Sunday 3 November 2013

इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा : संभावनाएँ और चुनौतियाँ

इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा : संभावनाएँ और चुनौतियाँ
शिक्षा-व्यवस्था के संदर्भ में भारतीय विचारधारा की सुदीर्घ परंपरा वैदिक काल से निरंतरता के साथ चलती रही है। भारत में अंग्रेजों के आगमन और 02 फरवरी, सन् 1935 को गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक की काउंसिल में मैकाले द्वारा प्रस्तुत किये गये सुझावों की भारतीय उपनिवेश में स्वीकार्यता ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था की पुरातन-परंपरागत धारा को एकदम बदल दिया। मैकाले के सुझावों के आधार पर भारत में यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से भारतीय लोगों को दिये जाने का प्राविधान किया गया। इसके परिणामस्वरूप परंपरागत शिक्षा-व्यवस्था के स्थान पर मैकाले की योजना अपनी जड़ें मजबूत करती रही। इसके शुभ और अशुभ परिणाम भारतीय समाज में अनेक तरीकों से परिलक्षित होते रहे।
देश की आजादी के पहले ही आजाद देश की शिक्षा-व्यवस्था का स्पष्ट, व्यावहारिक और सर्वथा उपयोगी खाका खींचने का कार्य महात्मा गांधी ने किया। उन्होंने हिंद स्वराज में लिखा कि, अंग्रेजी बिलकुल ही न पढ़ने से हमारा काम चले, ऐसा समय नहीं रहा। अतः जो लोग अंग्रेजी पढ़ चुके हैं वे उस शिक्षा का सदुपयोग करें। जहाँ जरूरी मालूम हो वहाँ उससे काम लें। अंग्रेजों के साथ व्यवहार करने में, उन हिंदुस्तानियों के लिए जिनकी भाषा हम नहीं समझते, और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से कैसे आजिज आ गये हैं। यह जानने के लिए हमें अंग्रेजी सीखनी चाहिए। जिन्होंने अंग्रेजी पढ़ ली है उन्हें चाहिए कि अपने बच्चों को पहले सदाचार और अपनी भाषा सिखाएँ। फिर हिंदुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखाएँ। जब वे प्रौढ़ वय के हो जाएँ तब चाहें तो अंग्रेजी पढ़ सकते हैं। पर उद्देश्य यही हो कि हमारे लिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी न हो, उससे पैसा कमाना नहीं।1 अनेक विविधताओं से भरे भारत देश को एक राष्ट्र की भावना में बाँधने के लिए महात्मा गांधी ने भाषार्इ समन्वय और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के व्यवहार की पुरजोर वकालत की। आजादी पाने के बाद आजाद भारत के पहरुओं के लिए गांधी के विचार प्रासंगिक नहीं रहे और उनकी प्राथमिकताएँ एक बार फिर मैकाले मिनट्स के इर्द-गिर्द घूमने लगीं। आजाद भारत की शिक्षा-व्यवस्था भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों, सामाजिक न्याय, समता और समानता के अवसर जैसे शब्दों के आवरण में सिमटकर चलती रही। यहाँ मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद के व्यक्तिगत प्रयासों का उल्लेख करना आवश्यक होगा। भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने गांधीवादी विचारों के अनुरूप भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में भारतीय संस्कृति की उपस्थिति को, शिक्षा की समतापूर्ण सर्वसुलभता को और शिक्षा के जनतंत्रीकरण को बढ़ावा दिया। आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था के दिशा निर्धारण में मौलाना आज़ाद की भूमिका अविस्मरणीय रही। शिक्षा पर राजनीतिक नियंत्रण ने गांधी और मौलाना आज़ाद के विचारों को, प्रयासों को ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहने दिया। बाद में डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन, डॉ. संपूर्णानन्द, डॉ.दौलत सिंह कोठारी, डॉ. लक्ष्मणस्वामी मुदालियार, आचार्य राममूर्ति, आदि शिक्षाविदों के संयोजन में, नेतृत्व में अनेक समितियों और आयोगों ने भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के संदर्भ में अनेक सुझाव दिये, सुधार भी हुए।
आजाद भारत की शिक्षा-व्यवस्था के लिए इन मनीषियों के सुझाव सार्थक हुए, उपयोगी भी हुए, किन्तु शिक्षा के विशुद्ध भारतीय स्वरूप को शेष रख पाने की दिशा में अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके। फलतः शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य भौतिक संसाधनों को उपलब्ध कर पाने और व्यक्तिगत स्वार्थों को पूर्ण कर पाने की चेष्टाओं में निहित हो गया। लिंग आधारित, अवसर आधारित और जाति-धर्म-पंथ आधारित असमानताएँ अलोकतांत्रिक अवधारणा के प्रतीकों के रूप में आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हावी रहीं। नब्बे के दशक में आए आर्थिक उदारीकरण, विनिवेश, विश्वव्यापारीकरण और बहुराष्ट्रीकरण के कारण भारतीय समाज में और साथ ही भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में बदलाव आने लगा।
इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का स्वरूप इन्हीं सब बदलावों को साथ लेकर बना है। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत ही बहुराष्ट्रीकरण, आर्थिक उदारीकरण और इनके कारण आर्इ सूचना-संचार क्रांति के व्यापक प्रभावों को लेकर हुर्इ। मैकाले मिनट्स के साथ बदली परंपरागत भारतीय शिक्षा-व्यवस्था को एक बार फिर बदलने का कार्य विश्वग्राम संस्कृति ने किया। विज्ञान, दर्शन और मानविकी के विषयों की प्रासंगिता पर प्रश्न-चिन्ह लगने लगे और अनेक नये विषयों, पाठ्यक्रमों, शिक्षण-प्रशिक्षण प्रविधियों और तकनीकों का आगमन शिक्षा-व्यवस्था में हुआ। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित हुए अंतरराष्ट्रीय पब्लिक स्कूल शिक्षा के वैश्विक स्वरूप के ऐसे ज्वलंत प्रतिमान हैं, जो बचपन में ही यूरोप और अमेरिका, आदि देशों के शैक्षिक भ्रमण के साथ ही बच्चों को ग्रीन कार्ड का सुंदर सपना दिखा देते हैं। माध्यमिक और उच्च शिक्षा-स्तर पर विदेशों में अध्ययन करना आज का स्टेटस सिंबल है। जो विद्यार्थी अध्ययन के लिए विदेश नहीं जा सकते, उनके लिए देश में ही स्थापित हुए निजी विश्वविद्यालयों में वैश्विक स्तर के ऐसे नए-नए पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं, जिनके साथ प्लेसमेंट की सुनिश्चतता भी जुड़ी होती है। इसके लिए कर्ज पाना भी कठिन नहीं रहा है।
प्रबंधन और तकनीकी उच्च शिक्षा हेतु स्थापित छह भारतीय संस्थान (आर्इआर्इएम) व नौ भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान (आर्इआर्इटी) देश में ही नहीं, विदेशों में भी ख्याति रखते हैं। इन संस्थानों से पढ़कर निकले छात्र देश में ही नहीं, विदेशों में भी उच्च पदों पर कार्य कर रहे हैं। इसी तरह चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, सूचना-तकनीकी और कम्प्यूटर विज्ञान आदि अनेक क्षेत्रों में भारतीय मेधा की काबिलियत वैश्विक स्तर पर स्थपित हुर्इ है। आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 1998 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों से निकले कम्प्यूटर इंजीनियरों में से लगभग तीस प्रतिशत कम्प्यूटर इंजीनियर अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों में काम कर रहे हैं। भारत के हर दस में से चार सॉफ़्टवेयर इंजीनियर विदेशों में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। विगत पंद्रह वर्षों में ये आँकड़े तेजी से बदले हैं।
इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में उभरे सूचना-तकनीकी-चिकित्सा-संचार और प्रबंधन के अध्ययन को व्यवस्थित करने का कार्य प्रमुख रूप से राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने किया। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रमुख प्रेरक बल के रूप में ज्ञान को स्वीकार करते हुए, वैश्विक स्तर पर एक प्रतियोगी खिलाड़ी के रूप में उभरने की भारत की क्षमता की ज्ञान संसाधनों पर निर्भरता को स्वीकार करते हुए और 25 वर्ष से कम आयु के 55 करोड़ युवकों सहित भारत की मानवीय पूँजी को सामर्थ्यवान बनाने की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए 13 जून, सन् 2005 को श्री सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन किया गया। सन् 2006 में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने सिफारिशें दीं कि पुस्तकालय, अनुवाद, अंग्रेजी भाषा अध्यापन, राष्ट्रीय ज्ञान तंत्र (नेटवर्क), शिक्षा का अधिकार, व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण, उच्चतर शिक्षा, राष्ट्रीय विज्ञान और समाज विज्ञान प्रतिष्ठान तथा र्इ-अधिकारिता के क्षेत्रों में त्वरित विकास किया जाए। सन् 2007, 2008 और 2009 में क्रमशः मुक्त शैक्षिक पाठ्य विवरण, प्रबंध शिक्षा, बौद्धिक संपदा अधिकार, नवाचार; स्कूल शिक्षा, उत्तम पी-एच.डी., उद्यमशीलता; कृषि, जीवन-स्तर में सुधार लाना आदि प्रमुख सिफारिशें दी गर्इं।2 प्रधानमंत्री के सलाहकार के रूप में कार्य करने वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रत्येक राज्य में एक केंद्रीय विश्वविद्यालय, एक चिकित्सा संस्थान, एक प्रबन्धन संस्थान और एक प्रौद्योगिकी संस्थान खोलने की दिशा में प्रयास किये गये और इनमें अपेक्षित सफलता भी प्राप्त हुर्इ।
शिक्षा-व्यवस्था के निजीकरण की अवधारणा के विकसित होने के साथ ही निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, इण्टर कॉलेजों और पब्लिक स्कूलों की संख्या भी देश में तेजी से बढ़ी है। शिक्षा के निजीकरण ने जहाँ एक ओर ज्ञान की सुलभता के अवसरों की वृद्धि की है, वहीं दूसरी ओर शिक्षण-प्रशिक्षण प्रविधियों, शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक के अनुप्रयोगों, कक्षाओं के स्वरूप बदलावों, सूचनाओं की असीमित उपलब्धताओं और व्यावहारिकताओं को, खुलेपन को बढ़ावा दिया है। जाति-धर्म-लिंग और आर्थिक असमानता आदि का विभेद आज उतनी शिद्दत के साथ दिखार्इ नहीं पड़ता है, जितना कि देश की आजादी के तीस-चालीस वर्ष बाद हुआ करता था।
निश्चित रूप से यह इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की संभावनाओं का सुखद पक्ष है, सकारात्मक पक्ष है। 21 वीं सदी में शिक्षा का आश्चर्यजनक रूप से प्रचार एवं प्रसार हुआ है व साक्षरता का स्तर बढ़ा है। इसका प्रत्यक्ष परिणाम हमें 14 वीं लोकसभा के चुनाव में भी देखने को मिला है। अब तक की चुनी गर्इ सभी लोकसभाओं से अधिक शिक्षित व्यक्ति चुनकर लोकसभा के सदस्य बने हैं। आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में 21 वीं सदी में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को अत्यधिक तीव्रता प्रदान की है। सन् 1951 में जहाँ केवल 16.67 प्रतिशत साक्षरता थी, वहीं 2001 में 65.38 प्रतिशत साक्षरता हो गर्इ है। अब शिक्षा किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं अपितु सर्वसुलभहै।3
इक्कीसवीं शताब्दी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की संभावनाएँ जितनी सुखद और सकारात्मक हैं, उतनी ही अधिक चुनौतियाँ भी हैं। इक्कसीवीं सदी की भारतीय शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियों को समझने के लिए यूनेस्को द्वारा गठित डेलोर्स आयोग के सन् 1996 मेंप्रस्तुत प्रतिवेदन- लर्निंग- द ट्रेज़र विदिन पर नजर डालनी होगी। आयोग ने विश्व स्तर पर प्रत्येक राष्ट्र के समक्ष तीन संकट देखे हैं- आर्थिक संकट, प्रगति की अवधारणा संकट और किसी-न-किसी प्रकार का नैतिक संकट। आयोग का यह निष्कर्ष निर्विवाद है। भारत के समक्ष भी ये तीनों संकट विशाल या यों कहें, विकराल रूप से उपस्थित हैं।...असमानता और गरीबी तब तक कैसे घटेंगी जब तक विश्व को केवल एक बाजार माना जायेगा। भौतिक उपलब्धियों की होड़ बढ़ती जाएगी। मानवीय संवेदनाएँ घट रहीं हैं। लोग एक-दूसरे के पास नहीं आ रहे हैं, शायद दूर होते जा रहे हैं। लोग एक दूसरे से क्षणों में संपर्क स्थपित कर सकते हैं, दूरियों की परिभाषाएँ बदल गईं हैं। विश्व भर में किसी भी जगह क्षण भर में संपर्क स्थपित कर पाना वास्तविकता है। फिर भी हम पड़ोसियों जैसा व्यवहार क्यों नहीं कर पा रहे हैं, वी हैव बिकम नेबर्स नॉट नेबरली।4
भारत की आजादी के ठीक पहले भारतीय लोगों की आपस में दूरियाँ बढ़ रहीं थीं, परिणामस्वरूप देश विभाजित हुआ। आजाद भारत में भी क्षेत्र, भाषा और तहजीब पर आधारित विभेद महात्मा गांधी की स्वराज की कामना को खंडित करता रहा। तमाम मनीषियों के अनथक प्रयासों ने इसे कम अवश्य किया, मगर इसे समाप्त करने में सफलता नहीं दिलार्इ। इक्कीसवीं सदी में शिक्षित भारतीय समाज आज फिर से भाषार्इ-जातीय-धार्मिक-क्षेत्रीय-प्रांतीय और ऐसे ही अनेक विभेदों में बँट रहा है। इसका प्रमुख कारण पुरातन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में निहित मूल्यों का वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में नहीं होना है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता की शिक्षा की नवीन अवधारणा की स्थापना का अभाव भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। डॉ. ईश्वरदयाल गुप्त लिखते हैं कि, राष्ट्रीय एकता की शिक्षा वास्तव में भारत की शिक्षा प्रणाली में एक नवीन प्रयोग है। जिसके नवीन परिणाम अभी तक संतोषप्रद नहीं रहे हैं। पहले पच्चीस वर्ष तो उसे परिभाषित करने में ही लगे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो शताब्दियों बाद एक आशा बँधी कि नये परिवेश में नये उत्साह के साथ हम एक-दूसरे की विविधताओं के सौंदर्य को सराहेंगे, लेकिन इन आशओं को मृग-तृष्णा सिद्ध होने में अधिक समय नहीं लगा।5
देश की आजादी के बाद देश की सांस्कृतिक विविधता को और अपनी अनूठी राष्ट्रीय संस्कृति की पहचान को सुरक्षित रख पाने, संरक्षित और संवर्द्धित कर पाने की अभिलाषा भी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकी। 21वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि शिक्षा के प्रचार तथा प्रसार की सार्वभौमिक आवश्यकता अब सर्वमान्य है। यह भी आधिकारिक तौर पर विश्व के सभी देश स्वीकार कर चुके हैं कि प्रत्येक देश की शिक्षा-व्यवस्था की जड़ें उसकी ‘अपनी’ संस्कृति में स्थापित होनी चाहिए और उसकी प्रतिबद्धता प्रगति तथा भविष्य के लिए स्पष्ट और उजागर होनी चाहिए। यह तभी संभव होगा, जब देश की नीतियाँ, विशेषकर शिक्षा नीतियाँ, शिक्षा और संस्कृति के जुड़ाव की आवश्यकता को स्वीकार करें और इस जुड़ाव में नर्इ पीढ़ी की आस्था उत्पन्न करने का प्रयास करें। ऐसा न करने या न कर पाने पर अंतर ‘संस्कारों’ में ही आता है और वही अपने प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में दिखाता है।6
शिक्षा में नैतिक मूल्यों की कमी, राष्ट्रीय एकता के अभाव और शिक्षा की ‘अपनी’ संस्कृति से दूरी, इन चुनौतियों की जड़ों को तलाशने का प्रयास करते हुए हमें इक्कीसवीं सदी की शिक्षा-व्यवस्था के उन दो आधारों को देखना होगा, जो सरकारी और निजी व्यवस्था में बँटे हुए हैं। सरकारी शिक्षा-व्यवस्था पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है। नौकरशाही का संचलन भी राजनीति-केंद्रित है। इस कारण सत्ताधारी राजनीतिक दल अपनी विचारधारा का सामाजिक प्रयोग सरकारी शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से करते हैं। अनेक राज्य सरकारों से लगाकर केंद्र सरकार तक फैली इस मानसिकता को बड़ी सहजता के साथ देखा जा सकता है। दूसरी ओर निजी शिक्षा-व्यवस्था है, जिसमें पूँजीपतियों का वर्चस्व कायम है। सरकारें संसाधनों की कमी से ग्रस्त हैं। अत: प्राइवेट रूप से शिक्षा-व्यवस्था करने वालों के समुदाय में वृद्धि हो रही है। कर्इ दशकों तक ‘व्यापारी’ रहे लोग एकाएक शिक्षा में रुचि लेने लगे हैं। वे इसे अधिक फायदे का सौदा समझते हैं और व्यापार के अनुभवों का उपयोग करते हुए संस्थाओं के भव्य भवन खड़े कर देते हैं। संपर्क-सूत्रों का उपयोग करते हैं और शिक्षाविद् बनकर सम्मान के अधिकारी बन जाते हैं। 2006 में ग्यारह हजार भारतवासी नये करोड़पति बने। अत: शिक्षा में शुल्क कितना ही बढ़ाया जाए, ऐसे लोगों को ग्राहक तो मिलते ही रहेंगे। मेरा आशय यह नहीं है कि प्राइवेट स्कूलों (जिन्हें कहा तो पब्लिक स्कूल ही जाता है) को चलाने वाले या नए छत्तीसगढ़ी विश्वविद्यालय चलाने वाले सब इसी श्रेणी में आते हैं। वस्तुस्थिति से परिचित तो सभी हैं। यहाँ यह भी याद रखना होगा कि इन स्कूलों में अभी भी संबंधित स्कूल बोर्ड की सालाना परीक्षा के कारण अंकों का उपलब्धि स्तर अधिक रहता है। स्वायत्तशासी विश्वविद्यालयों को तो सब कुछ स्वयं ही निर्णीत करना होता है। परिणास्वरूप पढ़ाने के अध्यापक तथा दिखाने के अध्यापक जैसी श्रेणियों का प्रादुर्भाव हुआ है। यह एक परिस्थितिजन्य नवाचार है, जिसमें प्रबंधन, संस्थान और शिक्षार्थी सभी प्रसन्न-मुक्त रहते हैं।7
निजी और सरकारी, दोनों शिक्षा-व्यवस्थाओं में आर्इ विकृतियों का कारण शिक्षविदों और समाज के विविध वर्गों के जागरूक प्रतिनिधियों का शिक्षा-व्यवस्था से दूर हो जाना है। आर्थिक हित, वैचारिक हित और वैयक्तिक स्वार्थ साधन के बँधे-बँधाए साँचों में परिवर्तन की संभावनाओं का शून्य होते जाना जनतांत्रिक व्यवस्था के सिद्धांतों के विपरीत होता है। शिक्षा में इसी कारण जनतांत्रिक व्यवस्था का अभाव गहराता जा रहा है। इसके परिणास्वरूप नर्इ पीढ़ी का जनतांत्रिक मूल्यों से विश्वास उठता जा रहा है। इस संदर्भ में प्रो. रामसकल पाण्डेय अपना मत व्यक्त करते हैं कि, वर्तमान शिक्षा बालक में जनतंत्र के प्रति आस्था नहीं उत्पन्न कर पाती अत: इस शिक्षा में परिवर्तन की आवश्यकता है। हमें उस शिक्षा को महत्त्व देना चाहिए, जो कुशल नागरिक का निर्माण करे। इस प्रकार की शिक्षा में केवल विषय-ज्ञान का महत्त्व नहीं होगा। बालकों को जीवन के सभी अनुभवों की शिक्षा मिलनी चाहिए और उन अनुभवों के अभ्यास के लिए अवसर मिलना चाहिए। बालक को शिक्षा इसलिए नहीं देनी है कि अनेक उपाधियों से वह अपने नाम को अलंकृत कर सकें। वरन् इसलिए शिक्षा देनी है कि वह व्यवहारकुशल बन सकें और जीवन में ज्ञान का उपयोग कर सकें।8
इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों के संदर्भों की चर्चा करते हुए आवश्यक होगा कि उस वर्ग की विचारधारा को भी जान-समझ लिया जाए, जिससे देश, काल समाज की अपेक्षाएँ अपने व्यापक सरोकारों के साथ जुड़ी होती हैं। उस वर्ग को बुद्धिजीवी के रूप में जाना जाता है। नानी पालखीवाला के शब्दों में, दुर्भाग्यवश आज अपने युग में हमने बुद्धिजीवी का मोल घटा डाला है और इस शब्द को मिट्टी में मिला दिया है। आज ‘बुद्धिजीवी’ का अर्थ बदल गया है। आज बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जो इतना चतुर एवं चालाक है कि भाँप सके कि रोटी का कौन सा भाग चिकना चुपड़ा है।9
समग्रतः, इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था अनेक चुनौतियों के बावजूद सकारात्मक दिशा में असीमित संभावनाओं को स्वयं में समेटे हुए आगे बढ़ रही है। अनुभवों से और स्थिति  की अनिवार्यताओं से सीखने की पुरातन स्थापित अवधारणा का अनुगमन करते हुए नैतिक मूल्यों की सीख आज की पीढ़ी को स्वतः प्राप्त हो रही है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशों पर सरकारी अमल शिक्षा-व्यवस्था को निश्चित रूप से सकारात्मक दिशा में ले जाएगा। व्यवस्था-सुधार के प्रति, नैतिक मूल्यों की स्थापना के प्रति और राष्ट्रीय एकता की भावना के प्रति युवा-आग्रह का स्वर गाहे-ब-गाहे सुनार्इ दे जाता है। यह निश्चित रूप से सापेक्ष परिणाम का शुभ संकेत है। युवा शक्ति के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अग्रणी भारत निश्चित रूप से विश्व-शक्ति बनकर उभरेगा, यह संभावना नकारी नहीं जा सकती। इतना अवश्य है कि पीढ़ियों के टकराव को, विविध विभेदों के संक्रमण को रोकने का दायित्व राष्ट्र के हित में सभी को निभाना होगा। अंत में, अल्लामा इकबाल की लिखी दो पंक्तियाँ, जो बहुत कुछ कह जाती हैं, नसीहत दे जाती हैं--
   आइने नौ से डरना,  तर्ज़-ए-कुहन पर अड़ना।
मंज़िल यही कठिन है,  कौमों की ज़िंदगी में।।
संदर्भ-
1    हिन्द स्वराज, महात्मा गांधी, अनु. कालिका प्रसाद, सस्ता साहित्य मंडल प्रका., नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ- 82
4    शैक्षिक परिवर्तन का यथार्थ, शिक्षा के सार्थक सरोकार, प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत, विद्या विहार, नई दिल्ली, 
      2006, पृष्ठ- 81-82  
5    आधुनिक भारतीय शिक्षा : समस्या चिंतन, शिक्षा प्रणाली : लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की समस्या,              
      डॉ. ईश्वरदयाल गुप्त, हरियाणा साहित्य अकादमी, चण्डीगढ़, 1991, पृष्ठ- 198
6    क्यों तनावग्रस्त है शिक्षा-व्यवस्था ?, शिक्षा से दूर होते मूल्य एवं संवेदनाएँ, प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत,
      किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ- 36 
7    वही,  पृष्ठ- 12 
8    आधुनिक भारतीय शिक्षा दर्शन, भारतीय जनतंत्र और शिक्षा (व्याख्यान), प्रो. रामसकल पाण्डेय, केंद्रीय हिंदी
      संस्थान, आगरा, 1988, पृष्ठ- 40
9    हम भारत के लोग, बुद्धिजीवी का विश्वासघात, नानी पालखीवाला, सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991,  
      पृष्ठ- 19
डॉ. राहुल मिश्र
(केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान, लेह-लदाख में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी, 01-04 जुलाई, 2013 में प्रस्तुत शोध-पत्र, लदाख प्रभा-18 में प्रकाशित)

Tuesday 22 October 2013

भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग एक

रेडियो वार्ता, आकाशवाणी लेह      

भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग एक
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igyh Hkkjrh; fQYe ds fuekZ.k ds lkFk dbZ jkspd rF; Hkh tqM+s gq, gSaA ;g oks nkSj Fkk] tc flusek dks lH; yksxksa dk dke ugha le>k tkrk Fkk vkSj efgykvksa dks fQYeksa esa dke djus dh btktr ugha gksrh FkhA bl dkj.k jktk gfj'paæ  fQYe esa lHkh ukf;dk,¡ Hkh iq#"k dykdkj gh FksA jktk gfj'paæ fQYe esa gfj'paæ dk fdjnkj nÙkk=s; nkeksnj ncds us fuHkk;k Fkk] jkuherh rkjk dh Hkwfedk ,d jsLVksjsaV esa dke djus okys cSjs vUuk lkyqads us] jksfgrkÜo dh Hkwfedk nknklkgc QkYds ds lkr o"khZ; iq= HkkypUæ Qkyds us fuHkkbZ vkSj foÜokfe= dh Hkwfedk thoh lsu us fuHkkbZ FkhA fQYe dh 'kq#vkrh 'kwfVax nknj ds ,d LVwfM;ks esa lsV cukdj dh xbZA fQYe dh lHkh 'kwfVax fnu dh jks'kuh esa dh tkrh Fkh] D;ksafd nknklkgc QkYds viuh iRuh dh lgk;rk ls ,DliksTM QqVst dks jkr esa Msoyi djrs Fks vkSj fçaV djrs FksA jkr vkSj fnu dh yxkrkj esgur ds ckn Ng ekg esa rhu gtkj lkr lkS QhV yach 40 feuV dh fQYe rS;kj gqbZA 21 vçSy] 1913 dks vksyfEi;k flusek gkWy esa igyh Hkkjrh; ewd fQYe fjyht dh xbZA 03 ebZ] 1913 dks igyh ckj cEcbZ ds dksjksus'ku fFk;sVj esa bldk çn'kZu gqvkA iwjs rsbZl fnu pydj jktk gfj'pUæ fQYe us mu fnuksa fjdkWMZ cuk;k FkkA igys Hkkjrh; flusek us fgUnqLrkfu;ksa dk eu eksg fy;k FkkA mu fnuksa Hkkjr esa fons'kh fQYeksa ds vehj n'kZdksa us gh ugha] cfYd lekpkj& lw=ksa us Hkh bldh mis{kk dhA ysfdu Qkyds dh fQYe vke turk ds fy, Fkh] bl dkj.k ;g fQYe tcjnLr fgV jghA nknklkgc QkYds us dqy 125 fQYesa cukbZaA Hkkjrh; fQYeksa esa nknklkgsc QkYds ds vHkwriwoZ ;ksxnku dks lEeku nsrs gq, Hkkjr ljdkj us lu~ 1969 esa lokZsPp fQYe iqjLdkj nknklkgsc QkYds iqjLdkj ds uke ls 'kq: fd;kA 'kq#vkrh flusek èkkfeZd i`"BHkwfe dk Fkk vkSj ml ij ikjlh fFk;sVj dk xgjk çHkko FkkA te'ksn th enu] èkhjsu xkaxqyh rFkk fufru cksl bl nkSj ds vU; fQYedkj FksA yadk ngu] fcysr Q+sjkr] HkLeklqj eksfguh vkSj lkfo=h vkfn bl nkSj dh pfpZr fQYesa FkhaA
  blh nkSjku çHkkr fQYe daiuh ds cSuj rys cuh jktkjke o.kdqanjs 'kkarkjke dh fQYe ¶ySx vkQ ÝhMe ¼LojkT; rksj.k½ ij vaxzst ljdkj dks ,rjkt gqvk vkSj ;g fQYe FkaMj vkQ fgYl  cu x;hA ;g igyh Hkkjrh; fQYe Fkh] ftlesa vaxzsth 'kklu ds f[kykQ Hkkjrh;ksa dk fojksèk fn[kk;k x;k FkkA 18 uoacj lu~ 1901 dks egkjk"Vª ds dksYgkiqj esa tUes jktkjke o.kdqanjs 'kkarkjke mQZ oh- 'kkarkjke ds xq# ckcwjko isaVj FksA lu~ 1929 esa oh- 'kkarkjke us dksYgkiqj esa çHkkr fQYe daiuh LFkkfir dh FkhA çHkkr fQYe daiuh ds cSuj rys oh- 'kkarkjke us QkbfVax CysM ¼[kwuh [katj½] paælsuk  vkSj LVksyu czkbM ¼tqYe½ cuk;hA mudh ;s lHkh fQYesa vokd FkhaA oh- 'kkarkjke fganh flusek ds igys fuekZrk&funZs'kd Fks] ftUgksaus lu~ 1930 esa cPpksa ds fy, jkuh lkfgck  uke ls ,d fQYe cukbZ FkhA
nknklkgc QkYds ds }kjk 'kq: fd, x, ç;kl esa u;k vk;ke lu~ 1931 esa vkbZ fQYe vkye vkjk  ds ekè;e ls vk;kA ;g Hkkjr dh igyh fQYe Fkh] ftlesa vkokt Hkh Fkh vkSj xkus Hkh FksA dksydkrk dh enu VkWdht ds cSuj rys vnZsf'kj bZjkuh ds funZs'ku esa cuh uk;d jktdqekj vkSj catkju ukf;dk dh çse dgkuh vkye vkjk ikjlh fFk;sVj dh esyksMªkek 'kSyh ls çHkkfor FkhA blesa lkr xhr Fks vkSj ;gha ls fgUnh flusek vkSj xhrksa dk ,slk vVwV fj'rk tqM+k] tks vkt rd dk;e gSA Hkkjr dh igyh cksyrh fQYe vkye vkjk  dh 'kwfVax jkr esa jsyos ykbu ds fudV dh xbZ FkhA cksyrh fQYeksa dk ;qx vk;k] rks oh- 'kkarkjke dh fQYeksa dk Hkh u;k nkSj vk;kA lu~ 1932 esa mudh igyh cksyrh fQYe v;ksè;k dk jktk vkbZA bl nkSjku lkekftd eqís flusek esa vkus yxs Fks vkSj cM+s O;kikjh Hkh fQYeksa esa viuk #i;k yxkus yxs FksA Hkkjr ds cM+s O;olk; ds :i esa fodflr gksus ds dkj.k flusek txr dks ek;kuxjh dk uke Hkh fn;k x;kA fp=dkj ifjokj ls vk, ckcwjko isaVj] èkhjsu xkaxqyh vkSj panwyky 'kkg bl nkSj ds cM+s fQYedkj gq,A ek;k efPNaæk egkjFkh d.kZ] uy ne;Urh vkSj pUælsuk vkfn bl nkSj dh pfpZr fQYesa FkhaA vkye vkjk ds çn'kZu ds ckn rfey] rsyqxq] ckaXyk] ejkBh vkSj dUuM+ Hkk"kkvksa esa Hkh fQYesa cuus yxha vkSj fQYe O;olk; dk dsaæ Hkkjr ds fofoèk Hkk"kkbZ {ks=ksa esa c¡V x;kA eqacbZ fganh fQYe baMLVªh ds fy, tkuk x;kA eqacbZ esa çfro"kZ yxHkx 200 fQYeksa dk fuekZ.k gksus yxkA ;s fQYesa jk"Vªh; ,drk vkSj fganh ds foLrkj esa lg;ksxh cuus yxhaA blh nkSj esa fganh flusek us viuk u;k lQj 'kq: fd;kA
lu~ 1933 ls 1942 ds n'kd dks Hkkjrh; flusek ds LVwfM;ks ;qx ds :i esa tkuk tkrk gSA ohjsUæukFk ljdkj }kjk LFkkfir U;w fFk;sVlZ( oh-'kkarkjke] oh- th- nkeys] ,e- Q+Ùksyky] ds- vkbZ- èkk;cj vkSj ,l- ch- dqyd.kÊ }kjk LFkkfir çHkkr LVwfM;ks( oh- 'kkarkjke }kjk LFkkfir jktdey dykeafnj rFkk fgeka'kq jk; ds ckWEcs Vkdht+ us n'kZdksa ds lHkh oxksZa dks è;ku esa j[kdj] lkekftd vU;k; ds fojksèk dks çnf'kZr djrs gq, dbZ ;knxkj vkSj euksjatd fQYesa nhaA U;w fFk;sVlZ ls tqM+s çFkes'kpUæ c#vk us lu~ 1935 esa 'kjrpUæ ds miU;kl ij nsonkl fQYe cukdj Hkkjrh; flusek ds lkFk çsedFkkvksa dks tksM+kA dqanuyky lgxy us uk;d vkSj xk;d] nksuksa gh Hkwfedk,¡ fuHkkdj flusek txr esa u, nkSj dh 'kq#vkr dhA nsfodk jkuh bl nkSj dh flrkjk ukf;dk Fkha] flusek txr esa muds vkus ds lkFk gh ukf;dkvksa ds vkxeu dh 'kq#vkr gqbZA fQYe thou uS;k ds uk;d ds chekj gks tkus ij ckacs Vkdht ds çfrHkk'kkyh ySc vflLVsaV dqeqn dqekj xkaxqyh mQZ v'kksd dqekj mQZ nknkeqfu dks fgeka'kq jk; us volj fn;k vkSj bl rjg os flusek esa vk,A ekjèkkM+ okyh LVaV fQYeksa esa lokZfèkd çfl) vkSj lcls igyh fQYe gaVjokyh  FkhA o"kZ 1935 esa cuh bl fQYe us lekt esa iks'kkd vkSj igukos dk u;k pyu 'kq: fd;kA bl fQYe esa vR;kpkjh ot+hj ds t+qYeksa vkSj mlls fuiVus dks mB [kM+h gqbZ ,d vkSjr dh dgkuh FkhA bl dgkuh esa fczfV'k gqdwer ds f[kykQ Hkkjrh; turk ds vkt+knh ds vkUnksyu dh >yd fn[kkbZ iM+rh FkhA
vnZsf'kj bZjkuh ds funZs'ku esa lu~ 1932 esa cuh ewd fQYe uwjtgk¡ igyh ,sfrgkfld fQYe FkhA blds ckn lksgjkc eksnh dh fQYeksa& iqdkj vkSj fldUnj ls cksyrh gqbZ ,sfrgkfld fQYeksa dh 'kq#vkr gqbZA egcwc [k+ku us 1940 esa oks vkSjr fQYe cukbZ ftldh çsj.kk ls vkxs pydj fgUnh flusek dh lcls egku vkSj pfpZr fQYe enj bafM;k  cuhA Hkkjrh; flusek ns'k dh xqykeh ds nkSj esa vius lkekftd nkf;Ro dks fuHkkrs gq, èkkfeZd dFkkvksa dk nkeu NksM+dj vc lkekftd eqíksa dk #[k+ djus yxk FkkA lekt dks ubZ psruk vkSj lans'k nsus ds fy, fQYeh euksjatu dks ekè;e cukus okys vkSj fQYeksa ds fuekZ.k esa u,&u, ç;ksx djus okys oh- 'kkarkjke bl nkSj ds lcls çfrHkk'kkyh fQYedkj FksA mUgksaus paælsuk fQYe esa igyh ckj VªkWyh dk ç;ksx fd;kA mUgksaus 1933 esa igyh jaxhu fQYe lSjaèkzh cukbZA o"kZ 1935 esa çnf'kZr gqbZ fQYe tacwdkdk esa ,fues'ku dk bLrseky djds os Hkkjr esa ,fues'ku dk bLrseky djus okys igys fQYedkj cu x, FksA mudh fQYe MkWDVj dksVful dh vej dgkuh  fons'k esa fn[kkbZ tkus okyh igyh Hkkjrh; fQYe FkhA
lu~ 1943 ls 1952 esa v'kksd dqekj cM+s uk;d cudj mHkjsA mUgksaus bl nkSj esa gqek;w¡] fdLer vkSj egy tSlh ;knxkj fQYesa nhaA lu~ 1947 esa fgUnksLrku dh vkt+knh vkSj c¡Vokjs tSlh cM+h ?kVuk,a gqbZa] ysfdu ml nkSj ds flusek esa budk çR;{k çHkko ugha fn[krk gSA lu~ 1947 esa tqxuw dh lQyrk ds lkFk fnyhi dqekj flusek esa vk, vkSj lu~ 1948 esa vkx ds lkFk jkt diwj pkyhZ pSifyu ds Hkkjrh; laLdj.k ds lkFk fganh fQYeksa esa vk,A lu~ 1949 esa egcwc [k+ku us bu nksuksa flrkjksa dks ysdj vUnkt+ cukbZA lu~ 1949 esa jktdiwj dh fQYe cjlkr us rgydk epk fn;kA lu~ 1951 esa fjyht gqbZ vkokjk  fQYe ds xhrksa dh yksdfç;rk :l rd igq¡phA 'kSysUæ ds fy[ks vkSj eqds'k ds xk, xhrksa us Hkkjr }kjk ns[ks x, lektokn ds LoIu dks fganh flusek dk LoIu Hkh cuk fn;kA bl fQYe ds ckn jkt diwj us vkj- ds- fQYEl LVwfM;ks LFkkfir djds funZs'ku çkjaHk fd;k vkSj ns'k&fons'k esa çfl) gq,A
o"kZ 1949 esa ,l- ds- ikfVy lfefr dh flQkfj'kksa ds vkèkkj ij flusesVksxzkfQd ,DV vkWQ bafM;k ykxw fd;k x;kA bl ,DV ds tfj, fganh flusek dks ;w vFkkZr~ ;wfuolZy ,Dthfc'ku vkSj , ;kfu ,MYV ,Dthfc'ku dh nks Jsf.k;ksa esa ck¡Vk x;kA lu~ 1952 esa eqacbZ esa ns'k dk igyk varjjk"Vªh; fQYe lekjksg vk;ksftr fd;k x;kA bl lekjksg esa foÜo ds vusd ukephu fQYedkjksa us f'kjdr dhA bl nkSj esa Hkkjrh; flusek mifuos'koknh vrhr ls fudydj vktkn Hkkjr ds usrkvksa dks vius lkFk tksM+ jgk Fkk vkSj vktkn Hkkjr dh vusd leL;kvksa dks vius lkFk ysdj muds lekèkku nsus dh dksf'k'k Hkh dj jgk FkkA
o"kZ 1953 esa fQYe dyk dks çksRlkfgr djus ds mís'; ls jk"Vªh; fQYe iqjLdkjksa dh 'kq#vkr gqbZ vkSj loZJs"B flusek dk igyk jk"Vªh; iqjLdkj ejkBh fQYe ';keph vkbZ dks çkIr gqvkA lu~ 1953 ls 1962 ds n'kd esa nsokuan ds uofufeZr uodsru LVwfM;ks ls fudyh fQYeksa esa 'kgjh vkèkqfudrk dk eksg Fkk rks jktdiwj dh ftl ns'k esa xaxk cgrh gS vkSj fnyhi dqekj dh u;k nkSj tSlh fQ+Yesa vkèkqfudrk dk LoIu xk¡o&nsgkrksa rd igqapk jgha FkhaA blh n'kd esa fQYe fuekZrk fcey jkW; dh fQYe nks ch?kk t+ehu us ns'k ds fdlkuksa dh n;uh; n'kk n'kkZ;hA bl fQYe esa 'kaHkw egrks cus nsokuan dydÙkk dh rirh lM+dksa ij uaxs iSj fjD'kkxkM+h [khaprs gq, 'kgj dh ;a=.kkvksa vkSj lkearh&iw¡thoknh O;oLFkk ds xBtksM+ dks gekjs lkeus ykrs gSaA ;g Hkkjr dh igyh ,slh fQYe Fkh] ftls dkWu fQYe vokMZ feyk FkkA oh- 'kkarkjke dh lokZfèkd pfpZr fQYe nks vk¡[ks ckjg gkFk lu~ 1957 esa çnf'kZr gqbZA ;g ,d lkgfld tsyj dh dgkuh gS tks Ng d+Sfn;ksa dks lqèkkjrk gSA bl fQYe dks loZJs"B Qhpj fQYe ds fy, jk"Vªifr ds Lo.kZ ind ls lEekfur fd;k x;k FkkA bls cfyZu fQYe QsfLVoy esa flyoj ch;j vkSj loZJs"B fons'kh fQYe ds fy, lSeqvy xksYMfou iqjLdkj ls Hkh lEekfur fd;k x;kA bl fQYe dk xhr , ekfyd rsjs cans ge---- vkt Hkh yksxksa dks ;kn gS vkSj dbZ Ldwyksa esa bls çkFkZuk ds :i esa vkt Hkh xk;k tkrk gSA lu~ 1958 esa vkWLdj iqjLdkj ds fy, jftLVMZ gksus okyh ;g igyh fQYe FkhA blh o"kZ egcwc [kku dh fQYe enj bafM;k esa nqfu;k us Hkkjr dk lerkoknh lekt dk LoIu ns[kkA fQYe esa ,d L=h ds LokfHkeku ds ekè;e ls Hkkjro"kZ dh mUufr dks crk;k x;kA blh n'kd esa lR;thr jk; us viuh iRuh ds tsoj fxjoh j[kdj dtZ ls ikFksj ikapkyh cukbZA bl fQYe dks loZJs"B ekuo o`Ùkfp= ds fy;s dsUl iqjLdkj fn;k x;k vkSj blds lkFk gh Hkkjrh; fQYeksa dks varjjk"Vªh; igpku feyhA bl n'kd esa ufn;k ds ikj] cafnuh] lqtkrk] cnuke cLrh] rhljh dle] ,d ckj fQj vkSj tkxrs jgks tSlh ;knxkj fQYesa vkbZaA blh n'kd esa fjyht gqbZ fQYe eqx+ys&vkt+e esa funZs'kd vkflQ us tcjnLr 'kwfVax lsV rS;kj fd,A fnyhi dqekj ds tcjnLr vfHku; vkSj eèkqckyk dh lqanjrk us fQYe dks ;knxkj cuk fn;kA bl fQYe dks tcjnLr equkQk gqvk vkSj ;g fQYe fganh flusek txr esa ehy dk iRFkj cu xbZA blh n'kd esa lksfo;r la?k ds lg;ksx ls cuha xq#nÙk dh fQYesa I;klk] dkx+t+ ds Qwy] lkgc choh vkSj x+qyke Hkh pfpZr jghaA lu~ 1958 esa fjyht gqbZ gkL; fQYe pyrh dk uke xkM+h esa rhu dqekj Hkkb;ksa& v'kksd dqekj] fd'kksj dqekj vkSj vuwi dqekj us vius tyos fc[ksjsA
1953 ls 1962 dk n'kd flusekbZ laxhr ds fygkt ls egÙoiw.kZ jgkA xhrdkj ukS'kkn us , eksgCcr ft+Unkckn esa eksgEen jQ+h ds lkFk lkS xk;dksa dks dksjl esa xok;k FkkA blh n'kd esa yrk eaxs'kdj] eksgEen jQ+h] fd'kksj dqekj tSls xk;dksa dh vkokt+ dk tknw fQYeh nqfu;k esa Nk x;kA fuiq.k xhrdkj] laxhrdkj vkSj dykdkjksa ds pyrs flusek dk pLdk yksxksa dks yx pqdk FkkA ;qokvksa esa flusek ns[kus dh yyd bl d+nj c<+h fd os vc vkus okyh gj fiDpj dh ckV tksgus yxs vkSj flusek ns[kus ds fy, nsgkr ls nwj 'kgjksa ds flusek?kjksa rd tkus yxsA lu~ 1960 esa fQYe fodkl çkfèkdj.k ds xBu us u, fQYedkjksa dks xq.koÙkk c<+kus gsrq çf'k{k.k dk volj lqyHk djkuk 'kq: fd;kA
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Hkkjr ds çFke jk"Vªifr MkW- jktsaæ çlkn ds ç;klksa ls Hkkstiqjh dh igyh fQYe gs xaxk eS;k rksgs fi;jh p<+kbcks 21 Qjojh lu~ 1963 dks fjyht gqbZA Hkkstiqjh dh igyh fQYe ds fjyht gksus ds ckn Hkkstiqjh fQYe baMLVªh us ihNs eqM+dj ugha ns[kkA Hkkstiqjh fQYesa ns'k esa gh ugha] fons'kksa esa Hkh yksdfç; gqbZaA ;g lq[kn la;ksx gS fd o"kZ 2013 esa Hkkstiqjh flusek ds Hkh ipkl o"kZ iwjs gq, gSaA
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डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक 24. 05. 2013 , प्रातः 07 बजकर 30 मिनट)

Monday 29 April 2013

प्रज्ञा पारमिता, रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह


                         प्रज्ञा पारमिता
         बौद्ध धर्म की महायान-साधना में छः पारमिताओं फारोल-तु-छिन-पा के बारे में बताया गया है। प्रज्ञा पारमिता, दान पारमिता, शील पारमिता, क्षान्ति पारमिता, वीर्य पारमिता और ध्यान पारमिता। प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा को छोड़कर शेष पाँचों पारमिताओं को उपाय, करुणा या पुण्य सम्भार कहा जाता है। प्रज्ञा पारमिता को ज्ञान सम्भार कहा जाता है। ‘पारमिता’ शब्द ‘परम’ से बना है। इसका अर्थ होता है, सबसे ऊँची स्थिति। पारमिता शब्द गुणों के पूरी तरह विकसित होने और सीमाओं-दशाओं-स्थितियों के बंधन से मुक्त होकर व्यापक विस्तार करने के अर्थ में प्रयोग होता है। इस तरह मानव-जीवन के परम लक्ष्य को पाने के लिए, निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए ये छः पारमिताएँ आवश्यक होती हैं। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं को जीवन में उतारने की प्रेरणा देने का काम प्रज्ञा पारमिता के द्वारा होता है। प्रज्ञा की उत्पत्ति और इसका विकास करुणा या उपाय या पुण्य सम्भार के द्वारा होता है। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं के द्वारा प्रज्ञा पारमिता को पूर्णता प्राप्त होती है। इस तरह ज्ञान सम्भार अर्थात् प्रज्ञा और पुण्य सम्भार अर्थात् दान, शील आदि पाँच पारमिताएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। यह अवश्य है कि पुण्य सम्भार के बजाय ज्ञान सम्भार अधिक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण होता है। ज्ञान सम्भार का स्थान सबसे पहले आता है, क्योंकि यह मानव को असत् से सत् की ओर जाने का रास्ता दिखाता है। यह मानव को आत्म दीपो भव की सीख देता है। यह उस दीपक की तरह बनने की सीख देता है, जो संसार के अंधकार में भटक रहे लोगों को सही रास्ता दिखाता है। इस तरह ज्ञान सम्भार और पुण्य सम्भार दोनों मिलकर निर्वाण के मार्ग बन जाते हैं। निर्वाण प्रज्ञा के विकास की और प्रज्ञा के विकास के परिणाम के रूप में आए बदलाव की परम अवस्था है। निर्वाण शरीर के त्याग की या मृत्यु की स्थिति नहीं है। यह अविद्या या अज्ञान के त्याग की स्थिति है।
     प्रज्ञा के स्वरूप के बारे में विस्तार से बताने का कार्य आचार्य नागार्जुन ने किया है। उन्होने प्रज्ञा के साध्य व साधन स्वरूपों की स्थापना बौद्ध धर्म की महायान शाखा में की है। आर्यशत साहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र, पञ्चविंशतिसाहस्रिकासूत्र और अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र को क्रमशः बृहद प्रज्ञापारमितासूत्र, मध्यम प्रज्ञापारमितासूत्र और लघु प्रज्ञापारमितासूत्र के रूप में जाना जाता है। इन प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष के आधार पर आचार्य नागार्जुन ने माध्यमिक दर्शन की स्थापना की। आचार्य नागार्जुन द्वारा रचित मूल माध्यमिक कारिका में प्रज्ञापारमितासूत्रों का दर्शन पक्ष है।
     बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण या बुद्धत्व को प्राप्त करना होता है। निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए तीन मार्ग— शील, समाधि और प्रज्ञा बताए गए हैं। शील की परम अवस्था समाधि में होती है और समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है। प्रज्ञा का काम शील का शुद्धिकरण करना होता है। इस प्रकार प्रज्ञा बुद्धत्व या निर्वाण को पाने की पहली सीढ़ी भी है और अंतिम सीढ़ी भी है।
         बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य— दुख, दुख का कारण, दुख का निरोध और दुख निरोध के उपाय में भी प्रज्ञा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दुख को दुख के रूप में समझने की चेतना का विकास प्रज्ञा के माध्यम से ही होता है। यदि दुख को, उसके सही स्वरूप को नहीं समझा जाएगा तब आर्य सत्य को और वास्तविकता को भी नहीं समझा जा सकता है। जब तक दुख के आवरण में छिपे सत्य को जानना संभव नहीं होगा, तब तक  दुख के निरोध की चेतना नहीं उत्पन्न होगी। जब तक इस चेतना का विकास नहीं होगा, तब तक चेतना द्वारा बताए गए दुख के निरोध के उपायों पर अमल करने का विवेक उत्पन्न नहीं होगा। जब तक विवेक उत्पन्न नहीं होगा, तब तक बुद्धत्व या निर्वाण को पाना भी संभव नहीं हो पाएगा। चेतना और विवेक का जन्म प्रज्ञा के विकास से ही होता है। इस कारण प्रज्ञा को महायान साधना का केंद्र माना गया है।
         प्रज्ञा को बुद्धि, मति, धृति, विवेक और ज्ञान भी कहा जाता है। ये सभी एक दूसरे के पर्याय हैं। लेकिन ज्ञान के विशेष, विलक्षण और पारमार्थिक स्वरूप के तौर पर प्रज्ञा अपने अन्य पर्यायों से पूरी तरह अलग और श्रेष्ठ है। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति को यदि किसी एक लिपि या भाषा में उपलब्ध विविध क्षेत्रों, जैसे- चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, गणित, दर्शन, इतिहास और साहित्य आदि का बहुत अच्छा ज्ञान है तो उसे ज्ञानी या विद्वान कहा जा सकता है, लेकिन उसे प्रज्ञावान नहीं कहा जा सकता। इसी तरह कई लिपियों या भाषाओं के माध्यम से ज्ञान के एक या कई क्षेत्रों में कोई व्यक्ति अच्छा विद्वान हो सकता है, मगर प्रज्ञावान नहीं हो सकता। यह ज्ञान भौतिक या सांसारिक कार्यों और व्यवहारों पर आधारित होता है। इस ज्ञान से मनुष्य को केवल भौतिक या सांसारिक लाभ ही हो सकता है। इसी तरह यह ज्ञान मानव के जीवन को केवल भौतिक रूप से ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह ज्ञान पारमार्थिक नहीं होता। मुक्ति या मोक्ष या निर्वाण को इस ज्ञान से नहीं पाया जा सकता है।
   भौतिक या सांसारिक लाभ देने वाला यह ज्ञान तो मानव को वासनाओं और दुखों में धकेल देता है। जबकि प्रज्ञा वह आधार है, जो मानव-जीवन के पुण्यकर्मों को, मर्यादा को और मानव-जीवन की सार्थकता को स्थापित करती है। प्रज्ञा के द्वारा मानव को मुक्ति या निर्वाण का रास्ता मिलता है। दर्शन के अलग-अलग सिद्धांतों में प्रज्ञा को, इसके स्वरूप को और इसके संबंधों को बताया गया है।
  बोधिसत्व, करुणा, और निर्वाण, ये तीनों तत्त्व प्रज्ञा से जुड़े हुए हैं। इसी तरह कर्मवाद, कर्मनिष्ठा और कर्मफल भी प्रज्ञा से जुड़े हैं। प्रज्ञावान मानव अपने जीवन की सफलता के लिए इन तत्त्वों का महत्त्व समझता है और इन्ही के अनुसार अपने जीवन के आचरण पक्ष को चलाता है। जबकि विद्वान व्यक्ति इन तत्त्वों के महत्त्व को समझे बिना ही सांसारिक सुखों में ही खुश रह सकता है। इस तरह प्रज्ञावान और विद्वान के बीच के अंतर को समझा जा सकता है।
 किसी भी मानव में प्रज्ञा की उत्पत्ति संभव हो सकती है। इसके लिए विद्वान होना भी आवश्यक नहीं है। इसके बावजूद हर एक मनुष्य के लिए प्रज्ञा को पाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि वस्तु या संसार का उसके यथार्थ रूप में परिचय उसे नहीं मिल पाता। इस कारण वह सांसारिकता को उसी दृष्टि से देखते हुए दुख पाता रहता है या फिर दुख को ही सुख समझकर भूलवश अपने जीवन की सार्थकता को निरर्थकता में बदल बैठता है।
      महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन अपने चचेरे भाइयों, गुरु और परिजनों-मित्रों को युद्ध के मैदान में देखकर युद्ध करने से मना कर देते हैं। अपने परिवार के लोगों को मारकर युद्ध जीतना उनके लिए दुख का कारण बन जाता है। अर्जुन को इस तरह मोह और शोक में डूबा हुआ देखकर कृष्ण कहते हैं
                            अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
                        गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति  पण्डिता:।।
      हे अर्जुन! तुम उन लोगों के लिए दुखी हो, जो दुख करने के योग्य नहीं हैं और प्रज्ञावान की तरह बातें कर रहे हो। प्रज्ञावान उनके लिए दुख नहीं करते, जो मर चुके हैं या जो जीवित हैं और मृत्यु की ओर लगातार जा रहे हैं। कृष्ण को अर्जुन की कमजोरी का पता चलता है। वे जानते हैं कि अर्जुन झूठी करुणा के जाल में फँस गया है। उसके मन में मानवता के लिए जो प्रेम है, वह सच्चा नहीं है। यह सच्ची करुणा का भाव नहीं है, यह आध्यात्मिक विकास या सत्व गुण की उत्पत्ति भी नहीं है। यह उस अज्ञान या वासना का परिणाम है, जिसने अर्जुन की प्रज्ञा को ढक लिया है। अर्जुन की अज्ञानता या अविद्या को दूर करने का काम कृष्ण करते हैं।
कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश सांख्य दर्शन के नाम से जाना जाता है। इसमें संसार को एक रंगमंच की तरह से देखा जा सकता है। जहाँ पर पात्र आते-जाते हैं, जन्म लेते और मरते रहते है। जीवन देने और लेने वाले पात्र अपने-अपने अभिनय को कुशलतापूर्वक करते हुए मंच से बाहर हो जाते हैं, वैसे ही यह संसार भी है। इस संसार को ऐसी दृष्टि से देखने वाले लोग शोक में या मोह में लिप्त नहीं होते। सांसारिक जीवन में ऐसे लोगों को प्रज्ञावान या प्रज्ञाधारण करने वाला कहा जा सकता है।
    सांख्य दर्शन आत्मा को शाश्वत मानता है, जबकि बौद्ध धर्म में आत्मा को क्षणभंगुर माना गया है। दोनों ही दर्शन अपने-अपने तरीके से आत्मा की व्याख्या करके मानव जीवन के आचार पक्ष को प्रज्ञा से जोड़ने का प्रयास करते हैं। इसलिए नित्य और अनित्य के इस भेद को हटाकर यदि कर्मवाद के नजरिये से देखा जाए तो दोनों दर्शन उस कर्म को प्रधानता देते हैं, जो मानव मात्र के कल्याण की भावना को और करुणा की भावना को अपने साथ लेकर चलता हो।
    संसार के कई धर्मों, मतों और संप्रदायों में प्रज्ञा को श्रेष्ठ माना गया है। इसी कारण अनेक विधियों, अनेक कथाओं-उदाहरणों और नीतिवचन-उपदेशों के माध्यम से मानव को उस प्रज्ञा का परिचय देने का प्रयास करते हैं, जो इस संसार को उसके वास्तविक रूप में दिखाने में सक्षम है। संत कवियों ने भी अपनी वाणी में प्रज्ञा को बड़े ही सरल और सहज ढंग से व्यक्त किया है। सरहपा लिखते हैं-
                  जहँ मन पवन न संचरइ, रवि-शशि नाहिं पवेश।
                  तहँ मूढ़ चित्त  विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेस।।
प्रज्ञा को जानने के लिए धर्मों, मतों और संप्रदायों में की गई व्यवस्था तीन स्तरों में है। पहली सुनकर, दूसरी सुनकर उस पर चिंतन करते हुए और तीसरी भावना या विचार में बाँधते हुए। इसी कारण सत्संग, भजन, कीर्तन और प्रार्थना का विधान किया गया है। अपने वजूद को, अपने अस्तित्व को शून्य करके अपनी चिंता को संसार की चिंता के साथ जोड़कर चिंतन में लीन होने को श्रेष्ठ माना गया है। अगर सरल अर्थों में कहें तो प्रज्ञा मन और विचारों की वह स्थिति है, जो मानव को मानव से और दूसरे जीवों से प्रेम करना सिखाती है। यह अपने और पराए के अंतर को मिटाती है। यह सारे संसार के प्रति करुणा और प्रेम की भावना का विकास करती है। यह सच्चाई, ईमानदारी, दया, शांति और अहिंसा के भावों को समझाती है। जब प्रज्ञा की साधना अपने उच्चतम स्तर पर पहुँचती है, तब मानव अज्ञान या अविद्या से पार हो जाता है। यह स्थिति प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा की है। देवालयों में स्थित मूर्तियाँ और चित्र सामान्य व्यक्ति को यही शिक्षा देते हैं। इसी कारण अपने परिवार के प्रति प्रेम को ही नहीं, बल्कि विश्वबंधुत्व की भावना को श्रेष्ठ माना गया है। श्रुति, चिंतन और भावना धारण के माध्यम से प्रज्ञा की साधना करने के लिए किसी धर्मकेंद्र की, देवालय या पवित्र स्थान की जरूरत नहीं होती।
शायद इसी कारण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उस स्थान पर प्रज्ञा का स्वरूप बताया, जहाँ पर संसार की निःसारता और संबंधों-रिश्तों-नातों की कड़वी हकीकत का पर्दाफ़ाश होने वाला था। अर्जुन धनुर्विद्या का महारथी था, राजशास्त्र और नीतिशास्त्र का ज्ञानी भी था, किंतु युद्ध के मैदान में जब श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि तुम शोक न करने वालों पर शोक करते हो और ज्ञान की बातें करते हो, तब श्रीकृष्ण के इस कथन से यह अर्थ भी निकल रहा था कि तुम धनुर्विद्या, नीति और राजशास्त्र का ज्ञान रखने के बावजूद पूरी तरह से अज्ञानी हो, बुद्धिहीन हो।
    संभवतः यही कारण रहा होगा, कि भगवान् बुद्ध ने अपना पहला उपदेश मृगदाव के घने जंगल में, टङ-सोङ-लुङ-वा-रि-दक्स-कि-नक़्स, में दिया, जहाँ सुंदर-सुसज्जित मंच न था, सांसारिक जीवन की चकाचौंध न थी, धन-दौलत भी नहीं थी। वह स्थान ऐसा था, जो यह बोध करा रहा था कि सारा संसार एक जंगल की तरह अव्यवस्थित, वीरान और हिंसक पशुओं से भरा हुआ है। यह प्रतीक था, यह सच्ची स्थिति थी, सही स्थान था, जहाँ बैठकर उस प्रज्ञा से साक्षात्कार किया जा सकता था, उस प्रज्ञा की साझेदारी की जा सकती थी, जो इस जंगलनुमा संसार को सुंदर-सजीले उपवन में बदल सकती थी।
वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण या वस्तु के यथार्थ स्वरूप को गलत तरीके से जानने के कारण उपजी अविद्या के आवरण को हटाकर सच्ची विद्या या प्रज्ञा से साक्षात्कार करने हेतु आचार्य शांतिदेव ने निर्वाणकामी, मोक्षकामी लोगों को रास्ता दिखाया है—
                     इमं  परिकरं    सर्वं  प्रज्ञार्थं   हि   मुनिर्जगौ।
                     तस्मादुत्पादयेत् प्रज्ञां दुःखनिवृत्तिकाङ्क्षया।।
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 22.04.2013, प्रातः 7 बजकर 35   मिनट पर)
                                                                         डॉ. राहुल मिश्र