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Wednesday, 12 December 2018

लोसर : परंपरा और संस्कृति का पर्व



लोसर : परंपरा और संस्कृति का पर्व

लदाख अंचल को उसकी अनूठी संस्कृति और धार्मिक परंपराओं से जाना जाता है। लदाख के बारे में ह्वेनसांग, हेरोडोट्स, नोचुर्स, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी जैसे यात्रियों ने बताया है। इससे लदाख के अतीत का पता चलता है। किसी भी क्षेत्र के अतीत का पता इतिहास की किताबों और इतिहासकारों से चलता है। लेकिन किसी क्षेत्र के समाज, संस्कृति और वहाँ के लोगों के जीवन की जानकारी उस क्षेत्र के रीति-रिवाजों और तीज-त्योंहारों से मिलती है। लदाख अंचल की अनूठी संस्कृति, यहाँ के लोगों के विचार और समाज का जीवन लदाख के त्योहारों में दिखाई देता है। लदाख अंचल के प्रमुख त्योहारों में बुद्ध पूर्णिमा और लोसर का नाम आता है। इनमें बुद्ध पूर्णिमा धार्मिक त्योहार होता है। इसमें खास तौर पर पूजा-पाठ होते हैं, जबकि लोसर का त्योहार धार्मिक भी होता है, और सामाजिक भी होता है। इस कारण लोसर के त्योहार में लदाख अंचल के साथ ही सारे हिमालयी परिक्षेत्र के समाज, यहाँ की संस्कृति, प्राचीनता और परंपरा की झलक देखने को मिलती है।
 लदाख अंचल के लिए लोसर का त्योहार बहुत खास होता है, क्योंकि सर्दियाँ शुरू होने के साथ ही यह त्योहार लोगों में नई जिंदगी की रौनक बिखेर देता है। गर्मियों में पर्यटकों से गुलज़ार रहने वाले लदाख में ठंढक के आगमन के साथ ही जीवन बदल-सा जाता है। क्या सर्दियों के आने पर लदाख उदासियाँ ओढ़ लेता है? शायद नहीं। क्योंकि लदाख का नववर्ष सर्दियों की शुरुआत के साथ ही नए जोश को लेकर उपस्थित हो जाता है। लदाख के नववर्ष को ही लोसर कहा जाता है। लोसर भोट भाषा के दो शब्दों- ‘लो’ और ‘त्सर’ से मिलकर बना है। ‘लो’ का अर्थ होता है- वर्ष, और ‘त्सर’ का अर्थ होता है- नया। इस तरह से ज्योतिषीय गणना के अनुसार नए वर्ष का त्योहार ही लोसर कहलाता है।
वैसे तो लोसर का मुख्य पर्व भोट पंचांग के हिसाब से ग्यारहवें महीने की अमावस्या को मनाया जाता है, लेकिन इसकी शुरुआत दसवें महीने में ही हो जाती है। भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि से धार्मिक अनुष्ठानों और पूजा-पाठ की शुरुआत हो जाती है, जो ग्यारहवें महीने की पाँचवी तिथि तक चलती रहती है। दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि को होने वाले धार्मिक अनुष्ठान में खास तौर पर विनय के नियमों या सूत्रों का पाठ होता है। इस दिन को विद्वान भिक्षु और महान सिद्ध ग्यालवा लोजंग टकस्पा के स्मृति-दिवस के रूप में भी जाना जाता है। दसवें माह की पच्चीसवीं तिथि को गलदेन ङाछोद का पर्व होता है। यह भी लोसर का पूर्वानुष्ठान होता है। इस तिथि को महासिद्ध चोंखापा की जन्मजयंती और परिनिर्वाण तिथि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन महासिद्ध आचार्य चोंखापा को याद करते हुए गोनपाओं में पैंतीस बुद्धों की पूजा की जाती है। भिक्षुगणों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान के साथ ही लोग अपने-अपने घरों में दीपक जलाकर खुशियाँ मनाते हैं। इस दिन छोरतेन, यानि स्तूपों में भी दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। ऐसा माना जाता है, कि जिस तरह महासिद्ध चोंखापा ने ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता के अँधेरों को दूर किया था, उसी तरह लोगों के जीवन में ज्ञान का उजाला फैले, समाज से अज्ञानता दूर हो, बुरी शक्तियाँ दूर हों और सभी का जीवन खुशहाल हो।
लोसर में सबसे ज्यादा रोचक और मजेदार आयोजन दसवें माह की उन्तीसवीं तिथि  होता है। इस दिन ‘गु-थुग’ बनाया जाता है। ‘गु-थुग’ एक खास किस्म का व्यंजन होता है, जो लोसर के त्योहार में ही में बनता है। यह थुग्पा जैसा ही होता है, लेकिन इसकी खासियत इसमें पड़ने वाली चीजों के कारण होती है। भोट भाषा में ‘गु’ का अर्थ होता है- नौ। लोसर के पर्व पर बनने वाले थुग्पा में नौ चीजें डाली जाती हैं, इसी कारण इस व्यंजन को ‘गु-थुग’ कहा जाता है । इसमें सने हुए आटे की लोइयों के बीच में कोयला, मिर्च, नमक, चीनी, रुई, अँगूठी, कागज और सूर्य तथा चंद्रमा की आकृतियाँ आदि नौ चीजों को अलग-अलग भरकर थुग्पा में डाला जाता है। आग में पक जाने के बाद ‘गु-थुग’ को सभी के बीच में बाँटते हैं। खाने से पहले सभी लोग देखते हैं, कि उनके हिस्से में कौन-सी चीज आई है। अलग-अलग लोगों के हिस्से में आने वाली चीजों के मुताबिक व्यक्ति के स्वभाव और गुण के बारे में बताया जाता है। अगर किसी व्यक्ति के हिस्से में कोयला आता है, तो यह माना जाता है कि उसका मन काला है, उसके विचार गंदे हैं। जिस व्यक्ति के हिस्से में मिर्च आती है, उसे कड़वा बोलने वाला या कटुभाषी माना जाता है। रुई पाने वाला सात्विक और सरल स्वभाव का होता है। कागज पाने वाला धार्मिक, सूर्य की आकृति पाने वाला यशस्वी, चंद्रमा की आकृति पाने वाला सुंदर और अँगूठी पाने वाला कंजूस माना जाता है। जिस व्यक्ति के हिस्से में अच्छी चीज आती है, उसे सम्मान मिलता है। जिसके हिस्से में बुरी वस्तु आती है, उसे अपमानित होना पड़ता है। इस तरह लोसर के त्योहार में वर्षभर के कामों का ब्यौरा निकलकर आ जाता है। वैसे तो यह मनोरंजन के लिए ही होता है, लेकिन इसके पीछे यह संदेश छिपा होता है, कि साल-भर अच्छे काम ही करने चाहिए, नहीं तो सबके सामने अपमानित होना पड़ेगा। इससे अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है।
इसके अगले दिन, यानि दसवें माह की तीसवीं तिथि या अमावस्या को लोग सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से मृतकों या पितृदेवताओं के लिए भोजन लेकर उनके समाधि-स्थल पर जाते हैं। शाम के समय गोनपाओं, छोरतेनों और घरों में दीप जलाए जाते हैं। अमावस्या की रात को जगमगाते दीपकों के बीच लदाख की धरती जगमगा उठती है। इसी दिन शाम के समय हरएक घर से मशाल या ‘मे-तो’ निकाले जाते हैं, जिन्हें लेकर लोग पूरे गाँव या मोहल्ले में घूमते हैं। इन्हें घुमाते हुए लोग आवाज लगाते जाते हैं, कि सारी बुराइयाँ, सारी बुरी और नकारात्मक शक्तियाँ यहाँ से चली जाएँ। ग्यारहवें मास की प्रतिपदा को, अर्थात् पहली तिथि को लोग नए-नए कपड़े पहनकर अपने-अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं। सगे-संबंधी और परिचित-मित्र एक-दूसरे के घर शुभकामनाएँ देने जाते हैं। इस मौके में नवविवाहिताएँ भी अपने घर जाकर बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करती हैं। इस दिन साल भर पकवान खिलाने वाले चूल्हे को भी प्रणाम किया जाता है, और पूजा की जाती है। लोसर के पर्व पर बच्चों को नए-नए कपड़े मिलते हैं और सभी लोग अपने परिजनों, मित्रों को उपहार भी देते हैं।
ग्यारहवें मास की द्वितीया को, अर्थात् दूसरी तिथि को पङोन, यानि महाभोज का आयोजन होता है, जिसमें सभी लोग बिना किसी भेदभाव के शामिल होते हैं। इस मौके पर स्त्रियों और पुरुषों के बीच छङ-लू नामक प्रतियोगिता होती है। इस मौके पर भक्तिभाव और वीरता के लोकगीत गाए जाते हैं। लोकगीतों द्वारा उन सैनिकों को भी शुभकामनाएँ दी जाती हैं, जो लोसर के त्योहार में अपने घर नहीं पहुँच पाते हैं। लदाख की धरती वीरों की धरती मानी जाती है। आज भी यहाँ के तमाम सैनिक देश की सेवा में लगे हुए हैं। इन वीरों का उत्साह बढ़ाने के लिए ही वीर रस से भरे हुए लोकगीत गाए जाते हैं। इसके पीछे एक ऐतिहासिक घटना भी नज़र आती है।
ऐसा माना जाता है, कि लदाख में लोसर का पर्व तिब्बती पंचांग के अनुसार ही मनाया जाता था, मगर लदाख के प्रतापी शासक राजा जमयङ नमग्याल के साथ जुड़ी एक घटना के कारण लोसर का पर्व तिब्बती लोसर से एक महीने पहले मनाया जाने लगा। मान्यता है, कि सोलहवीं शती. में राजा जमयङ नमग्याल के शासक बनते ही बल्तिस्तान में विद्रोह हो गया। यह घटना लोसर के एक महीने पहले की थी।  ऐसी संभावना थी कि लोसर के पहले युद्ध समाप्त नहीं हो पाएगा। इस कारण राजा जमयङ नमग्याल ने युद्ध में जाने से पहले ही लोसर मनाने की घोषणा कर दी। इस तरह भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने से ही लोसर पर्व के आयोजन की परंपरा चल पड़ी और आज भी इस परंपरा को देखा जा सकता है। उस समय युद्ध में जाने वाले वीर सैनिकों के अंदर जोश भरने के लिए वीरतापूर्ण लोकगीत गाये गए होंगे। आज लोसर में वीर-गीतों को गाने के रिवाज के पीछे भी यही कारण देखा जा सकता है।
ऐसा भी माना जाता है, कि लदाख के ठंढे मौसम और यहाँ की कृषि-व्यवस्था के कारण लोसर पर्व की तिथियों में अंतर है। लदाख में एक फसल ही पैदा होती है और खेती-किसानी का सारा काम अक्टूबर महीने तक पूरा हो जाता है। नवंबर के समाप्त होते-होते नई फसल का अनाज भी घर पहुँच जाता है। नया सत्तू और आटा भी तैयार हो जाता है। इस तरह लोसर में पूजा-पाठ के लिए नई फसल से सामग्री भी तैयार हो जाती है, और काम-काज की व्यस्तता भी नहीं रहती। इस कारण लोसर पर्व का उत्साह दुगुना हो जाता है। कारण चाहे जो भी हों, मगर ठंढक की दस्तक के साथ ही उल्लास और उमंग से भरा यह पर्व पुरातनकाल से ही लदाख अंचल की अपनी विशिष्ट पहचान को, अपनी अनूठी परंपराओं को सँजोए हुए है।
लदाख अंचल भौगोलिक रूप से जितना बड़ा है, उतनी ही विविधताएँ भी यहाँ पर देखी जा सकती हैं। नुबरा, चङथङ, जङ्स्कर और शम आदि क्षेत्रों में लोसर पर्व के साथ जुड़ी लोकपरंपराओं के अलग-अलग रंग देखे जा सकते हैं। इन लोकपरंपराओं में बहुत रोचक है, यहाँ की स्वाँग की परंपरा। प्राचीनकाल में स्वाँग की परंपरा सारे लदाख में अलग-अलग तरीके से मनाई जाती थी, मगर आधुनिक जीवन-शैली के कारण यह परंपरा लदाख अंचल के दूरदराज के गाँवों में ही सिमटकर रह गई है। जिस समय लदाख में मनोरंजन के साधन उपलब्ध नहीं रहे होंगे, उस समय लोगों के मनोरंजन के लिए, और उनकी धार्मिक भावनाओं की पुष्टि के लिए यह लोक-परंपरा बहुत कारगर रही होगी। इसमें लदाख के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग किस्म के स्वाँग करने की परंपरा है। लेह शहर के नजदीक चोगलमसर गाँव में होने वाले अबी-मेमे; ञे, बसगो, अलची गाँवों में होने वाले लामा-जोगी; हेमिशुगपाचन में होने वाले खाछे-कर-नग; स्क्युरबुचन में होने वाले अपो-आपी और वनला में होने वाले दो बाबा नामक स्वाँग बहुत प्रसिद्ध हैं। इन स्वाँगों में लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इन स्वाँगों में नसीहतें ही नहीं, इतिहास की झलक भी देखी जा सकती है और लदाख अंचल के साथ जुड़े धार्मिक-सांस्कृतिक संबंधों को भी देखा जा सकता है। लामा-जोगी नामक स्वाँग में उस पुराने लदाख को देखा जा सकता है, जिसमें कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए आने वाले जोगी या साधु-संन्यासी नजर आते हैं। पुराने ज़माने में बौद्ध भिक्षु, यानि लामाओं जैसी जिंदगी जीने वाले साधु-संन्यासियों को देखकर ही शायद लामा-जोगी स्वाँग का विचार आया होगा। इस स्वाँग में नवमी तिथि को लामा-जोगी अभिमंत्रित अनाज, जैसे गेहूँ-जौ आदि लेकर गाँवों में घूमते हैं और इन्हें छिटककर विघ्न-बाधाओं को दूर करते हैं। वे हरएक घर पर जाते हैं। घर का मुखिया लामा-जोगी के माथे पर सत्तू का तिलक लगाता है और ऊनी मुकुट पर ऊन चढ़ाता है। लामा-जोगी के आशीर्वाद से घर-परिवार, और गाँव में बुरी शक्तियाँ नष्ट होती हैं और सुख समृद्धि आती है। लामा-जोगी का यह स्वाँग प्राचीन लदाख को अतीत के भारत से जोड़ने वाला है। इस स्वाँग के माध्यम से प्राचीन भारत की सिद्ध-श्रावक-श्रमण परंपरा के सुनहरे इतिहास को भी याद किया जा सकता है। यह स्वाँग भारतवर्ष में लदाख अंचल के विशिष्ट और अभिन्न सांस्कृतिक-धार्मिक-सामाजिक सहकार की झलक दिखाता है। इस स्वाँग के माध्यम से लदाख अंचल के स्वर्णिम और गौरवपूर्ण अतीत के पन्ने खुलते चले जाते हैं। भावनात्मक जुड़ाव की झलक पेश करने वाले लामा-जोगी जैसे स्वाँगों का लोसर में विशेष आकर्षण होता है।
लोसर में कुत्ते, बिल्लियों, गाय, बछड़ों आदि को भी खाना खिलाया जाता है। नई फसल का उत्सव भी इसमें होता है। इस तरह लोसर का त्योहार सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम के साथ ही सहजीवन और सह-अस्तित्व का भाव भी दिखाता है।
इस तरह लोसर का त्योहार अपनी विविधताओं के साथ, उमंग और उल्लास के साथ सर्दियों की ठिठुरन के बीच नया जोश, नई उमंग भर जाता है। लोसर का त्योहार उल्लास और उमंग के साथ ही लदाख के गौरवपूर्ण अतीत को, विनय की शिक्षाओं को, और नीति-नैतिकता की नसीहतों को साथ लेकर आता है। सीमित संसाधनों के बीच, जीवन की जटिलताओं के बीच लोसर के पर्व पर थिरकते पाँव बताते हैं कि जीना भी एक कला है और अपनी तहजीब के विविध रंगों को समेटकर लोसर के दीपकों की जगमगाहट के बीच बिखेर देना ही कठिन जीवन की कड़ी चुनौतियों के लिए सटीक जवाब है। एक बाल कविता के साथ लोसर की ढेर सारी शुभकामनाएँ-

आया आया लोसर1 आया,
ढेरों  खुशियाँ  संग   लाया,
ठंडक से सहमे  लोगों  को,
मस्ती  का   मौसम   भाया,
आया आया लोसर  आया।
झूम-झूमकर   गाना   गाते,
गाने  के  संग  नाच है सुंदर,
बज उठते हैं दमन2 के बोल,
सुरनाने  उत्साह  बढ़ाया,
आया  आया लोसर  आया।
आचो4    आते     आचे5   आती,
मिलजुल कर सब साथ में होते,
सबके संग कुछ समय  बिताया,
आया   आया   लोसर   आया।
मिट जाते झगड़े झंझट सब
कौन  हैं  मेरे  कौन  तुम्हारे,
बीती  बातें  सभी भुलाकर,
सबको  गले  लगाने  आया,
आया  आया  लोसर आया।
बनती खूब  सिवइयाँ मीठी,
सज जाते  हर घर हर द्वारे,
जगमग जगमग धरती होती,
हर मन को  चमकाने आया,
आया आया लोसर  आया।
नौ तरह  की चीज़  मिलाकर
नौवें    दिन     होता    तैयार
कहते लोग गुथुक6 है जिसको
आमाँ7  ने  सबको  पिलवाया,
आया  आया  लोसर   आया।
किसने  अच्छे  कर्म   किये  हैं,
किसने   बुरे   किये    हैं   काम,
किस्मत अच्छी बुरी है किसकी,
जादू की पुड़िया  को  खोलकर,
अच्छा   बुरा    बताने    आया,
आया   आया   लोसर   आया।
1.तिब्बती पंचांग के अनुसार सर्दियों में मनाया जाने वाला पर्व 2. नगाड़ा जैसा वाद्य यंत्र 3. बीन जैसा वाद्य यंत्र 4. बड़ा भाई (तिब्बती) 5. बड़ी बहन (तिब्बती) 7. लोसर में बनने वाला एक प्रकार का पेय पदार्थ जिसमें मेवे के साथ कोयला आदि नौ चीजें मिलाई जातीं हैं 8. माँ (तिब्बती)
(आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 दिसंबर, 2018 को प्रातः 09 बजकर 10 मिनट पर प्रसारित)
राहुल मिश्र

Wednesday, 24 May 2017

19वें कुशक बकुला रिनपोछे 19th Kushok Bakula Rinpoche




19वें कुशोग बकुल रिनपोछे का जीवन और योगदान

बकुल लोबस़ङ थुबतन छोगनोर, जिन्हें लदाख अंचल सहित देश-विदेश में कुशोग बकुल रिनपोछे के रूप में जाना जाता है। ऊँची-ऊँची हिमाच्छादित पर्वत श्रेणियों की तरह निर्मल, पवित्र और महान व्यक्तित्व वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे लदाख के युगपुरुष के रूप में जाने जाते हैं। कुशोग बकुल रिनपोछे की पहचान समाज-सुधारक, आधुनिक लदाख के निर्माता, शिक्षाविद, करुणा के अपार सागर से भरे सच्चे भिक्षु और कुशल प्रशासक-संचालक के रूप में रही है। आज भी उन्हें इसी रूप में याद किया जाता है।
19 मई, सन् 1917 को लदाख के मङठो गाँव के राजपरिवार में नङवा थाये और येशे वङमो की संतान के रूप में जन्म लेने वाले कुशोग बकुल को तेरहवें दलाई लामा द्वारा अर्हत बकुल के उन्नीसवें अवतार के रूप में मान्यता दी गई थी। अर्हत बकुल भगवान बुद्ध के सोलह प्रधान शिष्यों में से एक माने जाते हैं। कुशोग बकुल रिनपोछे नौ वर्ष की आयु में उच्च अध्ययन के लिए तिब्बत चले गए। सन् 1940 में वे लदाख लौटे। उस समय का लदाख बहुपति प्रथा, पशुबलि, भेदभाव, अशिक्षा और गरीबी जैसी सामाजिक बुराइयों से जूझ रहा था। भारत की आजादी और विभाजन जैसी राजनीतिक हलचलों के कारण लदाख राजनीतिक संकटों से भी घिर रहा था। ऐसी स्थिति में पूज्यपाद बकुल रिनपोछे अपनी धार्मिक जिम्मेदारी के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आए। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के विकास पर, खासतौर से बालिका शिक्षा पर जोर दिया। वे खुद जीवन-भर एक शिक्षार्थी की तरह अध्ययन करते रहे और समाज को शिक्षा की अहमियत बताते रहे।
सन् 1949 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वे सक्रिय राजनीति में आए और सन् 1951 में राज्य विधानमंडल के सदस्य चुने गए। 12 दिसंबर, 1952 को राज्य विधानमंडल के बजट भाषण में जिस बेबाकी के साथ उन्होंने लदाख की दयनीय और उपेक्षापूर्ण स्थिति को प्रकट किया, उससे यह सिद्ध हो गया कि भगवान बुद्ध का सच्चा शिष्य ही निडर होकर सत्य के साथ खड़ा हो सकता है और सच्चाई को कह सकता है। अपने इस अभूतपूर्व व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि लदाख अंचल में शिक्षा, रोजगार, संचार, स्वास्थ्य और आवागमन के साधन नाममात्र को भी नहीं हैं। यह लदाख के लोगों की सहनशीलता और शांतिप्रियता है, जिसके कारण वे अनीति और पक्षपात को झेल रहे हैं। इस भाषण ने कुशोग रिनपोछे को लदाख का सर्वमान्य नेता ही नहीं बनाया, बल्कि आधुनिक लदाख के निर्माण की नींव भी रख दी। सन् 1953 से 1967 तक राज्य विधानमंडल में, और फिर सन् 1967 से 1977 तक लोकसभा के सांसद के रूप में वे लदाख के लोगों की आवाज को बुलंद करते रहे। केंद्रीय अल्पसंख्यक आयोग सहित विभिन्न संसदीय समितियों और संगठनों के सदस्य के रूप में वे समाज के शोषित-पीड़ित वर्ग की सहायता करते रहे। राज्य विधानमंडल में लदाख मामलों के लिए स्वतंत्र विभाग, लदाख स्वायत्तशाषी पर्वतीय विकास परिषद् का गठन और दिल्ली में लदाख बौद्ध विहार की स्थापना उनके प्रयासों का ही नतीजा है।
एक राजनेता ही नहीं, समाज-सुधारक के रूप में भी उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है। पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे ने अनेक कष्ट उठाकर लदाख के हर-एक गाँव की यात्रा की। अपनी यात्राओं के दौरान वे लोगों को सामाजिक बुराइयों को छोड़ने के लिए कहते थे। उनका सबसे ज्यादा जोर शिक्षा पर होता था। पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे ने परंपरागत शिक्षा ही ग्रहण की थी, मगर वे आधुनिक शिक्षा का महत्त्व भली भाँति जानते थे। सन् 1955-56 में वे भारत सरकार के प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में तिब्बत की यात्रा पर गए थे। वहाँ बदलते राजनीतिक हालातों ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया था। देश-दुनिया में आते बदलावों को समझते हुए उन्होंने परंपरागत और आधुनिक शिक्षा के बीच संतुलन बनाने पर जोर दिया। उनका मानना था कि लदाख के युवाओं को जब तकनीकी, औद्योगिक और चिकित्सा शिक्षा मिलेगी, तभी इस क्षेत्र का समुचित विकास हो सकेगा और लदाख भी देश की मुख्यधारा से जुड़ेगा। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है। अपने अधिकारों को पाने के लिए आधुनिक शिक्षा लेना जरूरी है। इसी कारण वे दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँचकर किसानों को, मजदूरों को प्रेरित करते थे, कि वे अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए भेजें। उनके इन्हीं प्रयासों का नतीजा था, कि छोटी आमदनी वाले किसान और मजदूर भी अपनी सारी जमा पूँजी खर्च करके अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए आगे आए। शिक्षा के लिए लदाख अंचल में आई जागरूकता कुशोक बकुल रिनपोछे के प्रयासों का ही नतीजा है। 
उन्होंने अपने प्रयासों से कई विद्यालयों की स्थापना भी की। केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान इसका जीता-जागता उदाहरण है। इस संस्थान को मानद विश्वविद्यालय का दर्जा दिये जाने के बाद बौद्ध दर्शन के परंपरागत विषयों के साथ ही मानविकी, विज्ञान और तकनीकी जैसे आधुनिक विषयों के अध्ययन की संभावनाएँ बनीं हैं। शिक्षा के संबंध में बकुल रिनपोछे की परिकल्पना थी कि शोध और अनुवाद के द्वारा परंपरागत विद्याओं का अध्ययन आधुनिक संदर्भों में किया जाए। केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान आज उनके विचारों को सच करता हुआ नज़र आता है।
एक दूरदर्शी राजनेता, और एक श्रेष्ठ भिक्षु के रूप में उन्होंने मंगोलिया के राजदूत की जिम्मेदारी को निभाया। वहाँ की दिशाविहीन जनता को धर्म और सत्कर्म का रास्ता दिखाकर उन्होंने केवल मंगोलिया को ही नहीं, सारे विश्व को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। इसी कारण उन्हें मंगोलिया के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पोलर स्टार से सम्मानित किया गया। भारत सरकार द्वारा सन् 1988 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
कुशोग बकुल रिनपोछे ने 04 नवंबर, सन् 2003 को छियासी वर्ष की श्रीआयु में अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया। उनकी प्रेरणा, उनका मार्गदर्शन और उनकी नसीहतें आज भी पथ-प्रदर्शक बनकर लदाख को विकास की ऊँचाइयों तक ले जा रही हैं। समानता, समरसता, सौहार्द, मेल-जोल और शांतिपूर्ण जीवन का उनका आदर्श आज भी जीवित है, जीवंत है।









डॉ. राहुल मिश्र
(एफएम रेनबो, नई दिल्ली से सांस्कृतिक डायरी कार्यक्रम के अंतर्गत 10 मई, 2017 को रात्रि 10.00 बजे प्रसारित एवं आकाशवाणी, लेह से 19 मई, 2017 को प्रातः 09.10 बजे प्रसारित)

Tuesday, 23 February 2016


रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह
विज्ञान और विकास
मानव सभ्यता के विकास के साथ विज्ञान का गहरा संबंध है। आज विकास के जिन आयामों को हम अपने आसपास देखते हैं, वे सभी विज्ञान के माध्यम से ही संभव हो सके हैं। अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों में हमने चंद्रमा ही नहीं, मंगल ग्रह तक उपस्थिति दर्ज कराई है। नगरों और महानगरों में ऊँची-ऊँची बहुमंजिला इमारतों में, सूचना और संचार क्रांति से समृद्ध नगरों और गाँवों में, उन्नत तकनीक से संपन्न उद्यमों और कृषिकार्यों में नए प्रयोगों को, विज्ञान के प्रभाव को देखा जा सकता है। विकास के ये सारे मानक विज्ञान के माध्यम से ही संभव हो सके हैं। दुनिया-भर में हो रहीं नित नवीन खोजों ने, नए-नए अनुसंधानों ने भौतिक विकास को इतनी गति प्रदान की है कि आज मानव जीवन अनेक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण हो गया है। विज्ञान की भूमिका को भौतिक विकास के संदर्भ में अपने आसपास होते बदलावों के माध्यम से समझा जा सकता है।

विज्ञान और विकास के संबंध का एक अन्य पक्ष मानव के जिज्ञासु स्वभाव से भी जुड़ा हुआ है। भदंत आनंद कौसल्यायन अपने निबंध संस्कृति में लिखते हैं कि आसमान में चमकते तारों और ग्रह-नक्षत्रों को जानने की जिज्ञासा, मानव-जीवन को संस्कारों व गुणों से सुसंस्कृत करने वाले ज्ञान के प्रति जिज्ञासा ने विकास के उस पक्ष को समृद्ध किया है, जिसकी जरूरत हमेशा ही मानवता के लिए रही है। इस प्रकार विज्ञान की अनिवार्यता केवल भौतिक विकास के लिए ही नहीं रही है, बल्कि आध्यात्मिक और सहज मानवीय गुणों के विकास के लिए भी रही है। इस प्रकार विज्ञान को मानव सभ्यता के विकास की कहानी से जोड़कर भी देखा जा सकता है। आदिमानव या वनमानुष पेड़ों में रहा करता था। जब उसने धरती पर उतरकर मानव का रूप लिया, तब उसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह अन्य जीवधारियों की तरह बलशाली नहीं था। उसके पास अन्य जीवधारियों की तरह शिकार करके अपना जीवन चलाने की शक्ति भी नहीं थी। वह शेर की तरह वन का राजा नहीं था। वह हाथी की तरह बलशाली, हिरन की तरह फुर्तीला या पक्षियों की तरह उड़ने में सक्षम भी नहीं था। अन्य जीवधारियों की तुलना में उसके पास जो शक्ति थी, वह थी उसके सोचने-विचारने की ताकत और उसके दो हाथ। मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीवधारी है, जो अपने दो पैरों के बल पर भाग सकता है और अपने दो हाथों से काम कर सकता है। मनुष्य ने अपने सोचने-विचारने की ताकत के बल पर ही न केवल धरती पर एकाधिकार स्थापित किया, वरन् दूसरे ग्रहों तक अपनी पहुँच बनाई। यह विज्ञान का ही चमत्कार है, जिसने आदिमानव को आज के जैसा सभ्य-सुसंस्कृत बनाया।

अगर भारतीय विज्ञान की परंपरा की चर्चा की जाए, तो कहा जा सकता है कि जिस समय यूरोपीय घुमक्कड़ जातियाँ अपनी बस्तियाँ बनाना सीख रही थीं, उस समय भारत में सिंधु घाटी के लोग सुनियोजित ढंग से नगर बनाकर रहने लगे थे। मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, चन्हूदड़ो, बनवाली, सुरकोटड़ा आदि स्थानों पर हुई खुदाई से पता लगता है कि इन नगरों के भवन पक्की ईंटों के बने हुए थे। यहाँ से जहाजों द्वारा विदेशी व्यापार होता था। यहाँ के नागरिक आवागमन के लिए बैलगाड़ियों का प्रयोग करना जानते थे। माप-तौल का उन्हें ज्ञान था। वे काँसे के बने औजारों का उपयोग करते थे। सोने-चाँदी के आभूषणों का प्रयोग किया जाना स्पष्ट करता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के विकसित होने तक खनन विद्या की जानकारी भी सुलभ हो चुकी थी। ये लोग सूती और ऊनी वस्त्र बनाना भी भली-भाँति जानते थे। वैदिक काल में भारतीयों को 27 नक्षत्रों का ज्ञान हो चुका था। लगध नामक ऋषि ने ज्योतिष वेदांग में तत्कालीन खगोल विद्या का व्यापक वर्णन किया है। गणित और ज्यामिति के साथ ही वैमानिकी और चिकित्साशास्त्र आदि क्षेत्रों में विज्ञान के व्यापक विस्तार को देखा जा सकता है। आर्यभट, वरःमिहिर, ब्रह्मगुप्त, बोधायन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, कणाद और सवाई जयसिंह तक प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों की लंबी परंपरा को देखा जा सकता है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता को उस समय श्रेष्ठता की ऊँचाइयों पर स्थापित किया था। जर्मनी के प्रसिद्ध खगोलविज्ञानी कॉपरनिकस से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व आर्यभट ने पृथ्वी की गोलाकार आकृति और इसके अपनी धुरी पर घूमने की पुष्टि कर दी थी। आइजक न्यूटन द्वारा खोजे गए गुरुत्वाकर्षण के नियम से हजार वर्ष पहले ही आचार्य ब्रह्मगुप्त ने बता दिया दिया था कि धरती में अपना बल होता है, जो वस्तुओं को अपनी ओर खींचे रखता है। यूरोपीय विद्वान ब्रुक टेलर (Brook Taylor) ने गणित का जो ज्ञान सोलहवीं शताब्दी में दिया, उसे वरःमिहिर ने अपने ग्रंथ सूर्य सिद्धांत में छठी शताब्दी में ही बता दिया था। यूरोपीय गणितज्ञ लैम्बर्ट ने सन् 1761 में पाई के तर्कहीन (Irrational) होने का सिद्धांत दिया था, जबकि आर्यभट ने लैम्बर्ट से लगभग ग्यारह सौ वर्ष पूर्व ही वृत्त की परिधि और व्यास के अनुपात (पाई) का मान 3.1416 निकालकर सिद्ध कर दिया था कि पाई का यह मान अतुलनीय (Irrational) है। कणाद ऋषि ने छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ही सिद्ध कर दिया था कि विश्व का हर पदार्थ परमाणुओं से मिलकर बना है। छठी शताब्दी में ही ब्रह्मगुप्त ने शून्य को प्रयोग में लाने के नियम निर्धारित कर दिए थे। पेल इक्वेशन के नाम से प्रसिद्ध वर्ग समीकरण का हल जॉन पेल से लगभग हजार वर्ष पूर्व आचार्य ब्रह्मगुप्त ने दे दिया था।
चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत का गौरवशाली अतीत रहा है। चिकित्सा विज्ञान की यह सुदीर्घ परंपरा अथर्ववेद में विकसित हो गई थी। महर्षि चरक द्वारा लिखी गई चरक संहिता काय चिकित्सा का पहला ग्रंथ है। जीवक कौमारभच्च बालरोग विशेषज्ञ थे। अनेक बौद्ध ग्रंथों में उनके चिकित्सा ज्ञान की प्रशंसा मिलती है। वे भगवान बुद्ध के निजी वैद्य भी थे। सुश्रुत संहिता के रचयिता सुश्रुत को आज सारे संसार में प्लास्टिक सर्जरी का जनक माना जाता है। महर्षि पतंजलि ने योग के माध्यम से शरीर को रोगमुक्त रखने का उपाय बताया था। आज सारा संसार योग की शक्ति को स्वीकार कर रहा है। चिकित्सा विज्ञान के साथ ही वास्तु, स्थापत्य और शिल्प के क्षेत्र में भारत की प्रगति को सारा संसार स्वीकार करता है। कुतुबमीनार के निकट स्थापित महरौली का लौह स्तंभ लगभग 1700 वर्षों से ज्यों-का-त्यों खड़ा है। उसमें जंग का नामोनिशान तक नहीं है। कोणार्क के सूर्य मंदिर परिसर में स्थापित लौह स्तंभ भी इसी प्रकार का है।
नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के साथ ही ओदांतपुरी (वर्तमान बिहार), नागार्जुनकोंडा (वर्तमान आंध्रप्रदेश), जगद्दला (वर्तमान पश्चिम बंगाल), वलभी (वर्तमान गुजरात), वाराणसी (वर्तमान उत्तरप्रदेश), कांचीपुरम (वर्तमान तमिलनाडु), मणिखेत (वर्तमान कर्नाटक), शारदापीठ (वर्तमान कश्मीर), पुष्पगिरि (वर्तमान उड़ीसा) और सोमपुरा (वर्तमान बांग्लादेश) आदि पुरातन भारत के ऐसे महान शिक्षाकेंद्र हैं, जिन्होंने विश्व को अपार ज्ञानराशि वितरित की है। ज्ञान-विज्ञान-दर्शन की अनेक शाखाओं का विस्तार इन्हीं शिक्षाकेंद्रों से हुआ। इसी कारण पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषी लुई जैकलिएट ने भारत के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए कहा है कि- ऐ प्राचीन वसुंधरे! मनुष्य जाति का पालन करने वाली, पोषणदायिनी तुझे प्रणाम है। श्रद्धा, प्रेम, कला और विज्ञान को जन्म देने वाली भारत भूमि को प्रणाम है।’ (संदर्भ- आर्य संस्कृति का प्रथम विश्वविद्यालय विक्रमशिला’, विक्रमशिला का इतिहास, परशुराम ठाकुर ब्रह्मवादी, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2013, पृ. 71)
भारत के संदर्भ में विज्ञान और विकास को, इनके मध्य संबंधों को अतीत से जुड़े इन तथ्यों के माध्यम से समझा जा सकता है। ये तथ्य भारतीय परंपरा में विज्ञान और विकास के अंतःसंबंधों के प्रतिमान हैं। मध्ययुग की शुरुआत और फिर भारत में व्यापारी के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन तक का अंतराल अनेक उतार-चढ़ावों से भरा रहा। इस दौर में विज्ञान और विकास का क्रम वैसा स्मरणीय नहीं कहा जा सकता, जैसा अपने अतीत में था। ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ ही भारत ने उस औद्योगीकरण को जाना, जिसे पश्चिमी देश पहले ही अपना चुके थे। पाश्चात्य देशों के विज्ञान को पुरातन भारतीय परंपरा का ही आयातित संस्करण कहा जा सकता है, क्योंकि प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक परंपरा को प्रायः आधार बनाकर यांत्रिकी या मशीनीकरण का विकास पश्चिमी देशों में हुआ था। प्राचीन भारतीय परंपरा ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में अत्यंत तीव्र विकास अवश्य किया था, किंतु यांत्रिक या मशीनी स्तर पर बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की थी। आधुनिक और पुरातन वैज्ञानिक परंपरा के बीच बड़ा अंतर यांत्रिकी या मशीनीकरण के विकास का था। यांत्रिकी के विकास से विज्ञान में अनेक रास्ते खुले। रसायन, भौतिकी, जीवविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान की विभिन्न शाखा-प्रशाखाओं के विस्तार ने एक ओर मानव जीवन को सुखमय बनाया, तो दूसरी ओर विभीषक हथियारों ने, मानवताविरोधी अनुसंधानों ने जीवन को भयग्रस्त भी बना दिया।
स्वाधीन भारत ने आधुनिक विज्ञान को स्वीकार करते हुए अपने विकास के लिए, और वैश्विक स्तर पर अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए संकल्पबद्ध होकर कार्य किया है। डॉ. होमी जहाँगीर भाभा, डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर, डॉ. सी.वी.रमण, डॉ. एम.एन. साहा, डॉ. जगदीशचंद्र बोस, डॉ. नॉरमन बोरलाग, डॉ. बीरबल साहनी और डॉ. हरगोविंद खुराना से लगाकर डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तक भारतीय वैज्ञानिकों की ऐसी समृद्ध परंपरा देखी जा सकती है; जिन्होंने कृषि, चिकित्सा, सूचना-संचार, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष कार्यक्रम और रक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों को न केवल समृद्ध किया है, वरन् वैश्विक स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा को भी स्थापित किया है। अत्यंत कम लागत में मंगल ग्रह की यात्रा करके भारत ने अपनी मेधा से विश्व को चमत्कृत कर दिया है।
विज्ञान का अर्थ होता है- विशिष्ट ज्ञान। यह विशिष्ट ज्ञान ही विकास को गति देता है और विकास की कामना ही विशिष्ट ज्ञान की खोज के लिए प्रेरित करती है। इस तरह विज्ञान और विकास एक-दूसरे के पूरक होते हैं, अन्योन्याश्रित होते हैं। भारतीय परंपरा में विज्ञान और विकास के साथ नीति, मर्यादा, आस्था और धर्मभीरुता जैसे गुण भी जुड़े रहे हैं। भारतीय संदर्भ में विज्ञान की पुरातन परंपरा जहाँ इन गुणों से जुड़ी रही है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान के साथ भी इन गुणों का समावेश देखने को मिलता है। इसी कारण अतीत से लगाकर वर्तमान तक भारतीय परंपरा उस विकास को सदा से नकारती रही है, जो मानवता के लिए, सृष्टि के लिए और धर्म-आस्था के लिए घातक हो। शुद्ध भौतिकता को बढ़ावा देने के प्रश्न पर ही धर्म और विज्ञान में विरोध की बात उठती है। एक ओर भौतिक विकास भी आवश्यक है, तो दूसरी ओर आध्यात्मिक विकास भी अनिवार्य है। पाश्चात्य परंपरा में विज्ञान और विकास के संबंधों की घनिष्ठता के बीच आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य दूर ही रह जाते हैं और इसी कारण वहाँ के समाजों में अनेक प्रकार की विसंगतियाँ पैदा होने लगती हैं। आज की जीवनशैली में भारत देश भी अनेक विसंगतियों, सामाजिक समस्याओं और विकृतियों से अगर जूझ रहा है, तो उसके पीछे पाश्चात्य प्रभाव ही है।
हिंदी के जाने-माने साहित्यकार धर्मवीर भारती ने अपने नाटक अंधायुग में व्यास के मुख से ब्रह्मास्त्र के भयानक खतरों का वर्णन कराया है। अंधायुग में व्यास जी कहते हैं कि-
लेकिन नराधम / ये दोनों ब्रह्मास्त्र अभी / नभ में टकरायेंगे / सूरज बुझ जाएगा। / धरा बंजर हो जाएगी।।
इन पंक्तियों में ब्रह्मास्त्र के खतरों का जो संकेत दिया गया है, उसमें आधुनिक युग के विज्ञानबोध को देखा जा सकता है। इन पंक्तियों में खतरा परमाणु हथियारों का है। परमाणु हथियारों का ध्वंसात्मक प्रयोग आज की पीढ़ी के लिए बड़ा खतरा है और धर्मवीर भारती की इन पंक्तियों में इस खतरे को देखा जा सकता है। विज्ञान के माध्यम से ऐसा अंधा विकास भारतीय परंपरा का नहीं है। इसी कारण विज्ञान और विकास के साथ धर्म को जोड़ने की बातें की जाने लगीं हैं। विकास की गति को रोका नहीं जा सकता और विकास के लिए विज्ञान अनिवार्य है। अगर विज्ञान को नैतिकता, मानवता और आध्यात्मिकता के बंधन में नहीं रखा जाएगा, तो उसके परिणाम व्यक्ति से लगाकर समाज और राष्ट्र तक के लिए घातक होंगे। आज 26/11 की विभीषक घटना से लगाकर एक व्यक्ति के मन में पनपती हताशा, कुंठा, हिंसा, आक्रोश और क्रूरता की भावनाएँ विज्ञान और विकास के बीच धर्म के तत्त्व के लुप्त हो जाने के कारण उत्पन्न हो रही हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया में जिस तरह गाँव-कस्बे से लगाकर नगरों-महानगरों तक, देश के कोने-कोने से विदेशों तक अपसंस्कृति का विस्तार होता जा रहा है, उसके पीछे आधुनिक विज्ञान से संचालित विकास की अनियंत्रित गति के दुष्परिणाम ही हैं। कोरे भौतिकतावाद पर आधारित विज्ञान और उससे होते विकास के दुष्परिणामों को नियंत्रित करने की सामर्थ्य आध्यात्मिकता में ही है। परमपावन चौदहवें दलाई लामा की प्रेरणा से स्थापित माइंड एंड लाइफ इंस्टीट्यूट और साइंस, रिलीजन एंड डेवलपमेंट जैसी परियोजनाएँ इस दिशा में कार्य कर रहीं हैं। सन् 1987 से परमपावन दलाई लामा स्वयं इस दिशा में कार्य कर रहे हैं। उनका कथन है कि विज्ञान, तकनीक और भौतिक विकास हमारी सारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। हमें अपने भौतिक विकास को करुणा, सहिष्णुता, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन जैसे मानवीय मूल्यों के साथ जोड़ने की आवश्यकता है, जिससे हमारा भौतिक और आंतरिक विकास एकसाथ हो सके। इसी में विकास की पूर्णता है और यही विज्ञान की सार्थकता है। विज्ञान और विकास के संदर्भ में यह पुरातन भारतीय पंरपरा ही विश्व के लिए कल्याण का मार्ग सुलभ करा सकती है।  
डॉ. राहुल मिश्र
        (आकाशवाणी, लेह से दिनांक 09 नवंबर, 2015 को प्रातः 0910 बजे प्रसारित)