कैसे हैं ये ‘पिंजरा
तोड़’ वाले लोग....
हाल
ही में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा मंजूर की गई एक जमानत की अर्जी के बाद से ही दिल्ली
दंगों समेत पिंजरा तोड़ समूह फिर से चर्चा में आ गया है। हालाँकि ये चर्चा में रहें,
ऐसी विशिष्टता न तो जमानत पर रिहा हुए पिंजरा तोड़ समूह के सदस्यों देवांगना
कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा की है, और न ही पिंजरा तोड़ समूह की...।
फिर भी ‘पिंजरा तोड़’ उस मानसिकता को जानने-समझने के लिए बहुत जरूरी है, जिसे
वृहत्तर भारतीय समाज की जड़ों पर लगने वाले दीमक की संज्ञा दी जा सकती है।
हिंदी
सिनेमा के साथ ही हिंदी की गीत परंपरा के बहुत ही प्रसिद्ध गीतकार हुए हैं- रामचंद्र
नारायण द्विवेदी, जिन्हें कवि प्रदीप के नाम से जाना जाता है। कवि प्रदीप का एक
बहुत चर्चित गीत है- पिंजरे के पंछी रे..., तेरा दरद ना जाने कोय...। यह गाना नागमणि
फिल्म का है। हालाँकि यह फिल्म देश की आजादी के दस वर्षों बाद, सन् 1957 में रिलीज
हुई थी, लेकिन फिल्म का यह गाना देश की पराधीनता की स्थितियों को याद दिलाने के लिए
बहुत उपयुक्त लगता है, गुलामी के बंधनों को खुलकर बताता है। इसका दूसरा पक्ष
अध्यात्म का है, आध्यात्मिकता से जुड़ा है। भारतीय चिंतन-दर्शन परंपरा में भौतिक
शरीर को पिंजरा माना जाता है। इसी से पिंजर या अस्थि-पंजर भी बना है। इसमें बसने
वाली आत्मा पिंजरे का पंछी कही जाती है, जिसका ध्येय परमात्मा से मिलना होता है।
इस तरह कवि प्रदीप का यह गाना दो अलग अर्थों और संदर्भों को रखता है। यहाँ कवि
प्रदीप के ‘पिंजरे के पंछी रे...’ को बताने का उद्देश्य यही था, कि पिंजरा भारतीय
समाज-जीवन में अलग और विशेष महत्त्व रखने वाला है।
इधर
कुछ वर्षों से देश की राजधानी दिल्ली की हवाओं में पिंजरे को तोड़ने की बातें तैरने
लगी हैं। दिल्ली की ये हवाएँ देश के दूसरे बड़े शहरों में भी अपना असर दिखाने में
पीछे नहीं रहीं हैं। समाज के कुछ वर्गों में यह ‘पिंजरा तोड़’ बहुत चर्चित रहा, और
इसे समग्र भारतीय समाज की आवाज के तौर पर दिखाने की कोशिशें भी लगातार होती रहीं। जबकि
सामान्यजन के लिए ‘पिंजरा तोड़’ एक अबूझ पहेली की तरह ही रहा; आखिर कौन-सा पिंजरा,
और क्यों इस पिंजरे को तोड़ा जाना है....। वास्तविकता यह है, कि यह पिंजरा न तो
देश की पराधीनता को व्याख्यायित करने वाला है, और न ही भारतीय आध्यात्मिक परंपरा
से जुड़ा हुआ है। यह पिंजरा ऐसा है, जो विशुद्ध उच्छृंखल और समाज को तोड़ने वाले विचारों
से जुड़ा हुआ है।
वर्ष
2015 के अगस्त महीने में ‘पिंजरा तोड़ समूह’ दिल्ली के कुछ विश्वविद्यालयों और
महाविद्यालयों में चर्चित हुआ था। उच्चशिक्षा केंद्रों में महिलाओं-छात्राओं को
उत्पीड़न से बचाने और आपराधिक कृत्य करने वालों को शीघ्र दंडित किए जाने की माँग
को लेकर जो आंदोलन खड़ा हुआ था, उसे कुछ राजनीति-प्रेरित तत्त्वों ने अपने कब्जे
में ले लिया और इस आंदोलन का स्वरूप बदल गया। शिक्षण-संस्थानों की विसंगतियों को
दूर करने के स्थान पर यह आंदोलन तथाकथित पितृसत्तात्मक व्यवस्था की खामियों को गिनाने
लगा। इसे नाम भी इसी के अनुरूप दिया गया- पिंजरा तोड़..।
भारतीय
सामाजिक संरचना कभी भी ऐसी नहीं रही, जहाँ महिलाएँ या समाज के अन्य वर्गों के लोग
उपेक्षित रहे हों। सभी को समानता का अधिकार प्राप्त है। भारतीय संविधान में भी यह
व्यवस्था विद्यमान है। इन सबके बावजूद एक वर्ग ऐसा भी है, जो सदैव असंतुष्टि में
जीता है। उसके लिए समाज की संरचना और सामाजिक व्यवस्था के अंग असहनीय होते हैं।
ऐसे लोग समाज के सूत्रों-तंतुओं को तोड़कर अस्थिरता, अव्यवस्था और अराजकता का
वातावरण बनाने के लिए अवसर तलाशते रहते हैं। ‘पिंजरा तोड़ समूह’ का गठन भी इसी को
केंद्र में रखकर हुआ। ‘पिंजरा तोड़ समूह’ की गतिविधियाँ और विरोध के तरीके इस तरह
के रहे हैं, कि उनको यहाँ पर लिखा जाना भी संभव नहीं। यह समूह पितृसत्तात्मक
व्यवस्था के विरोध का नाम ले-लेकर जिस तरह से महिलाओं-बालिकाओं के मन में जहर भरने
का काम करता रहा है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। महिलाओं की स्वतंत्रता, उन्हें
पुरुषों के समान अधिकार और ऐसे ही तमाम विषयों पर आंदोलन करते-करते अराजकता की
सीमा के पार निकल जाने का अतीत भी इस समूह के साथ है। यहाँ यह भी कहना आवश्यक
होगा, कि हमारे आसपास अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों में कुछ ऐसे
भी हैं, जहाँ स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। उन्हें अपने मन के कपड़े पहनकर
बाहर निकलने की आजादी नहीं है, उनके लिए तो खुली हवा में साँस लेना भी प्रतिबंधित
है...शिक्षा और रोजगार के लिए स्वतंत्र होना तो अलग और दूर की बात है। ऐसी
बालिकाओं-स्त्रियों के लिए पिंजरा तोड़ने की बात यह समूह नहीं करता। इस समूह के
लिए स्त्री-अधिकारों की बातें भी धर्म-जाति के अनुसार ही निर्धारित होती हैं।
कुछ
समय पहले ‘पिंजरा तोड़ समूह’ की गतिविधियों को उस समय खाद-पानी मिला, जब दिल्ली
में आजादी माँगने वाले लोग भी सक्रिय हो गए। अगर देखा जाए, तो दोनों का ध्येय एक
ही है। एक तरफ पिंजरा तोड़कर आजाद होने की बात है, तो दूसरी तरफ सीधे आजादी माँगी
जा रही है। अब यक्ष-प्रश्न तो यही है, कि आखिर आजादी किससे माँगी जा रही है, गुलाम
किसने बनाया है और आजादी माँगने का प्रयोजन क्या है? अगर इन तीनों प्रश्नों के
उत्तर खोजने की कोशिश करेंगे, तो पूरे देश में तिलमिलाए हुए अलगाववादियों की खीझ
आपको दिखाई देगी। वर्ष 2019 में जम्मू-काश्मीर और लद्दाख को केंद्रशासित प्रांत
बनाने के बाद तो यह खीझ अपने चरम पर पहुँच गई थी। इसके पहले कई ऐसे कानून, जो महिलाओं
को उनके अधिकारों से वंचित करते थे, जो आतंकी-देशविरोधी गतिविधियों को रोकने में बाधक
बनते थे, उन सबको संशोधित करने के केंद्र सरकार के निर्णय ने कई आंदोलनजीवी तैयार
कर दिए थे। जिन कानूनों से महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा मिले, उनकी वैवाहिक स्थिति अस्थिर
होने के स्थान पर सबल हो और इसके माध्यम से समाज में अनाचार रुके, ऐसे कानूनों का संसद
से पारित कराया जाना और उन्हें लागू कराया जाना भी कुछ लोगों को सहन नहीं हुआ।
हमने ‘अवार्ड वापसी’ करने वाले तमाम लोगों के चरित्र को भी देखा, जिन्हें समाज-जीवन
के विभिन्न क्षेत्रों में बड़ा सम्मान मिलता था। ऐसे लोग अपनी असलियत पर उतरकर
समाज के हित के स्थान पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का
निर्वहन करते दिखे।
इन
तमाम गतिविधियों की पराकाष्ठा वर्ष 2019 में दिल्ली के शाहीन बाग में शुरू हुए ‘सीएए-एनआरसी
विरोधी आंदोलन’ में दिखी, जब नागरिकता संशोधन अधिनियम- 2019 और राष्ट्रीय नागरिकता
पंजीयन (एनआरसी) को लेकर इकट्ठी हुई भीड़ ने सारी दिल्ली की यातायात व्यवस्था को
लचर और पंगु बना दिया। इतना ही नहीं, दिल्ली से चलकर यह अराजक आंदोलन देश के कई
हिस्सों में फैलने लगा। देश की अखंड़ता, एकता, सुरक्षा और पड़ोसी देशों में
धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण दमनचक्र झेल रहे लोगों को भारत में नागरिकता दिये
जाने के विरोध में विभिन्न संगठनों के साथ ही ‘पिंजरा तोड़ समूह’ भी शामिल रहा।
हालाँकि इस समूह का कार्यक्षेत्र और गतिविधियाँ किसी भी दशा में शाहीन बाग के
आंदोलन से संबंध नही रखती थीं।
दरअसल,
देश के ऐसे राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन, जो आयातित-विदेशी विचारधाराओं पर भरोसा
रखते हैं, उनको देश के शीर्षस्थ राजनीतिक पदों पर बैठे राष्ट्रवादी और देश के प्रति
आस्थावान नेतृत्व की उपस्थिति ही सहन नहीं हो रही थी। देश की जनता की जागरूकता और राष्ट्र
को सर्वोपरि मानने की धारणा ने जिस नेतृत्व को देश का दायित्व सौंपा है, वह पूरी
कार्यकुशलता के साथ, सक्रियता के साथ देश के हित के लिए, सीमाओं की सुरक्षा के
लिए, आंतरिक सुरक्षा-व्यवस्था और निष्पक्ष नीतिगत निर्णय लेने के लिए कृतसंकल्पित
होकर कार्य कर रही है। यही बात ‘आजादी बचाओ’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘पिंजरा
तोड़’ आदि को सहन नहीं हो पा रही है। इसी कारण दिल्ली के नामचीन विश्वविद्यालय पिछले
दो-तीन वर्षों से इस तरह की गतिविधियों के बड़े और शुरुआती अड्डों के रूप में पहचान
बना चुके हैं।
नागरिकता
संशोधन अधिनियम के विरोध में फरवरी, 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के मामले में दिल्ली
पुलिस ने आतंकरोधी कानून (यूएपीए) के तहत पिंजरा तोड़ समूह की सदस्य देवांगना
कलिता, नताशा नरवाल और एक युवक आसिफ इकबाल तन्हा को गिरफ्तार किया था। इन दंगों
में अलग-अलग जगहों पर लगभग 53 लोगों की जान गई थी। पुलिस ने इस मामले में भड़काऊ
और देश-विरोधी भाषण देने, दंगों के लिए लोगों को उकसाने सहित अन्य मामलों में इन
तीनों आरोपियों के खिलाफ न केवल सुबूत इकट्ठे करने के बाद कार्यवाही की, वरन् लगभग
750 लोगों के बयान भी दर्ज किए। सीधी सी बात है, कि पुलिस के द्वारा जुटाए गए तमाम
साक्ष्य अदालत तक पहुँचे और तीनों आरोपियों को अलग-अलग जमानत भी दे दी। हिल्ली
हाईकोर्ट ने किन तथ्यों को आधार बनाकर जमानत की याचिका को स्वीकार किया, उसके
अध्ययन के तुरंत बाद ही दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी)
दायर करके अपना पक्ष रखा।
सुप्रीम
कोर्ट में दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा जमानत दिए जाने के लिए अपनाए गए
दृष्टिकोण पर अपना पक्ष रखा, कि चार्जशीट में लिखे गए विस्तृत साक्ष्यों के स्थान
पर सोशल मीडिया कथा को आधार बनाया गया है। दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में यह
भी कहा, कि दिल्ली हाईकोर्ट ने जो निष्कर्ष दिए हैं, वे रिकार्ड और मामले की
सुनवाई के दौरान की गई दलीलों के विपरीत हैं। दिल्ली पुलिस का यह भी कहना है, कि
पूर्व कल्पित तरीके से मामले को निपटाते हुए आरोपियों को जमानत दी गई है। आरोपियों
द्वारा किए गए कृत्य को हाईकोर्ट ने बहुत ही सरल और सामान्य-सा मामला मानकर निर्णय
दिया है, जबकि तीनों आरोपी 53 लोगों की हत्या सहित देश की संवैधानिक व्यवस्था को
बाधित करने के जघन्य अपराध में निरुद्ध किए गए हैं।
दिल्ली
पुलिस की इस अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट के जमानत देने के
निर्णय की पड़ताल की है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रथम स्तंभ के रूप में न्यायपालिकाओं
पर भारत की जनता को हमेशा भरोसा रहा है। कई अवसरों पर न्यायालयों द्वारा देश के
लोकतंत्र की, साथ ही देश की संवैधानिक मर्यादा की रक्षा की गई है। इस प्रकरण पर भी
दिल्ली उच्चन्यायालय ने अपने दायित्व को निभाया, लेकिन दिल्ली पुलिस के तर्कों को
भी झुठलाया नहीं जा सकता। कार्यपालिका के महत्त्वपूर्ण अंग और कानून-व्यवस्था के
अनुपालन के लिए पुलिसबल की कार्यप्रणाली और उसकी विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में
रखा जाना उचित नहीं।
राहुल मिश्र
(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के जुलाई, 2021 अंक में प्रकाशित)
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