Thursday 26 August 2021

अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित (लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)

 


अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित

(लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)


डुल्लू पंडित, अर्थात पंडित श्रीधर कौल; यह एक ऐसा नाम है, जिसने न कभी ख्याति चाही, न पद और न ही पैसा-मान-प्रतिष्ठा। एक निष्काम सेवाव्रती की तरह से अपना सारा जीवन, अपनी सारी कर्मठता-सक्रियता लदाख को समर्पित कर दी। इसी कारण श्रीधर कौल के बारे में बहुत ही कम जानकारियाँ आज मिल पाती हैं। लदाख के जाने-माने इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी स्वर्गीय आबा टशी  रबग्यस अकसर ही श्रीधर कौल के बारे में बताया करते थे। कथाकार अब्दुल ग़नी शेख और लदाख के वरिष्ठ-वयोवृद्ध चिकित्सक डॉक्टर तंजिन के पास भी डुल्लू पंडित से जुड़ी अनेक बातें और यादें हैं, जिन्हें उन्होंने या तो अपनी रचनाओं में सहेजा है, या फिर वे अपनी स्मृतियों को खंगालते हुए यदा-कदा बताते हैं। आज के लदाख की नई पीढ़ी के लिए डुल्लू पंडित का नाम अनजाना-सा ही होगा। आधुनिक लदाख के निर्माता कहे जाने वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे का तो सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही डुल्लू पंडित के सानिध्य में शुरू हुआ था।

श्रीधर कौल ने लदाख में बिताए अपने समय को; जैसा और जितना लदाख को देखा, उन अनुभवों को अपनी एक अधूरी रचना में समेटा था। उनके जीवनकाल में यह रचना पूरी नहीं हो सकी। बाद में उनके पुत्र हृदयनाथ कौल ने कुछ अंश उसमें जोड़े, और ‘लदाख : थ्रू द एजेस, टूवार्ड्स ए न्यू आइडेंटिटी’ के नाम से यह पुस्तक बहुत बाद में, सन् 1992 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का प्राक्कथन कुशोग बकुल रिंपोछे ने लिखा है। अपने प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है- “इस पुस्तक के लिए चंद पंक्तियाँ लिखना मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैं अपनी ओर से, साथ ही लदाख की जनता की ओर से श्रीयुत् श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता दर्ज कराना चाहता हूँ। लदाख के लोगों के लिए और लदाख की संस्कृति के लिए उनका अविस्मरणीय योगदान, सन् 1947 के युद्ध में लदाख अंचल के लिए उनकी असाधारण सेवाएँ, और इन सबसे ज्यादा लदाखी लोगों को अपने नागरिक अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक करने हेतु किए गए कार्यों के लिए श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।”

इस पुस्तक का उल्लेख यहाँ पर इसलिए करना समीचीन लगता है, ताकि तथ्यपरक जानकारी का संदर्भ सुलभ हो सके। यह पुस्तक लदाख के अतीत को केवल देखती नहीं है, अनूठे भावनात्मक लगाव को, एक सांस्कृतिक संबंध को व्यक्त ही नहीं करती;  बल्कि महसूस भी कराती है। यह पुस्तक श्रीधर कौल ‘डुल्लू’ के लदाख अंचल के प्रति प्रेम और भावनात्मक लगाव को व्यक्त करने, और साथ ही भारत की पुरातन सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ों को लदाख अंचल के कण-कण में देखने का सहज प्रयास भी है। तमाम सिद्धहस्त लेखकों के लदाख-वृत्तांत के सामने यह पुस्तक भले ही साधारण-सी हो, किंतु जिस पक्ष को इस पुस्तक में अनुभूत किया जा सकता है, उसे अन्यत्र खोजना कठिन है। परमपूज्य कुशोग बकुल रिनपोछे ने अपने कथन में मन के भावों की सीधी-सरल अभिव्यक्ति के माध्यम से आधुनिक लदाख के निर्माण की उस नींव को नमन किया है, जिसके साथ बीसवीं सदी के लदाख का निर्माण होता है। इस दृष्टि से पुस्तक का पुरोवाक् अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और इसी के सहारे बीसवीं सदी के लदाख को देखा जा सकता है।

सन् 1887 के पहले तक लदाख में आधुनिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। लदाख अंचल के लिए ईसाई मिशनरियों ने ‘मिल-हिल मिशन’ बनाया था। सन् 1888 में कैथोलिक धर्मप्रचारकों ने इसकी शुरुआत कर दी थी। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह इस स्थिति से अनजान नहीं थे। कश्मीर के बौद्ध आचार्यों की कर्मभूमि रहे लदाख परिक्षेत्र की सीधी-सादी-सरल जनता के हितों के लिए उनकी चिंता एक ओर गिलगित-स्करदो-बल्टिस्तान के अतीत के साथ जुड़ी थी, तो दूसरी तरफ ईसाई मिशनरियों के साथ आने वाले खतरे को लेकर भी थी। इस कारण उन्होंने ईसाई मिशनरियों को लदाख में आने की अनुमति नहीं दी। लाहुल-स्पीति (हिमाचलप्रदेश) को अपना संपर्क केंद्र बनाकर मिशनरी अपनी गतिविधियों को संचालित करते रहे और लदाख को अपने प्रभाव में लेने के लिए लगातार सक्रिय रहे। संभवतः ब्रिटिश शासकों के भारी दबाव के कारण सन् 1884 में मोरावियन मिशन का आगमन पहली बार लेह में हुआ। अस्पतालों और स्कूलों का संचालन करने के साथ ही कुछ लदाखी युवाओं को चर्च से जोड़कर समाज में पकड़ बनाने की कोशिशों को देखते हुए उस समय यह आवश्यक हो गया था, कि लदाख में ऐसी शिक्षा-व्यवस्था संचालित हो, जो आबादी के आँकड़ों को बड़े बदलाव से बचा सके, साथ ही अतीत की गलतियों के दुहराव को रोक सके।

इस कार्य के लिए श्रीधर कौल से उपयुक्त व्यक्ति कोई नहीं था। श्रीधर कौल शिक्षा के विकास और विस्तार में महाराजा हरि सिंह के न केवल सलाहकार थे, वरन् कश्मीर में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने वाले कर्मठ और समर्पित शिक्षाविद् भी थे। ऐसा उल्लेख मिलता है, कि ‘वीमेंस वेलफेयर ट्रस्ट’ की बैठकों में वे अकसर कहा करते थे, कि- “राज्य में एक इलाका अब भी अशिक्षा से जूझ रहा है।” उनका इशारा लदाख अंचल की ओर होता था। इन चिंताओं को ध्यान में रखकर ही महाराजा काश्मीर ने श्रीनगर में बौद्धसभा का गठन किया था। इसके संस्थापक पंडित श्रीधर कौल थे। इस सभा के अध्यक्ष पूज्य स्तगछङ रिनपोछे थे, और वकील पंडित शंभुनाथ धर थे। बौद्धसभा द्वारा एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसे ग्लांसी नामक अंग्रेज अधिकारी की अध्यक्षता में गठित ‘ग्लान्सी कमीशन’ को सौंपा गया था। इस कमीशन की गतिविधियों का उल्लेख लदाख के जाने-माने इतिहासकार-साहित्यकार टशी रबग्यस ने किया है। वे ‘मरयुल लदाख के इतिहास का सर्वप्रकाशकादर्श’ में लिखते हैं, कि- “लदाख के बौद्धों के साथ मित्रता रखने वाले सज्जन मित्र थे, जिन्होंने लदाख के लोगों के लिए उस समय अपना विशेष योगदान दिया, जब लदाख के लोग जागरूक नहीं थे।”

श्रीधर कौल संवेदनशील, कर्मठ और सहृदय व्यक्ति थे, फलतः सन् 1939 में उन्हें शिक्षा अधिकारी बनाकर लदाख भेजा गया। अनेक सुविधाओं से संपन्न आज के लदाख में भी जब किसी अधिकारी का स्थानांतरण होता है, तो उसकी तैनाती को किसी सजा से कम नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति में सन् 1939 के लदाख की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देने वाली होगी। श्रीनगर की हरी-भरी और तमाम सुख-सविधाओं से युक्त अपनी जन्मभूमि से निकलकर रूखे-सूखे और भयंकर ठंडे लदाख अंचल में कौल जी का आगमन होता है। वे इसे किसी सजा के तौर पर नहीं, बल्कि सौभाग्य के रूप में देखते हैं। शिक्षा के लिए जागरूकता उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। उस समय के लदाख में आवागमन के साधन नहीं के बराबर थे। लदाख का क्षेत्रफल भी आज से दुगुना था, क्योंकि उस समय गिलगित-बल्तिस्थान तक लदाख की सीमाएँ होती थीं। दुर्गम पहाड़ी रास्तों को उन्होंने पैदल चलकर, घोड़े पर सवार होकर तय किया और गाँव-गाँव में पहुँचकर लोगों को शिक्षा के लिए जागरूक किया।

लदाख के जाने-माने इतिहासकार और साहित्यकार अब्दुल ग़नी शेख बताते हैं, कि पंडित श्रीधर कौल को लोग एक शिक्षक के रूप में सम्मान देते थे, इस कारण वे लदाख अंचल में ‘मास्टरजी डुल्लू पंडित’ के रूप में जाने जाते थे। उनके अनथक प्रयासों से लदाख अंचल में कई स्कूलों की स्थापना हुई। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई। मास्टरजी प्रत्येक विद्यालय में पहुँचते थे, और शिक्षकों के विकास के लिए सुझाव देते थे। वे बच्चों को आधुनिक शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे, ताकि लदाख अंचल के युवा भी सरकारी तंत्र में शामिल हो सकें, अधिकारों के लिए जागरूक हो सकें और विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें।

श्रीधरजू कौल आर्यसमाज  जुड़े हुए थे। उनके प्रयासों से ही श्रीनगर के रैनाबाड़ी इलाके में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना सन् 1943 में हुई थी। इसके पहले उन्होंने आर्यसमाज की तर्ज पर ‘लदाख बुद्धिस्ट एजूकेशन सोसायटी’ की स्थापना में योगदान दिया था। इस संगठन के माध्यम से लदाख अंचल में शिक्षा के लिए जागरूकता के साथ ही बिगड़ते जनसंख्या संतुलन को सुधारने और अनेक प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं से निपटने के लिए संगठित होने का प्रयास शुरू हुआ था। बाद में यह संगठन ‘यंग मैन बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के रूप में जाना गया। एसोसिएशन के शायद पहले अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन थे। कारपो रिगजिन भी पंडित कौल की तरह समर्पित जनसेवक थे।

मास्टरजी डुल्लू पंडित के लिए नई चुनौती तब सामने आई, जब देश की आजादी निकट आ चुकी थी। सीमांत सुरक्षा की दृष्टि से लदाख की हालत अच्छी नहीं थी। सन् 1947 में देश की आजादी और फिर कश्मीर राज्य में तेजी से बदलती राजनीतिक स्थितियों के बीच डोगरा शासकों के अधीन आने वाला सारा भूभाग दिशाहीन हो चुका था। देश के विभाजन के साथ ही कबाइली आक्रमणकारियों ने गिलगित और स्करदो पर कब्जा कर लिया था। वहाँ की बौद्ध आबादी को विस्थापन और आतंक के कहर से जूझना पड़ रहा था। यही स्थितियाँ बल्तिस्तान से लगने वाली नुबरा घाटी में दुहराई जाने वाली थीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में लदाख के युवाओं को संगठित करके ‘नुबरा गार्ड्स’ नामक एक संगठन तैयार किया गया। इसमें बौद्ध युवाओं को जोड़ने का काम ‘यंग बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन ने किया। इसके पीछे पंडित डुल्लू कौल की प्रेरणा थी। वे स्वयं भी युवाओं को इसके लिए प्रेरित कर रहे थे, जागरूक कर रहे थे।

उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय हो जाने के बाद भी लदाख की सुरक्षा के लिए भारतीय फौजें नहीं पहुँच पाई थीं। भारतीय फौजों के लदाख पहुँचने, और लदाख की दुर्गम भौगोलिक स्थितियों के बीच उन्हें सुरक्षा-व्यवस्था मुस्तैद करने में काफी समय लगने वाला था। इसे देखते हुए कारपो छेवांग रिगजिन और पंडित कौल ने श्रीनगर प्रशासन से अनुरोध किया, कि ‘नुबरा गार्ड्स’ को धार्मिक संगठन के स्थान पर सैनिक संगठन का दर्जा दिया जाए, और युवाओं को प्रशिक्षित किया जाए। फलतः नुबरा गार्ड्स ने देश के उत्तरी छोर पर अपना मोर्चा सँभाला।

पंडित कौल ने सन् 1948 में लदाख की रक्षा के लिए एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे उन्होंने खुद पंडित नेहरू को सौंपा था। लेह-मनाली मार्ग को लदाख के आवागमन के लिए तैयार करने की जरूरत को जिस तरह मास्टरजी डुल्लू कौल ने तत्कालीन रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह और जनरल के.एम. करिअप्पा के सामने रखा था, उसे एक दूरदर्शी चिंतक की सक्रियता से कम नहीं कहा जा सकता। मास्टरजी के प्रयासों से गठित ‘नुबरा गार्ड्स’ को सन् 1963 में ‘लदाख स्काउट्स’ का नाम मिला और यह सेना की स्वतंत्र इकाई के रूप में आज भी सक्रिय है। इन ‘स्नो वारियर्स’, इन ‘स्नो टाइगर्स’ ने नुबरा घाटी से जुड़े बल्तिस्थान के इलाके में सन् 1947-48 में मचाए गए आतंक का बखूबी जवाब 13 दिसंबर, सन् 1971 को दिया था। उस समय अगर कुछ समय तक युद्ध-विराम की घोषणा नहीं होती, तो बल्तिस्थान के पाँच नहीं, पाँच सैकड़ा गाँव आज पाक अधिकृत कश्मीर में नहीं होते।

पंडित श्रीधर कौल का श्रीनगर के रैनाबाड़ी स्थित आवास उनके अपने घर से कहीं ज्यादा लदाख के लोगों के लिए घर जैसा था। इसी कारण उसे लदाख सराय ही कहा जाने लगा था। ऐसा बताया जाता है कि पंडित कौल ने डोलमा नाम की एक गरीब-अनाथ लदाखी बालिका को अपनी दत्तक पुत्री बनाया था। बाद में उन्होंने ही उसका विवाह कराया। श्रीनगर के रैनाबाड़ी में रहकर पढ़ने वाले तमाम लदाखी बालक-बालिकाओं के रहने-खाने का सारा व्यय मास्टरजी ही वहन करते थे। पंडित श्रीधर कौल की दूरदर्शी दृष्टि ने कुशोग बकुल रिनपोछे में जिस राजनीतिक नेतृत्वशक्ति को देखा था, कालांतर में वह उभरकर सामने आई। आज के लदाख के निर्माणकर्ता के व्यक्तित्व का बड़ा अंश श्रीधर कौल के सानिध्य में निर्मित हुआ।

सन् 1948 तक पंडित श्रीधर कौल लदाख में रहे। इसके बाद भी उनका लदाख से संबंध बना रहा। सन् 1952 में वे लदाख से चले गए, किंतु उनके अविस्मरणीय योगदान को, उनकी कर्तव्यनिष्ठा को, उनके महायान बौद्ध धर्म-दर्शन से लगाव को लदाख की जनता विस्मृत नहीं कर सकी। इसी कारण आजाद भारत में जब लदाख के विकास के लिए किसी मार्गदर्शक की जरूरत महसूस हुई, तो लदाख के लोगों ने श्रीघर कौल पर ही अपना भरोसा जताया। लदाखियों द्वारा सन् 1953 में एक ज्ञापन तत्कालीन मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को भेजा गया, जिसमें पंडित श्रीधर कौल को लदाख मामलों का विशेष सचिव नियुक्त किए जाने की माँग थी। लदाख के लोगों की यह माँग भले ही पूरी न हो सकी हो, किंतु इसने एक निष्काम सेवाव्रती के प्रति आस्थायुक्त जनभावनाओं को अभिव्यक्त कर दिया था।

सन् 1967 में पंडित श्रीधर कौल अपने रैनाबाड़ी स्थित आवास में चिरनिद्रालीन हो गए। लदाख अंचल को जम्मू और श्रीनगर के समान विकसित और सशक्त होते देखने की कामना करने वाले पंडित श्रीधर कौल की अमूल्य राष्ट्रसेवा विस्मृत नहीं की जा सकती। देश के उत्तरी छोर को एकता के सूत्र से बाँधकर रखने वाले, लदाख अंचल में शिक्षा की अलख जगाने वाले पंडित श्रीधर कौल डुल्लू का निष्काम सेवाभाव नींव के पत्थर की तरह है।

-राहुल मिश्र

(मासिक पत्रिका सीमा संघोष, अगस्त, 2021 अंक में प्रकाशित)





Sunday 22 August 2021

भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

 



भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

यह केवल कहने की बात नहीं है, बल्कि इसे देखा भी जा सकता है, और सुना भी...। इसीलिए बात बहुत मार्के की है। नागिन, सपेरा और बीन...इन तीनों का गठजोड़ बहुत पुराना भी है, और स्थापित भी है। इन तीनों को अन्योन्याश्रय-संबंध के साथ हिंदी के सिनेमा ने भी बढ़-चढ़कर दिखाया है। जरा याद कीजिए उन फिल्मों को; जो नागिन, सपेरा और बीन की तिकड़ी को लेकर बनी हैं, या जिनमें इन तीनों का बहुत बड़ा ‘रोल’ दिखाई देता है। ‘नागिन’ छाप फिल्मों में ‘तेरी मेहरबानियाँ’ जैसा झोल नहीं दिखता, कि पोस्टर किसकी मेहरबानियों की बात कह रहा है? पूरी फिल्म में जब कुत्ता साये की तरह साथ नजर आता है, तब कुत्ते का नाम लिखना आखिर क्यों उचित नहीं...। अपन तो सोचा करते थे, कि फिल्म को अगर ‘कुत्ते की मेहरबानियाँ’ नाम दिया होता, तो शायद फिल्म की पटकथा और फिल्म के पोस्टर के बीच तादात्म्य दिखाई दे जाता।

खैर... बात नागिन की हो रही है, तो यहाँ बेझिझक बताना होगा, कि ‘नागिन’ टाइप फिल्में अपने नाम से भटकती नहीं हैं। इसी कारण ये फिल्में अपना तीखा और तेज असर डालती हैं। एक जमाना ऐसा भी था, जब नागिन का जादू ‘आधी दुनिया’ पर सिर चढ़कर बोला करता था। मोहतरमाएँ नागिन की तरह बल खाती थीं, और सपेरे को डस ही लेंगी जैसी अदा में हर समय दिखती थीं। अनेक शायरों के लिए ‘नागिन-सी चाल’ शेर-बहर की पैदाइश के लिए मुकम्मल माहौल बनाती थी। इस सबके बीच बीन भी कम महत्त्व की नहीं होती थी। बीन की धुन के साथ नागिन और सपेरे का नाच फिल्म से निकलकर सड़क तक कब और कैसे आया, इस पर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। बात आगे बढ़ाने से पहले यह भी बताना कम रोचक नहीं लगता, कि आज भी हारमोनियम के सीखने वाले नए-नवोढ़े संगीतकारों के लिए नागिन की बीन वाली धुन बजाना खासा चैलेंज होता है, और उससे ही सीखने का क्रम आगे बढ़ता है।

नागिन वाला नाच ऐसा सदाबहार नाच है, जिसके बिना कह सकते हैं कि जयमालाएँ नहीं पड़तीं। दुनिया चाहे कितनी भी मॉडर्न क्यों न हो जाए। बारात भले ही शहर में जा रही हो, या गाँव की कच्ची और ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर...नागिन वाले नाच के बिना उसका सौंदर्य निखरता ही नहीं है। पूरे रंग में बारात चली जा रही है और दूल्हे के सगे सब अलग-अलग अदा में नाच रहे हैं। तभी बीच में से एक नागिन निकलकर जाती है, और ब्रास बैंड पार्टी के मुखिया को, यानि म्यूजिक डाइरेक्टर को हिदायत देती है- ए... नागिन.... बजाओ...। तुरंत ही कैसियो पर उंगलियाँ थिरककर ‘ऊँ..हूँ...हूँ...ऊँ.. हूँ... हूँ... हूँ...’ की धुन निकालने लगती हैं। दूसरी तरफ अलग-अलग नृत्य पद्धतियों में नाच रहे बरियाती सब चौंकन्ने हो जाते हैं। ताल बदलकर मुस्तैद हो जाते हैं और कितनी नागिनें और सपेरे एकदम प्रकट हो गए, गिनना कठिन हो जाता है। कभी-कभी नागिन एक ही होती है, और सपेरे कई। सपेरा बनना भी आसान... पतलून से रूमाल निकाला, और एक कोना मुँह में दबाकर दूसरे कोने को दोनों हाथों से पकड़ा, और बस... सपेरे की बीन भी तैयार....। नागिन को इतना कुछ नहीं करना पड़ता। वह अपनी दोनों हथेलियों को फन की तरह बनाकर सपेरों से मुकाबले के लिए उतर पड़ती है। उसके सामने चैलेंज बड़ा होता है... कई-कई सपेरों से बचने का। इसके लिए उसे बार-बार लोटना पड़ता है, उठना पड़ता है, गिरना पड़ता है। सपेरे भी उसे काबू करने के लिए कम जोर आजमाइश नहीं करते। कैसियो की धुन की तेजी के साथ नागिन और सपेरे इस कदर लहालोट होते हैं, कि अपने तन-वसन की सुध भी भूल जाते हैं। गाँवों की कच्ची सड़कों या पगडंडियों पर नागिन-सपेरा का यह मुकाबला दूर से ही आभास करा देता है, धूल के उठते गुबार के जरिये...। अब देखिये... जनवासे से बढ़िया लकालक क्रीज बने हुए कपड़े पहनकर चली नागिनें और सपेरे दुलहिन के दुआर तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे लगने लगते हैं, मानों घूर समेटकर आ रहे हों। यकीन मानिए, कि यह चमत्कार बीन की धुन में ही होता है, जो अपने कपड़ों की क्रीज को कम से कम जयमाल के फंक्शन तक न टूटने देने की बारातियों की प्रतिबद्धता को भंग करा देती है।

इतनी बड़ी अहमियत रखने वाली बीन की तौहीन तब होती है, जब वह भैंस के सामने पहुँचती है- भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय..। वैसे भैंस को लेकर और भी कई बातें हैं, जैसे- काला अक्षर भैंस बराबर और अकल बड़ी या भैंस.. आदि। भैंस के साथ इन लोक-कथनों को सुनकर अकसर यही आभास होता है, कि भैंस का पढ़ने-पढ़ाने या दिमागी कार्य-व्यवहारों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। बीन का अपना शास्त्रीय महत्त्व होता है। संगीत की पुरातन व्यवस्था में बीन नामक संगीत का उपकरण अपना स्थान रखता है। बीन का संबंध मन के आह्लाद से भी होता है, उमंग से भी होता है। इसी कारण बीन की धुन पर वह नागिन भी थिरकने लगती है, जिसके कान तक नहीं होते। सर्प प्रजाति के जीवों के कान नहीं होते। बीन की हरकतों को देखकर नागिन थिरकती है। फिर भी हम संगीत के प्रभाव को नकार नहीं सकते। हम संगीत के सुख में डूबने की स्थितियों को नकार नहीं सकते। संगीत जीवन में उमंग और उल्लास भरता है।

भैंस को संगीत से कोई मतलब नहीं होता। उसके दो कान भी होते हैं, देख भी सकती है, लेकिन न तो बीन की धुन ही उसे उद्वेलित करती है, और न ही बीन की कलात्मक थिरकन....। आँख और कान होते हुए भी उसके लिए उल्लास और उमंग कोई मायने नहीं रखते। जीवन का आह्लाद, जीवन की उमंग से वह कोसों दूर रहती है। एकदम वीतरागी होकर वह बीन के सामने खड़ी रहती है, पगुराती रहती है। संगीत उसके लिए नीरस है, उसके पास अपनी खुशी है, केवल पगुराने में...। उसके पास खुशी का कोई कारण बीन की धुन से खुश होने का नहीं है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उसके लिए काला अक्षर होता है। जिस तरह वह अपने आकार-प्रकार से अकल को ‘चैलेंज’ करती है।

भैंस के प्रति ये नकारात्मक विचार कहे जा सकते हैं। भैंस की अपनी संस्कृति, अपनी पहचान की चिंता के पीछे उसके वीतरागी हो जाने की स्थितियों को छिपाया जा सकता है। बेशक भैंस बड़ी होती है। अकल छोटी होती है, क्योंकि अकल तो दिखाई भी नहीं पड़ती। इसी अकल के भरोसे अगर भैंस के चिंतन की गंभीरता का आकलन करें, तो कह सकते हैं, कि उसे बीन के संगीत के सामने अपनी चिंतन की गंभीरता को कुरबान कर देना उचित नहीं लगता। इसी कारण वह चिंतन की अतल गहराइयों में डूबे हुए बीन की धुन को ‘इग्नोर’ करती है। ऐसा करके वह अपनी महानता की, अपनी गंभीरता की, अपने गंभीर चिंतन की लाज रखती है।

अब आप कह सकते हैं, कि फिर उसे पगुराना क्यों होता है, और वह भी खड़े रहकर? दरअसल भैंस का खड़े रहना और पगुराना, दोनों ही उसके व्यक्तित्व से जुड़े हुए पहलू हैं। खड़े रहकर वह अपनी सक्रियता का बोध कराती है। वह यह बताती है, कि उसकी सक्रियता नायाब है। अगर वह बैठ जाएगी, तो उसके साथ सबकुछ बैठ ही जाएगा। एक जागरूक और चिंतनशील ‘परसन’ के लिए खड़े रहना कई कारणों से जरूरी होता है। और पगुराना भैंस का गुणधर्म है। अपनी चिंतनशीलता और अपने विकराल भौतिक व्यक्तित्व के आवरण के पीछे उसे पगुराना होता है, हजम करना होता है, बहुत सारी योजनाओं को, व्यवस्थाओं को, लोगों के सपनों को, विचारों को, कभी-कभी जीवन को...। वह जुगाली नहीं करती, पगुराती है। पगुराना एक क्रिया है, कई पुश्तों के लिए। मौका मिलते ही जल्दी-जल्दी अपने उदर में भर लो, और फिर लंबे समय तक उसे पगुराते रहो। ‘ऊपर की कमाई’ जल्दी-जल्दी खाकर तीन पुश्तों के लिए पगुराने का इंतजाम...। भैंस इसी कारण एक अलग चरित्र गढ़ती है। वह बीन पर ध्यान नहीं देती। उसका ध्यान पगुराने पर होता है। आखिर बीन से उसे क्या हासिल होने वाला है?

राहुल मिश्र


अमृत विचार, बरेली में 13 दिसंबर, 2020 को प्रकाशित