Monday, 29 April 2013

प्रज्ञा पारमिता, रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह


                         प्रज्ञा पारमिता
         बौद्ध धर्म की महायान-साधना में छः पारमिताओं फारोल-तु-छिन-पा के बारे में बताया गया है। प्रज्ञा पारमिता, दान पारमिता, शील पारमिता, क्षान्ति पारमिता, वीर्य पारमिता और ध्यान पारमिता। प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा को छोड़कर शेष पाँचों पारमिताओं को उपाय, करुणा या पुण्य सम्भार कहा जाता है। प्रज्ञा पारमिता को ज्ञान सम्भार कहा जाता है। ‘पारमिता’ शब्द ‘परम’ से बना है। इसका अर्थ होता है, सबसे ऊँची स्थिति। पारमिता शब्द गुणों के पूरी तरह विकसित होने और सीमाओं-दशाओं-स्थितियों के बंधन से मुक्त होकर व्यापक विस्तार करने के अर्थ में प्रयोग होता है। इस तरह मानव-जीवन के परम लक्ष्य को पाने के लिए, निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए ये छः पारमिताएँ आवश्यक होती हैं। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं को जीवन में उतारने की प्रेरणा देने का काम प्रज्ञा पारमिता के द्वारा होता है। प्रज्ञा की उत्पत्ति और इसका विकास करुणा या उपाय या पुण्य सम्भार के द्वारा होता है। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं के द्वारा प्रज्ञा पारमिता को पूर्णता प्राप्त होती है। इस तरह ज्ञान सम्भार अर्थात् प्रज्ञा और पुण्य सम्भार अर्थात् दान, शील आदि पाँच पारमिताएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। यह अवश्य है कि पुण्य सम्भार के बजाय ज्ञान सम्भार अधिक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण होता है। ज्ञान सम्भार का स्थान सबसे पहले आता है, क्योंकि यह मानव को असत् से सत् की ओर जाने का रास्ता दिखाता है। यह मानव को आत्म दीपो भव की सीख देता है। यह उस दीपक की तरह बनने की सीख देता है, जो संसार के अंधकार में भटक रहे लोगों को सही रास्ता दिखाता है। इस तरह ज्ञान सम्भार और पुण्य सम्भार दोनों मिलकर निर्वाण के मार्ग बन जाते हैं। निर्वाण प्रज्ञा के विकास की और प्रज्ञा के विकास के परिणाम के रूप में आए बदलाव की परम अवस्था है। निर्वाण शरीर के त्याग की या मृत्यु की स्थिति नहीं है। यह अविद्या या अज्ञान के त्याग की स्थिति है।
     प्रज्ञा के स्वरूप के बारे में विस्तार से बताने का कार्य आचार्य नागार्जुन ने किया है। उन्होने प्रज्ञा के साध्य व साधन स्वरूपों की स्थापना बौद्ध धर्म की महायान शाखा में की है। आर्यशत साहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र, पञ्चविंशतिसाहस्रिकासूत्र और अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र को क्रमशः बृहद प्रज्ञापारमितासूत्र, मध्यम प्रज्ञापारमितासूत्र और लघु प्रज्ञापारमितासूत्र के रूप में जाना जाता है। इन प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष के आधार पर आचार्य नागार्जुन ने माध्यमिक दर्शन की स्थापना की। आचार्य नागार्जुन द्वारा रचित मूल माध्यमिक कारिका में प्रज्ञापारमितासूत्रों का दर्शन पक्ष है।
     बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण या बुद्धत्व को प्राप्त करना होता है। निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए तीन मार्ग— शील, समाधि और प्रज्ञा बताए गए हैं। शील की परम अवस्था समाधि में होती है और समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है। प्रज्ञा का काम शील का शुद्धिकरण करना होता है। इस प्रकार प्रज्ञा बुद्धत्व या निर्वाण को पाने की पहली सीढ़ी भी है और अंतिम सीढ़ी भी है।
         बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य— दुख, दुख का कारण, दुख का निरोध और दुख निरोध के उपाय में भी प्रज्ञा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दुख को दुख के रूप में समझने की चेतना का विकास प्रज्ञा के माध्यम से ही होता है। यदि दुख को, उसके सही स्वरूप को नहीं समझा जाएगा तब आर्य सत्य को और वास्तविकता को भी नहीं समझा जा सकता है। जब तक दुख के आवरण में छिपे सत्य को जानना संभव नहीं होगा, तब तक  दुख के निरोध की चेतना नहीं उत्पन्न होगी। जब तक इस चेतना का विकास नहीं होगा, तब तक चेतना द्वारा बताए गए दुख के निरोध के उपायों पर अमल करने का विवेक उत्पन्न नहीं होगा। जब तक विवेक उत्पन्न नहीं होगा, तब तक बुद्धत्व या निर्वाण को पाना भी संभव नहीं हो पाएगा। चेतना और विवेक का जन्म प्रज्ञा के विकास से ही होता है। इस कारण प्रज्ञा को महायान साधना का केंद्र माना गया है।
         प्रज्ञा को बुद्धि, मति, धृति, विवेक और ज्ञान भी कहा जाता है। ये सभी एक दूसरे के पर्याय हैं। लेकिन ज्ञान के विशेष, विलक्षण और पारमार्थिक स्वरूप के तौर पर प्रज्ञा अपने अन्य पर्यायों से पूरी तरह अलग और श्रेष्ठ है। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति को यदि किसी एक लिपि या भाषा में उपलब्ध विविध क्षेत्रों, जैसे- चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, गणित, दर्शन, इतिहास और साहित्य आदि का बहुत अच्छा ज्ञान है तो उसे ज्ञानी या विद्वान कहा जा सकता है, लेकिन उसे प्रज्ञावान नहीं कहा जा सकता। इसी तरह कई लिपियों या भाषाओं के माध्यम से ज्ञान के एक या कई क्षेत्रों में कोई व्यक्ति अच्छा विद्वान हो सकता है, मगर प्रज्ञावान नहीं हो सकता। यह ज्ञान भौतिक या सांसारिक कार्यों और व्यवहारों पर आधारित होता है। इस ज्ञान से मनुष्य को केवल भौतिक या सांसारिक लाभ ही हो सकता है। इसी तरह यह ज्ञान मानव के जीवन को केवल भौतिक रूप से ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह ज्ञान पारमार्थिक नहीं होता। मुक्ति या मोक्ष या निर्वाण को इस ज्ञान से नहीं पाया जा सकता है।
   भौतिक या सांसारिक लाभ देने वाला यह ज्ञान तो मानव को वासनाओं और दुखों में धकेल देता है। जबकि प्रज्ञा वह आधार है, जो मानव-जीवन के पुण्यकर्मों को, मर्यादा को और मानव-जीवन की सार्थकता को स्थापित करती है। प्रज्ञा के द्वारा मानव को मुक्ति या निर्वाण का रास्ता मिलता है। दर्शन के अलग-अलग सिद्धांतों में प्रज्ञा को, इसके स्वरूप को और इसके संबंधों को बताया गया है।
  बोधिसत्व, करुणा, और निर्वाण, ये तीनों तत्त्व प्रज्ञा से जुड़े हुए हैं। इसी तरह कर्मवाद, कर्मनिष्ठा और कर्मफल भी प्रज्ञा से जुड़े हैं। प्रज्ञावान मानव अपने जीवन की सफलता के लिए इन तत्त्वों का महत्त्व समझता है और इन्ही के अनुसार अपने जीवन के आचरण पक्ष को चलाता है। जबकि विद्वान व्यक्ति इन तत्त्वों के महत्त्व को समझे बिना ही सांसारिक सुखों में ही खुश रह सकता है। इस तरह प्रज्ञावान और विद्वान के बीच के अंतर को समझा जा सकता है।
 किसी भी मानव में प्रज्ञा की उत्पत्ति संभव हो सकती है। इसके लिए विद्वान होना भी आवश्यक नहीं है। इसके बावजूद हर एक मनुष्य के लिए प्रज्ञा को पाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि वस्तु या संसार का उसके यथार्थ रूप में परिचय उसे नहीं मिल पाता। इस कारण वह सांसारिकता को उसी दृष्टि से देखते हुए दुख पाता रहता है या फिर दुख को ही सुख समझकर भूलवश अपने जीवन की सार्थकता को निरर्थकता में बदल बैठता है।
      महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन अपने चचेरे भाइयों, गुरु और परिजनों-मित्रों को युद्ध के मैदान में देखकर युद्ध करने से मना कर देते हैं। अपने परिवार के लोगों को मारकर युद्ध जीतना उनके लिए दुख का कारण बन जाता है। अर्जुन को इस तरह मोह और शोक में डूबा हुआ देखकर कृष्ण कहते हैं
                            अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
                        गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति  पण्डिता:।।
      हे अर्जुन! तुम उन लोगों के लिए दुखी हो, जो दुख करने के योग्य नहीं हैं और प्रज्ञावान की तरह बातें कर रहे हो। प्रज्ञावान उनके लिए दुख नहीं करते, जो मर चुके हैं या जो जीवित हैं और मृत्यु की ओर लगातार जा रहे हैं। कृष्ण को अर्जुन की कमजोरी का पता चलता है। वे जानते हैं कि अर्जुन झूठी करुणा के जाल में फँस गया है। उसके मन में मानवता के लिए जो प्रेम है, वह सच्चा नहीं है। यह सच्ची करुणा का भाव नहीं है, यह आध्यात्मिक विकास या सत्व गुण की उत्पत्ति भी नहीं है। यह उस अज्ञान या वासना का परिणाम है, जिसने अर्जुन की प्रज्ञा को ढक लिया है। अर्जुन की अज्ञानता या अविद्या को दूर करने का काम कृष्ण करते हैं।
कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश सांख्य दर्शन के नाम से जाना जाता है। इसमें संसार को एक रंगमंच की तरह से देखा जा सकता है। जहाँ पर पात्र आते-जाते हैं, जन्म लेते और मरते रहते है। जीवन देने और लेने वाले पात्र अपने-अपने अभिनय को कुशलतापूर्वक करते हुए मंच से बाहर हो जाते हैं, वैसे ही यह संसार भी है। इस संसार को ऐसी दृष्टि से देखने वाले लोग शोक में या मोह में लिप्त नहीं होते। सांसारिक जीवन में ऐसे लोगों को प्रज्ञावान या प्रज्ञाधारण करने वाला कहा जा सकता है।
    सांख्य दर्शन आत्मा को शाश्वत मानता है, जबकि बौद्ध धर्म में आत्मा को क्षणभंगुर माना गया है। दोनों ही दर्शन अपने-अपने तरीके से आत्मा की व्याख्या करके मानव जीवन के आचार पक्ष को प्रज्ञा से जोड़ने का प्रयास करते हैं। इसलिए नित्य और अनित्य के इस भेद को हटाकर यदि कर्मवाद के नजरिये से देखा जाए तो दोनों दर्शन उस कर्म को प्रधानता देते हैं, जो मानव मात्र के कल्याण की भावना को और करुणा की भावना को अपने साथ लेकर चलता हो।
    संसार के कई धर्मों, मतों और संप्रदायों में प्रज्ञा को श्रेष्ठ माना गया है। इसी कारण अनेक विधियों, अनेक कथाओं-उदाहरणों और नीतिवचन-उपदेशों के माध्यम से मानव को उस प्रज्ञा का परिचय देने का प्रयास करते हैं, जो इस संसार को उसके वास्तविक रूप में दिखाने में सक्षम है। संत कवियों ने भी अपनी वाणी में प्रज्ञा को बड़े ही सरल और सहज ढंग से व्यक्त किया है। सरहपा लिखते हैं-
                  जहँ मन पवन न संचरइ, रवि-शशि नाहिं पवेश।
                  तहँ मूढ़ चित्त  विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेस।।
प्रज्ञा को जानने के लिए धर्मों, मतों और संप्रदायों में की गई व्यवस्था तीन स्तरों में है। पहली सुनकर, दूसरी सुनकर उस पर चिंतन करते हुए और तीसरी भावना या विचार में बाँधते हुए। इसी कारण सत्संग, भजन, कीर्तन और प्रार्थना का विधान किया गया है। अपने वजूद को, अपने अस्तित्व को शून्य करके अपनी चिंता को संसार की चिंता के साथ जोड़कर चिंतन में लीन होने को श्रेष्ठ माना गया है। अगर सरल अर्थों में कहें तो प्रज्ञा मन और विचारों की वह स्थिति है, जो मानव को मानव से और दूसरे जीवों से प्रेम करना सिखाती है। यह अपने और पराए के अंतर को मिटाती है। यह सारे संसार के प्रति करुणा और प्रेम की भावना का विकास करती है। यह सच्चाई, ईमानदारी, दया, शांति और अहिंसा के भावों को समझाती है। जब प्रज्ञा की साधना अपने उच्चतम स्तर पर पहुँचती है, तब मानव अज्ञान या अविद्या से पार हो जाता है। यह स्थिति प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा की है। देवालयों में स्थित मूर्तियाँ और चित्र सामान्य व्यक्ति को यही शिक्षा देते हैं। इसी कारण अपने परिवार के प्रति प्रेम को ही नहीं, बल्कि विश्वबंधुत्व की भावना को श्रेष्ठ माना गया है। श्रुति, चिंतन और भावना धारण के माध्यम से प्रज्ञा की साधना करने के लिए किसी धर्मकेंद्र की, देवालय या पवित्र स्थान की जरूरत नहीं होती।
शायद इसी कारण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उस स्थान पर प्रज्ञा का स्वरूप बताया, जहाँ पर संसार की निःसारता और संबंधों-रिश्तों-नातों की कड़वी हकीकत का पर्दाफ़ाश होने वाला था। अर्जुन धनुर्विद्या का महारथी था, राजशास्त्र और नीतिशास्त्र का ज्ञानी भी था, किंतु युद्ध के मैदान में जब श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि तुम शोक न करने वालों पर शोक करते हो और ज्ञान की बातें करते हो, तब श्रीकृष्ण के इस कथन से यह अर्थ भी निकल रहा था कि तुम धनुर्विद्या, नीति और राजशास्त्र का ज्ञान रखने के बावजूद पूरी तरह से अज्ञानी हो, बुद्धिहीन हो।
    संभवतः यही कारण रहा होगा, कि भगवान् बुद्ध ने अपना पहला उपदेश मृगदाव के घने जंगल में, टङ-सोङ-लुङ-वा-रि-दक्स-कि-नक़्स, में दिया, जहाँ सुंदर-सुसज्जित मंच न था, सांसारिक जीवन की चकाचौंध न थी, धन-दौलत भी नहीं थी। वह स्थान ऐसा था, जो यह बोध करा रहा था कि सारा संसार एक जंगल की तरह अव्यवस्थित, वीरान और हिंसक पशुओं से भरा हुआ है। यह प्रतीक था, यह सच्ची स्थिति थी, सही स्थान था, जहाँ बैठकर उस प्रज्ञा से साक्षात्कार किया जा सकता था, उस प्रज्ञा की साझेदारी की जा सकती थी, जो इस जंगलनुमा संसार को सुंदर-सजीले उपवन में बदल सकती थी।
वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण या वस्तु के यथार्थ स्वरूप को गलत तरीके से जानने के कारण उपजी अविद्या के आवरण को हटाकर सच्ची विद्या या प्रज्ञा से साक्षात्कार करने हेतु आचार्य शांतिदेव ने निर्वाणकामी, मोक्षकामी लोगों को रास्ता दिखाया है—
                     इमं  परिकरं    सर्वं  प्रज्ञार्थं   हि   मुनिर्जगौ।
                     तस्मादुत्पादयेत् प्रज्ञां दुःखनिवृत्तिकाङ्क्षया।।
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 22.04.2013, प्रातः 7 बजकर 35   मिनट पर)
                                                                         डॉ. राहुल मिश्र 

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