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Wednesday, 14 May 2025





बदलते नामों और छाँह की दीवार का एक गाँव


चलिए, अब दोबारा कभी मिलना होगा....।

फिर कभी ऐसा संयोग बनेगा, तो मिलेंगे...। यादें साथ रह जाती हैं।

हमारा इतना कहना हुआ, कि तुरंत ही करनल साहब ने बड़े दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया- “साहब! जिंदगी में ऐसे ही मोड़ आते हैं, लोग मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं.....। यह तो एक पड़ाव है, ठिकाना है। जिंदगी भी ऐसी ही है, साहब।”

करनल साहब की बात सुनकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। पिछले तीन दिनों में हमने करनल सिंह को इतने दार्शनिकाना अंदाज में नहीं देखा था। परिचय भी तीन दिन ही पुराना था। निःसंदेह किसी आदमी को एक बार में नहीं जाना जा सकता.... और यहाँ कुल जमा तीन दिन यानि पैंसठ-सत्तर घंटे...। लोग तो बरसों-बरस साथ रहकर भी एक-दूसरे को नहीं जान पाते हैं। खैर, करनल साहब को समझने के लिए हमें इतने लंबे समय की आवश्यकता नहीं थी। खुला हुआ और सीधा-सपाट स्वभाव करनल सिंह का था। जटिलता नहीं थी, जिस कारण बातें सरल और सहज थीं। तब आखिर यह दार्शनिकाना अंदाज कहाँ से आ गया? प्रश्न मन में उठा, उत्तर भी कौंध गया।

वस्तुतः, यह स्थान का प्रभाव बोल रहा था। करनल सिंह जम्मू-काश्मीर पुलिस के संभवतः हवलदार रैंक के कर्मी थे। किसी सरकारी काम ने हमारे साथ करनल सिंह को तैनात कर दिया था, जिस कारण करनल सिंह तीन दिनों तक हमारे साथ थे। हम जिस स्थान पर थे, वह हमारे अनुमान से अतीत के एक रोचक अध्याय से कम न था। उसी स्थान का प्रभाव करनल सिंह के सिर चढ़कर बोल रहा था, ऐसा हमको अनुभूत हुआ, उनके इस कथन को सुनकर।

क्यागर, तिगर, टाईगर, टिगर जैसे नाम...। ये अलग-अलग नाम एक ही गाँव के हैं, जहाँ हम लोग पिछले तीन दिनों से डेरा डाले हुए थे, और आज की सुबह चल पड़ने के लिए तैयार खड़े थे। गाड़ी वाला गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने गया था, क्योंकि हमें लंबा रास्ता तय करना था, और ऊपर से खरदुंग ला को भी पार करना था। खरदुंग हमारे लिए खर तुंग है, जिसकी बड़ी तीव्र चढ़ाई-उतराई है..., तुंग है। विश्व की सबसे ऊँची ‘मोटरेबल रोड’ भी यही है। गाड़ी वाले के आने तक चारों ओर एक बार फिर से नजर दौड़ाकर पूरे क्यागर गाँव की सुंदरता को, इसके आकर्षण को अपनी स्मृतियों के लिए सँजो लेना चाहते थे।

क्यागर गाँव आज भले ही बड़ा शांत और ठहरा हुआ-सा दिख रहा हो, लेकिन अतीत की कल्पनाओं में मन उतरा, तो बहुत गहरे उतरता चला गया। रेशम मार्ग से लगा हुआ क्यागर गाँव एक समय में रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था। समरकंद बुखारा से लगाकर ईरान-ईराक-अफगानिस्तान तक चला जाने वाला यह रेशम मार्ग अपने साथ न जाने कितने लोगों को जोड़ता रहा, अनुमान लगाना कठिन है। अनुमान तो इसका भी नहीं लगाया जा सकता, कि कितनी संस्कृतियाँ, कितने विचार, कितने व्यवहार और कितनी प्रजातियाँ इस रेशम मार्ग से होकर आईं-गई-फैलीं-पसरीं और विचरीं...। इन अनेक यात्राओं के साक्षी रेशम मार्ग के किनारे बसे कितने गाँव और नगर होंगे, यह भी सहज ही नहीं जाना जा सकता।

क्यागर गाँव में न जाने कितने लोग आए होंगे, ठहरे होंगे, कुछ समय के लिए डेरा डाला होगा, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़े होंगे... ठीक वैसे ही, जैसे हम चल पड़ने को तैयार खड़े थे। हर बार जब किसी बटोही ने चल पड़ने के लिए अपना सामान बाँधा होगा, अपने साथियों से भावुक होकर फिर मिलने के वायदे किए होंगे, तब हर बार किसी साथी ने करनल सिंह की तरह दार्शिकाना अंदाज में उत्तर दिया होगा।

पिछले तीन दिनों से जिस आकर्षण में क्यागर ने बाँध रखा था, वह अब तक की हमारी यात्राओं से एकदम अलग था। इसकी गहनता बहुत थी, जो हर बार उस अतीत की कल्पनाओं में उतार रही थी, जिसे आज के समय में मात्र अनुभूत किया जा सकता है। रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र रहा है। लगभग सारी दुनिया ही इस मार्ग की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ी थी। अनेक छोटे-बड़े व्यापारिक मार्ग भी इससे जुड़कर रेशम मार्ग के नाम से जाने जाते थे। यह चीन से मध्य एशिया और फिर योरोप तक जाता था। समरकंद, बुखारा से यारकंद तक जाने वाले रेशम मार्ग को भारत के साथ जोड़ने वाला उपमार्ग क्यागर से होकर जाता था। क्यागर से हुंदर, पनामिक, दिस्किद, खालसर और फिर लेह तक जाने वाला रास्ता भले ही रेशम मार्ग का संपर्क मार्ग हो, लेकिन भारत की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े होने के कारण यह मार्ग बहुत महत्त्व का था। क्यागर रेशम मार्ग के यात्रियों-व्यापारियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था, और एक प्रकार से यह रेशम मार्ग के सबसे निकट का गाँव था। स्वाभाविक ही है, कि इस अतीत को जानकर और अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाए। हमारे जैसे लोगों के लिए तो यह बहुत रोमांचकारी था। एक-एक कण हमें मानों अनेक-अनेक इतिहास की परतों को सँजोए हुए दिख रहा था। पूरे रास्ते भर यही मन में चलता रहा, कि अगर समय से पहुँच जाएँगे, तो आज से ही जिज्ञासा-शमन के प्रयास चालू कर देंगे, दो-चार लोगों से तो मिल ही लेंगे। लेकिन क्यागर तक पहुँचते-पहुँचते धुँधलका हो चुका था। लद्दाख में धुँधलका होना आधी रात हो जाने जैसा ही होता है, क्योंकि सूरज के ढलते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। हमें तो प्रायः यही लगा, कि भीषण सर्दियों की आदतें गर्मियों के मौसम में भी बनी ही रह जाती हैं।


मई-जून का महीना लद्दाख में बहुत ठंडा नहीं होता। रात सात-आठ बजे तक घर के बाहर आसानी से रहा जा सकता है, लेकिन क्यागर में  ऐसा नहीं दिखा। रास्ते में आते समय लोगों को अपनी गायें, बकरियाँ आदि घर की तरफ ले जाते देखा था। हमारे क्यागर पहुँचने तक क्या जानवर और क्या आदमी... सभी अपने दड़बों में पहुँच चुके थे। हमारे पास केवल


विश्राम करने का विकल्प शेष था। भला हो श्रीमान टाशी जी का, वे अचानक ही प्रकट हो उठे थे। उनसे कुछ जानकारी मिल सकती है, ऐसा हमें भरोसा भी हो चुका था। टाशी आंगचुक सेना से रिटायर होकर अपने गाँव में रह रहे थे। प्राथमिक परिचय के बाद उनसे यही सवाल किया, कि आप लेह में क्यों नहीं बस गए? उत्तर मिला, गाँव का प्रेम खींच लाया है। नौकरी भर तो बाहर ही रहे हैं। अब गाँव में रहना अच्छा लगता है।

तो आपको अपने गाँव का अतीत भी पता होगा, कुछ गाँव के बारे में बताइए, तो....।

टाशी जी बोले, इतिहास तो बहुत पता नहीं है, लेकिन छाँह की दीवार के बारे में अपने बड़े-बूढ़ों से सुना है। गाँव सिल्क रूट से जुड़ा था, और बहुत संपन्न था, बस इतना ही पता है। लेकिन आपको कल अपने गाँव के मुखिया और राजपरिवार से संबंध रखने वाले एक महाशय से मिलाने के लिए जरूर ले जा सकते हैं। उनसे आपको बहुत कुछ जानने को मिलेगा। परंपरागत रसोईघर भी आप देख सकेंगे।

श्रीमान टाशी का यह प्रस्ताव मनोनुकूल था। तुरंत ही हामी भर दी। साथ में करनल सिंह भी इन बातों को सुन रहे थे, लेकिन उनकी इसमें कोई रुचि नहीं थी। करनल सिंह खाने की जुगत लगा रहे थे, और फिर उनका विश्राम करने का मन हो रहा था। ऐसा वो दो बार हमें बता चुके थे। टाशी जी भी घर जाना चाह रहे थे। लिहाजा तय हुआ, कि कल सुबह टाशी जी आएँगे और उनके साथ श्रीमान सोनम टुंडुप जी से मिलने के लिए जाएँगे। भोजन के उपरांत विश्राम के क्षणों में भी विचारों का मंथन चलता रहा। रह रहकर छाँह की दीवार, पुरानी रसोई, काराकोरम की गहन कृष्णता के मध्य बिंदु-सदृश आभासित महल के ध्वंसावशेष अपने साथ विगत की यात्रा पर मानों ले जाना चाह रहे थे। रास्ते की थकान कभी इन पर भारी पड़ती, तो कभी ये थकान पर....। कुल मिलाकर रात ऐसे ही कटी और भोर के उजास ने नई ऊर्जा का संचार किया। कल-कल निनाद करती नुबरा नदी का मद्धिम स्वर नीलांबर की वीतरागी शांति को भंग करता-सा लग रहा था। दूर-दूर तक काराकोरम की शृंखलाएँ अलग-अलग रंगों में पसरी हुई-सी ऐसी लग रहीं थीं, मानों तंद्रा में हैं और सुबह के आलस से निकल नहीं पाईं हैं। इन्हीं विचारों में खोए हुए थे, कि टाशी जी ने आकर बताया, कि हमें श्रीमान टुंडुप जी से मिलने चलना है। वे कहीं जाने वाले हैं, इसलिए अभी ही जाना होगा। हम भी तुरंत तैयार होकर चल पड़े।

गाँव के भीतर की गलियाँ अपेक्षाकृत चौड़ी और साफ-सुथरी थीं। घरों को बहुत करीने से सजाया-सँवारा गया था। सोनम टुंडुप जी का घर किसी गढ़ी के जैसा था। बहुत विशाल...। एक ओर जानवरों को बाँधने के लिए क्रम से कोठरियाँ बनी हुई थीं। मुख्य द्वार पर रिग्-सुम (तीन स्तूप) बने हुए थे। उनके नीचे से निकलकर घर में प्रवेश करना था। बड़े-से दरवाजे के दोनों ओर विशालकाय भंडारगृहों में जलाऊ लकड़ी को बड़े व्यवस्थित और कलात्मक क्रम से रखा गया था। पहले माले पर जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं, जिनसे होकर हम ऊपर पहुँचे। बड़े-से विश्राम कक्ष में अनेक सजावटी वस्तुएँ, जिन्हें दुर्लभ की श्रेणी में रखा जा सकता है, सहेजी गईं थीं। टुंडुप जी ने बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया।

टाशी आंगचुक पहले ही हमारे बारे में बता चुके थे, इस कारण हमको बहुत बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी। महाशय टुंडुप जी ने बात क्यागर के बारे में बताते हुए ही प्रारंभ की-- “आज का क्यागर पहले यहाँ नहीं था। यहाँ से पहले तीन जगहों में इसकी बसावट थी। पहले लुंगदो में यह हुआ करता था। लुंगदो से फिर जङ्लम में आकर बसा और इसके बाद जिम्सखङ गोङ्मा बसा।“

टुंडुप जी के बताने पर हम उस ध्वसांवशेष की पहचान कर सके, जिसे काराकोरम की विशाल शृंखलाओं के मध्य एक सफेद बिंदु की भाँति चमकते हुए देखा था। टुंडुप जी बता रहे थे.... 2015 के पहले तक वह महल देखने में ठीक-ठाक था। पहले आसपास तमाम घर भी थे। ये बसावट महल के साथ ही थी। महल को जिम्सखङ कहते थे। यह वास्तव में वंशावली का नाम है, जिससे हमारा खानदान पहचाना जाता है। 2015 की तबाही के बाद इधर सड़क के साथ लोग बस गए।

टुंडुप जी की बातों का क्रम रेशम मार्ग की ओर चल पड़ा था। हमारे साथ बैठे आंगचुक जी भी रेशम मार्ग से जुड़ी बातों को सुनने के लिए जरा सावधान होकर बैठ गए थे। वैसे तो टुंडुप जी ने रेशम मार्ग की गतिविधियों को नहीं देखा, लेकिन उनके पास बड़े-बूढ़ों से सुनी हुई बातों के सहारे अच्छा खासा स्मृतियों का भंडार था, जिसका आस्वाद आज हमको भी मिलने वाला था।

“पहले यहाँ यारकंद से आने वाले व्यापारी ठहरा करते थे। यहाँ पर घास के बड़े मैदान होते थे, जिनमें अलफा-अलफा घास बहुत पैदा होती थी। इसे हमारी भाषा में ओल बोला जाता है। व्यापारी अपने घोड़ों, ऊँटों आदि जानवरों को चराने के लिए यहाँ रुकते थे। व्यापारी सासोमा से तकशा और पनामिक होते हुए इस तरफ को आते थे, दो-तीन दिन रुकते थे और डिगर दर्रा पार करके लेह की तरफ चल पड़ते थे। वापसी भी ऐसे ही होती थी।“ टुंडुप जी इतना बताते हुए थोड़ा रुके, और फिर बड़ी गंभीर भंगिमा में बोल पड़े.... अब तो ओल दिखती ही नहीं हैं... पहले बड़े बुजुर्ग बताते थे कि ऊपर पहाड़ों तक में ओल हुआ करती थी....। अब समय बदल गया है।

“सिल्क रोड के साथ ही अलफा-अलफा भी खतम हो गया...।“ टुंडुप जी का यह कथन बड़ी वेदना में डूबा हुआ था।

रेशम मार्ग कभी देशों की सीमाओं में नहीं बँधा। इसी कारण अनेक संस्कृतियाँ, साहित्य, विचार, चिंतन, दर्शन, विज्ञान, विचार और व्यवहार आदि न जाने कितनी विधाएँ लंबी यात्राएँ करके आती रहीं, जाती रहीं और विस्तार पाती रहीं हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही मार्ग नहीं था। बहुत कुछ इसके साथ जुड़ा है, जिसे समेकित रूप में मानव सभ्यता के विकास-विस्तार के क्रम में जोड़ा जा सकता है। केवल अलफा-अलफा घास ही नहीं, ओल ही नहीं... बहुत कुछ उजड़ा है, रेशम मार्ग के रुक जाने के बाद....। हमारी सीमाएँ बन गईं हैं....।

हमारे मन में एक ओर ये विचार चल रहे थे, और दूसरी ओर टुंडुप जी धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे।

“आप चाय लेंगे, या दूध....” इस विकल्प के साथ आई एक आवाज ने हम दोनों को ही रोक दिया था। हमारे विचारों की गति भी रुक गई और टुंडुप जी भी रुक गए। कुल मिलाकर तय हुआ, कि बढ़िया दूध एक-एक गिलास पिया जाए। गाँव में गौवंश की कोई कमी नहीं थी। शुद्ध दूध-घी-मक्खन तो वैसे भी गाँवों में ही मिल पाते हैं। खैर....। बातों का क्रम फिर आगे बढ़ा...।

अब टुंडुप जी हमें अपनी वंशावली के बारे में बता रहे थे- “हमारा घर का नाम जिम्सखङ है। यह हमारी पहचान कराता है। जिम्सखङ की शाखा ही दिस्किद, हुंदर और खलसर में है। वहाँ पर हमारे वंश का कोई नहीं बचा है। केवल क्यागर में ही है। लेह में कलोन (प्रधानमंत्री) होता है, जो राजा के नीचे होता है। इसके बाद लोनपो (क्षत्रप) होते हैं। इन्हें जिम्सखङ भी कहते हैं।“

टुंडुप जी के इतना बताने के बाद हमारे सामने स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। लेह राजवंश का शासन यहाँ तक था, बगल में स्करदो और गिलगित-बल्टिस्थान आदि थे। हुंदर, दिस्किद, खालसर और क्यागर आदि क्षत्रपों के अधीन पूरी व्यवस्था यहाँ पर चलती थी। कुछ स्थानों पर सुरक्षा चौकियाँ जैसी भी होती थीं, जहाँ से व्यापारिक गतिविधियों की निगरानी हुआ करती थी। आज वे सब नहीं हैं। लेकिन खंडहरों में दबे अतीत को आज भी अनुभूत कर सकते हैं।

रास्ते में आते समय मील के पत्थरों पर टाइगर नाम लिखा हुआ देखा था। जिज्ञासावश इस प्रश्न को टुंडुप जी के सामने रखा, कि यह कोई दूसरी जगह है, या क्यागर विकृत होकर टाइगर बन गया है.....। हमारे इस प्रश्न ने टुंडुप जी की वेदना को ही मानों उखाड़ दिया था......।

“ये ग्रीफ वाले भी ना....। जाने बिना ही किलोमीटर में लिख देते हैं। यह नाम तो गलत है, लेकिन इस नाम से भी जगह को जानते हैं।“

आखिर यह नाम कब बदल गया? मेरे इस प्रश्न पर तुरंत ही टुंडुप जी बोले... बस ऐसे ही यह गाँव बदलते नामों वाला हो गया है....। कोई टाइगर कहता है, तो कोई टिगर कहता है, तो कोई तिगर कहता है.....। किसको क्या कहें......।

तो फिर सही क्या है? हमने पूछा।

सही तो क्यागर ही है....। हमारी भाषा में सफेद को करपो बोलते हैं। वो जो जिम्सखङ महल है ना.... वो दूर से सफेद नजर आता था, इस कारण करपो से क्यागर बन गया, यानि सफेद महल....।      

क्या कोई गाव ऐसा भी होता है जो अपने नाम बदला करे और अगर ऐसे किसी गाव का पता चले जो बदलते नामों वाला गाव है, तो सुनकर आश्चर्य तो अवश्य ही होगा....। हमको भी जब यह पता चला था, तो अलग ही रोमांच हुआ था।  टुंडुप जी के कहे अनुसार समझ में आ रहा था, कि गाँव में सड़क पहुँची, तो बहुत कुछ बदल गया....। यहाँ तक कि गाँव का नाम भी....। वैसे यह विषय बहुत भावुक कर देने वाला था। समय और स्थितियाँ कैसे बदला करती हैं, आज साक्षात् देख रहे थे। एक जमाने में अपनी हनक से पूरे क्षेत्र को प्रभावित करने वाला जिम्सखङ आज ध्वंसावशेष है...। टुंडुप जी बता रहे थे, कि जिम्सखङ की वंशावली में लोनपो सोनम जोलदन को लोग आज भी याद करते हैं। उनके कामों को आज भी याद किया जाता है। मने खङ, गोनपा आदि के निर्माण के साथ ही लोगों के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया है। सोनम जोलदन के बाद सोनम तरग्यास, सोनम दोरजे, सोनम रिगजिन, रिगजिन आंगमो...। महाशय टुंडुप जी रिगजिन आंगमो के दामाद हैं।

लद्दाख में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी है। धर्मराज सेङ्गे नामग्याल की माँ ग्यल खातून, सेङ्गे नामग्याल की पत्नी कलसङ डोलमा और राजा देस्क्योङ नमग्याल की रानी ञिलस़ा वङमो सहित अनेक ऐसी महिलाओं का नाम गिनाया जा सकता है, जिन्होंने राजपरिवार की सीमा से निकलकर सीधे प्रजा से अपने को जोड़ा है। यह जानकर अच्छा लगा, कि क्यागर के लोनपो परिवार की उत्तराधिकारी रिगजिन अंगमो हुईं, और यह क्रम उनकी बेटी ने आगे बढ़ाया है।

टुंडुप जी बता रहे थे, कि एक समय में यहाँ चूना भट्टी भी हुआ करती थी, जिसमें पकी ईंटे बनाई जाती थीं। पूरे लद्दाख में कम से कम हमने तो ऐसी चूना भट्टी नहीं ही देखी थी। लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर एकदम सीमा पर ऐसी व्यवस्था का पाया जाना सिद्ध कर रहा था, कि अपने समय में यह क्षेत्र बहुत समृद्ध रहा होगा। रेशम मार्ग के व्यापार की बंदी ने, फिर प्राकृतिक आपदाओं ने, और फिर सीमांत क्षेत्र के हिस्से आई उपेक्षाओं ने क्यागर सहित अनेक गाँवों को अपने हाल पर छोड़ दिया....।

टुंडुप जी अब छाँह की दीवार के बारे में बता रहे थे- “क्या पता चूना भट्टी से पकाई गई ईंटों से छाँह की दीवार बनाई गई हो.....।“

अब वह दीवार तो नहीं दिखती, लेकिन स्मृतियाँ जीवंत हैं। दूर-दूर तक फैले मैदान में छाँह ढूँढ़ना संभव नहीं...। नुबरा घाटी तो वैसे भी बर्फ का रेगिस्तान कही जाती है। हुंदर के आसपास रेगिस्तान जैसी आकृतियाँ मिलती हैं। संभवतः किसी शासक ने नया प्रयोग किया हो, और धूप से बचने के लिए छाँह की दीवार बनवा दी हो, जिसमें यात्री और जानवर दोनों ही ठहर सकें। धर्मशालाएँ और प्याऊ जैसे धर्मार्थ कार्य तो बहुत सुने होंगे, लेकिन यह काम अनूठा लगा...। टुंडुप जी छाँह की दीवार के बारे में बहुत तो नहीं बता सके, लेकिन इतना अवश्य संकेत दिया, कि जाते समय चूना भट्टी के खंडहरों को देखते हुए जाएँ। उस जगह को संरक्षित स्मारक के रूप में रखा गया है। सरकारी बोर्ड भी लगा है।

क्यागर गाँव की परिधि में बड़ा चरागाह हुआ करता था। समरकंद, बुखारा, यारकंद, लेह आदि से आने वाले व्यापारी यहाँ के लोगों से किराए पर चरागाह लेकर अपने जानवरों को चारा खिलाते थे। एक-दो दिन इसी बहाने रुकते थे, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते थे।

महाशय टुंडुप जी से लंबी वार्ता हो चुकी थी। परंपरागत रसोई भी देखी जा चुकी थी, जिसमें कलात्मक आकृतियों वाले ताँबे और पीतल के बर्तन सहेजे हुए थे। पुराने अंदाज का चूल्हा भी था, जिसके आसपास बैठकर भोजन के आस्वाद के साथ ही बतकही का आनंद लिया जा सकता था। शीत की विकरालता के समय रसोई लद्दाख के लोगों के लिए बड़ा सहारा हुआ करती थी। क्यागर गाँव में आज भी ऐसा ही है, यह जानकर मन को बड़ी तसल्ली मिली, कि परंपराएँ अभी भी जीवंत हैं।

महाशय टुंडुप जी से विदा लेकर हम और आंगचुक जी वापस लौट रहे थे। रास्ते भर हमलोग बतियाते चले आए। हमारे लिए अनुभूत करना सहज हुआ, कि कैसे यहाँ व्यापारी रुकते रहे होंगे, किस तरह अलग-अलग संस्कृतियों का मिलन होता रहा होगा....। न जाने कितने चित्र मन में चलते चले गए...। चित्रपट की तरह...। आंगचुक जी थोड़ी देर बाद आने को कहकर चले गए।

लौटने पर देखा, तो करनल जी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। साहब.... बहुत समय लगा दिया...। भोजन का समय हो गया है....। क्या करेंगे?

करनल जी के लिए यह रुचि का विषय नहीं है, इसलिए साथ ले जाना उचित नहीं समझा था। देर तो हो ही चुकी थी, साथ ही अपने काम में भी लगना था, जिसके लिए यहाँ आए थे....। अतः करनल जी से कहा, कि भोजन कर लेते हैं।

“रसोइया नहीं आया था, वह किसी जरूरी काम से अचानक ही चला गया है। किसी दूसरे को भेजने के लिए कह रहा था, तो मैंने ही मना कर दिया....।“ करनल सिंह ने बताया।

.....आज साहब को अपने हाथ का बना चावल खिलाना है।

हमने कहा, ठीक है....।

साहब! लेकिन आपको पसंद न आया, तो क्या करेंगे?

हमने कहा, चलो देखते हैं...।

करनल जी ने गरमागरम चावल निकाले, जो केवल प्याज से छौंक कर एकदम अलग तरीके से बनाए गए थे। सुंगध बरबस खींच रही। हमने पूछा, कि यह कौन-सा व्यंजन है?

करनल साहब ने बताया.... पुलाव है....।

हमने कहा, पुलाव तो ऐसा नहीं होता...। स्वाद भी अलग-सा है।

करनल जी ने कहा, कि हो सकता है.....।

हमने कहा, तो इस पुलाव को अलग नाम दे देते हैं....।

पनीर के कई सारे व्यंजन होते हैं, जैसे पनीर पसंदा, पनीर पक्का, पनीर टिक्का आदि....। वैसे ही पुलाव के भी कई नाम हो सकते हैं....।

करनल जी इस पर कुछ नहीं बोले, और उनके मौन को सहमति मानते हुए हमने इस विशेष विधि से बनाए गए पुलाव को करनल पुलाव नाम दे दिया...।

करनल पुलाव.....। हा! हा!...... साहब आप भी बड़े मजाकिया हैं....। करनल जी बोले...।

हमने कहा, इसी बहाने आपको, इस सुस्वादु भोजन को, इस स्थान को, आज के दिन को याद रखेंगे.....।

ठीक है, साहब...। कहकर करनल सिंह ने अपनी थाली में ध्यान केंद्रित कर लिया।

हमने भी तुरंत भोजन समाप्त किया और अपने काम में लग गए।

अगला दिन व्यस्तताओं भरा रहा, लेकिन क्यागर के अतीत में जब भी उतरने का अवसर मिलता, क्षण भर का ही सही... अवसर पाते ही मन उतर पड़ता। गाँव के कई लोगों से मिलना हुआ, तरह-तरह की बातें जानने को मिलीं...। गाँव के युवा शहरों को जा चुके थे, अधेड़ और वृद्धों की संख्या ही अधिक दिखती थी। सैलानियों की गाड़ियों से चहल-पहल बनी रहती थी। फिर भी एक रिक्तता, एक अजीब-सा वीरानापन, सूनापन अनुभूत होता था। शब्दों में जिसे बाँध पाना कठिन लगता है। मेहमानों के चले जाने पर घर जिस तरह सूना हो जाता है, कुछ वैसा ही...।

अगली सुबह यहाँ से हमें भी निकलना है। यह भी तब ध्यान में आया, जब करनल सिंह ने बताया, कि अब रात भर बितानी है....।

दरअसल करनल सिंह को तीन दिन बड़ी कठिनाई के लगे थे। नगरों-महानगरों की जैसी चहल-पहल यहाँ नहीं थी। बहुत धीमे-धीमे सब चल रहा था, रात भी धीरे-धीरे बीती...सुबह भी हो गई, और करनल साहब कील-काँटा, वर्दी-बूट दुरुस्त करके सुबह से ही तैनात हो गए थे। हमको ही कुछ देर हुई थी...।

भला हो, गाड़ी वाले का, कि निकलने से पहले गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने के लिए निकल गया था, सो हमें भी कुछ समय मिल गया....। खैर.... तैयार होकर गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे और पिछले तीन दिनों का घटनाक्रम चित्रपट की भाँति चल रहा था। कब गाड़ी वाला गाड़ी लेकर आ गया और सामान रखकर चलने को तैयार हो गया, पता ही नहीं चला....।

“चलें, साहब...। गाड़ी आ गई है, सामान भी रख गया ....।“ करनल सिंह ने कहा...।

हम भी उठे, और चल पड़े...।

केवल विदा करने वाले का मन भारी नहीं होता, विदा लेने वाले का मन भी भारी हो जाता है...। रास्ते में टाशी आंगचुक मिल गए थे...। उनसे विदाई ली...। फिर मिलेंगे, यह वायदा किया। गाड़ी चल पड़ी...। तेजी के साथ क्यागर गाँव का वह धवलाभ ध्वंसावशेष पीछे छूटता जा रहा था। काराकोरम की ऊँचाइयों पर कहीं रेशम मार्ग की छाप दिखाई दे रही थी। ऐसे ही सैकड़ों वर्षों से ये डेरा-पड़ाव लगते उखड़ते रहे होंगे...। लोग मिलते बिछुड़ते रहे होंगे...। अनगिनत कहानियाँ बनती रहीं होंगी...। बदलते नाम और छाँह की दीवार के इस गाँव ने अपने साथ कितने ही किस्से सहेज रखे होंगे...। और हमने करनल सिंह के साथ करनल पुलाव को भी जोड़ लिया, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे...।

-राहुल मिश्र

(राजस्थान साहित्य अकादमी की मुखपत्रिका मधुमती, वर्ष- 65, अंक- 03, मार्च 2025 में प्रकाशित)

 

Saturday, 1 June 2024

लोक के राम, राम का लोक

 

लोक के राम, राम का लोक

राम लखन दोऊ भैया ही भैयासाधू बने चले जायँ मोरे लाल ।
चलत-चलत साधू बागन पहुँचेमालिन ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...

घड़ी एक छाया में बिलमायो साधू, गजरा गुआएँ चले जाओ मोरे लाल। राम लखन...
जब वे साधू तालन पहुँचेधोबिन ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...
चलत-चलत साधू महलन पहुँचेरानी ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...
घड़ी एक छाया में बिलमायो साधूमहलन की शोभा बढ़ाओ मोरे लाल। राम लखन...
    बुंदेलखंड की अत्यंत प्रचलित लोकधुन में गाया जाने वाला यह लोकगीत भी बहुत ही प्रचलित है। आज भी प्रायः इस लोकगीत को सुनकर भाव-विह्वल हो जाना होता है। इस लोकगीत में वन की ओर जाते रामसीता और लक्ष्मण को देखकर बुंदेलखंड के वासी अपने मनोभावों को व्यक्त करते हैं। उनके लिए राम और लक्ष्मण सीधे-सरल राजकुमार हैंजो विपत्ति की मार सह रहे हैं। उन्हें साधु वेश धरकर वन को जाना पड़ रहा है। जिन रास्तों से वे जा रहे हैंउन रास्तों पर अलग-अलग लोग उन्हें देखकर व्यथित हो रहे हैंभावुक हो रहे हैंऔर कुछ क्षण विश्राम कर लेने का अनुरोध कर रहे हैं। इसी तरह बुंदेली में एक भजन भी है-

छैंयाँ बिलमा1 लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।

लाला लखनलाल कुम्हलाने, सिय के हुइहैं पाँव पिराने,

तनक बैठ तो जाव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

खाओ अचार2, गुलेंदे, महुआ, यहै कुआँ का पानी मिठौआ ।

पानी तो पी लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

रस्ता तुम्हरी देखी नइयाँ, बीहड़ तऊ पै है बिलगैयाँ3

मृदुल संग लै लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

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1. आराम करना, 2. चिरौंजी, 3. भटकाने वाली

भजन के ये पद बुंदेलखंड अंचल की अपनी लोक-परंपरा के अभिन्न अंग हैं। अयोध्या नगरी से वन की ओर जा रहे राम, लक्ष्मण और सीता को देखकर बरबस ही मुख से निकल पड़े ये शब्द बुंदेलखंड की प्रभाती गायकी और भजन गायकी की परंपरा में कब से हैं, यह बता पाना कठिन है, किंतु गीत के इन बोलों में छिपे भाव युगों-युगों के जीवन की कथा को कह जाते हैं। बाबा तुलसी ने इसी भाव के साहित्यिक रूप का सर्जन किया है, ‘पुर तें निकसीं रघुवीर वधू, धरि धीर दये मग में डग द्वय...’ कहकर। यहाँ गाँव के सीधे-सरल लोग हैं, जो राजकुमारों के द्वारा वनवासी का वेश धारण करके वन की ओर जाते देखकर उनका सानिध्य पाना चाहते हैं। इसी कारण वे बड़ी सरलता के साथ राम से कहते हैं- थोड़ी देर आराम तो कर लो। ओ पथिक! तुम्हारे साथ चल रहे राजकुमार लक्ष्मण का चेहरा थकान के कारण कुम्हला गया है। सीता जी के पैरों में दर्द होने लगा होगा, इसलिए थोड़ी देर आराम कर लो। हमारे पास आपको खिलाने के लिए राजमहलों में बनने वाले व्यंजन तो नहीं है, मगर वन में मिलने वाले भोज्य पदार्थ आपके लिए सहर्ष प्रस्तुत हैं। चिरौंजी, गुलेंदा, महुआ आदि बुंदेलखंड अंचल में बहुत उपजता है। हम आदिवासियों के लिए यही व्यंजन हैं- महुआ मेवा, बेर कलेवा, गुलगुच बड़ी मिठाई....। अयोध्या के वनगामी राजवंशियों, आप इन्हें ग्रहण करें, और इस मीठे जल वाले कुएँ का पानी पियें। आगे का रास्ता कठिन है, इसलिए यहाँ पर थोड़ा आराम कर लेना आपके लिए उचित होगा।


यही भाव तुलसी के मानस में देखने को मिलते हैं। वहाँ कोल-किरातों को राम के आगमन की सूचना मिलती है, तो वे स्वागत के लिए पहुँच जाते हैं। मानस में तुलसी लिखते हैं-

यह सुधि कोल किरातन्ह पाई । हरषे जनु नव निधि घर आई ।।

कंद मूल फल भरि भरि दोना । चले रंक जनु लूटन सोना ।।

धन्य भूमि बन पंथ पहारा । जहँ जहँ नाथ पाउ तुम धारा ।।

धन्य बिहग मृग काननचारी । सफल जनम भए तुम्हहि निहारी ।।

जब तें आइ रहे रघुनायक । तब तें भयउ बनु मंगलदायकु ।।

फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना । मंजु बलित बर बेलि बिताना ।।

कोल किरातों के लिए राम, लक्ष्मण और सीता का चित्रकूट के वनक्षेत्र में पहुँचना, चित्रकूट के परिक्षेत्र में आना इस प्रकार है, जैसे कोई नई निधि, नई संपत्ति घर में आ गई हो। वे इस संपत्ति के आ जाने पर इतने हर्षित हैं, कि उन्हें स्वागत करने की विधि भी समझ नहीं आ रही। वे पत्तों से दोना बनाकर उनमें कंद-मूल-फल भरकर लिए जा रहे हैं। बाबा तुलसी सुंदर चित्र खींचते हैं। वनवासी जन इस तरह से उमंग में भरकर जा रहे हैं, जैसे रंक को खजाना ही मिल गया हो। उनके उल्लास का कोई ठिकाना नहीं है। जन समुदाय तो उमंग और उल्लास में भरा हुआ है ही, साथ ही चित्रकूट की पुण्यश्लोका धरा भी मुदित हो गई है। समूचा वनप्रांतर प्रसन्न हो उठा है। बाबा तुलसी कहते हैं, कि जहाँ-जहाँ श्रीराम अपने चरण रख रहे हैं, वहाँ के मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, धरती-नदी-ताल-सरिता आदि सभी स्वयं को बड़भागी मान रहे हैं। चित्रकूट के वन प्रांतर में श्रीराम को निहारकर पशु-पक्षियों के साथ ही समस्त वनवासी अपने जन्म को सार्थक मान रहे हैं, जन्म को सफल मान रहे हैं। श्रीराम ने जब से चित्रकूट में अपना निवास बनाया है, तब से वन मंगलदायक हो गया है। मनुष्य ही नहीं, वनस्पतियाँ भी उल्लास और उमंग से भर गईं हैं।

बाबा तुलसी ने श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के चित्रकूट निवास की बहुत सुंदर और रुचिकर कथा कही है। एक उत्सव का वातावरण चित्रकूट में बना हुआ प्रतीत होता है। यद्यपि चित्रकूट की महिमा और माहात्म्य श्रीराम के आगमन के पूर्व ही स्थापित था। इसी कारण प्रयाग के तट पर भरद्वाज ऋषि ने श्रीराम के द्वारा निवास हेतु उचित स्थल के संबंध में पूछे जाने पर चित्रकूट में निवास करने के लिए कहा था-

चित्रकूट गिरि करहु निवासू । तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू ।।

सैलु सुहावन कानन चारू । करि केहरि मृग बिहरि बिहारू ।।

बाबा तुलसी के मानस में लोक-परंपरा से रस-संचित अनेक प्रसंग देखने को मिलते हैं। ऐसे अनेक प्रसंगों के बीच वनवासी राम, लक्ष्मण और सीता का प्रसंग सर्वाधिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत होता है। मानस में एक अन्य प्रसंग आता है- केवट और राम के बीच संवाद का। अयोध्या के राजकुमार राम भले ही वनवासी के वेश में हों, किंतु वे अयोध्या राजपरिवार के सम्मानित सदस्य और अयोध्या के भावी राजा हैं। इसके बावजूद जब वे केवट से नाव लाने के लिए कहते हैं, तब केवट उन्हें ऐसी सादगी से उत्तर देता है, कि राजा और प्रजा के बीच का भेद दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं पड़ता है-

पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे, केवट की जाति, कछु वेद न पढ़ाइहौं ।।

परिवारे मेरो याहि लागि  राजा जू, हौं  दीन वित्तविहीन, कैसे दूसरी गढ़ाइहौं ।।

गौतम की धरनी ज्यों तरनि तरेंगी मेरी, प्रभु से विवादु ह्वै के वाद ना बढ़ाइहौं ।।

तुलसी के ईस राम रावरे से साँची कहौं, बिना पग धोए नाथ नाव न चढ़ाइहौं।।

यहाँ केवट के कहने का अभिप्राय यह भी है, कि आप भले ही अयोध्या के होने वाले राजा हों, किंतु इस समय आप वनवासी हैं, और मेरी एकमात्र नाव के पत्थर बन जाने पर आपसे भी कोई मदद मुझे नहीं मिल सकेगी। इस कारण मैं आपके चरण धोने के बाद ही आपको नाव में चढ़ने दूँगा। जब कभी राजशाही और मध्ययुगीन बर्बरता की बात आती है, तब राम और केवट संवाद अत्यंत प्रासंगिक हो उठता है। निश्चित रूप से राम और केवट का संवाद भी लोक-परंपरा से शिष्ट साहित्य में, तुलसी के मानस में पहुँचा होगा, क्योंकि लोक-परंपरा में विकसित प्रकीर्ण साहित्य की यह बड़ी विशेषता होती है, कि वहाँ ऊँच-नीच का, राजा-रंक का भेद नहीं होता है। वहाँ समानता-समरसता के दर्शन होते हैं।

केवट और राम के बीच संवाद का लोक-पक्ष अत्यंत रुचिकर है। एक ओर केवट को अपनी नाव की चिंता होती है; वह राम के पाँव पखारकर ही उन्हें नाव में चढ़ाने की बात कहता है, निवेदन करता है। दूसरी ओर नाव में श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के विराजमान हो जाने के बाद जब नाव चलती है, तो बिना किसी बाधा के उन्हें पार उतारने के लिए केवट चिंतित होता है। लोक की दृष्टि इस ओर जाती है।

लोकगीत गाया जाता है-

मोरी नइया में लक्षिमन राम, ओ गंगा मइया धीरे बहो...।

केवट की नैया, भागीरथ की गंगा......, राजा दशरथ के लक्षिमन राम...

गंगा मइया धीरे बहो..., मोरी नइया में लक्षिमन राम..।

रामकथा में दो प्रसंग और आते हैं। पहला अहल्या के उद्धार का है, और दूसरा शबरी की प्रतीक्षा का है। अहल्या का प्रसंग राम वनगमन के पूर्व आता है, जब राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सिद्धाश्रम में जाते हैं। मार्ग में गुरु विश्वामित्र अहल्या से परिचय कराते हैं। पद्मश्री नरेंद्र कोहली द्वारा अपनी गद्यात्मक रामकथा- ‘अभ्युदय’ में अहल्या उद्धार का तर्कपूर्ण और अत्यंत व्यावहारिक वर्णन किया गया है। गौतम ऋषि के सूने पड़े आश्रम में अहल्या श्रापित जीवन बिता रही है। उसका जीवन प्रायः प्रस्तर-सदृश हो गया है। उसको समाज से बहिष्कृत कर दिया गया है। इंद्र के अपराध का दंड अहल्या को भोगना पड़ रहा है। गौतम ऋषि भी उस दंड को भोग रहे हैं, उनके पुत्र शतानंद भी इस दंड को भोग रहे हैं। गुरु विश्वामित्र अहल्या के साथ हुए अन्याय को जानते थे, और यह भी उन्हें ज्ञात था, कि अयोध्या के राजकुमार और मिथिला के होने वाले जमाई के माध्यम से यदि अहल्या को समाज में पुनः प्रतिष्ठा दिलाई जाएगी, तो सभी को स्वीकार्य होगी। बाद में श्रीराम और लक्ष्मण ने सिद्धाश्रम में राक्षसों का वध करके अपने शौर्य का परिचय दिया था, समाज में आदरपूर्ण स्थान प्राप्त किया था। केवट प्रसंग प्रकारांतर से राम के शौर्यभाव और वीरतापूर्ण कार्य का स्मरण ही था।

इसी प्रकार शबरी के जूठे बेर खाने का प्रसंग भी आता है। शबरी के पास तक राम की ख्याति पहुँची थी। लोकरक्षक, जन-जन के प्रिय श्रीराम उस वृद्धा शबरी की कुटिया में अवश्य पधारेंगे, यह भरोसा लिए शबरी अपना जीवन बिता रही थी। कहीं अपने आराध्य राम को वह खट्टे बेर न खिला दे, इस भाव से वह चखकर उन बेरों को ही राम को दे रही है, जो मीठे हैं, सुस्वादु हैं। यह आत्मीयता, यह लगाव सहज नहीं है, वरन् अनेक अर्थों को स्वयं में समाहित किए हुए है। एक और श्रीराम का शौर्यभाव है, उनका लोकरक्षक स्वरूप है, तो दूसरी ओर श्रीराम के व्यक्तित्व की सहजता है, सरलता है। इसी कारण शबरी के जूठे बेर उन्हें स्वीकार्य होते हैं। इसी कारण केवट की व्यंग्यपूर्ण बातें उन्हें चुभती नहीं हैं। यही कारण है, कि चित्रकूट के वनवासी बेर, गुलेंदा, कचरियाँ, महुआ, कंद, मूल, फल आदि दोनों में भर-भरकर लाते हैं, और राम का स्वागत करते हैं।

तुलसी के मानस में वनवासी राम का सौंदर्य, विशेषकर समरसता-सौहार्द-समन्वय में घुल-मिलकर विकसित हुआ कर्म का सौंदर्य अपने आकर्षण में बरबस ही बाँध लेता है। वनवासी राम की सफलता का श्रेय भी इसी वैशिष्ट्य को जाता है। तुलसी के मानस सहित अन्य रामकथाओं में वनगमन प्रसंग इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखता है। श्रीराम के प्रति लोक का अनुराग, लोक का आत्मीय भाव किसी एक कालखंड या किसी एक युग में सिमटा हुआ नहीं है। इसका विस्तार काल और भूगोल की परिधि से बाहर है, व्यापक है। राम और कृष्ण के प्रति लोक की आस्था तब प्रबल होती है, जब वे लोक से जुड़ते हैं। वनवासी राम के साथ चित्रकूट के वन प्रांतर से लगाकर दंडक वन तक, किष्किंधा तक अपार जनसमुदाय जुड़ता है। राम के पास सेना की ताकत नहीं थी। राम लोक की शक्ति से समृद्ध हुए और रावण जैसे क्रूर, आततायी शासक को परास्त किया। विभिन्न वन्य जातियाँ, वनवासी समूह राम के साथ इस तरह से जुड़े, कि लंका विजय के उपरांत सभी अयोध्या तक पहुँचे और राम के साथ ही जीवन-पर्यंत रहने की कामना करने लगे। राम ने ही उन्हें अपने-अपने घर जाकर कर्म में संलग्न होने के लिए कहा। राम के राज्यभिषेक के बाद सभी बहुत भारी मन से विदा हुए। यह आत्मीय लगाव राम के लोक को गढ़ता है, और लोक के राम इसी आत्मीय भाव से बनते हैं। लोकरक्षक, मर्यादापुरुषोत्तम राम इसी कारण लोक के हैं, लोकजीवन में वे अपनी उपस्थिति से, अपने नाम से श्रेष्ठतम मानवीय आदर्शों और संस्कारों को स्थापित करते हैं। ‘राम-राम’ और ‘जय रामजी की’ जैसे अभिवादन परस्पर संबंधों में शुचिता और मर्यादा की कामना लिए होते हैं। लोकगीतों में, लोककथाओं में, और साथ ही लोकजीवन में राम की उपस्थिति लोक को जीवनीय शक्ति देती है, जीवन का पथ प्रदर्शित करती है। अवधी के आल्हा में पंक्तियाँ आती हैं-

राम का नाम बड़ो जग में, सोई राम के नाम रटै नर नारी ।।

राम के नाम तरी सबरी, बहु तार्यो अजामिल के खल भारी ।।

राम का नाम लियो हनुमान ने, सोने के लंका राख कै डारी ।।

     औ टेम व नेम से नाम जपौ, राम का नाम बड़ा हितकारी ।।

-डॉ. राहुल मिश्र

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ, मासिक पत्रिका के पौष, वि.सं. 2080 तदनुसार जनवरी, 2024 अंक में प्रकाशित)

Thursday, 2 May 2024

हिमगिरि में गुरु रिनपोछे की तंत्र-साधनाएँ और चमत्कार




 

हिमगिरि में गुरु रिनपोछे की तंत्र-साधनाएँ और चमत्कार

‘शिङ्तोग फतिङ्-कुशु, लोपोन पद्मे जिनलब...…’ (खूबानी और सेब गुरु पद्मसंभव के प्रसाद हैं।)

गिलगित बाल्टिस्थान में प्रवाहमान शिगर नदी के तटवर्ती क्षेत्र में पैदा होने वाले सेब और खूबानियाँ बहुत अच्छी प्रजाति की होती हैं। इनका स्वाद बहुत अच्छा होता है। शिगर घाटी गिलगित-बल्टिस्थान में स्थित ऐसी महत्त्वपूर्ण नदी घाटी है, जो काराकोरम पर्वतीय शृंखला के मुख्यद्वार के साथ ही सिंधु की सहायक नदी शिगर द्वारा द्वारा सिंचित है। शिगर घाटी अपनी ऐतिहासिकता के साथ ही मध्य एशिया के विभिन्न स्थानों को जोड़ने वाले एक प्रमुख स्थान के रूप में अपना महत्त्व रखती थी। अविभाजित भारत में यह स्करदो संभाग के अंतर्गत आती थी। स्करदो लद्दाख की शीतकालीन राजधानी हुआ करती थी। शिगर घाटी तिब्बती मूल के बल्टी निवासियों का प्रमुख स्थान थी। इन कारणों से गुरु पद्मसंभव का वहाँ पर जाना और एक प्रकार से धार्मिक क्रांति के रूप में वहाँ के लोगों को अपनी साधना और अपने चमत्कार के माध्यम से प्रभावित करना स्पष्ट होता है। लोकगीतों में आने वाले प्रसंग इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। गुरु पद्मसंभव की साधना-पद्धति पर आस्थावान जनसमूह ने उनको अपने लोकगीतों में बड़ी श्रद्धा के साथ गाया है।

समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में; हिमाचल प्रदेश, लाहुल-स्पीति, तिब्बत, लद्दाख और गिलगित बल्टिस्थान से लगाकर जांस्कर घाटी तक का संपूर्ण पश्चिमोत्तर हिमालयी भूक्षेत्र गुरु पद्मसंभव की साधना का यशः-गान गाता है। उन्हें गुरु पद्मसंभव, आचार्य पद्मसंभव और गुरु रिनपोछे के साथ ही द्वितीय बुद्ध के रूप में पूजा जाता है। उनके व्यक्तित्व की विराटता और महायान परंपरा के विस्तार हेतु तंत्र-साधना के साथ ही वज्रयान के प्रचार-प्रसार हेतु किए गए कार्यों के कारण उनके प्रति आस्थावान लोगों की कमी नहीं है। आचार्य पद्मसंभव ने अपनी तिब्बत की यात्रा के समय वहाँ पर वज्रयान परंपरा की न केवल स्थापना की, वरन् अनेक लोगों को दीक्षित करके धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी दी।

गुरु पद्मसंभव का अवतरण और उनका जीवन अनेक रहस्यों और चमत्कारों से भरा हुआ है। कहा जाता है, कि उनका जन्म उपपादुक योनि (स्वयंभू, दैवयोनि) में हुआ था। उनके जन्म की बहुत रोचक कथा है। उड्डियान के राजा इंद्रभूति निःसंतान थे, और अपनी निःसंतानता दूर करने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया। इसके बाद वे चिंतामणि प्राप्त करने हेतु समुद्री यात्रा पर निकल पड़े। चिंतामणि लेकर लौटते समय उड्डियान के निकट एक द्वीप पर विश्राम कर रहे थे, तभी उनके सेवक ने आकर बताया, कि समीप के एक सरोवर के बीच में खिले एक पद्मपुष्प के ऊपर एक आठ वर्षीय बालक विराजमान है। राजा इंद्रभूति ने उस बालक को स्वयं जाकर देखा और बालक से उसके माता-पिता आदि के बारे में पूछा। बालक ने बताया, कि उसके पिता विद्याज्ञान और माता सुखशून्य समंतभद्रा हैं। उसका देश अनुत्पन्न धर्मधातु है और गोत्र विद्याधातु है। बालक ने बताया, कि वह यहाँ पर क्लेशों के विनाश करने की चर्या का अभ्यास कर रहा है। राजा के मन में उस बालक के प्रति असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई और भावुक होकर उनकी आँखों से आँसू बह निकले। पहले राजा इंद्रबोधि की दाहिनी आँख की ज्योति नहीं थी, लेकिन इस अवस्था में उनके नेत्रों से बहते आँसुओं के फलस्वरूप उनकी नेत्र-ज्योति लौट आई। इस चमत्कार को जानकर राजा इंद्रबोधि समस्त मंत्रीगणों और प्रजाजनों के साथ श्रद्धावनत हो गए। निःसंतान राजा इंद्रबोधि ने उसी समय घोषणा की, कि वे बालक को अपने पुत्र के रूप में अपनाएँगे। बालक को राजमहल लाकर सुंदर वस्त्र पहनाए गए। पद्मपुष्प में विराजमान होने के कारण बालक को पद्मसंभव नाम दिया गया।

आस्थावान राजा इंद्रबोधि ने पद्मसंभव को राजसिंहासन पर बैठाया। उनके राजसिंहासन पर बैठते ही उड्डियान राज्य का अकाल जाता रहा, राज्य धन-धान्य से संपन्न होने लगा। राज्य के कुछ प्रभावशाली मंत्रियों को पद्मसंभव का राजकुमार के रूप में रहना खटकने लगा। वे पद्मसंभव को राज्य से निष्कासित कराने के बहाने खोजने लगे। कुछ ऐसा दुर्योग हुआ, कि पद्मसंभव के त्रिशूल से एक मंत्री के पुत्र की मृत्यु हो गई। इस घटना को माध्यम बनाकर राजा के ऊपर ऐसा दबाव बनाया गया, कि उन्हें पद्मसंभव को देश निकाला देना पड़ा। गुरु पद्मसंभव ने भारत के विभिन्न प्रमुख स्थानों में जाकर तंत्रसाधना का अभ्यास किया। इसके बाद वे उस सरोवर में भी साधनारत रहे, जहाँ उन्होंने अवतार लिया था। उनकी गहन साधना से प्रसन्न होकर वज्रवाराही ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया, और उन्हें अनेक तांत्रिक शक्तियों-सिद्धियों से संपन्न किया। उनकी गहन साधना और फिर तांत्रिक शक्तियों से संपन्न होने पर हिमालयी परिक्षेत्र में ही नहीं, वरन् संपूर्ण आर्यावर्त में उनकी ख्याति महायान और वज्रयान के पारंगत विद्वान एवं महान साधक के रूप में हुई। कहा जाता है, कि उन्होंने बोधगया और फिर मलय पर्वत के सिद्धक्षेत्रों में पहुँचकर योगतंत्र और महामुद्रा आदि की शिक्षा ली।

गुरु पद्मसंभव से पहले तिब्बत में आचार्य शांतिरक्षित पहुँचे थे। उनके द्वारा महायान साधना-पद्धति में लोगों को दीक्षित किए जाने के कार्य किए गए, लेकिन वहाँ अनेक बाधक शक्तियाँ भी थीं, जिनको धर्म से जोड़ने के लिए रौद्र और चमत्कारिक प्रभाव दिखाना आवश्यक था। गुरु पद्मसंभव का तिब्बत पहुँचना इस संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। ऐसा कहा जाता है, कि यदि गुरु पद्मसंभव तिब्बत नहीं पहुँचते, तो वहाँ सद्धर्म का विकास नहीं हो पाता। आचार्य शांतिरक्षित के द्वारा बताए जाने पर तिब्बत के राजा और मंत्रियों ने गुरु पद्मसंभव से तिब्बत चलकर विधर्मी शक्तियों को पराजित करने और धर्म का शासन स्थापित करने हेतु निवेदन किया। राजा ठ्रिसोङ देचेन के निवेदन पर गुरु पद्मसंभव ने तिब्बत में धर्मशासन स्थापित किया और अपनी तंत्र-सिद्धि के माध्यम से विधर्मी शक्तियों को पराजित किया।

तिब्बत के अतिरिक्त गुरु पद्मसंभव ने उड्डियान, धनकोष, रुक्म, अपर-चामरद्वीप आदि देशों में भी धर्म का शासन स्थापित किया, और इन देशों की जनता को विधर्मी शक्तियों से मुक्त कराया। तिब्बत के अतिरिक्त अन्य देशों में गुरु पद्मसंभव के चमत्कारों और उनके सिद्धि-बल द्वारा किए गए कार्यों के लिखित या लोक-प्रचलित साक्ष्य नहीं मिलते हैं। तिब्बत में गुरु पद्मसंभव के ऋद्धि-सिद्धि बल के प्रति आस्थावान लोगों की कमी नहीं है। गुरु पद्मसंभव के आठ रूप या उनके व्यक्तित्व के आठ अंग प्रायः माने जाते हैं। इनमें से गुरु दोर्जे डोलोद (वज्रक्रोध) के रूप में वे तिब्बत में प्रतिष्ठित हुए। अन्य सात रूपों में धनकोष सरोवर में अवतार लेने वाले, तिब्बत में अंधविश्वासों को दूर करने वाले, आनंद से प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले, उड्डियान में राजा इंद्रबोधि के आमंत्रण पर राजशासन चलाने वाले, अबौद्धों द्वारा ईर्ष्यावश विष दिए जाने पर उसे अमृत करके पी जाने वाले और महायोग तंत्र की साधना करके योग मंडलीय देवताओं का साक्षात् दर्शन करने वाले हैं। ये सभी विग्रह और रूप भारतदेश के विभिन्न स्थानों में स्थापित रहे, जो संप्रति हिमालयी परिक्षेत्र में ही प्राप्त हैं, और पूजे जाते हैं।

गुरु पद्मसंभव के साथ जहोर राज्य की कथा भी जुड़ी हुई है। ऐसा कहा जाता है, कि जहोर राज्य में राजा अर्षधर के शासनकाल में गुरु पद्मसंभव का जाना हुआ। राजा अर्षधर की पुत्री मंदारवा (मंधर्वा गंधर्वपुष्पा) अपनी सोलह वर्ष की श्रीआयु में समस्त साधना-चिन्हों, एवं लक्षणों से युक्त थी। गुरु पद्मसंभव ने राजकुमारी मंदारवा को अपनी आध्यात्मिक साधना एवं तंत्र सिद्धि के लिए मुद्रा (स्त्री-शक्ति) के रूप में सहचारिणी बनाया। वे दोनों पोतलक पर्वत में स्थित एक दिव्य गुफा में अमिताभ की उपासना के लिए गए। वहाँ हठयोग की साधना करते हुए उन्हें अमिताभ के दर्शन मिले। अमिताभ ने स्वयं उनके सिर पर अमृत कलश रखकर उनको वज्रशक्ति से संपन्न किया। अमिताभ ने गुरु पद्मसंभव को हेवज्र और उनकी शक्ति मंदारवा को वज्रवाराही के रूप में अधिष्ठित किया। इस प्रकार तंत्र-साधन में निष्णात् गुरु पद्मसंभव वज्रगुरु के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए।

महायान परंपरा में चार संप्रदाय हैं- निङ्मा, साक्य, कार्ग्युद और गेलुग। इसमें निङ्मा संप्रदाय को सबसे पुराना माना जाता है। निङ्मा संप्रदाय में गुरु पद्मसंभव को विशेष स्थान प्राप्त है। निङ्मा संप्रदाय के मठों में गुरु पद्मसंभव की मूर्ति रौद्र रूप में प्रतिष्ठित होती है। इस संप्रदाय के दीक्षित भक्तजनों के द्वारा गुरु पद्मसंभव को गुरु रिनपोछे का नाम दिया गया है। गुरु रिनपोछे के रूप में आचार्य पद्मसंभव की प्रतिष्ठा लद्दाख में भी है।

गुरु पद्मसंभव तिब्बत से लद्दाख आए, और गिलगित-बल्टिस्थान तक अपने धर्मप्रचार को बढ़ाया। ऐसा कहा जाता है, कि लेह के निमो गाँव के निकट एक ऊँची पहाड़ी पर एक राक्षसी रहती थी, जिसने गुरु पद्मसंभव का पीछा कर लिया। गुरु पद्मसंभव एक चट्टान के पीछे छिप गए। जब वह राक्षसी आगे निकल गई, तो गुरु पद्मसंभव ने उसे पकड़ लिया और समीप की एक पहाड़ी पर उसे हमेशा रहने के लिए कहा। कहा जाता है, कि रात के समय आज भी वहाँ से रोने की आवाजें आती हैं। जिस चट्टान के पीछे गुरु पद्मसंभव छिपे थे, उस चट्टान पर गुरु पद्मसंभव की छाप अंकित हो गई। इस पवित्र चट्टान की पूजा बड़े विधान के साथ की जाती रही है। वर्तमान में यह गुरुद्वारा पत्थर साहिब के रूप में जानी जाती है। यह लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर लेह से लगभग 40 किमी दूर स्थित है। ऐसा माना जाता है, कि यही घटना गुरु नानक के साथ हुई थी, जब वे अपनी एक यात्रा में आए हुए थे। गुरु नानक से जुड़ा गुरुद्वारा दातून साहिब लेह के मुख्य बाजार में स्थित है।

गुरुद्वारा पत्थर साहिब को निङ्मा संप्रदाय के आस्थावान जनों के साथ ही सिख धर्मानुयायी भी पूजते हैं। इस कारण इस गुरुद्वारा के साथ गुरु पद्मसंभव को लामा गुरु नाम मिला है। इन्हें नानक लामा भी कहा जाता है। यह पवित्र स्थल गुरु नानक और गुरु पद्मसंभव के साथ जुड़ा होने के कारण अद्भुत और अनूठा है। गुरु नानक भी अपनी उदासियों के माध्यम से देश-दुनिया के विभिन्न स्थानों की यात्रा करते हुए लोगों को सीख देते रहे, धर्म में प्रवृत्त करते रहे। इसी प्रकार गुरु पद्मसंभव ने भी अनेक स्थानों की यात्राएँ करके धर्मशासन स्थापित किया। आस्थावान लोगों के लिए इसी कारण दोनों गुरुओं के प्रति भक्ति का भाव देखा जा सकता है। एक अन्य रुचिकर प्रसंग यहाँ जोड़ देना समीचीन होगा, कि यह परंपरा लद्दाख से नीचे उतरकर अमृतसर में भी दिखाई दिया करती थी। नानक लामा या लामा गुरु के प्रति आस्थावान भक्तजन अपनी तीर्थयात्राओं में गुरुद्वारा श्री स्वर्ण मंदिर को भी जोड़कर रखते थे, और बड़ी आस्था के साथ स्वर्ण मंदिर के सरोवर में स्नान किया करते थे।

गुरु पद्मसंभव द्वारा जांस्कर घाटी में स्थित कनिका स्तूप के निकट सानी नामक महाश्मशान में अपना चमत्कार दिखाया गया था। इस स्थान पर उन्होंने जटिल तंत्र-साधना की थी। ऐसा माना जाता है, कि गुरु पद्मसंभव ने अपनी आठ लीलाओं में से एक- गुरु नीमा ओदसेर को सानी में दिखाया था। भोटी भाषा में नीमा सूर्य को कहा जाता है, और ओदसेर प्रकाश को कहा जाता है। इस प्रकार उनकी यह लीला सूर्य का प्रकाश बिखेरने के संदर्भ के साथ देखी जा सकती है। अधर्म के अंधकार का शमन करके निज धर्म का प्रकाश उनके द्वारा किया गया। सम्राट कनिष्क के द्वारा स्थापित स्तूप, जिसे कनिका स्तूप के रूप में जाना जाता है, यह सिद्ध करता है, कि इस क्षेत्र में सम्राट कनिष्क का शासन था। इसके निकट सानी नामक महाश्मशान में गुरु पद्मसंभव ने साधना करके दैत्यों, दानवों का दमन किया और डाकिनियों को धर्मोपदेश दिया। इसके बाद ही उनका गुह्य नाम खसपा लोदन पड़ा। यहाँ पर गुरु पद्मसंभव के पदचिन्ह अंकित हैं। उन्होंने दुष्ट आत्माओं का शमन करके धर्म के प्रकाश का विस्तार करने हेतु चारों दिशाओं में अपने चरण बढ़ाए, फलस्वरूप उनके पदचिन्ह चारों दिशाओं में अंकित हैं।

समग्रतः, लद्दाख अंचल के साथ ही लगभग पूरे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरु पद्मसंभव के विभिन्न चमत्कारों, साधनाओं, सिद्धियों और धर्म स्थापनाओं के चिन्ह मिलते हैं। विभिन्न धर्मगुरुओं, यथा- आचार्य शांतिरक्षित, आचार्य दिग्नाग, आचार्य दीपांकर श्रीज्ञान अतिशा, आचार्य वसुबंधु आदि विभिन्न महायान परंपरा के आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों के माध्यम से जहाँ एक ओर हिमालयी परिक्षेत्र में महायान बौद्ध परंपरा का विकास हुआ, वहीं दूसरी ओर गुरु पद्मसंभव की योग-साधनाएँ, तांत्रिक-क्रियाएँ, वज्रयानी अनुष्ठान और चमत्कारिक क्रियाएँ बहुत प्रभावी होकर महायान परंपरा का विकास करती हैं। गुरु पद्मसंभव का विराट व्यक्तित्व अलग-अलग रूपों में परिलक्षित होता है। गुरु पद्मसंभव इसी कारण द्वितीय बुद्ध के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।  सामान्य जनों के लिए, आस्थावान धर्मभीरुओं के लिए वे शांत रूप में प्रतिष्ठित हैं, तो अन्य के लिए उनका रौद्र रूप विधिवत् वज्र और त्रिशूल धारण किए हुए प्रतिष्ठित होता है। हिमालयी परिक्षेत्र में गुरु रिनपोछे के सिद्ध मंत्र की गूँज आज भी गुंजायमान होती है।

-राहुल मिश्र


(त्रिकुटा संकल्प, जम्मू के श्रावण, 2080, अगस्त-2023 के अंक में प्रकाशित)