहने वाले लोग भी इससे कम डरे हुए नहीं हैं। आज तो तमाम साधन हैं, पुल हैं, सड़कें हैं; लेकिन  गुजरे जमाने में लोग बेबसी को ढोते थे, और वैकल्पिक रास्ते निकालते थे। शयोक के किनारे के कुछ पुराने गाँवों, जैसे हुंदर, हुंदरी, देस्किद और उदमारू आदि के लोग चमरी मृग की खाल से ‘बिप्स’, यानि चमड़े की नाव बनाते थे, और उसके सहारे अपनी जान को जोखिम में  डालकर शयोक को पार करते थे।

भूरी-मटमैली रंग की इस मौत की नदी से नुबरा-शयोक घाटी के लोगों की भी खासी नाराजगी है। जिस शयोक को जीवनदायिनी होना चाहिए, उसके विकराल रूप से आहत लोग अपनी नाराजगी भी बड़ो रोचक अंदाज में व्यक्त करते हैं। आज भी किसी  बूढ़े-बुजर्ग से पूछिए, तो वे कहते हैं कि हम खेती-किसानी के लिए शयोक का पानी लेना नहीं पसंद करते, क्योंकि शयोक हमें जीवन देने वाली नहीं है। शयोक ने अपनी बाढ़ के उफान में कई बार हमारे तटबंधों की मिट्टी बहाई है, हमारी फसलों और पेड़-पौधों को बहाया है। इतना ही नहीं, गाँव के गाँव बहाकर आबादी को मिटाया है। इसलिए हमें शयोक का पानी अपनी फसलों में नहीं डालना है।

ऐसा कहा जाता है कि बल्तिस्थान के यगबो राजवंश की राजधानी काफलू में भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में शयोक नदी ने काफलू के चंगथंग इलाके को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। यह चंगथंग इलाका मंगोलियन तिब्बत से सटे चंगथंग के लोगों का था, जो रेशम मार्ग में नमक का व्यापार किया करते थे। इस भीषण तबाही से आक्रांत लोगों ने उस इलाके को ही छोड़ दिया। इनमें से कुछ लोग ‘छोरबत’ में बस गए और कुछ लोग नुबरा घाटी से होते हुए लेह के निकट ‘छुशोद’ गाँव में आकर बस गए। छुशोद में इन लोगों को ‘बल्ती’ के तौर पर जाना जाता है।

वैसे शयोक ने केवल बल्तियों को ही विस्थापित नहीं किया, वरन् अतीत के तमाम विस्थापनों को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों को देखा है, जो इतिहास में आज भी अनजाने हैं, अनछुए और गुमनाम-से हैं। देश के विभाजन के बाद कारगिल से सड़क मार्ग द्वारा स्करदो तक जाना संभव नहीं रहा। अविभाजित लदाख में स्करदो की उतनी ही बड़ी भूमिका होती थी, जितनी लेह की..। डोगरा शासकों के समय में लदाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो होती थी। सिंधु नद स्करदो से गुजरते हुए केरिस के पास शयोक से मिलता है। केरिस के पास ही शिगर नदी भी सिंधु में मिलती है। यहाँ त्रिवेणी बन जाती है, संगम बन जाता है। केरिस के निकट ही ऐतिहासिक काफलू शहर है।

अतीत का एक लंबा कालखंड ऐसा भी रहा है, जब सिंधु और शयोक के दोआब में दरद भाषा का व्यवहार हुआ करता था। कारगिल-खलच़े से लगाकर स्करदो-गिलगित-हुंजा से होते हुए मंगोलियाई तिब्बत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा तक विस्तृत दरदभाषी क्षेत्र अपने अतीत में दरद आर्यों का निवास स्थान रहा है। आज का बल्तिस्थान अतीत में इसी दरद देश के अंतर्गत ही आता था। आज की धार्मिक-सांस्कृतिक विविधताओं के बीच प्रजातिगत एकरूपता अतीत के गौरव की साक्षी है। इस दरद देश का अतीत महाभारत काल से भी जुड़ा है। महाभारत के युद्ध में दरदों ने कौरवों की तरफ से युद्ध किया था, जबकि किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध किया था। तिब्बती भोटभाषा में किरातों को ‘मोन’ कहा जाता है। इन्हीं मोन लोगों के कारण लदाख का एक नाम ‘मोनयुल’, यानि मोन लोगों का इलाका भी है। सिंधु के तट पर ‘मोन’ या किरातों की, और शयोक के तट पर दरदों की आबादी के सहारे सिंधु-शयोक का दोआब महाभारतकालीन राजनीतिक प्रसंगों का साक्षी बना होगा।

शयोक तो मानव-सभ्यता के विकास की, हिमालय की निर्मिति की साक्षी भी है। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ के तौर पर हम शयोक के प्रवाह को जानते हैं। देश-दुनिया में प्रसिद्ध पङ्गोङ झील की निर्मिति भी शयोक के प्रवाह के कारण हुई। किसी समय टेथिस सागर की लहरों को झेलने वाला शयोक का प्रवाह-क्षेत्र आज भी परवर्ती जुरासिक काल के जीवों के चिन्हों को अपने में छिपाए हुए है। सिंधु नद का अतीत भी इसी तरह परवर्ती जुरासिक काल से जुड़ा हुआ है। इस कारण सिंधु और शयोक से मिलकर सिंधु-शयोक मेखला का निर्माण होता है। इसी कारण सिंधु से मिलना ही शयोक की नियति बन जाती है। यह मिलन केरिस में होता है। सिंधु और शयोक के साथ ही शिगर नदी भी केरिस में मिलती है। अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ केरिस ऐसा संगम बन जाता है, ऐसा जीवंत प्रयाग बन जाता है, जहाँ अतीत के मानव के अस्तित्व का पहला अध्याय लिखा जाता है। जहाँ सभ्यताओं के अस्तित्व और संघर्ष की गाथाएँ गुनी जाती हैं। जहाँ धर्मों-रीतियों-नीतियों के टकराव दर्ज होते हैं। जहाँ भूरी-मटमैली शयोक नदी सिंधु नद से मिलकर अपनी पूर्णता को पाती है, और न पढ़े गए इतिहास के तमाम पन्नों को बाँचती है, उवाचती है। शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है..।

डॉ. राहुल मिश्र

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी अमृतसर की पत्रिका 'बरोह' के दिसंबर, 2019 अंक में प्रकाशित)

Sunday, 18 November 2018

सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा




सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा

सप्तकल्पक्षये    क्षीणे      मृता   तेन  नर्मदा ।
नर्मदैकैव      राजेन्द्र       परं     तिष्ठेत्सरिद्वरा ।। 55 ।।
तोयपूर्णा      महाभाग      मुनिसङ्घैरभिष्टुता ।
गंगाद्याः सरितश्चान्याः कल्पे-कल्पे क्षयं गताः ।। 56 ।।
भारतीय संस्कृति और समाज-जीवन में अपना विशेष महत्त्व रखने वाली नर्मदा नदी का सुंदर-रोचक और धर्म-अध्यात्म से परिपूर्ण वर्णन श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मिलता है। नर्मदा का एक नाम रेवा भी है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में नर्मदा नदी का समग्र वैशिष्ट्य प्रदर्शित-परिलक्षित होता है। रेवाखंड में उल्लिखित है कि सात कल्पों का क्षय हो जाने के बाद भी मृत होना, अर्थात् नष्ट होना तो दूर, जो क्षीण भी नहीं होती है, ऐसी श्रेष्ठ नदी ही नर्मदा कहलाती है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मार्कण्डेय ऋषि और धर्मराज युधिष्ठिर के मध्य संवाद चल रहा है। मार्कण्डेय ऋषि धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि- हे राजेंद्र! नर्मदा ही ऐसी श्रेष्ठ नदी है, जो सदा स्थित रहा कहती है, कभी नष्ट नहीं होती है। इस प्रसंग के पूर्व युधिष्ठिर के प्रश्न पर मार्कण्डेय ऋषि बताते हैं- गंगा सब नदियों में श्रेष्ठ है; उसी प्रकार सरस्वती, कावेरी, देविका, सिंधु, सालकुठी, सरयू, शतरुद्रा, यमुना, गोदावरी आदि अनेक नदियाँ समस्त पापों का हरण करने वाली हैं। ये सभी नदियाँ और समुद्र किस कारण से कल्प, कल्प में नष्ट हो जाते हैं, उनके बारे में मैं बताऊँगा। किंतु इन सबसे अलग नर्मदा नदी ऐसी है, जिसका सात कल्पों में भी क्षय नहीं होता, जो अनेक कल्पों तक अनवरत् प्रवाहमान रहती है, जो कालजयी और शाश्वत है। मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को बताते हैं, कि-  हे महाभाग! नर्मदा नदी सदैव जल से परिपूर्ण रहती है। मुनि-संघ, अर्थात् साधु-संन्यासियों और ऋषि-मुनियों के लिए यह नदी सदैव अभीष्टित रही है। इसके तट पर मुनि-संघ तपश्चर्या करने हेतु सदैव प्रेरित होता रहा है। इसका कारण संभवतः नर्मदा नदी का शाश्वत जीवन है, क्योंकि गंगा और उसके सदृश अनेक नदियों का कल्प-कल्प में क्षय हो जाया करता है।
मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम नर्मदा नदी के उद्गम-स्थल के निकट स्थित है, जिसे वर्तमान में मारकुंडी के नाम से जाना जाता है। विंध्य पर्वतश्रेणियों और सतपुड़ा की पहाड़ियों के मध्य नर्मदा नदी का उद्गम अमरकंटक नामक स्थान पर होता है। विंध्य पर्वतश्रेणी का दक्षिणी छोर चित्रकूट परिक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। अतीत से ही चित्रकूट परिक्षेत्र धर्म-साधना का केंद्र रहा है। इस कारण यहाँ पर अनेक प्रसिद्ध ऋषियों के आश्रम रहे हैं और अनेक साधकों ने इस क्षेत्र का अपनी साधना के लिए चयन भी किया है। नर्मदा नदी के उद्गम के साथ शिवजी की साधना का प्रसंग जुड़ा हुआ है। श्रीस्कंद पुराण में मार्कण्डेय ऋषि नर्मदा के शाश्वत जीवन को बताते हुए कहते हैं कि-
पुरा  शिवः  शान्ततनुश्चचारविपुल तपः ।
हितार्थ  सर्वलोकानामुमया  सह शंकरः ।।14।।
ऋक्षशैलं  समारूह्य  तपस्तेपे सुदारुणम् ।
अदृश्यः सर्वभूतानां सर्वंभूतात्मको वशी ।।15।।
तपस्तस्य  देवस्य स्वेदः समभवत्विकल ।
तंगिरिंप्लावयामास     सस्वेदोरुद्रसंभवः ।।16।।
प्राचीनकाल में परम शांत शरीर वाले शिवजी ने उमाजी के साथ अत्यंत कठिन साधना की थी। लोक-कल्याण के लिए उन्होंने यह तप ऋक्षशैल में किया था। यह ऋक्षशैल विंध्य और सतपुड़ा की पर्वश्रेणियों की संगम-स्थली माना जाता है। कठिन तपश्चर्या के कारण शिवजी के शरीर से निकलने वाली पसीने की बूँदें इस ऋक्षशैल पर गिरीं, जिसने शैल को पिघला दिया और इस प्रकार नर्मदा का जन्म हुआ। ऋक्षशैल को रैवतक पर्वत भी कहा जाता है। रैवतक से उत्पन्न होने के कारण नर्मदा को रेवा के नाम से भी जाना जाता है। शिव को सृष्टि के संहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। नर्मदा के तट पर शिवजी की कठिना साधना-तपश्चर्या शिव के लोकरक्षक स्वरूप को प्रकट करती है। इसके साथ ही शिवजी के स्वेद से उत्पन्न नर्मदा नदी श्रम की महत्ता और साधना की श्रेष्ठता को स्थापित करती है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित आस्था के पक्ष के साथ नर्मदा के तटीय क्षेत्रों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक-सामाजिक अतीत अपने समग्र गौरव के साथ उपस्थित हो जाता है, जिसे अध्ययन की गहराइयों में उतरकर देखा जा सकता है, जाँचा-परखा जा सकता है।
नर्मदा नदी के किनारे गोंड जनजातीय समूह का विस्तार मिलता है। इसी कारण इस क्षेत्र को आज गोंडवाना के नाम से जाना जाता है। इतिहास में गोंड राजवंश का कालखंड पंद्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। गोंड राजवंश की प्रसिद्धि प्रमुख रूप से रानी दुर्गावती के नाम से अंकित है, जिन्होंने अपने पति राजा दलपतशाह के असामयिक निधन के बाद गोंडवाना का शासन पूरी कुशलता के साथ सँभाला, मुगलों की सेनाओं को कई बार पराजित किया और बाद में वीरगति को प्राप्त किया। किंतु इससे पूर्व गोंड जनजातीय समूह को प्राचीनतम जनजातीय समूह और मानव आबादी के स्रोत के रूप में भी जाना जाता है। गोंडी धर्म की कथाओं में शिव को शंभूशेक या महादेव के रूप में जाना जाता है। गोंडों की धार्मिक कथाओं में महादेव की अठासी पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों में शिव के साथ शक्ति का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता है। लोकदेवता के रूप में शिव-शक्ति का युगल लोक का कल्याण करता रहा है, ऐसा गोंडवाना की लोककथाओं और लोकगीतों में वर्णित होता है। महादेव की अठासी पीढ़ियों की शुरुआत शंभु-मूला से होती है और अंतिम पीढ़ी में शंभु-पार्वती का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों का अतीत पाँच हजार से लगाकर दस हजार ईसापूर्व तक माना जाता है। गोंडों का अपना धर्म, जिसे गोंडी भाषा में ‘कोया-पुनेम’ कह जाता है, उसका अतीत भी लगभग इतना ही पुराना है।
कोया-पुनेम का शाब्दिक अर्थ होता है- मानव-धर्म। नर्मदा के तट पर बसी गोंडों की अति-प्राचीन बस्तियाँ अपनी आस्थाओं और जीवनीय मान्यताओं के साथ हजारों वर्ष पहले से मानव-धर्म का निर्वहन करती चली आ रही हैं। ‘कोया-पुनेम’ या मानव-धर्म यहाँ के मूल निवासियों की अपनी आस्थाओं, मान्यताओं और धार्मिक क्रिया-कलापों में प्रकट होता रहा है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित शिव-पार्वती की कठिन तपश्चर्या इसी की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। लोक-कल्याण के लिए, मानव-धर्म को निभाने के लिए गोंडों के आदिपुरुष और गोंडों की आदिशक्ति ने संयुक्त रूप से जिस कठिन तप और साधना से नर्मदा का सृजन किया, उसका धार्मिक स्वरूप श्रम के प्रति आस्थावान होने, साधना के प्रति नतमस्तक होने की सीख देता प्रतीत होता है। इस कारण रैवतक पर्वत की नीलिमा से युक्त रेवा का प्रवाह सदियों से कर्म-सौंदर्य और लोक-कल्याण का गुणगान करता रहा है; श्रम-साधना के प्रति आस्थावान मानव-समुदाय को इन विलक्षण गुणों से जोड़ने हेतु प्रेरित करता रहा है। नर्मदा नदी इसी कारण साधना की प्रतीक है।
रैवतक पर्वत में की गई शिव-पार्वती की तपश्चर्या के संबंध में ऐसी मान्यता है कि यह तपस्या उन्होंने विष्णु के लिए की थी। विष्णु के विभिन्न अवतारों द्वारा अलग-अलग कालखंडों में रक्ष-संहार किया गया। साधना-तपस्या और लोक के कल्याण हेतु संलग्न रहने वाले साधु-संन्यासियों को आतंकित करने वाले क्रूरकर्मा राक्षसों के संहार के लिए विष्णु ने अलग-अलग अवतार धारण किए और धरती पर धर्म की स्थापना की। अलग-अलग कालखंडों में विष्णु द्वारा किए गए संहारों के प्रायश्चित्त के रूप में शिव ने अपनी तपस्या रैवतक पर्वत में की, ऐसा माना जाता है। इस तरह शैव और वैष्णव का अद्भुत समन्वय, अनूठा सामंजस्य नर्मदा के तट पर परिलक्षित होता है। यह नर्मदा का अपना वैशिष्ट्य है, कि शैव-साधना का विशिष्ट केंद्र होकर भी यहाँ वैष्णव भक्ति-भावना के सूत्र जुड़ते हैं।
श्रीस्कंद पुराण में नर्मदा के माहात्म्य को उद्घाटित करने वाले मार्कण्डेय ऋषि जब नर्मदा नदी को सात कल्पों के क्षय हो जाने पर भी क्षीण नहीं होने वाली दुर्लभ नदी कहते हैं, तब बहुधा पुराणकार और कथावाचक के प्रति अतिकाल्पनिक हो जाने का संशय उत्पन्न होने लगता है। पुरातनकाल में आस्थावान लोगों के लिए संशय की स्थितियाँ आज के सदृश नहीं होती थीं। आज की वैज्ञानिक दृष्टि अपनी आस्था को बल देने के लिए तथ्यों को महत्त्व देती है। इस दृष्टि से विचार करने हेतु पुनः गोंड जनजातीय समूहों के अतीत को देखना होगा। आज की भूवैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि पचास करोड़ वर्ष पूर्व धरती में केवल दो महाद्वीप थे। इनमें से एक को ‘लॉरेशिया लैंड’ और दूसरे को ‘गोंडवाना लैंड’ नाम दिया गया है। इन दोनों महाद्वीपों के टूटने पर वर्तमान के पाँच महाद्वीपों का निर्माण हुआ है।
दक्षिणी गोलार्ध में स्थित ‘गोंडवाना लैंड’ का सीधा संबंध नर्मदा नदी के तटीय क्षेत्रों से था। इस कारण आदिमकालीन गोंड जनजातीय समूहों को आदिमानव की बस्तियाँ माना जाता है। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि जीवन का सर्वप्रथम विकास नर्मदा नदी के तट पर हुआ है। नर्मदा नदी घाटी में हुए उत्खनन में डायनासोरों के अंडे और जीवाश्म भी मिले हैं। पेंजिया भूखंड के निर्माण के समय, अर्थात् लगभग तेरह करोड़ वर्ष पूर्व आदिमानव की उत्पत्ति भी नर्मदा नदी घाटी में हुई। नर्मदा घाटी में मिलने वाले खारे पानी के स्रोत और आदिमानव द्वारा बनाए गए शैलचित्र नर्मदा नदी घाटी की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं। गोंडी भाषा में प्रचलित लोकगीतों और लोककथाओं में आदिकालीन मानव के अनेक विविधतापूर्ण चित्र मिलते हैं, जिनके आधार पर भी नर्मदा नदी की प्राचीनता को सिद्ध किया जा सकता है।
सप्तकल्प, अर्थात् लगभग आठ करोड़ चालीस लाख वर्ष गुजर जाने के बाद भी नर्मदा नदी का क्षय नहीं होता, नर्मदा नदी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, ऐसा जब श्रीस्कंद पुराण में कहा जाता है, तब वर्तमान की भूवैज्ञानिक खोजों के आलोक में इस कथन को परखने पर हमारा सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है। जिस समय आज के जैसे आधुनिक उपकरण और परीक्षण की विधियाँ नहीं थीं, उस समय किया गया काल-निर्धारण न केवल आश्चर्य में डाल देने वाला है, वरन् अपने पुरातन ज्ञान-विज्ञान के प्रति असीमित-अपरिमित आस्था की उत्पत्ति करा देने वाला भी है।
विंध्य को उत्तर और दक्षिण का विभाजक माना जाता है। विंध्य और सतपुड़ा के संधि-स्थल से निकलने वाली नर्मदा नदी भी विंध्य की भाँति उत्तर और दक्षिण के मध्य विभाजक रेखा खींचती है। उत्तर और दक्षिण का विभाजन वस्तुतः आर्य और द्रविड़ जातीय समूहों का  विभेद है। इस विभेद को तोड़ने के अनेक प्रयास अतीत से ही होते रहे हैं। विष्णु के हिस्से की तपस्या को रैवतक पर्वत में शिव-पार्वती द्वारा किया जाना, रामेश्वरम् में श्रीराम के द्वारा शिवलिंग की स्थापना करना आदि इसके प्रतीक हैं। ये शैव और वैष्णव के मध्य समन्वय-सौहार्द को स्थापित करने के साथ ही उत्तर और दक्षिण के विभेद को मिटाने के प्रयास भी हैं। भारतीय ऋषि-मुनियों ने, विशेषकर महर्षि अगस्त्य और उनकी पत्नी लोपामुद्रा ने इस कार्य को सक्रियता के साथ किया है। महर्षि अगस्त्य के साथ एक प्रसंग आता है, कि विंध्य को निरंतर ऊँचा होते देखकर उन्होंने विंध्य पर्वत से आग्रह किया, कि उन्हें दक्षिण की ओर जाना है और जब तक वे दक्षिण की यात्रा से लौटकर न आ जाएँ, तब तक वह अपनी ऊँचाई को न बढ़ाए। इस पौराणिक प्रसंग में महर्षि अगस्त्य उत्तर और दक्षिण के मध्य बढ़ती दूरियों को कम करने हेतु प्रयासरत प्रतीत होते हैं। बाद में राम का वनगमन होता है। दक्षिणापथ में अग्रसर होने हेतु राम का पथ-प्रदर्शन अगस्त्य ऋषि द्वारा किया जाता है।
अतीत की यह परंपरा, उत्तर और दक्षिण के मध्य विभेद को कम करने के प्रयासों की अगली कड़ी नर्मदा परिक्रमा में दिखाई पड़ती है। नर्मदा के किनारे-किनारे चलने वाली पदयात्रा इसी कारण अपना धार्मिक महत्त्व-मात्र नहीं रखती, अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक सहकार और सामंजस्य के गुरुतर दायित्व का निर्वहन भी करती है। नर्मदा परिक्रमा का प्रारंभ कब से हुआ, यह बताना कठिन है। यद्यपि कुछ आस्थावान भक्तों द्वारा नर्मदा परिक्रमा के रोचक वृत्तांत को लिपिबद्ध किया गया है। नर्मदा परिक्रमा तीन वर्ष तीन मास और तेरह दिनों में पूर्ण होती है। भगवान दत्तात्रेय के उपासक नर्मदा परिक्रमा को विशेष महत्त्व देते हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और तेलंगाना आदि प्रांतों के साथ ही नेपाल से आने वाले दत्त संप्रदाय के उपासक बड़ी आस्था के साथ नर्मदा की परिक्रमा करते हैं। इस तरह नर्मदा परिक्रमा में उत्तर से दक्षिण तक, अखंड भारतवर्ष सिमट आता है, ऐसा कहा जा सकता है। आपसी मेल-जोल को बढ़ाने, विविध संस्कृतियों और जीवन-दृष्टियों को अवगाहने के लिए नर्मदा परिक्रमा को किसी लोक-उत्सव से कम नहीं कहा जा सकता है।
लोकजीवन के लिए नर्मदा केवल एक नदी नहीं है, वरन् ‘माई’ है, माता है। इसीलिए नर्मदा स्नान को जाते, नर्मदा की परिक्रमा लगाते आस्थावान नर्मदा-पुत्रों की वाणी में- ‘नरबदा मइया ऐसी तो मिली रे.., जैसे मिले हैं मताई ओर बाप रे....’ जैसे लंबी टेर वाले लमटेरा गीत सुनाई पड़ते रहते हैं। राजा मेकल की सुता, मेकलसुता और सोन नद की कथाओं के साथ ही बाजबहादुर और रानी रूपमती की कथाओं को नरबदा माई अपने में बसाए हुए हैं। गोंडवाना की रानी दुर्गावती और महिष्मती (महेश्वर) की रानी अहिल्याबाई होलकर की वीरता को रेवा ने अपने प्रवाह में सँजोया है।
आज भृगु ऋषि की साधना-स्थली भेड़ाघाट प्रसिद्ध पर्यटन-स्थल के रूप में विकसित हुआ है। आस्था और लोक-परंपरा को साथ लेकर चलने वाली नर्मदा परिक्रमा अब तीन वर्ष तीन माह और तेरह दिन से सिमटकर हवाई मार्ग से मात्र तीन-चार घंटे में ही पूरी हो जाने वाली बन गई है। सप्तकल्पों में भी क्षय नहीं होने वाली नर्मदा नदी के किनारे जन्मे आदिमानव के वंशजों के लिए अतीत का गौरवपूर्ण अध्याय आज के भौतिकता से पूर्ण जीवन में पढ़ा जाना दुष्कर प्रतीत होने लगा है। इसके बावजूद नरबदा माई अपने आँचल में असीमित स्नेह भरे हुए अपने सपूतों को जीवन जीने की दिशा दिखा रही हैं, साधना का पथ बता रही हैं, और कर्म के सौंदर्य को प्रतिष्ठापित कर रही हैं।
संदर्भ-स्रोत-
1.  श्रीस्कंद पुराण, द्वितीय खंड, रेवाखंड, सं. श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्कृति संस्थान, बरेली, सं. 1986,
2.  लारेंशिया-गोंडवाना कनेक्शन बिफोर पेंजिया, सं. विक्टर ए. रामोस एवं डंकन कैपी, द जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका, कॉलॉरेडो, सं. 1999,
3.  भारतीय संस्कृति में ऋषियों का योगदान, डॉ. जगतनारायण दुबे, दुर्गा पब्लिकेशंस, दिल्ली, सं. 1989,
4.  संस्कृति-स्रोतस्विनी नर्मदा, अयोध्याप्रसाद द्विवेदी, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, सं. 1987,
5.  जंगल रहे-ताकि नर्मदा बहे, पंकज श्रीवास्तव, नर्मदा संरक्षण पहल, इंदौर, सं. 2007,
6.  हिस्ट्री, ऑर्कियोलॉजी एंड कल्चर ऑफ दि नर्मदा वैली, आर.के. शर्मा, शारदा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, सं. 2007,
7.  एथनिक ग्रुप्स ऑफ साउथ एशिया एंड दि पैसिफिक : एन इनसाइक्लोपीडिया, जेम्स बी. मिन्हन,  एबीसी-सीएलआईओ, एलएलसी, कैलिफोर्निया, सं. 2012,
8.  विकीपीडिया।
-राहुल मिश्र
(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास द्वारा श्रीमहेश्वर, मध्यप्रदेश में आयोजित ‘नर्मदा परिक्रमा’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 13-14 सितंबर, 2018 की स्मारिका में प्रकाशित, सं. डॉ. मंदाकिनी शर्मा एवं डॉ. आशा वर्मा, प्रका. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली)