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साहित्य के भारतेंदु युग में मूल्य
सामान्य रूप से ‘मूल्य’ शब्द का
प्रयोग अर्थशास्त्र से जुड़ा हुआ होता है और अर्थशास्त्रीय कार्य-व्यवहारों में
‘मूल्य’ शब्द का प्रयोग किसी वस्तु की भौतिक उपादेयता को भौतिक रूप से ही प्रकट
करने या सिद्ध करने के अर्थ में होता है। दर्शन के धरातल पर मूल्य का अर्थ
अर्थशास्त्रीय ‘मूल्य’ से एकदम अलग और व्यापक होता है।
दर्शन के क्षेत्र में मूल्य को उसके
व्यापक अर्थों में परिभाषित और व्याख्यायित करने की परंपरा पाश्चात्य दर्शन के
प्रभाव से भारत में विकसित हुई है। भारतीय दर्शन जिन आदर्श तत्त्वों की स्थापना की
बात कहता है, उनकी उपादेयता का मूल्यांकन करके पाश्चात्य दर्शन ‘मूल्यवाद’ की
अवधारणा को स्थापित करता है। इतना ही नहीं, पाश्चात्य दर्शन पारलौकिक या अभौतिक
तत्त्वों के साथ ही लौकिक या भौतिक तत्त्वों की उपादेयता का विचार भी करता है और
उन्हें अलग-अलग वर्गों में विभक्त करके मानव तथा मानवता के लिए उपयुक्तता के क्रम
का निर्धारण भी करता है। इस प्रकार मूल्यवाद के अंतर्गत वे सभी तत्त्व एवं पदार्थ
समाहित हो जाते हैं, जो मानव की इच्छाओं से पूर्णतः या अंशतः जुड़े हुए होते हैं।
दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में
‘मूल्य’ के व्याख्याता अर्बन ने इसी आधार पर मूल्यों के निम्न प्रकार बताए हैं।
1.
शारीरिक मूल्य- जिससे शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है;
अन्न, भोजन आदि।
2.
आर्थिक मूल्य- धन, संपत्ति आदि।
3.
मनोरंजन का मूल्य- खेल आदि मन लगाने की वस्तुएँ।
4.
साहचर्य का मूल्य- मित्रता आदि।
5.
चारित्रिक मूल्य- सच्चाई, ईमानदारी आदि।
6.
सौंदर्य संबंधी मूल्य- कला, सुंदरता, चित्रकारी आदि।
7.
बौद्धिक मूल्य- ज्ञान।
8.
धार्मिक मूल्य- ईश्वर, आत्मा आदि।
इनमें से शारीरिक मूल्य, आर्थिक
मूल्य और मनोरंजन का मूल्य जैविक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। साहचर्य का मूल्य और
चारित्रिक मूल्य सामाजिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं। सौंदर्य संबंधी मूल्य,
बौद्धिक मूल्य और धार्मिक मूल्य आध्यात्मिक मूल्यों के अंतर्गत आते हैं।1
इन सभी मूल्यों के अंतर्गत मानवीय
कार्य-व्यवहारों से लेकर समाज और विश्व तक की गतिविधियाँ, कार्य-व्यवहार और
दिशा-दशा संचालित होती है, नियंत्रित होती है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ‘मूल्य’
को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि, “हमारे आचरणों और व्यवहारों का समूहीकरण ही
‘मूल्य’ नामक धारणा के रूप में स्थापित होता है। ये धारणाएँ ही हमारे व्यवहारों का
निर्देशन करतीं और आदर्शों की स्थापना करती हैं, जिनके आधार पर मनुष्य अच्छे-बुरे
और सही-गलत की पहचान और घोषणा करता है। इसीलिए जीवन की परिस्थितियों में परिवर्तन
होने के साथ-साथ मूल्यों में भी परिवर्तन होता है।”2 जीवन के साथ
साहित्य के समानुपातिक संबंध होते हैं और इसीलिए मूल्यों का यह परिवर्तन साहित्य
में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है।
साहित्य समाज का दर्पण है, यह उक्ति साहित्य साथ समाज के
संबंधों को व्याख्यायित करने के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त होती रही है और आज भी
प्रयोग की जाती है। यदि इस आधार पर देखा जाए तो मूल्यवाद
के
साथ साहित्य का संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है। इसके साथ ही साहित्य समाज का
दीपक होता है, इस उक्ति पर विचार किया जाए तो निस्संदेह स्वीकार करना होगा कि
जब समाज मूल्यों से विलग होकर अपनी ऊर्जा को मानवताविरोधी गतिविधियों में लगाना
प्रारंभ कर देता है, तब साहित्य उदात्त मानवीय मूल्यों की दुहाई देकर दीपक की
भाँति समाज को सही रास्ता दिखाने का कार्य करता है। इस प्रकार मूल्यवाद
के
साथ साहित्य के घनिष्ठ अंतर्संबंधों को जाना-समझा जा सकता है।
मूल्यवाद की अवधारणा हिंदी साहित्य में घोषित तौर पर दिखाई
नहीं देती, इसके बावजूद हिंदी साहित्य के इतिहास के युग निर्धारण में साहित्य के
साथ जुड़े मानवीय मूल्यों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हिंदी साहित्येतिहास
के आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल का कालनिर्धारण कालखंड विशेष में प्रचलित मूल्यों
का प्रतिनिधि प्रतीत होता है। हिंदी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल में भी मूल्य
की यह अवधारणा स्पष्ट परिलक्षित होती है।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल की
शुरुआत भारतेंदु युग से होती है। हिंदी साहित्येतिहासकारों ने सन् 1857 की प्रथम
स्वाधीनता क्रांति को आधार बनाकर हिंदी साहित्य के आधुनिक युग के प्रारंभ का
कालखंड निर्धारित किया है। सन् 1850 में भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म और उनके
साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखकर आधुनिक युग के प्रथम उपविभाजन, सन् 1857 से सन्
1900 ई. को भारतेंदु युग की संज्ञा दी गई है। अर्बन द्वारा निर्धारित किए गए
मानवीय मूल्यों के आधार पर भारतेंदु युग का मूल्यांकन इस युग की साहित्यिक
विशिष्टताओं को जानने-समझने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
सन् 1857 की क्रांति भारतीय समाज के
लिए एकदम अभूतपूर्व घटना थी। इस क्रांति ने भारतीय समाज की दिशा और दशा को
परिवर्तित किया। समाज के साथ ही साहित्य में, विचारों में बदलाव के एक नए दौर की
शुरुआत हुई। परिवर्तन की इस प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए डॉ. बच्चन सिंह लिखते
हैं कि, “अंग्रेजों ने अपनी आर्थिक, शैक्षणिक और प्रशासनिक नीतियों में परिवर्तन
किया। इस देश के लोग भी नये संदर्भ में कुछ नया सोचने और करने के लिए बाध्य हुए।
साहित्य मनुष्य के बृहत्तर सुख-दुःख के साथ पहली बार जुड़ा। यह प्रक्रिया भारतेंदु
के समय में हुई, वह भी गद्य के माध्यम से। आधुनिक जीवन-चेतना की जैसी चिनगारियाँ
गद्य में दिखायी पड़ीं, वैसी पद्य में नहीं।”3
भारतेंदु युग में गद्य के माध्यम से
विकसित हुई आधुनिक जीवन-चेतना और नवीन वैचारिकता की सीधा संबंध बौद्धिक मूल्य,
चारित्रिक मूल्य, साहचर्य का मूल्य और सौंदर्य संबंधी मूल्य से है। भारतेंदु युग
के पूर्ववर्ती रीतिकाल में साहित्य जिस प्रकार मनोरंजन के मूल्य, शारीरिक मूल्य और
आर्थिक मूल्य से जुड़कर अनुत्पादक हो चुका था, उस परंपरा को त्यागकर भारतेंदु युग
में साहित्य का पुनर्जागरण हुआ। भारतेंदु युगीन काव्य एवं गद्य साहित्य की
प्रवृत्तियों का मूल्यांकन इस तथ्य को प्रभावी रूप से स्थापित करने हेतु
महत्त्वपूर्ण होगा।
राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत
आदर्शवादी काव्य-चेतना का प्रारंभ भारतेंदु युग से होता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र
इस काव्य-चेतना के प्रवर्तक कवि थे। “उन्होने अपनी विभिन्न रचनाओं में धार्मिक
पाखंडों, सामाजिक दुराचारों एवं राजनीतिक पराधीनता का दिग्दर्शन स्पष्ट रूप में
करवाया है।”4 भारतेंदु युग में राष्ट्र का अर्थ छोटे-छोटे रजवाड़ों,
रियासतों में बँटे भारत को एक सूत्र में बाँधने के आशय से था। वीरगाथा कालीन
प्रवृत्तियों से अलग हटकर और क्षेत्रीय संकीर्णता को त्यागकर समूचे भारत को एक
राष्ट्र की दृष्टि से देखने की यह नई शुरुआत आदर्श मानवीय मूल्यों की स्थपना का
सर्वथा नवीन आयाम है। इसी से जुड़ा हुआ पक्ष राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य भाषा का
है। बुंदेली, बघेली, अवधी, ब्रज आदि क्षेत्रीय बोलियों में बँटे संपूर्ण हिंदी
भाषी क्षेत्र को एक सूत्र में बाँधने का कार्य भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों ने
किया। समूचे देश को जोड़ने और आपसी वैमनस्य को समाप्त करके अंग्रेजों के खिलाफ
संगठित करने में भारतेंदु युगीन साहित्य का योगदान एक ओर अभूतपूर्व और मूल्यवान है
तो दूसरी ओर साहचर्य का मूल्य साहित्य के माध्यम से समाज में स्थापित करने के लिए
भी महत्त्वपूर्ण है।
बौद्धिक मूल्य के स्तर पर भी
भारतेंदु युगीन साहित्य खरा उतरता है। जहाँ एक ओर अंग्रेजों के विरोध में उस युग
के साहित्यकार लगे हुए थे, वहीं दूसरी ओर खुले हृदय से अंग्रेजी भाषा के साहित्य
की विशिष्टताओं को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात् भी कर रहे थे। संस्कृत साहित्य के
साथ ही अंग्रेजी साहित्य का हिंदी अनुवाद भारतेंदु युग की अपनी विशेषता है।
भारतेंदु मंडल के कवि श्रीधर पाठक ने अंग्रेजी की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों का
खड़ीबोली हिंदी और ब्रजभाषा में अनुवाद किया। बौद्धिक मूल्य के साथ ही सौंदर्य
संबंधी मूल्य और मनोरंजन का मूल्य भारतेंदु युग में प्रचलित समस्यापूर्ति की काव्य
पद्धति में देखने को मिलता है। “कवियों की प्रतिभा और रचनाकौशल को परखने के लिए
कविगोष्ठियों और कवि-समाजों में कठिन-से-कठिन विषयों पर समस्यापूर्ति करायी जाती
थी। भारतेंदु द्वारा काशी में स्थापित कविता-वर्द्धिनी-सभा, कानपुर का रसिक समाज,
बाबा सुमेर सिंह द्वारा निज़ामाबाद (ज़िला आज़मगढ़) में स्थापित कवि-समाज आदि ऐसे
मंच थे, जहाँ नियमित रूप से कवि गोष्ठियाँ होती थीं और समस्यापूरण को प्रतियोगिता
के रूप में प्रोत्साहन दिया जाता था। प्रतिष्ठित कवि इसमें भाग लेने में संकोच
नहीं करते थे और नये कवियों का इससे यथेष्ट उत्साहवर्द्धन होता था।”5
भारतेंदु युगीन हास्य-व्यंग्य भले ही
मनोरंजन के मूल्य से जुड़ा हुआ हो, मगर इसमें भी सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना का
प्रदर्शन इतनी गहराई के साथ उभरता है कि हास्य-व्यंग्य में सामाजिक और आध्यात्मिक
मूल्यों की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। प्रस्तुत है एक बानगी-
जग जानैं
इंगलिश हमैं, वाणी
वस्त्रहिं जोय।
मिटै
बदन कर श्याम रंग-जन्म सुफल तब होय।।
और
मुँह
जब लागै तब नहिं छूटे, जाति मान धन सब कुछ
लूटे।
पागल कर मोहिं करे खराब, क्यों सखि
सज्जन? नहीं सराब।।
भारतेंदु युगीन साहित्य में
परिलक्षित धार्मिक मूल्यों पर साहचर्य के मूल्यों, चारित्रिक मूल्यों और बौद्धिक
मूल्यों का समावेश मिलता है। भारतेंदु युगीन भक्ति-भावना कड़े धार्मिक बंधनों में
जकड़ी हुई नहीं थी, वरन् सभी धर्मों, मतों पंथों के समन्वय से; व्यावहारिकता और
खुलेपन से तथा देश के प्रति अनुराग से जुड़कर विकसित हुई थी। फलतः ऐसी भक्ति-भावना
ने समाज को जोड़ने का कार्य किया और भक्ति से जोड़कर राष्ट्रप्रेम की अलख जगाने का
कार्य किया। भारतेंदु युगीन भक्ति भावना ने धार्मिक पाखंडों, कुरीतियों का भी जमकर
विरोध किया। इस प्रकार भारतेंदु युगीन काव्य की भक्ति-भावना विषयक प्रवृत्ति भी
उच्चतम मूल्यों की स्थापना के मापदण्ड पर खरी उतरती है।
भारतेंदु युगीन कवियों ने रीतिकालीन
दरबारी काव्य परंपरा को त्यागकर जनता की समस्याओं का निरूपण व्यापक रूप में किया
है। भारतेंदु युगीन काव्य की सामाजिक चेतना नारी-शिक्षा, विधवाओं की दुर्दशा,
छुआछूत, भेदभाव जैसी सामाजिक समस्याओं के विरोध में खड़ी होती है। इस बदलाव के
संदर्भ में डॉ. साधना शाह लिखती हैं कि, “अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण चीजों को
देखने-परखने के हमारे रवैये में अंतर आया। सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं में
परिवर्तन की आवश्यकता महसूस की गई। परंपरागत धार्मिक साहित्य और नवीन औद्योगिक युग
के बीच अंतर्विरोध सामने आया। हमने महसूस किया कि हम जिस तरह का जीवन जी रहे हैं।
वह अप्रगतिशील और दकियानूसी है। परिणामतः सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में हमारे
मध्ययुगीन बोध के खिलाफ जनमत बनने लगा। लोग आधुनिक मूल्यों के प्रति आकृष्ट होने
लगे।”6
भारतेंदु युगीन गद्य साहित्य में
नवीन मूल्यों की स्थापना की प्रवृत्ति काव्य की अपेक्षा सशक्त रूप में दृष्टिगत
होती है। इसका प्रमुख कारण गद्य की यथार्थ से निकटता और अभिव्यक्ति की सशक्तता है।
भारतेंदु युग में हिंदी नाटकों से ही गद्य की शुरुआत होती है। इस तथ्य के पीछे
नाटकों की सामाजिकता, सम्प्रेषण की प्रभावोत्पादकता और नाटकों के मंचन का सांगठनिक
कौशल (Unity of Action, Time & Place) कार्य करता है। “ब्राह्मसमाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज और आगे चलकर स्वयं भारतेंदु द्वारा संस्थापित तदीय
समाज के नामकरण, और उनके कार्यक्रम इस मान्यता को भली-भाँति पुष्ट करते हैं। इधर
नाटक सभी साहित्य और कला-माध्यमों के बीच अपनी प्रकृति में सर्वाधिक सामाजिक है।
रंगमंच पर उसका प्रस्तुतीकरण अनेक प्रकार के कलाकारों के सहयोग से होता है, वैसे
ही उसका आस्वादन समाज के रूप में किया जाता है।”7 मनोरंजन के मूल्य के
साथ ही साहचर्य के मूल्य की स्थापना का साहित्य में और समाज में इससे बढ़कर कोई दूसरा
उदाहरण खोज पाना असंभव की हद तक कठिन होगा।
भारतेंदु युग को हिंदी उपन्यासों की
शुरुआत का युग भी माना जाता है। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में भारतेंदु मंडल
के लेखक ठाकुर जगन्मोहन सिंह के उपन्यास श्यामा स्वप्न का उल्लेख करना
प्रासंगिक और समीचीन होगा। “जिस नवोदित उत्तर भारतीय मध्य वर्ग की आशा-आकांक्षाओं
और जीवन मूल्यों के बहुविध तनावों की दृष्टि से हिंदी उपन्यास का उदय हुआ, श्यामा
स्वप्न उस प्रक्रिया को स्थगित और निलंबित करने वाला उपन्यास है।”8
संभवतः इसी कारण श्यामा स्वप्न की तीव्र-तीक्ष्ण आलोचना उस युग में
हुई और यह क्रम वर्तमान में भी जारी है। तत्कालीन समाज में प्रचलित मूल्यों से अलग
हटने पर साहित्य को भी आलोचना का शिकार बनना पड़ता है। इससे अलग हिंदी के पहले
उपन्यासकार की प्रतिष्ठा प्राप्त लाला श्रीनिवास दास के उपन्यास परीक्षा गुरु
में
तत्कालीन समय और समाज की स्थितियों का, बदलते मानव-मूल्यों का सटीक प्रस्तुतीकरण
हुआ है। लाला श्रीनिवास दास परीक्षा गुरु की भूमिका में इसका खुलासा कर देते
हैं- “इस पुस्तक के रचनेमैं मुझको महाभारतादि संस्कृत, गुलिस्ताँ वगैरे फ़ारसी,
स्पेक्टेटर, लार्ड बेकन, गोल्डस्मिथ, विलियम कूपर आदिके पुराने लेखों और स्त्रीबोध
आदिके बर्तमान रिसालौंसे बड़ी सहायता मिली है। इसलिए इन सबका मैं बहुत उपकार माना
हूँ...”9
कमोबेश ऐसे ही तथ्य तत्कालीन निबंध
साहित्य और नवोदित कहानी विधा के साथ जुड़े हैं। पुनर्जागरण के प्रभाव के फलस्वरूप
समाज में प्रतिष्ठित होते जा रहे उदात्त मानवीय मूल्य भारतेंदु युगीन साहित्य में
प्रतिष्ठित होकर समाज को एक नई दिशा और नवीन वैचारिक शक्ति प्रदान करने का कार्य
कर रहे थे। अर्बन द्वारा बताए गए शारीरिक और आर्थिक मूल्यों की, अर्थात् साहित्य
सृजन के माध्यम से जीविका चलाने और साहित्य को अर्थार्जन का माध्यम बनाने की
प्रवृत्ति तत्कालीन साहित्याकारों में नहीं थी।
तर्कबुद्धिवादी दार्शनिक नीत्शे ने
मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की बात कही है। “उसने समस्त मूल्यों के मूल्यांकन पर बल
दिया है। उनमें यदि प्राचीन मूल्य शक्ति उपार्जन की कसौटी पर खरे उतरें तो उन्हें
वर्तमान समय के लिए भी मूल्यवान माना जा सकता है। यह मानव मूल्यों का परीक्षण है।”10
भारतेंदु युगीन साहित्य में नीत्से की इस अवधारणा को भी देखा जा सकता है, जो
पूर्ववर्ती साहित्यिक युगों से भारतेंदु युग में आई है।
समग्रतः,
हिंदी का भारतेंदु युगीन साहित्य उत्कृष्टतम मानवीय मूल्यों की स्थापना के मानदण्ड
पर खरा उतरता है। अपनी पूर्ववर्ती युगीन प्रवृत्तियों को त्यागकर, समय और समाज की
आवश्यकता के अनुरूप सार्थक मूल्यों को आत्मसात कर भारतेंदु युगीन साहित्य ने ज्ञान
के प्रति मानवीय आग्रह को न केवल तृप्त किया है, वरन् इसी आधार पर हिंदी के आधुनिक
युग की आधारशिला रखकर हिंदी साहित्य को नई दिशा देने का सार्थक प्रयास भी किया है।
संदर्भ:
1. नीतिशास्त्र की रूपरेखा, अशोक
कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 206
2. स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य
का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, 1996, पृ॰ 31
3. हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. बच्चन
सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 401
4. हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक
इतिहास, द्वितीय खण्ड, डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त, लोकभारती, इलाहाबाद, सं. 2004, पृ॰
18
5. हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ.
बच्चन सिंह, संपादक- डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, नोयडा, सं. 2011, पृ॰ 446-447
6. हिंदी कहानी : संरचना और
संवेदना, डॉ. साधना शाह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ॰ 14
7. हिंदी गद्य : विन्यास और विकास,
रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहबाद, 1996, पृ॰ 130
8. श्यामा स्वप्न : समय, समाज और
सामाजिक से उदासीन आख्यान, मधुरेश, कथाक्रम,लखनऊ, अप्रैल-जून 2008, पृ॰ 12
9.
वेब रेफ़रेंस, www.hindisamay.com/upanyas/pariksha_guru.htm
10. नीतिशास्त्र
की रूपरेखा, अशोक कुमार वर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 1954, पृ॰ 213
डॉ. राहुल मिश्र
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