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Saturday, 6 May 2023

पिघलती हिमानियाँ, दरकता हिमालय...

 


पिघलती हिमानियाँ, दरकता हिमालय...

हिमालय, यानि हिम का आलय....। हिम का, बर्फ का घर हिमालय अपनी उज्ज्वल-धवल आभा के साथ भारतमाता के मुकुट के रूप में सुशोभित होता है। हिमालय का अस्तित्व ही हिम के कारण है, तभी हिमालय है। भारत की उत्तरी सीमा में स्वाभाविक रक्षा-कवच बनाता हिमालय वर्ष पर्यंत अपनी हिमानियों से, हिमनदों से, ग्लेशियरों से आच्छादित रहता है, बर्फ से चमकता रहता है। ये हिमानियाँ न केवल हिमालय के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, वरन् भारत सहित अन्य एशियाई देशों के लिए जीवनधारा हैं।

भारत के मैदानी क्षेत्रों को सींचने वाली, जल की आपूर्ति देने वाली नदियाँ हिमालय के हिमनदों (हिमानियों) के कारण ही जीवन पाती हैं, जल से भरी रहती हैं। हिमालय की नदियाँ हमेशा किलोल करती हुई जलराशि को प्रवाहित करती रहती हैं। गंगा, सतलुज, रावी, ब्रह्मपुत्र, सिंधु आदि नदियों-नदों को जीवन देने वाले हिमनद ही हैं। कल्पना करें, कि इन नद-नदियों में जल का स्तर गिरता जाए, और एक दिन ये सूख जाएँ, तो क्या होगा? यह यक्ष-प्रश्न अपनी विकरालता के साथ आज केवल कल्पना में है, लेकिन जिस प्रकार की संभावनाएँ वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद सामने आ रहीं हैं, वे इस यक्ष-प्रश्न को कल्पना की परिधि में बंद रह जाने की बात नहीं कर रहीं, वरन् सामने ही आ जाने वाली दिखाई देती हैं।

विगत वर्ष अप्रैल माह में ही भारत की संसद में पृथ्वी विज्ञान राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. जितेंद्र सिंह ने एक प्रश्न के उत्तर में बताया था, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में हिमानियों के पिघलने का क्रम अनवरत जारी है। प्रतिवर्ष औसतन 9 से 12 मीटर तक हिमनद पिघल रहे हैं। हिमनदों में मौसम के अनुसार पिघलने और हिम एकत्रित करने का क्रम चलता रहता है, लेकिन हिमनदों के बड़ी मात्रा में पिघलने का क्रम अच्छे संकेत नहीं देता है।

हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र, पर्यावरण, जलवायु असंतुलन, जलवायु परिवर्तन और ऐसे ही विविध क्षेत्रों में अध्ययन हेतु भारत सरकार की विभिन्न संस्थाएँ कार्य करती हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, भारतीय विज्ञान संस्थान के साथ ही काश्मीर विश्वविद्यालय और सिक्किम विश्वविद्यालय समेत हिमालयी परिक्षेत्र में स्थित विभिन्न विश्वविद्यालयों के पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से संबद्ध विभागों के द्वारा हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु परिवर्तन पर व्यापक अध्ययन किए जाते रहे हैं। भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और साथ ही पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के प्रयासों से समग्र हिमालयी परिक्षेत्र के अध्ययन को व्यापक आयाम दिया गया है। भारत सरकार की जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता ही है, कि पर्यावरण और वन मंत्रालय में जलवायु परिवर्तन को भी जोड़ा गया है।

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान पूरे हिमालय में कैचमेंट और बेसिन के स्तर पर हिमनदों के पिघलने से कम होने वाली बर्फ के मूल्यांकन और अध्ययन के लिए सतत सक्रिय है। इसी तरह उत्तराखंड और लद्दाख के विभिन्न क्षेत्रों में हिमनदों की स्थिति के अध्ययन हेतु अलग-अलग संस्थाएँ व विभिन्न वैज्ञानिक शोध कार्यों में लगे हुए हैं। भले ही इनके अध्ययन का क्षेत्र हिमानियों के पिघलने से जुड़ा हुआ हो, लेकिन इन अध्ययनों के साथ अनेक चौंकाने वाले आँकड़े भी सामने आ रहे हैं।

देहरादून स्थित वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. राकेश भाम्बरी ने गंगोत्री हिमानी के गिरते स्तर का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के हवाले से ही वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान द्वारा जारी की गई रिपोर्ट चौंका देने वाली है। गंगोत्री का ग्लेशियर सन् 1935 से लेकर सन् 2022 तक लगभग 88 वर्षों के अंतराल में 1700 मीटर मुहाने में पिघल चुका है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है, कि वर्ष 1996 तक प्रतिवर्ष लगभग 20 मीटर और उसके बाद के वर्षों में प्रतिवर्ष लगभग 38 मीटर की गति से गंगोत्री हिमनद का मुहाना पिघलता है। इस तरह लगभग 88 वर्षों में 1.75 किलोमीटर गंगोत्री हिमनद पिघल चुका है। गंगोत्री हिमनद की लंबाई लगभग 30 किलोमीटर थी, जो क्रमशः कम होती जा रही है।

हिमालय भारत का ही नहीं, विश्व का सबसे बड़ा ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सर्वाधिक संख्या में हिमनद हैं। अर्थात् हिमालय विश्व के समग्र हिमक्षेत्र का बड़ा हिस्सा है। हिमालय के पास बर्फ प्रचुर मात्रा में है। अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद हिमालय विश्व में हिम का तीसरा बड़ा क्षेत्र है। इसी कारण हिमालय को प्रायः तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। एशिया में हिमालय सर्वाधिक जलसिंचित क्षेत्र निर्मित करता है। भारतीय क्षेत्र में आने वाले हिमालय में लगभग 9580 हिमानियाँ हैं। यदि उत्तराखंड के क्षेत्र को देखें, तो यहाँ लगभग 970 छोटी-बड़ी हिमानियाँ हैं। पूर्वोत्तर के हिमालय में भी हिमानियों की कम संख्या नहीं है। लद्दाख और सियाचिन का क्षेत्र हिमानियों से भरा है। सियाचिन हिमनद अपनी विशिष्ट राजनीतिक-सीमाक्षेत्रीय स्थिति के कारण विश्व में चर्चित रहता है, साथ ही वर्ष-पर्यंत सुर्खियों में भी रहता है। समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में सैकड़ों की संख्या में हिमनद हैं, जिन पर अपने अस्तित्व के सिमट जाने का संकट है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी चेतावनी दी है, कि धरती के 10 प्रतिशत हिस्से में हिमनद हैं, और ये सभी ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेजी से पिघल रहे हैं। अंटार्कटिका में प्रतिवर्ष 1500 करोड़ टन बर्फ पिघल जाती है। ग्रीनलैंड में प्रतिवर्ष 2700 करोड़ टन बर्फ पिघल रही है। हिमालय में भी यही स्थिति है, जिस कारण वर्ष 2050 तक 170 से 200 करोड़ नागरिकों को पानी मिलना बहुत कम हो जाएगा। सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र का जल स्तर बहुत कम हो जाएगा। चिंता की बात यह भी है, कि यदि तेजी के साथ ग्लेशियर पिघलते हैं, तो चीन और पाकिस्तान में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा।

भारत के विभिन्न अध्ययन केंद्रों, संस्थानों और वैज्ञानिकों के अध्ययन से प्राप्त जानकारी के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ की चिंता पिघलती हिमानियों के संदर्भ में आँखें खोल देने वाली है। ऐसी स्थिति के पीछे बड़ा कारक ग्लोबल वार्मिंग को माना जाता है। इसके अलावा कुछ ऐसे भी पक्ष हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। वैश्विक स्तर पर बात करने की यहाँ आवश्यकता और प्रासंगिकता नहीं दिखती है। हिमालयी परिक्षेत्र में इस स्थिति की भयावहता का अनुमान लगाते हुए कारणों पर चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक होगा।

इसमें पहला कारण हिमालयी परिक्षेत्र में बढ़ती अंधाधुंध आधुनिकता और भौतिकता है। उत्तराखंड के जोशी मठ का हाल हमारे सामने है। पुराने समय में ऐसी मान्यता थी, कि हिमालय का बदरी-केदार क्षेत्र धर्म-अध्यात्म में संलग्न होकर, और सांसारिकता से मुक्त होकर एकांतिक साधना के लिए है। यहाँ जाने वाले तीर्थयात्री प्रायः अपने घर से अंतिम विदा ही लेकर जाते थे, पता नहीं ही लौट कर आ सकें या नहीं...। समय और स्थितियों ने संसाधनों की वृद्धि की...। आज इन क्षेत्रों में पहुँचना बहुत सुगम हुआ है। सामयिक आवश्यकता के अनुरूप यह किया जाना कुछ सीमा तक उचित लगता है, लेकिन इन स्थानों में पहुँचने वाले लोगों ने अपना कार्य और व्यवहार से ऐसा सिद्ध कर दिया है, कि उनके लिए ये क्षेत्र साधना-तपश्चर्या के लिए नहीं, वरन् मौज-मस्ती, पर्यटन और सैर-सपाटा के लिए हैं। इसी कारण इन क्षेत्रों में प्रदूषण बढ़ा है, प्लास्टिक सहित अनेक प्रकार का कचरा बढ़ा है, सुख देने वाले संसाधनों के कारण पर्यावरण पर संतुलन बनाने का दबाव बढ़ा है।

लोगों की मानसिकता को भाँपते हुए व्यावसायिक गतिविधियाँ भी तेज हुई हैं। बड़ी कंपनियों और होटल उद्योगों ने इन क्षेत्रों को मनोरंजन के लिए अनुकूल बना दिया है। भले ही लोग धार्मिक आस्था से स्वयं को विलग नहीं करते, लेकिन इस क्षेत्र की मर्यादा को भी वे समझ नहीं पाते। ये साधना की भूमि शरीर को सुख देकर पाई जाने वाली नहीं है।

दूसरी ओर देखें, तो चीन ने कैलास मनसरोवर को पर्यटन और मौज-मस्ती का ठिकाना बना दिया है। तिब्बत को साधना की भूमि के रूप में जाना जाता है, लेकिन वहाँ भी बहुत तेजी के साथ आधुनिकीकरण हुआ है। भारतीय सीमा तक पहुँच चुके चीन की गतिविधियों का यदि सामरिक और भारतीय सीमंतप्रदेशीय स्थितियों के संदर्भ में आकलन किया जाए, तो उसमें यह एक बड़ा पक्ष यह भी है, कि चीन के द्वारा कब्जे में ली गई लगभग डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर भारतीय भूमि में चीन की सैन्य गतिविधियों और विभिन्न निर्माण-कार्यों, सैन्य सामग्रियों और वाहनों आदि के कारण पैदा किए गए प्रदूषण के साथ ही घुसपैठ व अन्य सैन्य कार्यवाहियों के कारण बड़े पैमाने में पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हुआ है। हाल ही में गालवान के संघर्ष के कारण हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र में विपरीत प्रभाव पड़ा होगा, इस बात को स्वीकार करना ही होगा।

भारत की नीति सीमांतक्षेत्र में सदैव रक्षात्मक रही है। हम विस्तारवादी कभी नहीं रहे। केवल अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए ही हमारी सेनाएँ सैन्य कार्यवाहियाँ करती रहीं हैं। लेकिन सैन्य कार्यवाहियों के लिए उकसाने, सीमावर्ती क्षेत्र में अशांति और अस्थिता उत्पन्न करने, विस्तारवादी नीति के तहत सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए शांति को अशांति में बदलने का प्रयास हमारे पड़ोसी देशों के द्वारा होता रहा है, वर्तमान में भी इसे देखा जा सकता है। ऐसी दशा में भारत की उत्तरी सीमा, हिमालय के प्रशांत क्षेत्र, हिमानियाँ, कलकल करती नदियाँ, सुंदर-सुरम्य वादियाँ आतंक और अस्थिरता के साथ ही पर्यावरण के विकृत हो जाने की समस्या से ग्रस्त हो जाती हैं। यदि भारत की उत्तरी सीमा में शांति हो जाए, तो सैन्य गतिविधियों के कारण होने वाले प्रदूषण से हिमालयी परिक्षेत्र बच सकता है। पिघलती हिमानियों को पिघलने से रोका जा सकता है।

तीसरा बड़ा कारण हिमालय में पर्यटन और अंधाधुंध विकास के साथ आने वाला प्रदूषण और पारिस्थितिकी अंतुलन का है। उत्तराखंड. हिमाचलप्रदेश, लद्दाख और जम्मू-काश्मीर तक ऊपरी हिमालयी क्षेत्र के साथ ही निचले हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध विकास की उस तस्वीर को देख सकते हैं, जो रहन-सहन के स्तर पर भले ही अच्छे आँकड़े दिखा दे, लेकिन हिमालय के स्वास्थ्य के लिए किसी भी तरह से अच्छी नहीं है। सीमेंट-कंक्रीट के बने बहुमंजिला भवन, पेट्रोल-डीजल चालित गाड़ियों की बढ़ती संख्या, आधुनिकता के साथ ही सुखभोगी विविध संसाधनों की अधिकता का असर पर्यावरण के विभिन्न कारकों को प्रभावित करता है। पर्यटन के साथ आने वाली विकृतियाँ भी कमोबेश ऐसी ही होती हैं। इन सबका प्रभाव समग्र हिमालयी परिक्षेत्र में देखा जा सकता है।

वैश्विक स्तर पर बढ़ते ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) की समस्या भले ही हिमानियों के पिघलने का बड़ा कारण हो, लेकिन सीमा पर असुरक्षा-अस्थिरता, बढ़ती आधुनिकता-भौतिकता, आधुनिक भौतिकतापूर्ण-सुविधाभोगी जीवन-पद्धति, पर्यटन और आधुनिक संसाधनों की वृद्धि जैसे कारकों से दरकते हिमालय को भी देखना चाहिए। हिमानियाँ और हिमालय एक-दूसरे के पूरक हैं। इनका सह-अस्तित्व ही भारत के लिए, एशिया के लिए, और साथ ही विश्व के लिए सुखद है, जीवनीय है, और सुंदर भी है। हिमानियों-हिमनदों से रिक्त हिमालय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

(सीमा संघोष, नई दिल्ली के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित)