छायावाद : अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...
छायावाद के बारे में यह प्रचलित मजाक था कि जो समझ में न आवे, अस्पष्ट हो, वह छायावाद है। पुराने
अध्यापकों को छायावादी कविताएँ पढ़ाना अब भी अटपटा लगता है और फिर अपनी या अपने
छोटे भाई या अपने छात्रों की गवाही दूँ तो सूर, तुलसी, बिहारी और रत्नाकर जैसी
स्पष्टता या रस इन कविताओं में प्रारंभ में उपलब्ध नहीं होता। प्रसाद के बारे में
तो यह प्रसिद्ध है कि बाद को अपनी किसी कविता का अर्थ वह स्वयं नहीं बता पाए थे।
इस तरह आधुनिक हिंदी काव्य के प्रसंग में बोधगम्यता का सवाल छायावादकाल से माना जा
सकता है। यह बात एक सहज साहित्यिक स्तर पर उठने वाले सामान्य प्रश्न के लिए कही जा
रही है।1
हिंदी के
प्रख्यात आलोचक-समीक्षक देवीशंकर अवस्थी की लेखनी से उद्धृत ये विचार हिंदी के
छायावाद के संदर्भ में की गईं प्रारंभिक टिप्पणियों से संबद्ध हैं। वे नई कविता और
बोधगम्यता के प्रश्न की पड़ताल करते-करते मूल उत्स तक जाने का यत्न करते हैं।
अध्यापकों और छात्रों के अलावा रचनाकार, आलोचक और सामान्य पाठकों द्वारा नई कविता
के प्रसंग में बोधगम्यता पर उठाए जाने वाले प्रश्नों के संदर्भ में वे अपना मत
रखते हैं, कि क्यों न इस प्रश्न को काल की दृष्टि से भी देख लिया जाए। उनकी आलोचनात्मक
दृष्टि इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए छायावाद काल में जाकर टिकती है।
आचार्य
देवीशंकर अवस्थी छायावाद काल की रचनाओं को अस्पष्ट और बोधगम्यता के स्तर पर जटिल
मानने वालों के समर्थन में खड़े नहीं दिखते, वरन् वे इसके पीछे के कारणों को
तलाशते हुए स्पष्ट करते हैं, कि- “पहले सहृदय, प्रमाता या रसज्ञ की शिक्षा और
संस्कारों पर बल दिया जाता था—रचना दुरूह है यह कोई नहीं कहता था, रसज्ञ असंस्कारी
है, यह कहा जाता था। संस्कृत के आचार्य ने बता दिया था, ‘येषां
काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयी भवन योग्यता से
स्वहृदयसंवादभाजः सहृदयाः।’ पर आज का पंडित इस संस्कारशीलता पर जोर नहीं देता। वह
तो सीधे-सीधे रचना को ही पाठ के स्तर पर ले आना बोधगम्यता मानता है। इस प्रकार बोधगम्यता
की बात पाठक से रचना पर आधुनिक काल में आरोपित कर दी गई है।”2
इस प्रकार
बोधगम्यता के जिस प्रश्न को नई कविता का पूर्ववर्ती कालखंड, अर्थात् छायावाद का
काल देखता है, उसकी बोधगम्यता के प्रश्न और उसकी अस्पष्टता का बहुत तार्किक
विश्लेषण आचार्य देवीशंकर अवस्थी द्वारा किया जाता है। उनकी कही बातों के क्रम के
साथ ही हिंदी के छायावाद काल के विविध संदर्भों को देखें, तो कमोबेश इन्हीं
प्रश्नों के आसपास छायावाद का आरंभिक मूल्यांकन और स्थिति हमें दिखाई देती है।
छायावाद का कालखंड अनेक ऐतिहासिक और सम-सामयिक स्थितियों से प्रभावित रहा है, और
पहचाना गया है। इसके साथ ही साहित्येतिहास की निर्धारित की गई कालावधियों के मध्य
छायावाद की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अस्पष्टता और बोधगम्यता के प्रश्न
इन स्थितियों से न जुड़े हों, ऐसा नहीं माना जा सकता। भारतेंदु हरिश्चंद के साथ
प्रारंभ हुए हिंदी के भारतेंदु युग में खड़ी बोली हिंदी का आगमन होता है, सारे देश
की एक भाषा के रूप में इसकी उपस्थिति होती है, किंतु साहित्य के क्षेत्र में खड़ी
बोली हिंदी के लिए स्थान बनाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि उसमें ‘ठेठपन’ या
‘खरापन’ है। उस समय सामान्य रूप से यह मान्यता थी, कि- ‘खड़ीबोली की कविता
ब्रजभाषा के देखे रूखी होती है।’ यह रूखापन सरसता के साथ ही समझ या बोधगम्यता के
लिए भी जटिल होता था।
भारतेंदु युग
को नवजागरण काल के रूप में भी जानते हैं। यह नवजागरण अपने अतीत के गौरव के प्रति,
भाषा के संस्कारों के प्रति, और साथ ही ‘सुषुप्त-अवस्था’ में छूट गई
संस्कृत-संस्कृति को पुनः गौरव प्रदान करने में भी संलग्न हुआ। परिणामस्वरूप नवजागरण
काल में विशुद्धतावाद का आगमन हुआ। “इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य को
सर्वप्रथम मार्ग भारतेंदु जी ने ही दिखाया। यदि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को
नव-जागरण का प्रधान पोषक मान लें, तो भारतेंदु जी अवश्य ही उसके जन्मदाता थे।
काव्य क्षेत्र में द्विवेदी जी ने ही आधुनिक कविता के स्वरूप को प्रतिष्ठित किया।
इन्होंने जिस साहित्य की प्रेरणा प्रदान की है वह उपदेश गर्भित तथा सुधारवादी था।”3
द्विवेदी युग में इन विशिष्टताओं को स्थापित करने में हिंदी के मानकीकरण ने भी
बहुत बड़ा योगदान दिया। यह अधिक प्रबल तब हुआ, जब साहित्य के लिए प्रयुक्त होने
वाली खड़ी बोली हिंदी का मानकीकरण होने लगा, शुद्धीकरण होने लगा। आचार्य
महावीरप्रसाद द्विवेदी के विराट व्यक्तित्व और संपादन-कौशल ने खड़ी बोली हिंदी को
संस्कृतनिष्ठ, तत्समप्रधान बनाने की शुरुआत की। यह नवजागरण काल से आगे जागरण-सुधार
काल के रूप में जाना जाता है। इस कालखंड में नवजागरण की प्रवृत्तियों की सघनता को
उसके विशुद्ध रूप के साथ देखा जाने लगा।
इस तरह नवजागरण
और स्वाधीनता संग्राम की अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में एक ओर खड़ी बोली हिंदी
अपना आकार ग्रहण कर रही थी, दूसरी ओर काव्य-सृजन की पुरानी परिपाटी काव्य की
सर्वप्रिय ब्रजभाषा में ही चल रही थी। भारतेंदु और द्विवेदी युग में गद्य भले ही
खड़ी बोली हिंदी में रचा जा रहा था, किंतु काव्य ब्रजभाषा के मोह से मुक्त नहीं हो
पा रहा था। “एक समय ब्रजभाषा के पुराने गौरवशाली काव्य का ऐसा नशा था कि कविता को
खड़ी बोली की तरफ खिसकाना कठिन कार्य था। यह अतीत का मोह-बंधन ही न था। आधुनिक युग
में किसी समय ब्रजभाषा में ही काव्य-लेखन पर इतना जोर वस्तुतः हिंदी को लेकर तंग नजरिये
का सूचक था। इसलिए कविता को ब्रजभाषा से खड़ी बोली की जमीन पर लाने की कोशिशें महज
शैली परिवर्तन की नहीं थीं। ये सौंदर्य और मूल्य के एक पूरे संसार को बदलने की
लड़ाइयाँ थीं। इनकी वजह से धर्म, शिक्षा, राजनीति और मानवीय संवेदना के एक साथ
बहुत सारे मामलों में काफी उथल-पुथल आई।”4
भारतेंदु युग
के परवर्ती द्विवेदी युग में गद्य भले ही खड़ी बोली हिंदी में रचा जाने लगा हो,
लेकिन प्रतापनारायण मिश्र के द्वारा कही गई उक्ति- ‘खड़ीबोली ब्रजभाषा के देखे
रूखी होती है।’, के बंधन से मुक्त नहीं हो पाई थी। इस बंधन को टूटता हुआ देखते
हैं- छायावाद के कालखंड में...। कवित्त, सवैया आदि छंदों के लिए खड़ीबोली हिंदी
उपयुक्त नहीं रही। ऐसा माना जाता रहा, कि इनकी मृदुल-मंजुल-कोमलकांति खड़ी बोली
में नहीं उतर पाई है। छायावाद की भाषा विशुद्ध खड़ीबोली हिंदी थी, लिहाजा हिंदी की
कविता में रस के आग्रही और परंपरा का पोषण करने वाले अनेक साहित्यसेवियों के लिए,
पाठकों के लिए, अध्येताओं और शिक्षकों-छात्रों के लिए छायावाद की कविता एकदम
अलग-अनूठे तरीके से आई, और अस्पष्ट हो गई। देवीशंकर अवस्थी के लिए भी यही स्थिति
थी, जिसका उल्लेख उन्होंने अपने आलोचना-आधारित निबंधों में किया।
छायावाद के रूप
में आई कविता-क्रांति ने तत्कालीन आलोचकों-समीक्षकों को ऐसा विस्मित किया, कि
छायावाद की अनेक रोचक परिभाषाएँ लिखी जाने लगीं। यहाँ गणपतिचंद्र गुप्त के कथन का
उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं- “हिंदी की कुछ पत्र-पत्रिकाओं— ‘श्री
शारदा’ और ‘सरस्वती’—में क्रमशः सन् 1920
और 1921 में मुकुटधर पांडेय और श्री सुशीलकुमार द्वारा दो लेख ‘हिंदी में
छायावाद’ शीर्षक से प्रकाशित हुए थे, अतः कहा जा सकता है कि इस नाम का प्रयोग सन्
1920 या उससे पूर्व से होने लग गया था। संभव है कि श्री मुकुटधर पांडेय ने ही इसका
सर्व-प्रथम आविष्कार किया हो। यह भी ध्यान रहे, पांडेय जी ने इसका प्रयोग
व्यंग्यात्मक रूप में– छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिए किया था, किंतु
आगे चलकर यही नाम स्वीकृत हो गया। स्वयं छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े
प्रेम से स्वीकार किया है...।”5 बाद के आलोचकों और हिंदी साहित्येतिहास
के अध्येताओं ने छायावाद को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने के प्रयास किए। किसी
ने ‘सूक्ष्म के प्रति स्थूल का विद्रोह’, किसी ने ‘वस्तुवाद और रहस्यवाद के मध्य
स्थित वाद’ बताया है। आचार्य रामचंद्र
शुक्ल ने छायावाद को दो अलग-अलग स्तरों पर स्थित बताया है- काव्य-वस्तु के
रूप में चित्रमयी भाषा के साथ व्यक्त अज्ञात-अनंत प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम और
समर्पण; और काव्य-शैली के रूप में ब्रजभाषा और परंपरागत रचना-विधानों से मुक्त एक
नए प्रयोग के रूप में....।
गणपतिचंद्र
गुप्त छायावाद के लिए सर्वसम्मत परिभाषा की अनुपलब्धता के लिए छायावाद के ऊपरी
लक्षणों या उसके कुछ बाह्य पक्षों को ही देखने की बात कहते हुए सम्यक् मूल्यांकन
की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं, और अपना पक्ष भी रखते हैं। वे छायावाद की मूल
चेतना को विश्लेषित करते हुए इसे
पाश्चात्य साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ या स्वच्छंदता का काव्य बताते हैं। छायावाद
को स्वच्छंदतावाद के रूप में अभिहित करने के लिए वे तर्क भी देते हैं- “जिस काव्य
में इस प्रकार (बाह्य जगत् की अपेक्षा अंतर्जगत को, बौद्धिकता की अपेक्षा
भावात्मकता को, यथार्थ की अपेक्षा कल्पना को, सत्य की अपेक्षा सौंदर्य को, परंपरा
की अपेक्षा नूतनता को एवं संघर्ष की अपेक्षा प्रेम को अधिक महत्त्व देने) की
अंतर्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति होती है, उसे सामान्यतः स्वच्छंदतावाद का नाम दिया
जाता है। हिंदी के छायावाद पर भी उपर्युक्त सारी बातें लागू होती हैं।”6 इस
तरह छायावाद के संबंध में अस्पष्टता के साथ एक अलग पहचान स्वच्छंदतावाद के रूप में
परिलक्षित होती है।
प्रथम
विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य के कालखंड में राजनीतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक और साहित्यिक उथल-पुथल के बीच बांग्ला साहित्य से होकर हिंदी में आ रही
साहित्य की नवीन चेतना परिवर्तित अवश्य हुई, और अंग्रेजी या यूरोपीय प्रभाव सीधे
हिंदी में आया, किंतु छायावाद पूरी तरह से यूरोपीय साहित्य के प्रभाव से निकला है,
या अंग्रेजी साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ का असर हिंदी में छायावाद बनकर उभरा है,
इसे भी स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं लगता है। कुछ विद्वान छायावाद को अंग्रेजी के
‘रोमैंटिसिज्म’ का भारतीय संस्करण कहकर परिभाषित करते हैं, किंतु वस्तुस्थिति इससे
विपरीत समझ आती है। जब गणपतिचंद्र गुप्त छायावाद को ‘स्वच्छंदतावाद’ के रूप में
व्याख्यायित करते हैं, तब उनका आशय इसे यूरोपीय साहित्य या अंग्रेजी के
‘रोमैंटिसिज्म’ के अनुसरणकर्ता के रूप में बताना नहीं होता। इन बातों के मध्य
बारीक विभेद है, जो भ्रम की स्थिति पैदा करता है। डॉ. नगेंद्र स्वयं इस तथ्य को
मानते थे, किंतु बाद में उन्होंने अपना मत परिवर्तित किया।7
छायावाद की
अस्पष्टता को रहस्य के रूप में देखने के प्रयास भी कम नहीं हुए। यह रहस्य उस बिना
रूप-रंग वाले, नाक-नख्श वाले, निराकार प्रेमी के प्रति समर्मण के भाव के रूप में
देखा जाता है। प्रेमी अज्ञात है, उसके आदि-अंत का भी कुछ पता नहीं है....। ऐसे
प्रेमी के प्रति उपजते भावों को रहस्य के रूप में देखते हुए छायावाद के लिए यह नाम
मिलता है। “यह भाव-धारा कवि की समवय तथा रुचियों के अनुसार रंग बदलकर आगे बढ़ती
रही, जिसे कहीं रहस्यवाद और कहीं छायावाद के नाम से पुकारा गया, किंतु सबके मूल
में प्राचीनता के ऊपर नवीनता का आरोप तथा वर्तमान के हीनतर बंधनों से मुक्त होकर
श्रेष्ठतर स्वच्छंदता में विचरण करने के भाव विद्यमान हैं।”8
इस तरह छायावाद
के लिए रहस्य, अस्पष्टता और यूरोपीय ‘रोमैंटिसिज्म’ के प्रभाव से
उपजे स्वच्छंदतावाद की गढ़ी गई प्राचीरों के दायरे से बाहर निकलने पर छायावाद के
काव्य की भाषा, शिल्प, शब्द-संघटना, छंद-योजना, संरचना, वैचारिकता, भावाभिव्यक्ति
की तीव्रता-तरलता, कल्पना की व्यापकता आदि अनेक पक्ष देखने को मिलते हैं। “निराला
के मुक्त छंदों का उदाहरण लें, तो कवित्त जैसे छंद में नयी जान फूँक गयी। पंत ने
ललित पदावलियों की झड़ी लगा दी। पंत, प्रसाद, निराला और बाद में आईं महादेवी, सबने—
किसी ने अधिक तो किसी ने थोड़ा कम- मृदुल मंजुल पदावलियों से कविता खजाना भर दिया।
निराला ने पौरुषमय भाषा की रचना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संस्कृत कविता में
क्या होता था- यानी कालिदास, भवभूति आदि के यहाँ वह अपनी जगह है, लेकिन आधुनिक युग
में संस्कृत पदावलियों की असली शक्ति का पता छायावाद में ही चला।”9
छायावाद के साथ
स्वच्छंदतावाद और अंग्रेजी साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ के संबंधों पर
डॉ. शिवदान सिंह चौहान की टिप्पणी का उल्लेख यहाँ आवश्यक हो जाता है। वे लिखते
हैं- “अतः यह कहना जैसे गलत होगा कि फ्रांसीसी धारा, जर्मन धारा के अनुकरण पर चली
या अंग्रेजी धारा, फ्रांसीसी धारा की अनुवर्तिनी थी, उसी तरह यह कहना भी गलत होगा कि हिंदी की
छायावादी कविता पाश्चात्य धारा की नकल है और यदि फैशन की नकल की जाती है तो
तत्कालीन समसामयिक फैशन की... सौ वर्ष पुराने फैशन की नहीं...। किंतु उस
स्वच्छंदतावादी धारा का, जिससे छायावाद की कविता प्रभावित है, सत्तर वर्ष पहले
अवसान हो चुका था, और प्रथम महायुद्ध के बाद की पाश्चात्य कविता स्वच्छंदतावाद के
अवशिष्ट ह्रासोन्मुख, घोर व्यक्तिवादी, अनास्थावादी और असामाजिक तत्त्वों को ही
एकांगी अभिव्यक्ति दे रही थी। छायावादी यदि सहसा उनकी परिपाटी पर चल पड़ते, तो उन
पर अनुकरण वृत्ति का आरोप सही उतरता।”10 डॉ. शिवदान सिंह चौहान की यह
टिप्पणी छायावाद पर लगे अनुकरण के आरोप का तार्किक खंडन-मात्र नहीं करती,
प्रत्युत् छायावाद के सम्यक्-सर्वाङ्गपूर्ण मूल्यांकन की अनिवार्यता को भी प्रकट
करती है।
अपनी लगभग बीस
वर्षों की अल्प काल-अवधि में ही हिंदी के छायावाद ने आधुनिक हिंदी कविता को जितनी
विपुल साहित्य-राशि दी है, जितनी विविधता और व्यापकता से साक्षात् कराया है, उसे
अन्यत्र खोजना कठिन है। इस वैविध्य और व्यापकता के साथ ही भावों की सघनता और
विचारों की गंभीरता के बल पर छायावाद का काव्य अपनी पूर्ववर्ती काव्य-प्रवृत्तियों
के सामने खड़े होने का सामर्थ्य जुटाता है; और आलोचनाओं-प्रतिक्रियाओं के बाद भी सिद्ध करता है, कि छायावाद अस्पष्ट छाया
का सृजन नहीं, बल्कि विचारों की गंभीरता और भावों की सघनता का काव्य है। इसमें
प्राचीन भारतीय दर्शन के तत्त्व भी हैं, और आधुनिकता का बोध भी है। परंपरा के
प्रति लगाव भी है, और बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट भी है। इसमें विविधता के
इतने सारे रंग हैं, कि यह काव्य के आकाश में इंद्रधनुष-सम प्रतीत होता है।
छायावाद की
प्रारंभिक अवस्था में, छायावाद के विस्तार में, और उसकी परवर्ती काल-अवधि में
छायावाद को अस्पष्टता के काव्य और बोधगम्यता के स्तर पर दुरूह-जटिल काव्य के रूप
में प्रस्तुत और प्रकट किए जाने के पीछे परंपरा से चली आ रही व्यवस्था के बंध
टूटने और यूरोपीय प्रभावों के प्रति भारतीय जनमानस की विद्रोही वृत्तियों के कारक
परिलक्षित होते हैं। जबकि बाद के वर्षों में यह स्थिति इस प्रकार बदली है, कि
छायावाद का काव्य-संसार हिंदी के लिए अमूल्य निधि के रूप में अपनी पहचान बना सका
है। इतना अवश्य है, कि आलोचना-समीक्षा के क्षेत्र में पुराने गढ़े गए प्रतिमानों
से निकलकर छायावाद को नवीन दृष्टि से देखने-लिखे जाने की आवश्यकता अब भी शेष है।
संदर्भ-
1.
देवीशंकर अवस्थी, नई कविता और बोधगम्यता का प्रश्न, रचना और
आलोचना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1995, पृ. 47,
2.
वही, पृ. 48,
3.
डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय,
हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 224,
4.
शंभुनाथ, हिंदी की धर्मनिरपेक्षता का बिगुल, स्मृति-ग्रंथ :
बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री, संपा. सिद्धिनाथ मिश्र, प्रका. अयोध्याप्रसाद खत्री
जयंती समारोह समिति, मुजफ्फरपुर, सं. 2007, पृ. 69,
5.
गणपतिचंद्र गुप्त, स्वच्छंदतावादी (छायावादी) काव्य-परंपरा,
हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,
बारहवाँ सं. 2010, पृ. 72,
6.
वही, पृ. 73,
7.
वही, पृ. 76,
8.
डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय,
हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 228,
9.
सुधीर रंजन सिंह, छायावादी काव्य-रूप और परवर्ती कविता,
कविता की समझ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018, पृ. 68,
10. डॉ. शिवकुमार शर्मा, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, सप्तम सं. 1977, पृ. 494 ।
डॉ. राहुल
मिश्र
(अनुसंधान,
हिंदी एवं आधुनिक भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज उत्तरप्रदेश, संपादक-
डॉ. राजेश कुमार गर्ग, वर्ष- 16, अंक- 15-16, जुलाई-दिसंबर 2020 में प्रकाशित)
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