Thursday 11 December 2014

एक देश और मरे हुए लोग : मन को मापने की कविताई

पुस्तक-समीक्षा

एक देश और मरे हुए लोग : मन को मापने की कविताई
अपने परिवेश के यथार्थ को उसके समग्र यथार्थ के साथ देखना और अभिव्यक्त करना आज के दौर की कविताओं का मुख्य लक्ष्य है। यह कविताकारों के लिए चुनौती भी है। यथार्थ को, समय के सत्य को व्यक्त करने के कारण आज की कविता में कथ्य की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण हो गई है। कविता का कथ्य और उसमें निहित चिंतन की प्रभावोत्पादकता को पाठकीय चेतना के उद्वेलन साथ एकाकार कर पाना कवि-कर्म की विलक्षणता के चरम पर स्थापित होता है। इसके लिए कवि का मात्र कवि होना पर्याप्त नहीं होता है। कवि-हृदय भावुक होकर सामयिक यथार्थ को अपने सृजन के माध्यम से शब्दों में पिरो सके, यह भी संभव नहीं है। सामयिक यथार्थ को समग्रता के साथ, पूर्णता के साथ और सत्य की चरमावस्था के साथ अभिव्यक्त कर पाने की जिजीविषा को लेकर आज की कविता संघर्ष कर रही है। कविता के इस संघर्ष की सार्थकता विरले कवियों के सर्जन में ही देखने को मिलती है। भावुक हृदय के साथ अपने परिवेश के समग्र यथार्थ को देखते हुए और साथ ही उसमें जीते और उसे भोगते हुए चिंतन-पटल पर उसके बारीक से बारीक पक्ष को उकेरने की चेष्टा करते हुए अपने कवि-कर्म और कवि-धर्म को निबाहने की चेष्टा करने वाले कवि ही कविता के संघर्ष के वर्तमान से साम्य स्थापित कर पाते हैं। ऐसे ही विरले कवियों में एक नाम है, विमलेश त्रिपाठी का। युवा-कवि विमलेश त्रिपाठी के लगभग सभी काव्य-संग्रहों में कविता के संघर्ष का वर्तमान कदम-दर-कदम अपनी सार्थकता को खोजता प्रतीत होता है। विमलेश त्रिपाठी का हाल ही में प्रकाशित काव्य-संग्रह एक देश और मरे हुए लोग इसी की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।
समीक्ष्य कृति में पाँच उपशीर्षकों के अंतर्गत सैंतालिस कविताएँ संकलित हैं। पहले खंड- इस तरह मैं, में कवि अपने कवि-कर्म की तासीर को प्रकट करता है। समीक्ष्य कृति का पहला उपशीर्षक ही कविता के सृजन-संघर्ष को अपने परिचय में प्रकट कर देता है-
एक श द साझा करने में/ करनी पड़ती सदियों की यात्राएं/ और मैं हूं कि लाख कोशिश के बाद भी/ वह कर नहीं पाता ।।
इस कठिन समय में/ बोलना और लिखना/ सबसे ज्यादा दुष्कर होता जाता मेरे लिए ।।
कवि के विचारों का दबाव एक ओर उसे लिखने को प्रेरित करता है तो दूसरी ओर अनुभूति की गहनता लिखने और बोलने की प्रक्रिया को दुष्कर बना देती है। इसके बीच समीक्ष्य कृति की पहली कविता- एक गांव हूं, गाँव से भावनात्मक लगाव प्रकट करती है। एक बूढ़ा हाँफता गांव भौतिकता और विकास के आगमन को अपने अंदर महसूस करता है। कवि बूढ़े हाँफते गांव को अपने अंदर महसूस करता है। अनुभूति का यह जुड़ाव रोते हुए पेड़, रोती बँसवारी और रोती हुई पगडंडी के जरिए गाँव की सच्ची तसवीर को, गाँव के साथ भावनात्मक संलग्नता शब्दों में प्रकट कर देता है। कहीं जाऊंगा नहीं, कविता में मुंडेर पर रोज आकर बैठने वाली चिड़िया में गाँव की उस विरहिणी नवयौवना का अक्स उभर आता है, जिसका कोई अपना बिछड़ गया है। निर्मल हृदय और कोमल मन वाले पंछियों के लिए जिस तरह यह दुनिया माफिक नहीं रह गई, उस तरह की वेदना कवि महसूस करता है, अपने लिए भी। यह वही शहर, बदलते शहरों के जरिए घटती मानवीय संवेदना को, सिमटते मानवीय मूल्यों को और संबंधों की गरमाहट के शीतल होते जाने की दुःखद-दारुण स्थितियों को प्रकट करती कविता है। कला की दुनिया का अस्तित्व भौतिकता के पीछे भागते लोगों की नजरों में कैसा है, उसे कवि ने न केवल स्वीकार किया है, वरन् बेईमान और बेशरम के रूप में बुद्धिमान की नई परिभाषा के बीच मूर्ख बने रहकर कला की दुनिया को बचाने के लिए मूर्खता का वरण कर लिया है। कवि की यह स्वीकार्यता न रोको कोई, कविता के माध्यम से एक कदम आगे बढ़ते हुए शब्द के सर्जकों की वास्तविकता को, उनके वर्तमान को साझा करती है-
कलम बंद करो/ मंच से उतरो/ चलो इस देश की अंधेरी गलियों में/ सुनो उस आदमी की बात/ उसको भी बोलने का मौका दो कोई ।। (न रोको कोई, पृ. 16)
आदमी और जिंदा रहूँगा मैं, कविताओं में गर्व और विश्वास के ढहते-गिरते जाने की त्रासदी के बीच नायकत्व का दर्जा छोड़कर आदमी और मात्र आदमी बनने का संघर्ष एक ओर है तो दूसरी ओर इस संघर्ष के सफल परिणति तक पहुँचने की राह में आने वाली बाधाओं से, वैचारिक संक्रमण से और अन्याय-अराजकता से जूझने का माद्दा भी है। संघर्ष में सच, विश्वास और आत्मगौरव अपनी पूरी शक्ति से प्रतिरोध करता है तो नकारात्मक शक्तियाँ हर बार सच को पराजित करने के प्रयास में गहरी निराशा में डूबती चली जाती हैं। उनकी क्रूरता क्रमशः बढ़ती जाती है और सच हर बार झूठ को पराजित करता जाता है। मैं एक पेड़, कविता में कवि पेड़ से गिरते, धूल में मिलते पत्तों और फिर नए पत्तों के आने के माध्यम से रचनात्मकता की नियति को बयाँ करता है। पेड़ का गिरना रचनाधर्मी की दुखद परिणति को प्रकट करता है, जिस पर उग आने वाली शानदार इमारत रचनाधर्मिता पर हावी होती भौतिक प्रगति की मानसिकता को बयाँ करती है। पेड़ से कहता हूँ, खिड़की पर फदगुदिया, धरती को बचाने के लिए और जीने की लालसा, कविताओं में प्रकृति के साथ भावनात्मक जुड़ाव के बीच मानव और मानवेतर संबंधों की अनेक अनगढ़ परिभाषाएँ यक्साँ हैं।
इस तरह मैं, कविता में कवि अपने मन के भावों को सामयिक स्थितियों के साथ इस तरह एकाकार करता है कि मानवता, मानव-मूल्यों और मानव के बीच कोई भेद नहीं रह जाता है। कवि लिखता है-
इस तरह मैं आदमी एक/ इस कठिन समय का/ जिंदा रहता अपने से इतर बहुत सारी चीजों के बीच/ अशेष...।। (इस तरह मैं, पृ. 26)
इसी कविता में कवि-कर्म के वर्तमान में झाँककर आदमियत को कवि से बड़ा साबित करने का प्रयास भी अपने अनूठे ढंग से होता है-
कविता और कविता के बाहर एक गुमनाम कवि की तरह/ लड़ता हुआ समय के तीखे पहाड़ों गहरी-अंधी खाइयों से/ और इसी बीच कविताएं बनती जातीं असंख्य/ सफेद कागज पर काले-काले अक्षर दौड़ते निरुद्देश्य/ सचमुच का कोई आदमी नहीं बनता दिखता ।। (इस तरह मैं, पृ. 27)
मानसिकता के विकृत होते जाने के बीच एक अनछुआ पक्ष अपने सामयिक यथार्थ के साथ प्रकट होता है। शहरों और गाँवों के बीच की बढ़ती खाई और गाँवों में घटते संसाधन विकृतियों की, व्यवस्था की विद्रूपताओं की नई परिभाषा रचते हैं। गाँवों के वीरान होते जाने और रोजगार के लिए गाँवों के लोगों के शहरों की ओर भागते जाने की दुखद स्थितियों के बीच कवि अपने गाँव को याद कर लेता है-
गांव में अब रह गए हैं सिरफ पागल और बूढ़े/ स्त्रियां गांव के चौखट पर परदेशियों के आने का अंदेशा लिए/ जवान सब चले गए दिल्ली सूरत मुंबई कोलकाता/ जंतसार की जगह गूंजता है मोबाइल का रिंगटोन ।। (इस तरह मैं, पृ. 28)
संग्रह का दूसरा खंड है- बिना नाम की नदियां। इस खंड में आधी दुनिया के विविध रंग, उनके सुख-दुख और उनकी अनुभूतियाँ प्रकट होतीं हैं। बहनें, मां के लिए, अगर भेजना, आजी की खोई हुई तस्वीर मिलने पर, उस लड़की की हंसी, होस्टल की लड़कियां और एक स्त्री के लिए, कविताओं में कवि ने महिलाओं के जीवन को, उनके संसार को उस शिद्दत के साथ साझा किया है, जिसे महसूस कर पाना सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। कवि का अनुभूत यथार्थ ऐसी आस्था और श्रद्धा का सृजन करता है, जिसको शब्दों में व्यक्त कर पाना भी कठिन हो जाता है। कवि केवल इतना ही कह पाता है कि-
फिर कहता हूं/ कर्जदार हूं मैं तुम्हारा/ कि कैसे चुकाऊंगा यह कर्ज/ नहीं जानता ।।
हां! फिलहाल यही करूंगा/ कि कल तड़के घर से निकलूंगा/ जाऊंगा उस औरत के घर/ जो मेरे दो बच्चे की मां है/ और पहली बार/ निरखूंगा उसे एक बच्चे की नजर से ।। (उस लड़की की हँसी, पृ. 46)
कभी माँ, कभी आजी, कभी बहन, कभी पत्नी, तो कभी अल्हड़ खिलखिलाती शोख लड़कियाँ-छात्राएँ ऐसी नदियों की तरह से होती हैं, जिनके प्रवाह में जीवन की गति निहित होती है, फिर भी उनका अपना वजूद, उनकी अपनी सोच, अपनी अनुभूतियाँ क्या वहाँ होती हैं? हर समय उन्हें पुरुषों के आश्रित रहना पड़ता है, ये नदियाँ बिना नाम की ही रह जातीं हैं। ऐसी बिना नाम की नदियों की अनुभूति का प्रवाह पाठकों की वैचारिकता को उद्वेलित कर देता है।
संग्रह का तीसरा खंड- दुख-सुख का संगीत, ऐसे संगीत को सुनने के लिए विवश कर देता है, जिसमें दुख और सुख के सुर-ताल होते हैं। जिसे सुन पाना आज के भाग-दौड़ भरे जीवन में सहज नहीं होता। अपने अंदर झाँककर देख पाना, यांत्रिक जीवन को जीते-भोगते हुए एक व्यक्ति के रूप में स्वयं को महसूस कर पाना बहुत कठिन है। इस कठिन दौर के बीच खुद का विश्लेषण संग्रह के इस खंड में बहुत बारीकी से देखने को मिलता है। बहुत समय पहले और बाद की नींद में सपना, शीर्षक कविता में अतीत की सुखद यादों का स्मरण वर्तमान के एकाकी, भौतिकतावादी, व्यस्त जीवन की जटिलताओं के बीच ऐसे अवसाद का सृजन कर देता है, जिसे सामान्यतः महसूस करना कठिन ही होता है। इसी तरह का भाव सपने कविता में भी प्रकट होता है-
बहुत जमाने पहले बारिश के पानी से भीगते/ जेब में नौकरी की अर्जियां थे/ दफ्तर की सीढ़ियों पर बेमन/ दौड़ते एक जोड़ी जूते/ सामान्य अध्ययन की मोटी किताब के पन्ने में छुपे/ एक लड़की के लिखे/ आखिरी खत के कांपते शब्द थे/ धुंधलाए से ।। (सपने, पृ. 57)
बहुत जमाने पहले की बारिश, ओझा बाबा को याद करते हुए, तुम्हें ईद मुबारक हो सैफूदीन, अंकुर के लिए, जीवन का शोकगीत, घर, हम बचे रहेंगे और आखिरी बार, कविताओं में मन के भावों के विविध रंग, जीवन की गति के बीच मानस-पटल पर उभरती पुरानी यादों के धुंधलाए-से चित्र और इन सबके साथ वर्तमान यांत्रिक जीवन की भाग-दौड़ में अतीत के सुखों के छूट जाने का दुख प्रकट होता है। अतीत और वर्तमान को चिंतन की धारा में गूँथकर बजने वाला सुख-दुख का संगीत चेतना को अंदर तक झकझोर देता है।
संग्रह का चौथा खंड है- कविता नहीं। इस खंड में क से कवि मैं, महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं, नकार, कविता नहीं, क्या करोगे मेरा, तीसरा, बचा सका अगर और जब वह दिन कविताएँ हैं। इस खंड की कविताओं के परिचय में कवि शुरुआत में ही बता देता है कि-
हर दिन/ एक श द लिखने के पहले/ चलता हूं एक कदम
सोचता हूं/  इस तरह एक दिन/ पहुंच जाऊंगा
जहां पहुंचे नहीं हैं अब तक
मेरे श द ।।
वास्तव में, साहित्य के सर्जन का वर्तमान अत्यंत जटिल है। सामयिक यथार्थ को समग्रता के साथ, उसके साथ पूरा न्याय करते हुए अभिव्यक्त कर पाना अत्यंत कठिन है। मध्ययुगीन विरुदावलियों, भक्ति-धाराओं और चारण प्रवृत्तियों से इतर आज की कविता में जब समय का क्रूर यथार्थ उभरकर सामने आता है, तब कविता नहीं रह जाती। वह तो समय का दस्तावेज बन जाती है। ऐसी अभिव्यक्ति के लिए कवि को महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं/ बोलना और चलना होता है चार नहीं तो दो कदम ही/ आदमी की तरह आदमी के लिए ।। (महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं, पृ. 78)
कवि-कर्म की सार्थकता तो आदमी की तरह आदमी को देखने में ही है। इससे अलग हटकर कवि-कर्म अपना रास्ता भटक जाता है। संग्रह की कविता- जब वह दिन, में भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त हुए हैं। कवि जब अपने कवि-कर्म की ईमानदारी से च्युत हो जाता है, तब उसके द्वारा रचे हुए शब्दों की कड़ी कविता का रूप नहीं ले पाती है। तब उसके पास सबकुछ होता है, बस कविता नहीं होती है।
संग्रह का अंतिम खंड है- एक देश और मरे हुए लोग। इस खंड की कविताओं में व्यक्ति से लगाकर समाज तक की विविध मनोवृत्तियाँ देखने को मिलतीं हैं। इस खंड की कविताओं का परिचय सर्जन की जटिल पीड़ा को समेटे हुए है। व्यक्ति से लगाकर समाज तक की मनोवृत्ति को शब्द देते हुए कवि उस असहनीय पीड़ा को सहता-भोगता है और उसका अंत मर जाने में ही होता है। समय और समाज के कटु यथार्थ की ऐसी तीक्ष्ण अभिव्यक्ति पाठकीय चेतना को अंदर तक झकझोर देती है।
इस खंड में गालियां, एक पागल आदमी की चिट्ठी, पानी, आम आदमी की कविता तथा एक देश और मरे हुए लोग, शीर्षक कविताएँ हैं। सभी लंबी कविताएँ हैं। जटिल समय में सरल लोगों की, सीधे अर्थों में कहें तो आदमी की नजर से देखी जाने वाली दुनिया की मानसिकता का स्याह पक्ष लगभग सभी कविताओं में इस तरह प्रकट होता है कि पाठक यह सोचने को विवश हो जाता है कि क्या वास्तव में हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं?
संग्रह की शीर्षक कविता- एक देश और मरे हुए लोग, कविता-कथा है। कविता की शुरुआत भंते जी को एक ऐसे देश की कथा सुनाने से होती है, जिसमें हकीकत कथा की तरह लगती है और कथा हकीकत की तरह लगती है। इस लंबी कविता के अलग-अलग पड़ाव परत-दर-परत उस हकीकत को, उस मानसिकता को उघाड़ते चले जाते हैं, जिसका सुनना, जिसे जज्ब कर पाना और जिसके बीच जीने की मजबूरी को ढोना सरल नहीं रह जाता। इन सबके बीच एक साहित्यिक की सच्ची भूमिका के निर्वहन की नैतिक जिम्मेदारी को निभाता कवि कह उठता है-
कविता से हीन इस समय में/ शब्दों से हीन इस समय में/ मूल्यों से हीन इस समय में/ क्या कविता और दुख के साथ ही रहना है/ एक लंबी कविता है यह देश/ और दुखों का एक लंबा आख्यान यह लोकतंत्र ।। (एक देश और मरे हुए लोग, पृ. 151-152)
समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ समय के सत्य और वर्तमान के यथार्थ से सरोकार रखते हुए अतीत से वर्तमान तक को स्वयं में जज्ब किए हुए हैं। हर-एक कविता समय के कठघरे में खड़े देश को और देश के मरे हुए लोगों को उनके गुनाह सुनाती हुई नजर आती है। अपने परिवेश को बारीकी से देख पाना और उसे अभिव्यक्त कर पाना स्वयं में असाध्य, दुष्कर कार्य है। उससे भी ज्यादा जटिल और असंभव की पराकाष्ठा तक कठिन है, परिवेश के यथार्थ के पीछे की मानसिकता की परख कर पाना, उसे अभिव्यक्त कर पाना। समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ इसी कारण उत्कृष्टतम हैं। कविताओं के सृजन के माध्यम से कवि ने अपने परिवेश के यथार्थ में निहित मानसिकता का बारीक, सटीक, समग्र और सार्थक प्रस्तुतीकरण किया है।
एक भौगोलिक दायरे के अंदर रहने वाले लोग, एक व्यवस्था से संचालित होने वाले लोग, एक डंडे से हाँके जाने वाले लोग अपनी चेतना को, अपनी समझ को और अपनी मानसिकता को इस हद तक मार चुके हैं, इस कदर परमुखापेक्षी हो चुके हैं और सोचने-विचारने की अपनी शक्ति को इस तरह से खो चुके हैं कि जीते हुए भी वे जी नहीं रहे हैं। सामयिक यथार्थ के साथ जुड़े इस तथ्य पर गहनता के साथ, शिद्दत के साथ विचार करने को विवश कर देने के कारण समीक्ष्य कृति का शीर्षक अपनी सार्थकता को प्रमाणित कर देता है।
समीक्ष्य कृति में फदगुदिया, गीत-गँवनई, झुलनी, नथिया, जंतसार, सिनरैनी, मेहीनी, चटकल, भगुआ, चैती, कजरी और सरेह जैसे शब्द कवि के गाँव के साथ जुड़ाव को ही नहीं प्रकट करते, वरन् कविता की आदमियत वाली तासीर को जिंदा रखने की कोशिश करते नजर आते हैं, जो आज की कविता के प्रसंग से छिटकती जा रही है। शहरों के यांत्रिक जीवन के बीच, शहरों की भौतिकता के बीच, भौतिक जगत् के अभावों के बीच, भौतिकता के स्थापित प्रतिमानों से दूर गाँवों के सहज-सरल और इसी कारण दुर्लभ जीवन का स्वाद (मीठा या तीखा ?) आज की कविता के लिए सुलभ नहीं रह गया है। कवि ने कविता के वर्तमान की रिक्तता को भरने की भरसक और प्रायः सफल कोशिश अपनी कृति में की है।
समग्रतः, समीक्ष्य कृति को केवल अच्छी और सुंदर कविताओं के संग्रह के दायरे में रखकर देखा जाना संभव नहीं है। समीक्ष्य कृति बूँद से लगाकर सागर तक, व्यक्ति से लगाकर समाज तक मन और मानसिकता को जाँचने-परखने का पैमाना बन जाती है। देश, काल और समाज की मानसिकता को जानने के लिए जरूरी दस्तावेज के रूप में, कवि-कर्म और कवि-धर्म के निर्वहन हेतु जटिल, असाध्य संघर्ष की चेतना के स्तंभ के रूप में और मानवतावादी, मूल्य आधारित सर्जना के प्रयासों के एक आयाम के रूप में समीक्ष्य कृति अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, इस कारण पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है।
समीक्ष्य कृति- एक देश और मरे हुए लोग, विमलेश त्रिपाठी, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण- 2013, मूल्य- 99/- 
डॉ. राहुल मिश्र
(नूतनवाग्धारा, संयुक्तांक- 18-19, वर्ष- 7, सितंबर-2014 अंक में प्रकाशित)

Wednesday 10 December 2014

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य

हिंदी साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य
सामान्य रूप से ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग अर्थशास्त्र से जुड़ा हुआ होता है और अर्थशास्त्रीय कार्य-व्यवहारों में ‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग किसी वस्तु की भौतिक उपादेयता को भौतिक रूप से ही प्रकट करने या सिद्ध करने के अर्थ में होता है। दर्शन के धरातल पर मूल्य का अर्थ अर्थशास्त्रीय ‘मूल्य’ से एकदम अलग और व्यापक होता है।
दर्शन के क्षेत्र में मूल्य को उसके व्यापक अर्थों में परिभाषित और व्याख्यायित करने की परंपरा पाश्चात्य दर्शन के प्रभाव से भारत में विकसित हुई है। भारतीय दर्शन जिन आदर्श तत्त्वों की स्थापना की बात कहता है, उनकी उपादेयता का मूल्यांकन करके पाश्चात्य दर्शन ‘मूल्यवाद’ की अवधारणा को स्थापित करता है। इतना ही नहीं, पाश्चात्य दर्शन पारलौकिक या अभौतिक तत्त्वों के साथ ही लौकिक या भौतिक तत्त्वों की उपादेयता का विचार भी करता है और उन्हें अलग-अलग वर्गों में विभक्त करके मानव तथा मानवता के लिए उपयुक्तता के क्रम का निर्धारण भी करता है। इस प्रकार मूल्यवाद के अंतर्गत वे सभी तत्त्व एवं पदार्थ समाहित हो जाते हैं, जो मानव की इच्छाओं से पूर्णतः या अंशतः जुड़े हुए होते हैं।
दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में ‘मूल्य’ के व्याख्याता अर्बन ने इसी आधार पर मूल्यों के निम्न प्रकार बताए हैं।
1.         शारीरिक मूल्य- जिससे शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है; अन्न, भोजन आदि।
2.         आर्थिक मूल्य- धन, संपत्ति आदि।
3.         मनोरंजन का मूल्य- खेल आदि मन लगाने की वस्तुएँ।
4.         साहचर्य का मूल्य- मित्रता आदि।
5.         चारित्रिक मूल्य- सच्चाई, ईमानदारी आदि।
6.         सौंदर्य संबंधी मूल्य- कला, सुंदरता, चित्रकारी आदि।
7.         बौद्धिक मूल्य- ज्ञान।
8.         धार्मिक मूल्य- ईश्वर, आत्मा आदि।
इनमें से शारीरिक मूल्य, आर्थिक मूल्य और मनोरंजन का मूल्य जैविक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। साहचर्य का मूल्य और चारित्रिक मूल्य सामाजिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। सौंदर्य संबंधी मूल्य, बौद्धिक मूल्य और धार्मिक मूल्य आध्यात्मिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं।1
इन सभी मूल्यों के अंतर्गत मानवीय कार्य-व्यवहारों से लेकर समाज और विश्व तक की गतिविधियाँ, कार्य-व्यवहार और दिशा-दशा संचालित होती है, नियंत्रित होती है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ‘मूल्य’ को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि, “हमारे आचरणों और व्यवहारों का समूहीकरण ही ‘मूल्य’ नामक धारणा के रूप में स्थापित होता है। ये धारणाएँ ही हमारे व्यवहारों का निर्देशन करतीं और आदर्शों की स्थापना करती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य अच्छे-बुरे और सही-गलत की पहचान और घोषणा करता है। इसीलिए जीवन की परिस्थितियों में परिवर्तन होने के साथ-साथ मूल्यों में भी परिवर्तन होता है।”2 जीवन के साथ साहित्य के समानुपातिक संबंध होते हैं और इसीलिए मूल्यों का यह परिवर्तन साहित्य में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है।
साहित्य समाज का दर्पण है, यह उक्ति साहित्य साथ समाज के संबंधों को व्याख्यायित करने के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त होती रही है और आज भी प्रयोग की जाती है। यदि इस आधार पर देखा जाए तो मूल्यवाद  के साथ साहित्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है। इसके साथ ही साहित्य समाज का दीपक होता है, इस उक्ति पर विचार किया जाए तो निस्संदेह स्वीकार करना होगा कि जब समाज मूल्यों से विलग होकर अपनी ऊर्जा को मानवताविरोधी गतिविधियों में लगाना प्रारंभ कर देता है, तब साहित्य उदात्त मानवीय मूल्यों की दुहाई देकर दीपक की भाँति समाज को सही रास्ता दिखाने का कार्य करता है। इस प्रकार मूल्यवाद  के साथ साहित्य के घनिष्ठ अंतर्संबंधों को जाना-समझा जा सकता है।
मूल्यवाद  की अवधारणा हिंदी साहित्य में घोषित तौर पर दिखाई नहीं देती, इसके बावजूद हिंदी साहित्य के इतिहास के युग निर्धारण में साहित्य के साथ जुड़े मानवीय मूल्यों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हिंदी साहित्येतिहास के आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल का कालनिर्धारण कालखंड विशेष में प्रचलित मूल्यों का प्रतिनिधि प्रतीत होता है। हिंदी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल में भी मूल्य की यह अवधारणा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की शुरुआत भारतेंदु युग से होती है। हिंदी साहित्येतिहासकारों ने सन् 1857 की प्रथम स्वाधीनता क्रांति को आधार बनाकर हिंदी साहित्य के आधुनिक युग के प्रारंभ का कालखंड निर्धारित किया है। सन् 1850 में भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म और उनके साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखकर आधुनिक युग के प्रथम उपविभाजन, सन् 1857 से सन् 1900 ई. को भारतेंदु युग की संज्ञा दी गई है। अर्बन द्वारा निर्धारित किए गए मानवीय मूल्यों के आधार पर भारतेंदु युग का मूल्यांकन इस युग की साहित्यिक विशिष्टताओं को जानने-समझने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
सन् 1857 की क्रांति भारतीय समाज के लिए एकदम अभूतपूर्व घटना थी। इस क्रांति ने भारतीय समाज की दिशा और दशा को परिवर्तित किया। समाज के साथ ही साहित्य में, विचारों में बदलाव के एक नए दौर की शुरुआत हुई। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए डॉ. बच्चन सिंह लिखते हैं कि, “अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक, शैक्षणिक और प्रशासनिक नीतियों में परिवर्तन किया। इस देश के लोग भी नये संदर्भ में कुछ नया सोचने और करने के लिए बाध्य हुए। साहित्य मनुष्य के बृहत्तर सुख-दुःख के साथ पहली बार जुड़ा। यह प्रक्रिया भारतेंदु के समय में हुई, वह भी गद्य के माध्यम से। आधुनिक जीवन-चेतना की जैसी चिनगारियाँ गद्य में दिखायी पड़ीं, वैसी पद्य में नहीं।”3
भारतेंदु युग में गद्य के माध्यम से विकसित हुई आधुनिक जीवन-चेतना और नवीन वैचारिकता की सीधा संबंध बौद्धिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य, साहचर्य का मूल्य और सौंदर्य संबंधी मूल्य से है। भारतेंदु युग के पूर्ववर्ती रीतिकाल में साहित्य जिस प्रकार मनोरंजन के मूल्य, शारीरिक मूल्य और आर्थिक मूल्य से जुड़कर अनुत्पादक हो चुका था, उस परंपरा को त्यागकर भारतेंदु युग में साहित्य का पुनर्जागरण हुआ। भारतेंदु युगीन काव्य एवं गद्य साहित्य की प्रवृत्तियों का मूल्यांकन इस तथ्य को प्रभावी रूप से स्थापित करने हेतु महत्त्वपूर्ण होगा।
राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत आदर्शवादी काव्य-चेतना का प्रारंभ भारतेंदु युग से होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र इस काव्य-चेतना के प्रवर्तक कवि थे। “उन्होने अपनी विभिन्न रचनाओं में धार्मिक पाखंडों, सामाजिक दुराचारों एवं राजनीतिक पराधीनता का दिग्दर्शन स्पष्ट रूप में करवाया है।”4 भारतेंदु युग में राष्ट्र का अर्थ छोटे-छोटे रजवाड़ों, रियासतों में बँटे भारत को एक सूत्र में बाँधने के आशय से था। वीरगाथा कालीन प्रवृत्तियों से अलग हटकर और क्षेत्रीय संकीर्णता को त्यागकर समूचे भारत को एक राष्ट्र की दृष्टि से देखने की यह नई शुरुआत आदर्श मानवीय मूल्यों की स्थपना का सर्वथा नवीन आयाम है। इसी से जुड़ा हुआ पक्ष राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य भाषा का है। बुंदेली, बघेली, अवधी, ब्रज आदि क्षेत्रीय बोलियों में बँटे संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र को एक सूत्र में बाँधने का कार्य भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों ने किया। समूचे देश को जोड़ने और आपसी वैमनस्य को समाप्त करके अंग्रेजों के खिलाफ संगठित करने में भारतेंदु युगीन साहित्य का योगदान एक ओर अभूतपूर्व और मूल्यवान है तो दूसरी ओर साहचर्य का मूल्य साहित्य के माध्यम से समाज में स्थापित करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
बौद्धिक मूल्य के स्तर पर भी भारतेंदु युगीन साहित्य खरा उतरता है। जहाँ एक ओर अंग्रेजों के विरोध में उस युग के साहित्यकार लगे हुए थे, वहीं दूसरी ओर खुले हृदय से अंग्रेजी भाषा के साहित्य की विशिष्टताओं को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात् भी कर रहे थे। संस्कृत साहित्य के साथ ही अंग्रेजी साहित्य का हिंदी अनुवाद भारतेंदु युग की अपनी विशेषता है। भारतेंदु मंडल के कवि श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों का खड़ीबोली हिंदी और ब्रजभाषा में अनुवाद किया। बौद्धिक मूल्य के साथ ही सौंदर्य संबंधी मूल्य और मनोरंजन का मूल्य भारतेंदु युग में प्रचलित समस्यापूर्ति की काव्य पद्धति में देखने को मिलता है। “कवियों की प्रतिभा और रचनाकौशल को परखने के लिए कविगोष्ठियों और कवि-समाजों में कठिन-से-कठिन विषयों पर समस्यापूर्ति करायी जाती थी। भारतेंदु द्वारा काशी में स्थापित कविता-वर्द्धिनी-सभा, कानपुर का रसिक समाज, बाबा सुमेर सिंह द्वारा निज़ामाबाद (ज़िला आज़मगढ़) में स्थापित कवि-समाज आदि ऐसे मंच थे, जहाँ नियमित रूप से कवि गोष्ठियाँ होती थीं और समस्यापूरण को प्रतियोगिता के रूप में प्रोत्साहन दिया जाता था। प्रतिष्ठित कवि इसमें भाग लेने में संकोच नहीं करते थे और नये कवियों का इससे यथेष्ट उत्साहवर्द्धन होता था।”5
भारतेंदु युगीन हास्य-व्यंग्य भले ही मनोरंजन के मूल्य से जुड़ा हुआ हो, मगर इसमें भी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रदर्शन इतनी गहराई के साथ उभरता है कि हास्य-व्यंग्य में सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। प्रस्तुत है एक बानगी-
जग  जानैं  इंगलिश  हमैं,  वाणी  वस्त्रहिं  जोय।
मिटै बदन कर श्याम रंग-जन्म सुफल तब होय।।
और
मुँह जब लागै तब नहिं छूटे, जाति  मान  धन सब  कुछ  लूटे।
पागल कर मोहिं करे खराब, क्यों सखि सज्जन? नहीं सराब।।
भारतेंदु युगीन साहित्य में परिलक्षित धार्मिक मूल्यों पर साहचर्य के मूल्यों, चारित्रिक मूल्यों और बौद्धिक मूल्यों का समावेश मिलता है। भारतेंदु युगीन भक्ति-भावना कड़े धार्मिक बंधनों में जकड़ी हुई नहीं थी, वरन् सभी धर्मों, मतों पंथों के समन्वय से; व्यावहारिकता और खुलेपन से तथा देश के प्रति अनुराग से जुड़कर विकसित हुई थी। फलतः ऐसी भक्ति-भावना ने समाज को जोड़ने का कार्य किया और भक्ति से जोड़कर राष्ट्रप्रेम की अलख जगाने का कार्य किया। भारतेंदु युगीन भक्ति भावना ने धार्मिक पाखंडों, कुरीतियों का भी जमकर विरोध किया। इस प्रकार भारतेंदु युगीन काव्य की भक्ति-भावना विषयक प्रवृत्ति भी उच्चतम मूल्यों की स्थापना के मापदण्ड पर खरी उतरती है।
भारतेंदु युगीन कवियों ने रीतिकालीन दरबारी काव्य परंपरा को त्यागकर जनता की समस्याओं का निरूपण व्यापक रूप में किया है। भारतेंदु युगीन काव्य की सामाजिक चेतना नारी-शिक्षा, विधवाओं की दुर्दशा, छुआछूत, भेदभाव जैसी सामाजिक समस्याओं के विरोध में खड़ी होती है। इस बदलाव के संदर्भ में डॉ. साधना शाह लिखती हैं कि, “अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण चीजों को देखने-परखने के हमारे रवैये में अंतर आया। सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गई। परंपरागत धार्मिक साहित्य और नवीन औद्योगिक युग के बीच अंतर्विरोध सामने आया। हमने महसूस किया कि हम जिस तरह का जीवन जी रहे हैं। वह अप्रगतिशील और दकियानूसी है। परिणामतः सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में हमारे मध्ययुगीन बोध के खिलाफ जनमत बनने लगा। लोग आधुनिक मूल्यों के प्रति आकृष्ट होने लगे।”6
भारतेंदु युगीन गद्य साहित्य में नवीन मूल्यों की स्थापना की प्रवृत्ति काव्य की अपेक्षा सशक्त रूप में दृष्टिगत होती है। इसका प्रमुख कारण गद्य की यथार्थ से निकटता और अभिव्यक्ति की सशक्तता है। भारतेंदु युग में हिंदी नाटकों से ही गद्य की शुरुआत होती है। इस तथ्य के पीछे नाटकों की सामाजिकता, सम्प्रेषण की प्रभावोत्पादकता और नाटकों के मंचन का सांगठनिक कौशल (Unity of Action, Time & Place) कार्य करता है। “ब्राह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज  और आगे चलकर स्वयं भारतेंदु द्वारा संस्थापित तदीय समाज के नामकरण, और उनके कार्यक्रम इस मान्यता को भली-भाँति पुष्ट करते हैं। इधर नाटक सभी साहित्य और कला-माध्यमों के बीच अपनी प्रकृति में सर्वाधिक सामाजिक है। रंगमंच पर उसका प्रस्तुतीकरण अनेक प्रकार के कलाकारों के सहयोग से होता है, वैसे ही उसका आस्वादन समाज के रूप में किया जाता है।”7 मनोरंजन के मूल्य के साथ ही साहचर्य के मूल्य की स्थापना का साहित्य में और समाज में इससे बढ़कर कोई दूसरा उदाहरण खोज पाना असंभव की हद तक कठिन होगा।
भारतेंदु युग को हिंदी उपन्यासों की शुरुआत का युग भी माना जाता है। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में भारतेंदु मंडल के लेखक ठाकुर जगन्मोहन सिंह के उपन्यास श्यामा स्वप्न का उल्लेख करना प्रासंगिक और समीचीन होगा। “जिस नवोदित उत्तर भारतीय मध्य वर्ग की आशा-आकांक्षाओं और जीवन मूल्यों के बहुविध तनावों की दृष्टि से हिंदी उपन्यास का उदय हुआ, श्यामा स्वप्न  उस प्रक्रिया को स्थगित और निलंबित करने वाला उपन्यास है।”8 संभवतः इसी कारण श्यामा स्वप्न  की तीव्र-तीक्ष्ण आलोचना उस युग में हुई और यह क्रम वर्तमान में भी जारी है। तत्कालीन समाज में प्रचलित मूल्यों से अलग हटने पर साहित्य को भी आलोचना का शिकार बनना पड़ता है। इससे अलग हिंदी के पहले उपन्यासकार की प्रतिष्ठा प्राप्त लाला श्रीनिवास दास के उपन्यास परीक्षा गुरु  में तत्कालीन समय और समाज की स्थितियों का, बदलते मानव-मूल्यों का सटीक प्रस्तुतीकरण हुआ है। लाला श्रीनिवास दास परीक्षा गुरु  की भूमिका में इसका खुलासा कर देते हैं- “इस पुस्तक के रचनेमैं मुझको महाभारतादि संस्कृत, गुलिस्ताँ वगैरे फ़ारसी, स्पेक्टेटर, लार्ड बेकन, गोल्डस्मिथ, विलियम कूपर आदिके पुराने लेखों और स्त्रीबोध आदिके बर्तमान रिसालौंसे बड़ी सहायता मिली है। इसलिए इन सबका मैं बहुत उपकार माना हूँ...”9
कमोबेश ऐसे ही तथ्य तत्कालीन निबंध साहित्य और नवोदित कहानी विधा के साथ जुड़े हैं। पुनर्जागरण के प्रभाव के फलस्वरूप समाज में प्रतिष्ठित होते जा रहे उदात्त मानवीय मूल्य भारतेंदु युगीन साहित्य में प्रतिष्ठित होकर समाज को एक नई दिशा और नवीन वैचारिक शक्ति प्रदान करने का कार्य कर रहे थे। अर्बन द्वारा बताए गए शारीरिक और आर्थिक मूल्यों की, अर्थात् साहित्य सृजन के माध्यम से जीविका चलाने और साहित्य को अर्थार्जन का माध्यम बनाने की प्रवृत्ति तत्कालीन साहित्याकारों में नहीं थी।
तर्कबुद्धिवादी दार्शनिक नीत्शे ने मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की बात कही है। “उसने समस्त मूल्यों के मूल्यांकन पर बल दिया है। उनमें यदि प्राचीन मूल्य शक्ति उपार्जन की कसौटी पर खरे उतरें तो उन्हें वर्तमान समय के लिए भी मूल्यवान माना जा सकता है। यह मानव मूल्यों का परीक्षण है।”10 भारतेंदु युगीन साहित्य में नीत्से की इस अवधारणा को भी देखा जा सकता है, जो पूर्ववर्ती साहित्यिक युगों से भारतेंदु युग में आई है।
समग्रतः, हिंदी का भारतेंदु युगीन साहित्य उत्कृष्टतम मानवीय मूल्यों की स्थापना के मानदण्ड पर खरा उतरता है। अपनी पूर्ववर्ती युगीन प्रवृत्तियों को त्यागकर, समय और समाज की आवश्यकता के अनुरूप सार्थक मूल्यों को आत्मसात कर भारतेंदु युगीन साहित्य ने ज्ञान के प्रति मानवीय आग्रह को न केवल तृप्त किया है, वरन् इसी आधार पर हिंदी के आधुनिक युग की आधारशिला रखकर हिंदी साहित्य को नई दिशा देने का सार्थक प्रयास भी किया है।

संदर्भ:
1.   नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 206
2.   स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1996, पृ॰ 31
3.   हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 401
4.   हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खण्ड, डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त, लोकभारती, इलाहाबाद, सं. 2004, पृ॰ 18
5.   हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 446-447
6.   हिंदी कहानी : संरचना और संवेदना, डॉ. साधना शाह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ॰ 14
7.  हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहबाद, 1996, पृ॰ 130
8.  श्यामा स्वप्न : समय, समाज और सामाजिक से उदासीन आख्यान, मधुरेश, कथाक्रम,लखनऊ, अप्रैल-जून 2008, पृ॰ 12
9.  वेब रेफ़रेंस, www.hindisamay.com/upanyas/pariksha_guru.htm
10.  नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 213
डॉ. राहुल मिश्र

निर्गुण तथा सगुण पंथ के प्रतिनिधि कवि

सी. बी. खेडगीज् महाविद्यालय, अक्कलकोट, सोलापुर (महाराष्ट्र) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 20-21 दिसंबर, 2013 हेतु विषय स्थापना
निर्गुण तथा सगुण पंथ के प्रतिनिधि कवि
भारत की दक्षिण काशी के नाम से विख्यात सोलापुर के उत्तर की ओर स्थित अहमदनगर और पश्चिम की ओर स्थित सतारा का भक्ति-काव्य परंपरा में अद्वितीय योगदान है। भगवान दत्तात्रेय के अवतार स्वामी समर्थ महाराज की नगरी अक्कलकोट से लगभग 100 किलोमीटर दूर पंढरपुर तीर्थ हिंदी साहित्य की उस परंपरा से जुड़ा हुआ है, जिसकी चर्चा के लिए हम सभी यहाँ उपस्थित हैं। अहमदनगर के आपेगाँव के संत ज्ञानेश्वर और सतारा के नरसीबामणी गाँव के संत नामदेव पंढरपुर की वारी (यात्रा) के माध्यम से प्रचलित हुए वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं। मुक्ताबाई, संत तुकाराम और संत एकनाथ ने इस परंपरा को समृद्ध-सशक्त किया। वारकरी संप्रदाय के साथ ही महानुभाव संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी चक्रधर ने भी भक्ति-काव्य परंपरा के विकास में योगदान दिया। इस प्रकार इस क्षेत्र से ऐसी भक्ति परंपरा का उदय हुआ, जिसे विविध संप्रदायों, पंथों- नाथ, महानुभाव, वारकरी, मालकरी आदि में बाँटकर भी देखा जा सकता है और समग्र धारा के रूप में भी देखा जा सकता है। भक्ति-काव्य की इस परंपरा ने संत नामदेव के नेतृत्व में उत्तर भारत में उदित हो रही भक्ति-काव्य परंपरा को सक्षम और समर्थ बनाने में अद्वितीय योगदान दिया।
महानुभाव संप्रदाय में निर्गुण की अपेक्षा सगुण को अधिक महत्त्व दिया गया, जबकि परवर्ती वारकरी संप्रदाय के संतों ने ब्रह्म को अनादि, नित्य, ज्ञानमय, अव्यक्त, निर्गुण और सर्वव्यापक मानते हुए निर्गुण रूप को भी महत्त्व दिया और निर्गुण ईश्वर ही सगुण के रूप में अवतरित होता है, यह कहकर सगुण रूप को भी महत्त्व दिया। इसके साथ ही महाराष्ट्र में संतकाव्य परंपरा के आदिकवि मुकुंदराज (1127-1200 ई.) ने अपने ग्रंथ ‘विवेक सिंधु’ (1190 ई.) में सगुण, निर्गुण, गुरु का महत्त्व, ब्रह्म, जीव, माया आदि विषयों का प्रतिपादन जनसाधारण की भाषा में किया। भारतवर्ष की संतकाव्य परंपरा का यह पहला काव्यग्रंथ माना जाता है।
संत शब्द का सामान्य अर्थ सज्जन होता है। मराठी व बाद में हिंदी कवियों ने ‘संत’ शब्द का अपने वर्ग के लिए इतना अधिक प्रयोग किया कि इस शब्द के साथ उनका गहरा और अभिन्न संबंध स्थापित हो गया। महात्मा चक्रधर, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत निवृत्तिनाथ, संत सोपानदेव और संत एकनाथ आदि संत कवियों के द्वारा रचित भक्ति-काव्य इसी आधार पर कोई विभाजक रेखा नहीं खींचता है। मराठी संत कवियों द्वारा सृजित भक्ति-काव्य प्रेरणास्रोत बनकर, एक आंदोलन का स्वरूप लेकर जब उत्तर भारत की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ करता है, तब बड़ा बदलाव उत्तर भारत की भक्ति-काव्य परंपरा में देखने को मिलता है।
 उपासनाभेद का आश्रय लेकर सगुण और निर्गुण पंथ जैसे दो वर्गों की कल्पना की गई और हिंदी साहित्येतिहासकारों ने इसी आधार पर समग्र भक्ति साहित्य को विभाजित किया। सगुण पंथ में लीलावतार, भगवद्नुग्रह का भरोसा, परलोक या स्वर्ग-नर्क की कल्पना, लीला का माहात्म्य, वर्ण-व्यवस्था की स्वीकार्यता, साकार के प्रति भक्ति और बाह्य लालित्य होता है। निर्गुण पंथ में ब्रह्मानुभूति, आत्मविश्वास का बल, सत्कर्मों द्वारा संसार को ही स्वर्ग बनाना, वर्ण-व्यवस्था का विरोध, निराकार के प्रति भक्ति, अंतःसौंदर्य की गरिमा और विश्वात्मा प्रभु के विश्वव्यापी अस्तित्व में आस्था होती है।
हिंदी साहित्य के इतिहास के अध्ययन में हम सामान्यतः इन्हीं तथ्यों का अध्ययन करते हैं। इसके साथ ही सगुण पंथ के अंतर्गत विष्णु के दो अवतारों- राम और कृष्ण काव्य के आधार पर क्रमशः रामकाव्य परंपरा और कृष्णकाव्य परंपरा का अध्ययन करते हैं। निर्गुण पंथ में संतकाव्य परंपरा या ज्ञानमार्गी शाखा और सूफ़ीकाव्य परंपरा या प्रेममार्गी शाखा के दो वर्गों का अध्ययन करते हैं। कृष्णकाव्य परंपरा  वल्लभ संप्रदाय (श्री वल्लभाचार्य, तेलुगु), चैतन्य संप्रदाय (चैतन्य महाप्रभु, नवद्वीप, बंगाल) और राधावल्लभ संप्रदाय (श्री हित हरिवंश) का आश्रय लेकर विकसित हुई। इसके प्रतिनिधि कवि सूरदास ने ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति, काव्य और संगीत की ऐसी त्रिवेणी का सृजन किया है, जिसमें प्रेम, भक्ति और अध्यात्म एक-दूसरे से मिल जाते हैं। निर्गुण और सगुण का भेद नहीं रह जाता है। महाकवि सूर का कवित्व उच्चता की उस सीमा पर स्थापित है, जहाँ तक पहुँच पाना अन्य के लिए संभव नहीं है। इसी कारण तानसेन कह उठते हैं- किंधौं सूर की सर लग्यौ, किंधौं सूर की पीर, किंधौं सूर को पद सुन्यौ, तन मन धुनत सरीर।
निर्गुण पंथ की प्रेममार्गी शाखा या सूफ़ीकाव्य परंपरा को प्रायः सूफ़ी कवियों, फ़ारसी मसनवियों द्वारा विकसित माना जाता है। वस्तुतः महाभारत की रोमांसिक चेतना के साथ ही हरिवंश पुराण, वृहत्कथा, संस्कृत गद्यकाव्य और अपभ्रंश जैनकाव्य परंपरा के क्रमिक विकास को तथाकथित सूफ़ीकाव्य परंपरा में देखा जा सकता है। इस परंपरा के प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में नीति और दर्शन के भारतीय संस्करण को उतारा है। सांप्रदायिक टकराहट से स्वयं को मुक्त रखकर न्याय और अन्याय के स्थूल-सूक्ष्म संघर्ष, मानवीय कर्म और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया की गाथा जायसी को पृथिवी पुत्र (वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार) बना देती है और पद्मावत को लोक से शिष्ट में संक्रमण का काव्य बना देती है।
निर्गुण पंथ की संतकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि कबीर और सगुण पंथ की रामकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास हैं, जिनके हिंदी साहित्य में योगदान विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के शुभ अवसर पर हम सब उपस्थित हैं और जिनके कृतित्व के विविध पक्षों पर व्यापक विचार-विमर्श के सहभागी बन रहे हैं।
सन् 1880 के आसपास रामकुमार विद्यालंकार द्वारा रचित ‘कबिरेर संक्षिप्त जीवनचरित’ के साथ कबीर का व्यवस्थित अध्ययन प्रारंभ होता है। आचार्य क्षितिमोहन सेन कृत ‘कबीर’ (1942), रवींद्रनाथ टैगोर और ऐवेलिन अंडरहिल द्वारा अनूदित ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ़ कबीर’ (1914), अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध कृत ‘कबीर वचनावली’ (1916), रेवरेंड अहमदशाह कृत ‘द बीजक ऑफ़ कबीर’ (1917), रेवरेंड एफ. ई. के. कृत ‘कबीर एंड हिज़ फॉलोअर्स’ (1931) और उसके बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कृत ‘कबीर’ (1942), डॉ. श्यामसुंदरदास कृत ‘कबीर ग्रंथावली’ बेल्जियम के निवासी विनान्द एम कैलेवर्त्त के शोध-ग्रंथ ‘द मिलेनियम कबीर वाणी’ आदि रचनाओं की चर्चा कबीर के विस्तृत और व्यवस्थित अध्ययन के संदर्भ में की जा सकती है। इन सभी अध्ययन ग्रंथों को अगर देखें तो यह सरलता के साथ कहा जा सकता है कि हिंदी में कबीर पर अध्ययन-अनुसंधान बहुत बाद में शुरू हुआ और परिमाण की दृष्टि से भी यह कम ही ठहरता है।
हिंदी में कबीर के अध्ययन की शुरुआत के साथ ही कुछ अवधारणाओं का विकास होता है। कबीर के सामान्य अध्ययन में हम सामान्य रूप से यह जानते हैं या जान पाते हैं कि उनके काव्य संस्कार सूफ़ी परंपरा पर आश्रित हैं, जिनमें इस्लाम के एकेश्वरवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है। उनके काव्य सृजन में हिंदू परंपरा को कोई रचनात्मक योगदान नहीं है। कबीर के निर्गुण ब्रह्म की उपासना के पीछे पुरातन भक्ति परंपरा की तीक्ष्ण आलोचना है। ज्ञानमार्ग की कट्टरता कबीर की साधना-पद्धति का प्रमुख अंग थी। ऐसी ही अनेक मान्यताएँ कबीर के संदर्भ में प्रचलित हैं, जिनका हम सामान्य तौर पर अध्ययन करते हैं।
वस्तुतः कबीर का सम्यक् मूल्यांकन किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि निर्गुण अद्वैतवाद, सगुण वैष्णव भक्ति, बौद्ध सहजयान, नाथ पंथ, इस्लाम या सूफ़ी मत जैसे किसी भी वर्ग में कबीर को रखना संभव नहीं है। कबीर के काव्य संस्कार में इन सभी का समन्वय देखा जा सकता है। उनके व्यक्तित्व में परस्पर विरोधी तत्त्वों का सामंजस्य इस तरह मिलता है कि विरोधी तत्त्व भी एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। कबीर में एक ओर अक्खड़पन है तो दूसरी ओर दीनता और हीनता का भाव भी है। बड़े-बड़े दार्शनिकों-चिंतकों के विचारों को ‘कागद की लेखी’ कहकर अक्खड़पन दिखाने वाले कबीर ‘धण मैली पिय ऊजला, लाग सकूँ न पाँव’ कहकर अपनी असीमित दीनता को भी सहजता के साथ प्रकट कर देते हैं।
संकीर्ण भौतिकवाद और यथार्थवाद के विपरीत व्यापक करुणा, सर्वहित की कामना, सच्ची भक्ति-भावना, समाजहित पर केंद्रित विचार और अनुभूति की व्यापकता कबीर की रचनाओं में देखने को मिलती है। कबीर को समझने के लिए ज्ञान की नहीं, अनुभूति की, सच्चे मन और भाव की जरूरत पड़ती है। कबीरदास लिखते हैं-
कबीर का घर सिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।
पाँव न टिके पिपीलक, लोगनि लादे बैल।।
संभवतः इसी कारण कबीर की लोकप्रियता हर तरह के बंधनों से मुक्त थी, लोक-व्यवहार में विस्तृत थी। कबीर ने अपनी रचनाधर्मिता का स्वरूप विभिन्न धर्मों, मतों, पंथों का सामान्यीकरण करके, विज्ञानीकरण करके बनाया। इस तरह सभी के लिए अपना-सा लगने वाला, सभी के लिए अपनत्व से, प्रेम से भरा हुआ विश्व धर्म स्थापित करना कबीर के चिंतन की मौलिक उपलब्धि है। इसके लिए वे कभी ज्ञान की आँधी आने की बात कहते हैं तो कभी-
कामी   क्रोधी   लालची,  इनसे भक्ति  न होय।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय।।                                       
कहकर भक्ति के सच्चे स्वरूप की स्थापना करते हैं।  
भक्ति का विलक्षण और उदात्त स्वरूप गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व में भी प्रकट होता है। अपनी समन्वयात्मक दृष्टि को अपनी भक्ति भावना के साथ जोड़कर लोकमंगल की साधना करने वाले गोस्वामी तुलसीदास की स्थिति लोकनायक से कम नहीं आँकी जा सकती। जाने-माने इतिहासकार गोस्वामी तुलसीदास के संदर्भ में अपनी पुस्तक ‘अकबर दि ग्रेट मुगल’ में लिखते हैं- Tulsidas is the tallest tree in the magic garden of medieval Hindu Poesy. वे आगे लिखते हैं- That was the greatest man of his age in India- greater even than Akbar himself in as much as the conquest of the hearts and minds of millions of men and women effected by the poet was an achievement infinitely more lasting and important than any or all the victories gained in war by the Monarch. अपने ग्रंथ Indian Antiquary (1893) में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन लिखते हैं- If we take the influence exercised by him at the present time as our test, he is one of the three or four great writers of Asia….Over the whole Gangetic Valley his great work [ The Ramayan] is better known than Bible is in England.
रूस के प्रसिद्ध विद्वान वरान्निकोव ने रामचरितमानस का रूसी भाषा में पद्यबद्ध अनुवाद किया। रेवरेण्ड एटकिन्स ने अंग्रेजी में मानस का अनुवाद किया। ऐसे ही तमाम अध्ययन-अनुसंधान कार्य तुलसीदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विदेशों में हुए हैं या विदेशी विद्वानों द्वारा हुए हैं। ये तथ्य, ये कथन उस विश्वधर्म की व्यापकता और वैश्विक स्वीकार्यता को इंगित करते हैं, जिसकी स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की, विशेषकर रामचरितमानस के माध्यम से। भारत वर्ष के धुर देहातों में बहुत से ऐसे लोगों को तुलसी का मानस कंठस्थ है, जिन्हें अक्षरज्ञान भी नहीं है, जो लिख-पढ़ भी नहीं सकते हैं।
भूगोल के बंधनों से, काल के बंधनों से मुक्त बाबा तुलसी का मानस एक ग्रंथ मात्र नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति के बौद्धिक, कलात्मक और भावुक ग्रंथों का समन्वित रूप है। यह जीवनोपयोगी भी है, गंभीर भी है और बौद्धिक-दार्शनिक तत्त्वों से युक्त भी है। राम की गूढ़ कथा एक ओर निर्गुण, निराकार परमात्मा को हमारे अपने समाज का व्यक्ति बना देती है तो दूसरी ओर परिवार, समाज और राष्ट्र के स्तर पर सत्य और प्रेम की रक्षा की, मर्यादा के पालन की ऐसी सीख दे जाती है, जो अनपढ़ के लिए भी सहज और सुग्राह्य हो जाती है-
कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।
रामचरितमानस के अतिरिक्त विनयपत्रिका तुलसी की प्रौढ़, सशक्त कृति है। विनयपत्रिका में बाबा तुलसी के जीवन के वृहद-व्यापक अनुभव हैं, तुलसी की विनयमूलक भक्ति का उत्कृष्ट स्वरूप है। मानवतावादी दृष्टिकोण है और गूढ़ दार्शनिक चिंतन भी है। कृष्णगीतावली, दोहावली, बरवै रामायण आदि विविध ग्रंथ भी अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। उनकी सभी कृतियाँ किसी भी युग की सीमाओं में या भौगोलिक क्षेत्र के बंधनों में बँधी हुई नहीं है।
पाश्चात्य जीवन शैली के ‘माइक्रो फैमिली कल्चर’ और टूटती-बिखरती ‘फैमिली वैल्यूज़’ के घातक दुष्परिणामों से बचने के लिए रामचरितमानस के रूप में हमारे पास ऐसा अमोघ अस्त्र है, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान जीवन में उत्तरोत्तर बढ़ रही है। रामकथा को आधार बनाकर अनेक भक्त कवियों ने उत्कृष्ट रचनाएँ की हैं, किंतु रामकथा को लोक-व्यवहार से, लोक-जीवन की मान्यताओं-मर्यादाओं और समाज की मानवीय अपेक्षाओं के अनुरूप बनाने का काम बाबा तुलसी ने ही किया है। बाबा तुलसी ने मानस के माध्यम से समूचे परिवार के मर्यादित आचरण को समग्रता के साथ प्रस्तुत किया है। इसके बाद भी तुलसीदास और उनकी कालजयी कृति ‘रामचरितमानस’ प्रायः दूषित आलोचना के भँवर में फँस जाती है।
अगर कबीर के राम राजा दशरथ के पुत्र राजकुमार राम नहीं, बल्कि निर्गुण ब्रह्म के प्रतीक हैं, तो तुलसी के राम भी दशरथनंदन मात्र नहीं, बल्कि मर्यादा के प्रतीक हैं, मर्यादापुरुषोत्तम हैं। अपने व्यापक अर्थों में कबीर के राम और तुलसी के राम एक ही हैं। दोनों में एक तत्त्व- मर्यादा की उपस्थिति है।
कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाइ, रामसनेही यूँ मिले, दून्यू बरन गँवाइ।। (कबीर)
 जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही। (तुलसी)
काव्यशास्त्रीय विभेदों को अलग रखकर, सगुण-निर्गुण की विभाजक रेखा को मिटाकर और ऐसे ही अन्य विभेदों को, प्रचलित भ्रांतियों-धारणाओं को हटाकर विचार किया जाए तो महाराष्ट्र से, पंढरपुर से चलकर उत्तर भारत में और फिर सारे विश्व में प्रचारित-प्रसारित होने वाली विश्वधर्म की संकल्पना के संवाहक के रूप में कबीर और तुलसी की भूमिका अद्वितीय है, अनुपम है।
हिंदी में तुलसी और कबीर के व्यवस्थित, समग्र, सचेत अध्ययन की स्थिति को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। कबीर और तुलसी के संदर्भ में विदेशी विद्वानों के कथनों और उनके द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर इस धारणा को पुष्ट किया जा सकता है। कबीर और तुलसी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अध्ययन-अनुसंधान की शुरुआत के बहुत पहले से इन दोनों का स्थान लोक-व्यवहार में उच्चतम स्थिति पर था। गाँवों-कस्बों में टिमटिमाते दिये की रोशनी में रात-रातभर रामचरितमानस का पाठ करते अनपढ़ लोग, बात-बात पर मानस की चौपाइयों का उल्लेख करके मर्यादित लोकजीवन की स्थापना करते सामान्य जन तुलसी की लोक-स्वीकार्यता का उनके प्रति अगाध श्रद्धा के साक्ष्य हैं। इसी तरह गाँवों की चौपालों में रात-रातभर कबीरी (कबीर के भजन) गाते लोग, गाँवों-कस्बों में स्थापित कबीर गद्दियाँ लोक-जीवन में कबीर के उच्चतम स्थान को प्रकट करतीं हैं। लोक-व्यवहार में, लोक-जीवन में कबीर और तुलसी की स्थिति समाज-सुधारक, चिंतक, पथ-प्रदर्शक और सच्चे संत की थी। वहाँ कबीर और तुलसी आलोचना के पात्र नहीं थे, बल्कि आगाध जन-श्रद्धा और जन-आस्था से जुड़े थे। कबीर और तुलसी के लोक-व्यवहार से शिष्ट साहित्य में आने के साथ ही यह स्थिति बदलने लगी। इन दोनों भक्त कवियों की, विशेषकर तुलसी की ऐसी व्यापक और वीभत्स आलोचना शुरू हुई, जिसने लोक-व्यवहार और शिष्ट साहित्य, दोनों को दिशाहीन कर दिया।
प्रायः विदेशों से आयातित सामग्री या चिंतन या दिशा-निर्देश अपना अलग महत्त्व रखते हैं और प्रायः गर्वानुभूति भी देते हैं। यह प्रायः कच्चे माल का विदेश जाना और वहाँ से निर्मित माल के आयातित होने जैसा है। हम गर्व करते हैं, जब हमें कोई बाहरी यह बताता है कि अमुक मूल्यवान धरोहर हमारे पास है। हम अपनी धरोहर की महत्ता का मूल्यांकन स्वयं नहीं कर पाते। हजारों वर्षों की गुलामी के कारण शायद हमारी मानसिकता में यह दोष लग गया है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।     
हिंदी के भक्ति-काव्य की चारों धाराओं का, इनके प्रतिनिधि कवियों का अध्ययन पुरानी परिपाटी पर, रटे-रटाए सिद्धांतों पर और घिसी-घिसाई अवधारणाओं पर होता रहा है। युगीन परिस्थितियों के अनुरूप, परिवर्तित मूल्यों के सापेक्ष और अपने मूल्यांकन के स्वतः मूल्यांकन की प्रक्रिया पर चलना जीवंत-जागृत साहित्य का लक्षण होता है। इसी आधार पर सगुण और निर्गुण पंथ के प्रतिनिधि कवियों का मूल्यांकन अपेक्षित है। पाश्चात्य चिंतनधारा में प्रचलित कुछ शब्द, जैसे- आदर्शवाद, यथार्थवाद, मानवतावाद और मूल्यवाद आदि को आयातित करके हम अपनी धरोहर की समृद्धि का विस्मरण कर बैठते हैं। इसी कारण पश्चिम के चश्मे से अपनी धरोहर को देखने का प्रयास करने लगते हैं। संत कबीर और तुलसी के कृतित्व का इसी आधार पर मूल्यांकन आधुनिक संकल्पना की देन है, जबकि पाश्चात्य चिंतनधारा के अनेक तत्त्वों से अधिक और समृद्ध तत्त्व तुलसी और कबीर के कृतित्व में उपलब्ध हैं। मूल्यांकन और अनुसंधान की इस आधुनिक नवोदित परंपरा का अपना महत्त्व है। यह सार्थक और सफल होगा, यदि इसमें पूर्वाग्रह और पक्ष-विपक्ष के निम्नस्तरीय विचारों को अलग ही रखा जाए।
यह अत्यंत सुखद संयोग है कि अक्कलकोट की इस पावन-पुनीत नगरी में तुलसी और कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा हो रही है। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र से प्रारंभ हुई भक्ति-काव्य परंपरा ने समूचे देश को, विश्व को प्रभावित किया था। तुलसी और कबीर उसी परंपरा के संवाहक थे। आज नए समय में नई भूमिका के लिए यह परिसंवाद संगोष्ठी अगर इतिहास को दुहरा सकेगी, तो संगोष्ठी की सार्थकता भी स्थापित होगी और मानवता का कल्याण भी हो सकेगा।
डॉ. राहुल मिश्र