हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों का
प्रभाव
हिंदी साहित्य के वर्तमान में उपन्यास विधा की उत्पत्ति और
विकास सर्वथा नवीन भावबोध और भारतीय नवजागरण के प्रयासों से अनुप्राणित है। इस
कारण भारतीय नवजागरण से संबद्ध विचारकों-समाजसेवकों के प्रयासों और उनके विचारों
का उपन्यास विधा में प्रतिफलित होना भी सर्वथा प्रासंगिक और युक्तिपूर्ण है। हिंदी
के प्रारंभिक उपन्यास प्रायः अंग्रेजी और बांगला से अनूदित थे और उनमें इसी अनुरूप
कथ्य का प्रतिपादन भी किया गया था। हिंदी के प्रारंभिक मौलिक उपन्यासों का क्रम
प्रायः 1900 ई. से शुरू होता है और 1950 ई. तक के उपन्यासों को हिंदी के प्रारंभिक
मौलिक उपन्यास कहा जा सकता है। सन् 1900 से 1915-16 की अवधि में एक ओर
तिलिस्मी-ऐयारी-जासूसी कथानक वाले उपन्यासों का प्रभाव देखने को मिलता है, तो
दूसरी ओर भारतीय नवजागरण के प्रभावों के फलस्वरूप सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित नीतिवादी-शिक्षाप्रद-उपदेशात्मक
उपन्यासों का। इस अवधि के उपन्यासों में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरोध के स्थान पर
उसके कारण उपजी समस्याओं को उच्च मध्यवर्गीय समाज के सीमित दायरे में रखकर चित्रित
किया गया है। “इस अवधि का उपन्यास देश के उस विशाल जनसमुदाय से कटा हुआ है, जो
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के शोषणचक्र में पिस रहा था। यह जनसमुदाय किसानों का था,
जो मुख्यतः गाँवों में रहता था और विदेशी सरकार, जमींदार, महाजन और पुरोहित, सबका
भक्ष्य बना हुआ था। किशोरीलाल गोस्वामी, भुवनेश्वर मिश्र, महता लज्जाराम शर्मा आदि
कुछ उपन्यासकारों ने किसानों पर जमींदारों के अत्याचार, ग्रामीणों की निर्धनता,
अशिक्षा तथा उनकी दीनहीन स्थिति का यत्रतत्र चित्रण किया है, किंतु यथार्थ के इस
ज्वलंत पक्ष पर उनकी सर्जनात्मक दृष्टि नहीं पड़ी।”1 गोपालकृष्ण गोखले
द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज, जी. के. देवघर द्वारा स्थापित सेवासदन, राजा
राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज और केशवचंद्र सेन की प्रेरणा से स्थापित
प्रार्थना समाज सहित दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज ने धार्मिक प्रेरणा
और अतीत के गौरवपूर्ण सांस्कृतिक स्वरूप का समाज-सुधार के क्षेत्र में प्रयोग किया,
जो इस अवधि के उपन्यासों में परिलक्षित होता रहा।
इस प्रकार 1900 से 1915-16 की अवधि में नवजागरण की दिशा और
दशा सामाजिक सुधार बनाम राजनीतिक सक्रियता के दो अलग-अलग वर्गों में बँटी थी। इसके
परिणामस्वरूप एक ओर बालगंगाधर तिलक और उनके समर्थकों ने राजनीतिक सक्रियता को
प्रश्रय दिया, तो दूसरी ओर गोपालकृष्ण गोखले जैसे राजनीतिज्ञों ने समाज-कार्य को।
एक लक्ष्य की ओर चलती दो परस्पर विरोधी विचारधाराएँ समाज को सही दिशा देने के
स्थान पर दिग्भ्रम जैसी स्थितियों का सर्जन कर रही थीं। ऐसे समय में आगमन होता है,
महात्मा गांधी का। दक्षिण अफ्रीका से संत बनकर लौटे गांधी जी ने परस्पर विरोधी
तत्त्वों को समीप लाने और उन्हें अपनी ताकत बनाने का प्रयोग किया। “गांधी जी ने
सामाजिक समस्याओं तथा राजनीतिक प्रश्नों को एक समन्वित रूप दे दिया था। इसीलिए
गांधी जी खादी, हिंदू-मुसलिम एकता तथा अछूतोद्धार, स्वराज्य के तीन स्तंभ मानते
थे।”2 तत्कालीन भारतीय राजनीति और भारतीय समाजनीति पर गांधी जी की
स्वराज्य की अवधारणा न केवल स्थापित हुई, वरन् तीव्रता के साथ जनस्वीकार्य भी हुई।
साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। “गांधी जी के
विचारों एवं जीवन-दृष्टि के आधार पर औपन्यासिक चरित्रों का प्रतिरूप बनाया गया,
गांधी जी के जीवन की घटनाओं का प्रतिबिंब प्रस्तुत किया गया, गांधी जी द्वारा
प्रवर्तित राष्ट्रीय आंदोलनों का चित्ररूप दर्शन कराया गया, गांधी जी के कुछ
सिद्धांतों की मीमांसा करने के लिए कथाओं की संरचना की गई। उदाहरणस्वरूप-
हृदय-परिवर्तन, अहिंसक प्रतिरोध, सत्य का स्वरूप-विवेचन, ट्रस्टीशिप की परिकल्पना,
औद्योगिक विकास के दौरान बढ़ने वाली अनैतिकता, दलित-पीड़ित-पतित-शोषित समाज के
प्रति सहानुभूति आदि।”3 हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों के द्वितीय सोपान
में गांधी-दर्शन और गांधीवाद के आगमन को साहित्य और समाज में बड़े क्रांतिकारी
बदलाव से कम नहीं कहा जा सकता है।
‘परीक्षागुरु’ से ‘सेवासदन’ तक, अर्थात् 1882 से 1916 तक
हिंदी उपन्यास साहित्य को प्रयोगकाल कहा जा सकता है। इस काल के उपन्यासों की
सृष्टि किसी साहित्यिक उद्देश्य को सम्मुख रखकर नहीं की गई थी, वरन् नीति, शिक्षा,
प्रेम, रोमांस, तिलिस्म और जासूसी प्रवृत्तियों का चित्रण करके जनता का मनोरंजन
करना अथवा कौतूहल की सृष्टि करना मात्र था।4 ‘सेवासदन’ के साथ प्रेमचंद
द्वारा हिंदी उपन्यास-लेखन का प्रारंभ किया जाना और राजनीतिक-समाजसेवक के रूप में
महात्मा गांधी का भारत में आगमन, दो ऐसी घटनाएँ हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य और भारतीय
समाज, दोनों के लिए युगांतकारी कहा जा सकता है।
प्रेमचंद का उपन्यास ‘सेवासदन’ सन् 1918 में हिंदी में
प्रकाशित हुआ और समाज में उपेक्षित ‘आधी दुनिया’ के जटिल यथार्थ को पहली बार देखने
का प्रयास हुआ। गांधी जी महिलाओं की दयनीय दशा को लेकर चिंतित थे, और वे महिलाओं
को पुरुषों के समान सामाजिक मान-प्रतिष्ठा और अधिकार दिलाने के प्रबल पक्षधर थे।
इसी कारण उन्होंने स्त्री-अशिक्षा और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का विरोध किया। “1930
ई. में गांधी जी ने स्त्रियों को विदेशी वस्तुओं की दुकानों, शराबघरों और सरकारी
संस्थानों पर धरना देने का संदेश दिया। इस आह्वान पर हजारों स्त्रियों ने
स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया और जेल गयीं। खुद प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी
भी जेल गयीं। इसका असर प्रेमचंद के उपन्यासों के नारी पात्रों पर भी दिखाई देता
है।”5 इसी कारण दहेज प्रथा और वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक
समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखा गया ‘सेवासदन’ गांधी जी के विचारों के समीप का
प्रकट होता है। प्रेमचंद के उपन्यासों में ‘सेवासदन’ की शांता; ‘गोदान’ की मालती; ‘कर्मभूमि’
की सुखदा, मुन्नी, नैना, रेणुका देवी, पठानिन और सकीना तथा ‘प्रेमाश्रम’ की
श्रद्धा और विद्या आदि ऐसी नारी-पात्र हैं, जिनके माध्यम से प्रेमचंद ने
प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से गांधी जी के नारी-विषयक विचारों को प्रकट करने का प्रयास
किया है।
प्रेमचंद अपने उपन्यासों के नारी पात्रों के साथ ही अन्य
पात्रों के माध्यम से भी गांधीवादी चिंतन और तत्कालीन आंदोलनों के प्रभावों को
प्रकट करते हैं। “गांधी विदेशी शिक्षा-प्रणाली, विदेशी औद्योगीकरण, शहरीकरण के
प्रबल विरोधी थे, प्रेमचंद ने ज़मींदार-किसान, अमीर-गरीब का भेद तो दिखाया है,
लेकिन उसे वर्ग-भेद का रूप नहीं दिया है और न ही वर्ग-संघर्ष और क्रांति के जरिये
उसका समाधान प्रस्तुत किया। अहिंसात्मक सत्याग्रह और हृदय परिवर्तन ही उनके
समाज-परिवर्तन के साधन रहे थे। जहाँ ऐसा होने की संभावना नहीं है, वहाँ उन्होंने
यथार्थ का दामन नहीं छोड़ा है, लेकिन हिंसा को प्रश्रय नहीं दिया है। प्रेमचंद
गांधी के ‘वर्ग-समन्वय’ के सिद्धांत पर, ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत पर भी यकीन करते
थे।”6 प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यासों में गांधीवाद के दर्शन होते हैं।
यहाँ ‘प्रेमाश्रम’ के प्रेमशंकर, ‘कर्मभूमि’ के अमरकांत, ‘रंगभूमि’ के सूरदास और
‘कायाकल्प’ के चक्रधर का उल्लेख किया जा सकता है, जिनके माध्यम से प्रेमचंद गांधी
जी के विचारों को स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
प्रेमचंद ने जिस राजनीतिक-सामाजिक चेतना को व्यक्त करने की
परंपरा की शुरुआत की, उसे आगे बढ़ाने का कार्य उनके समकालीन और परवर्ती
उपन्यासकारों ने किया। हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद पहले ऐसे उपन्यासकार
भी थे, जिन्होंने गांधीवाद को उपन्यास विधा में स्थापित करने का सफल प्रयास किया।
प्रेमचंद के साथ ही उनके समकालीन श्री नाथ सिंह ने गांधीवादी दृष्टिकोण से अनेक
उपन्यासों की रचना की। उनके ‘उलझन’, ‘जागरण’, ‘प्रभावती’, ‘प्रजामण्डल’ आदि
उपन्यासों में ग्राम-सुधार, नारी उद्धार, अछूतोद्धार जैसे विषय हैं।7 गांधीवादी
विचारधारा को कविताओं के साथ ही उपन्यासों में उतारने वाले सियारामशरण गुप्त के दो
उपन्यासों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। ‘गोद’ उपन्यास में उन्होंने नारी की
दयनीय सामाजिक स्थिति का चित्रण करते हुए नारी स्वातंत्र्य के विषय को गांधीवादी
विचारधारा के अनुरूप प्रकट किया है। उनके दूसरे उपन्यास ‘अंतिम आकांक्षा’ में
सामाजिक विषमता के प्रश्न को उठाया गया है। इस उपन्यास में रामलाल निर्धन,
निम्नवर्गीय पात्र है, जिसके प्रति समाज के अभिजात्य वर्ग की मानवीय सहानुभूति का
उपजना गुप्त जी के गांधीवादी दृष्टिकोण को संकेतित करता है।8
गुरुदत्त ने अपने उपन्यास ‘स्वराज्य दान’ में अहिंसा के
महत्त्व को स्थापित करने का प्रयास किया है, साथ ही उनके ‘स्वाधीनता के पथ पर’,
‘पथिक’ और ‘भावुकता का मूल्य’ आदि उपन्यासों में विभिन्न सामाजिक समस्याओं का
चित्रण है। जगदीश झा विमल के उपन्यास ‘खरा सोना’, ‘आशा पर पानी’, ‘लीलावती’ और
‘गरीब’, जहाँ एक ओर प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, वहीं दूसरी ओर गांधी जी
के विचारों को भी प्रकट करते हैं। प्रतापनारायण श्रीवास्तव ने ‘विजय’, ‘विकास’ और ‘बयालीस’
आदि उपन्यासों में राजनीतिक-सामाजिक समस्याओं का हल गांधीवादी विचारधारा के अनुरूप
प्रस्तुत करके हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों की उपस्थिति
को दृढ़ता प्रदान की है। ऋषभचरण जैन का उपन्यास ‘सत्याग्रह’ दक्षिण अफ्रीका में
गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन के जरिए गांधीवादी विचारों को प्रकट करता है। उनके
अन्य उपन्यासों में ‘मयखाना’ और ‘तीन इक्के’ भी उल्लेखनीय हैं, जिनमें शराबखोरी और
जुआखोरी के दुर्गुणों का चित्रण हुआ है।
उस दौर के अन्य प्रसिद्ध उपन्यासकार, ‘उग्र’ पर नग्नता का
आरोप लगता रहा है, किंतु उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ गांधीवादी विचारों का
चित्रण अपने उपन्यासों में किया है। “पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ राजनीतिक
धरातल पर गांधी जी के विचारों से प्रभावित थे। वह दो उपन्यासों, ‘चन्द हसीनों के
खतूत’ तथा ‘सरकार तुम्हारी आँखों में’, हिंदू-मुसलिम एकता के उद्देश्य से लिखते
हैं। ‘शराबी’ उपन्यास मद्यनिषेध विषय पर लिखा गया है, जो राष्ट्रीय कांग्रेस का
मुख्य रचनात्मक कार्यक्रम था। ‘मनुष्यानंद’ उपन्यास में अछूतोद्धार आंदोलन चलता है।”9
उषादेवी मित्रा के उपन्यासों, ‘वचन का मोल’, ‘जीवन की मुसकान’ और ‘पथचारी’ में
नारी-जीवन की ऐसी विषमताएँ उभरती हैं, जिनका सीधा संबंध गांधी जी के नारी-विषयक
विचारों से जुड़ा है। “परिवार से सामाजिक आंदोलनों की ओर आती भारतीय स्त्री की
संक्रमणकालीन मनोदशाओं का अंकन उषादेवी मित्रा ने पर्याप्त विश्वसनीय रूप में किया
है।”10
इसी प्रकार निराला कृत ‘अलका’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘तितली’
और ‘कंकाल’, वृंदावनलाल वर्मा कृत ‘प्रत्यागत’
और ‘कुण्डली-चक्र’, भगवतीप्रसाद वाजपेयी कृत ‘पतिता की साधना’, जैनेन्द्र कृत
‘सुनीता’, चतुरसेन शास्त्री कृत ‘आत्मदाह’, भवानीदयाल कृत ‘नेटाली हिंदू’ और मन्नन
द्विवेदी कृत ‘कल्याणी’ में गांधी जी के विचार कहीं सीधे तौर पर, तो कहीं
प्रतीकात्मक रूप में स्थापित होते हैं। कृष्णलाल वर्मा कृत ‘पुनरुत्थान’, धनीराम
प्रेम कृत ‘मेरा देश’, मोहिनी मोहन कृत ‘देशोद्धार’ और छविनाथ पांडेय कृत
‘प्रोत्साहन’ आदि उपन्यासों में स्वाधीनता आंदोलन तथा गांधीवादी विचारों का खुला
प्रतिपादन किया गया है।11 यहाँ उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि
प्रयोगवाद की अवधारणा के जनक अज्ञेय का उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’, गांधी जी के
अछूतोद्धार के विचार को नए प्रयोग के साथ प्रकट करता है। इस उपन्यास का नायक शेखर
है। “विद्रोही शेखर ब्राह्मण छात्रों का छात्रावास छोड़कर अछूत छात्रों के
छात्रावास में रहने लगता है। वह सदाशिव, राघवन आदि अछूत छात्रों की सहायता से
अछूतोद्धार-समिति का निर्माण करता है, तथा अछूत बालकों के लिए स्कूल खोलकर स्वयं
पढ़ाता है। सवर्ण एवं रूढ़िवादी वर्ग से संघर्ष संगठित रूप में ही किया जा सकता
है, लेकिन शेखर वैयक्तिक धरातल पर समाज को चुनौती देता है।”12
गांधी जी और गांधीवादी विचारधारा के संबंध में प्रेमचंद
अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहते हैं कि- “दुनिया में मैं महात्मा गांधी को सबसे
बड़ा मानता हूँ। उनका ध्येय भी यही है कि मजदूर और किसान सुखी हों। वह इन लोगों को
आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन चला रहे हैं, मैं लिखकर उनकी हिमायत कर रहा हूँ।”13
संभवतः इसी कारण हिंदी उपन्यासों के क्षेत्र में प्रेमचंद ऐसे पहले उपन्यासकार
बने, जिन्होंने गांधी जी के विचारों को हिंदी उपन्यासों में प्रतिष्ठापित करने का
कार्य किया। प्रेमचंद के समकालीन और उनके परवर्ती उपन्यासकारों ने इस परंपरा को
विकसित करने में योगदान दिया। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में, सन् 1916 से 1950
ई. तक हिंदी उपन्यासों में जितनी शिद्दत के साथ गांधी जी के सिद्धांत और उनकी
विचारधारा प्रकट होती है, उसका दर्शन परवर्ती कालखंडों में दुर्लभ होता गया, यही
इस कालखंड की विशेषता है, विशिष्टता है।
संदर्भ-
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रईस, प्रेमचंद : विचार-यात्रा, प्रेमचंद : विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता, संपादक-
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह एवं रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं.
2006, पृ. 452 ।
-राहुल मिश्र
(हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई द्वारा प्रकाशित होने वाली पत्रिका हिंदुस्तानी
ज़बान के मार्च, 2025 अंक में प्रकाशित)
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