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Wednesday 16 August 2023

ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह


 ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह

 

“गुरु जी! यह ऊँट मनाली नहीं जा सकता है। वहाँ ठंडक हो, तो बनी रहे। इसे जो खाने को चाहिए, वह तो मनाली में मिलेगा नहीं... यहाँ की जैसी ठंडक भी नहीं......। चार-पाँच साल पहले कुछ लोगों ने इस ऊँट की नस्ल को मनाली तक पहुँचाने की कोशिश की थी। इसके लिए वे ऊँटों के जोड़े लेकर गए, लेकिन मनाली पहुँचते ही ऊँट जिंदा नहीं रह पाए।”

इतना सुनने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था, कि आखिर वे लोग इस ऊँट को मनाली क्यों ले जाना चाहते थे? मैं भी इस प्रश्न को उसी तरह अपने अंदर रोक नहीं सका, जिस तरह आप नहीं रोक पा रहे थे, अभी एक क्षण पहले...। मैंने तुरंत ही अपना सवाल उनके सामने रख दिया।

वे बोले- “टूरिजम, टूरिज्म़ के ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में इन ऊँटों का बड़ा ‘रोल’ है।” उनके इस उत्तर ने मेरे सामने चित्र को बहुत-कुछ स्पष्ट कर दिया। पिछले दिन, जब हम दुनिया के सबसे ऊँचे रास्ते को खरदुंग-ला में पार कर रहे थे, तब वहाँ तमाम पर्यटक फोटो खिंचाने में व्यस्त थे। लेह से नुबरा घाटी की ओर जाने वाले रास्ते में खरदुंग-ला पड़ता है, जिसकी ऊँचाई समुद्रतल से लगभग 18,380 फीट है। लदाख आने वाले पर्यटकों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है। खरदुंग-ला की ‘कॉफ़ी शॉप’ से लगाकर शिव मंदिर तक तमाम पर्यटकों की चहल-पहल थी। कुछ खरदुंग की ऊँची चोटी पर चढ़कर फोटो खिंचा रहे थे, और कुछ चुपचाप बैठे प्रकृति के इस सौंदर्य का रसपान कर रहे थे। बातचीत से लग रहा था, कि उन पर्यटकों में बड़ी संख्या महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्से के लोगों की है। जिज्ञासावश किनारे बैठे एक मराठी पर्यटक से मैंने पूछा, कि- आपको यहाँ के पर्यटन में क्या देखना सबसे ज्यादा रोमांचित करता है। उसका जवाब था, कि पहले तो बर्फ और फिर दो कूबड़ वाले ऊँट की सवारी का रोमांच ही उसे यहाँ तक ले आया है। उस मराठी पर्यटक के उत्तर और आज की बातचीत के तालमेल को बिठाते हुए मेरे सामने स्पष्ट हो गया, कि मनाली में पर्यटकों को लदाख की ‘फीलिंग’ देते हुए कमाई करने के उद्देश्य से यारकंदी ऊँटों को यहाँ से ले जाने की कोशिशें की गई होंगी। इन्हीं का जिक्र नोरबू साहब मुझसे कर रहे थे।

सन् 2017 के अगस्त महीने में दूसरी बार मेरा नुबरा घाटी में जाना हुआ था। इससे पहले शायद 2011 में नुबरा जाना हुआ था। उस समय दो कूबड़ वाले ऊँटों के बारे में केवल सुना था, देखने का मौका नहीं मिल पाया था। इस बार पूरी तरह से तय कर लिया था, कि दो कूबड़ वाले ऊँटों के दर्शन जरूर करने हैं। खास तौर से इस कारण भी, कि देश और दुनिया के कोने-कोने से लोग तमाम जहमत उठाकर नुबरा घाटी आते हैं और हम लदाख में रहते हुए भी अगर लदाख की इस प्रसिद्धि से साक्षात्कार नहीं कर पाए, तो शायद समय भी हमें माफ नहीं कर पाएगा। यही जोश और जज्बा था, कि जिसके बूते हम यारकंदी ऊँटों के सामने खड़े थे। इनके बारे में बहुत-कुछ पढ़ा भी था, मगर यहाँ नोरबू साहब से जो जानकारी मिल रही थी, वह शायद अब तक किताबों या ‘विकीपीडिया’ जैसी ‘अंतर्जालिक’ तकनीकों में उपलब्ध नहीं हो पाई थी। मेरे विस्मित हो जाने का बड़ा कारण भी यही था। दरअसल नोरबू साहब के पास बीस यारकंदी उँट थे, जिनमें पर्यटकों को सैर कराने का व्यवसाय वे करते थे।मेरे एक शिष्य के पिता होने के नाते नोरबू साहब ने बड़ी आत्मीयता के साथ मुझसे मुलाकात की थी। मैं वहाँ पहुँचने वाला हूँ, यह सूचना मेरे शिष्य ने उन्हें दे रखी थी।

जब नोरबू साहब ने मुझे यारकंदी ऊँटों के बारे में बताना शुरू किया, तब अतीत की बातें परत-दर-परत ऐसी खुलती चली गईं, जिन्होंने विचारों को पंख दे दिए। नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खान-पान की आदतों से लगाकर उनके रहने के तौर-तरीकों तक के बारे में विस्तार से बताया। नोरबू साहब ने रेशम मार्ग, यानि ‘सिल्क रूट’ में यारकंदी ऊँटों के योगदान को भी इतने विस्तार से बताया, कि कालिदास और विद्योत्तमा के जीवन में ऊँट का योगदान भी बरबस ही मेरे विचारों में कौंध पड़ा। विद्वान आचार्यों ने विदुषी विद्योत्तमा को मजा चखाने के लिए बुद्धिहीन कालिदास के साथ धोखे से विवाह करा दिया। भला हो, ऊँटों का....., जो वे एक दिन विद्योत्तमा की हवेली के बाहर से गुजर पड़े और मूढ़ कालिदास उन्हें उट्र-उट्र कहकर चिल्लाने लगे। तब कहीं जाकर विद्योत्तमा को पता लगा, कि मेरे पतिदेव तो निहायत मूढ़-मगज हैं। तब क्या था, उपचार शुरू हो गया और इस तरह ‘उपमा कालिदासस्य’, अर्थात् अपनी विलक्षण-अद्बुत उपमाओं के लिए संस्कृत साहित्य के उज्ज्वल नक्षत्र के समान कालिदास का प्राकट्य हुआ।

विद्योत्तमा और कालिदास के जीवन को बदलने वाले ऊँट बेशक यारकंद वाले नहीं थे, मगर ऊँट किस तरह जीवन बदल देते हैं, अपनी करवट से ऊँट कैसे हालात बदल देते हैं, यह जरूर स्पष्ट था। यारकंदी ऊँटों ने भी अनेक लोगों के जीवन को बदला है। प्राचीनकाल ही नहीं मध्यकाल में, और फिर रेशम मार्ग से यातायात के बंद हो जाने के बाद आज के समय में ‘डेजर्ट सफ़ारी’ के रूप में यारकंदी ऊँटों के योगदान को देखा जा सकता है। चीन के रेशम से अपना नाम पाने वाला पूरा रेशम मार्ग लगभग दस हजार किलोमीटर का होगा, मगर आज रेशम मार्ग के उत्तरी छोर को ही प्रमुख रूप से जाना जाता है। उत्तरी रेशम मार्ग या ‘सिल्क रूट’ लगभग 6500 किलोमीटर लंबा था। इसका संबंध मुख्य रूप से हिमालय की कराकोरम श्रेणी से रहा है। यह चीन की प्राचीन राजधानी शिआन से पश्चिम की ओर चलते हुए टकलामकान रेगिस्तान से निकलकर मध्य एशिया के बैक्ट्रिया और पर्शिया राज्यों तक जाता था। इसके आगे का रास्ता बढ़कर ईरान और रोम तक पहुँचता था। टकलामकान, जैसा कि अपने नाम से ही स्पष्ट कर देता है, कि मध्य एशिया का ऐसा रेगिस्तान था, जो एकदम उजाड़ और डरावना था। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था, कि जो टकलामकान रेगिस्तान में घुस जाता है, वह बाहर नहीं आ पाता है। इसी डर के कारण रेशम मार्ग के व्यापारी इस रेगिस्तान को उत्तर या दक्षिण दिशा से पार किया करते थे। दोनों दिशाओं से आने वाले रास्ते काश्गर के नख़लिस्तान में मिलते थे, और फिर आगे कराकोरम श्रेणी की तरफ चल पड़ते थे। शायद इसी के कारण किसी गंजे व्यक्ति को टकला कहा जाना और किसी उजाड़-वीरान जगह पर अचानक रौनक बिखर जाने पर उसे नख़लिस्तान कहा जाना प्रचलन में आया होगा। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था; वरन् इसमें अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति, वैचारिकता भी अपनी यात्राएँ करती थीं। जिस तरह रेशम मार्ग के व्यापारी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अपने सामानों की अदला-बदली करके व्यापार को चलाते थे, उसी तरह सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी आदान-प्रदान के माध्यम से चलती रहती थीं।

टकलामकान के बर्फीले रेगिस्तान से लगाकर उसके आगे मध्य एशिया के सर्द-बर्फीले इलाकों के लिए यारकंदी ऊँटों से बेहतर सवारी कोई नहीं हो सकती थी। इसी कारण 6500 किलोमीटर के इस लंबे रास्ते के अतीत की चर्चा भी यारकंदी ऊँटों के बिना पूरी नहीं हो सकती है। यारकंद या बैक्ट्रिया में पाए जाने वाले दो कूबड़ वाले ऊँटों को क्षेत्र के हिसाब से यारकंदी या बैक्ट्रियन ऊँट कहा जाता है। ये थार के रेगिस्तान में मिलने वाले ऊँटों से कम लंबे होते हैं और इनके दो कूबड़ होते हैं। इस कारण इन्हें सामान्य रूप से दो कूबड़ वाले ऊँट के तौर पर जाना जाता है। इनके शरीर में बाल भी बहुत होते हैं, जो इन्हें भीषण सर्दी और बर्फीली हवाओं से बचाते हैं।

मेरे मन में तमाम विचार एकसाथ चल रहे थे। बर्फीले रेगिस्तान को अपनी पदचापों से जीतने के लिए मनुष्य ने कैसे इन यारकंदी ऊँटों को अपना हमसफ़र बना लिया, और इनकी पीठ पर लदकर वस्तुओं के साथ ही संस्कृति-विचार व जीवन के रंग-ढंग भी भूगोल की सीमाओं को कैसे तोड़ देते हैं, यह सोचना ही अपने आप में बहुत रोमांचकारी है। लदाख अंचल में नानवाई की दुकानें चलाने वाले यारकंदी व्यवसायियों के वंशजों को अपने पूर्वजों का वह सफ़र आज शायद ही याद होगा, जो कभी इन यारकंदी ऊँटों की पीठ पर बैठकर तय किया गया होगा। समोसा खाते समय शायद ही हमें याद आता होगा, कि आज भारत के सर्वाधिक प्रिय और देशव्यापी समोसा ने इन्हीं यारकंदी ऊँटों में बैठकर भारतवर्ष तक का सफ़र किया होगा। समोसे की दुकानें तो देश-भर में मिल जाएँगी, मगर नानवाई की दुकानें लदाख की अपनी निजी पहचान हैं। नानवाई तंदूर में रोटियाँ बनाते हैं, जिन्हें लदाखी में ‘तागी’ कहा जाता है। तंदूरी रोटी के रूप में होशियारपुर के व्यापारियों के साथ पंजाब, और फिर देश के दूसरे हिस्सों में पहुँचने वाली लदाखी ‘तागी’ भी यारकंद की सौगात है।

मेरे विचारों की कड़ियों में दखल देते हुए जब नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खानपान की आदतों के बारे में बताया, तो एकबारगी यह भी महसूस हुआ, कि यारकंदी ऊँटों से ज्यादा धैर्यवान और सहनशील जीव धरती पर खोजना बहुत कठिन है। जरा-से पानी या थोड़ी-सी बर्फ से अपने शरीर में जल का स्तर बनाए रखकर और कँटीली झाड़ियों को खाकर अपना पेट भर लेने वाले ऊँट मानव के लिए आत्मबलिदान ही तो करते रहे हैं.......शायद। उनकी पीठ पर चमड़े के बड़े-बड़े थैलों में भरा पानी, तंदूर में बनी नानवाई की रोटियों से भरे बंडल और रेगिस्तान के सफ़र में चटखारेदार भोजन की कमी को पूरा करने वाले समोसेनुमा व्यंजन से भरे पात्रों को लादकर रेशम मार्ग में चलने वाले ऊँटों के हिस्से में लेह बेरी जैसी कँटीली झाड़ियाँ ही आती रही होंगी।

यारकंदी ऊँट छः मन, यानि लगभग ढाई क्विंटल तक भार उठा सकते हैं। इनके लिए समतल रेगिस्तान में चलना तो आसान होता है, मगर घाटियों की चढ़ाई-उतराई और बर्फीली चट्टानों पर चलना कठिन होता है। नोरबू साहब के द्वारा दी गई इस जानकारी के बाद महसूस हुआ, कि रेशम मार्ग में पड़ने वाले लदाख के पनामिग गाँव से आगे तुरतुग-बोगदंग आदि बल्तिस्तानी गाँवों की तरफ चलने पर शयोग नदी के एक ओर कराकोरम और दूसरी ओर लदाख रेंज के पहाड़ों की दुर्गम ऊँचाइयों पर सिल्क रूट के ध्वंसावशेष पतली-सी लकीरों की तरह दिखाई पड़ते हैं। इनमें यातायात के अनुशासन को देखते हुए आने, और जाने के रास्ते भी बाकायदा अलग-अलग समझ में आते हैं। नोरबू साहब से ही पता लगा, कि याक, घोड़े और टट्टू ‘शटल’ सेवा की तरह सिल्क रूट में प्रयुक्त होते थे। हिमनदों और विकराल दर्रों को पार कराने में जहाँ याक विश्वसनीय होते थे, वहीं ऊँचाई पर चढ़ने और तेजी के साथ सामान की ढुलाई करने में घोड़ों और टट्टुओं का उपयोग किया जाता था। इस तरह अलग-अलग स्थानों पर किराए से इन भारवाहकों को उपलब्ध कराने वाले किरायाकशों की बस्तियाँ भी होती थीं।

नोरबू साहब ने बड़े गर्व के साथ बताया, कि सिल्क रूट में चलने वाले कारवाँ के कारण नुबरा घाटी गुलजार रहती थी। उन दिनों नुबरा घाटी लेह के आसपास के इलाकों से कहीं ज्यादा संपन्न थी। हमारे पुरखों के लिए समरकंद, बुखारा दुर्गम नहीं थे। पनामिग गाँव में उस समय मध्य एशियाई व्यापारियों के लिए बेहतर शरणगाह होती थी। यह एक तिराहा जैसा भी था, जहाँ से लेह के लिए संपर्क मार्ग बना हुआ था। हुंदर का राजमहल रेशम मार्ग के यातायात में नजर रखने के लिए बनवाया गया था। इसके भौगौलिक और सामरिक महत्त्व को देखते हुए कई आक्रमणकारियों ने इसे जीतने की कोशिश भी की। वे बताते हैं, कि नुबरा, यानि फूलों की घाटी सिल्क रूट में किसी नख़लिस्तान से कम नहीं थी। सिल्क रूट में व्यापार बंद हो जाने के बाद लंबे समय तक नुबरा घाटी उपेक्षित रही है।

वैसे उपेक्षा तो यारकंदी ऊँटों की भी हुई है। उनका स्वर्णिम अतीत, जो उन्हें सिल्क रूट के शहंशाह का खिताब दिलाता था, आज केवल किताबों में सिमट गया है। सन् 1870 में कुछ यारकंदी ऊँटों को लदाख के मुख्यालय लेह में पहुँचाया गया। पुराने समय में इनका उपयोग माल ढोने के लिए स्थानीय स्तर पर होता रहा, किंतु सड़कों के बन जाने और यातायात के साधनों के सुलभ हो जाने के बाद इनकी उपयोगिता नहीं रही। लेह से लगभग दस किलोमीटर दूर छुशोद नामक गाँव में एक ठिकाना यारकंदी ऊँटों के लिए बनवाया गया है। इस गाँव में अरगोन समूह के लोग भी रहते हैं, जिनका अपना अतीत सिल्क रूट व्यापार से जुड़ा रहा है। किराए पर भारवाहक पशुओं को उपलब्ध कराने और व्यापारियों को रास्ता दिखाने के अलावा ये व्यापार में भी थोड़ा-बहुत हाथ आजमा लेते थे। सिल्क रूट का व्यापार बंद हो जाने के बाद अरगोन और यारकंदी ऊँट, दोनों का जीवन बदल गया।

अपनी दो कूबड़ वाली पीठ पर मानव के जीवन को सैकड़ों वर्षों तक ढोने वाले यारकंदी ऊँटों के लिए अब शिआन से बैक्ट्रिया या वाह्लीक प्रांत का विशाल भूभाग, पामीर से हिंदुकुश या पारियात्र पर्वतश्रेणी तक की महान-पवित्र धरती अलग-अलग हिस्सों में बँट गई है। यहाँ के रहवासी अब यह भूल चुके हैं, कि वे कभी एक सूत्र से जुड़े हुए थे। रेशम मार्ग अब अतीत की रोचक पहेली की तरह आने वाली संततियों को शायद यह बता सकेगा, कि हिमालय में ऐसे कारवाँ भी कभी चलते रहे हैं, जिन्होंने आज के दर्जनों देशों तक व्यापारिक वस्तुएँ ही नहीं पहुँचाई हैं; वरन् संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन और वैचारिकता के ऐसे आदान-प्रदान भी किए हैं, जिनके कारण ‘वसुधैव-कुटुंबकम्’ के भाव सही अर्थों में स्थापित हुए। इन सबके पीछे केवल मानव रहा, यह कहना नितांत अतार्किक होगा। इसके लिए यारकंदी ऊँटों के प्रति कृतज्ञता का भाव उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार चेतक और बेंदुला के लिए होता है।

नोरबू साहब अब भी यारकंदी ऊँटों की ढेरों बातें बताते जा रहे थे। घड़ी की सुई दोपहर का एक बज गया है, ऐसा बता रही थी। नोरबू साहब के कथनानुसार अब ऊँटों के लंच का समय हो गया था। सामान्य-से कर्मचारियों की तरह ऊँटों को भी दो घंटे की छुट्टी मिली थी, पर्यटकों को मौज-मस्ती कराने के काम से। उनकी पीठ पर पड़ी झूलों को उतारा जा रहा था। उनकी नकेल को आजाद किया जा रहा था। अभ्यस्त दिनचर्या के अनुरूप सभी चल रहे थे। मेरे सामने यारकंदी ऊँटों की तीन पीढ़ियाँ थीं। इनमें बुजुर्गों से लगाकर युवाओं तक, और बच्चों की तरह उछल-कूद करते, अपनी ‘ड्यूटी’ से अनजान उष्ट्र शावकों में से किसी को भी यह अहसास नहीं होगा, कि एक जमाने में यहाँ उनके पुरखों की तूती बोलती थी। एक जमाने में वे सिल्क रूट के शहंशाह हुआ करते थे। यह अहसास तो उन पर्यटकों को भी नहीं होगा, जो दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी करने की उत्कट अभिलाषा लिए वहाँ पर मौजूद थे, और ‘शहंशाहों’ के अपनी नौकरी पर वापस लौटने का इंतजार कर रहे थे।

-राहुल मिश्र


(साहित्य संस्कार, त्रैमासिकी, जबलपुर के प्रवेशांक, जनवरी, 2019 में प्रकाशित)


Thursday 3 August 2023

सीमांत पर्यटन : देश से जुड़ती सीमाएँ

 


सीमांत पर्यटन : देश से जुड़ती सीमाएँ

हाल ही में जम्मू-काश्मीर राज्य प्रशासन द्वारा समृद्ध सीमा योजना के अंतर्गत सीमांत पर्यटन के लिए बजट के प्राविधान के साथ ही विगत वर्ष से चल रही सीमांत पर्यटन योजना के विस्तार को नया आयाम दिया गया है। यह जानना आवश्यक होगा, कि जम्मू-काश्मीर राज्य भारतदेश का ऐसा सीमावर्ती प्रदेश है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय सीमाएँ सबसे अधिक चर्चा में रहती हैं। भारतदेश की सीमाएँ बहुत विस्तृत हैं, और साथ ही अनेक विविधताएँ भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में देखी जा सकती हैं। ये विविधताएँ संस्कृति से लगाकर भौगौलिक, सामाजिक और भू-राजनीतिक हैं। इन सभी विविधताओं की बानगी जम्मू-काश्मीर राज्य में देखी जा सकती है। इन विविधताओं के साथ ही जम्मू-काश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में वर्ष भर अराजकता और आतंक का साया मँडराता रहता है। आए दिन के समाचार एक ऐसी धारणा आमजन के मन में बना देते हैं, कि उसमें भय के अतिरिक्त कुछ भी सोचने और जानने के लिए शेष नहीं रह जाता है।

वर्ष 2019 में जम्मू-काश्मीर के केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद स्थितियाँ बदली हैं। लद्दाख केंद्रशासित प्रदेश के रूप में अलग से अस्तित्व में आया है। इन बदली हुई स्थितियों का एक बड़ा, प्रभावी और सशक्त पक्ष सीमांत पर्यटन योजना के रूप में देखा जा सकता है। यद्यपि ‘बार्डर टूरिज्म योजना’ केवल जम्मू-काश्मीर के लिए ही नहीं है। यह योजना लद्दाख में भी है, उत्तराखंड और देश के अन्य सीमावर्ती राज्यों के सीमांत क्षेत्रों के लिए भी है। लेकिन इस योजना के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावी पक्ष को, इसके सर्वाधिक सकारात्मक प्रभाव को जम्मू-काश्मीर राज्य में विशेष रूप से देखा जा सकता है, इस कारण जम्मू-काश्मीर के सीमांत पर्यटन से बात को प्रारंभ करना प्रासंगिक और समीचीन लगता है।

देश के अन्य भागों में रहने वाले नागरिकों के लिए सीमांतक्षेत्र का जीवन एक रहस्यमयी दुनिया जैसा ही है। वे अपने देश की सीमाओं को भले ही मानचित्र में पहचान लें, लेकिन उनके लिए सीमांतक्षेत्र के लोगों के जीवन, वहाँ की संस्कृति, सामाजिक संरचना और भौतिक स्थिति के साथ ही प्राकृतिक विशिष्टता को जानना-समझना सरल नहीं। लंबे समय तक सुरक्षा कारणों से, राजनीतिक कारणों से, साथ ही अंतरराष्ट्रीय नीतियों, पड़ोसियों के साथ संबंधों आदि के कारण ये सीमांतक्षेत्र मुख्यधारा के अंग नहीं बन सके। जैसा कि कहा जाता है, कि परिधि सदैव केंद्र से दूर रहती है, वैसे ही हमारे देश की सीमाओं में बसने वाले लोग केंद्र से दूर रहे। यह सुखद है, यह अभूतपूर्व भी है, कि गणितीय विधान को भारतीयता और राष्ट्रीयता के उदात्त भावों की भूमि पर सरल किया गया है। आज केंद्र परिधि के निकट है। आज दिल्ली अपने आसपास का ही नहीं सोच रही, वरन् परिधि तक जा रही है। देश अपनी सीमाओं को जान रहा है, अपने सीमांत क्षेत्र के भारतीयों को, नागरिकों को जान रहा है, उनके साथ खड़ा है। इसी ध्येय को लेकर विगत वर्ष केंद्र सरकार की ‘बार्डर टूरिज्म योजना’ अस्तित्व में आई थी, और बहुत कम अंतराल में ही इस योजना के सकारात्मक पक्ष न केवल सामने हैं, वरन् राष्ट्र के गौरव की श्रीवृद्धि भी कर रहे हैं, भारतीयता की अलख भी जगा रहे हैं।

इस वर्ष बदरीनाथ-केदारनाथजी की यात्रा के साथ एक स्थान की यात्रा भी बहुत चर्चित रही। कह सकते हैं, कि जितने यात्री केदारनाथ धाम की यात्रा पर गए, लगभग सभी तीर्थयात्री भारत के सीमावर्ती अंतिम गाँव माणा तक भी गए। पहले यहाँ एक ‘साइन बोर्ड’ लगा होता था- भारत का आखिरी गाँव... माणा। इसी वर्ष मई माह में बड़ी अनूठी पहल करते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वह ‘साइन बोर्ड’ बदलवा दिया। अब उस ‘साइन बोर्ड’ में ‘भारत का आखिरी गाँव- माणा’ के स्थान पर ‘भारत का पहला गाँव- माणा’ लिखा है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की यह पहल, उनका यह कार्य है तो बहुत सामान्य-सा, लेकिन इसके निहितार्थ को समझकर देखिए....। इस बदलाव को माणा गाँव के रहवासियों की दृष्टि से जानकर तो देखिए....। आपको बहुत अच्छा लगेगा, गर्व की अनुभूति होगी। जो लोग अपने को आखिरी पायदान पर मानकर हीनबोध से ग्रस्त हो जाते रहे होंगे, उन्हें एक छोटे-से बदलाव ने पहली पंक्ति पर ला दिया, अग्रिम स्थान दे दिया। यह सच भी है, कि सीमा पर माणा गाँव है, तो वह स्वाभाविक रूप से पहला ही होगा..., लेकिन अंतर केवल सोच में था, जिसे बदला गया है।

देवभूमि उत्तराखंड में भारत का पहला गाँव- माणा अब तीर्थयात्रियों की पहली पसंद भी है। बदरीनाथ धाम से मात्र 3 किमी की दूरी पर माणा गाँव के किसी छोर में एक चाय की छोटी-सी दुकान भी है। उस दुकान में एक कप चाय पीना और फोटो खींचकर या सेल्फी लेकर उसे बड़े गर्व के साथ सोशल नेटवर्किंग के पटल पर, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि पर डाल देना किसी ‘पैशन’ से कम नहीं... किसी जोश से कम नहीं। इस वर्ष ये चित्र खूब देखे गए। लोगों के लिए बदरी-केदार की तीर्थयात्रा इस दृष्टि से देशाटन से कम नहीं ठहरती, भगवद्भक्ति के साथ देशभक्ति, देशानुराग का यह दुर्लभ संयोग देवभूमि में साकार हुआ है। माणा गाँव आज किसी तीर्थ से कम नहीं कहा जा सकता। निश्चित रूप से माणा होकर आने वाले तीर्थयात्रियों के मन में जिस उत्साह को, देश के प्रति गौरव के भाव को देखा है, वह सीमांत पर्यटन योजना की सफलता के शताधिक प्रतिमानों को उच्चतम स्तर पर छूता है। भारतदेश को देखने का यह अनूठा कार्य सिद्ध होता है।

इसी वर्ष लगभग तीन माह पहले उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के हरसिल गाँव के निकट जादुंग गाँव को नया पर्यटन स्थल बनाया गया है। भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित जादुंग गाँव को माणा की तरह भारत का पहला गाँव कहा जाता है। कुछ समय पहले तक हरसिल पर्यटन केंद्र के रूप में पर्यटकों की पसंद होता था। इससे आगे सीमा सुरक्षा के कारण जाने की अनुमति नहीं होती थी। अब पर्यटकों के लिए यह गाँव सुलभ हो गया है।

चाहे माणा गाँव हो, या जादुंग गाँव हो...। सीमावर्ती इन गाँवों में जुट जाने वाले सारे देश को, देश के हर भाग से..., उत्तर से लगाकर दक्षिण और पूरब से लगाकर पश्चिम तक देश के हर कोने से जब माणा और जादुंग आदि गाँवों में लोग पहुँचते होंगे, तो गाँव के लोगों की प्रसन्नता की क्या सीमा होती होगी, हमारे लिए केवल कल्पना का ही विषय हो सकता है। इतना अवश्य है, कि पिछले कई वर्षों में पृथक और एकाकी जैसा जीवन बिताने को विवश इन सीमावर्ती गाँवों के लोग कभी तो यह सोचते ही होंगे, कि आखिर हमारा देश कैसा है, कौन-सा है, जो हमारी सुधि ही नहीं लेता, कभी...। उनकी यह व्यथा, उनके मन का यह भाव टीस की तरह उभरता तो अवश्य ही होगा। सीमांत पर्यटन योजना ने इस दर्द को समेटा है। चाहे उत्तराखंड की सरकार हो, या केंद्र की मोदी सरकार हो, इस दर्द को अनुभूत किया है, देश के छोर पर बैठे आमजन की व्यथा को समझा है। इस दृष्टि से भी सीमांत पर्यटन योजना अपना विशेष महत्त्व रखती है।

कल्पना करें, जम्मू व काश्मीर के उन सीमावर्ती क्षेत्रों की...., जहाँ यह पता नहीं होता, कि कब गोले बरसने लगेंगे और कब ताबड़तोड़ गोलीबारी होने लगेगी। हम अपनी सीमाओं में शांति के पक्षधर हैं, लेकिन अशांति ही जिनको रास आती है, वे कहाँ चुप रहने वाले हैं। ऐसी दशा में रहने-जीने वाले सीमावर्ती गाँवों के रहवासियों के जटिल जीवन की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देती है। अनेक संकट और बाधाएँ सहकर भी वे अपनी धरती नहीं छोड़ते। देश के प्रति उनका लगाव कम नहीं होता। वे सेना और सैनिकों की सहायता को अपना धर्म समझते हैं। इसके बदले वे कोई अपेक्षा नहीं रखते, कोई लाभ नहीं माँगते। इन सीमावर्ती गाँवों के लोग किसी सैनिक से कम नहीं, इनकी देशभक्ति, इनका जज्बा किसी से कम नहीं। ऐसी पुण्यश्लोका धरा, जिसने ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया है; ऐसी गौरवशाली धरती, जो इन कर्मठ भारतीयजनों को पालती-पोसती है, उसके दर्शन के लिए हर भारतीय को जाना चाहिए, जाना ही चाहिए। प्रायः यह भाव और विचार जम्मू-काश्मीर की समृद्ध सीमा योजना और सीमांत पर्यटन योजना में परिलक्षित होता है, दिखता है।


जम्मू-काश्मीर में सीमांत पर्यटन योजना को तेजी के साथ धरातल पर उतारा जा रहा है। अनेक ऐसे गाँवों में संसाधनों का विकास किया जा रहा है। सड़कों से लगाकर बिजली और पानी के साथ ही इंटरनेट की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रहीं हैं। लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, कि वे पर्यटन को अपने रोजगार का माध्यम बनाएँ। यद्यपि पूरे प्रदेश की आय का बड़ा भाग पर्यटन से संबंधित है, तथापि सीमांत पर्यटन ने लोगों के लिए नए आयाम सृजित किए हैं, नई दिशाएँ दी हैं। इसके सकारात्मक प्रभाव सामने आने लगे हैं। जम्मू-काश्मीर से अलग होकर अस्तित्व में आए लद्दाख केंद्रशासित प्रदेश में भी सीमांत पर्यटन की असीमित संभावनाएँ हैं। सियाचिन हिमानी, चंगथंग का मैदान, तुरतुक और बोगदंग आदि गाँव नए पर्यटन-केंद्र के रूप में उभरे हैं। तुरतुक, त्याक्शी, चालुंका, बोगदंग और थांग गाँव लद्दाख की उत्तर-पश्चिमी सीमा में हैं। हमारी सेना के शौर्य और पराक्रम की गाथाएँ यहाँ के कण-कण में बसी हैं। एकदम अलग संस्कृति, बल्टी तहजीब यहाँ देखने को मिलती है। सीमांत पर्यटन योजना के अंतर्गत ये गाँव नए पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हुए हैं। यहाँ के लोगों की आय के नए रास्ते खुले हैं। देश भर के अलग-अलग भागों से आने वाले पर्यटक इस भूमि का दर्शन करके देशानुराग को अनुभूत करते हैं, गौरवान्वित होते हैं।

सीमांत पर्यटन योजना के अंतर्गत केवल हिमालयी परिक्षेत्र ही नहीं; कच्छ का रन, बंगाल की खाड़ी, भारतमाता के पाँव पखारता सिंधुसागर भी सीमांत पर्यटन योजना से जुड़ता है। अनेक विविधताओं को, संस्कृतियों के अलग-अलग रंगों को एक में समेटे, एकात्मता का राग गाते भारतदेश की सीमाएँ ही यदि घूम ली जाएँ....., सीमांत क्षेत्रों का पर्यटन ही कर लिया जाए, तो देश की तमाम सांस्कृतिक झाँकियों से साक्षात्कार हो जाता है। भारत देश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर पर, वैविध्य में समाहित एकात्मता पर गर्व का भान हो जाता है। भारतीयता का पाठ पढ़ने-पढ़ाने के लिए सीमांत दर्शन योजना, सीमांत पर्यटन योजना अद्भुत है, अनुपम है, अतुल्य है।

-डॉ. राहुल मिश्र



(सीमा संघोष, नई दिल्ली के जुलाई, 2023 अंक में प्रकाशित)

Monday 17 April 2023

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

 

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

लदाख का नाम आते ही एकदम अलग तरह की छवि मन में बनने लगती है। शीत की अधिकता के बीच किस तरह जीवन बीतता होगा, यह चिंता हर किसी के मन में आ जाती है। शीत की अधिकता के बीच, वीरान-सी पर्वतमालाओं के बीच, जहाँ हरियाली और चहल-पहल दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती, वहाँ मन का रंजन, कलात्मकता का विस्तार आखिर कैसे होता होगा? यह प्रश्न हर किसी के मन में उठता है। वस्तुतः सच्चाई इसके विपरीत है। भले ही जीवन की रंगीनियाँ, चहल-पहल लद्दाख में कम हों, लेकिन कलात्मकता में लद्दाख बेजोड़ है, अनुपम है।

लद्दाख एक समय में सिल्क रूट या रेशम मार्ग का हिस्सा होता था। इस कारण अनेक संस्कृतियाँ, सभ्यताएँ यहाँ से गुजरीं और ठहर-ठहर कर इस बर्फीले रेगिस्तान में अपनी छवियाँ बिखेरती रहीं हैं। भारतीय संस्कृति से अनुप्रणित लद्दाख में न केवल बौद्ध धर्म की सर्वस्तिवादी शाखा का विस्तार हुआ, वरन् कालांतर में तिब्बत से होते हुए महायान परंपरा का विस्तार भी हुआ। हिमाचलप्रदेश के रिवाल्सल (रिवरसल) से गुरु पद्मसंभव का धार्मिक अनुष्ठान न केवल तिब्बत तक गया, वरन् लद्दाख अंचल में भी विस्तृत हुआ।

लद्दाख में भारतीय बौद्ध परंपरा ही नहीं आई, अनेक कला शैलियाँ और स्थापत्य का भी आगमन हुआ। इसी कारण आज के लद्दाख में जगह-जगह कलात्मक मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। बौद्ध मंदिरों-मठों, जिन्हें लद्दाख में गनपा कहा जाता है, अनेक प्रकार के देवी देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित होकर आस्था के केंद्र के रूप में जाने जाते हैं। लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही धातु से बनी, संगमरमर आदि कीमती पत्थरों से बनी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।

अगर लद्दाख की मूर्तिकला के अतीत में उतरकर देखें, तो पता चलता है कि लद्दाख में सबसे पहले पाषाण मूर्तिकला का प्रचार हुआ। लदाख में इस कला का प्रचार-प्रसार काश्मीर शासक ललितादित्य (724-760) के समय या इसके आस-पास  हुआ। दसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध अनुवादक लोचावा रिनछेन जङ्पो (958-1055) तिब्बत से काश्मीर आए और वापस लौटते समय अपने साथ काश्मीर से अनेक कलाकारों को लेते आए। लोचावा रिंचेन जङ्पो के प्रयासों से लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही काष्ठ-मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। उनकी जीवनी से ज्ञात होता है, कि उन्होंने अपने पिता की स्मृति में काश्मीर में भीधक नामक एक कुशल शिल्पकार से अपने पिता के शरीर के बराबर महाकारुणिक आर्यावलोकितेश्वर की एक मूर्ति का निर्माण करवाया, जिसका प्रतिष्ठापन गुरु श्रद्धाकर वर्मा ने किया था। इस मूर्ति का निर्माण धातु को पिघलाकर किया गया था।

लोचावा रिनछेन जङ्पो काश्मीर से अपने साथ बत्तीस कलाकारों को लेकर लद्दाख आए थे। इन कलाकारों में मृण्मूर्ति, काष्ठ-मूर्ति, धातु की मूर्ति बनाने वाले कुशल शिल्पकारों के अतिरिक्त कुशल चित्रकार भी सम्मिलित थे। ये कलाकार लद्दाख के अलग-अलग स्थानों में बस गए और अपनी कला की अनेक बानगियाँ यहाँ बिखेरते रहे। लोचावा रिंचेन जङ्पो द्वारा आज से लगभग 1000 वर्ष पहले बनवाया गया अलची बौद्ध विहार न केवल लद्दाख, वरन् पुरातन भारतीय स्थापत्य कला की अद्भुत निशानी है। लोचावा के साथ आए कलाकारों द्वारा यहाँ अनेक देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ बनाई गईं हैं। साथ ही भित्तिचित्र भी बनाए गए हैं। इनमें पत्थर के परंपरात रंगों का प्रयोग किया गया है। भवन की निर्मिति भी ऐसी है, कि अनेक वर्षों तक मौसम की मार झेलकर भी अपने स्थापत्य के सौंदर्य को, अपनी मूर्तिकला की धरोहर को सहेजे हुए है।

लोचावा रिनछेन सङ्पो के पश्चात लद्दाख के कलाप्रिय और धर्मभीरु राजाओं ने मूर्ति-निर्माण कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। प्रस्तर और धातु की मूर्तियों के साथ ही मृण्मूर्तियों के निर्माण का प्रचलन लद्दाख में आया। मिट्टी से बनी मूर्तियाँ धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष अंग बनने लगीं। धर्मराज ल्हछेन ङोसडुब गोन, धर्मराज डगपा बुम दे, राजा टशी नमग्याल, धर्मराज सेङ्गे नमग्याल और धर्मराज देलदन नमग्याल ने अपने राज्यकाल में अनेक मूर्तियों का निर्माण कराया, जो वर्तमान में लद्दाख के विभिन्न अंचलों के बौद्ध मठों-मंदिरों (गोनपाओं) में स्थापित हैं, और लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य का प्रदर्शन कर रहीं हैं।

लद्दाख में बनने वाली मृण्मूर्तियों में काश्मीर की मूर्तिकला के साथ ही प्राचीन गांधार शैली के दर्शन होते हैं। लद्दाख में प्रमुख रूप से बुद्ध, बोधिसत्व, आर्य अवलोकितेश्वर, आर्य मंजुश्री, मैत्रेय, वज्रपाणि के साथ ही तंत्रयान के देवी, देवता, रक्षक आदि की मूर्तियों का निर्माण होता है। मूर्ति-निर्माण से संबंधित विभिन्न ग्रंथों की रचना भारतीय शास्त्रों के आधार पर की गई है। स्तनग्युर में बौद्ध कला और शिल्प के रूप में ये पृथक ग्रंथ के रूप में संग्रहीत हैं। मूर्ति-निर्माण परंपरा यहाँ गुरु-शिष्य के रूप में चलती है। एक गुरु के अनेक शिष्य इस कला को विस्तार देते हैं। मूर्तियों के निर्माण के लिए पुराने समय में मूर्तिकारों द्वारा ही सामग्री तैयार की जाती थी। वर्तमान में भी यह परंपरा चल रही है। लद्दाख में पाई जाने वाली चिकनी पीली मिट्टी के साथ ही मोटा कपड़ा और धागा-साँचा आदि प्रयोग में लाया जाता है। मूर्ति का साँचा बनाकर उसमें लेपन करके फिर रंग भरे जाते हैं।

बौद्ध शास्त्रों के अनुसार मूर्ति के शीर्ष मुकुट से लगाकर चरण तक अलग-अलग मंत्र हैं, जिन्हें लिखकर मूर्ति के निश्चित भागों में डालना होता है। इसे धारणी कहते हैं। धारणी के अतिरिक्त धातु,अन्न, वस्त्र आदि भी मूर्ति के अंदर डाले जाते हैं। इसके पश्चात् बौद्ध आचार्यगण मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। लद्दाख के विभिन्न मठों-मंदिरों में अनेक प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके साथ ही विभिन्न स्थानों पर स्थापित की गईं मूर्तियाँ लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य को दिखाती हैं। समय के बदलाव के साथ सीमेंट और प्लास्टर आफ पेरिस से भी मूर्तियाँ बनाने का चलन लद्दाख में आया है। इसमें तैलीय रंगों का प्रयोग भी नया है।

कुल मिलाकर लद्दाख की पहचान का एक बड़ा हिस्सा लद्दाख की विशिष्ट मूर्तिकला से बना है। लद्दाख में अनेक कलात्मक मूर्तियों का निर्माण होता है, जो देश ही नहीं दुनिया के अनेक हिस्सों में सजावट के लिए जाती रहती हैं।



(मासिक पत्रिका हस्ताक्षर, इंदौर, मध्यप्रदेश के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित)

Tuesday 6 December 2022


 आखिर भरोसेमंद क्यों नहीं है, ड्रैगन...

हाल ही में पूर्वी लद्दाख सीमा को लेकर भारत के सेनाध्यक्ष का बयान आया है। वे कहते हैं, कि पूर्वी लद्दाख में स्थिति सामान्य है, लेकिन चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बयानों की पूरी एक कड़ी ही पिछले दो-तीन महीनों में आई है, जो लगभग ऐसी ही बात पर केंद्रित है। विदेशमंत्री जयशंकर अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य के अनुरूप यह कहते हैं, कि चीन को पहले अपनी सीमाओं को शांत करना होगा, स्थिर करना होगा और घुसपैठ सहित सेना की वापसी की तय शर्तों का पालन करना होगा। संबंध सुधारने के लिए कम से कम इतना तो आवश्यक है ही...।

भारत के सेनाध्यक्ष की चिंता अलग तरीके की है। पिछले वर्षों में गालवान, देपसांग, देमचोक और दौलत बेग ओल्डी में जिस तरह की घटनाएँ हुई हैं, उन्हें चीन के गिरगिटी रंग से मापा जा सकता है। पंद्रह से अधिक चरणों की वार्ताओं के बाद भी चीन ने पूर्वस्थिति पर जाने के लिए सहमति नहीं दिखाई। वह हमेशा चतुराई की भाषा बोलकर भारत की रक्षात्मक रणनीति का लाभ उठाता रहा है। इधर चीन के अंदर भी उथल-पुछल के समाचार सोशल संचार के पटलों पर तैरते रहे, और दूसरी ओर सीमा पर चीन की नीति-नीयत विस्तारवाद को केंद्र बनाकर तैयार होती और चलती रही।

अक्टूबर, 2022 का पूरा ही महीना चीन के अंदर उथल-पुथल से भरा रहा है। इसकी शुरुआत चीन में तख्ता-पलट की सूचनाओं के प्रसार से होती है। ऐसा कहा जा रहा था, कि चीन के अंदर सत्ता का परिवर्तन होने जा रहा है। व्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक हो जाएगी, चीन के पड़ोसियों से विवाद सुलझ जाएँगे, ताइवान का मुद्दा भी हल हो जाएगा। ऐसे अनेक कयास लगाए जा रहे थे। हो सकता है, कि चीन के अंदर ऐसी कुछ स्थितियाँ बनी हों, लेकिन इन सबके पीछे का बड़ा कारण शी जिनपिंग की सत्ता में पुनः वापसी के प्रयासों का था। दुनिया के देशों में चीन की आंतरिक अस्थिरता के समाचार विश्वमंच का ध्यान भटकाने के लिए था, यह बात बाद में सही सिद्ध होती दिखी। 16 अक्टूबर से प्रारंभ हुए चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के हर पाँच साल में होने वाले महासम्मेलन (कांग्रेस) के लिए विश्व-स्तर पर जो भूमिकाएँ बनाई जा रहीं थीं, उनकी चीन की आंतरिक राजनीति और रणनीति में भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह बताते हुए, कि आंतरिक अस्थिरता और साथ ही संभावित वैश्विक संकटों से निबटने के लिए वर्तमान नेतृत्व को ही भविष्य के लिए चुना जाना आवश्यक है, महासम्मेलन का प्रारंभ होता है।

इसी क्रम में एक वीडियो भी सोशल पटल पर घूमता रहा। इसमें 2003 से दस वर्षों तक राष्ट्रपति रहे 79 वर्षीय हू जिंताओ को शी जिनपिंग के बगल से उठाकर बाहर ले जाते हुए दिखाया गया है। जिंताओ जाते-जाते प्रधानमंत्री ली केकियांग का कंधा दबाते हैं और अधिकारी जिनपिंग से कुछ कहते हैं। बाद में दोनों चीनी अधिकारी जिंताओ को लेकर ‘ग्रेट हाल आफ द पीपुल’ से बाहर चले जाते हैं। सामान्य तौर पर सीपीसी की बैठकों और कार्यवाहियों के विवरण या समाचार उतनी ही मात्रा में बाहर आते हैं, जितनी मात्रा सीपीसी के लिए अनुकूल होती है। लेकिन इस बार वह परंपरा टूटती दिखती है। इस बार विदेश की अनेक समाचार एजेंसियों की निगाहें भी इस महाधिवेशन में लगी हुई थीं।

सीपीसी की व्यवस्था और नियमों के अनुसार शी जिनपिंग के स्थान पर दूसरा महासचिव नियुक्त होना था, किंतु ऐसा नहीं होने पर एक संदेश गया, कि सीपीसी में जिनपिंग का पूरा वर्चस्व है। विरोधियों के लिए बाहर का रास्ता है, यह भी सुलभ संदेश इस महाधिवेशन से निकला। जिन मान्यताओं और व्यवस्थाओं का दम भरते हुए सीपीसी जनमुक्ति और जनवाद की बात करती रही, वे दुर्ग किस तरह ढहे हैं, इसका साक्ष्य महाधिवेशन में मिलता है। ये बदलाव विश्व को एक संदेश देता है। अधिनायक माओ त्से तुंग की नए तेवर-कलेवर के साथ वापसी को भी इसमें देख सकते हैं।

तीसरी बार पुनः नियुक्त होते ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग की चिंता देश की आंतरिक अस्थिरता को रोकने और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उनके एक बयान के साथ सामने आती है। वे चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को अपनी सारी ऊर्जा अपनी क्षमता बढ़ाने, युद्ध लड़ने और जीतने के लिए तैयार रहने की दिशा में लगाने का आदेश देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे सेना प्रमुख के रूप में पीएलए के युद्ध प्रशिक्षण को मजबूत करेंगे, क्योंकि सुरक्षा की स्थिति लगातार अस्थिर और अनिश्चित बनती जा रही है।

जिनपिंग के इन आदेशों और प्रयासों के विश्वमंच पर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। ताइवान पर चीन की निगाहें लगी हुई हैं। अमरीका के ताइवान के साथ खड़े हो जाने से स्थितियाँ बदल गईं हैं, और चीन का स्वर भी बदल गया है। भारत के साथ चीन के सीमा-विवाद कोई नए नहीं हैं। भारत का सशक्त राजनीतिक नेतृत्व निश्चित रूप से चीन के लिए आँखों की किरकिरी बना हुआ है। वह विश्वमंच पर अनेक प्रयास करते हुए भारत को अपने आर्थिक और साथ ही सैन्य बल से अपने प्रभाव में लेने की असफल कामना करता रहता है। चीन के लिए ऐसा करना कुछ हद तक आसान तब भी हो जाता है, जब उसे भारत की राजनीतिक भूमि पर अपने चंद समर्थक मिल जाते हैं। यह अलग बात है, कि चीनी नेतृत्व के लिए इस भ्रम में रहना, कि भारत सन् 62 वाला ही है, उचित नहीं है। गालवान में भारतीय सेना के पराक्रम को सभी जानते हैं। चीन ने इस सच्चाई को देर से ही सही, स्वीकारा भी है।

7 से 11 नवंबर तक चली सैन्य कमांडर कान्फ्रेंस में सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडेय की अध्यक्षता में सेना के तीनों अंगो के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों, रक्षा विशेषज्ञों और रक्षामंत्री के साथ ही प्रशासनिक अधिकारियों ने विचार-विमर्श किया। पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी तनाव के बीच भारत और चीन के मध्य सामरिक संबंधों पर यह कान्फ्रेंस केंद्रित रही। चीन ने गालवान से सेनाओं को हटाने की बात कही थी। इसी के साथ देपसांग और देमचोक में भी सैन्य गतिविधियों को नियंत्रित करने की बात कही थी। लेकिन दूसरी तरफ चीन ने अपनी सामरिक रणनीतियों का बड़ा रोडमैप बना रखा है। इसमें तिब्बत के ल्हूंजे काउंटी से शिनजियांग के माझा तक राजमार्ग के निर्माण की बड़ी योजना भी सम्मिलित है। चीन द्वारा प्रस्तावित सड़क भारत से सटी सीमाओं को एकसाथ जोड़ने वाली है। इस राजमार्ग में देपसांग, गालवान घाटी और गोगरा हाट स्प्रिंग भी जुड़ रहे हैं और अरुणाचल के सीमावर्ती क्षेत्र भी जुड़ रहे हैं। एक ओर गालवान सहित पूर्वी लद्दाख में पूर्ववर्ती स्थिति को बहाल करने की बात चीन कहता है, तो दूसरी ओर सड़क और अन्य संसाधनों का विस्तार भी करता है।

तिब्बत से सटा लद्दाख का पठार सन् 1962 के अतीत को आज भी भुला नहीं सका है। हमारे अतीत में वह घाव आज भी रिसता है। 14 नवंबर, 1962 को भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया था, कि अक्साईचिन की 37,244 वर्ग किलोमीटर भूमि को आक्रमणकारी चीन से वापस लेकर ही मानेंगे। इस बहस में भारत की संसद के 165 सदस्यों ने भाग लिया था, और 08 नवंबर को इस प्रस्ताव को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में रखा था। चीन ने भारत की भूमि को ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए जिस तरह छलपूर्वक कब्जाया था, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस युद्ध के बाद भी अनेक लड़ाइयाँ विश्व के इस सबसे ठंडे और ऊँचे युद्धक्षेत्र में हुईं। अनेक ललनाओं ने अपने सपूतों को भारतमाता की रक्षा के लिए बलि चढ़ाया। कई बहनों ने अपने भाई खोए। इन युद्धों और संघर्षों की विभीषिकाओं के अनेक चिन्ह आज भी लद्दाख अंचल के चप्पे-चप्पे में दिखते हैं।

हमारे वीर सैनिकों के बलिदानों की गौरव-गाथाएँ जहाँ हमें गर्व से भरती हैं, वहीं चीन के छल और छद्म को भी निरंतर स्मरण कराती रहती हैं। सन् 1962 में पंचशील के समझौते के साथ ही भारत का बदले हुए चीन पर, जनमुक्ति अभियान चलाने वाले चीन पर विश्वास टूट गया था। यह अलग बात है, कि उस समय कुछ नेतृत्वकर्ता राजनेता साम्यवाद के दिवास्प्नन में, बंजर-उजाड़ धरती के टुकड़े के रूप में अपनी भारतभूमि को देखने के यत्न में चीन पर भरोसा जोड़े रहे हों...। कुछ भी हो.. 1962 से 2020 तक आते-आते नेतृत्व भी बदला, और सोच भी बदली है। सन् 2020 के जून माह में गालवान घाटी पर भारत के सैनिकों ने चीन के घुसपैठियों को मुँहतोड़ जवाब दिया था। लगभग चार दशक बाद यह पहला अवसर था, जब इस सीमा पर गोलीबारी हुई। चीनी घुसपैठ को रोका गया। रूस की एजेंसी तास ने बाद में बताया था, कि चीन के पचास सैनिक इस झड़प में मारे गए थे।

गालवान की झड़प भारतीय संदर्भ में एक निर्णायक दिशा के रूप में देखी जा सकती है। इसके साथ ही भारत के सीमांतप्रदेशीय क्षेत्रों में, विशेषकर पूर्वी लद्दाख में सड़क-यातायात के साधनों का तेजी के साथ विस्तार हुआ है। पूर्वी लद्दाख में सेनाओं के परिचालन में बहुत कठिनाई होती थी, क्योंकि यहाँ सड़क मार्ग नहीं के बराबर ही थे। शयोक और नुबरा आदि नदियों पर पुल नहीं थे। सूचना और संचार के साधन भी बहुत सीमित थे। इन सभी संसाधनों का तेजी के साथ विकास सैन्य गतिविधियों और परिचालन के लिए बहुत लाभकारी और सीमा-सुरक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है।

अनेक आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सैनिकों को सुसज्जित करने के साथ ही वायुसेना को भी आधुनिक हवाई जहाज, लड़ाकू विमान और हेलिकाप्टर आदि उपलब्ध कराकर तैयार किया गया है। आत्मनिर्भर अभियान के तहत भारत ने सैन्य सामग्री के निर्माण में कीर्तिमान बनाया है। देशी आयुधों के साथ ही स्वदेश निर्मित राडार तकनीक और अन्य सहायक सामग्रियों के साथ पूर्वी लद्दाख में तैनात भारतीय सेना हर समय मुस्तैद भी है, और सीमा पर किसी भी तरह की भारत विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए सक्षम भी है।

चीन को भारत की इस तैयार की पूरा अंदाज है। इसलिए वह दूसरे रास्ते निकालता है। इनमें अन्य पड़ोसी देशों को भारत के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास, भारत के पड़ोसी देशों की भूमि का भारत को हानि पहुँचाने के लिए प्रयोग करने के प्रयास, समुद्री सीमा पर सैन्य गतिविधियों का संचालन और भारत के जन्मजात शत्रु को दाम, दंड, भेद की नीति के साथ भारत के विरुद्ध तैयार करने में चीन कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। ऐसी दशा में चीन पर भरोसा करना किस स्थिति में संभव हो सकता है?

चीन के आंतरिक राजनीतिक परिदृश्य में चीन का नया रोडमैप जो दिखता है, वह पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक बदलते हुए, चीनी नगरिकों की अपेक्षाओं को धता बताकर पुनः सत्ता पर काबिज होने के प्रयास करते-सफल होते हुए आकार लेता है। इसमें भारत को अपना पक्ष स्पष्ट और प्रबल-सबल रखना होगा। हमको अपनी रक्षात्मक नीति में आगे बढ़कर हमला नहीं करना है, लेकिन किसी भी देश-विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए तैयार रहना चीन के संदर्भ में कारगर योजना कही जा सकती है। चीन पर भरोसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

-राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र सीमा संघोष मासिक, नई दिल्ली के नवंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)

Sunday 22 August 2021

भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

 



भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

यह केवल कहने की बात नहीं है, बल्कि इसे देखा भी जा सकता है, और सुना भी...। इसीलिए बात बहुत मार्के की है। नागिन, सपेरा और बीन...इन तीनों का गठजोड़ बहुत पुराना भी है, और स्थापित भी है। इन तीनों को अन्योन्याश्रय-संबंध के साथ हिंदी के सिनेमा ने भी बढ़-चढ़कर दिखाया है। जरा याद कीजिए उन फिल्मों को; जो नागिन, सपेरा और बीन की तिकड़ी को लेकर बनी हैं, या जिनमें इन तीनों का बहुत बड़ा ‘रोल’ दिखाई देता है। ‘नागिन’ छाप फिल्मों में ‘तेरी मेहरबानियाँ’ जैसा झोल नहीं दिखता, कि पोस्टर किसकी मेहरबानियों की बात कह रहा है? पूरी फिल्म में जब कुत्ता साये की तरह साथ नजर आता है, तब कुत्ते का नाम लिखना आखिर क्यों उचित नहीं...। अपन तो सोचा करते थे, कि फिल्म को अगर ‘कुत्ते की मेहरबानियाँ’ नाम दिया होता, तो शायद फिल्म की पटकथा और फिल्म के पोस्टर के बीच तादात्म्य दिखाई दे जाता।

खैर... बात नागिन की हो रही है, तो यहाँ बेझिझक बताना होगा, कि ‘नागिन’ टाइप फिल्में अपने नाम से भटकती नहीं हैं। इसी कारण ये फिल्में अपना तीखा और तेज असर डालती हैं। एक जमाना ऐसा भी था, जब नागिन का जादू ‘आधी दुनिया’ पर सिर चढ़कर बोला करता था। मोहतरमाएँ नागिन की तरह बल खाती थीं, और सपेरे को डस ही लेंगी जैसी अदा में हर समय दिखती थीं। अनेक शायरों के लिए ‘नागिन-सी चाल’ शेर-बहर की पैदाइश के लिए मुकम्मल माहौल बनाती थी। इस सबके बीच बीन भी कम महत्त्व की नहीं होती थी। बीन की धुन के साथ नागिन और सपेरे का नाच फिल्म से निकलकर सड़क तक कब और कैसे आया, इस पर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। बात आगे बढ़ाने से पहले यह भी बताना कम रोचक नहीं लगता, कि आज भी हारमोनियम के सीखने वाले नए-नवोढ़े संगीतकारों के लिए नागिन की बीन वाली धुन बजाना खासा चैलेंज होता है, और उससे ही सीखने का क्रम आगे बढ़ता है।

नागिन वाला नाच ऐसा सदाबहार नाच है, जिसके बिना कह सकते हैं कि जयमालाएँ नहीं पड़तीं। दुनिया चाहे कितनी भी मॉडर्न क्यों न हो जाए। बारात भले ही शहर में जा रही हो, या गाँव की कच्ची और ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर...नागिन वाले नाच के बिना उसका सौंदर्य निखरता ही नहीं है। पूरे रंग में बारात चली जा रही है और दूल्हे के सगे सब अलग-अलग अदा में नाच रहे हैं। तभी बीच में से एक नागिन निकलकर जाती है, और ब्रास बैंड पार्टी के मुखिया को, यानि म्यूजिक डाइरेक्टर को हिदायत देती है- ए... नागिन.... बजाओ...। तुरंत ही कैसियो पर उंगलियाँ थिरककर ‘ऊँ..हूँ...हूँ...ऊँ.. हूँ... हूँ... हूँ...’ की धुन निकालने लगती हैं। दूसरी तरफ अलग-अलग नृत्य पद्धतियों में नाच रहे बरियाती सब चौंकन्ने हो जाते हैं। ताल बदलकर मुस्तैद हो जाते हैं और कितनी नागिनें और सपेरे एकदम प्रकट हो गए, गिनना कठिन हो जाता है। कभी-कभी नागिन एक ही होती है, और सपेरे कई। सपेरा बनना भी आसान... पतलून से रूमाल निकाला, और एक कोना मुँह में दबाकर दूसरे कोने को दोनों हाथों से पकड़ा, और बस... सपेरे की बीन भी तैयार....। नागिन को इतना कुछ नहीं करना पड़ता। वह अपनी दोनों हथेलियों को फन की तरह बनाकर सपेरों से मुकाबले के लिए उतर पड़ती है। उसके सामने चैलेंज बड़ा होता है... कई-कई सपेरों से बचने का। इसके लिए उसे बार-बार लोटना पड़ता है, उठना पड़ता है, गिरना पड़ता है। सपेरे भी उसे काबू करने के लिए कम जोर आजमाइश नहीं करते। कैसियो की धुन की तेजी के साथ नागिन और सपेरे इस कदर लहालोट होते हैं, कि अपने तन-वसन की सुध भी भूल जाते हैं। गाँवों की कच्ची सड़कों या पगडंडियों पर नागिन-सपेरा का यह मुकाबला दूर से ही आभास करा देता है, धूल के उठते गुबार के जरिये...। अब देखिये... जनवासे से बढ़िया लकालक क्रीज बने हुए कपड़े पहनकर चली नागिनें और सपेरे दुलहिन के दुआर तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे लगने लगते हैं, मानों घूर समेटकर आ रहे हों। यकीन मानिए, कि यह चमत्कार बीन की धुन में ही होता है, जो अपने कपड़ों की क्रीज को कम से कम जयमाल के फंक्शन तक न टूटने देने की बारातियों की प्रतिबद्धता को भंग करा देती है।

इतनी बड़ी अहमियत रखने वाली बीन की तौहीन तब होती है, जब वह भैंस के सामने पहुँचती है- भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय..। वैसे भैंस को लेकर और भी कई बातें हैं, जैसे- काला अक्षर भैंस बराबर और अकल बड़ी या भैंस.. आदि। भैंस के साथ इन लोक-कथनों को सुनकर अकसर यही आभास होता है, कि भैंस का पढ़ने-पढ़ाने या दिमागी कार्य-व्यवहारों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। बीन का अपना शास्त्रीय महत्त्व होता है। संगीत की पुरातन व्यवस्था में बीन नामक संगीत का उपकरण अपना स्थान रखता है। बीन का संबंध मन के आह्लाद से भी होता है, उमंग से भी होता है। इसी कारण बीन की धुन पर वह नागिन भी थिरकने लगती है, जिसके कान तक नहीं होते। सर्प प्रजाति के जीवों के कान नहीं होते। बीन की हरकतों को देखकर नागिन थिरकती है। फिर भी हम संगीत के प्रभाव को नकार नहीं सकते। हम संगीत के सुख में डूबने की स्थितियों को नकार नहीं सकते। संगीत जीवन में उमंग और उल्लास भरता है।

भैंस को संगीत से कोई मतलब नहीं होता। उसके दो कान भी होते हैं, देख भी सकती है, लेकिन न तो बीन की धुन ही उसे उद्वेलित करती है, और न ही बीन की कलात्मक थिरकन....। आँख और कान होते हुए भी उसके लिए उल्लास और उमंग कोई मायने नहीं रखते। जीवन का आह्लाद, जीवन की उमंग से वह कोसों दूर रहती है। एकदम वीतरागी होकर वह बीन के सामने खड़ी रहती है, पगुराती रहती है। संगीत उसके लिए नीरस है, उसके पास अपनी खुशी है, केवल पगुराने में...। उसके पास खुशी का कोई कारण बीन की धुन से खुश होने का नहीं है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उसके लिए काला अक्षर होता है। जिस तरह वह अपने आकार-प्रकार से अकल को ‘चैलेंज’ करती है।

भैंस के प्रति ये नकारात्मक विचार कहे जा सकते हैं। भैंस की अपनी संस्कृति, अपनी पहचान की चिंता के पीछे उसके वीतरागी हो जाने की स्थितियों को छिपाया जा सकता है। बेशक भैंस बड़ी होती है। अकल छोटी होती है, क्योंकि अकल तो दिखाई भी नहीं पड़ती। इसी अकल के भरोसे अगर भैंस के चिंतन की गंभीरता का आकलन करें, तो कह सकते हैं, कि उसे बीन के संगीत के सामने अपनी चिंतन की गंभीरता को कुरबान कर देना उचित नहीं लगता। इसी कारण वह चिंतन की अतल गहराइयों में डूबे हुए बीन की धुन को ‘इग्नोर’ करती है। ऐसा करके वह अपनी महानता की, अपनी गंभीरता की, अपने गंभीर चिंतन की लाज रखती है।

अब आप कह सकते हैं, कि फिर उसे पगुराना क्यों होता है, और वह भी खड़े रहकर? दरअसल भैंस का खड़े रहना और पगुराना, दोनों ही उसके व्यक्तित्व से जुड़े हुए पहलू हैं। खड़े रहकर वह अपनी सक्रियता का बोध कराती है। वह यह बताती है, कि उसकी सक्रियता नायाब है। अगर वह बैठ जाएगी, तो उसके साथ सबकुछ बैठ ही जाएगा। एक जागरूक और चिंतनशील ‘परसन’ के लिए खड़े रहना कई कारणों से जरूरी होता है। और पगुराना भैंस का गुणधर्म है। अपनी चिंतनशीलता और अपने विकराल भौतिक व्यक्तित्व के आवरण के पीछे उसे पगुराना होता है, हजम करना होता है, बहुत सारी योजनाओं को, व्यवस्थाओं को, लोगों के सपनों को, विचारों को, कभी-कभी जीवन को...। वह जुगाली नहीं करती, पगुराती है। पगुराना एक क्रिया है, कई पुश्तों के लिए। मौका मिलते ही जल्दी-जल्दी अपने उदर में भर लो, और फिर लंबे समय तक उसे पगुराते रहो। ‘ऊपर की कमाई’ जल्दी-जल्दी खाकर तीन पुश्तों के लिए पगुराने का इंतजाम...। भैंस इसी कारण एक अलग चरित्र गढ़ती है। वह बीन पर ध्यान नहीं देती। उसका ध्यान पगुराने पर होता है। आखिर बीन से उसे क्या हासिल होने वाला है?

राहुल मिश्र


अमृत विचार, बरेली में 13 दिसंबर, 2020 को प्रकाशित


Thursday 20 May 2021

 


अंतिम राय का सच : कहानियों से ज्यादा सच्चाई

‘अंतिम राय का सच’, अपने इस नाम से ही बरबस अपनी ओर खींच लेने वाली कहानियों की नई प्रकाशित पुस्तक त्रिलोक मेहरा की सृजनधर्मी लेखनी की उपज है। यह सन् 2019 में दिल्ली के नमन प्रकाशन केंद्र से प्रकाशित हुई है। त्रिलोक मेहरा का नाम हिमाचलप्रदेश के वरिष्ठ कथाकारों में आता है। हिमाचलप्रदेश के कांगड़ा जनपद के बीजापुर गाँव में सन् 1951 में जन्मे त्रिलोक मेहरा की पारिवारिक पृष्ठभूमि मध्यमवर्गीय रही है। स्वाभाविक रूप से उन्होंने मध्यमवर्गीय परिवारों के संघर्षों और चुनौतियों को उस समय से देखा और भोगा है, जो देश की आजादी के बाद समग्र राष्ट्रीय चरित्र बने रहे हैं। त्रिलोक मेहरा के दो अन्य कहानी-संग्रह- ‘कटे-फटे लोग’ और ‘मम्मी को छुट्टी है’ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके साथ ही उनका एक उपन्यास- ‘बिखरते इंद्रधनुष’ भी सन् 2009 में प्रकाशित हो चुका है। कथा-साहित्य के अतिरिक्त हिमाचलप्रदेश की लोकसंस्कृति, लोकजीवन और हिमाचली जन-जीवन के संघर्षों पर आधारित अनेक शोधपरक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। मेहरा जी की कई रेडियो वार्ताएँ और कहानियाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हो चुकी हैं। उनकी निरंतर सक्रियता और साहित्यिक संलग्नता को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है।

त्रिलोक मेहरा जी के साहित्यिक अवदान का परिचय यहाँ पर देना इसलिए आवश्यक लगा, क्योंकि एक रचनाकार का भोगा हुआ यथार्थ, उसका देखा हुआ यथार्थ उसकी रचनाओं की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को स्वतः सिद्ध करता है। साहित्य के साथ ही सामाजिक जीवन में निरंतर संलग्न और सक्रिय रहने के कारण मेहरा जी की यह कृति अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। इसकी बानगी हमें संग्रह के शीर्षक से ही मिल जाती है। किसी भी कृति का शीर्षक अपना पहला प्रभाव डालता है। अमूमन पुस्तक को खरीदते समय उसका शीर्षक देखकर एक छवि कृति के संबंध में, कृति में संग्रहीत सामग्री के संदर्भ में बनती है। यह पहली दृष्टि अपना विशेष महत्त्व भी रखती है, और प्रभाव भी उत्पन्न करती है। कृति के शीर्षक के आकर्षण का यह पक्ष अंतिम राय का सच में निखरकर आता है। कृति अपनी ओर आकृष्ट करती है- यह ऐसी कौन-सी अंतिम राय है, जिसका सच व्यापक समाज के साथ जुड़ता है, यह प्रश्न एकदम मन में कौंध उठता है।

कहानी-संग्रह का नाम जहाँ अपनी ओर खींचता है, वहीं दूसरी ओर संग्रह की प्रतिनिधि और शीर्षक-कहानी भी कम प्रभावी नहीं है। अंतिम राय का सच कहानी उस अंतिम राय की बात करती है, जिसके बाद सलाह-मशविरों के लिए जगह बचती नहीं है, और केवल निर्णय लेना ही शेष रह जाता है। यही निर्णय कहानी के पात्र रमेश वर्मा और उसके साथियों की गरजती बंदूकों में दिखता है। यह अंतिम राय कैसी है, उसकी बानगी तो कहानी के प्रारंभ में ही मिल जाती है- “वहाँ अपने-अपने सुझावी भाषणों की तश्तरियाँ सभी आगे सरका कर खिसक गए थे, पर काम करने के लिए कोई आगे नहीं आया था, और अगर आया था, तो वह था- रमेश वर्मा।” (पृ. 86) पहाड़ी जीवन में, जंगलों के बीच ग्रामीण इलाके के किसान दयनीय जीवन जी रहे हैं। वे सभी जीवधारियों पर आस्था रखते हैं, सभी जीवों के जीवन का सम्मान करते हैं, लेकिन स्थितियाँ ऐसी जटिल हो चुकी हैं, कि किसानों का अपना जीवन ही संकट में फँसकर रह गया है। उनके अस्तित्व पर ही संकट मँडराने लगा है। ऐसी दशा में उनके लिए सलाह कितनी कारगर है, यह देखने का प्रयास कहानी करती है। नेताओं के पास सलाह के अलावा कुछ भी नहीं है। संसद अपनी अंतिम राय देकर यह मान लेती है, कि उसकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो चुकी हैं, लेकिन इस अंतिम राय का सच किसी के हित में नजर नहीं आता है।

संग्रह की शीर्षक-कहानी हिमाचलप्रदेश के सुदूरवर्ती गाँवों की उस जटिल समस्या की ओर संकेत करती है, जिससे निबटने के लिए ग्रामीण समाज अपनी पुरातन परंपरागत जीवन-शैली के विपरीत जाने को विवश होता है। हिमाचलप्रदेश के गाँवों में बंदरों के आतंक से किसानों का जीवन दूभर हो गया है। उनके खेत, उनकी फसलें इतनी बुरी तरह से तबाह हो रहीं हैं, कि उन्हें बंदूक उठाने को विवश होना पड़ रहा है। पर्यावरणप्रेमियों से लगाकर धर्मभीरुओं तक सबकी अपनी दृष्टि है, लेकिन यह कहानी इन सबसे अलग हटकर किसानों के नजरिये से देखती है। यही इस कहानी की विशिष्टता है।

समीक्ष्य कृति में बारह कहानियाँ संकलित हैं। कृति की शीर्षक कहानी के साथ ही अन्य कहानियाँ भी अलग-अलग तरीके से जीवन को देखती हैं, मन के भावों को पकड़ती हैं। संग्रह की पहली कहानी है- घर-बेघर। यह कहानी मोह में बँधे एक ऐसे पिता की विवशताओं को व्यक्त करती है, जिसका पुत्रमोह पिता के साथ ही कई जिंदगियाँ बरबाद करता है। सुंदर, सुशील और कामकाजी जाह्नवी का विवाह मानव से हुआ है। मानव शारीरिक रूप से विकलांग है, क्योंकि उसके एक ही किडनी है। मानव के पिता इस सच्चाई को इसलिए छिपा लेते हैं, ताकि उनके बेटे का विवाह हो सके। जाह्नवी इस सच्चाई को जान जाती है, और अपने भविष्य को देखते हुए  नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। यही जिद जाह्नवी के चरित्र पर उंगली उठाने का कारण बनती है। मानव जाह्नवी का भावनात्मक भयादोहन करता है। जाह्नवी इस दबाव में नहीं आती, और अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए अपने निर्णय पर अडिग रहती है। वह मानव को अपनी किडनी नहीं देती। अंततः मानव की माँ उसे अपनी किड़नी देती है। जाह्नवी अपना फर्ज निभाते हुए ससुराल आती है, लेकिन उसके प्रति परिवार के लोगों की मानसिकता बदलती नहीं है। कहानी स्त्री-सशक्तिकरण को एकदम अलग दृष्टि से देखती है। एक ओर जाह्नवी है, और दूसरी ओर मानव की माँ है। यहाँ स्त्री ही स्त्री की विरोधी बन जाती है। जाह्नवी अपने बच्चों के लिए और अपने भविष्य के लिए सजग-सचेत रहती है। उसकी सजगता परिवार को पसंद नहीं आती, दूसरी ओर जाह्नवी अपने साथ हुए धोखे के बाद भी संबंधों को निभाने के लिए सदैव तत्पर रहती है।

समय के साथ कहानी जातिवादी बंधनों में जकड़े समाज की पड़ताल करती है, साथ ही समाज के दोहरे चरित्र को परत-दर-परत उघाड़ती है। कहानी की नायिका हरप्रीत खुले विचारों वाली युवती है। हरप्रीत के पिता भी खुले विचारों वाले हैं, लेकिन केवल अपने लिए...। अपनी बेटी के लिए वे दूसरे मानक गढ़ते हैं, निभाते हैं। हरप्रीत के साथ हरदेव के संबंध को वे पचा नहीं पाते हैं। भुजंगा सिंह ने इसी कारण अनेक वर्जनाएँ गढ़ रखी हैं। वे समाज में तिरस्कृत और अपमानित नहीं होना चाहते। उन्हें इसकी चिंता रहती है। इस कारण वे हरप्रीत पर अपनी गढ़ी हुई वर्जनाओं को लादते हैं। वे हरदेव को अपमानित करने का कोई मौका भी नहीं छोड़ते। कहानी दो पीढ़ियों के वैचारिक टकराव को इतनी सहजता और साफगोई के साथ व्यक्त करती है, कि समाज का कटु यथार्थ खुलकर सामने आ जाता है। कहानी में भुजंगा सिंह की पत्नी सुरिंदर कौर का चरित्र दो पाटों के बीच पिसता हुआ दिखता है। हरदेव के पिता जातिवादी सोच के खिलाफ खड़े दिखते हैं। भुजंगा सिंह अपनी बेटी को इतनी छूट देते हैं, कि वह किसी सरदार से प्रेम करने लगे, लेकिन हरप्रीत की जिद के आगे वे विवश हो जाते हैं। समाज में खिंची जातिवाद की विभाजक रेखाओं की गहराई को कहानी बखूबी आँकती है।

गोल्डी के लिए केवल कहानी अपनी पूर्ववर्ती कहानी से आगे की कथा कहती दिखाई पड़ती है। समाज में एक ओर जातिवाद की गहरी खाइयाँ हैं, जिन्हें पाटने का प्रयास करता युगल समय के साथ कहानी में है। दूसरी तरफ गोल्डी के लिए केवल कहानी में आधुनिकता और उच्छृंखलता का दर्शन होता है। लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी आयातित मानसिकता के कारण गोल्डी इस संसार में आता है। हरिओम और रचना के उच्छृंखल संबंध समाज में स्वीकार्य नहीं हैं, फिर भी आधुनिकता के फेर में वे उस स्थिति में पहुँच जाते हैं, जिसका सबसे पहला असर नवजात गोल्डी पर पड़ता है। इसके बाद रचना इस दंश को भोगती है। हरिओम के परिवार से उसे कोई सहारा नहीं मिलता। रचना के लिए समाज के ताने-उलाहने तो हैं ही, साथ ही गोल्डी को पालने की चुनौती भी है। यही चुनौती उसे इतना शातिर बना देती है, कि वह अपनी सीमाएँ लाँघकर ओमप्रकाश के परिवार को बरबाद करने में पीछे नहीं हटती। अपने लिए एक सहारा खोजती महिला दूसरी महिला के सहारे को किस तरह छीन लेती है, उस स्थिति को यह कहानी बड़ी शिद्दत के साथ प्रकट करती है। ओमप्रकाश को उसकी पत्नी सविता से दूर करना रचना का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। ओमप्रकाश का जीवन भी एक समय के बाद ऐसे अवसाद और दुःख से भर जाता है, जो आधुनिकता की उच्छृंखलता के दुष्परिणामों की ओर संकेत भी करता है, सावधान भी करता है। रचना अत्यंत जटिल व्यक्तित्व वाली महिला के रूप में कहानी में दिखाई देती है। विवाहेतर संबंधों की विद्रूपताएँ भी कहानी में दिखाई पड़ती हैं।

उच्छृंखल यौन-संबंधों पर केंद्रित एफ.आई.आर.कहानी की नायिका एक बालिका है। वह कम उम्र की है, और गोल्डी के लिए केवल की पात्र रचना जैसी शातिर नहीं है। इसी कारण वह भावनाओं में बह जाती है, और भानु के छलावे में फँस जाती है। उसका मन एक ओर अपने बूढ़े दादा से धोखेबाजी करते हुए भयभीत होता है, लेकिन दूसरी तरफ उस पर भानु के छलावे का फंदा इतना मजबूत होता है, कि उसके लिए निकल पाना आसान नहीं रह जाता। कहानी कमउम्र बालिका की मनःस्थिति को बखूबी व्यक्त करती है। अंत में उसके द्वारा सारी सच्चाई को ईमानदारी के साथ अपने बूढ़े दादा से बताया जाना आश्वस्त करता है, कि जीवन के संघर्षों से हार मानने के स्थान पर चुनौतियों का डटकर सामना करना अच्छा विकल्प है। जहाँ एक ओर इस कहानी में पारिवारिक संबंधों की सुदृढ़ता है, वहीं दूसरी ओर समीक्ष्य कृति की अन्य कहानी- अखाड़ा में संबंधों के बीच पसरी चालबाजियों की बिसातें हैं। कहानी स्वार्थ में पड़कर आपसी रक्त-संबंधों और पारिवारिक मर्यादाओं को नष्ट कर देने वाली मानसिकता को प्रकट करती है।

अखाड़ा में गाँव के फौजी का दामाद भी फौजी है और उसने अपनी ससुराल में सास-ससुर की जमीन में कब्जा कर रखा है। घर से बेटा और बहू बेदखल हो चुके हैं। बेटे और बहू को अपने दिवंगत पिता के लिए सहानुभूति है, किंतु बड़डेला, यानि फौजी का दामाद उन्हें दूर ही रखना चाहता है। जब वह कहता है, कि- हम लाशों से खेलते आए हैं। क्या हुआ, यह अपने घर की लाश है।तब परिवार और आपसी संबंधों की मर्यादाओं का बिखराव, उनकी टूटन पाठक के अंतस् में उतरकर जम जाती है। कथाकार ने इस स्थिति को बड़ी कुशलता के साथ कहानी में समेटा है।

समीक्ष्य कृति में नखरो नखरा करेगी कहानी एकदम अलग तरीके से समाज का चित्रण करती है। इसमें महिलाएँ हैं, जो बिशनी के नेतृत्व में संगठित हो रही हैं। उनके संगठित होने का कारण समाज में महिला सशक्तिकरण नहीं, बल्कि स्वयं को साक्षर और समर्थ बनाना है। कहानी किसी भी तरह से उस महिला-सशक्तिकरण का परचम नहीं उठाती, जिसके नाम पर बड़े-बड़े आंदोलन चलाए जाते हैं। यहाँ गाँव की महिलाएँ स्वतः प्रेरित हैं, और उन्हें केवल मार्गदर्शन मिल रहा है, वह भी अपने बीच की ही बिशनी के माध्यम से...। बिशनी के सहयोग के लिए नखरो चाची आगे आती हैं। नखरो चाची का व्यक्तित्व भी बहुत साधारण-सा है। वह बिशनी और तोमर से प्रेरित होती है, और केवल इसी कारण महिलाओं को शिक्षित करने के लिए चलाए जाने वाले अभियान से जुड़ती है, बाद में पढ़-लिख भी जाती है।

 समीक्ष्य कृति में हाय कूहल और टिटिहरियाँ एकदम अलग तासीर की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में हिमाचलप्रदेश का लोकजीवन ही नहीं झलकता, वरन् हिमाचलप्रदेश में आती बदलाव की बयार के बीच बिखरते प्रतीकों की असह्य-दुःखद पीड़ा भी झलकती है। कूहल और घराट की थमती आवाज के पीछे आधुनिक संसाधनों का पैर पसारना है। दीनानाथ कोहली, जिनका उपनाम कूहल से बना है, आज केवल यही एक पहचान शेष रह गई है, क्योंकि कूहल तो कब के शांत हो गए। घराट भी नहीं बचे। पहाड़ में गरजते बुलडोजर की आवाज लोगों के मन में संदेह पैदा करती है। जिनके घर में पीहण रखा है, वे जरा निश्चिंत दिखते हैं। जिन लोगों के पीहण नहीं पिसे हैं, वे कूहल के लिए चिंतित होते हैं। सभी को कोहली से...घराटी से आशा है, कि वह कुछ करेगा-

क्या करें अब? पीहण, पत्थर और पनिहारिये सब गूँगे, ठगे से पड़े थे। पर कब तक? वे उदास होने के लिए नहीं आए थे। उस चुप्पी को उनमें से किसी ने तोड़ा-

कोई मर गया है क्या? कुछ बोलो।

हाँ, कुछ गाओ। दूसरी आवाज थी।

क्या गाएँ? गाने सारे घराट ने चुरा लिए। अनपीसे पीहण वाला रोया।

तो चिल्लाओ।

दीनानाथ कोहली के सामने चल रहा संवाद उस अंधकारमय भविष्य का खाका खींचता है, जो सबसे ज्यादा घना-गहरा दीनानाथ के सामने है। दीनानाथ उस बड़े वर्ग का प्रतिनिधि है, जिसका जीवन गाँव के देशी-घरेलू उद्योगों के सहारे चलता है। देशी तकनीक के ऊपर चल रहा बुलडोजर गाँव की अपनी पहचान को, घराट को खा चुका है... कूहल के गाने को शांत कर चुका है। अब केवल आधुनिक होते गाँव में परंपरा के टूटने की चिल्लाहट ही शेष बची है।

टिटिहरियाँविकास की अंधी दौड़ की सच्चाई को खोलती है। बाँध का निर्माण विकास के प्रतिमान भले ही गढ़े, लेकिन इसके कारण किसानों को अपनी जमीनों से वंचित होना पड़ रहा है। वन काटे जा रहे हैं। प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहा है। मंगतराम, जगतराम और विश्नो ताई आदि ग्रामीणों ने विकास की जिस कीमत को चुकाया है, उसका पूरा आकलन यह कहानी करती है। किसानों को मुआवजे की रकम के लिए सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाना पड़ रहा है। सरकारी कर्मचारियों और ठेकेदारों का गठजोड़ किसानों के मुआवजे को भी हड़प जाना चाहता है। बच्चों को सरकारी नौकरी जैसे वायदे तो दूर की कौड़ी बन गए हैं। किसानों और बाँध बनने के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के विरोध को दबाने के लिए ठेकेदारों के गुर्गों के साथ खाकी वर्दी भी मिल गई है। पूरे परिवेश में विस्थापित जन-समुदाय की निराशा का अंधकार घना होता जा रहा है- हम दुत्कारे हुए जीव थे। आज तक रोते रहे हैं। अब यह लोहदूत हमें पाटने आ गया है। पचास साल कम नहीं होते। काम करने की पूरी जिंदगी होती है। यहाँ बसाने की कतरने अभी भी हमारे पास हैं, इस जगह सो सँवारा है, सजाया है। कहाँ जाएँ अब? यह प्रश्नचिन्ह उन तमाम विस्थापितों के जीवन के सामने लगा हुआ है, जिन्हें अनियंत्रित विकास ने अपनी जड़ों से उखाड़ दिया है। कहानी बड़ी सहजता के साथ आज के इस जटिल प्रश्न को उठाती भी है, और पाठक के मन को उद्वेलित भी करती है।

समीक्ष्य कृति में भ्यागड़ा औरकब्र से बोलूँगा, ऐसी कहानियाँ हैं, जो आतंकवाद के दो अलग-अलग चेहरों को सामने लाती हैं। भ्यागड़ा ऐसे गीत को कहते हैं, जो सुबह के समय गाया जाता है। यह शीर्षक कई अर्थों में कहानी के कथ्य को सामने लाता है। धर्मांधता की काली और अँधेरी रात के बीत जाने के बाद जो सुबह आएगी, उसे भ्यागड़ा के सुर से सजाया जाएगा। यह कहानी एक आशा का संचार करती है, जो आतंक का शमन कर सकेगी। कहानी का पात्र याकूब मागरे भले ही भटकाव में आकर आतंक के साथ हो लिया हो, लेकिन आतंक के कारण उसके जीवन पर कसता शिकंजा उसे सोचने को विवश कर देता है, और फिर वह अपने पुराने जीवन की ओर लौट चलता है। उसकी बाँसुरी फिर से भ्यागड़ा की धुन गुनगुनाने लगती है। धार्मिक कट्टरता के नाम पर गीत-संगीत, वेश-परिवेश पर लगाए जाने वाले बंधनों को, बंदिशों को याकूब नकार देता है।

कब्र से बोलूँगा का याकूब मोहम्मद भी धर्मांधता और आतंकवाद के चंगुल में फँसता है। पहाड़ों में जीवन सरल नहीं होता। वहाँ मजदूरी करने वाले लोगों पर पुलिस भी शक करती है, और छिपे हुए आतंकी भी। इन जटिल स्थितियों के बीच आतंकवाद और आतंकियों से दूर रहने के स्थान पर उनके साथ हो जाने की स्थिति को गाँववाले देखते हैं। सड़क-निर्माण में मजदूरी करने वाला याकूब मोहम्मद आतंकियों की गिरफ्त में इस तरह आता है, कि उसके सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो जाती है। रामलीला में सुग्रीव की भूमिका निभाते हुए वह सच में बालि का वध करने को उद्यत हो जाता है। कहानी आतंकवाद की उस मनःस्थिति को परखने की कोशिश करती है, जिसके कारण समाज में मिल-जुलकर रहने वाला सामान्य-सा व्यक्ति भी आतंकी बन जाता है।

समीक्ष्य कृति की अंतिम कहानी है- छोटू। यह कहानी भी कई परतों में समाज की विषमताओं को खोलती है। गाँव में रहने वाले सीधे-सादे छोटू को शहर की चकाचौंध अपनी ओर खींचती है। गाँव को छोड़कर शहर जाने वाला छोटू शहर में संपन्न और शहरी तो नहीं बन पाता, उल्टे घरेलू नौकर बनकर शाह पत्रकार के घर में सिमट जाता है। कहानी उस ज्वलंत मुद्दे को उठाती है, जिसकी चर्चा अकसर सुर्खियों में आ नहीं पाती, लेकिन समाज में ऐसी स्थितियाँ शिद्दत के साथ देखी जा सकती हैं।

संग्रह में संकलित सभी कहानियाँ एक बड़े फलक पर अलग-अलग चित्रों को समेटती हैं। हिमाचल के लोकजीवन को समेटने के साथ ही मन-मानसिकता में आते बदलावों को कहानियों में देखा जा सकता है। कहानीकार त्रिलोक जी ने हिमाचल के लोकजीवन से जुड़े अनेक शब्दों का प्रयोग करके संग्रह को विशिष्ट बनाया है। कूहट, घराट, पीहण, टल्ली, कुकड़ी, टब्बर, छकराट, खिंद और भ्यागड़ा जैसे शब्द हिमाचल की अपनी बोली-बानी के साथ पाठक को जोड़ते हैं।

सरल-सहज और प्रवाहपूर्ण भाषा के साथ ही रोचक शैली के साथ हरएक कहानी अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। भ्यागड़ाऔर कब्र से बोलूँगा कहानियाँ अपना विशिष्ट महत्त्व रखती हैं, क्योंकि ये कहानियाँ अनागत के भाव को व्यक्त करने वाली हैं। कल के सुख की कामना वह विशिष्ट भाव है, जो साहित्य को दिशा-निर्देशक बनाता है। आतंकवाद की विभीषिका के बीच जो सुखद भविष्य दिख रहा है, वह इन कहानियों में महत्त्वपूर्ण है। साहित्य की समकालीन चिंतनधाराओं, प्रवृत्तियों और विमर्शों का अत्यंत सहज रूप इन कहानियों में  दिखता है। कथ्य की विशिष्टता और सामयिक यथार्थ से निकटता समग्र कहानी-संग्रह की निजी विशेषता है। इसी कारण समीक्ष्य कृति पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है। 

समीक्ष्य कृति- अंतिम राय का सच / त्रिलोक मेहरा / नमन प्रकाशन, नई दिल्ली / प्रथम संस्करण 2019 / मूल्य 250 रुपये / पृष्ठ-134

(हिमप्रस्थ, शिमला, वर्ष- 64-65, मार्च-मई, 2021, अंक- 11/12/1, संपादक- नर्बदा कँवर)

डॉ. राहुल मिश्र