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Thursday, 2 May 2024

अमृत महोत्सव से अमृत काल की यात्रा...

 अमृत महोत्सव से अमृत काल की यात्रा...

वैसे तो प्रत्येक भारतवासी के लिए, भारवंशियों के लिए स्वतंत्रता दिवस असीमित गर्व और उल्लास का दिन होता है, फिर भी वर्ष 2023 का स्वतंत्रता दिवस अनेक अर्थों में अपना विशेष महत्त्व रखता है। भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में इसे न केवल देखा जा सकता है, वरन् अनुभूत भी किया जा सकता है। हमने दो वर्ष पूर्व अपनी स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ण किए थे। इस अवसर पर भारत के माननीय प्रधानमंत्री मोदी ने अमृत महोत्सव की घोषणा की थी। स्वतंत्रता का यह अमृत महोत्सव वर्ष पर्यंत चलना था, अर्थात् 15 अगस्त, 2022 को अमृत महोत्सव को पूर्ण होना था। लेकिन भारतीयों के अतुलनीय उत्साह और देशभक्ति के भाव ने यह संदेश दिया, कि इस महोत्सव को एक वर्ष की सीमा से आगे बढ़ाकर ले जाना चाहिए।

कहना न होगा कि स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में देश भर में अनेक कार्यक्रम आयोजित किए गए। भारत अमृत महोत्सव में आसेतु हिमालय ऐसा उत्साह जन-जन में दिखा, जिसको शब्दों के माध्यम से बाँधकर व्यक्त कर पाना कठिन है। यह भावना का विषय था, यह देश के प्रति अपने भावों को अभिव्यक्त करने का संदर्भ था, यह स्वातंत्र्य समर में अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले अनेकानेक भारतीयों की स्मृतियों को सँजोने और साझा करने का उपक्रम था। भारत अमृत महोत्सव के वर्ष-पर्यंत चलने वाले कार्यक्रमों का एक बड़ा अंग उन हुतात्माओं को स्मरण करने से संबंधित था, जिन्हें इतिहास की पुस्तकों में स्थान नहीं मिला, जो अज्ञात रह गए, अचर्चित रह गए। हमने देश के उन स्थानों को भी जाना, जहाँ हमारे अनेक क्रांतिवीरों ने अपने शौर्य और पराक्रम की गाथाएँ रचीं। इतिहास के उन पन्नों को पलटा गया जो देश की बड़ी आबादी के लिए अनजाने थे, अज्ञात थे। वर्ष-भर के ऐसे आयोजनों और कार्यक्रमों ने 15 अगस्त, 2022 तक सारे देश को असीमित गर्व से भर दिया था।

देश के अनेक अनाम वीरों और क्रांतिकारियों को खोजने, उन्हें सभी के सामने लाने और उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित करने के लिए एक वर्ष का समय पर्याप्त नहीं था। एक क्रम, एक गति देश के साथ जुड़ते हुए, देशभक्ति की भावना में गोते लगाते हुए चल रही थी, जिसे और आगे तक ले जाने की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता को देखते हुए वर्ष 2022 के पंद्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने भारत अमृत महोत्सव को अगले स्वतंत्रता दिवस तक चलाने की घोषणा की थी। भारत अमृत महोत्सव का यह दूसरा वर्ष भी बहुत महत्त्व का रहा। अनेक ऐसी योजनाएँ, जो सारे देश को राष्ट्रीयता की भावना के साथ जोड़ सकें, अमल में लाई गईं। वीरों और क्रांतिकारियों की स्मृतियों को सँजोते-सहेजते हुए देश भर में अनेक व्याख्यानों और आयोजनों के साथ ही स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की साक्षी अनेक पुस्तकें भी बनीं, जिनका प्रकाशन वर्ष भर अनेक विश्वविद्यालयों और संस्थाओं से होता रहा। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव से जुड़े एक-दो कार्यक्रमों का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक होगा। भारत की ऐसी सीमाएँ, जहाँ वीरों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया, उनको सारे देश के साथ जोड़ने के लिए सीमांत पर्यटन योजना बहुत प्रभावी और रोचक सिद्ध हुई है। अनेक सीमांत क्षेत्रों में जा-जाकर लोगों ने इन क्षेत्रों की समस्याओं को समझा और साथ ही देशभक्ति की भावना को अनुभूत किया। ऐसी ही एक योजना वाइब्रेंट विलेज योजना है। इसके साथ ही ‘मेरी माटी मेरा देश’ एक ऐसे अभियान के रूप में इस वर्ष के स्वतंत्रता दिवस के कुछ माह पहले प्रारंभ हुआ, जिसने उन अनेक वीरों, हुतात्माओं और क्रांतिकारियों के साथ समूचे देश को जोड़ा, जो अज्ञात थे, जिनके बारे में लोगों को कम जानकारियाँ थीं।

विभिन्न आदिवासी क्रांतिकारी, जिनको इतिहास में विद्रोही बताकर इतिश्री कर ली गई थी, उनके अप्रतिम योगदान, उनके अतुलनीय बलिदान को नए सिरे से, पूरी सच्चाई के साथ सामने लाने हेतु देश भर के विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों से सूचनाएँ और जानकारियाँ एकत्रित की गईं। प्रदर्शनियों और झाँकियों के रूप में इनका देश भर में प्रदर्शन हुआ, चर्चाएँ भी हुईं। क्रांतितीर्थ जैसे आयोजनों के माध्यम से उन वीरांगनाओं को भी सम्मानित करने और कृतज्ञता ज्ञापित करने का कार्य किया गया, जिन्होंने विभिन्न युद्धों व संघर्षों में अपने पति, अपने पुत्र का बलिदान दिया। देश के विभिन्न स्थानों में क्रांतिकारियों के आँगनों से, गाँवों से पवित्र माटी संकलित की गई, ताकि राष्ट्रीय स्मारक में उपयोग करके देश को एक सूत्र में बाँधा जाए और आने वाली पीढ़ियों को अपने वीर बलिदानी पुरखों के बारे में बताया भी जाए।

इन्हीं प्रयासों को साथ लिए हुए, देशभक्ति के भावों से भरकर हमने हाल ही में अपना स्वतंत्रता पर्व मनाया। इस वर्ष 15 अगस्त को भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री ने लाल किले से भाषण देते हुए केंद्र सरकार के विगत लगभग दस वर्षों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा, कि- सन् 2014 में हम वैश्विक अर्थव्यवस्था में 10वें स्थान पर थे। आज 140 करोड़ देशवासियों का पुरुषार्थ रंग लाया है और हम विश्व की 5वीं अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। हमने लीकेज बंद करके (अर्थात् भष्टाचार पर लगाम), मजबूत अर्थव्यवस्था बनाकर और गरीबों के कल्याण की अनेक योजनाओं को व्यवहार में उतारकर इस स्थान को पाया है।

इस वर्ष स्वाधीनता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री देशवासियों को ‘मेरे प्यारे परिवार जन’ कहकर संबोधित कर रहे थे। यह संबोधन 140 करोड़ देशवासियों के साथ ऐसे भावनात्मक जुड़ाव को व्यक्त कर रहा था, जिस जुड़ाव ने एक साथ कदम से कदम मिलाकर देश को वैश्विक स्तर पर मजबूती के साथ खड़ा किया। प्रधानमंत्री मोदी ने लोकतंत्र की शक्ति, युवा जनसंख्या के बल और विविधता की त्रिवेणी का उल्लेख करते हुए कहा, कि इसी त्रिवेणी ने भारत के हर सपने को साकार करने की ताकत दी है। आज इसी के बल पर हमारे युवाओं ने विश्व के पहले तीन ‘स्टार्टअप इकोसिस्टम’ में स्थान दिलाया है। उन्होंने कहा, कि विश्वभर में भारत की चेतना के प्रति विश्वास पैदा हुआ है। मेरी सरकार और मेरे देशवासियों का मान ‘राष्ट्र प्रथम’ के वाक्य से जुड़ा है।

हाल ही में मणिपुर की घटनाओं पर दुःख व्यक्त करते हुए उन्होंने शीघ्र ही स्थितियों के सामान्य होने की कामना की। इसके साथ ही उन्होंने देश की आंतरिक और सीमांत सुरक्षा पर सुदृढ़ और सशक्त नीति का उल्लेख करते हुए कहा, कि- आज देश में आतंकी हमलों में कमी आई है और नक्सली घटनाएँ बीती बातें हो गईं हैं। यह नया भारत है, जो न रुकता है, न हाँफता है।

प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का सबसे बड़ा पक्ष भविष्य की कार्ययोजना का था। उन्होंने स्थिर सरकार की कार्यशैली का उल्लेख करते हुए कहा, कि देशवासियों ने स्थिर सरकार ‘फॉर्म’ की, तब मोदी ने ‘रिफार्म’ किया, नौकरशाही ने ‘परफार्म’ किया और जनता जुड़ गई तो ‘ट्रांसफार्म’ किया। इस गति को उन्होंने आगे तक ले जाने की बात कही। वे पिछले 1000 वर्षों से आगामी 1000 वर्षों तक के भारत की यात्रा को व्याख्यायित करते हुए इस स्वतंत्रता दिवस को एक पड़ाव की तरह बताना चाह रहे थे।

इस वर्ष स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की पूर्णता के साथ ही सन् 2047 के लिए सभी को एक साथ मिलकर चलने के लिए आह्वान करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने अमृत महोत्सव की पूर्णता से अमृत काल के लिए चल पड़ने की बात कही। उन्होंने कहा, कि- वर्ष 2047 में जब देश स्वाधीनता के 100 वर्षों का उत्सव मना रहा होगा, तब भारत का तिरंगा विकसित भारत का तिरंगा झंड़ा बने, ऐसी कामना है। उन्होंने कहा, कि- हमें खोई हुई समृद्धि का गर्व करते हुए, खोई हुई समृद्धि को प्राप्त करते हुए हमको यह मानकर चलना होगा, कि आज हम जो कदम उठाएँगे, वे अगले एक हजार वर्ष तक की हमारी दिशा तय करेगा।

भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री का नए भारत के लिए, ‘न्यू इंडिया’ के लिए ‘विजन 2047’ अमृत काल से जुड़ा हुआ है। अमृत काल भारतीय वाङ्मय में उस काल को कहा जाता है, जो किसी कार्य को करने के लिए उचित होता है और अपेक्षित सफलता उस काल में प्राप्त होती है। यह एक प्रकार से शुभ मुहूर्त होता है। माननीय प्रधानमंत्री ने अमृत काल के लिए पाँच प्रणों की बात करते हुए इन्हें स्वाधीनता के शताब्दी वर्ष तक पूर्ण करने की बात कही है।

प्रधानमंत्री मोदी के पंच प्रण में पहला संकल्प विकसित भारत का है। इसमें देश के ग्रामीण और शहरी सभी क्षेत्रों को मूलभूत संसाधनों व सुविधाओं से युक्त करने की बात है। दूसरा संकल्प गुलामी से मुक्ति  का है। हमारे मन में गुलामी का एक अंश भी शेष न रह जाए और हम मन व कर्म से स्वाधीन अनुभूत करें। तीसरा संकल्प विरासत पर गर्व का है। हमें अपनी गौरवपूर्ण विरासत पर गर्व की अनुभूति होनी चाहिए। हम विश्व को बहुत कुछ दे सकते हैं। चौथा संकल्प एकता और एकजुटता का है। हमें एक होकर, अपनी विविधताओं को एक सूत्र में बाँधकर भारत की समृद्धि के लिए, विकास के लिए मिलकर प्रयास करने होंगे। पाँचवा संकल्प नागरिकों का कर्तव्य है। देश के सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का निष्ठा व लगन के साथ पालन करके देश के विकास में अपना योगदान दें।

स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से हमारे माननीय प्रधानमंत्री का भाषण अमृत महोत्सव से अमृत काल की ओर बढ़ने का संदेश देते हुए असीमित ऊर्जा से भरा हुआ था। एक आत्मविश्वास, जो अपने ‘परिवार जनों’ के साथ संबोधित होते हुए झलकता है, उसे हम अपने मार्गदर्शक की ओजस्वी वाणी में अनुभूत कर रहे थे। निःसंदेह हमारा शीर्ष नेतृत्व अमृत महोत्सव से अमृत काल की ओर अग्रसर होते हुए विकसित भारत की संकल्पना को साकार करता प्रतीत होता है। इस हेतु हम भारतवासी अपने यशस्वी प्रधानमंत्री के प्रति कृतज्ञ हैं।

-राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र सीमा संघोष के अगस्त, 2023 अंक में प्रकाशित)

Thursday, 3 August 2023

सीमांत पर्यटन : देश से जुड़ती सीमाएँ

 


सीमांत पर्यटन : देश से जुड़ती सीमाएँ

हाल ही में जम्मू-काश्मीर राज्य प्रशासन द्वारा समृद्ध सीमा योजना के अंतर्गत सीमांत पर्यटन के लिए बजट के प्राविधान के साथ ही विगत वर्ष से चल रही सीमांत पर्यटन योजना के विस्तार को नया आयाम दिया गया है। यह जानना आवश्यक होगा, कि जम्मू-काश्मीर राज्य भारतदेश का ऐसा सीमावर्ती प्रदेश है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय सीमाएँ सबसे अधिक चर्चा में रहती हैं। भारतदेश की सीमाएँ बहुत विस्तृत हैं, और साथ ही अनेक विविधताएँ भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में देखी जा सकती हैं। ये विविधताएँ संस्कृति से लगाकर भौगौलिक, सामाजिक और भू-राजनीतिक हैं। इन सभी विविधताओं की बानगी जम्मू-काश्मीर राज्य में देखी जा सकती है। इन विविधताओं के साथ ही जम्मू-काश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में वर्ष भर अराजकता और आतंक का साया मँडराता रहता है। आए दिन के समाचार एक ऐसी धारणा आमजन के मन में बना देते हैं, कि उसमें भय के अतिरिक्त कुछ भी सोचने और जानने के लिए शेष नहीं रह जाता है।

वर्ष 2019 में जम्मू-काश्मीर के केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद स्थितियाँ बदली हैं। लद्दाख केंद्रशासित प्रदेश के रूप में अलग से अस्तित्व में आया है। इन बदली हुई स्थितियों का एक बड़ा, प्रभावी और सशक्त पक्ष सीमांत पर्यटन योजना के रूप में देखा जा सकता है। यद्यपि ‘बार्डर टूरिज्म योजना’ केवल जम्मू-काश्मीर के लिए ही नहीं है। यह योजना लद्दाख में भी है, उत्तराखंड और देश के अन्य सीमावर्ती राज्यों के सीमांत क्षेत्रों के लिए भी है। लेकिन इस योजना के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावी पक्ष को, इसके सर्वाधिक सकारात्मक प्रभाव को जम्मू-काश्मीर राज्य में विशेष रूप से देखा जा सकता है, इस कारण जम्मू-काश्मीर के सीमांत पर्यटन से बात को प्रारंभ करना प्रासंगिक और समीचीन लगता है।

देश के अन्य भागों में रहने वाले नागरिकों के लिए सीमांतक्षेत्र का जीवन एक रहस्यमयी दुनिया जैसा ही है। वे अपने देश की सीमाओं को भले ही मानचित्र में पहचान लें, लेकिन उनके लिए सीमांतक्षेत्र के लोगों के जीवन, वहाँ की संस्कृति, सामाजिक संरचना और भौतिक स्थिति के साथ ही प्राकृतिक विशिष्टता को जानना-समझना सरल नहीं। लंबे समय तक सुरक्षा कारणों से, राजनीतिक कारणों से, साथ ही अंतरराष्ट्रीय नीतियों, पड़ोसियों के साथ संबंधों आदि के कारण ये सीमांतक्षेत्र मुख्यधारा के अंग नहीं बन सके। जैसा कि कहा जाता है, कि परिधि सदैव केंद्र से दूर रहती है, वैसे ही हमारे देश की सीमाओं में बसने वाले लोग केंद्र से दूर रहे। यह सुखद है, यह अभूतपूर्व भी है, कि गणितीय विधान को भारतीयता और राष्ट्रीयता के उदात्त भावों की भूमि पर सरल किया गया है। आज केंद्र परिधि के निकट है। आज दिल्ली अपने आसपास का ही नहीं सोच रही, वरन् परिधि तक जा रही है। देश अपनी सीमाओं को जान रहा है, अपने सीमांत क्षेत्र के भारतीयों को, नागरिकों को जान रहा है, उनके साथ खड़ा है। इसी ध्येय को लेकर विगत वर्ष केंद्र सरकार की ‘बार्डर टूरिज्म योजना’ अस्तित्व में आई थी, और बहुत कम अंतराल में ही इस योजना के सकारात्मक पक्ष न केवल सामने हैं, वरन् राष्ट्र के गौरव की श्रीवृद्धि भी कर रहे हैं, भारतीयता की अलख भी जगा रहे हैं।

इस वर्ष बदरीनाथ-केदारनाथजी की यात्रा के साथ एक स्थान की यात्रा भी बहुत चर्चित रही। कह सकते हैं, कि जितने यात्री केदारनाथ धाम की यात्रा पर गए, लगभग सभी तीर्थयात्री भारत के सीमावर्ती अंतिम गाँव माणा तक भी गए। पहले यहाँ एक ‘साइन बोर्ड’ लगा होता था- भारत का आखिरी गाँव... माणा। इसी वर्ष मई माह में बड़ी अनूठी पहल करते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वह ‘साइन बोर्ड’ बदलवा दिया। अब उस ‘साइन बोर्ड’ में ‘भारत का आखिरी गाँव- माणा’ के स्थान पर ‘भारत का पहला गाँव- माणा’ लिखा है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की यह पहल, उनका यह कार्य है तो बहुत सामान्य-सा, लेकिन इसके निहितार्थ को समझकर देखिए....। इस बदलाव को माणा गाँव के रहवासियों की दृष्टि से जानकर तो देखिए....। आपको बहुत अच्छा लगेगा, गर्व की अनुभूति होगी। जो लोग अपने को आखिरी पायदान पर मानकर हीनबोध से ग्रस्त हो जाते रहे होंगे, उन्हें एक छोटे-से बदलाव ने पहली पंक्ति पर ला दिया, अग्रिम स्थान दे दिया। यह सच भी है, कि सीमा पर माणा गाँव है, तो वह स्वाभाविक रूप से पहला ही होगा..., लेकिन अंतर केवल सोच में था, जिसे बदला गया है।

देवभूमि उत्तराखंड में भारत का पहला गाँव- माणा अब तीर्थयात्रियों की पहली पसंद भी है। बदरीनाथ धाम से मात्र 3 किमी की दूरी पर माणा गाँव के किसी छोर में एक चाय की छोटी-सी दुकान भी है। उस दुकान में एक कप चाय पीना और फोटो खींचकर या सेल्फी लेकर उसे बड़े गर्व के साथ सोशल नेटवर्किंग के पटल पर, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि पर डाल देना किसी ‘पैशन’ से कम नहीं... किसी जोश से कम नहीं। इस वर्ष ये चित्र खूब देखे गए। लोगों के लिए बदरी-केदार की तीर्थयात्रा इस दृष्टि से देशाटन से कम नहीं ठहरती, भगवद्भक्ति के साथ देशभक्ति, देशानुराग का यह दुर्लभ संयोग देवभूमि में साकार हुआ है। माणा गाँव आज किसी तीर्थ से कम नहीं कहा जा सकता। निश्चित रूप से माणा होकर आने वाले तीर्थयात्रियों के मन में जिस उत्साह को, देश के प्रति गौरव के भाव को देखा है, वह सीमांत पर्यटन योजना की सफलता के शताधिक प्रतिमानों को उच्चतम स्तर पर छूता है। भारतदेश को देखने का यह अनूठा कार्य सिद्ध होता है।

इसी वर्ष लगभग तीन माह पहले उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के हरसिल गाँव के निकट जादुंग गाँव को नया पर्यटन स्थल बनाया गया है। भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित जादुंग गाँव को माणा की तरह भारत का पहला गाँव कहा जाता है। कुछ समय पहले तक हरसिल पर्यटन केंद्र के रूप में पर्यटकों की पसंद होता था। इससे आगे सीमा सुरक्षा के कारण जाने की अनुमति नहीं होती थी। अब पर्यटकों के लिए यह गाँव सुलभ हो गया है।

चाहे माणा गाँव हो, या जादुंग गाँव हो...। सीमावर्ती इन गाँवों में जुट जाने वाले सारे देश को, देश के हर भाग से..., उत्तर से लगाकर दक्षिण और पूरब से लगाकर पश्चिम तक देश के हर कोने से जब माणा और जादुंग आदि गाँवों में लोग पहुँचते होंगे, तो गाँव के लोगों की प्रसन्नता की क्या सीमा होती होगी, हमारे लिए केवल कल्पना का ही विषय हो सकता है। इतना अवश्य है, कि पिछले कई वर्षों में पृथक और एकाकी जैसा जीवन बिताने को विवश इन सीमावर्ती गाँवों के लोग कभी तो यह सोचते ही होंगे, कि आखिर हमारा देश कैसा है, कौन-सा है, जो हमारी सुधि ही नहीं लेता, कभी...। उनकी यह व्यथा, उनके मन का यह भाव टीस की तरह उभरता तो अवश्य ही होगा। सीमांत पर्यटन योजना ने इस दर्द को समेटा है। चाहे उत्तराखंड की सरकार हो, या केंद्र की मोदी सरकार हो, इस दर्द को अनुभूत किया है, देश के छोर पर बैठे आमजन की व्यथा को समझा है। इस दृष्टि से भी सीमांत पर्यटन योजना अपना विशेष महत्त्व रखती है।

कल्पना करें, जम्मू व काश्मीर के उन सीमावर्ती क्षेत्रों की...., जहाँ यह पता नहीं होता, कि कब गोले बरसने लगेंगे और कब ताबड़तोड़ गोलीबारी होने लगेगी। हम अपनी सीमाओं में शांति के पक्षधर हैं, लेकिन अशांति ही जिनको रास आती है, वे कहाँ चुप रहने वाले हैं। ऐसी दशा में रहने-जीने वाले सीमावर्ती गाँवों के रहवासियों के जटिल जीवन की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देती है। अनेक संकट और बाधाएँ सहकर भी वे अपनी धरती नहीं छोड़ते। देश के प्रति उनका लगाव कम नहीं होता। वे सेना और सैनिकों की सहायता को अपना धर्म समझते हैं। इसके बदले वे कोई अपेक्षा नहीं रखते, कोई लाभ नहीं माँगते। इन सीमावर्ती गाँवों के लोग किसी सैनिक से कम नहीं, इनकी देशभक्ति, इनका जज्बा किसी से कम नहीं। ऐसी पुण्यश्लोका धरा, जिसने ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया है; ऐसी गौरवशाली धरती, जो इन कर्मठ भारतीयजनों को पालती-पोसती है, उसके दर्शन के लिए हर भारतीय को जाना चाहिए, जाना ही चाहिए। प्रायः यह भाव और विचार जम्मू-काश्मीर की समृद्ध सीमा योजना और सीमांत पर्यटन योजना में परिलक्षित होता है, दिखता है।


जम्मू-काश्मीर में सीमांत पर्यटन योजना को तेजी के साथ धरातल पर उतारा जा रहा है। अनेक ऐसे गाँवों में संसाधनों का विकास किया जा रहा है। सड़कों से लगाकर बिजली और पानी के साथ ही इंटरनेट की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रहीं हैं। लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, कि वे पर्यटन को अपने रोजगार का माध्यम बनाएँ। यद्यपि पूरे प्रदेश की आय का बड़ा भाग पर्यटन से संबंधित है, तथापि सीमांत पर्यटन ने लोगों के लिए नए आयाम सृजित किए हैं, नई दिशाएँ दी हैं। इसके सकारात्मक प्रभाव सामने आने लगे हैं। जम्मू-काश्मीर से अलग होकर अस्तित्व में आए लद्दाख केंद्रशासित प्रदेश में भी सीमांत पर्यटन की असीमित संभावनाएँ हैं। सियाचिन हिमानी, चंगथंग का मैदान, तुरतुक और बोगदंग आदि गाँव नए पर्यटन-केंद्र के रूप में उभरे हैं। तुरतुक, त्याक्शी, चालुंका, बोगदंग और थांग गाँव लद्दाख की उत्तर-पश्चिमी सीमा में हैं। हमारी सेना के शौर्य और पराक्रम की गाथाएँ यहाँ के कण-कण में बसी हैं। एकदम अलग संस्कृति, बल्टी तहजीब यहाँ देखने को मिलती है। सीमांत पर्यटन योजना के अंतर्गत ये गाँव नए पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हुए हैं। यहाँ के लोगों की आय के नए रास्ते खुले हैं। देश भर के अलग-अलग भागों से आने वाले पर्यटक इस भूमि का दर्शन करके देशानुराग को अनुभूत करते हैं, गौरवान्वित होते हैं।

सीमांत पर्यटन योजना के अंतर्गत केवल हिमालयी परिक्षेत्र ही नहीं; कच्छ का रन, बंगाल की खाड़ी, भारतमाता के पाँव पखारता सिंधुसागर भी सीमांत पर्यटन योजना से जुड़ता है। अनेक विविधताओं को, संस्कृतियों के अलग-अलग रंगों को एक में समेटे, एकात्मता का राग गाते भारतदेश की सीमाएँ ही यदि घूम ली जाएँ....., सीमांत क्षेत्रों का पर्यटन ही कर लिया जाए, तो देश की तमाम सांस्कृतिक झाँकियों से साक्षात्कार हो जाता है। भारत देश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर पर, वैविध्य में समाहित एकात्मता पर गर्व का भान हो जाता है। भारतीयता का पाठ पढ़ने-पढ़ाने के लिए सीमांत दर्शन योजना, सीमांत पर्यटन योजना अद्भुत है, अनुपम है, अतुल्य है।

-डॉ. राहुल मिश्र



(सीमा संघोष, नई दिल्ली के जुलाई, 2023 अंक में प्रकाशित)

Saturday, 6 May 2023

पिघलती हिमानियाँ, दरकता हिमालय...

 


पिघलती हिमानियाँ, दरकता हिमालय...

हिमालय, यानि हिम का आलय....। हिम का, बर्फ का घर हिमालय अपनी उज्ज्वल-धवल आभा के साथ भारतमाता के मुकुट के रूप में सुशोभित होता है। हिमालय का अस्तित्व ही हिम के कारण है, तभी हिमालय है। भारत की उत्तरी सीमा में स्वाभाविक रक्षा-कवच बनाता हिमालय वर्ष पर्यंत अपनी हिमानियों से, हिमनदों से, ग्लेशियरों से आच्छादित रहता है, बर्फ से चमकता रहता है। ये हिमानियाँ न केवल हिमालय के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, वरन् भारत सहित अन्य एशियाई देशों के लिए जीवनधारा हैं।

भारत के मैदानी क्षेत्रों को सींचने वाली, जल की आपूर्ति देने वाली नदियाँ हिमालय के हिमनदों (हिमानियों) के कारण ही जीवन पाती हैं, जल से भरी रहती हैं। हिमालय की नदियाँ हमेशा किलोल करती हुई जलराशि को प्रवाहित करती रहती हैं। गंगा, सतलुज, रावी, ब्रह्मपुत्र, सिंधु आदि नदियों-नदों को जीवन देने वाले हिमनद ही हैं। कल्पना करें, कि इन नद-नदियों में जल का स्तर गिरता जाए, और एक दिन ये सूख जाएँ, तो क्या होगा? यह यक्ष-प्रश्न अपनी विकरालता के साथ आज केवल कल्पना में है, लेकिन जिस प्रकार की संभावनाएँ वैज्ञानिक अध्ययनों के बाद सामने आ रहीं हैं, वे इस यक्ष-प्रश्न को कल्पना की परिधि में बंद रह जाने की बात नहीं कर रहीं, वरन् सामने ही आ जाने वाली दिखाई देती हैं।

विगत वर्ष अप्रैल माह में ही भारत की संसद में पृथ्वी विज्ञान राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. जितेंद्र सिंह ने एक प्रश्न के उत्तर में बताया था, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में हिमानियों के पिघलने का क्रम अनवरत जारी है। प्रतिवर्ष औसतन 9 से 12 मीटर तक हिमनद पिघल रहे हैं। हिमनदों में मौसम के अनुसार पिघलने और हिम एकत्रित करने का क्रम चलता रहता है, लेकिन हिमनदों के बड़ी मात्रा में पिघलने का क्रम अच्छे संकेत नहीं देता है।

हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र, पर्यावरण, जलवायु असंतुलन, जलवायु परिवर्तन और ऐसे ही विविध क्षेत्रों में अध्ययन हेतु भारत सरकार की विभिन्न संस्थाएँ कार्य करती हैं। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केंद्र, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, भारतीय विज्ञान संस्थान के साथ ही काश्मीर विश्वविद्यालय और सिक्किम विश्वविद्यालय समेत हिमालयी परिक्षेत्र में स्थित विभिन्न विश्वविद्यालयों के पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के अध्ययन से संबद्ध विभागों के द्वारा हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु परिवर्तन पर व्यापक अध्ययन किए जाते रहे हैं। भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय और साथ ही पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के प्रयासों से समग्र हिमालयी परिक्षेत्र के अध्ययन को व्यापक आयाम दिया गया है। भारत सरकार की जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशीलता ही है, कि पर्यावरण और वन मंत्रालय में जलवायु परिवर्तन को भी जोड़ा गया है।

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान पूरे हिमालय में कैचमेंट और बेसिन के स्तर पर हिमनदों के पिघलने से कम होने वाली बर्फ के मूल्यांकन और अध्ययन के लिए सतत सक्रिय है। इसी तरह उत्तराखंड और लद्दाख के विभिन्न क्षेत्रों में हिमनदों की स्थिति के अध्ययन हेतु अलग-अलग संस्थाएँ व विभिन्न वैज्ञानिक शोध कार्यों में लगे हुए हैं। भले ही इनके अध्ययन का क्षेत्र हिमानियों के पिघलने से जुड़ा हुआ हो, लेकिन इन अध्ययनों के साथ अनेक चौंकाने वाले आँकड़े भी सामने आ रहे हैं।

देहरादून स्थित वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. राकेश भाम्बरी ने गंगोत्री हिमानी के गिरते स्तर का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के हवाले से ही वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संस्थान द्वारा जारी की गई रिपोर्ट चौंका देने वाली है। गंगोत्री का ग्लेशियर सन् 1935 से लेकर सन् 2022 तक लगभग 88 वर्षों के अंतराल में 1700 मीटर मुहाने में पिघल चुका है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है, कि वर्ष 1996 तक प्रतिवर्ष लगभग 20 मीटर और उसके बाद के वर्षों में प्रतिवर्ष लगभग 38 मीटर की गति से गंगोत्री हिमनद का मुहाना पिघलता है। इस तरह लगभग 88 वर्षों में 1.75 किलोमीटर गंगोत्री हिमनद पिघल चुका है। गंगोत्री हिमनद की लंबाई लगभग 30 किलोमीटर थी, जो क्रमशः कम होती जा रही है।

हिमालय भारत का ही नहीं, विश्व का सबसे बड़ा ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सर्वाधिक संख्या में हिमनद हैं। अर्थात् हिमालय विश्व के समग्र हिमक्षेत्र का बड़ा हिस्सा है। हिमालय के पास बर्फ प्रचुर मात्रा में है। अंटार्कटिका और आर्कटिक के बाद हिमालय विश्व में हिम का तीसरा बड़ा क्षेत्र है। इसी कारण हिमालय को प्रायः तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। एशिया में हिमालय सर्वाधिक जलसिंचित क्षेत्र निर्मित करता है। भारतीय क्षेत्र में आने वाले हिमालय में लगभग 9580 हिमानियाँ हैं। यदि उत्तराखंड के क्षेत्र को देखें, तो यहाँ लगभग 970 छोटी-बड़ी हिमानियाँ हैं। पूर्वोत्तर के हिमालय में भी हिमानियों की कम संख्या नहीं है। लद्दाख और सियाचिन का क्षेत्र हिमानियों से भरा है। सियाचिन हिमनद अपनी विशिष्ट राजनीतिक-सीमाक्षेत्रीय स्थिति के कारण विश्व में चर्चित रहता है, साथ ही वर्ष-पर्यंत सुर्खियों में भी रहता है। समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में सैकड़ों की संख्या में हिमनद हैं, जिन पर अपने अस्तित्व के सिमट जाने का संकट है।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी चेतावनी दी है, कि धरती के 10 प्रतिशत हिस्से में हिमनद हैं, और ये सभी ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेजी से पिघल रहे हैं। अंटार्कटिका में प्रतिवर्ष 1500 करोड़ टन बर्फ पिघल जाती है। ग्रीनलैंड में प्रतिवर्ष 2700 करोड़ टन बर्फ पिघल रही है। हिमालय में भी यही स्थिति है, जिस कारण वर्ष 2050 तक 170 से 200 करोड़ नागरिकों को पानी मिलना बहुत कम हो जाएगा। सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र का जल स्तर बहुत कम हो जाएगा। चिंता की बात यह भी है, कि यदि तेजी के साथ ग्लेशियर पिघलते हैं, तो चीन और पाकिस्तान में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा।

भारत के विभिन्न अध्ययन केंद्रों, संस्थानों और वैज्ञानिकों के अध्ययन से प्राप्त जानकारी के साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ की चिंता पिघलती हिमानियों के संदर्भ में आँखें खोल देने वाली है। ऐसी स्थिति के पीछे बड़ा कारक ग्लोबल वार्मिंग को माना जाता है। इसके अलावा कुछ ऐसे भी पक्ष हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। वैश्विक स्तर पर बात करने की यहाँ आवश्यकता और प्रासंगिकता नहीं दिखती है। हिमालयी परिक्षेत्र में इस स्थिति की भयावहता का अनुमान लगाते हुए कारणों पर चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक होगा।

इसमें पहला कारण हिमालयी परिक्षेत्र में बढ़ती अंधाधुंध आधुनिकता और भौतिकता है। उत्तराखंड के जोशी मठ का हाल हमारे सामने है। पुराने समय में ऐसी मान्यता थी, कि हिमालय का बदरी-केदार क्षेत्र धर्म-अध्यात्म में संलग्न होकर, और सांसारिकता से मुक्त होकर एकांतिक साधना के लिए है। यहाँ जाने वाले तीर्थयात्री प्रायः अपने घर से अंतिम विदा ही लेकर जाते थे, पता नहीं ही लौट कर आ सकें या नहीं...। समय और स्थितियों ने संसाधनों की वृद्धि की...। आज इन क्षेत्रों में पहुँचना बहुत सुगम हुआ है। सामयिक आवश्यकता के अनुरूप यह किया जाना कुछ सीमा तक उचित लगता है, लेकिन इन स्थानों में पहुँचने वाले लोगों ने अपना कार्य और व्यवहार से ऐसा सिद्ध कर दिया है, कि उनके लिए ये क्षेत्र साधना-तपश्चर्या के लिए नहीं, वरन् मौज-मस्ती, पर्यटन और सैर-सपाटा के लिए हैं। इसी कारण इन क्षेत्रों में प्रदूषण बढ़ा है, प्लास्टिक सहित अनेक प्रकार का कचरा बढ़ा है, सुख देने वाले संसाधनों के कारण पर्यावरण पर संतुलन बनाने का दबाव बढ़ा है।

लोगों की मानसिकता को भाँपते हुए व्यावसायिक गतिविधियाँ भी तेज हुई हैं। बड़ी कंपनियों और होटल उद्योगों ने इन क्षेत्रों को मनोरंजन के लिए अनुकूल बना दिया है। भले ही लोग धार्मिक आस्था से स्वयं को विलग नहीं करते, लेकिन इस क्षेत्र की मर्यादा को भी वे समझ नहीं पाते। ये साधना की भूमि शरीर को सुख देकर पाई जाने वाली नहीं है।

दूसरी ओर देखें, तो चीन ने कैलास मनसरोवर को पर्यटन और मौज-मस्ती का ठिकाना बना दिया है। तिब्बत को साधना की भूमि के रूप में जाना जाता है, लेकिन वहाँ भी बहुत तेजी के साथ आधुनिकीकरण हुआ है। भारतीय सीमा तक पहुँच चुके चीन की गतिविधियों का यदि सामरिक और भारतीय सीमंतप्रदेशीय स्थितियों के संदर्भ में आकलन किया जाए, तो उसमें यह एक बड़ा पक्ष यह भी है, कि चीन के द्वारा कब्जे में ली गई लगभग डेढ़ लाख वर्ग किलोमीटर भारतीय भूमि में चीन की सैन्य गतिविधियों और विभिन्न निर्माण-कार्यों, सैन्य सामग्रियों और वाहनों आदि के कारण पैदा किए गए प्रदूषण के साथ ही घुसपैठ व अन्य सैन्य कार्यवाहियों के कारण बड़े पैमाने में पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हुआ है। हाल ही में गालवान के संघर्ष के कारण हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र में विपरीत प्रभाव पड़ा होगा, इस बात को स्वीकार करना ही होगा।

भारत की नीति सीमांतक्षेत्र में सदैव रक्षात्मक रही है। हम विस्तारवादी कभी नहीं रहे। केवल अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए ही हमारी सेनाएँ सैन्य कार्यवाहियाँ करती रहीं हैं। लेकिन सैन्य कार्यवाहियों के लिए उकसाने, सीमावर्ती क्षेत्र में अशांति और अस्थिता उत्पन्न करने, विस्तारवादी नीति के तहत सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए शांति को अशांति में बदलने का प्रयास हमारे पड़ोसी देशों के द्वारा होता रहा है, वर्तमान में भी इसे देखा जा सकता है। ऐसी दशा में भारत की उत्तरी सीमा, हिमालय के प्रशांत क्षेत्र, हिमानियाँ, कलकल करती नदियाँ, सुंदर-सुरम्य वादियाँ आतंक और अस्थिरता के साथ ही पर्यावरण के विकृत हो जाने की समस्या से ग्रस्त हो जाती हैं। यदि भारत की उत्तरी सीमा में शांति हो जाए, तो सैन्य गतिविधियों के कारण होने वाले प्रदूषण से हिमालयी परिक्षेत्र बच सकता है। पिघलती हिमानियों को पिघलने से रोका जा सकता है।

तीसरा बड़ा कारण हिमालय में पर्यटन और अंधाधुंध विकास के साथ आने वाला प्रदूषण और पारिस्थितिकी अंतुलन का है। उत्तराखंड. हिमाचलप्रदेश, लद्दाख और जम्मू-काश्मीर तक ऊपरी हिमालयी क्षेत्र के साथ ही निचले हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध विकास की उस तस्वीर को देख सकते हैं, जो रहन-सहन के स्तर पर भले ही अच्छे आँकड़े दिखा दे, लेकिन हिमालय के स्वास्थ्य के लिए किसी भी तरह से अच्छी नहीं है। सीमेंट-कंक्रीट के बने बहुमंजिला भवन, पेट्रोल-डीजल चालित गाड़ियों की बढ़ती संख्या, आधुनिकता के साथ ही सुखभोगी विविध संसाधनों की अधिकता का असर पर्यावरण के विभिन्न कारकों को प्रभावित करता है। पर्यटन के साथ आने वाली विकृतियाँ भी कमोबेश ऐसी ही होती हैं। इन सबका प्रभाव समग्र हिमालयी परिक्षेत्र में देखा जा सकता है।

वैश्विक स्तर पर बढ़ते ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) की समस्या भले ही हिमानियों के पिघलने का बड़ा कारण हो, लेकिन सीमा पर असुरक्षा-अस्थिरता, बढ़ती आधुनिकता-भौतिकता, आधुनिक भौतिकतापूर्ण-सुविधाभोगी जीवन-पद्धति, पर्यटन और आधुनिक संसाधनों की वृद्धि जैसे कारकों से दरकते हिमालय को भी देखना चाहिए। हिमानियाँ और हिमालय एक-दूसरे के पूरक हैं। इनका सह-अस्तित्व ही भारत के लिए, एशिया के लिए, और साथ ही विश्व के लिए सुखद है, जीवनीय है, और सुंदर भी है। हिमानियों-हिमनदों से रिक्त हिमालय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

(सीमा संघोष, नई दिल्ली के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित)

Sunday, 2 April 2023

पंजाब : कल से कल तक.....


पंजाब : कल से कल तक.....

पंचनद, अर्थात् पंजाब....। सतलुज, व्यास, रावी, चेनाब और झेलम नदियों से सिंचित पंचनद.....। धन-धान्य से परिपूर्ण और उल्लास-उमंग में जीने वाला पंजाब….। ढोल की थाप पर थिरकते पाँव, भांगड़ा और गिद्दा नृत्यों की उल्लासपूर्ण भंगिमाओं के बीच स्वाभाविक-सहज उमंग को साझा करते पंजाबी लोगों के साथ खड़े अन्य लोग भी उसी उमंग और उल्लास में डूब जाते, डूबते ही चले जाते। मक्के दी रोटी, सरसों दा साग पंजाब की अपनी पहचान गढ़ता है। तंदूरी रोटी भी चाव से खाई जाती...। पंजाब की लस्सी का बड़ा-सा गिलास और स्वादिष्ट लस्सी के आस्वाद को कौन भुला सकता है? सतलुज, व्यास, रावी नदियों की अठखेलियाँ करती प्रवाह-राशियाँ कितनी ही उल्लासपूर्ण जीवनगाथाएँ अपने साथ लेकर चलती हैं, इन सबका वर्णन करना समय की सीमा के पार निकल जाना होगा।

चाहे भांगड़ा-गिद्दा नृत्य का उल्लास हो, चाहे सरसों की रोटी और मक्के के साग का स्वाद हो, चाहे असिक्नी के साथ गुनी-सुनी जाती अनेक लोकगाथाएँ-प्रेम के गीत हों, चाहे ‘पंजाब पुत्र’ दुल्ला भट्टी की अनेक लोकगाथाओं की बात हो... यह धरोहर पंजाब के साथ ही पूरे भारत की है। समूचे भारत देश में सरसों का साग ओर मक्के की रोटी, लस्सी का गिलास, लोहड़ी का त्योहार, तंदूर की रोटी, भांगड़ा का नाच पंजाब को अपने साथ जोड़ लेता है, पंजाब के साथ हो लेता है। यह केवल बाहर दिखने वाला जुड़ाव नहीं है, वरन् हृदय की अनंत गहराइयों के साथ इस जुड़ाव को देखा और समझा जा सकता है।

अतीत की परतों को खँगालें, तो अनेक ऐसे प्रसंग और तथ्य निकलकर आते हैं, जो पंजाब की गौरवपूर्ण गाथा को गर्व के साथ गुनगुनाते-दुहराते हैं। रामचंद्र शास्त्री द्वारा रचित एक पुस्तक- पंजाब के नवरतन का उल्लेख करना यहाँ बीते हुए कल के पंजाब के संदर्भ में, पंजाब के अतीत के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगा। रामचंद्र शास्त्री ने पंजाब के अनेक महापुरुषों के मध्य से नौ ऐसे श्रेष्ठतम महापुरुषों के जीवन-चरित से इस कृति में साक्षात् कराया है, जिनका नाम देश ही नहीं, दुनिया के लिए भी अनजाना नहीं है, जिन पर सारे देश को गर्व ही नहीं, जिनसे एक आस्था भी जुड़ी है। शास्त्री जी ने इस कृति में महाराज पुरु (पोरस), गुरु नानक, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, धर्मवीर हकीकत राय, महाराजा रणजीत सिंह, सरदार हरिसिंह नलवा, स्वामी रामतीर्थ और लाला लाजपत राय के जीवन-चरित को उकेरा है। पंजाब के इन नवरतनों के अतिरिक्त असंख्य ऐसे वीर पंजाब की धरती पर जनमे हैं, जिन्होंने धर्म-रक्षा, राष्ट्र-रक्षा, समाज-कल्याण, सीमांत सुरक्षा और मानव-मूल्यों के विस्तार में अप्रतिम योगदान दिया है।

गुरु नानक की उदासियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके सबद, उनके कीर्तन-भजन और उनके उपदेश देश ही नहीं, दुनिया में किस तरह से प्रचारित-प्रसारित हुए, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। मानव के कल्याण के लिए, विश्व को एक परिवार की तरह जीने की सीख देने के लिए वे जीवन-पर्यंत यात्रा करते रहे। गुरु नानक लद्दाख भी पहुँचे, तिब्बत के साथ भी उनका जुड़ाव हुआ। इसी कारण उनको महायान बौद्ध परंपरा के निङ्मा संप्रदाय में नानक लामा के रूप में स्थान प्राप्त है। एक समय था, जब तिब्बत के निङ्मा संप्रदाय के धर्मभीरु लोग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने और स्नान करने अवश्य जाते थे। स्वर्ण मंदिर भारतीय समाज के लिए आस्था का केंद्र सदैव रहा है।

सिखों की गुरु-परंपरा में सभी गुरुओं का जीवन अनुकरणीय रहा है। विशेष रूप से संत सिपाही गुरु गोविंद सिंह का जीवन धर्म की रक्षा के लिए ही समर्पित रहा। उन्होंने मुगलों के साथ चौदह लड़ाइयाँ लड़ीं, और अपने जीवनकाल में अपने पूरे परिवार का ही बलिदान कर दिया। इसी कारण सरबंसदानी के रूप में गुरु गोविंद सिंह को जाना जाता है। उनके चलाए खालसा पंथ के उद्घोष- जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल, वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह..., को सुनकर मन आस्था के समंदर में गोते लगाने लगता है। इसी खालसा पंथ से लंगर की परंपरा आती है। गुरुद्वारों में बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी ऊँच-नीच के एक साथ एक पंगत में सबको भोजन मिलता है। नर सेवा ही नारायण सेवा का यह अनूठा उपक्रम अतुलनीय है, वंदनीय है।

पंजाब वीरों की धरती रही है। वृहत्तर पंजाब के शूरवीर महाराजा पोरस की वीरता, उनका पराक्रम अन्यतम् है। महाराज पोरस की गथाएँ आज भी गर्व के साथ सुनी-सुनाई जाती हैं। अखंड भारतवर्ष की सीमा पर जिस प्रकार वे डटे रहे, उस गाथा का स्मरण आज भी असीमित गर्व भर देता है। यही शौर्य भाव महाराजा रणजीत सिंह के व्यक्तित्व में दिखता है, जिन्होंने विषम स्थितियों के मध्य वृहत्तर पंजाब का अस्तित्व बनाए रखा। लाला लाजपतराय जिस तरह अंग्रेज शासकों के सामने डटकर खड़े थे, वह तब भी प्रेरणा का स्रोत था, और स्वतंत्रता के बाद भी आने वाली पीढ़ियों को सदैव स्वातंत्र्य-चेतना की प्रेरणा देता रहेगा। सरदार भगत सिंह प्रभृति अनेक क्रांतिवीरों का जीवन भी प्रेरणा का स्रोत है।

पंजाब के गौरवपूर्ण अतीत के एक अन्य अध्याय की चर्चा के बिना बात कुछ अधूरी-सी रह जाएगी। एक पुस्तक हाल ही में आई है- भारतीय छंद परंपरा में पंजाब के रीत्याचार्य कवि। पुस्तक की लेखिका हैं- डॉ. अतुला भास्कर। पुस्तक यद्यपि साहित्यिक शोध-प्रबंध के स्तर की है, तथापि इस कृति का अनुशीलन पंजाब की साहित्यिक और लोक परंपरा के संदर्भों में भी किया जा सकता है। पंजाब के रीत्याचार्य कवि, जैसे- आचार्य गिरधारी, आचार्य हरिरामदास निरंजनी, आचार्य निहाल सिंह, आचार्य बदन सिंह, आचार्य प्रमोद आदि संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परंपरा के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जिनके साहित्यिक योगदान को पंजाबी-गुरुमुखी और संस्कृत के मध्य एक सेतु के रूप में देखा जा सकता है। पंजाब के इन रीत्याचार्य कवियों की गुरुमुखी में रचित रचनाएँ पंजाब के साहित्य को समृद्ध करने के साथ ही साहित्य के स्तर पर राष्ट्र की एकता के भाव से सुवासित प्रतीत होती हैं।

कुल मिलाकर अतीत के पंजाब की, बीते कल के पंजाब की ये कुछ ऐसी बाते हैं, जिन्हें आज के संदर्भों में अनुभूत करना न जाने क्यों वर्तमान की जटिलता के मध्य अतीत की सुंदर स्मृतियों में खो जाने जैसा ही लगता है। पंजाब की सांस्कृतिक समृद्धि, पंजाब का धन-धान्य से पूर्ण समाज-जीवन, पंजाब के वीरों का शौर्यभाव, पंजाब का नरसेवा ही नारायण सेवा का भाव आज से नहीं, वरन् अतीत के पिछले कई कालखंडों से आक्रांताओं को खटकता रहा होगा, विधर्मियों और विस्तावादियों को खटकता रहा होगा, इसे जानकर ही आज की स्थितियों का विश्लेषण कर सकते हैं। पंजाब को लूट लेने, पंजाब को बाँट देने और यहाँ की शांति को अशांति में बदल देने के प्रयास लंबे समय से होते रहे हैं। महाराजा पुरु से लगाकर महाराजा रणजीत सिंह तक कितने महान वीरों ने इन अलगाववादी-विघटनकारी तत्त्वों से संघर्ष किया। गुरु गोविंद सिंहजी ने तो अपने पूरे परिवार का ही बलिदान दे दिया। आक्रांताओं के कृत्यों से, उनके दुष्चक्रों से इतिहास भरा पड़ा है।

देश के विभाजन के साथ हमने पंजाब और बंगाल के विभाजन को जो दंश झेला है, उसे भविष्य कितने लंबे समय तक अपने दामन में काँटों की तरह अनुभूत करेगा, कहना कठिन है। एक ओर  बंगाल, तो दूसरी ओर पंजाब अंग्रेज शासकों के लिए सदैव चुनौतीपूर्ण रहा। इसी कारण इन दोनों के विभाजन की नीति चली जाती रही। देश के विभाजन के साथ बंगाल भी बँटा, और पंजाब भी...। झेलम और चेनाब पंचनद से अलग हो चलीं। विभाजन की त्रासदी ने पंजाब को बहुत भीतर तक तोड़ा, लेकिन पंजाब का उत्सवधर्मी समाज इस टूटन उबरकर फिर अपने अस्तित्व को देश की समृद्धि के साथ जोड़ने लगा। मेहनत के बल पर पंजाब ने फिर कृषिकार्य एवं अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित किया।

पंजाब जिस तरह विभाजन की विभीषिका को झेलकर आया था, उस ‘बुरे स्वप्न’ को भुलाकर जितनी तेजी से मुख्यधारा में लौटा, और समृद्धिशील हुआ, वह भारत के अन्य प्रांतों के संदर्भ में अद्वितीय ही कहा जाएगा। तमाम विपरीत स्थितियों के बाद भी लंगर न कभी रुका, और न कभी कोई भूखा सोया। लेकिन यह कथा यहीं आकर ठहर नहीं जाती है। आज ऐसा लगता है, मानों यह सब किसी दिवास्वप्न की तरह है। कल की बातें आज के समय की जटिलता के साथ अपना साम्य नहीं बैठा पा रहीं, ऐसा भी अनुभूत होता है।

वर्ष 2016 में एक फिल्म आई थी- उड़ता पंजाब। अनेक विवादों के बीच इस फिल्म ने कितने ही सवाल पंजाब से लगाकर सारे देश के सामने उछाल दिए थे। कई सवालों के उत्तर तो हम न चाहकर भी ‘हाँ’ में देने के लिए विवश थे। अतीत के पंजाब की गौरवगाथाओं का स्मरण करते-कराते कई-कई बार वर्तमान की विषमता स्वीकार नहीं हो पाती, किंतु कबूतरबाजी (चोरी छिपे विदेश जाना), प्रतिबंधित नशीले पदार्थों की तस्करी सहित अपराध की बड़ी दुनिया के साथ पंजाब का वास्ता आज के समय की बड़ी सच्चाई है, नहीं नकारी जा सकने वाली सच्चाई है। पृथक खालिस्तान की माँग के साथ किन रास्तों का चयन कर लिया गया, अपराध और आतंक के किन गलियारों की तरफ मुड़ लिया गया, वह आज किसी से छिपा हुआ नहीं है।

हाल ही में नार्को-टेरर मॉड्यूल को अमृतसर पुलिस ने पकड़ा है, भंडाफोड़ किया है। ऐसा भी कहा जा रहा है, कि ऐसी आतंकी गतिविधियों और कामों के लिए हमारा पड़ोसी देश भी सहयोग दे रहा है। सच्चाई कुछ भी हो, लेकिन पंजाब के उल्लासपूर्ण वातावरण में आज न तो उमंग-उल्लास दिखता है, और न ही भयमुक्तता। एक अलग-सी ही हवा पंजाब में चल रही है। कई आतंकी गतिविधियाँ और टेरर मॉड्यूल विगत वर्षों में सामन आए हैं। इनमें विभाजनकारी घटक भी जुड़े हुए हैं, जो एक अलग देश की मंशा पाले हुए भारत-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं। विरोध का स्तर भी ऐसा है, कि भाषा से लगाकर भूषा तक, हर किसी का विरोध है। इस पूरे अभियान के तार देश के अंदर भी जुड़े हैं, और विदेश तक फैले हैं। विदेशों में छिटपुट आंदोलन की घटनाएँ और साथ ही मंदिरों में तोड़फोड़ की घटनाएँ पृथकता की, अलगाव की पराकाष्ठा की स्थितियाँ बताती हैं। पृथकता के उन्माद में कई बार उन लोगों के साथ भी गलबहियाँ दिखाई देती हैं, जिन लोगों का अतीत गुरुओं पर कुठार चलाने, प्रहार करने, अमानवीय अत्याचार करने के लिए जाना जाता है।

यह बदलते पंजाब की एक झलक है, आज के पंजाब का यथार्थ है। पंजाब में साँझा चूल्हा की परंपरा भी रही है, अर्थात् मिल-जुलकर रहने-खाने की परंपरा। उस पंचनद में आज कितने साँझा चूल्हा होंगे, कहना कठिन लगता है। देश को छोड़कर अलग देश बनाने की मानसिकता ने कितने स्तरों पर उन सूक्ष्म तंतुओं को, संबंधों के कोमल धागों को विचलित और कमजोर किया है, यह गहन चिंतन का विषय है। यदि सांप्रदायिक सद्भाव वैमनस्य में बदल रहा है, तो यह चिंता का विषय है। यदि सामाजिक समरसता के स्थान पर क्षेत्रीयता और असहिष्णुता का विस्तार हो रहा है, तो यह चिंता की बात है। यदि भय का साम्राज्य बढ़ रहा है, तो चिंता का विषय है। आज के पंजाब के सामने ये विषय चिंतन के लिए भी हैं, और यक्ष-प्रश्न ती तरह खड़े हुए भी हैं। कहा जाता है, कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है, बदनाम कर देती है। विघटनकारी तत्त्वों के कृत्यों और आपराधिक-आतंकी गतिविधियों के कारण छवि धूमिल हो रही है। ऐसी दशा में समाज के जागरूक लोगों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। आज भी पंजाब का बहुसंख्य समाज अपने गौरवपूर्ण अतीत की थाती को सहेजे चल रहा है, और उसे ही इन स्थितियों को रोकने के लिए आगे आना होगा।

विषमताओं के मध्य कई ऐसे भी पक्ष हैं, जो भविष्य की आश्वस्ति देते हैं, एक आश्वासन देते हैं, कि पंचनद के नवरतनों सहित अनेक संतों, गुरुओं के साथ समस्त भारत का जुड़ाव, संस्कृति के विभिन्न सूत्रों का परस्पर गुंथन वर्तमान की विषमता का शमन कर सकेगा। अलगाववादियों की नीति-नीयत भी अधिक समय तक चल नहीं सकेगी। भय का वातावरण भी दूर होगा। गुरुबानियाँ, गुरुओं की शिक्षाएँ अमल में लाई जाने लगेंगी। गुरु तेग बहादुर जी की सीख व्यवहार में उतरेगी।

भै काहू केउ देत  नहिं,  नहिं  भै मानत आन ।।

कहु नानक सुनि रे मना, गियानी ताहि बखान।।

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Sunday, 1 January 2023

जी-20 की अध्यक्षता : नए भारत का वैश्विक-सूचकांक

 

जी-20 की अध्यक्षता : नए भारत का वैश्विक-सूचकांक


इस वर्ष (2022) के दिसंबर माह का पहला दिन भारत के लिए असीमित प्रसन्नता और गर्व का क्षण लेकर आया। जी-20, अर्थात् बीस देशों के समूह की अध्यक्षता का अवसर भारत को मिला है। वैसे तो विगत वर्ष दिसबंर माह में ही इसकी आधारशिला रख दी गई थी, जब भारत जी-20 ट्रोइका में सम्मिलित हुआ था। वर्ष भर बाद यह सुखद क्षण जब भारत के हिस्से में आया, तो भारत के अंदर ही नहीं, वैश्विक नेतृत्व की भारत की क्षमता को देखने-समझने वाले विश्व के अनेक देशों में इस प्रसन्नता की लहर को देखा गया है।

ग्रुप-20 विश्व के ऐसे बीस देशों का संगठन है, जिसमें महाद्वीपीय विविधता के साथ ही आर्थिक संपन्नता के स्तर पर विकसित और विकासशील देशों की विविधता भी है। यदि भारत के संदर्भ में कहें, तो भारत के सीमावर्ती-पड़ोस के संबंधों का भी बड़ा पक्ष इससे जुड़ा हुआ है। जी-20 में भारत का ऐसा पडोसी भी है, जिसके साथ संबंधों की बुनावट समय-समय पर जाँची-परखी जाती है। चीन की जी-20 में उपस्थिति भारत के संबंध में एक अलग आयाम गढ़ती है, एक अलग असर छोड़ती है। इसी कारण विगत वर्ष जी-20 ट्रोइका में भारत का नाम आते ही वैश्विक हलचल के साथ ही एशिया उपमहाद्वीप में भी बड़ी हलचल देखी गई थी। स्वाभाविक ही था, कि अपने पड़ोसी को वैश्विक मंच पर अध्यक्ष की आसंदी के निकट देखना भारत के स्वाभाविक विरोधियों को सहन नहीं हुआ होगा। कहना न होगा कि भारत की उत्तरी सीमा पर पूरब से लगाकर पश्चिम तक अराजकता व आतंक का समूचा परिवेश संभवतः इसी कारण गढ़ा गया होगा, कि भारत की ओर से किसी भी तरह की पहल करने पर विश्व मंच में भारत के विरुद्ध एक माहौल बनाया जाए, ताकि जी-20 की अध्यक्षता का अवसर भारत के हाथ से निकल जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका, और जी-20 ट्रोइका में सम्मिलित भारत को अध्यक्षता मिल गई।

जी-20 ट्रोइका में तीन देश होते हैं। तीन देशों का एक छोटा समूह होता है, जिसमें जी-20 के वर्तमान अध्यक्ष के साथ ही पूर्व अध्यक्ष और भावी अध्यक्ष होते हैं। दिसंबर 2021 में भारत के इस ट्रोइका में सम्मिलित होने के साथ ही इस वर्ष के लिए भारत की अध्यक्षता तय हो गई थी। इंडोनेशिया के बाली में संपन्न हुए सम्मेलन में भारत को अध्यक्षता के लिए नामित किया गया। इसके साथ ही भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री मोदी को अध्यक्ष देश के प्रतिनिधि के रूप में सेशन हैमर (लकड़ी का हथौड़ा) दिया गया। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो से अध्यक्षता के प्रतीक के रूप में लकड़ी के इस हथौड़े को बहुत गर्व के साथ ग्रहण करते और प्रदर्शित करते हुए भारत के सम्मान्य प्रधानमंत्री के चित्र सोशल नेटवर्किंग के पटलों पर खूब प्रसारित हुए थे। सारे विश्व में फैले भारतवंशियों के लिए भी यह बहुत गौरव और गर्व का क्षण था। यह लकड़ी का हथौड़ा उन बीस देशों के समूह की अध्यक्षता का प्रतीक है, जिनका सारी दुनिया में वर्चस्व और बोलबाला है।

जी-20 समूह को आर्थिक रूप से विश्व के सबसे ताकतवर समूह के रूप में जाना जाता है। इस समूह की दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में 85 प्रतिशत भागीदारी है। विश्व की कुल जीडीपी में से 80 प्रतिशत की भागीदारी जी-20 समूह के देशों की है। इसके साथ ही इस समूह की वैश्विक व्यापार में लगभग 75 प्रतिशत की भागीदारी है। विश्व की कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत जी-20 समूह के देशों में है। ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और अमरीका जैसे विकसित देशों के साथ ही सऊदी अरब, जापान और जर्मनी आदि देश इसके सदस्य हैं। भारत का पड़ोसी देश चीन भी इस समूह का सदस्य है। समूह के सदस्य देशों के माध्यम से ही समूह की वैश्विक स्तर पर स्थिति और इसके प्रभाव का आकलन किया जा सकता है। ऐसे प्रभावशाली और वैश्विक स्तर पर महत्त्वपूर्ण समूह की अध्यक्षता भारत के लिए कोई सामान्य बात नहीं है। यह भारत के वैश्विक प्रभाव और विश्व-स्तर पर भारत की स्वीकार्यता का एक मानदंड है, मापक है।

भारत को जी-20 की अध्यक्षता ऐसे विषम समय में मिली है, जबकि समूह के सदस्य देशों के मध्य संबंध बहुत सहज नहीं हैं। बाली शिखर सम्मेलन के ठीक पहले ही पौलैंड में मिसाइल गिरने के बाद नाटो देशों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया दी जा रही थी। दूसरी ओर जी-20 में ही यूक्रेन संकट के कारण सदस्य देश आपस में बँटे हुए थे। रूस और अमरीका के मध्य यूक्रेन को लेकर चल रही तनातनी का प्रभाव बाली शिखर सम्मेलन में भी दिख रहा था। दूसरी ओर कोविड-19 की विभीषिका के कारण वैश्विक मंदी और अन्य कारक भी प्रबल थे। ऐसी विषम स्थिति में अध्यक्ष का दायित्व स्वीकारना कोई सहज कार्य नहीं था। यह भारत की वैश्विक स्वीकार्यता का ऐसा क्षण था, कि भावी अध्यक्ष के रूप में भारत को सामने देख विश्व के महायोद्धाओं ने भी अपने रुख को नरम और सहज बनाया। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जब भारत के विजन, भारत की भावी कार्ययोजना के लिए संकल्पसूत्र को रखा गया, तो उसे सभी ने स्वीकार किया। प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर को वैश्विक स्तर पर भारत की वसुधैव कुटुंबकम् की परंपरा के अनुरूप निर्वहन करने का स्पष्ट संदेश दिया है। उनका कहना, कि भारत इसे ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ की तरह लेकर चलेगा, समूह के सभी देशों के लिए भारत की अध्यक्षता में जी-20 की आगामी कार्ययोजना को निर्धारित करने हेतु एक नियामक निर्णय के तौर पर स्वीकार्य हुआ।

जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत का कार्यभार सँभालना निःसंदेह विषम स्थितियों में हुआ है। एक ओर रूस-यूक्रेन विवाद में सभी सदस्य देश आपस में बँटे हुए हैं, तो दूसरी ओर चीन के ताइवान पर आक्रामक रवैये के कारण अमरीका सहित यूरोपीय देशों की अपनी नाराजगी है। दूसरी तरफ भारत के साथ भी चीन के संबंध सहज नहीं हैं। चीन और भारत की तनातनी के लिए विगत तीन वर्ष बहुत चर्चित रहे हैं, जब भारतीय सीमा में चीन की घुसपैठ का मुँहतोड़ उत्तर भारतीय सेना द्वारा दिया गया। गालवान, दौलतबेग ओल्डी, गोगरा हाट-स्प्रिंग आदि स्थानों में भारत के प्रबल प्रतिरोध और भारतीय सेना की सक्रिय कार्यवाही के बाद चीन के राष्ट्रपति का बाली में भारत के प्रधानमंत्री मोदी के साथ पहली बार आमना-सामना हुआ था। सूत्र बताते हैं, कि दोनों के मध्य कोई बात नहीं हुई। मिलने पर गर्मजोशी के स्थान पर मात्र औपचारिकता थी। ऐसी दशा में चीन के लिए भारत का नेतृत्व स्वीकारना कितना जटिल और कठिन होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। यह भले ही भारतवासियों के लिए गर्व की बात हो, लेकिन उससे कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण भी है। ऐसी विपरीत और विषम स्थितियों में न केवल अध्यक्षीय दायित्व को सँभालना, वरन् कुशलतापूर्वक इस दायित्व को निभाना भारत के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के कौशल को प्रदर्शित करता है।

रूस और यूक्रेन विवाद पर भारत की निरपेक्षता और समूह के सदस्य देशों को युद्ध व अशांति-अस्थिरता के स्थान पर रचनात्मक और विकासात्मक अवधारणा को आत्मसात् करने का भारत का संदेश समूह के देशों ने स्वीकारा है। यह भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि भी है, और विश्व-स्तर पर भारत के नेतृत्व-कौशल का मानक भी है। विश्व की कुल जनसंख्या की 60 प्रतिशत भागीदारी यदि जी-20 समूह के लिए बड़ा जनबल है, तो दूसरी ओर इस विशाल जनसंख्या के साथ चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। वैश्विक आर्थिक मंदी, रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण की चुनौतियों से निबटने के लिए सकारात्मक कार्ययोजना बनाना, उसे क्रियान्वित करने के लिए उपयुक्त परिवेश बनाना समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत की प्राथमिकताओं में है। जलवायु परिवर्तन का संकट, पर्यावरण-पारिस्थितिकी असंतुलन के साथ ही शांति व सुरक्षा की चुनौतियों को भारत ने जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में अपनी प्राथमिकताओं में रखा है।

जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत की भूमिका निष्पक्षता के साथ रचनात्मकता और सकारात्मकता को बढ़ावा देने के रूप में होगी, यह संदेश भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री द्वारा बाली में अपने संबोधन में दिया गया है। कोविड-19 महामारी के ‘दुनिया में कहर’ के बाद जिस सकारात्मकता के साथ विकास की ओर अग्रसर होने की अपेक्षा जी-20 के नवनियुक्त अध्यक्ष से की जा रही थी, उसे समूह के देशों के साथ ही विश्व-मंच ने अनुभूत किया है। इसी कारण भारत के प्रति विश्व-मंच की धारणा बदली है। भारत में नेतृत्व के कौशल को देखा जा रहा है। भारत की बात को अब विश्व गंभीरता के साथ सुनता भी है, और गुनता भी है। जी-20 जैसे महत्त्वपूर्ण मंच की अध्यक्षता और भारत में शिखर सम्मेलन के साथ ही अनेक शिखर वार्ताओं, बैठकों और चर्चाओं से एक सार्थक और सकारात्मक विश्व-दृष्टि की कामना न केवल जी-20 समूह के देशों को है, वरन् समूचे वैश्विक समाज को भी है।

भारत के विभिन्न प्रांतों में उनकी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान को एक वैश्विक मंच देने के उद्देश्य के साथ देश भर में जगह-जगह जी-20 समूह की बैठकें कराने के लिए योजनाएँ बन रहीं हैं, और अमल में भी लाई जाने लगीं हैं। भले ही विपक्ष के लिए विरोध के अवसर मिलते रहें, लेकिन भारतीय राजनीतिक नेतृत्व ने विधिवत् लोकतांत्रिक प्रक्रिया और देश के इस गौरवपूर्ण अवसर के लिए सभी की सहभागिता को सुनिश्चित किया है। सभी को साथ लेकर इसकी योजनाएँ बन रहीं हैं। भारत को विश्व-पटल पर एक नई पहचान इस अवसर के साथ मिल रही है। इसका लाभ भारत की अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा।

समग्रतः, जी-20 समूह की अध्यक्षता का यह अवसर भारत के लिए उस वैश्विक सूचकांक की तरह है, जिसमें विश्वगुरु के रूप में उभरते भारत की छवि झलकती है, जिसमें भारत के गौरवपूर्ण अतीत के दर्शन होते हैं, जिसमें तकनीकी व नवाचार में नए कीर्तिमान स्थापित करता भारतदेश है, जिसमें कोविड-19 महामारी की विकरालता के दंश को अपने कुशल प्रबंधन से परास्त करके वैश्विक पटल पर उभरता हमारा भारत है। यह नए भारत का वैश्विक सूचकांक है, जिसमें जी-20 की अध्यक्षता के बहाने शीर्ष पर लहराता तिरंगा दिखता है, नया भारत दिखता है।
-राहुल मिश्र
(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के दिसंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)

Tuesday, 6 December 2022


 आखिर भरोसेमंद क्यों नहीं है, ड्रैगन...

हाल ही में पूर्वी लद्दाख सीमा को लेकर भारत के सेनाध्यक्ष का बयान आया है। वे कहते हैं, कि पूर्वी लद्दाख में स्थिति सामान्य है, लेकिन चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बयानों की पूरी एक कड़ी ही पिछले दो-तीन महीनों में आई है, जो लगभग ऐसी ही बात पर केंद्रित है। विदेशमंत्री जयशंकर अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य के अनुरूप यह कहते हैं, कि चीन को पहले अपनी सीमाओं को शांत करना होगा, स्थिर करना होगा और घुसपैठ सहित सेना की वापसी की तय शर्तों का पालन करना होगा। संबंध सुधारने के लिए कम से कम इतना तो आवश्यक है ही...।

भारत के सेनाध्यक्ष की चिंता अलग तरीके की है। पिछले वर्षों में गालवान, देपसांग, देमचोक और दौलत बेग ओल्डी में जिस तरह की घटनाएँ हुई हैं, उन्हें चीन के गिरगिटी रंग से मापा जा सकता है। पंद्रह से अधिक चरणों की वार्ताओं के बाद भी चीन ने पूर्वस्थिति पर जाने के लिए सहमति नहीं दिखाई। वह हमेशा चतुराई की भाषा बोलकर भारत की रक्षात्मक रणनीति का लाभ उठाता रहा है। इधर चीन के अंदर भी उथल-पुछल के समाचार सोशल संचार के पटलों पर तैरते रहे, और दूसरी ओर सीमा पर चीन की नीति-नीयत विस्तारवाद को केंद्र बनाकर तैयार होती और चलती रही।

अक्टूबर, 2022 का पूरा ही महीना चीन के अंदर उथल-पुथल से भरा रहा है। इसकी शुरुआत चीन में तख्ता-पलट की सूचनाओं के प्रसार से होती है। ऐसा कहा जा रहा था, कि चीन के अंदर सत्ता का परिवर्तन होने जा रहा है। व्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक हो जाएगी, चीन के पड़ोसियों से विवाद सुलझ जाएँगे, ताइवान का मुद्दा भी हल हो जाएगा। ऐसे अनेक कयास लगाए जा रहे थे। हो सकता है, कि चीन के अंदर ऐसी कुछ स्थितियाँ बनी हों, लेकिन इन सबके पीछे का बड़ा कारण शी जिनपिंग की सत्ता में पुनः वापसी के प्रयासों का था। दुनिया के देशों में चीन की आंतरिक अस्थिरता के समाचार विश्वमंच का ध्यान भटकाने के लिए था, यह बात बाद में सही सिद्ध होती दिखी। 16 अक्टूबर से प्रारंभ हुए चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के हर पाँच साल में होने वाले महासम्मेलन (कांग्रेस) के लिए विश्व-स्तर पर जो भूमिकाएँ बनाई जा रहीं थीं, उनकी चीन की आंतरिक राजनीति और रणनीति में भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह बताते हुए, कि आंतरिक अस्थिरता और साथ ही संभावित वैश्विक संकटों से निबटने के लिए वर्तमान नेतृत्व को ही भविष्य के लिए चुना जाना आवश्यक है, महासम्मेलन का प्रारंभ होता है।

इसी क्रम में एक वीडियो भी सोशल पटल पर घूमता रहा। इसमें 2003 से दस वर्षों तक राष्ट्रपति रहे 79 वर्षीय हू जिंताओ को शी जिनपिंग के बगल से उठाकर बाहर ले जाते हुए दिखाया गया है। जिंताओ जाते-जाते प्रधानमंत्री ली केकियांग का कंधा दबाते हैं और अधिकारी जिनपिंग से कुछ कहते हैं। बाद में दोनों चीनी अधिकारी जिंताओ को लेकर ‘ग्रेट हाल आफ द पीपुल’ से बाहर चले जाते हैं। सामान्य तौर पर सीपीसी की बैठकों और कार्यवाहियों के विवरण या समाचार उतनी ही मात्रा में बाहर आते हैं, जितनी मात्रा सीपीसी के लिए अनुकूल होती है। लेकिन इस बार वह परंपरा टूटती दिखती है। इस बार विदेश की अनेक समाचार एजेंसियों की निगाहें भी इस महाधिवेशन में लगी हुई थीं।

सीपीसी की व्यवस्था और नियमों के अनुसार शी जिनपिंग के स्थान पर दूसरा महासचिव नियुक्त होना था, किंतु ऐसा नहीं होने पर एक संदेश गया, कि सीपीसी में जिनपिंग का पूरा वर्चस्व है। विरोधियों के लिए बाहर का रास्ता है, यह भी सुलभ संदेश इस महाधिवेशन से निकला। जिन मान्यताओं और व्यवस्थाओं का दम भरते हुए सीपीसी जनमुक्ति और जनवाद की बात करती रही, वे दुर्ग किस तरह ढहे हैं, इसका साक्ष्य महाधिवेशन में मिलता है। ये बदलाव विश्व को एक संदेश देता है। अधिनायक माओ त्से तुंग की नए तेवर-कलेवर के साथ वापसी को भी इसमें देख सकते हैं।

तीसरी बार पुनः नियुक्त होते ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग की चिंता देश की आंतरिक अस्थिरता को रोकने और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उनके एक बयान के साथ सामने आती है। वे चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को अपनी सारी ऊर्जा अपनी क्षमता बढ़ाने, युद्ध लड़ने और जीतने के लिए तैयार रहने की दिशा में लगाने का आदेश देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे सेना प्रमुख के रूप में पीएलए के युद्ध प्रशिक्षण को मजबूत करेंगे, क्योंकि सुरक्षा की स्थिति लगातार अस्थिर और अनिश्चित बनती जा रही है।

जिनपिंग के इन आदेशों और प्रयासों के विश्वमंच पर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। ताइवान पर चीन की निगाहें लगी हुई हैं। अमरीका के ताइवान के साथ खड़े हो जाने से स्थितियाँ बदल गईं हैं, और चीन का स्वर भी बदल गया है। भारत के साथ चीन के सीमा-विवाद कोई नए नहीं हैं। भारत का सशक्त राजनीतिक नेतृत्व निश्चित रूप से चीन के लिए आँखों की किरकिरी बना हुआ है। वह विश्वमंच पर अनेक प्रयास करते हुए भारत को अपने आर्थिक और साथ ही सैन्य बल से अपने प्रभाव में लेने की असफल कामना करता रहता है। चीन के लिए ऐसा करना कुछ हद तक आसान तब भी हो जाता है, जब उसे भारत की राजनीतिक भूमि पर अपने चंद समर्थक मिल जाते हैं। यह अलग बात है, कि चीनी नेतृत्व के लिए इस भ्रम में रहना, कि भारत सन् 62 वाला ही है, उचित नहीं है। गालवान में भारतीय सेना के पराक्रम को सभी जानते हैं। चीन ने इस सच्चाई को देर से ही सही, स्वीकारा भी है।

7 से 11 नवंबर तक चली सैन्य कमांडर कान्फ्रेंस में सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडेय की अध्यक्षता में सेना के तीनों अंगो के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों, रक्षा विशेषज्ञों और रक्षामंत्री के साथ ही प्रशासनिक अधिकारियों ने विचार-विमर्श किया। पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी तनाव के बीच भारत और चीन के मध्य सामरिक संबंधों पर यह कान्फ्रेंस केंद्रित रही। चीन ने गालवान से सेनाओं को हटाने की बात कही थी। इसी के साथ देपसांग और देमचोक में भी सैन्य गतिविधियों को नियंत्रित करने की बात कही थी। लेकिन दूसरी तरफ चीन ने अपनी सामरिक रणनीतियों का बड़ा रोडमैप बना रखा है। इसमें तिब्बत के ल्हूंजे काउंटी से शिनजियांग के माझा तक राजमार्ग के निर्माण की बड़ी योजना भी सम्मिलित है। चीन द्वारा प्रस्तावित सड़क भारत से सटी सीमाओं को एकसाथ जोड़ने वाली है। इस राजमार्ग में देपसांग, गालवान घाटी और गोगरा हाट स्प्रिंग भी जुड़ रहे हैं और अरुणाचल के सीमावर्ती क्षेत्र भी जुड़ रहे हैं। एक ओर गालवान सहित पूर्वी लद्दाख में पूर्ववर्ती स्थिति को बहाल करने की बात चीन कहता है, तो दूसरी ओर सड़क और अन्य संसाधनों का विस्तार भी करता है।

तिब्बत से सटा लद्दाख का पठार सन् 1962 के अतीत को आज भी भुला नहीं सका है। हमारे अतीत में वह घाव आज भी रिसता है। 14 नवंबर, 1962 को भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया था, कि अक्साईचिन की 37,244 वर्ग किलोमीटर भूमि को आक्रमणकारी चीन से वापस लेकर ही मानेंगे। इस बहस में भारत की संसद के 165 सदस्यों ने भाग लिया था, और 08 नवंबर को इस प्रस्ताव को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में रखा था। चीन ने भारत की भूमि को ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए जिस तरह छलपूर्वक कब्जाया था, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस युद्ध के बाद भी अनेक लड़ाइयाँ विश्व के इस सबसे ठंडे और ऊँचे युद्धक्षेत्र में हुईं। अनेक ललनाओं ने अपने सपूतों को भारतमाता की रक्षा के लिए बलि चढ़ाया। कई बहनों ने अपने भाई खोए। इन युद्धों और संघर्षों की विभीषिकाओं के अनेक चिन्ह आज भी लद्दाख अंचल के चप्पे-चप्पे में दिखते हैं।

हमारे वीर सैनिकों के बलिदानों की गौरव-गाथाएँ जहाँ हमें गर्व से भरती हैं, वहीं चीन के छल और छद्म को भी निरंतर स्मरण कराती रहती हैं। सन् 1962 में पंचशील के समझौते के साथ ही भारत का बदले हुए चीन पर, जनमुक्ति अभियान चलाने वाले चीन पर विश्वास टूट गया था। यह अलग बात है, कि उस समय कुछ नेतृत्वकर्ता राजनेता साम्यवाद के दिवास्प्नन में, बंजर-उजाड़ धरती के टुकड़े के रूप में अपनी भारतभूमि को देखने के यत्न में चीन पर भरोसा जोड़े रहे हों...। कुछ भी हो.. 1962 से 2020 तक आते-आते नेतृत्व भी बदला, और सोच भी बदली है। सन् 2020 के जून माह में गालवान घाटी पर भारत के सैनिकों ने चीन के घुसपैठियों को मुँहतोड़ जवाब दिया था। लगभग चार दशक बाद यह पहला अवसर था, जब इस सीमा पर गोलीबारी हुई। चीनी घुसपैठ को रोका गया। रूस की एजेंसी तास ने बाद में बताया था, कि चीन के पचास सैनिक इस झड़प में मारे गए थे।

गालवान की झड़प भारतीय संदर्भ में एक निर्णायक दिशा के रूप में देखी जा सकती है। इसके साथ ही भारत के सीमांतप्रदेशीय क्षेत्रों में, विशेषकर पूर्वी लद्दाख में सड़क-यातायात के साधनों का तेजी के साथ विस्तार हुआ है। पूर्वी लद्दाख में सेनाओं के परिचालन में बहुत कठिनाई होती थी, क्योंकि यहाँ सड़क मार्ग नहीं के बराबर ही थे। शयोक और नुबरा आदि नदियों पर पुल नहीं थे। सूचना और संचार के साधन भी बहुत सीमित थे। इन सभी संसाधनों का तेजी के साथ विकास सैन्य गतिविधियों और परिचालन के लिए बहुत लाभकारी और सीमा-सुरक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है।

अनेक आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सैनिकों को सुसज्जित करने के साथ ही वायुसेना को भी आधुनिक हवाई जहाज, लड़ाकू विमान और हेलिकाप्टर आदि उपलब्ध कराकर तैयार किया गया है। आत्मनिर्भर अभियान के तहत भारत ने सैन्य सामग्री के निर्माण में कीर्तिमान बनाया है। देशी आयुधों के साथ ही स्वदेश निर्मित राडार तकनीक और अन्य सहायक सामग्रियों के साथ पूर्वी लद्दाख में तैनात भारतीय सेना हर समय मुस्तैद भी है, और सीमा पर किसी भी तरह की भारत विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए सक्षम भी है।

चीन को भारत की इस तैयार की पूरा अंदाज है। इसलिए वह दूसरे रास्ते निकालता है। इनमें अन्य पड़ोसी देशों को भारत के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास, भारत के पड़ोसी देशों की भूमि का भारत को हानि पहुँचाने के लिए प्रयोग करने के प्रयास, समुद्री सीमा पर सैन्य गतिविधियों का संचालन और भारत के जन्मजात शत्रु को दाम, दंड, भेद की नीति के साथ भारत के विरुद्ध तैयार करने में चीन कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। ऐसी दशा में चीन पर भरोसा करना किस स्थिति में संभव हो सकता है?

चीन के आंतरिक राजनीतिक परिदृश्य में चीन का नया रोडमैप जो दिखता है, वह पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक बदलते हुए, चीनी नगरिकों की अपेक्षाओं को धता बताकर पुनः सत्ता पर काबिज होने के प्रयास करते-सफल होते हुए आकार लेता है। इसमें भारत को अपना पक्ष स्पष्ट और प्रबल-सबल रखना होगा। हमको अपनी रक्षात्मक नीति में आगे बढ़कर हमला नहीं करना है, लेकिन किसी भी देश-विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए तैयार रहना चीन के संदर्भ में कारगर योजना कही जा सकती है। चीन पर भरोसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

-राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र सीमा संघोष मासिक, नई दिल्ली के नवंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)