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Wednesday, 16 August 2023

ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह


 ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह

 

“गुरु जी! यह ऊँट मनाली नहीं जा सकता है। वहाँ ठंडक हो, तो बनी रहे। इसे जो खाने को चाहिए, वह तो मनाली में मिलेगा नहीं... यहाँ की जैसी ठंडक भी नहीं......। चार-पाँच साल पहले कुछ लोगों ने इस ऊँट की नस्ल को मनाली तक पहुँचाने की कोशिश की थी। इसके लिए वे ऊँटों के जोड़े लेकर गए, लेकिन मनाली पहुँचते ही ऊँट जिंदा नहीं रह पाए।”

इतना सुनने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था, कि आखिर वे लोग इस ऊँट को मनाली क्यों ले जाना चाहते थे? मैं भी इस प्रश्न को उसी तरह अपने अंदर रोक नहीं सका, जिस तरह आप नहीं रोक पा रहे थे, अभी एक क्षण पहले...। मैंने तुरंत ही अपना सवाल उनके सामने रख दिया।

वे बोले- “टूरिजम, टूरिज्म़ के ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में इन ऊँटों का बड़ा ‘रोल’ है।” उनके इस उत्तर ने मेरे सामने चित्र को बहुत-कुछ स्पष्ट कर दिया। पिछले दिन, जब हम दुनिया के सबसे ऊँचे रास्ते को खरदुंग-ला में पार कर रहे थे, तब वहाँ तमाम पर्यटक फोटो खिंचाने में व्यस्त थे। लेह से नुबरा घाटी की ओर जाने वाले रास्ते में खरदुंग-ला पड़ता है, जिसकी ऊँचाई समुद्रतल से लगभग 18,380 फीट है। लदाख आने वाले पर्यटकों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है। खरदुंग-ला की ‘कॉफ़ी शॉप’ से लगाकर शिव मंदिर तक तमाम पर्यटकों की चहल-पहल थी। कुछ खरदुंग की ऊँची चोटी पर चढ़कर फोटो खिंचा रहे थे, और कुछ चुपचाप बैठे प्रकृति के इस सौंदर्य का रसपान कर रहे थे। बातचीत से लग रहा था, कि उन पर्यटकों में बड़ी संख्या महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्से के लोगों की है। जिज्ञासावश किनारे बैठे एक मराठी पर्यटक से मैंने पूछा, कि- आपको यहाँ के पर्यटन में क्या देखना सबसे ज्यादा रोमांचित करता है। उसका जवाब था, कि पहले तो बर्फ और फिर दो कूबड़ वाले ऊँट की सवारी का रोमांच ही उसे यहाँ तक ले आया है। उस मराठी पर्यटक के उत्तर और आज की बातचीत के तालमेल को बिठाते हुए मेरे सामने स्पष्ट हो गया, कि मनाली में पर्यटकों को लदाख की ‘फीलिंग’ देते हुए कमाई करने के उद्देश्य से यारकंदी ऊँटों को यहाँ से ले जाने की कोशिशें की गई होंगी। इन्हीं का जिक्र नोरबू साहब मुझसे कर रहे थे।

सन् 2017 के अगस्त महीने में दूसरी बार मेरा नुबरा घाटी में जाना हुआ था। इससे पहले शायद 2011 में नुबरा जाना हुआ था। उस समय दो कूबड़ वाले ऊँटों के बारे में केवल सुना था, देखने का मौका नहीं मिल पाया था। इस बार पूरी तरह से तय कर लिया था, कि दो कूबड़ वाले ऊँटों के दर्शन जरूर करने हैं। खास तौर से इस कारण भी, कि देश और दुनिया के कोने-कोने से लोग तमाम जहमत उठाकर नुबरा घाटी आते हैं और हम लदाख में रहते हुए भी अगर लदाख की इस प्रसिद्धि से साक्षात्कार नहीं कर पाए, तो शायद समय भी हमें माफ नहीं कर पाएगा। यही जोश और जज्बा था, कि जिसके बूते हम यारकंदी ऊँटों के सामने खड़े थे। इनके बारे में बहुत-कुछ पढ़ा भी था, मगर यहाँ नोरबू साहब से जो जानकारी मिल रही थी, वह शायद अब तक किताबों या ‘विकीपीडिया’ जैसी ‘अंतर्जालिक’ तकनीकों में उपलब्ध नहीं हो पाई थी। मेरे विस्मित हो जाने का बड़ा कारण भी यही था। दरअसल नोरबू साहब के पास बीस यारकंदी उँट थे, जिनमें पर्यटकों को सैर कराने का व्यवसाय वे करते थे।मेरे एक शिष्य के पिता होने के नाते नोरबू साहब ने बड़ी आत्मीयता के साथ मुझसे मुलाकात की थी। मैं वहाँ पहुँचने वाला हूँ, यह सूचना मेरे शिष्य ने उन्हें दे रखी थी।

जब नोरबू साहब ने मुझे यारकंदी ऊँटों के बारे में बताना शुरू किया, तब अतीत की बातें परत-दर-परत ऐसी खुलती चली गईं, जिन्होंने विचारों को पंख दे दिए। नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खान-पान की आदतों से लगाकर उनके रहने के तौर-तरीकों तक के बारे में विस्तार से बताया। नोरबू साहब ने रेशम मार्ग, यानि ‘सिल्क रूट’ में यारकंदी ऊँटों के योगदान को भी इतने विस्तार से बताया, कि कालिदास और विद्योत्तमा के जीवन में ऊँट का योगदान भी बरबस ही मेरे विचारों में कौंध पड़ा। विद्वान आचार्यों ने विदुषी विद्योत्तमा को मजा चखाने के लिए बुद्धिहीन कालिदास के साथ धोखे से विवाह करा दिया। भला हो, ऊँटों का....., जो वे एक दिन विद्योत्तमा की हवेली के बाहर से गुजर पड़े और मूढ़ कालिदास उन्हें उट्र-उट्र कहकर चिल्लाने लगे। तब कहीं जाकर विद्योत्तमा को पता लगा, कि मेरे पतिदेव तो निहायत मूढ़-मगज हैं। तब क्या था, उपचार शुरू हो गया और इस तरह ‘उपमा कालिदासस्य’, अर्थात् अपनी विलक्षण-अद्बुत उपमाओं के लिए संस्कृत साहित्य के उज्ज्वल नक्षत्र के समान कालिदास का प्राकट्य हुआ।

विद्योत्तमा और कालिदास के जीवन को बदलने वाले ऊँट बेशक यारकंद वाले नहीं थे, मगर ऊँट किस तरह जीवन बदल देते हैं, अपनी करवट से ऊँट कैसे हालात बदल देते हैं, यह जरूर स्पष्ट था। यारकंदी ऊँटों ने भी अनेक लोगों के जीवन को बदला है। प्राचीनकाल ही नहीं मध्यकाल में, और फिर रेशम मार्ग से यातायात के बंद हो जाने के बाद आज के समय में ‘डेजर्ट सफ़ारी’ के रूप में यारकंदी ऊँटों के योगदान को देखा जा सकता है। चीन के रेशम से अपना नाम पाने वाला पूरा रेशम मार्ग लगभग दस हजार किलोमीटर का होगा, मगर आज रेशम मार्ग के उत्तरी छोर को ही प्रमुख रूप से जाना जाता है। उत्तरी रेशम मार्ग या ‘सिल्क रूट’ लगभग 6500 किलोमीटर लंबा था। इसका संबंध मुख्य रूप से हिमालय की कराकोरम श्रेणी से रहा है। यह चीन की प्राचीन राजधानी शिआन से पश्चिम की ओर चलते हुए टकलामकान रेगिस्तान से निकलकर मध्य एशिया के बैक्ट्रिया और पर्शिया राज्यों तक जाता था। इसके आगे का रास्ता बढ़कर ईरान और रोम तक पहुँचता था। टकलामकान, जैसा कि अपने नाम से ही स्पष्ट कर देता है, कि मध्य एशिया का ऐसा रेगिस्तान था, जो एकदम उजाड़ और डरावना था। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था, कि जो टकलामकान रेगिस्तान में घुस जाता है, वह बाहर नहीं आ पाता है। इसी डर के कारण रेशम मार्ग के व्यापारी इस रेगिस्तान को उत्तर या दक्षिण दिशा से पार किया करते थे। दोनों दिशाओं से आने वाले रास्ते काश्गर के नख़लिस्तान में मिलते थे, और फिर आगे कराकोरम श्रेणी की तरफ चल पड़ते थे। शायद इसी के कारण किसी गंजे व्यक्ति को टकला कहा जाना और किसी उजाड़-वीरान जगह पर अचानक रौनक बिखर जाने पर उसे नख़लिस्तान कहा जाना प्रचलन में आया होगा। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था; वरन् इसमें अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति, वैचारिकता भी अपनी यात्राएँ करती थीं। जिस तरह रेशम मार्ग के व्यापारी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अपने सामानों की अदला-बदली करके व्यापार को चलाते थे, उसी तरह सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी आदान-प्रदान के माध्यम से चलती रहती थीं।

टकलामकान के बर्फीले रेगिस्तान से लगाकर उसके आगे मध्य एशिया के सर्द-बर्फीले इलाकों के लिए यारकंदी ऊँटों से बेहतर सवारी कोई नहीं हो सकती थी। इसी कारण 6500 किलोमीटर के इस लंबे रास्ते के अतीत की चर्चा भी यारकंदी ऊँटों के बिना पूरी नहीं हो सकती है। यारकंद या बैक्ट्रिया में पाए जाने वाले दो कूबड़ वाले ऊँटों को क्षेत्र के हिसाब से यारकंदी या बैक्ट्रियन ऊँट कहा जाता है। ये थार के रेगिस्तान में मिलने वाले ऊँटों से कम लंबे होते हैं और इनके दो कूबड़ होते हैं। इस कारण इन्हें सामान्य रूप से दो कूबड़ वाले ऊँट के तौर पर जाना जाता है। इनके शरीर में बाल भी बहुत होते हैं, जो इन्हें भीषण सर्दी और बर्फीली हवाओं से बचाते हैं।

मेरे मन में तमाम विचार एकसाथ चल रहे थे। बर्फीले रेगिस्तान को अपनी पदचापों से जीतने के लिए मनुष्य ने कैसे इन यारकंदी ऊँटों को अपना हमसफ़र बना लिया, और इनकी पीठ पर लदकर वस्तुओं के साथ ही संस्कृति-विचार व जीवन के रंग-ढंग भी भूगोल की सीमाओं को कैसे तोड़ देते हैं, यह सोचना ही अपने आप में बहुत रोमांचकारी है। लदाख अंचल में नानवाई की दुकानें चलाने वाले यारकंदी व्यवसायियों के वंशजों को अपने पूर्वजों का वह सफ़र आज शायद ही याद होगा, जो कभी इन यारकंदी ऊँटों की पीठ पर बैठकर तय किया गया होगा। समोसा खाते समय शायद ही हमें याद आता होगा, कि आज भारत के सर्वाधिक प्रिय और देशव्यापी समोसा ने इन्हीं यारकंदी ऊँटों में बैठकर भारतवर्ष तक का सफ़र किया होगा। समोसे की दुकानें तो देश-भर में मिल जाएँगी, मगर नानवाई की दुकानें लदाख की अपनी निजी पहचान हैं। नानवाई तंदूर में रोटियाँ बनाते हैं, जिन्हें लदाखी में ‘तागी’ कहा जाता है। तंदूरी रोटी के रूप में होशियारपुर के व्यापारियों के साथ पंजाब, और फिर देश के दूसरे हिस्सों में पहुँचने वाली लदाखी ‘तागी’ भी यारकंद की सौगात है।

मेरे विचारों की कड़ियों में दखल देते हुए जब नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खानपान की आदतों के बारे में बताया, तो एकबारगी यह भी महसूस हुआ, कि यारकंदी ऊँटों से ज्यादा धैर्यवान और सहनशील जीव धरती पर खोजना बहुत कठिन है। जरा-से पानी या थोड़ी-सी बर्फ से अपने शरीर में जल का स्तर बनाए रखकर और कँटीली झाड़ियों को खाकर अपना पेट भर लेने वाले ऊँट मानव के लिए आत्मबलिदान ही तो करते रहे हैं.......शायद। उनकी पीठ पर चमड़े के बड़े-बड़े थैलों में भरा पानी, तंदूर में बनी नानवाई की रोटियों से भरे बंडल और रेगिस्तान के सफ़र में चटखारेदार भोजन की कमी को पूरा करने वाले समोसेनुमा व्यंजन से भरे पात्रों को लादकर रेशम मार्ग में चलने वाले ऊँटों के हिस्से में लेह बेरी जैसी कँटीली झाड़ियाँ ही आती रही होंगी।

यारकंदी ऊँट छः मन, यानि लगभग ढाई क्विंटल तक भार उठा सकते हैं। इनके लिए समतल रेगिस्तान में चलना तो आसान होता है, मगर घाटियों की चढ़ाई-उतराई और बर्फीली चट्टानों पर चलना कठिन होता है। नोरबू साहब के द्वारा दी गई इस जानकारी के बाद महसूस हुआ, कि रेशम मार्ग में पड़ने वाले लदाख के पनामिग गाँव से आगे तुरतुग-बोगदंग आदि बल्तिस्तानी गाँवों की तरफ चलने पर शयोग नदी के एक ओर कराकोरम और दूसरी ओर लदाख रेंज के पहाड़ों की दुर्गम ऊँचाइयों पर सिल्क रूट के ध्वंसावशेष पतली-सी लकीरों की तरह दिखाई पड़ते हैं। इनमें यातायात के अनुशासन को देखते हुए आने, और जाने के रास्ते भी बाकायदा अलग-अलग समझ में आते हैं। नोरबू साहब से ही पता लगा, कि याक, घोड़े और टट्टू ‘शटल’ सेवा की तरह सिल्क रूट में प्रयुक्त होते थे। हिमनदों और विकराल दर्रों को पार कराने में जहाँ याक विश्वसनीय होते थे, वहीं ऊँचाई पर चढ़ने और तेजी के साथ सामान की ढुलाई करने में घोड़ों और टट्टुओं का उपयोग किया जाता था। इस तरह अलग-अलग स्थानों पर किराए से इन भारवाहकों को उपलब्ध कराने वाले किरायाकशों की बस्तियाँ भी होती थीं।

नोरबू साहब ने बड़े गर्व के साथ बताया, कि सिल्क रूट में चलने वाले कारवाँ के कारण नुबरा घाटी गुलजार रहती थी। उन दिनों नुबरा घाटी लेह के आसपास के इलाकों से कहीं ज्यादा संपन्न थी। हमारे पुरखों के लिए समरकंद, बुखारा दुर्गम नहीं थे। पनामिग गाँव में उस समय मध्य एशियाई व्यापारियों के लिए बेहतर शरणगाह होती थी। यह एक तिराहा जैसा भी था, जहाँ से लेह के लिए संपर्क मार्ग बना हुआ था। हुंदर का राजमहल रेशम मार्ग के यातायात में नजर रखने के लिए बनवाया गया था। इसके भौगौलिक और सामरिक महत्त्व को देखते हुए कई आक्रमणकारियों ने इसे जीतने की कोशिश भी की। वे बताते हैं, कि नुबरा, यानि फूलों की घाटी सिल्क रूट में किसी नख़लिस्तान से कम नहीं थी। सिल्क रूट में व्यापार बंद हो जाने के बाद लंबे समय तक नुबरा घाटी उपेक्षित रही है।

वैसे उपेक्षा तो यारकंदी ऊँटों की भी हुई है। उनका स्वर्णिम अतीत, जो उन्हें सिल्क रूट के शहंशाह का खिताब दिलाता था, आज केवल किताबों में सिमट गया है। सन् 1870 में कुछ यारकंदी ऊँटों को लदाख के मुख्यालय लेह में पहुँचाया गया। पुराने समय में इनका उपयोग माल ढोने के लिए स्थानीय स्तर पर होता रहा, किंतु सड़कों के बन जाने और यातायात के साधनों के सुलभ हो जाने के बाद इनकी उपयोगिता नहीं रही। लेह से लगभग दस किलोमीटर दूर छुशोद नामक गाँव में एक ठिकाना यारकंदी ऊँटों के लिए बनवाया गया है। इस गाँव में अरगोन समूह के लोग भी रहते हैं, जिनका अपना अतीत सिल्क रूट व्यापार से जुड़ा रहा है। किराए पर भारवाहक पशुओं को उपलब्ध कराने और व्यापारियों को रास्ता दिखाने के अलावा ये व्यापार में भी थोड़ा-बहुत हाथ आजमा लेते थे। सिल्क रूट का व्यापार बंद हो जाने के बाद अरगोन और यारकंदी ऊँट, दोनों का जीवन बदल गया।

अपनी दो कूबड़ वाली पीठ पर मानव के जीवन को सैकड़ों वर्षों तक ढोने वाले यारकंदी ऊँटों के लिए अब शिआन से बैक्ट्रिया या वाह्लीक प्रांत का विशाल भूभाग, पामीर से हिंदुकुश या पारियात्र पर्वतश्रेणी तक की महान-पवित्र धरती अलग-अलग हिस्सों में बँट गई है। यहाँ के रहवासी अब यह भूल चुके हैं, कि वे कभी एक सूत्र से जुड़े हुए थे। रेशम मार्ग अब अतीत की रोचक पहेली की तरह आने वाली संततियों को शायद यह बता सकेगा, कि हिमालय में ऐसे कारवाँ भी कभी चलते रहे हैं, जिन्होंने आज के दर्जनों देशों तक व्यापारिक वस्तुएँ ही नहीं पहुँचाई हैं; वरन् संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन और वैचारिकता के ऐसे आदान-प्रदान भी किए हैं, जिनके कारण ‘वसुधैव-कुटुंबकम्’ के भाव सही अर्थों में स्थापित हुए। इन सबके पीछे केवल मानव रहा, यह कहना नितांत अतार्किक होगा। इसके लिए यारकंदी ऊँटों के प्रति कृतज्ञता का भाव उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार चेतक और बेंदुला के लिए होता है।

नोरबू साहब अब भी यारकंदी ऊँटों की ढेरों बातें बताते जा रहे थे। घड़ी की सुई दोपहर का एक बज गया है, ऐसा बता रही थी। नोरबू साहब के कथनानुसार अब ऊँटों के लंच का समय हो गया था। सामान्य-से कर्मचारियों की तरह ऊँटों को भी दो घंटे की छुट्टी मिली थी, पर्यटकों को मौज-मस्ती कराने के काम से। उनकी पीठ पर पड़ी झूलों को उतारा जा रहा था। उनकी नकेल को आजाद किया जा रहा था। अभ्यस्त दिनचर्या के अनुरूप सभी चल रहे थे। मेरे सामने यारकंदी ऊँटों की तीन पीढ़ियाँ थीं। इनमें बुजुर्गों से लगाकर युवाओं तक, और बच्चों की तरह उछल-कूद करते, अपनी ‘ड्यूटी’ से अनजान उष्ट्र शावकों में से किसी को भी यह अहसास नहीं होगा, कि एक जमाने में यहाँ उनके पुरखों की तूती बोलती थी। एक जमाने में वे सिल्क रूट के शहंशाह हुआ करते थे। यह अहसास तो उन पर्यटकों को भी नहीं होगा, जो दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी करने की उत्कट अभिलाषा लिए वहाँ पर मौजूद थे, और ‘शहंशाहों’ के अपनी नौकरी पर वापस लौटने का इंतजार कर रहे थे।

-राहुल मिश्र


(साहित्य संस्कार, त्रैमासिकी, जबलपुर के प्रवेशांक, जनवरी, 2019 में प्रकाशित)


Sunday, 30 April 2023

महाबाहु सिंधु, उसकी सखियाँ और हिमगिरि का लीलाभवन...

 




महाबाहु सिंधु, उसकी सखियाँ और हिमगिरि का लीलाभवन...


अगस्त-सितंबर आते-आते सिंधु का जोश मानों कुछ कम-सा हो जाता है। उधर हिमानियों में शीत का असर ज्यों-ज्यों बढ़ता है, वैसे ही उनका पिघलना-गलना कम होने लगता है, असर सिंधु में दिखने लगता है। सितंबर के माह में ही पितृपक्ष आता है। तर्पण-श्राद्ध के लिए सिंधु तट पर जाना पितृपक्ष की दैनंदिनी में सम्मिलित हो जाता है। एक दिन हमें सिंधु में तर्पण करते कुछ सैलानी देखते हैं। उत्सुकतावश आकर पूछ बैठते हैं.... कौन-सी नदी है, यह? हम अवाक् उनके चेहरे को ताकते हुए किंचित् अचरज के साथ कहते हैं- आपको क्या नहीं पता, ये सिंधु हैं...। सैलानियों में से एक वृद्ध महाशय तुरंत भक्ति के भाव में डूबकर जयकारा लगाते हैं, सिंधु मइया की जय हो...। अन्य सैलानी भी उनके सुर में सुर मिलाकर जयकारा लगा देते हैं—जय हो... जय हो...। कुछ की आवाज धीमी, तो कुछ की तेज होती है...। प्रातःकाल की वेला में नील कुसुमित गगन की आभा को दर्पण की तरह समेटे नीरव सिंधु और उसका तट इस जयकारे से गुंजायमान हो उठता है।

यह जयकारा तो ठीक था.... लेकिन सिंधु का परिचय ही यहाँ बदल गया था। पर्यटकों का भक्ति-भाव स्तुत्य था, लेकिन संशोधन आवश्यक था, इस कारण उनको बड़े विनम्र भाव के साथ हमने बताया, कि सिंधु मइया नहीं हैं, नदी नहीं हैं...। सिंधु में मातृत्व नहीं, पितृत्व है..। सिंधु नद हैं, महाबाहु हैं। हे सिंधु देव! वंदन है, आपका...। हमारा यह कथन पर्यटकों को आश्चर्य में डालने के लिए पर्याप्त था, ऐसा अनुभूत करते हुए एक ओर हम अपने तर्पण कार्य में लग गए, दूसरी ओर वे संभवतः हमारे संवाद की परतों को उधेड़ने-बुनने में लगे हुए थे।

लेह नगर से लगभग बारह-पंद्रह किलोमीटर दूर सिंधु घाट ने अपने कई रूप देखे हैं। हम जब पहले-पहल आए थे, तब यहाँ टीन की चादरें लगी थीं और लोगों के बैठने के लिए एक खुला मंच जैसा हुआ करता था। अब तमाम नया निर्माण हो गया है। पर्यटक तब भी खूब आते थे, अब भी आते हैं। क्या पता, उन्हें तब सिंधु के बारे में जानकारी रहती होगी, या आज के जैसे ही सिंधु का घाट पर्यटकों के लिए केवल सैर-सपाटा और प्राकृतिक सौंदर्य को निहारने का ठिकाना-मात्र रहता होगा। कुछ भी हो... अंग्रेजी ने यहाँ भी एक बड़ी गड़बड़ पैदा कर रखी है, ऐसा हमें तब भी लगता था, आज के इस संवाद ने पुनः हमारे विचार को मजबूती प्रदान कर दी थी। अंग्रेजी में ‘रिवर’ के स्त्रीलिंग या पुल्लिंग रूप नहीं हैं। दूसरा कारण यह भी हो सकता है, कि अधिकांश नदियाँ ही हैं...। इनकी संगत में नद भी नदियों के रूप में मान लिए जाते हैं, जाने-अनजाने में...। सिंधु के साथ भी कुछ ऐसा ही समझ में आता है।

ब्रह्मपुत्र, सोन और सिंधु; ये तीनों नद हैं। नद के रूप में सबसे कम पहचान सिंधु की है। सिंधु का तट सर्वस्तिवादी बौद्ध मतानुयायियों से जीवंत है। सर्वस्तिवादी बौद्धमत के ग्रंथों में सिंधु नद के रूप में अंकित है। भारत के मानचित्र को देखें, तो पूर्व में ब्रह्मपुत्र और पश्चिम में सिंधु का विशाल प्रवाह दिखता है। ऐसा प्रतीत होता है, कि ब्रह्मपुत्र और सिंधु दोनों भारतमाता की दो भुजाओं की तरह हैं। इसी कारण ये महाबाहु हैं। नदों की कथाएँ बड़ी रोचक होती हैं। ब्रह्मपुत्र की कथा में भी अनेक पड़ाव हैं, सिंधु में भी हैं, लेकिन भौगौलिक कारकों ने सिंधु के साथ मानव का मेल-मिलाप उतना नहीं रहने दिया, जितना सोन और ब्रह्मपुत्र का है। सोन भी नद है, गोंडवाना क्षेत्र में सोन का प्रवाह है। सोन वस्तुतः शोणभद्र है। शोणभद्र का स्वभाव भी भद्र है। यह अलग बात है, कि नर्मदा के साथ शोणभद्र की पटरी नहीं बैठी। एक छोटी-सी भ्रांति ने, एक मिथ्याबोध ने सोन और नर्मदा को अलग-अलग कर दिया। आज भी नर्मदा विपरीत दिशा में प्रवाहमान हैं, सोन के निकट से निकलते हुए भी मिलती नहीं हैं। शोण भी अपने भद्र स्वभाव को त्यागकर उच्छृंखल नहीं होता। वह शांत-संयत रहता है।

 सिंधु शोण की तरह शांत नहीं है। लेह के पास सिंधु का जो प्रवाह देखने को मिलता है, वह थोड़ा-सा आगे चलते ही कई गुना तेज हो जाता है। लोक में सिंधु के स्वभाव की जानकारी कम ही पाई जाती है। सिंधु के नाम से सामान्य जन की जानकारी सिंधु घाटी सभ्यता और सिंधु से हिंदु व हिंदुस्थान तक ही जाती है। सिंधु नद है, नद के रूप में आखिर सिंधु क्यों मान्य है, ये बातें कम लोग ही जानते होंगे। कम-से-कम नई पीढ़ी में तो यही स्थिति होगी। वैसे इन तथ्यों को जानने के लिए अतीत की बड़ी गहरी परतों को उधेड़ना पड़ता है।

गंगा च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।

नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिम् कुरु ।।

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गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा,

कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्यवती वेदिका ।

क्षिप्रा वेत्रवती महासुरनदी ख्याता जया गण्डकी,

पूर्णाः पूर्णजलैः समुद्रसहिताः कुर्वन्तु मे मंगलम् ।।

 

भारतीय वाङ्मय में सिंधु का वर्णन अनेक ग्रंथों में है। लोक-व्यवहार में सभी पवित्र नदियों का आह्वान स्नानादि कार्यों के लिए, पूजापाठ के लिए जब किया जाता है, तब सिंधु का भी आह्वान होता है। सिंधु का महत्त्व और माहात्म्य सनातन परंपरा में गंगा से पहले का है, और गंगा से अधिक भी है। प्राकृतिक बाधाओं और जटिलताओं ने सिंधु तक श्रद्धालुओं की पहुँच को कठिन बनाया, लेकिन सिंधु की प्रतीकात्मक उपस्थिति लोक में हर जन के साथ रही है, आज भी है...। समस्त पवित्र नदियों-नदों के जल की सन्निधि, यह सन्निधान धार्मिक संदर्भ-मात्र नहीं है। यह तो सांस्कृतिक ऐक्य का अभिधान है, प्रयास है। एक छोर पर गोदावरी-कावेरी, तो दूसरे छोर पर सिंधु, गंगा, यमुना हैं। सरयू, महेंद्रतनया, नर्मदा मध्य में हैं। यह आर्यावर्त की सांस्कृतिक परिधि का अंकन करने के साथ ही सांस्कृतिक एकता के मंत्र का पाठ भी है। सभी नदों-नदियों का जल से पूर्ण होना, सांस्कृतिक गठबंधन को जलराशि से बाँधना मानव के लिए मंगलकारक है, मंगलदायी है।

सिंधु सदियों से इसी भावधारा को निभाता रहा है। लद्दाख अंचल में एक स्वाँग खेला जाता है- लामा-जोगी का...। लामा बौद्ध भिक्षु है, लाल चीवर धारण किए हुए केशों का मुंडन कराए हुए..., जोगी श्वेत धोती धारण किए हुए है, लंबी धवल केश-राशि और दाढ़ी-मूँछों के साथ...। दोनों ही साथ-साथ जाते हैं, हाथों में अक्षत लिए हुए गाँवों की गलियों से जब निकलते हैं, तो श्रद्धालुजन स्वतः प्रेरणा से बाहर आकर अभिवादन करते हैं, परंपरागत पद्धति से पूजा-अर्जना करते हैं। लामा-जोगी समवेत स्वर से गृहस्वामी और अन्य परिजनों के लिए मंगलकामनाएँ करते हैं। जोगी लद्दाख में सिंधु के सहारे आए, अपनी सनातन परंपरा को अपनी तीर्थयात्राओं से अभिसिंचित करते हुए। यात्राओं की जटिलता ने, बदलते परिवेश ने, बदलती हवाओं ने और संस्कृतियों पर आक्रमणों के बाद बदलती धारणाओं-भावनाओं ने जोगियों का आना भले ही बाधित कर दिया हो, लेकिन लोक में जीवित और जीवंत परंपराएँ गहरे उतरकर जिस भावबोध से साक्षात् कराती हैं, उन्हें सिंधु ने अपने जल से सींचा है, पाला और पोसा है।

इतिहास घूम-घूमकर आता है, स्वयं को दोहरा लेता है। सिंधु दर्शन यात्रा ने पिछले साल ही अपने पचीस वर्षों की यात्रा पूरी की है। वर्ष 1997 में पहली बार सिंधु दर्शन यात्रा का आयोजन हुआ था। इसका प्रारंभ सिंधु की गौरवगाथा को गुनने-सुनने की भावभूमि पर हुआ था। पचीस वर्षों में सिंधु यात्रा ने देश ही नहीं, विदेशों के असंख्य लोगों को जोड़ा है। सिंधु दर्शन यात्रा के आज जिस आधुनिक संस्करण को देखते हैं, उसके पुरातन रूप को लामा-जोगी के स्वांग के साथ अनूभूत किया जा सकता है। सिंधु के किनारे-किनारे चलने वाली धार्मिक यात्राएँ एक ओर कैलास मानसरोवर तक, तो दूसरी ओर काश्मीर की धरती पर अमरनाथ और वैष्णवी देवी तक चलती रहती थीं।

सिंधु का उद्गम कैलास मानसरोवर से होता है। महायान परंपरा की बौद्ध मान्यताओं के अनुसार सिंधु का उद्गम शेर-मुख से हुआ है। कैलास की वह प्राकृतिक निर्मिति, जो शेर के समान दिखती है, उससे सिंधु का उद्गम होता है। इस कारण लद्दाखी भाषा में सिंधु ‘सेङ्गे खबब’ है। सिंधु के तट पर ही महाराजा पोरस ने सिकंदर की विश्व-विजय की कामना को धूल चटा दी थी। सिंधु के जल का यह प्रभाव कह सकते हैं, कि सिंह के मुख से निकलने वाले सिंधु का जल सिंह के सदृश वीरत्व के गुणों को धारण करने वाला है। सिंधु के किनारे-किनारे दरद, मोन-किरात आदि प्रजातियों का निवास रहा है। आज के जाटों की प्रजातियाँ भी यहाँ रही होंगी, ऐसे अध्ययन भी सामने आने लगे हैं। दरदों ने कौरवों ती तरफ से और किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध लड़ा था। सिंधु के किनारे संस्कृतियों के संघर्षों की अनेक गाथाएँ आज भी गूँजती हैं।

सिंधु की लीलाभूमि हिमगिरि के उत्तुंग शिखरों-मेखलाओं में विस्तृत है। सिंधु अपने साथ हिमगिरि की अन्य नदियों को मिलाकर लंबी यात्रा तय करने वाला नद है। हिमालय का पश्चिमी भाग सिंधु के हिस्से में है। वितस्ता, चिनाब, चंद्रा, भागा और जाङ्स्कर आदि नदियाँ सिंधु के साथ मिलकर अपना सर्वस्व अर्पित कर देती हैं। सिंधु यदि महाबाहु हैं, सिंह के मुख से निकलकर अपने गर्जन से धरती को गुंजायमान कर देने वाले हैं, तो पर्वतप्रदेश के अधिपति इंद्र भी कमतर नहीं हैं। वे वर्षा के देव हैं, बादलों के प्रतिरूप हैं। कृष्ण के लिए भी इंद्र चुनौती बने थे, सिंधु के लिए भी इंद्र चुनौती बने। विवश सिंधु को अपना रास्ता बदलना पड़ा। ऋग्वेद के द्वितीय मंडल में पंद्रहवाँ सूक्त है-

सोदञ्चं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव।

अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥

(ऋग्वेद द्वितीय मण्डल 15वाँ सूक्त)

इंद्र ने उषा के रथ को अपनी सेना के बल से बलहीन कर दिया, तेजहीन कर दिया और सिंधु के मार्ग को बदल दिया। बलवान सोमरस की शक्ति के बल पर इंद्र द्वारा सिंधु का मार्ग बदले जाने के कारण सिंधु का प्रवाह उत्तर की ओर हो जाता है। आज भी सिंधु का प्रवाह गिलगित तक उत्तर की ओर दिखता है। स्करदो के केरस नामक स्थान पर शयोक नदी सिंधु से मिलती है। सिंधु का प्रवाह यहाँ बदल जाता है। स्करदो में अपने साथ शिगर नदी को मिलाकर सिंधु का प्रवाह दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर हो जाता है। स्करदो एक समय लद्दाख का भाग हुआ करता था। स्करदो में लद्दाख की शीतकालीन राजधानी होती थी। इससे पहले यह त्रिवेणी के समान मान्य रहा होगा। शिगर, शयोक और सिंधु की त्रिवेणी यहाँ एक समय में सनातन परंपरा के लिए आस्था के बड़े केंद्र के रूप में रही होगी, जो कालांतर में सांस्कृतिक संघर्षों की परतों के बीच अपने अतीत को किसी एकांत खंडहर में छिपाए हुए होगी। अध्येताओं को यह भूमि अपनी ओर बुलाती है, आज भी...।

ंद्र के पौरुष का आख्यान यदि भारतीय वाङ्मय से आता है, तो इसे पुष्ट करती भूवैज्ञानिक खोजें बताती हैं, कि किस तरह टेथेस सागर बदलकर हिमालय की निर्मिति करता है, और किस तरह सिंधु का मार्ग बनता है, जिससे सागर का जल निकलकर प्रवाहित होता है। जुरासिक काल में हिमालय नहीं था। यहाँ टेथेस सागर की लहरें हिलोरें मारती थीं। भूगर्भीय प्लेटों के टकराने और एक-दूसरे के ऊपर चढ़ते जाने के कारण जब हिमालय की निर्मिति होने लगी, तब टेथेस सागर के जल की निकासी के मार्ग बनने लगे। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ बना, जिसने शयोक को जन्म दिया। इसी प्रवाह के कारण प्रसिद्ध पङ्गोङ झील का निर्माण हुआ। सिंधु-शयोक तांतव संधि-क्षेत्र भी इसी भूगर्भीय हलचल से बना, जिसमें सिंधु का प्रवाह है, और केरिस में शयोक व सिंधु का मिलन है। पङ्गोङ की तरह कई छोटी-बड़ी झीलें सिंधु-शयोक तांतव-संधि क्षेत्र में हैं, जिनका पानी खारा है। एकदम समुद्री है। एक समय इस संधिक्षेत्र के निवासी नमक बनाने का काम किया करते थे, जैसा कि उड़ीसा की चिलका झील या अन्य समुद्रतटीय क्षेत्रों में होता है। चङ्थङ् के निवासी पहले रेशम मार्ग के उपमार्ग से होकर लेह तक नमक का व्यापार करने आते थे। आज के पाकिस्तान में उन दिनों चङ्थङ् के नमक का स्वाद ही तैरता था। ऐसा कहा जाता है, कि वहाँ नमक बहुत कठिनाई से पहुँचता था, इस कारण लोग नमक की बरबादी बिलकुल भी नहीं करते थे।

शयोक और सिंधु का मिलन न केवल भूगर्भीय घटना का परिणाम है, वरन् इनके बीच एक अलग-सा संबंध अनुभूत कर सकते हैं। हिमाचल में बारालाचा दर्रा है। इसे लोग बड़ालाचा भी कहते हैं। यह मनोहर श्याम जोशी की कथाभूमि में भी रचता-बसता है। इसी के चंद्रताल से निकली चंद्रा और सूर्यताल से निकला भागा का मिलन तांदी में होता है। लाहुल-स्पीति की लोककथाओं में चंद्रा और भागा की प्रेमकथा रस ले-लेकर सुनी-सुनाई जाती है। तांदी में जो चंद्रभागा है, वह थोड़ा आगे बढ़ते ही चेनाब हो जाती है। इसे ही वैदिक काल की असिक्नी के रूप में जानते हैं। यह आम बोलचाल में इशकमती हो जाती है, साथ ही अपने रूप-गुण को भी ऐसे ही निभाते चलती है। हीर-राँझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ इसी इशकमती के किनारे फलती-फूलती हैं। शयोक और सिंधु के बीच भी यह संबंध एक कवि-मन के द्वारा देखा जा सकता है, यह हमने तब अनुभूत किया, जब एक लंबा समय हरहराकर बहती शयोक के किनारे पर बिताया। खरतुंग से नीचे उतरती शयोक ऐसे गरजते हुए बहती है, मानों खरतुंग से अपनी नाराजगी प्रकट कर रही हो। अगर खरतुंग बीच रास्ते में न खड़ा होता, तो शयोक को अपने सिंधु से मिलने के लिए केरिस तक की लंबी यात्रा न करनी पड़ती। सिंधु की तुलना में शयोक कुछ अधिक ही अल्हड़ और तीखी है। केरिस तक, सिंधु से मिलन तक कितने बल खाती है, कितनी चालें बदलती है, कितने नखरे दिखाती है, जरा सियाचिन की तलहठी में..... काराकोरम की छाँह में घूमकर देख तो लीजिए।

शयोक का गहरा नाता रेशम मार्ग से भी रहा है। जब रेशम मार्ग और उसके उपमार्ग चलन में थे, तब कई स्थानों पर शयोक को पार करना पड़ता था। शयोक में अचानक आ जाने वाली बाढ़ और तेज बहाव आदि रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ी मुसीबत बनते थे। शयोक के किनारे बसे गाँवों के रहवासी तो शयोक से खासे नाराज रहते हैं। उनके खेतों और उनकी बस्तियों को बरबाद करने में शयोक को तनिक भी देर नहीं लगती। इसी कारण नाराजगी में ये लोग शयोक का पानी अपने खेतों में भी नहीं सींचते। आज भले ही स्थितियाँ बदल गईं हों, लेकिन पहले के लोगों ने नदी के कारण जीवन नहीं, विस्थापन को देखा है। इसी कारण शयोक के प्रति लोक की नाराजगी कथाओं-किस्सों में भी देखने को मिल जाती है।

स्करदो में, जहाँ शयोक और शिगर नदियाँ सिंधु से मिलती हैं, वह निश्चित रूप से बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र रहा होगा। यहाँ संस्कृतियों के संघर्ष ने, आक्रमणों की विभीषिकाओं ने भले ही बहुत-कुछ बदल दिया हो, लेकिन सिंधु का प्रवाह जब तक रहेगा, तब तक अतीत की गौरवगाथा को, सिंधु सभ्यता को, सप्त-सिंधु के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक वैभव को स्मरण रखा जाएगा। स्करदो से आगे बढ़कर सिंधु के मुलतान पहुँचने पर चिनाब का मिलन सिंधु से होता है। इस संगम के निकट ही आदित्य मंदिर है। जामवंत की पुत्री जामवंती श्रीकृष्ण की रानी थीं। इनके पुत्र का नाम सांब था। श्रीकृष्ण के श्राप के कारण सांब कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए थे। सांब ने सूर्य की तपस्या की। सूर्य ने प्रसन्न होकर चंद्रभागा नदी में स्नान करने को कहा। आज भी चंद्रभागा कोढ़ ठीक करने वाली नदी के रूप में जानी जाती है। संभवतः सांब का शासन वर्तमान मुलतान में भी रहा होगा। इसी कारण चिनाब-सिंधु के मिलन-स्थल पर सांब ने अपने आराध्य आदित्य देव का मंदिर बनवाया। यह कोणार्क के सूर्य मंदिर की तरह का है। आज इसके भग्नावशेष ही दिखते हैं। सांब और सांबा सेक्टर एक ऐसा साम्य उत्पन्न करते हैं, जो अतीत की कड़ियों से वर्तमान को जोड़ता है। सिंधु नद मुलतान से आगे बढ़ते हुए अपने साथ हिंगोल नदी को मिलाता है। पाकिस्तान के बलोचिस्थान प्रांत में माता हिंगलाज का मंदिर है। माता हिंगलाज का यह मंदिर बावन शक्तिपीठों में से एक है।

सिंधु नद कैलास-मानससरोवर से अपनी यात्रा प्रारंभ करते हुए कराची के दक्षिण में सिंधु सागर से मिल जाता है। सिंधु सागर नाम भी सिंधु नद के मिलने के कारण पड़ा है। सिंधु सागर का एक नाम अरब सागर भी है, जो संभवतः तटवर्ती अरब के देशों के कारण पड़ा होगा। सिंधु सागर के किनारे की कृष्ण की द्वारिका है। सिंधु-चेनाब के संगम में कृष्ण के पुत्र सांब की नगरी है, आदित्य मंदिर है। सिंधु के किनारे-किनारे उन सभी प्रजातियों का निवास है, जो महाभारत के युद्ध में कौरवों और पांडवों के बीच बँटकर लड़ी थीं। रामायण में सिंधु महानदी है, महाभारत में सिंधु का विस्तार है, क्योंकि महाभारत का सिंधु से बहुत गहरा नाता है। सैंधवों, गंधर्वों के क्षेत्र, वर्तमान मिथन कोट या कोट मिट्ठन में राजा शिवि के पुत्र वृषदर्भ की राजधानी, दरदों, मोनों-किरातों आदि के ठिकाने सिंधु के तट पर ही हैं। ये सभी महाभारत के महासंग्राम के साक्षी रहे हैं। सिंधु नद और उसकी सखियाँ हिमगिरि के लीलाभवन में न केवल भौगौलिक निर्मितियाँ गढ़ती हैं, वरन् अनेक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक संदर्भों को सहेजती हैं। कभी हिमगिरि के लीलाभवन में इनके स्वरों को सुनिए.... मौन होकर, ध्यान लगाकर, चिंतन में गहरे उतरकर, इतिहास की परतों को उलट-पलटकर...। अनेक अनसुनी कहानियाँ, अनेक अनकहे किस्से, ढेरों बातें इनके प्रवाह में आपको मिलेंगी। पर्यटक के रूप में नहीं, सैलानी के रूप में नहीं... अपनी संस्कृति और अपने धर्म के प्रतिनिधि बनकर इनके तट पर आइए तो...।

(कश्फ़, अमृतसर, संयुक्तांक- 2022-2, 2023-1, वर्ष-21-22, पंज- 13-14, दिसंबर, 2022 से जून 2023 अंक में प्रकाशित)


Monday, 17 April 2023

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

 

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

लदाख का नाम आते ही एकदम अलग तरह की छवि मन में बनने लगती है। शीत की अधिकता के बीच किस तरह जीवन बीतता होगा, यह चिंता हर किसी के मन में आ जाती है। शीत की अधिकता के बीच, वीरान-सी पर्वतमालाओं के बीच, जहाँ हरियाली और चहल-पहल दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती, वहाँ मन का रंजन, कलात्मकता का विस्तार आखिर कैसे होता होगा? यह प्रश्न हर किसी के मन में उठता है। वस्तुतः सच्चाई इसके विपरीत है। भले ही जीवन की रंगीनियाँ, चहल-पहल लद्दाख में कम हों, लेकिन कलात्मकता में लद्दाख बेजोड़ है, अनुपम है।

लद्दाख एक समय में सिल्क रूट या रेशम मार्ग का हिस्सा होता था। इस कारण अनेक संस्कृतियाँ, सभ्यताएँ यहाँ से गुजरीं और ठहर-ठहर कर इस बर्फीले रेगिस्तान में अपनी छवियाँ बिखेरती रहीं हैं। भारतीय संस्कृति से अनुप्रणित लद्दाख में न केवल बौद्ध धर्म की सर्वस्तिवादी शाखा का विस्तार हुआ, वरन् कालांतर में तिब्बत से होते हुए महायान परंपरा का विस्तार भी हुआ। हिमाचलप्रदेश के रिवाल्सल (रिवरसल) से गुरु पद्मसंभव का धार्मिक अनुष्ठान न केवल तिब्बत तक गया, वरन् लद्दाख अंचल में भी विस्तृत हुआ।

लद्दाख में भारतीय बौद्ध परंपरा ही नहीं आई, अनेक कला शैलियाँ और स्थापत्य का भी आगमन हुआ। इसी कारण आज के लद्दाख में जगह-जगह कलात्मक मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। बौद्ध मंदिरों-मठों, जिन्हें लद्दाख में गनपा कहा जाता है, अनेक प्रकार के देवी देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित होकर आस्था के केंद्र के रूप में जाने जाते हैं। लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही धातु से बनी, संगमरमर आदि कीमती पत्थरों से बनी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।

अगर लद्दाख की मूर्तिकला के अतीत में उतरकर देखें, तो पता चलता है कि लद्दाख में सबसे पहले पाषाण मूर्तिकला का प्रचार हुआ। लदाख में इस कला का प्रचार-प्रसार काश्मीर शासक ललितादित्य (724-760) के समय या इसके आस-पास  हुआ। दसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध अनुवादक लोचावा रिनछेन जङ्पो (958-1055) तिब्बत से काश्मीर आए और वापस लौटते समय अपने साथ काश्मीर से अनेक कलाकारों को लेते आए। लोचावा रिंचेन जङ्पो के प्रयासों से लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही काष्ठ-मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। उनकी जीवनी से ज्ञात होता है, कि उन्होंने अपने पिता की स्मृति में काश्मीर में भीधक नामक एक कुशल शिल्पकार से अपने पिता के शरीर के बराबर महाकारुणिक आर्यावलोकितेश्वर की एक मूर्ति का निर्माण करवाया, जिसका प्रतिष्ठापन गुरु श्रद्धाकर वर्मा ने किया था। इस मूर्ति का निर्माण धातु को पिघलाकर किया गया था।

लोचावा रिनछेन जङ्पो काश्मीर से अपने साथ बत्तीस कलाकारों को लेकर लद्दाख आए थे। इन कलाकारों में मृण्मूर्ति, काष्ठ-मूर्ति, धातु की मूर्ति बनाने वाले कुशल शिल्पकारों के अतिरिक्त कुशल चित्रकार भी सम्मिलित थे। ये कलाकार लद्दाख के अलग-अलग स्थानों में बस गए और अपनी कला की अनेक बानगियाँ यहाँ बिखेरते रहे। लोचावा रिंचेन जङ्पो द्वारा आज से लगभग 1000 वर्ष पहले बनवाया गया अलची बौद्ध विहार न केवल लद्दाख, वरन् पुरातन भारतीय स्थापत्य कला की अद्भुत निशानी है। लोचावा के साथ आए कलाकारों द्वारा यहाँ अनेक देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ बनाई गईं हैं। साथ ही भित्तिचित्र भी बनाए गए हैं। इनमें पत्थर के परंपरात रंगों का प्रयोग किया गया है। भवन की निर्मिति भी ऐसी है, कि अनेक वर्षों तक मौसम की मार झेलकर भी अपने स्थापत्य के सौंदर्य को, अपनी मूर्तिकला की धरोहर को सहेजे हुए है।

लोचावा रिनछेन सङ्पो के पश्चात लद्दाख के कलाप्रिय और धर्मभीरु राजाओं ने मूर्ति-निर्माण कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। प्रस्तर और धातु की मूर्तियों के साथ ही मृण्मूर्तियों के निर्माण का प्रचलन लद्दाख में आया। मिट्टी से बनी मूर्तियाँ धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष अंग बनने लगीं। धर्मराज ल्हछेन ङोसडुब गोन, धर्मराज डगपा बुम दे, राजा टशी नमग्याल, धर्मराज सेङ्गे नमग्याल और धर्मराज देलदन नमग्याल ने अपने राज्यकाल में अनेक मूर्तियों का निर्माण कराया, जो वर्तमान में लद्दाख के विभिन्न अंचलों के बौद्ध मठों-मंदिरों (गोनपाओं) में स्थापित हैं, और लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य का प्रदर्शन कर रहीं हैं।

लद्दाख में बनने वाली मृण्मूर्तियों में काश्मीर की मूर्तिकला के साथ ही प्राचीन गांधार शैली के दर्शन होते हैं। लद्दाख में प्रमुख रूप से बुद्ध, बोधिसत्व, आर्य अवलोकितेश्वर, आर्य मंजुश्री, मैत्रेय, वज्रपाणि के साथ ही तंत्रयान के देवी, देवता, रक्षक आदि की मूर्तियों का निर्माण होता है। मूर्ति-निर्माण से संबंधित विभिन्न ग्रंथों की रचना भारतीय शास्त्रों के आधार पर की गई है। स्तनग्युर में बौद्ध कला और शिल्प के रूप में ये पृथक ग्रंथ के रूप में संग्रहीत हैं। मूर्ति-निर्माण परंपरा यहाँ गुरु-शिष्य के रूप में चलती है। एक गुरु के अनेक शिष्य इस कला को विस्तार देते हैं। मूर्तियों के निर्माण के लिए पुराने समय में मूर्तिकारों द्वारा ही सामग्री तैयार की जाती थी। वर्तमान में भी यह परंपरा चल रही है। लद्दाख में पाई जाने वाली चिकनी पीली मिट्टी के साथ ही मोटा कपड़ा और धागा-साँचा आदि प्रयोग में लाया जाता है। मूर्ति का साँचा बनाकर उसमें लेपन करके फिर रंग भरे जाते हैं।

बौद्ध शास्त्रों के अनुसार मूर्ति के शीर्ष मुकुट से लगाकर चरण तक अलग-अलग मंत्र हैं, जिन्हें लिखकर मूर्ति के निश्चित भागों में डालना होता है। इसे धारणी कहते हैं। धारणी के अतिरिक्त धातु,अन्न, वस्त्र आदि भी मूर्ति के अंदर डाले जाते हैं। इसके पश्चात् बौद्ध आचार्यगण मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। लद्दाख के विभिन्न मठों-मंदिरों में अनेक प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके साथ ही विभिन्न स्थानों पर स्थापित की गईं मूर्तियाँ लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य को दिखाती हैं। समय के बदलाव के साथ सीमेंट और प्लास्टर आफ पेरिस से भी मूर्तियाँ बनाने का चलन लद्दाख में आया है। इसमें तैलीय रंगों का प्रयोग भी नया है।

कुल मिलाकर लद्दाख की पहचान का एक बड़ा हिस्सा लद्दाख की विशिष्ट मूर्तिकला से बना है। लद्दाख में अनेक कलात्मक मूर्तियों का निर्माण होता है, जो देश ही नहीं दुनिया के अनेक हिस्सों में सजावट के लिए जाती रहती हैं।



(मासिक पत्रिका हस्ताक्षर, इंदौर, मध्यप्रदेश के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित)

Thursday, 30 June 2022

सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

 


सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

मोमोस शब्द और साथ ही इस नाम के व्यंजन का स्वाद आज किसी के लिए अनजाना नहीं है। बड़े-बड़े शहरों में मोमोस बाकायदा ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ परोसने वाले होटलों में भी मिल जाते हैं, और सड़क के किनारे खड़े चाट के ठेलों पर भी ये सुलभ हो जाते हैं। बड़े शहरों की बात अलग ही है, यहाँ तो सबकुछ मिलना सुलभ-सरल है, लेकिन जरा कस्बाई और गँवई-गाँव के खानपान में उतरकर देखिए... आपको आश्चर्य होगा, कि यहाँ टिकिया, समोसा और कुछ आधुनिक होते समय के चाऊमीन-बरगर के साथ मोमोस भी मिल जाएँगे। हिम-आच्छादित लद्दाख का प्यारा और बहुत स्वादिष्ट व्यंजन- मोमोस... आज देश के कोने-कोने तक पहुँचा हुआ है।

किसी क्षेत्र-विशेष की सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान का बड़ा अंग उस क्षेत्र के प्रचलित व्यंजनों से बनता है। क्षेत्र-विशेष अपनी पहचान गढ़ते समय अपने व्यंजनों के चटखारों का स्वाद उतारता है। इडली-डोसा का उल्लेख करते ही दक्षिण भारत का चित्र आँखों के सामने होता है। इसी तरह बुंदेलखंड की बेड़ही-लपसी, पूर्वांचल की बाटी-चोखा और पंजाब की मक्के दी रोटी-सरसों दा साग अलग-अलग भौगौलिक रंग हमारे सामने ले आते हैं। देश की सांस्कृतिक विविधता का यह बड़ा अंग है। देश को जोड़ने वाले व्यंजनों पर अगर बात करें, तो एक अद्भुत रोमांच मन में भर जाता है, जो देश की विवधता में एकता को अनेक बार हमारे सामने ले आता है। लद्दाख भले ही दुर्गम और जटिल हो, लोगों के मन में इस बर्फीले रेगिस्तान को लेकर भले ही अनेक भ्रांतियाँ, भय और आश्चर्यजनक बातें हों; लेकिन लद्दाख के व्यंजनों ने इन मिथों को बखूबी तोड़ा है। इसी कारण देश के सुदूरवर्ती ग्राम्यांचलों में भी लद्दाखी मोमोस की हनक देखने को मिलती है।

वैसे तो लद्दाख की पहचान तीन चीजों से रही है, उसके अपने अतीत में.....। ये तीन चीजें हैं- सत्तू, पट्टू और टट्टू...। आपको यह जानकर निश्चित रूप से आश्चर्य हो सकता है, कि सत्तू जो है, वह लद्दाख की पहचान में शामिल है, जुड़ा हुआ है। बाकी दो में से पट्टू, अर्थात् दुशाला लद्दाख की शीत से बचाने के लिए बहुत आवश्यक है और टट्टू, अर्थात् अश्वों की एक वर्णसंकर प्रजाति लद्दाख की प्राचीन यातायात व्यवस्था का अभिन्न और प्रमुख अंग रहा है। लद्दाख में यातायात व्यवस्था के अंग के रूप में याक (चमरी मृग) और यारकंदी ऊँट (दो कूबड़ वाले) भी आते हैं, लेकिन नाम तो टट्टुओं का ही चलता है। इसका बड़ा कारण यह है, कि स्थानीय आवागमन और सामान ढुलाई के लिए टट्टू ही अधिकतर उपयोग में आते थे, जबकि यारकंदी ऊँट और याक की भूमिका प्रायः लंबी और दर्रों को पार करने वाली पहाड़ी यात्राओं में विशेष रूप से होती थी। ये सारी बातें इसलिए कहीं, कि सत्तू का महत्त्व भी कुछ इसी प्रकार का देखा जा सकता है, लद्दाख के जटिल जीवन में...।

लद्दाख में जौ की फसल पर्याप्त मात्रा में होती है। इस कारण लद्दाख में जौ का सत्तू चलन में है। भारत के मैदानी क्षेत्रों, जैसे- मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार आदि में चने का सत्तू चलता है। लद्दाख में चने की पैदावार नहीं है, लेकिन सत्तू बनाने की विधि है, सत्तू भी है... भले ही जौ का ही क्यों न हो..। जौ का सत्तू न केवल पौष्टिक होता है, वरन् इसकी तासीर गर्म होती है, जबकि चने के सत्तू की तासीर ठंडी होती है। यह भी एक बड़ा कारण लद्दाख में जौ के सत्तू के चलन के पीछे है। यह देखन बहुत रोचक है, कि सत्तू, जिसे लद्दाखी भाषा में ‘फे’ बोलते हैं, उसका प्रयोग क तरीके से रसोईघर और अतिथिगृह में होता है। कुछ व्यंजनों में इसका उपयोग किया जाता है, पूजा-पाठ में भी इसका उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त यह सबसे अधिक चाय के साथ खाया या पिया जाता है।

लद्दाख में पानी पीना किसी चुनौती से कम नहीं, इस कारण भारत के मैदानी क्षेत्रों की तरह यहाँ पर अतिथियों के आगमन पर उन्हें पानी के लिए नहीं पूछा जाता है, चाय के लिए पूछा जाता है। चाय भी कई तरह की...., जैसे- गुरगुर चाय, लिप्टन चाय, ग्रीन टी और कहवा आदि। ग्रीन टी और कहवा से तो सभी परिचित होंगे, वैसे परिचित तो लिप्टन चाय से भी होंगे.... भ्रम केवल नाम के कारण हो सकता है। लिप्टन चाय दरअसल दूध वाली मीठी या शर्करामुक्त चाय के लिए प्रयोग होने वाला नाम है। इस नाम के माध्यम से लद्दाखी लोग चाय का एक भेद गढ़कर अतिथि को उसके चाय-चयन में मदद दे देते हैं। सबसे अधिक प्रचलित और प्रिय गुरगुर चाय है, लद्दाख में। यह पसंद तिब्बत तक बिखरी हुई है..., कह सकते हैं, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरगुर चाय का चलन है।

गुरगुर चाय वस्तुतः मक्खन डालकर बनाई गई नमकीन चाय है। इसके अपना नाम भी इसके बनाने में होने वाली ध्वनि से मिला है। लंबे बेलनाकार बरतन में मथानी जैसे डंडे से मथकर यह बनती है, और मथते समय गुरगुर की आवाज होती है। थोड़ी-सी चायपत्ती और मक्खन से बनी गुरगुर चाय में अनूठा-सा सोंधापन होता है। यह शरीर में नमक और पानी की मात्रा संतुलित करती है। गुरगुर चाय की प्याली के साथ सत्तू भी परोसा जाता है। अतिथिगण चाय की प्याली में सत्तू घोलकर या तो पी जाते हैं, या फिर खा लेते हैं। सत्तू ऐसा आहार है, जिसे आप तैयार खाद्य या ‘फास्ट फूड’ की श्रेणी में भी आसानी से रख सकते हैं। किसी भी यात्रा के लिए यह साथ ले जाने वाला सर्वोत्तम आहार है। कहीं पर भी खाया जा सकता है, कैसे भी खाया जा सकता है। मध्यभारत में तो सत्तू-नमक लेकर ढूँढ़ना... जैसे मुहावरे भी बने है। सत्तू यात्राओं के लिए बहुत उपयुक्त रहा है, विशेषकर जटिल-कठिन यात्राओं के लिए...।

लद्दाख यात्राओं के मार्ग का पड़ाव जैसा है। लद्दाख के ऊपरी हिस्से से होकर रेशम मार्ग निकलता है। लद्दाख की नुबरा घाटी रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए एक आरामगाह जैसी रही है। इसके साथ ही भारत के अन्य हिस्सों के लिए उतरने वाले संपर्क मार्गों के कारण लद्दाख एक बड़े व्यापारिक केंद्र व ठहराव के रूप में अपनी भूमिका निभाता रहा है। होशियारपुर के अनेक व्यापारियों के ठिकाने आज भी लेह में देखे जा सकते हैं। गुरु नानक अपनी यात्राओं के क्रम में लद्दाख भी पधारे थे। लेह के निकट गुरुद्वारा दातून साहिब और लेह-श्रीनगर राजमार्ग पर गुरुद्वारा पत्थरसाहिब उनकी यात्रा की अविस्मरणीय गाथा को आज भी गाते हैं।

एक समय ऐसा भी था, जब लेह बाजार में मध्य एशिया के हर हिस्से का प्रतिनिधित्व दिखाई देता था; व्यापारियों, क्रेता-विक्रेताओं, पहनावों और बिकते व्यंजनों के रूप में...। लेह बाजार में गुरुद्वारा दातून साहिब के पास ही नहीं, प्रायः पूरे लद्दाख में एक वर्ग ऐसा मिलेगा, जो तंदूरी रोटी बनाने-बेचने का काम करता है। इन्हें स्थानीय भाषा में नानवाई कहते हैं। इनके द्वारा बनाई तंदूरी रोटी लद्दाखी भाषा में ‘तागी’ कही जाती है। यह तागी कब रेशम मार्ग से उतरकर लद्दाख की ‘तागी’ और फिर पंजाब की ‘तंदूरी’ बनकर सारे देश और दुनिया में फैली...., जानना बहुत रोचक और रोमांचकारी होगा।

रेशम मार्ग पर चलने वाले यात्रियों और व्यापारियों के लिए दाना-पानी कितना जटिल रहा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। रेशम मार्ग में यात्रा करने के लिए पूरा का पूरा लाव-लश्कर होता था, जिसमें दो कूबड़ वाले ऊँटों पर चमड़े के बने थैलों में पानी, तागी या तंदूरी रोटी आदि के चलते-फिरते भंडार भी होते थे। इनके साथ ही समोसा जैसे व्यंजन भी होते थे, जो आटे के अंदर तीखा-चटपटा मसाला भरकर बनाए जाते थे। समोसा की उत्पत्ति भी यहीं से हुई, ऐसा कह सकते हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था, बल्कि दर्शन-चिंतन-वैचारिकता की अनेक बातें भी इस मार्ग से आती जाती रहीं हैं। अनेक अध्येताओं ने इस रास्ते से चलकर ज्ञान की खोज की है। संस्कृतियों के आदान-प्रदान के साथ ही खान-पान की आदते और व्यंजन भी रेशम मार्ग से आए-गए हैं। और इन सबका प्रभाव आज भी लद्दाख में देखा जा सकता है। लद्दाख को यूँ ही नहीं मध्य एशिया का बड़ा केंद्र कहा जाता...।

प्रायः भौगोलिक परिस्थितियाँ और जलवायु के कारक क्षेत्र-विशेष के आहार-विहार को प्रभावित करते हैं। लद्दाख में यह पक्ष प्रमुख रूप से दिखता है। इसी कारण लद्दाखी व्यंजन देश के अन्य भागों के व्यंजनों से अलग बनते हैं। लद्दाखी व्यंजन स्थानीय आवश्यकता के अनुसार प्रायः पर्याप्त तरल होते हैं। अकसर सूप तरलता को बढ़ाने का काम करते हैं। मैदानी क्षेत्रों में मोमोस को भले ही चटनी के साथ खाने का चलन हो, लेकिन लद्दाख में मोमोस सूप के साथ ही खाए जाते हैं। मोमोस के अतिरिक्त थुक्पा में भी पर्याप्त सूप होता है। थुक्पा व्यंजन में मोटी सेवइयाँ जैसी होती हैं, जिन्हें खूब रसेदार सूप में डालकर पकाया जाता है, और गरम-गरम पी लिया जाता है। इससे शरीर में गरमी भी आती है, और पानी की कमी भी साथ-साथ पूरी होती जाती है। ‘स्क्यू’ भी कुछ इसी तरह का व्यंजन होता है। इसमें ढेर सारी सब्जियाँ- पालक, मंगोल, लाल मटर आदि डालकर खूब तरल करके पकाया जाता है, और खौलती हुई तरल सब्जी में आटे के गोल-चौकोर टुकड़े जैसे डालकर उबाला जाता है। इसे भी रसेदार बनाते हैं और इसे भी सूप की तरह से पीते हुए खाया जाता है।

खोलक एकदम अलग तरह का व्यंजन है। लद्दाख में चपातियाँ बनाने का विधान नहीं है। चपाती के रूप में अगर कहें, तो ‘तागी’ ही है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया गया है। एक रोचक बात ‘तागी’ के बारे में बताना यहाँ आवश्यक लगती है। लद्दाख में एक कहावत कही जाती है- ‘बेचारा रोटी खाकर जिंदा है..।’ यह कहावत गरीब-दीन-हीन व्यक्ति के लिए कही जाती है। लद्दाख में चावल विशिष्ट और कुलीन वर्ग का आहार माना जाता था। लद्दाख में चावल पैदा नहीं होता था, जिस कारण चावल बहुत महँगा बिकता था। दूसरी तरफ नानवाई की रोटियाँ सहज सुलभ थीं, हर वर्ग के व्यक्ति के लिए..। आज स्थिति ऐसी नहीं है, लेकिन अतीत की यादें जीवंत हैं। हम बात कर रहे थे, लद्दाखी व्यंजन खोलक की..। यह एक तरह से चपाती का ही रूप है, लेकिन इसे सीधे आँच में नहीं पकाया जाता। मैदा या आटा को सानकर उसका कलात्मक लड्डू जैसा आकार बनाकर भाप में पकाया जाता है। फिर उसे दाल में डालकर या सब्जी के साथ खाया जाता है।

लद्दाख की जलवायु के अनुसार यहाँ के प्रायः सभी व्यंजन कम मसालेदार और भाप में पके हुए होते हैं। इनको पकाने के लिए अलग तरह के बरतन भी होते हैं। वैसे लद्दाखी रसोई भी कम कलात्मक नहीं होती। लद्दाखी घरों में रसोई केवल खाना पकाने के लिए नहीं होती, वरन् खाना खाने और घंटों बैठकर गपशप करने के लिए भी होती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लद्दाख और तिब्बत की अपनी यात्राओं के साथ यहाँ के रसोईघरों का भी रोचक वर्णन किया है। वे यह भी लिखते हैं, कि बाहरी व्यक्ति के लिए रसोई तक पहुँचना कठिन नहीं होता। रसोईघर में चूल्हा कुछ इस तरह का होता है, कि उसके निकट बैठकर शीत से बचाव किया जा सकता है। इस तरह पूरा परिवार और अतिथिगण भी रसोई में बैठकर गरमागरम भोजन का आनंद ले सकते हैं, शीत से स्वयं को बचाते हुए। यह व्यवस्था एक तरह से कम संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवन जीने की कला भी सिखाती है।

विश्वग्राम की संकल्पना ने सारी दुनिया को एक जगह पर समेट दिया है। जिस तरह मोमोस लद्दाख से निकलकर सुदूरवर्ती गाँवों तक पहुँचे हैं, उसी तरह से चोखा-बाटी, इडली-डोसा, जलेबी-टिकिया आदि लद्दाख में भी सुलभ हैं। इतना ही नहीं लद्दाख के बड़े होटलों के साथ ही छोटे-छोटे होटलों और रेस्टोरेंट्स में ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ भी खूब मिलती हैं। लद्दाख उभरते हुए पर्यटन केंद्र के रूप में देश ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। इस कारण देश-दुनिया के पर्यटकों के साथ देश-दुनिया की खान-पान की आदतें और व्यंजन भी लद्दाख पहुँचे हैं। आज के समय में सत्तू लद्दाख के दूर-दराज के गाँवों में सरलता से मिल सकता है, अपेक्षाकृत लद्दाख के शहरी  क्षेत्रों के...। आधुनिकता ने बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव खान-पान में भी आया है। यह सांस्कृतिक संक्रमण का समय है। लद्दाख के ठंड से ठिठुरते समय में बैठकर मसाला डोसा खाना एकदम अलग अनुभव देता है। किसी गाँव के चाट के ठेले में खड़े होकर मोमोस खाना भी अलग ही लगता है। अगर गहरे उतरकर सोचें, तो कई-कई बार यह अनुभूत होता है, कि हम व्यंजन नहीं, देश को एक सूत्र में पिरोने वाले सूत्रों का सुख व आनंद अपने अंदर उतार रहे हैं।

-राहुल मिश्र (आचार्य अनामय)

(कश्फ, अर्धवार्षिकी, संयुक्तांक दिसंबर, 2021 से जून, 2022, वर्ष- 20-21, संपादक- डॉ. विनोद तनेजा, अमृतसर में प्रकाशित)

Thursday, 26 August 2021

अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित (लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)

 


अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित

(लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)


डुल्लू पंडित, अर्थात पंडित श्रीधर कौल; यह एक ऐसा नाम है, जिसने न कभी ख्याति चाही, न पद और न ही पैसा-मान-प्रतिष्ठा। एक निष्काम सेवाव्रती की तरह से अपना सारा जीवन, अपनी सारी कर्मठता-सक्रियता लदाख को समर्पित कर दी। इसी कारण श्रीधर कौल के बारे में बहुत ही कम जानकारियाँ आज मिल पाती हैं। लदाख के जाने-माने इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी स्वर्गीय आबा टशी  रबग्यस अकसर ही श्रीधर कौल के बारे में बताया करते थे। कथाकार अब्दुल ग़नी शेख और लदाख के वरिष्ठ-वयोवृद्ध चिकित्सक डॉक्टर तंजिन के पास भी डुल्लू पंडित से जुड़ी अनेक बातें और यादें हैं, जिन्हें उन्होंने या तो अपनी रचनाओं में सहेजा है, या फिर वे अपनी स्मृतियों को खंगालते हुए यदा-कदा बताते हैं। आज के लदाख की नई पीढ़ी के लिए डुल्लू पंडित का नाम अनजाना-सा ही होगा। आधुनिक लदाख के निर्माता कहे जाने वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे का तो सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही डुल्लू पंडित के सानिध्य में शुरू हुआ था।

श्रीधर कौल ने लदाख में बिताए अपने समय को; जैसा और जितना लदाख को देखा, उन अनुभवों को अपनी एक अधूरी रचना में समेटा था। उनके जीवनकाल में यह रचना पूरी नहीं हो सकी। बाद में उनके पुत्र हृदयनाथ कौल ने कुछ अंश उसमें जोड़े, और ‘लदाख : थ्रू द एजेस, टूवार्ड्स ए न्यू आइडेंटिटी’ के नाम से यह पुस्तक बहुत बाद में, सन् 1992 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का प्राक्कथन कुशोग बकुल रिंपोछे ने लिखा है। अपने प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है- “इस पुस्तक के लिए चंद पंक्तियाँ लिखना मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैं अपनी ओर से, साथ ही लदाख की जनता की ओर से श्रीयुत् श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता दर्ज कराना चाहता हूँ। लदाख के लोगों के लिए और लदाख की संस्कृति के लिए उनका अविस्मरणीय योगदान, सन् 1947 के युद्ध में लदाख अंचल के लिए उनकी असाधारण सेवाएँ, और इन सबसे ज्यादा लदाखी लोगों को अपने नागरिक अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक करने हेतु किए गए कार्यों के लिए श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।”

इस पुस्तक का उल्लेख यहाँ पर इसलिए करना समीचीन लगता है, ताकि तथ्यपरक जानकारी का संदर्भ सुलभ हो सके। यह पुस्तक लदाख के अतीत को केवल देखती नहीं है, अनूठे भावनात्मक लगाव को, एक सांस्कृतिक संबंध को व्यक्त ही नहीं करती;  बल्कि महसूस भी कराती है। यह पुस्तक श्रीधर कौल ‘डुल्लू’ के लदाख अंचल के प्रति प्रेम और भावनात्मक लगाव को व्यक्त करने, और साथ ही भारत की पुरातन सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ों को लदाख अंचल के कण-कण में देखने का सहज प्रयास भी है। तमाम सिद्धहस्त लेखकों के लदाख-वृत्तांत के सामने यह पुस्तक भले ही साधारण-सी हो, किंतु जिस पक्ष को इस पुस्तक में अनुभूत किया जा सकता है, उसे अन्यत्र खोजना कठिन है। परमपूज्य कुशोग बकुल रिनपोछे ने अपने कथन में मन के भावों की सीधी-सरल अभिव्यक्ति के माध्यम से आधुनिक लदाख के निर्माण की उस नींव को नमन किया है, जिसके साथ बीसवीं सदी के लदाख का निर्माण होता है। इस दृष्टि से पुस्तक का पुरोवाक् अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और इसी के सहारे बीसवीं सदी के लदाख को देखा जा सकता है।

सन् 1887 के पहले तक लदाख में आधुनिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। लदाख अंचल के लिए ईसाई मिशनरियों ने ‘मिल-हिल मिशन’ बनाया था। सन् 1888 में कैथोलिक धर्मप्रचारकों ने इसकी शुरुआत कर दी थी। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह इस स्थिति से अनजान नहीं थे। कश्मीर के बौद्ध आचार्यों की कर्मभूमि रहे लदाख परिक्षेत्र की सीधी-सादी-सरल जनता के हितों के लिए उनकी चिंता एक ओर गिलगित-स्करदो-बल्टिस्तान के अतीत के साथ जुड़ी थी, तो दूसरी तरफ ईसाई मिशनरियों के साथ आने वाले खतरे को लेकर भी थी। इस कारण उन्होंने ईसाई मिशनरियों को लदाख में आने की अनुमति नहीं दी। लाहुल-स्पीति (हिमाचलप्रदेश) को अपना संपर्क केंद्र बनाकर मिशनरी अपनी गतिविधियों को संचालित करते रहे और लदाख को अपने प्रभाव में लेने के लिए लगातार सक्रिय रहे। संभवतः ब्रिटिश शासकों के भारी दबाव के कारण सन् 1884 में मोरावियन मिशन का आगमन पहली बार लेह में हुआ। अस्पतालों और स्कूलों का संचालन करने के साथ ही कुछ लदाखी युवाओं को चर्च से जोड़कर समाज में पकड़ बनाने की कोशिशों को देखते हुए उस समय यह आवश्यक हो गया था, कि लदाख में ऐसी शिक्षा-व्यवस्था संचालित हो, जो आबादी के आँकड़ों को बड़े बदलाव से बचा सके, साथ ही अतीत की गलतियों के दुहराव को रोक सके।

इस कार्य के लिए श्रीधर कौल से उपयुक्त व्यक्ति कोई नहीं था। श्रीधर कौल शिक्षा के विकास और विस्तार में महाराजा हरि सिंह के न केवल सलाहकार थे, वरन् कश्मीर में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने वाले कर्मठ और समर्पित शिक्षाविद् भी थे। ऐसा उल्लेख मिलता है, कि ‘वीमेंस वेलफेयर ट्रस्ट’ की बैठकों में वे अकसर कहा करते थे, कि- “राज्य में एक इलाका अब भी अशिक्षा से जूझ रहा है।” उनका इशारा लदाख अंचल की ओर होता था। इन चिंताओं को ध्यान में रखकर ही महाराजा काश्मीर ने श्रीनगर में बौद्धसभा का गठन किया था। इसके संस्थापक पंडित श्रीधर कौल थे। इस सभा के अध्यक्ष पूज्य स्तगछङ रिनपोछे थे, और वकील पंडित शंभुनाथ धर थे। बौद्धसभा द्वारा एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसे ग्लांसी नामक अंग्रेज अधिकारी की अध्यक्षता में गठित ‘ग्लान्सी कमीशन’ को सौंपा गया था। इस कमीशन की गतिविधियों का उल्लेख लदाख के जाने-माने इतिहासकार-साहित्यकार टशी रबग्यस ने किया है। वे ‘मरयुल लदाख के इतिहास का सर्वप्रकाशकादर्श’ में लिखते हैं, कि- “लदाख के बौद्धों के साथ मित्रता रखने वाले सज्जन मित्र थे, जिन्होंने लदाख के लोगों के लिए उस समय अपना विशेष योगदान दिया, जब लदाख के लोग जागरूक नहीं थे।”

श्रीधर कौल संवेदनशील, कर्मठ और सहृदय व्यक्ति थे, फलतः सन् 1939 में उन्हें शिक्षा अधिकारी बनाकर लदाख भेजा गया। अनेक सुविधाओं से संपन्न आज के लदाख में भी जब किसी अधिकारी का स्थानांतरण होता है, तो उसकी तैनाती को किसी सजा से कम नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति में सन् 1939 के लदाख की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देने वाली होगी। श्रीनगर की हरी-भरी और तमाम सुख-सविधाओं से युक्त अपनी जन्मभूमि से निकलकर रूखे-सूखे और भयंकर ठंडे लदाख अंचल में कौल जी का आगमन होता है। वे इसे किसी सजा के तौर पर नहीं, बल्कि सौभाग्य के रूप में देखते हैं। शिक्षा के लिए जागरूकता उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। उस समय के लदाख में आवागमन के साधन नहीं के बराबर थे। लदाख का क्षेत्रफल भी आज से दुगुना था, क्योंकि उस समय गिलगित-बल्तिस्थान तक लदाख की सीमाएँ होती थीं। दुर्गम पहाड़ी रास्तों को उन्होंने पैदल चलकर, घोड़े पर सवार होकर तय किया और गाँव-गाँव में पहुँचकर लोगों को शिक्षा के लिए जागरूक किया।

लदाख के जाने-माने इतिहासकार और साहित्यकार अब्दुल ग़नी शेख बताते हैं, कि पंडित श्रीधर कौल को लोग एक शिक्षक के रूप में सम्मान देते थे, इस कारण वे लदाख अंचल में ‘मास्टरजी डुल्लू पंडित’ के रूप में जाने जाते थे। उनके अनथक प्रयासों से लदाख अंचल में कई स्कूलों की स्थापना हुई। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई। मास्टरजी प्रत्येक विद्यालय में पहुँचते थे, और शिक्षकों के विकास के लिए सुझाव देते थे। वे बच्चों को आधुनिक शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे, ताकि लदाख अंचल के युवा भी सरकारी तंत्र में शामिल हो सकें, अधिकारों के लिए जागरूक हो सकें और विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें।

श्रीधरजू कौल आर्यसमाज  जुड़े हुए थे। उनके प्रयासों से ही श्रीनगर के रैनाबाड़ी इलाके में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना सन् 1943 में हुई थी। इसके पहले उन्होंने आर्यसमाज की तर्ज पर ‘लदाख बुद्धिस्ट एजूकेशन सोसायटी’ की स्थापना में योगदान दिया था। इस संगठन के माध्यम से लदाख अंचल में शिक्षा के लिए जागरूकता के साथ ही बिगड़ते जनसंख्या संतुलन को सुधारने और अनेक प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं से निपटने के लिए संगठित होने का प्रयास शुरू हुआ था। बाद में यह संगठन ‘यंग मैन बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के रूप में जाना गया। एसोसिएशन के शायद पहले अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन थे। कारपो रिगजिन भी पंडित कौल की तरह समर्पित जनसेवक थे।

मास्टरजी डुल्लू पंडित के लिए नई चुनौती तब सामने आई, जब देश की आजादी निकट आ चुकी थी। सीमांत सुरक्षा की दृष्टि से लदाख की हालत अच्छी नहीं थी। सन् 1947 में देश की आजादी और फिर कश्मीर राज्य में तेजी से बदलती राजनीतिक स्थितियों के बीच डोगरा शासकों के अधीन आने वाला सारा भूभाग दिशाहीन हो चुका था। देश के विभाजन के साथ ही कबाइली आक्रमणकारियों ने गिलगित और स्करदो पर कब्जा कर लिया था। वहाँ की बौद्ध आबादी को विस्थापन और आतंक के कहर से जूझना पड़ रहा था। यही स्थितियाँ बल्तिस्तान से लगने वाली नुबरा घाटी में दुहराई जाने वाली थीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में लदाख के युवाओं को संगठित करके ‘नुबरा गार्ड्स’ नामक एक संगठन तैयार किया गया। इसमें बौद्ध युवाओं को जोड़ने का काम ‘यंग बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन ने किया। इसके पीछे पंडित डुल्लू कौल की प्रेरणा थी। वे स्वयं भी युवाओं को इसके लिए प्रेरित कर रहे थे, जागरूक कर रहे थे।

उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय हो जाने के बाद भी लदाख की सुरक्षा के लिए भारतीय फौजें नहीं पहुँच पाई थीं। भारतीय फौजों के लदाख पहुँचने, और लदाख की दुर्गम भौगोलिक स्थितियों के बीच उन्हें सुरक्षा-व्यवस्था मुस्तैद करने में काफी समय लगने वाला था। इसे देखते हुए कारपो छेवांग रिगजिन और पंडित कौल ने श्रीनगर प्रशासन से अनुरोध किया, कि ‘नुबरा गार्ड्स’ को धार्मिक संगठन के स्थान पर सैनिक संगठन का दर्जा दिया जाए, और युवाओं को प्रशिक्षित किया जाए। फलतः नुबरा गार्ड्स ने देश के उत्तरी छोर पर अपना मोर्चा सँभाला।

पंडित कौल ने सन् 1948 में लदाख की रक्षा के लिए एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे उन्होंने खुद पंडित नेहरू को सौंपा था। लेह-मनाली मार्ग को लदाख के आवागमन के लिए तैयार करने की जरूरत को जिस तरह मास्टरजी डुल्लू कौल ने तत्कालीन रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह और जनरल के.एम. करिअप्पा के सामने रखा था, उसे एक दूरदर्शी चिंतक की सक्रियता से कम नहीं कहा जा सकता। मास्टरजी के प्रयासों से गठित ‘नुबरा गार्ड्स’ को सन् 1963 में ‘लदाख स्काउट्स’ का नाम मिला और यह सेना की स्वतंत्र इकाई के रूप में आज भी सक्रिय है। इन ‘स्नो वारियर्स’, इन ‘स्नो टाइगर्स’ ने नुबरा घाटी से जुड़े बल्तिस्थान के इलाके में सन् 1947-48 में मचाए गए आतंक का बखूबी जवाब 13 दिसंबर, सन् 1971 को दिया था। उस समय अगर कुछ समय तक युद्ध-विराम की घोषणा नहीं होती, तो बल्तिस्थान के पाँच नहीं, पाँच सैकड़ा गाँव आज पाक अधिकृत कश्मीर में नहीं होते।

पंडित श्रीधर कौल का श्रीनगर के रैनाबाड़ी स्थित आवास उनके अपने घर से कहीं ज्यादा लदाख के लोगों के लिए घर जैसा था। इसी कारण उसे लदाख सराय ही कहा जाने लगा था। ऐसा बताया जाता है कि पंडित कौल ने डोलमा नाम की एक गरीब-अनाथ लदाखी बालिका को अपनी दत्तक पुत्री बनाया था। बाद में उन्होंने ही उसका विवाह कराया। श्रीनगर के रैनाबाड़ी में रहकर पढ़ने वाले तमाम लदाखी बालक-बालिकाओं के रहने-खाने का सारा व्यय मास्टरजी ही वहन करते थे। पंडित श्रीधर कौल की दूरदर्शी दृष्टि ने कुशोग बकुल रिनपोछे में जिस राजनीतिक नेतृत्वशक्ति को देखा था, कालांतर में वह उभरकर सामने आई। आज के लदाख के निर्माणकर्ता के व्यक्तित्व का बड़ा अंश श्रीधर कौल के सानिध्य में निर्मित हुआ।

सन् 1948 तक पंडित श्रीधर कौल लदाख में रहे। इसके बाद भी उनका लदाख से संबंध बना रहा। सन् 1952 में वे लदाख से चले गए, किंतु उनके अविस्मरणीय योगदान को, उनकी कर्तव्यनिष्ठा को, उनके महायान बौद्ध धर्म-दर्शन से लगाव को लदाख की जनता विस्मृत नहीं कर सकी। इसी कारण आजाद भारत में जब लदाख के विकास के लिए किसी मार्गदर्शक की जरूरत महसूस हुई, तो लदाख के लोगों ने श्रीघर कौल पर ही अपना भरोसा जताया। लदाखियों द्वारा सन् 1953 में एक ज्ञापन तत्कालीन मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को भेजा गया, जिसमें पंडित श्रीधर कौल को लदाख मामलों का विशेष सचिव नियुक्त किए जाने की माँग थी। लदाख के लोगों की यह माँग भले ही पूरी न हो सकी हो, किंतु इसने एक निष्काम सेवाव्रती के प्रति आस्थायुक्त जनभावनाओं को अभिव्यक्त कर दिया था।

सन् 1967 में पंडित श्रीधर कौल अपने रैनाबाड़ी स्थित आवास में चिरनिद्रालीन हो गए। लदाख अंचल को जम्मू और श्रीनगर के समान विकसित और सशक्त होते देखने की कामना करने वाले पंडित श्रीधर कौल की अमूल्य राष्ट्रसेवा विस्मृत नहीं की जा सकती। देश के उत्तरी छोर को एकता के सूत्र से बाँधकर रखने वाले, लदाख अंचल में शिक्षा की अलख जगाने वाले पंडित श्रीधर कौल डुल्लू का निष्काम सेवाभाव नींव के पत्थर की तरह है।

-राहुल मिश्र

(मासिक पत्रिका सीमा संघोष, अगस्त, 2021 अंक में प्रकाशित)