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Wednesday, 16 August 2023

ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह


 ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह

 

“गुरु जी! यह ऊँट मनाली नहीं जा सकता है। वहाँ ठंडक हो, तो बनी रहे। इसे जो खाने को चाहिए, वह तो मनाली में मिलेगा नहीं... यहाँ की जैसी ठंडक भी नहीं......। चार-पाँच साल पहले कुछ लोगों ने इस ऊँट की नस्ल को मनाली तक पहुँचाने की कोशिश की थी। इसके लिए वे ऊँटों के जोड़े लेकर गए, लेकिन मनाली पहुँचते ही ऊँट जिंदा नहीं रह पाए।”

इतना सुनने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था, कि आखिर वे लोग इस ऊँट को मनाली क्यों ले जाना चाहते थे? मैं भी इस प्रश्न को उसी तरह अपने अंदर रोक नहीं सका, जिस तरह आप नहीं रोक पा रहे थे, अभी एक क्षण पहले...। मैंने तुरंत ही अपना सवाल उनके सामने रख दिया।

वे बोले- “टूरिजम, टूरिज्म़ के ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में इन ऊँटों का बड़ा ‘रोल’ है।” उनके इस उत्तर ने मेरे सामने चित्र को बहुत-कुछ स्पष्ट कर दिया। पिछले दिन, जब हम दुनिया के सबसे ऊँचे रास्ते को खरदुंग-ला में पार कर रहे थे, तब वहाँ तमाम पर्यटक फोटो खिंचाने में व्यस्त थे। लेह से नुबरा घाटी की ओर जाने वाले रास्ते में खरदुंग-ला पड़ता है, जिसकी ऊँचाई समुद्रतल से लगभग 18,380 फीट है। लदाख आने वाले पर्यटकों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है। खरदुंग-ला की ‘कॉफ़ी शॉप’ से लगाकर शिव मंदिर तक तमाम पर्यटकों की चहल-पहल थी। कुछ खरदुंग की ऊँची चोटी पर चढ़कर फोटो खिंचा रहे थे, और कुछ चुपचाप बैठे प्रकृति के इस सौंदर्य का रसपान कर रहे थे। बातचीत से लग रहा था, कि उन पर्यटकों में बड़ी संख्या महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्से के लोगों की है। जिज्ञासावश किनारे बैठे एक मराठी पर्यटक से मैंने पूछा, कि- आपको यहाँ के पर्यटन में क्या देखना सबसे ज्यादा रोमांचित करता है। उसका जवाब था, कि पहले तो बर्फ और फिर दो कूबड़ वाले ऊँट की सवारी का रोमांच ही उसे यहाँ तक ले आया है। उस मराठी पर्यटक के उत्तर और आज की बातचीत के तालमेल को बिठाते हुए मेरे सामने स्पष्ट हो गया, कि मनाली में पर्यटकों को लदाख की ‘फीलिंग’ देते हुए कमाई करने के उद्देश्य से यारकंदी ऊँटों को यहाँ से ले जाने की कोशिशें की गई होंगी। इन्हीं का जिक्र नोरबू साहब मुझसे कर रहे थे।

सन् 2017 के अगस्त महीने में दूसरी बार मेरा नुबरा घाटी में जाना हुआ था। इससे पहले शायद 2011 में नुबरा जाना हुआ था। उस समय दो कूबड़ वाले ऊँटों के बारे में केवल सुना था, देखने का मौका नहीं मिल पाया था। इस बार पूरी तरह से तय कर लिया था, कि दो कूबड़ वाले ऊँटों के दर्शन जरूर करने हैं। खास तौर से इस कारण भी, कि देश और दुनिया के कोने-कोने से लोग तमाम जहमत उठाकर नुबरा घाटी आते हैं और हम लदाख में रहते हुए भी अगर लदाख की इस प्रसिद्धि से साक्षात्कार नहीं कर पाए, तो शायद समय भी हमें माफ नहीं कर पाएगा। यही जोश और जज्बा था, कि जिसके बूते हम यारकंदी ऊँटों के सामने खड़े थे। इनके बारे में बहुत-कुछ पढ़ा भी था, मगर यहाँ नोरबू साहब से जो जानकारी मिल रही थी, वह शायद अब तक किताबों या ‘विकीपीडिया’ जैसी ‘अंतर्जालिक’ तकनीकों में उपलब्ध नहीं हो पाई थी। मेरे विस्मित हो जाने का बड़ा कारण भी यही था। दरअसल नोरबू साहब के पास बीस यारकंदी उँट थे, जिनमें पर्यटकों को सैर कराने का व्यवसाय वे करते थे।मेरे एक शिष्य के पिता होने के नाते नोरबू साहब ने बड़ी आत्मीयता के साथ मुझसे मुलाकात की थी। मैं वहाँ पहुँचने वाला हूँ, यह सूचना मेरे शिष्य ने उन्हें दे रखी थी।

जब नोरबू साहब ने मुझे यारकंदी ऊँटों के बारे में बताना शुरू किया, तब अतीत की बातें परत-दर-परत ऐसी खुलती चली गईं, जिन्होंने विचारों को पंख दे दिए। नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खान-पान की आदतों से लगाकर उनके रहने के तौर-तरीकों तक के बारे में विस्तार से बताया। नोरबू साहब ने रेशम मार्ग, यानि ‘सिल्क रूट’ में यारकंदी ऊँटों के योगदान को भी इतने विस्तार से बताया, कि कालिदास और विद्योत्तमा के जीवन में ऊँट का योगदान भी बरबस ही मेरे विचारों में कौंध पड़ा। विद्वान आचार्यों ने विदुषी विद्योत्तमा को मजा चखाने के लिए बुद्धिहीन कालिदास के साथ धोखे से विवाह करा दिया। भला हो, ऊँटों का....., जो वे एक दिन विद्योत्तमा की हवेली के बाहर से गुजर पड़े और मूढ़ कालिदास उन्हें उट्र-उट्र कहकर चिल्लाने लगे। तब कहीं जाकर विद्योत्तमा को पता लगा, कि मेरे पतिदेव तो निहायत मूढ़-मगज हैं। तब क्या था, उपचार शुरू हो गया और इस तरह ‘उपमा कालिदासस्य’, अर्थात् अपनी विलक्षण-अद्बुत उपमाओं के लिए संस्कृत साहित्य के उज्ज्वल नक्षत्र के समान कालिदास का प्राकट्य हुआ।

विद्योत्तमा और कालिदास के जीवन को बदलने वाले ऊँट बेशक यारकंद वाले नहीं थे, मगर ऊँट किस तरह जीवन बदल देते हैं, अपनी करवट से ऊँट कैसे हालात बदल देते हैं, यह जरूर स्पष्ट था। यारकंदी ऊँटों ने भी अनेक लोगों के जीवन को बदला है। प्राचीनकाल ही नहीं मध्यकाल में, और फिर रेशम मार्ग से यातायात के बंद हो जाने के बाद आज के समय में ‘डेजर्ट सफ़ारी’ के रूप में यारकंदी ऊँटों के योगदान को देखा जा सकता है। चीन के रेशम से अपना नाम पाने वाला पूरा रेशम मार्ग लगभग दस हजार किलोमीटर का होगा, मगर आज रेशम मार्ग के उत्तरी छोर को ही प्रमुख रूप से जाना जाता है। उत्तरी रेशम मार्ग या ‘सिल्क रूट’ लगभग 6500 किलोमीटर लंबा था। इसका संबंध मुख्य रूप से हिमालय की कराकोरम श्रेणी से रहा है। यह चीन की प्राचीन राजधानी शिआन से पश्चिम की ओर चलते हुए टकलामकान रेगिस्तान से निकलकर मध्य एशिया के बैक्ट्रिया और पर्शिया राज्यों तक जाता था। इसके आगे का रास्ता बढ़कर ईरान और रोम तक पहुँचता था। टकलामकान, जैसा कि अपने नाम से ही स्पष्ट कर देता है, कि मध्य एशिया का ऐसा रेगिस्तान था, जो एकदम उजाड़ और डरावना था। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था, कि जो टकलामकान रेगिस्तान में घुस जाता है, वह बाहर नहीं आ पाता है। इसी डर के कारण रेशम मार्ग के व्यापारी इस रेगिस्तान को उत्तर या दक्षिण दिशा से पार किया करते थे। दोनों दिशाओं से आने वाले रास्ते काश्गर के नख़लिस्तान में मिलते थे, और फिर आगे कराकोरम श्रेणी की तरफ चल पड़ते थे। शायद इसी के कारण किसी गंजे व्यक्ति को टकला कहा जाना और किसी उजाड़-वीरान जगह पर अचानक रौनक बिखर जाने पर उसे नख़लिस्तान कहा जाना प्रचलन में आया होगा। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था; वरन् इसमें अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति, वैचारिकता भी अपनी यात्राएँ करती थीं। जिस तरह रेशम मार्ग के व्यापारी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अपने सामानों की अदला-बदली करके व्यापार को चलाते थे, उसी तरह सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी आदान-प्रदान के माध्यम से चलती रहती थीं।

टकलामकान के बर्फीले रेगिस्तान से लगाकर उसके आगे मध्य एशिया के सर्द-बर्फीले इलाकों के लिए यारकंदी ऊँटों से बेहतर सवारी कोई नहीं हो सकती थी। इसी कारण 6500 किलोमीटर के इस लंबे रास्ते के अतीत की चर्चा भी यारकंदी ऊँटों के बिना पूरी नहीं हो सकती है। यारकंद या बैक्ट्रिया में पाए जाने वाले दो कूबड़ वाले ऊँटों को क्षेत्र के हिसाब से यारकंदी या बैक्ट्रियन ऊँट कहा जाता है। ये थार के रेगिस्तान में मिलने वाले ऊँटों से कम लंबे होते हैं और इनके दो कूबड़ होते हैं। इस कारण इन्हें सामान्य रूप से दो कूबड़ वाले ऊँट के तौर पर जाना जाता है। इनके शरीर में बाल भी बहुत होते हैं, जो इन्हें भीषण सर्दी और बर्फीली हवाओं से बचाते हैं।

मेरे मन में तमाम विचार एकसाथ चल रहे थे। बर्फीले रेगिस्तान को अपनी पदचापों से जीतने के लिए मनुष्य ने कैसे इन यारकंदी ऊँटों को अपना हमसफ़र बना लिया, और इनकी पीठ पर लदकर वस्तुओं के साथ ही संस्कृति-विचार व जीवन के रंग-ढंग भी भूगोल की सीमाओं को कैसे तोड़ देते हैं, यह सोचना ही अपने आप में बहुत रोमांचकारी है। लदाख अंचल में नानवाई की दुकानें चलाने वाले यारकंदी व्यवसायियों के वंशजों को अपने पूर्वजों का वह सफ़र आज शायद ही याद होगा, जो कभी इन यारकंदी ऊँटों की पीठ पर बैठकर तय किया गया होगा। समोसा खाते समय शायद ही हमें याद आता होगा, कि आज भारत के सर्वाधिक प्रिय और देशव्यापी समोसा ने इन्हीं यारकंदी ऊँटों में बैठकर भारतवर्ष तक का सफ़र किया होगा। समोसे की दुकानें तो देश-भर में मिल जाएँगी, मगर नानवाई की दुकानें लदाख की अपनी निजी पहचान हैं। नानवाई तंदूर में रोटियाँ बनाते हैं, जिन्हें लदाखी में ‘तागी’ कहा जाता है। तंदूरी रोटी के रूप में होशियारपुर के व्यापारियों के साथ पंजाब, और फिर देश के दूसरे हिस्सों में पहुँचने वाली लदाखी ‘तागी’ भी यारकंद की सौगात है।

मेरे विचारों की कड़ियों में दखल देते हुए जब नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खानपान की आदतों के बारे में बताया, तो एकबारगी यह भी महसूस हुआ, कि यारकंदी ऊँटों से ज्यादा धैर्यवान और सहनशील जीव धरती पर खोजना बहुत कठिन है। जरा-से पानी या थोड़ी-सी बर्फ से अपने शरीर में जल का स्तर बनाए रखकर और कँटीली झाड़ियों को खाकर अपना पेट भर लेने वाले ऊँट मानव के लिए आत्मबलिदान ही तो करते रहे हैं.......शायद। उनकी पीठ पर चमड़े के बड़े-बड़े थैलों में भरा पानी, तंदूर में बनी नानवाई की रोटियों से भरे बंडल और रेगिस्तान के सफ़र में चटखारेदार भोजन की कमी को पूरा करने वाले समोसेनुमा व्यंजन से भरे पात्रों को लादकर रेशम मार्ग में चलने वाले ऊँटों के हिस्से में लेह बेरी जैसी कँटीली झाड़ियाँ ही आती रही होंगी।

यारकंदी ऊँट छः मन, यानि लगभग ढाई क्विंटल तक भार उठा सकते हैं। इनके लिए समतल रेगिस्तान में चलना तो आसान होता है, मगर घाटियों की चढ़ाई-उतराई और बर्फीली चट्टानों पर चलना कठिन होता है। नोरबू साहब के द्वारा दी गई इस जानकारी के बाद महसूस हुआ, कि रेशम मार्ग में पड़ने वाले लदाख के पनामिग गाँव से आगे तुरतुग-बोगदंग आदि बल्तिस्तानी गाँवों की तरफ चलने पर शयोग नदी के एक ओर कराकोरम और दूसरी ओर लदाख रेंज के पहाड़ों की दुर्गम ऊँचाइयों पर सिल्क रूट के ध्वंसावशेष पतली-सी लकीरों की तरह दिखाई पड़ते हैं। इनमें यातायात के अनुशासन को देखते हुए आने, और जाने के रास्ते भी बाकायदा अलग-अलग समझ में आते हैं। नोरबू साहब से ही पता लगा, कि याक, घोड़े और टट्टू ‘शटल’ सेवा की तरह सिल्क रूट में प्रयुक्त होते थे। हिमनदों और विकराल दर्रों को पार कराने में जहाँ याक विश्वसनीय होते थे, वहीं ऊँचाई पर चढ़ने और तेजी के साथ सामान की ढुलाई करने में घोड़ों और टट्टुओं का उपयोग किया जाता था। इस तरह अलग-अलग स्थानों पर किराए से इन भारवाहकों को उपलब्ध कराने वाले किरायाकशों की बस्तियाँ भी होती थीं।

नोरबू साहब ने बड़े गर्व के साथ बताया, कि सिल्क रूट में चलने वाले कारवाँ के कारण नुबरा घाटी गुलजार रहती थी। उन दिनों नुबरा घाटी लेह के आसपास के इलाकों से कहीं ज्यादा संपन्न थी। हमारे पुरखों के लिए समरकंद, बुखारा दुर्गम नहीं थे। पनामिग गाँव में उस समय मध्य एशियाई व्यापारियों के लिए बेहतर शरणगाह होती थी। यह एक तिराहा जैसा भी था, जहाँ से लेह के लिए संपर्क मार्ग बना हुआ था। हुंदर का राजमहल रेशम मार्ग के यातायात में नजर रखने के लिए बनवाया गया था। इसके भौगौलिक और सामरिक महत्त्व को देखते हुए कई आक्रमणकारियों ने इसे जीतने की कोशिश भी की। वे बताते हैं, कि नुबरा, यानि फूलों की घाटी सिल्क रूट में किसी नख़लिस्तान से कम नहीं थी। सिल्क रूट में व्यापार बंद हो जाने के बाद लंबे समय तक नुबरा घाटी उपेक्षित रही है।

वैसे उपेक्षा तो यारकंदी ऊँटों की भी हुई है। उनका स्वर्णिम अतीत, जो उन्हें सिल्क रूट के शहंशाह का खिताब दिलाता था, आज केवल किताबों में सिमट गया है। सन् 1870 में कुछ यारकंदी ऊँटों को लदाख के मुख्यालय लेह में पहुँचाया गया। पुराने समय में इनका उपयोग माल ढोने के लिए स्थानीय स्तर पर होता रहा, किंतु सड़कों के बन जाने और यातायात के साधनों के सुलभ हो जाने के बाद इनकी उपयोगिता नहीं रही। लेह से लगभग दस किलोमीटर दूर छुशोद नामक गाँव में एक ठिकाना यारकंदी ऊँटों के लिए बनवाया गया है। इस गाँव में अरगोन समूह के लोग भी रहते हैं, जिनका अपना अतीत सिल्क रूट व्यापार से जुड़ा रहा है। किराए पर भारवाहक पशुओं को उपलब्ध कराने और व्यापारियों को रास्ता दिखाने के अलावा ये व्यापार में भी थोड़ा-बहुत हाथ आजमा लेते थे। सिल्क रूट का व्यापार बंद हो जाने के बाद अरगोन और यारकंदी ऊँट, दोनों का जीवन बदल गया।

अपनी दो कूबड़ वाली पीठ पर मानव के जीवन को सैकड़ों वर्षों तक ढोने वाले यारकंदी ऊँटों के लिए अब शिआन से बैक्ट्रिया या वाह्लीक प्रांत का विशाल भूभाग, पामीर से हिंदुकुश या पारियात्र पर्वतश्रेणी तक की महान-पवित्र धरती अलग-अलग हिस्सों में बँट गई है। यहाँ के रहवासी अब यह भूल चुके हैं, कि वे कभी एक सूत्र से जुड़े हुए थे। रेशम मार्ग अब अतीत की रोचक पहेली की तरह आने वाली संततियों को शायद यह बता सकेगा, कि हिमालय में ऐसे कारवाँ भी कभी चलते रहे हैं, जिन्होंने आज के दर्जनों देशों तक व्यापारिक वस्तुएँ ही नहीं पहुँचाई हैं; वरन् संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन और वैचारिकता के ऐसे आदान-प्रदान भी किए हैं, जिनके कारण ‘वसुधैव-कुटुंबकम्’ के भाव सही अर्थों में स्थापित हुए। इन सबके पीछे केवल मानव रहा, यह कहना नितांत अतार्किक होगा। इसके लिए यारकंदी ऊँटों के प्रति कृतज्ञता का भाव उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार चेतक और बेंदुला के लिए होता है।

नोरबू साहब अब भी यारकंदी ऊँटों की ढेरों बातें बताते जा रहे थे। घड़ी की सुई दोपहर का एक बज गया है, ऐसा बता रही थी। नोरबू साहब के कथनानुसार अब ऊँटों के लंच का समय हो गया था। सामान्य-से कर्मचारियों की तरह ऊँटों को भी दो घंटे की छुट्टी मिली थी, पर्यटकों को मौज-मस्ती कराने के काम से। उनकी पीठ पर पड़ी झूलों को उतारा जा रहा था। उनकी नकेल को आजाद किया जा रहा था। अभ्यस्त दिनचर्या के अनुरूप सभी चल रहे थे। मेरे सामने यारकंदी ऊँटों की तीन पीढ़ियाँ थीं। इनमें बुजुर्गों से लगाकर युवाओं तक, और बच्चों की तरह उछल-कूद करते, अपनी ‘ड्यूटी’ से अनजान उष्ट्र शावकों में से किसी को भी यह अहसास नहीं होगा, कि एक जमाने में यहाँ उनके पुरखों की तूती बोलती थी। एक जमाने में वे सिल्क रूट के शहंशाह हुआ करते थे। यह अहसास तो उन पर्यटकों को भी नहीं होगा, जो दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी करने की उत्कट अभिलाषा लिए वहाँ पर मौजूद थे, और ‘शहंशाहों’ के अपनी नौकरी पर वापस लौटने का इंतजार कर रहे थे।

-राहुल मिश्र


(साहित्य संस्कार, त्रैमासिकी, जबलपुर के प्रवेशांक, जनवरी, 2019 में प्रकाशित)


Saturday, 6 May 2023

पिघलती हिमानियाँ, दरकता हिमालय...

 


पिघलती हिमानियाँ, दरकता हिमालय...

हिमालय, यानि हिम का आलय....। हिम का, बर्फ का घर हिमालय अपनी उज्ज्वल-धवल आभा के साथ भारतमाता के मुकुट के रूप में सुशोभित होता है। हिमालय का अस्तित्व ही हिम के कारण है, तभी हिमालय है। भारत की उत्तरी सीमा में स्वाभाविक रक्षा-कवच बनाता हिमालय वर्ष पर्यंत अपनी हिमानियों से, हिमनदों से, ग्लेशियरों से आच्छादित रहता है, बर्फ से चमकता रहता है। ये हिमानियाँ न केवल हिमालय के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, वरन् भारत सहित अन्य एशियाई देशों के लिए जीवनधारा हैं।

भारत के मैदानी क्षेत्रों को सींचने वाली, जल की आपूर्ति देने वाली नदियाँ हिमालय के हिमनदों (हिमानियों) के कारण ही जीवन पाती हैं, जल से भरी रहती हैं। हिमालय की नदियाँ हमेशा किलोल करती हुई जलराशि को प्रवाहित करती रहती हैं। गंगा, सतलुज, रावी, ब्रह्मपुत्र, सिंधु आदि नदियों-नदों को जीवन देने वाले हिमनद ही हैं। कल्पना करें, कि इन नद-नदियों में जल का स्तर गिरता जाए, और एक दिन ये सूख जाएँ, तो क्या होगा? यह यक्ष-प्रश्न अपनी विकरालता के साथ आज केवल कल्पना में है, लेकिन जिस प्रकार की संभावनाएँ वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद सामने आ रहीं हैं, वे इस यक्ष-प्रश्न को कल्पना की परिधि में बंद रह जाने की बात नहीं कर रहीं, वरन् सामने ही आ जाने वाली दिखाई देती हैं।

विगत वर्ष अप्रैल माह में ही भारत की संसद में पृथ्वी विज्ञान राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. जितेंद्र सिंह ने एक प्रश्न के उत्तर में बताया था, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में हिमानियों के पिघलने का क्रम अनवरत जारी है। प्रतिवर्ष औसतन 9 से 12 मीटर तक हिमनद पिघल रहे हैं। हिमनदों में मौसम के अनुसार पिघलने और हिम एकत्रित करने का क्रम चलता रहता है, लेकिन हिमनदों के बड़ी मात्रा में पिघलने का क्रम अच्छे संकेत नहीं देता है।

हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र, पर्यावरण, जलवायु असंतुलन, जलवायु परिवर्तन और ऐसे ही विविध क्षेत्रों में अध्ययन हेतु भारत सरकार की विभिन्न संस्थाएँ कार्य करती हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, भारतीय विज्ञान संस्थान के साथ ही काश्मीर विश्वविद्यालय और सिक्किम विश्वविद्यालय समेत हिमालयी परिक्षेत्र में स्थित विभिन्न विश्वविद्यालयों के पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से संबद्ध विभागों के द्वारा हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु परिवर्तन पर व्यापक अध्ययन किए जाते रहे हैं। भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और साथ ही पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के प्रयासों से समग्र हिमालयी परिक्षेत्र के अध्ययन को व्यापक आयाम दिया गया है। भारत सरकार की जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता ही है, कि पर्यावरण और वन मंत्रालय में जलवायु परिवर्तन को भी जोड़ा गया है।

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान पूरे हिमालय में कैचमेंट और बेसिन के स्तर पर हिमनदों के पिघलने से कम होने वाली बर्फ के मूल्यांकन और अध्ययन के लिए सतत सक्रिय है। इसी तरह उत्तराखंड और लद्दाख के विभिन्न क्षेत्रों में हिमनदों की स्थिति के अध्ययन हेतु अलग-अलग संस्थाएँ व विभिन्न वैज्ञानिक शोध कार्यों में लगे हुए हैं। भले ही इनके अध्ययन का क्षेत्र हिमानियों के पिघलने से जुड़ा हुआ हो, लेकिन इन अध्ययनों के साथ अनेक चौंकाने वाले आँकड़े भी सामने आ रहे हैं।

देहरादून स्थित वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. राकेश भाम्बरी ने गंगोत्री हिमानी के गिरते स्तर का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के हवाले से ही वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान द्वारा जारी की गई रिपोर्ट चौंका देने वाली है। गंगोत्री का ग्लेशियर सन् 1935 से लेकर सन् 2022 तक लगभग 88 वर्षों के अंतराल में 1700 मीटर मुहाने में पिघल चुका है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है, कि वर्ष 1996 तक प्रतिवर्ष लगभग 20 मीटर और उसके बाद के वर्षों में प्रतिवर्ष लगभग 38 मीटर की गति से गंगोत्री हिमनद का मुहाना पिघलता है। इस तरह लगभग 88 वर्षों में 1.75 किलोमीटर गंगोत्री हिमनद पिघल चुका है। गंगोत्री हिमनद की लंबाई लगभग 30 किलोमीटर थी, जो क्रमशः कम होती जा रही है।

हिमालय भारत का ही नहीं, विश्व का सबसे बड़ा ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सर्वाधिक संख्या में हिमनद हैं। अर्थात् हिमालय विश्व के समग्र हिमक्षेत्र का बड़ा हिस्सा है। हिमालय के पास बर्फ प्रचुर मात्रा में है। अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद हिमालय विश्व में हिम का तीसरा बड़ा क्षेत्र है। इसी कारण हिमालय को प्रायः तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। एशिया में हिमालय सर्वाधिक जलसिंचित क्षेत्र निर्मित करता है। भारतीय क्षेत्र में आने वाले हिमालय में लगभग 9580 हिमानियाँ हैं। यदि उत्तराखंड के क्षेत्र को देखें, तो यहाँ लगभग 970 छोटी-बड़ी हिमानियाँ हैं। पूर्वोत्तर के हिमालय में भी हिमानियों की कम संख्या नहीं है। लद्दाख और सियाचिन का क्षेत्र हिमानियों से भरा है। सियाचिन हिमनद अपनी विशिष्ट राजनीतिक-सीमाक्षेत्रीय स्थिति के कारण विश्व में चर्चित रहता है, साथ ही वर्ष-पर्यंत सुर्खियों में भी रहता है। समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में सैकड़ों की संख्या में हिमनद हैं, जिन पर अपने अस्तित्व के सिमट जाने का संकट है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी चेतावनी दी है, कि धरती के 10 प्रतिशत हिस्से में हिमनद हैं, और ये सभी ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेजी से पिघल रहे हैं। अंटार्कटिका में प्रतिवर्ष 1500 करोड़ टन बर्फ पिघल जाती है। ग्रीनलैंड में प्रतिवर्ष 2700 करोड़ टन बर्फ पिघल रही है। हिमालय में भी यही स्थिति है, जिस कारण वर्ष 2050 तक 170 से 200 करोड़ नागरिकों को पानी मिलना बहुत कम हो जाएगा। सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र का जल स्तर बहुत कम हो जाएगा। चिंता की बात यह भी है, कि यदि तेजी के साथ ग्लेशियर पिघलते हैं, तो चीन और पाकिस्तान में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा।

भारत के विभिन्न अध्ययन केंद्रों, संस्थानों और वैज्ञानिकों के अध्ययन से प्राप्त जानकारी के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ की चिंता पिघलती हिमानियों के संदर्भ में आँखें खोल देने वाली है। ऐसी स्थिति के पीछे बड़ा कारक ग्लोबल वार्मिंग को माना जाता है। इसके अलावा कुछ ऐसे भी पक्ष हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। वैश्विक स्तर पर बात करने की यहाँ आवश्यकता और प्रासंगिकता नहीं दिखती है। हिमालयी परिक्षेत्र में इस स्थिति की भयावहता का अनुमान लगाते हुए कारणों पर चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक होगा।

इसमें पहला कारण हिमालयी परिक्षेत्र में बढ़ती अंधाधुंध आधुनिकता और भौतिकता है। उत्तराखंड के जोशी मठ का हाल हमारे सामने है। पुराने समय में ऐसी मान्यता थी, कि हिमालय का बदरी-केदार क्षेत्र धर्म-अध्यात्म में संलग्न होकर, और सांसारिकता से मुक्त होकर एकांतिक साधना के लिए है। यहाँ जाने वाले तीर्थयात्री प्रायः अपने घर से अंतिम विदा ही लेकर जाते थे, पता नहीं ही लौट कर आ सकें या नहीं...। समय और स्थितियों ने संसाधनों की वृद्धि की...। आज इन क्षेत्रों में पहुँचना बहुत सुगम हुआ है। सामयिक आवश्यकता के अनुरूप यह किया जाना कुछ सीमा तक उचित लगता है, लेकिन इन स्थानों में पहुँचने वाले लोगों ने अपना कार्य और व्यवहार से ऐसा सिद्ध कर दिया है, कि उनके लिए ये क्षेत्र साधना-तपश्चर्या के लिए नहीं, वरन् मौज-मस्ती, पर्यटन और सैर-सपाटा के लिए हैं। इसी कारण इन क्षेत्रों में प्रदूषण बढ़ा है, प्लास्टिक सहित अनेक प्रकार का कचरा बढ़ा है, सुख देने वाले संसाधनों के कारण पर्यावरण पर संतुलन बनाने का दबाव बढ़ा है।

लोगों की मानसिकता को भाँपते हुए व्यावसायिक गतिविधियाँ भी तेज हुई हैं। बड़ी कंपनियों और होटल उद्योगों ने इन क्षेत्रों को मनोरंजन के लिए अनुकूल बना दिया है। भले ही लोग धार्मिक आस्था से स्वयं को विलग नहीं करते, लेकिन इस क्षेत्र की मर्यादा को भी वे समझ नहीं पाते। ये साधना की भूमि शरीर को सुख देकर पाई जाने वाली नहीं है।

दूसरी ओर देखें, तो चीन ने कैलास मनसरोवर को पर्यटन और मौज-मस्ती का ठिकाना बना दिया है। तिब्बत को साधना की भूमि के रूप में जाना जाता है, लेकिन वहाँ भी बहुत तेजी के साथ आधुनिकीकरण हुआ है। भारतीय सीमा तक पहुँच चुके चीन की गतिविधियों का यदि सामरिक और भारतीय सीमंतप्रदेशीय स्थितियों के संदर्भ में आकलन किया जाए, तो उसमें यह एक बड़ा पक्ष यह भी है, कि चीन के द्वारा कब्जे में ली गई लगभग डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर भारतीय भूमि में चीन की सैन्य गतिविधियों और विभिन्न निर्माण-कार्यों, सैन्य सामग्रियों और वाहनों आदि के कारण पैदा किए गए प्रदूषण के साथ ही घुसपैठ व अन्य सैन्य कार्यवाहियों के कारण बड़े पैमाने में पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हुआ है। हाल ही में गालवान के संघर्ष के कारण हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र में विपरीत प्रभाव पड़ा होगा, इस बात को स्वीकार करना ही होगा।

भारत की नीति सीमांतक्षेत्र में सदैव रक्षात्मक रही है। हम विस्तारवादी कभी नहीं रहे। केवल अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए ही हमारी सेनाएँ सैन्य कार्यवाहियाँ करती रहीं हैं। लेकिन सैन्य कार्यवाहियों के लिए उकसाने, सीमावर्ती क्षेत्र में अशांति और अस्थिता उत्पन्न करने, विस्तारवादी नीति के तहत सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए शांति को अशांति में बदलने का प्रयास हमारे पड़ोसी देशों के द्वारा होता रहा है, वर्तमान में भी इसे देखा जा सकता है। ऐसी दशा में भारत की उत्तरी सीमा, हिमालय के प्रशांत क्षेत्र, हिमानियाँ, कलकल करती नदियाँ, सुंदर-सुरम्य वादियाँ आतंक और अस्थिरता के साथ ही पर्यावरण के विकृत हो जाने की समस्या से ग्रस्त हो जाती हैं। यदि भारत की उत्तरी सीमा में शांति हो जाए, तो सैन्य गतिविधियों के कारण होने वाले प्रदूषण से हिमालयी परिक्षेत्र बच सकता है। पिघलती हिमानियों को पिघलने से रोका जा सकता है।

तीसरा बड़ा कारण हिमालय में पर्यटन और अंधाधुंध विकास के साथ आने वाला प्रदूषण और पारिस्थितिकी अंतुलन का है। उत्तराखंड. हिमाचलप्रदेश, लद्दाख और जम्मू-काश्मीर तक ऊपरी हिमालयी क्षेत्र के साथ ही निचले हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध विकास की उस तस्वीर को देख सकते हैं, जो रहन-सहन के स्तर पर भले ही अच्छे आँकड़े दिखा दे, लेकिन हिमालय के स्वास्थ्य के लिए किसी भी तरह से अच्छी नहीं है। सीमेंट-कंक्रीट के बने बहुमंजिला भवन, पेट्रोल-डीजल चालित गाड़ियों की बढ़ती संख्या, आधुनिकता के साथ ही सुखभोगी विविध संसाधनों की अधिकता का असर पर्यावरण के विभिन्न कारकों को प्रभावित करता है। पर्यटन के साथ आने वाली विकृतियाँ भी कमोबेश ऐसी ही होती हैं। इन सबका प्रभाव समग्र हिमालयी परिक्षेत्र में देखा जा सकता है।

वैश्विक स्तर पर बढ़ते ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) की समस्या भले ही हिमानियों के पिघलने का बड़ा कारण हो, लेकिन सीमा पर असुरक्षा-अस्थिरता, बढ़ती आधुनिकता-भौतिकता, आधुनिक भौतिकतापूर्ण-सुविधाभोगी जीवन-पद्धति, पर्यटन और आधुनिक संसाधनों की वृद्धि जैसे कारकों से दरकते हिमालय को भी देखना चाहिए। हिमानियाँ और हिमालय एक-दूसरे के पूरक हैं। इनका सह-अस्तित्व ही भारत के लिए, एशिया के लिए, और साथ ही विश्व के लिए सुखद है, जीवनीय है, और सुंदर भी है। हिमानियों-हिमनदों से रिक्त हिमालय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

(सीमा संघोष, नई दिल्ली के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित)