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Tuesday 6 December 2022


 आखिर भरोसेमंद क्यों नहीं है, ड्रैगन...

हाल ही में पूर्वी लद्दाख सीमा को लेकर भारत के सेनाध्यक्ष का बयान आया है। वे कहते हैं, कि पूर्वी लद्दाख में स्थिति सामान्य है, लेकिन चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बयानों की पूरी एक कड़ी ही पिछले दो-तीन महीनों में आई है, जो लगभग ऐसी ही बात पर केंद्रित है। विदेशमंत्री जयशंकर अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य के अनुरूप यह कहते हैं, कि चीन को पहले अपनी सीमाओं को शांत करना होगा, स्थिर करना होगा और घुसपैठ सहित सेना की वापसी की तय शर्तों का पालन करना होगा। संबंध सुधारने के लिए कम से कम इतना तो आवश्यक है ही...।

भारत के सेनाध्यक्ष की चिंता अलग तरीके की है। पिछले वर्षों में गालवान, देपसांग, देमचोक और दौलत बेग ओल्डी में जिस तरह की घटनाएँ हुई हैं, उन्हें चीन के गिरगिटी रंग से मापा जा सकता है। पंद्रह से अधिक चरणों की वार्ताओं के बाद भी चीन ने पूर्वस्थिति पर जाने के लिए सहमति नहीं दिखाई। वह हमेशा चतुराई की भाषा बोलकर भारत की रक्षात्मक रणनीति का लाभ उठाता रहा है। इधर चीन के अंदर भी उथल-पुछल के समाचार सोशल संचार के पटलों पर तैरते रहे, और दूसरी ओर सीमा पर चीन की नीति-नीयत विस्तारवाद को केंद्र बनाकर तैयार होती और चलती रही।

अक्टूबर, 2022 का पूरा ही महीना चीन के अंदर उथल-पुथल से भरा रहा है। इसकी शुरुआत चीन में तख्ता-पलट की सूचनाओं के प्रसार से होती है। ऐसा कहा जा रहा था, कि चीन के अंदर सत्ता का परिवर्तन होने जा रहा है। व्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक हो जाएगी, चीन के पड़ोसियों से विवाद सुलझ जाएँगे, ताइवान का मुद्दा भी हल हो जाएगा। ऐसे अनेक कयास लगाए जा रहे थे। हो सकता है, कि चीन के अंदर ऐसी कुछ स्थितियाँ बनी हों, लेकिन इन सबके पीछे का बड़ा कारण शी जिनपिंग की सत्ता में पुनः वापसी के प्रयासों का था। दुनिया के देशों में चीन की आंतरिक अस्थिरता के समाचार विश्वमंच का ध्यान भटकाने के लिए था, यह बात बाद में सही सिद्ध होती दिखी। 16 अक्टूबर से प्रारंभ हुए चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के हर पाँच साल में होने वाले महासम्मेलन (कांग्रेस) के लिए विश्व-स्तर पर जो भूमिकाएँ बनाई जा रहीं थीं, उनकी चीन की आंतरिक राजनीति और रणनीति में भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह बताते हुए, कि आंतरिक अस्थिरता और साथ ही संभावित वैश्विक संकटों से निबटने के लिए वर्तमान नेतृत्व को ही भविष्य के लिए चुना जाना आवश्यक है, महासम्मेलन का प्रारंभ होता है।

इसी क्रम में एक वीडियो भी सोशल पटल पर घूमता रहा। इसमें 2003 से दस वर्षों तक राष्ट्रपति रहे 79 वर्षीय हू जिंताओ को शी जिनपिंग के बगल से उठाकर बाहर ले जाते हुए दिखाया गया है। जिंताओ जाते-जाते प्रधानमंत्री ली केकियांग का कंधा दबाते हैं और अधिकारी जिनपिंग से कुछ कहते हैं। बाद में दोनों चीनी अधिकारी जिंताओ को लेकर ‘ग्रेट हाल आफ द पीपुल’ से बाहर चले जाते हैं। सामान्य तौर पर सीपीसी की बैठकों और कार्यवाहियों के विवरण या समाचार उतनी ही मात्रा में बाहर आते हैं, जितनी मात्रा सीपीसी के लिए अनुकूल होती है। लेकिन इस बार वह परंपरा टूटती दिखती है। इस बार विदेश की अनेक समाचार एजेंसियों की निगाहें भी इस महाधिवेशन में लगी हुई थीं।

सीपीसी की व्यवस्था और नियमों के अनुसार शी जिनपिंग के स्थान पर दूसरा महासचिव नियुक्त होना था, किंतु ऐसा नहीं होने पर एक संदेश गया, कि सीपीसी में जिनपिंग का पूरा वर्चस्व है। विरोधियों के लिए बाहर का रास्ता है, यह भी सुलभ संदेश इस महाधिवेशन से निकला। जिन मान्यताओं और व्यवस्थाओं का दम भरते हुए सीपीसी जनमुक्ति और जनवाद की बात करती रही, वे दुर्ग किस तरह ढहे हैं, इसका साक्ष्य महाधिवेशन में मिलता है। ये बदलाव विश्व को एक संदेश देता है। अधिनायक माओ त्से तुंग की नए तेवर-कलेवर के साथ वापसी को भी इसमें देख सकते हैं।

तीसरी बार पुनः नियुक्त होते ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग की चिंता देश की आंतरिक अस्थिरता को रोकने और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उनके एक बयान के साथ सामने आती है। वे चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को अपनी सारी ऊर्जा अपनी क्षमता बढ़ाने, युद्ध लड़ने और जीतने के लिए तैयार रहने की दिशा में लगाने का आदेश देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे सेना प्रमुख के रूप में पीएलए के युद्ध प्रशिक्षण को मजबूत करेंगे, क्योंकि सुरक्षा की स्थिति लगातार अस्थिर और अनिश्चित बनती जा रही है।

जिनपिंग के इन आदेशों और प्रयासों के विश्वमंच पर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। ताइवान पर चीन की निगाहें लगी हुई हैं। अमरीका के ताइवान के साथ खड़े हो जाने से स्थितियाँ बदल गईं हैं, और चीन का स्वर भी बदल गया है। भारत के साथ चीन के सीमा-विवाद कोई नए नहीं हैं। भारत का सशक्त राजनीतिक नेतृत्व निश्चित रूप से चीन के लिए आँखों की किरकिरी बना हुआ है। वह विश्वमंच पर अनेक प्रयास करते हुए भारत को अपने आर्थिक और साथ ही सैन्य बल से अपने प्रभाव में लेने की असफल कामना करता रहता है। चीन के लिए ऐसा करना कुछ हद तक आसान तब भी हो जाता है, जब उसे भारत की राजनीतिक भूमि पर अपने चंद समर्थक मिल जाते हैं। यह अलग बात है, कि चीनी नेतृत्व के लिए इस भ्रम में रहना, कि भारत सन् 62 वाला ही है, उचित नहीं है। गालवान में भारतीय सेना के पराक्रम को सभी जानते हैं। चीन ने इस सच्चाई को देर से ही सही, स्वीकारा भी है।

7 से 11 नवंबर तक चली सैन्य कमांडर कान्फ्रेंस में सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडेय की अध्यक्षता में सेना के तीनों अंगो के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों, रक्षा विशेषज्ञों और रक्षामंत्री के साथ ही प्रशासनिक अधिकारियों ने विचार-विमर्श किया। पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी तनाव के बीच भारत और चीन के मध्य सामरिक संबंधों पर यह कान्फ्रेंस केंद्रित रही। चीन ने गालवान से सेनाओं को हटाने की बात कही थी। इसी के साथ देपसांग और देमचोक में भी सैन्य गतिविधियों को नियंत्रित करने की बात कही थी। लेकिन दूसरी तरफ चीन ने अपनी सामरिक रणनीतियों का बड़ा रोडमैप बना रखा है। इसमें तिब्बत के ल्हूंजे काउंटी से शिनजियांग के माझा तक राजमार्ग के निर्माण की बड़ी योजना भी सम्मिलित है। चीन द्वारा प्रस्तावित सड़क भारत से सटी सीमाओं को एकसाथ जोड़ने वाली है। इस राजमार्ग में देपसांग, गालवान घाटी और गोगरा हाट स्प्रिंग भी जुड़ रहे हैं और अरुणाचल के सीमावर्ती क्षेत्र भी जुड़ रहे हैं। एक ओर गालवान सहित पूर्वी लद्दाख में पूर्ववर्ती स्थिति को बहाल करने की बात चीन कहता है, तो दूसरी ओर सड़क और अन्य संसाधनों का विस्तार भी करता है।

तिब्बत से सटा लद्दाख का पठार सन् 1962 के अतीत को आज भी भुला नहीं सका है। हमारे अतीत में वह घाव आज भी रिसता है। 14 नवंबर, 1962 को भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया था, कि अक्साईचिन की 37,244 वर्ग किलोमीटर भूमि को आक्रमणकारी चीन से वापस लेकर ही मानेंगे। इस बहस में भारत की संसद के 165 सदस्यों ने भाग लिया था, और 08 नवंबर को इस प्रस्ताव को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में रखा था। चीन ने भारत की भूमि को ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए जिस तरह छलपूर्वक कब्जाया था, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस युद्ध के बाद भी अनेक लड़ाइयाँ विश्व के इस सबसे ठंडे और ऊँचे युद्धक्षेत्र में हुईं। अनेक ललनाओं ने अपने सपूतों को भारतमाता की रक्षा के लिए बलि चढ़ाया। कई बहनों ने अपने भाई खोए। इन युद्धों और संघर्षों की विभीषिकाओं के अनेक चिन्ह आज भी लद्दाख अंचल के चप्पे-चप्पे में दिखते हैं।

हमारे वीर सैनिकों के बलिदानों की गौरव-गाथाएँ जहाँ हमें गर्व से भरती हैं, वहीं चीन के छल और छद्म को भी निरंतर स्मरण कराती रहती हैं। सन् 1962 में पंचशील के समझौते के साथ ही भारत का बदले हुए चीन पर, जनमुक्ति अभियान चलाने वाले चीन पर विश्वास टूट गया था। यह अलग बात है, कि उस समय कुछ नेतृत्वकर्ता राजनेता साम्यवाद के दिवास्प्नन में, बंजर-उजाड़ धरती के टुकड़े के रूप में अपनी भारतभूमि को देखने के यत्न में चीन पर भरोसा जोड़े रहे हों...। कुछ भी हो.. 1962 से 2020 तक आते-आते नेतृत्व भी बदला, और सोच भी बदली है। सन् 2020 के जून माह में गालवान घाटी पर भारत के सैनिकों ने चीन के घुसपैठियों को मुँहतोड़ जवाब दिया था। लगभग चार दशक बाद यह पहला अवसर था, जब इस सीमा पर गोलीबारी हुई। चीनी घुसपैठ को रोका गया। रूस की एजेंसी तास ने बाद में बताया था, कि चीन के पचास सैनिक इस झड़प में मारे गए थे।

गालवान की झड़प भारतीय संदर्भ में एक निर्णायक दिशा के रूप में देखी जा सकती है। इसके साथ ही भारत के सीमांतप्रदेशीय क्षेत्रों में, विशेषकर पूर्वी लद्दाख में सड़क-यातायात के साधनों का तेजी के साथ विस्तार हुआ है। पूर्वी लद्दाख में सेनाओं के परिचालन में बहुत कठिनाई होती थी, क्योंकि यहाँ सड़क मार्ग नहीं के बराबर ही थे। शयोक और नुबरा आदि नदियों पर पुल नहीं थे। सूचना और संचार के साधन भी बहुत सीमित थे। इन सभी संसाधनों का तेजी के साथ विकास सैन्य गतिविधियों और परिचालन के लिए बहुत लाभकारी और सीमा-सुरक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है।

अनेक आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सैनिकों को सुसज्जित करने के साथ ही वायुसेना को भी आधुनिक हवाई जहाज, लड़ाकू विमान और हेलिकाप्टर आदि उपलब्ध कराकर तैयार किया गया है। आत्मनिर्भर अभियान के तहत भारत ने सैन्य सामग्री के निर्माण में कीर्तिमान बनाया है। देशी आयुधों के साथ ही स्वदेश निर्मित राडार तकनीक और अन्य सहायक सामग्रियों के साथ पूर्वी लद्दाख में तैनात भारतीय सेना हर समय मुस्तैद भी है, और सीमा पर किसी भी तरह की भारत विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए सक्षम भी है।

चीन को भारत की इस तैयार की पूरा अंदाज है। इसलिए वह दूसरे रास्ते निकालता है। इनमें अन्य पड़ोसी देशों को भारत के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास, भारत के पड़ोसी देशों की भूमि का भारत को हानि पहुँचाने के लिए प्रयोग करने के प्रयास, समुद्री सीमा पर सैन्य गतिविधियों का संचालन और भारत के जन्मजात शत्रु को दाम, दंड, भेद की नीति के साथ भारत के विरुद्ध तैयार करने में चीन कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। ऐसी दशा में चीन पर भरोसा करना किस स्थिति में संभव हो सकता है?

चीन के आंतरिक राजनीतिक परिदृश्य में चीन का नया रोडमैप जो दिखता है, वह पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक बदलते हुए, चीनी नगरिकों की अपेक्षाओं को धता बताकर पुनः सत्ता पर काबिज होने के प्रयास करते-सफल होते हुए आकार लेता है। इसमें भारत को अपना पक्ष स्पष्ट और प्रबल-सबल रखना होगा। हमको अपनी रक्षात्मक नीति में आगे बढ़कर हमला नहीं करना है, लेकिन किसी भी देश-विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए तैयार रहना चीन के संदर्भ में कारगर योजना कही जा सकती है। चीन पर भरोसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

-राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र सीमा संघोष मासिक, नई दिल्ली के नवंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)

Friday 30 July 2021

कैसे हैं ये ‘पिंजरा तोड़’ वाले लोग....




कैसे हैं ये ‘पिंजरा तोड़’ वाले लोग....

हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा मंजूर की गई एक जमानत की अर्जी के बाद से ही दिल्ली दंगों समेत पिंजरा तोड़ समूह फिर से चर्चा में आ गया है। हालाँकि ये चर्चा में रहें, ऐसी विशिष्टता न तो जमानत पर रिहा हुए पिंजरा तोड़ समूह के सदस्यों देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा की है, और न ही पिंजरा तोड़ समूह की...। फिर भी ‘पिंजरा तोड़’ उस मानसिकता को जानने-समझने के लिए बहुत जरूरी है, जिसे वृहत्तर भारतीय समाज की जड़ों पर लगने वाले दीमक की संज्ञा दी जा सकती है।

हिंदी सिनेमा के साथ ही हिंदी की गीत परंपरा के बहुत ही प्रसिद्ध गीतकार हुए हैं- रामचंद्र नारायण द्विवेदी, जिन्हें कवि प्रदीप के नाम से जाना जाता है। कवि प्रदीप का एक बहुत चर्चित गीत है- पिंजरे के पंछी रे..., तेरा दरद ना जाने कोय...। यह गाना नागमणि फिल्म का है। हालाँकि यह फिल्म देश की आजादी के दस वर्षों बाद, सन् 1957 में रिलीज हुई थी, लेकिन फिल्म का यह गाना देश की पराधीनता की स्थितियों को याद दिलाने के लिए बहुत उपयुक्त लगता है, गुलामी के बंधनों को खुलकर बताता है। इसका दूसरा पक्ष अध्यात्म का है, आध्यात्मिकता से जुड़ा है। भारतीय चिंतन-दर्शन परंपरा में भौतिक शरीर को पिंजरा माना जाता है। इसी से पिंजर या अस्थि-पंजर भी बना है। इसमें बसने वाली आत्मा पिंजरे का पंछी कही जाती है, जिसका ध्येय परमात्मा से मिलना होता है। इस तरह कवि प्रदीप का यह गाना दो अलग अर्थों और संदर्भों को रखता है। यहाँ कवि प्रदीप के ‘पिंजरे के पंछी रे...’ को बताने का उद्देश्य यही था, कि पिंजरा भारतीय समाज-जीवन में अलग और विशेष महत्त्व रखने वाला है।

इधर कुछ वर्षों से देश की राजधानी दिल्ली की हवाओं में पिंजरे को तोड़ने की बातें तैरने लगी हैं। दिल्ली की ये हवाएँ देश के दूसरे बड़े शहरों में भी अपना असर दिखाने में पीछे नहीं रहीं हैं। समाज के कुछ वर्गों में यह ‘पिंजरा तोड़’ बहुत चर्चित रहा, और इसे समग्र भारतीय समाज की आवाज के तौर पर दिखाने की कोशिशें भी लगातार होती रहीं। जबकि सामान्यजन के लिए ‘पिंजरा तोड़’ एक अबूझ पहेली की तरह ही रहा; आखिर कौन-सा पिंजरा, और क्यों इस पिंजरे को तोड़ा जाना है....। वास्तविकता यह है, कि यह पिंजरा न तो देश की पराधीनता को व्याख्यायित करने वाला है, और न ही भारतीय आध्यात्मिक परंपरा से जुड़ा हुआ है। यह पिंजरा ऐसा है, जो विशुद्ध उच्छृंखल और समाज को तोड़ने वाले विचारों से जुड़ा हुआ है।

वर्ष 2015 के अगस्त महीने में ‘पिंजरा तोड़ समूह’ दिल्ली के कुछ विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में चर्चित हुआ था। उच्चशिक्षा केंद्रों में महिलाओं-छात्राओं को उत्पीड़न से बचाने और आपराधिक कृत्य करने वालों को शीघ्र दंडित किए जाने की माँग को लेकर जो आंदोलन खड़ा हुआ था, उसे कुछ राजनीति-प्रेरित तत्त्वों ने अपने कब्जे में ले लिया और इस आंदोलन का स्वरूप बदल गया। शिक्षण-संस्थानों की विसंगतियों को दूर करने के स्थान पर यह आंदोलन तथाकथित पितृसत्तात्मक व्यवस्था की खामियों को गिनाने लगा। इसे नाम भी इसी के अनुरूप दिया गया- पिंजरा तोड़..।

भारतीय सामाजिक संरचना कभी भी ऐसी नहीं रही, जहाँ महिलाएँ या समाज के अन्य वर्गों के लोग उपेक्षित रहे हों। सभी को समानता का अधिकार प्राप्त है। भारतीय संविधान में भी यह व्यवस्था विद्यमान है। इन सबके बावजूद एक वर्ग ऐसा भी है, जो सदैव असंतुष्टि में जीता है। उसके लिए समाज की संरचना और सामाजिक व्यवस्था के अंग असहनीय होते हैं। ऐसे लोग समाज के सूत्रों-तंतुओं को तोड़कर अस्थिरता, अव्यवस्था और अराजकता का वातावरण बनाने के लिए अवसर तलाशते रहते हैं। ‘पिंजरा तोड़ समूह’ का गठन भी इसी को केंद्र में रखकर हुआ। ‘पिंजरा तोड़ समूह’ की गतिविधियाँ और विरोध के तरीके इस तरह के रहे हैं, कि उनको यहाँ पर लिखा जाना भी संभव नहीं। यह समूह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरोध का नाम ले-लेकर जिस तरह से महिलाओं-बालिकाओं के मन में जहर भरने का काम करता रहा है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। महिलाओं की स्वतंत्रता, उन्हें पुरुषों के समान अधिकार और ऐसे ही तमाम विषयों पर आंदोलन करते-करते अराजकता की सीमा के पार निकल जाने का अतीत भी इस समूह के साथ है। यहाँ यह भी कहना आवश्यक होगा, कि हमारे आसपास अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों में कुछ ऐसे भी हैं, जहाँ स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। उन्हें अपने मन के कपड़े पहनकर बाहर निकलने की आजादी नहीं है, उनके लिए तो खुली हवा में साँस लेना भी प्रतिबंधित है...शिक्षा और रोजगार के लिए स्वतंत्र होना तो अलग और दूर की बात है। ऐसी बालिकाओं-स्त्रियों के लिए पिंजरा तोड़ने की बात यह समूह नहीं करता। इस समूह के लिए स्त्री-अधिकारों की बातें भी धर्म-जाति के अनुसार ही निर्धारित होती हैं।

कुछ समय पहले ‘पिंजरा तोड़ समूह’ की गतिविधियों को उस समय खाद-पानी मिला, जब दिल्ली में आजादी माँगने वाले लोग भी सक्रिय हो गए। अगर देखा जाए, तो दोनों का ध्येय एक ही है। एक तरफ पिंजरा तोड़कर आजाद होने की बात है, तो दूसरी तरफ सीधे आजादी माँगी जा रही है। अब यक्ष-प्रश्न तो यही है, कि आखिर आजादी किससे माँगी जा रही है, गुलाम किसने बनाया है और आजादी माँगने का प्रयोजन क्या है? अगर इन तीनों प्रश्नों के उत्तर खोजने की कोशिश करेंगे, तो पूरे देश में तिलमिलाए हुए अलगाववादियों की खीझ आपको दिखाई देगी। वर्ष 2019 में जम्मू-काश्मीर और लद्दाख को केंद्रशासित प्रांत बनाने के बाद तो यह खीझ अपने चरम पर पहुँच गई थी। इसके पहले कई ऐसे कानून, जो महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करते थे, जो आतंकी-देशविरोधी गतिविधियों को रोकने में बाधक बनते थे, उन सबको संशोधित करने के केंद्र सरकार के निर्णय ने कई आंदोलनजीवी तैयार कर दिए थे। जिन कानूनों से महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा मिले, उनकी वैवाहिक स्थिति अस्थिर होने के स्थान पर सबल हो और इसके माध्यम से समाज में अनाचार रुके, ऐसे कानूनों का संसद से पारित कराया जाना और उन्हें लागू कराया जाना भी कुछ लोगों को सहन नहीं हुआ। हमने ‘अवार्ड वापसी’ करने वाले तमाम लोगों के चरित्र को भी देखा, जिन्हें समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बड़ा सम्मान मिलता था। ऐसे लोग अपनी असलियत पर उतरकर समाज के हित के स्थान पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का निर्वहन करते दिखे।

इन तमाम गतिविधियों की पराकाष्ठा वर्ष 2019 में दिल्ली के शाहीन बाग में शुरू हुए ‘सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन’ में दिखी, जब नागरिकता संशोधन अधिनियम- 2019 और राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन (एनआरसी) को लेकर इकट्ठी हुई भीड़ ने सारी दिल्ली की यातायात व्यवस्था को लचर और पंगु बना दिया। इतना ही नहीं, दिल्ली से चलकर यह अराजक आंदोलन देश के कई हिस्सों में फैलने लगा। देश की अखंड़ता, एकता, सुरक्षा और पड़ोसी देशों में धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण दमनचक्र झेल रहे लोगों को भारत में नागरिकता दिये जाने के विरोध में विभिन्न संगठनों के साथ ही ‘पिंजरा तोड़ समूह’ भी शामिल रहा। हालाँकि इस समूह का कार्यक्षेत्र और गतिविधियाँ किसी भी दशा में शाहीन बाग के आंदोलन से संबंध नही रखती थीं।

दरअसल, देश के ऐसे राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन, जो आयातित-विदेशी विचारधाराओं पर भरोसा रखते हैं, उनको देश के शीर्षस्थ राजनीतिक पदों पर बैठे राष्ट्रवादी और देश के प्रति आस्थावान नेतृत्व की उपस्थिति ही सहन नहीं हो रही थी। देश की जनता की जागरूकता और राष्ट्र को सर्वोपरि मानने की धारणा ने जिस नेतृत्व को देश का दायित्व सौंपा है, वह पूरी कार्यकुशलता के साथ, सक्रियता के साथ देश के हित के लिए, सीमाओं की सुरक्षा के लिए, आंतरिक सुरक्षा-व्यवस्था और निष्पक्ष नीतिगत निर्णय लेने के लिए कृतसंकल्पित होकर कार्य कर रही है। यही बात ‘आजादी बचाओ’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘पिंजरा तोड़’ आदि को सहन नहीं हो पा रही है। इसी कारण दिल्ली के नामचीन विश्वविद्यालय पिछले दो-तीन वर्षों से इस तरह की गतिविधियों के बड़े और शुरुआती अड्डों के रूप में पहचान बना चुके हैं।

    नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में फरवरी, 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के मामले में दिल्ली पुलिस ने आतंकरोधी कानून (यूएपीए) के तहत पिंजरा तोड़ समूह की सदस्य देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और एक युवक आसिफ इकबाल तन्हा को गिरफ्तार किया था। इन दंगों में अलग-अलग जगहों पर लगभग 53 लोगों की जान गई थी। पुलिस ने इस मामले में भड़काऊ और देश-विरोधी भाषण देने, दंगों के लिए लोगों को उकसाने सहित अन्य मामलों में इन तीनों आरोपियों के खिलाफ न केवल सुबूत इकट्ठे करने के बाद कार्यवाही की, वरन् लगभग 750 लोगों के बयान भी दर्ज किए। सीधी सी बात है, कि पुलिस के द्वारा जुटाए गए तमाम साक्ष्य अदालत तक पहुँचे और तीनों आरोपियों को अलग-अलग जमानत भी दे दी। हिल्ली हाईकोर्ट ने किन तथ्यों को आधार बनाकर जमानत की याचिका को स्वीकार किया, उसके अध्ययन के तुरंत बाद ही दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर करके अपना पक्ष रखा।

सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा जमानत दिए जाने के लिए अपनाए गए दृष्टिकोण पर अपना पक्ष रखा, कि चार्जशीट में लिखे गए विस्तृत साक्ष्यों के स्थान पर सोशल मीडिया कथा को आधार बनाया गया है। दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा, कि दिल्ली हाईकोर्ट ने जो निष्कर्ष दिए हैं, वे रिकार्ड और मामले की सुनवाई के दौरान की गई दलीलों के विपरीत हैं। दिल्ली पुलिस का यह भी कहना है, कि पूर्व कल्पित तरीके से मामले को निपटाते हुए आरोपियों को जमानत दी गई है। आरोपियों द्वारा किए गए कृत्य को हाईकोर्ट ने बहुत ही सरल और सामान्य-सा मामला मानकर निर्णय दिया है, जबकि तीनों आरोपी 53 लोगों की हत्या सहित देश की संवैधानिक व्यवस्था को बाधित करने के जघन्य अपराध में निरुद्ध किए गए हैं।

दिल्ली पुलिस की इस अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट के जमानत देने के निर्णय की पड़ताल की है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रथम स्तंभ के रूप में न्यायपालिकाओं पर भारत की जनता को हमेशा भरोसा रहा है। कई अवसरों पर न्यायालयों द्वारा देश के लोकतंत्र की, साथ ही देश की संवैधानिक मर्यादा की रक्षा की गई है। इस प्रकरण पर भी दिल्ली उच्चन्यायालय ने अपने दायित्व को निभाया, लेकिन दिल्ली पुलिस के तर्कों को भी झुठलाया नहीं जा सकता। कार्यपालिका के महत्त्वपूर्ण अंग और कानून-व्यवस्था के अनुपालन के लिए पुलिसबल की कार्यप्रणाली और उसकी विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में रखा जाना उचित नहीं।

कुल मिलाकर दिल्ली पुलिस की सक्रियता और तत्परता की वजह से ही आज अलगाववाद फैलाने वाले, भड़काऊ भाषण देकर अव्यवस्था उत्पन्न करने वाले कृत्यों पर रोक लग सकी है। दूसरी ओर ‘पिंजरा तोड़’ समूह की मानसिकता है। इसे कुछ लोगों के समूह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसे संविधान द्वारा दी गई स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के अंग के रूप में भी नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि ‘पिंजरा तोड़’ समूह-मात्र नहीं है, बल्कि एक ऐसी विषाक्त वैचारिकता है, जो परिवार से लगाकर समाज तक, देश से लगाकर संवैधानिक व्यवस्था तक हर किसी को कई-कई खंडों-हिस्सों में बाँटने के लिए काम करती है।

राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के जुलाई, 2021 अंक में प्रकाशित)

Tuesday 1 June 2021

कोरोना काल में संकट-मोचक भारतीय सेना

 


कोरोना काल में संकट-मोचक भारतीय सेना


समाचार-1. कोविड सैंपलिंग और टीकाकरण अभियान में अपना योगदान देते हुए समोट, राजौरी (जम्मू व काश्मीर) स्थित सेना की राष्ट्रीय राइफल बटालियन ने प्राथमिक स्वास्थकेंद्र कंडी में कोविड सैंपल संग्रह और टीकाकरण केंद्र स्थापित किया। इसके साथ ही चिकित्सा कर्मियों और स्थानीय लोगों के लिए 500 लीटर क्षमता की जल भंडारण सुविधा को भी तैयार किया। (21 मई, 2021)

समाचार-2. भारतीय सेना के पूर्वी कमांड ने तीन दिन के अंदर ही असम के तेजपुर स्थित मेडिकल कॉलेज में 05 आईसीयू और 45 ऑक्सीजन बेड की कोविड केयर इकाई तैयार की। (14 मई, 2021)

समाचार- 3. भारतीय थलसेना ने उत्तर-पूर्व के राज्यों से अपने दो फील्ड अस्पताल एयरलिफ्ट करके पटना पहुँचा दिए और वहाँ पर 500 बिस्तरों का एक कोविड केंद्र तुरंत बनकर तैयार हो गया। (06 मई, 2021)

समाचार- 4. बेंगलुरू में कोविड-19 के बढ़ते मामलों को देखते हुए भारतीय वायुसेना जालाहल्ली वायुसेना स्टेशन में आम लोगों के लिए सौ बिस्तरों वाले कोविड देखभाल केंद्र का निर्माण करेगी। इसके पहले चरण में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर के साथ दो दिन के अंदर ही बीस बिस्तर तैयार हो जाएँगे। बाकी 80 बिस्तर 20 मई तक तैयार हो जाएँगे। इस देखभाल केंद्र में भारतीय वायुसेना के बेंगलुरू कमान अस्पताल के विशेषज्ञ, स्टाफ नर्स और अन्य पैरामेडिकल कर्मचारी तैनात होंगे। (04 मई, 2021)

ये समाचार बानगी के रूप में यहाँ पर उद्धृत किए गए हैं। वर्तमान कोरोना-संकट के समय भारतीय सेना के कामों और जनसेवा के लिए किए जा रहे प्रयासों से जुड़े समाचारों को समेटकर रखा जाए, तो उनकी गिनती करना भी कठिन होगा। कहने का आशय यह है, कि देश के उत्तरी छोर से लगाकर धुर दक्षिण तक और पूरब से लगाकर पश्चिम तक देश के हर एक हिस्से में भारतीय सेना के तीनों अंगों ने; जल, थल, वायु सेना ने जितनी तेजी और तत्परता के साथ काम किया है, वह अभिनंदनीय है।

भारतीय सेना के शौर्य को हमने पिछले वर्ष गालवान में देखा था। सर्जिकल स्ट्राइक में हमने अपनी सेना के पराक्रम को देखा है। इतना ही नहीं, सीमा पर होने वाली हर छोटी-बड़ी घटना पर भारतीय सेना की सक्रियता और देश की सीमाओं की सुरक्षा के लिए रात-दिन की मुस्तैदी हमें गर्व से भर देती है। भारत की सेना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सैन्य-बल में गिनी जाती है। सामान्य तौर पर सेना का दायित्व सीमांत सुरक्षा का होता है। शांति और स्थिरता के दिनों में सेना लोकहित के कामों में संलग्न होती है, लेकिन भारतीय सेना के लिए ये स्थितियाँ सहज-सुलभ नहीं हैं। हम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, कि हमारे सीमावर्ती देश, विशेषकर पाकिस्तान और चीन की सीमाएँ सुर्खियों में रहती हैं। पिछले वर्ष जब से चीन के वुहान से होकर सारी दुनिया में फैला कोरोना वायरस भारत के लिए संकट बनकर खड़ा हुआ था, उसी समय से चीन ने भारत की सीमाओं पर भी अपनी हरकतें इस तरह से शुरू की थीं, मानों उसे अच्छा मौका मिल गया हो। यह स्थितियाँ पिछले वर्ष भले ही शांत हो गईं हों, लेकिन इस वर्ष जब भारत में कोरोना संकट की दूसरी लहर ने अपना तांडव मचाना शुरू किया था, उस समय अच्छा अवसर जानकर चीन ने लद्दाख की सीमा पर अपनी हरकतें फिर से शुरू कर दी हैं। चीन का सैन्य युद्धाभ्यास भारत की उस शांति की पहल के एकदम विपरीत है, जिसमें चीन ने पहल की थी और शांति-वार्ता, सैनिकों को पीछे हटाने आदि पर सहमति जताई थी।

कहने का आशय यह, कि भारत की आंतरिक स्थिति ऐसी है, जहाँ कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका के साथ ही ऑक्सीजन, अस्पताल, दवा और चिकित्सकों की कमी को लेकर एक वर्ग भय का वातावरण बना रहा था। हालात नियंत्रण से बाहर हो रहे थे, और दूसरी तरफ तिब्बत सीमा पर चीन की हरकतें और पाक अधिकृत काश्मीर सहित भारत-पाकिस्तान सीमा पर आतंकी गतिविधियाँ भी तेज हो गईं। भारत की सेना के लिए यह निश्चित रूप से परीक्षा की घड़ी थी। ऐसी विषम स्थिति में भारतीय सेना केवल सीमाओं की सुरक्षा तक ही अपनी जिम्मेदारी को नहीं समेटती, वरन् देश की सीमाओं की सुरक्षा के साथ ही देशवासियों के जीवन की सुरक्षा के लिए भी पूरी तत्परता और सक्रियता के साथ आगे आती है।

पिछले वर्ष, लगभग इन्हीं दिनों भारतीय सेना ने कोरोना के संकट की शुरुआत को देखते हुए ‘ऑपरेशन नमस्ते’ की घोषणा की थी। मार्च, 2020 में जब भारत में कोरोना के नए मामले मिलना शुरू हुए थे, उस समय बहुत बड़ी आवश्यकता इस बात की थी, कि जनता को एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखे, ताकि संक्रमण की कड़ी टूट सके। इसके लिए जन-जागरूकता और सद्भावना को केंद्र में रखकर सेना-प्रमुख मनोज मुकुंद नरवणे ने इस अभियान को पूरी ऊर्जा के साथ संचालित करते हुए सेना के जन-सरोकारों को स्पष्ट किया था। उस समय सेना द्वारा कई स्थानों पर एकांतवास केंद्रों की स्थापना की गई थी। विभिन्न सुदूरवर्ती क्षेत्रों से मरीजों और जरूरतमंदों को अस्पतालों तक पहुँचाने, चिकित्सीय सुविधाएँ आदि उपलब्ध कराने के लिए अनथक प्रयास किए गए थे। भारतीय सेना का काम करने का अपना अनूठा तरीका है। देश पर आने वाले किसी भी संकट का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए सेना विधिवत् अभियान चलाती है। इन अभियानों की सफलता के लिए, सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए और संगठित होकर काम करने के लिए सेना द्वारा चलाए जाने वाले अभियानों को ऐसे नाम दिए जाते हैं। कोरोना की दूसरी लहर के साथ ही भारतीय सेना ने पुनः एक नए नाम के साथ कोरोना को हराने के लिए कमर कसी है। कोरोना की दूसरी लहर का मुकाबला करने के लिए भारतीय सेना ने अपने अभियान को ‘ऑपरेशन को-जीत’ नाम दिया है।

वर्ष 2021 में कोरोना संकट की दूसरी लहर पहले से कहीं अधिक तीव्र और घातक सिद्ध हुई। ऐसी स्थिति में भारतीय सेना एक बार फिर से दुगुनी ऊर्जा के साथ देश के लोगों की सहायता के लिए सामने आई। कहा जाता है, कि परिवार के मुखिया की सक्रियता, उसकी तत्परता और समर्पित प्रतिबद्धता सारे परिवार को न केवल सशक्त, समर्थ करती है, वरन् असीमित ऊर्जा के साथ लक्ष्य प्राप्ति के लिए सारे परिवार को संलग्न करती है। इस दृष्टि से भारत के माननीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की सक्रियता अभूतपूर्व है। उनके द्वारा एक लेख अप्रैल माह में लिखा गया था। लेख का शीर्षक था- अदृश्य दुश्मन से जंग : रक्षा मंत्रालय का कोविड-19 को जवाब’ यह लेख जितना भावुक कर देने वाला था, उतना ही प्रेरक था। इस लेख पर देश के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रोत्साहनपरक टिप्पणी ने भी भारतीय सेना क जोश से भर दिया।

जिस समय देश में ऑक्सीजन की कमी को लेकर स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर हो गईं थीं, उस समय भारतीय वायुसेना ने ऑक्सीजन उत्पादक क्षेत्रों से ऑक्सीजन के टैंकर, ऑक्सीजन उत्पादक संयंत्र और अन्य उपकरणों को तेजी के साथ जरूरत वाले नगरों-प्रदेशों में पहुँचाया। देश के अंदर विभिन्न दुर्गम स्थानों, जैसे पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में, लद्दाख के दुर्गम क्षेत्रों में भारतीय वायुसेना ने परीक्षण प्रयोगशाला संयंत्रों, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर्स, चिकित्सीय उपकरणों और दवाइयों के साथ ही मरीजों को ‘एयरलिफ्ट’ करने में पूरी सक्रियता दिखाई। भारतीय वायुसेना के परिवहन वायुयानों ने विदेशों से चिकित्सा-सामग्री लाने में भी पूरी तत्परता दिखाई। सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम और बैंकाक आदि देशों से खाली क्रायोजैनिक ऑक्सीजन कंटेनर लाने का काम भारतीय वायुसेना ने बखूबी किया। देश में टीकाकरण अभियान को मजबूत करने के लिए विदेशों से टीकों की खेप लाने के साथ ही देश के अंदर विभिन्न स्थानों में टीकों की खेप पहुँचाने में वायुसेना की सक्रियता अतुलनीय है।

भारतीय वायुसेना के सी-17 ग्लोबमास्टर वायुयान विगत महीने भर से तरल ऑक्सीजन और अन्य संयंत्रों को देश के विभिन्न स्थानों में पहुँचाने के लिए लगातार काम कर रहे हैं। पूरे देश में वायुसेना के सभी प्रमुख हवाई अड्डे, वायुसेना के सभी बेड़े, सभी श्रेणियों के परिवहन विमान पूरी मुस्तैदी के साथ चौबीसों घंटे तैनात हैं। इसका असर हमें देश में तेजी से सुधरती स्थितियों में दिखाई देता है। आज देश में ऑक्सीजन की कमी की खबरें अगर नहीं सुनाई देतीं, तो इसके पीछे बड़ा कारण भारतीय वायुसेना की तत्परता है। भारतीय वायुसेना ने इस काम को कुशलतापूर्वक करने के लिए एक स्वतंत्र ‘एयर सपोर्ट सेल’ बनाया हुआ है। यह प्रकोष्ठ देश के विभिन्न राज्यों की प्रशासनिक इकाइयों के साथ ही केंद्रीय प्रशासनिक इकाइयों और चिकित्सा मंत्रालय के साथ समन्वय स्थापित करके देश की चिकित्सा सुविधाओं को मजबूत करने के लिए अनवरत सक्रिय है। नौसेना और थलसेना द्वारा भी अलग-अलग सहायता प्रकोष्ठ स्थापित किए गए हैं। ये प्रकोष्ठ अपने स्तर पर स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप राज्य सरकारों, नागरिक संगठनों आदि को सहायता उपलब्ध कराने हेतु दिन-रात सक्रिय हैं।

भारतीय नौ सेना के युद्धपोतों ने विदेशों से ऑक्सीजन सिलेंडर और टैंक आदि की खेप लाकर देश में ऑक्सीजन की कमी को नियंत्रित करने में बहुत बड़ा योगदान दिया। भारतीय नौसेना के कमान अस्पतालों में कार्यरत विशेषज्ञों, चिकित्सकों और पैरामेडिकल स्टाफ को दिल्ली, अहमदाबाद, पटना आदि अधिक संक्रमित स्थानों पर चिकित्सीय सहायता देने के लिए नियुक्त किया गया है। पश्चिमी नौसेना कमान ने प्रवासी कामगारों के लिए तीन बड़े अस्पतालों को तैयार करने के साथ ही प्रवासी कामगारों को आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराकर पलायन को रोकने हेतु कार्य किए।

भारतीय थल सेना के लगभग सभी चिकित्सालय सेवानिवृत्त सैनिकों के परिवारों और आम जनता को चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए कार्य कर रहे हैं। भारतीय सेना ने देश के विभिन्न दूरदराज के इलाकों में छोटे-छोटे स्वास्थ्य केंद्रों के परिचालन के साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा संचालित प्राथमिक स्वास्थ केंद्रों में चिकित्सा सुविधाएँ बढ़ाने में योगदान दिया है।

भारतीय सेना की चिकित्सा शाखा और अनुसंधान शाखा के कामों का उल्लेख किए बिना कोरोना के संकटकाल में भारतीय सेना के प्रयासों पर बात पूरी नहीं हो सकेगी। भारतीय सेना की चिकित्सा शाखा के सेवारत चिकित्साकर्मियों और सहयोगी कर्मियों की बड़ी संख्या देश के अलग-अलग हिस्सों में आम नागरिकों के लिए चिकित्सा-सेवाएँ सुलभ करा रही है। इसके साथ ही चिकित्साक्षेत्र में स्वास्थ्यकर्मियों की कमी को देखते हुए सेना ने अपने सेवानिवृत्त चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों को पुनः नियुक्त किया है। यह सेना की अनुशासन-बद्ध कार्यशैली का ही प्रभाव है, कि अपनी चिंता किए बिना बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त चिकित्साकर्मी भी देश की सेवा के लिए आगे आए हैं।

भारतीय सेना की शोध-अनुसंधान शाखाओं में से रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) का नाम आजकल चर्चा में है। इसमें कोई दो-राय नहीं, कि इस संगठन में अनेक कार्यकुशल और उच्चकोटि के वैज्ञानिक कार्यरत हैं, किंतु इनकी सक्रियता और कार्यकुशलता कोरोना के संकटकाल में खुलकर तब सामने आई, जब डीआरडीओ द्वारा 2-डीऑक्सी-डी-ग्लूकोज दवा को कोरोना संक्रमितों के उपचार के लिए तैयार कर दिया गया। इस दवा को ‘2-डीजी’ के नाम से जाना जाता है। यह कोरोना के मरीजों के शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा को संतुलित करने के साथ ही सार्स-कोविड वायरस के विस्तार को रोकती है। इस दवा के साथ ही डीआरडीओ ने ‘डिपकोवॉन’ नामक एक किट भी तैयार की है, जिसके द्वारा केवल 75-80 मिनट के अंदर शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का स्तर जाँचा जा सकता है। ये दोनों दवाएँ बहुत ही कम मूल्य पर आज बाजार में उपलब्ध हैं और हजारों कोरोना मरीजों के लिए जीवन-रक्षक बनी हुई हैं।

पिछले लगभग पंद्रह महीनों से भारत में व्याप्त कोरोना-संकट के बीच भारतीय सेना की सक्रियता और उसके अनथक प्रयासों का विस्तार असीमित है, जिसके अंश-मात्र का उल्लेख ही यहाँ पर हो सका है। भारतीय सेना के लिए चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। एक साथ चार मोर्चों पर कुशलता के साथ संघर्ष करते हुए हम अपने वीर सैनिकों को देखते हैं। तिब्बत सीमा पर चीन की चालबाजियों के साथ, पाक सीमा पर आतंकियों की हरकतों के साथ, देश के अंदर कोरोना के संकट के साथ, और देश के ‘जयचंदों’ के कुचक्रों के साथ भारतीय सेना संघर्षरत है। अपने पराक्रम, अपने शौर्य, अपने अनुशासन, अपने संगठित प्रयास, अपनी तत्परता, अपने साहस के साथ ही भारतीय सेना ने कोरोना के संकटकाल में अपने अनथक सेवाभाव से यह सिद्ध कर दिया है, कि वह सीमाओं की रक्षक ही नहीं, देश की संकट-मोचक भी है।

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के मई, 2021 अंक में प्रकाशित)

डॉ. राहुल मिश्र