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Thursday, 2 May 2024

हिमगिरि में गुरु रिनपोछे की तंत्र-साधनाएँ और चमत्कार




 

हिमगिरि में गुरु रिनपोछे की तंत्र-साधनाएँ और चमत्कार

‘शिङ्तोग फतिङ्-कुशु, लोपोन पद्मे जिनलब...…’ (खूबानी और सेब गुरु पद्मसंभव के प्रसाद हैं।)

गिलगित बाल्टिस्थान में प्रवाहमान शिगर नदी के तटवर्ती क्षेत्र में पैदा होने वाले सेब और खूबानियाँ बहुत अच्छी प्रजाति की होती हैं। इनका स्वाद बहुत अच्छा होता है। शिगर घाटी गिलगित-बल्टिस्थान में स्थित ऐसी महत्त्वपूर्ण नदी घाटी है, जो काराकोरम पर्वतीय शृंखला के मुख्यद्वार के साथ ही सिंधु की सहायक नदी शिगर द्वारा द्वारा सिंचित है। शिगर घाटी अपनी ऐतिहासिकता के साथ ही मध्य एशिया के विभिन्न स्थानों को जोड़ने वाले एक प्रमुख स्थान के रूप में अपना महत्त्व रखती थी। अविभाजित भारत में यह स्करदो संभाग के अंतर्गत आती थी। स्करदो लद्दाख की शीतकालीन राजधानी हुआ करती थी। शिगर घाटी तिब्बती मूल के बल्टी निवासियों का प्रमुख स्थान थी। इन कारणों से गुरु पद्मसंभव का वहाँ पर जाना और एक प्रकार से धार्मिक क्रांति के रूप में वहाँ के लोगों को अपनी साधना और अपने चमत्कार के माध्यम से प्रभावित करना स्पष्ट होता है। लोकगीतों में आने वाले प्रसंग इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। गुरु पद्मसंभव की साधना-पद्धति पर आस्थावान जनसमूह ने उनको अपने लोकगीतों में बड़ी श्रद्धा के साथ गाया है।

समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में; हिमाचल प्रदेश, लाहुल-स्पीति, तिब्बत, लद्दाख और गिलगित बल्टिस्थान से लगाकर जांस्कर घाटी तक का संपूर्ण पश्चिमोत्तर हिमालयी भूक्षेत्र गुरु पद्मसंभव की साधना का यशः-गान गाता है। उन्हें गुरु पद्मसंभव, आचार्य पद्मसंभव और गुरु रिनपोछे के साथ ही द्वितीय बुद्ध के रूप में पूजा जाता है। उनके व्यक्तित्व की विराटता और महायान परंपरा के विस्तार हेतु तंत्र-साधना के साथ ही वज्रयान के प्रचार-प्रसार हेतु किए गए कार्यों के कारण उनके प्रति आस्थावान लोगों की कमी नहीं है। आचार्य पद्मसंभव ने अपनी तिब्बत की यात्रा के समय वहाँ पर वज्रयान परंपरा की न केवल स्थापना की, वरन् अनेक लोगों को दीक्षित करके धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी दी।

गुरु पद्मसंभव का अवतरण और उनका जीवन अनेक रहस्यों और चमत्कारों से भरा हुआ है। कहा जाता है, कि उनका जन्म उपपादुक योनि (स्वयंभू, दैवयोनि) में हुआ था। उनके जन्म की बहुत रोचक कथा है। उड्डियान के राजा इंद्रभूति निःसंतान थे, और अपनी निःसंतानता दूर करने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया। इसके बाद वे चिंतामणि प्राप्त करने हेतु समुद्री यात्रा पर निकल पड़े। चिंतामणि लेकर लौटते समय उड्डियान के निकट एक द्वीप पर विश्राम कर रहे थे, तभी उनके सेवक ने आकर बताया, कि समीप के एक सरोवर के बीच में खिले एक पद्मपुष्प के ऊपर एक आठ वर्षीय बालक विराजमान है। राजा इंद्रभूति ने उस बालक को स्वयं जाकर देखा और बालक से उसके माता-पिता आदि के बारे में पूछा। बालक ने बताया, कि उसके पिता विद्याज्ञान और माता सुखशून्य समंतभद्रा हैं। उसका देश अनुत्पन्न धर्मधातु है और गोत्र विद्याधातु है। बालक ने बताया, कि वह यहाँ पर क्लेशों के विनाश करने की चर्या का अभ्यास कर रहा है। राजा के मन में उस बालक के प्रति असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई और भावुक होकर उनकी आँखों से आँसू बह निकले। पहले राजा इंद्रबोधि की दाहिनी आँख की ज्योति नहीं थी, लेकिन इस अवस्था में उनके नेत्रों से बहते आँसुओं के फलस्वरूप उनकी नेत्र-ज्योति लौट आई। इस चमत्कार को जानकर राजा इंद्रबोधि समस्त मंत्रीगणों और प्रजाजनों के साथ श्रद्धावनत हो गए। निःसंतान राजा इंद्रबोधि ने उसी समय घोषणा की, कि वे बालक को अपने पुत्र के रूप में अपनाएँगे। बालक को राजमहल लाकर सुंदर वस्त्र पहनाए गए। पद्मपुष्प में विराजमान होने के कारण बालक को पद्मसंभव नाम दिया गया।

आस्थावान राजा इंद्रबोधि ने पद्मसंभव को राजसिंहासन पर बैठाया। उनके राजसिंहासन पर बैठते ही उड्डियान राज्य का अकाल जाता रहा, राज्य धन-धान्य से संपन्न होने लगा। राज्य के कुछ प्रभावशाली मंत्रियों को पद्मसंभव का राजकुमार के रूप में रहना खटकने लगा। वे पद्मसंभव को राज्य से निष्कासित कराने के बहाने खोजने लगे। कुछ ऐसा दुर्योग हुआ, कि पद्मसंभव के त्रिशूल से एक मंत्री के पुत्र की मृत्यु हो गई। इस घटना को माध्यम बनाकर राजा के ऊपर ऐसा दबाव बनाया गया, कि उन्हें पद्मसंभव को देश निकाला देना पड़ा। गुरु पद्मसंभव ने भारत के विभिन्न प्रमुख स्थानों में जाकर तंत्रसाधना का अभ्यास किया। इसके बाद वे उस सरोवर में भी साधनारत रहे, जहाँ उन्होंने अवतार लिया था। उनकी गहन साधना से प्रसन्न होकर वज्रवाराही ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया, और उन्हें अनेक तांत्रिक शक्तियों-सिद्धियों से संपन्न किया। उनकी गहन साधना और फिर तांत्रिक शक्तियों से संपन्न होने पर हिमालयी परिक्षेत्र में ही नहीं, वरन् संपूर्ण आर्यावर्त में उनकी ख्याति महायान और वज्रयान के पारंगत विद्वान एवं महान साधक के रूप में हुई। कहा जाता है, कि उन्होंने बोधगया और फिर मलय पर्वत के सिद्धक्षेत्रों में पहुँचकर योगतंत्र और महामुद्रा आदि की शिक्षा ली।

गुरु पद्मसंभव से पहले तिब्बत में आचार्य शांतिरक्षित पहुँचे थे। उनके द्वारा महायान साधना-पद्धति में लोगों को दीक्षित किए जाने के कार्य किए गए, लेकिन वहाँ अनेक बाधक शक्तियाँ भी थीं, जिनको धर्म से जोड़ने के लिए रौद्र और चमत्कारिक प्रभाव दिखाना आवश्यक था। गुरु पद्मसंभव का तिब्बत पहुँचना इस संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। ऐसा कहा जाता है, कि यदि गुरु पद्मसंभव तिब्बत नहीं पहुँचते, तो वहाँ सद्धर्म का विकास नहीं हो पाता। आचार्य शांतिरक्षित के द्वारा बताए जाने पर तिब्बत के राजा और मंत्रियों ने गुरु पद्मसंभव से तिब्बत चलकर विधर्मी शक्तियों को पराजित करने और धर्म का शासन स्थापित करने हेतु निवेदन किया। राजा ठ्रिसोङ देचेन के निवेदन पर गुरु पद्मसंभव ने तिब्बत में धर्मशासन स्थापित किया और अपनी तंत्र-सिद्धि के माध्यम से विधर्मी शक्तियों को पराजित किया।

तिब्बत के अतिरिक्त गुरु पद्मसंभव ने उड्डियान, धनकोष, रुक्म, अपर-चामरद्वीप आदि देशों में भी धर्म का शासन स्थापित किया, और इन देशों की जनता को विधर्मी शक्तियों से मुक्त कराया। तिब्बत के अतिरिक्त अन्य देशों में गुरु पद्मसंभव के चमत्कारों और उनके सिद्धि-बल द्वारा किए गए कार्यों के लिखित या लोक-प्रचलित साक्ष्य नहीं मिलते हैं। तिब्बत में गुरु पद्मसंभव के ऋद्धि-सिद्धि बल के प्रति आस्थावान लोगों की कमी नहीं है। गुरु पद्मसंभव के आठ रूप या उनके व्यक्तित्व के आठ अंग प्रायः माने जाते हैं। इनमें से गुरु दोर्जे डोलोद (वज्रक्रोध) के रूप में वे तिब्बत में प्रतिष्ठित हुए। अन्य सात रूपों में धनकोष सरोवर में अवतार लेने वाले, तिब्बत में अंधविश्वासों को दूर करने वाले, आनंद से प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले, उड्डियान में राजा इंद्रबोधि के आमंत्रण पर राजशासन चलाने वाले, अबौद्धों द्वारा ईर्ष्यावश विष दिए जाने पर उसे अमृत करके पी जाने वाले और महायोग तंत्र की साधना करके योग मंडलीय देवताओं का साक्षात् दर्शन करने वाले हैं। ये सभी विग्रह और रूप भारतदेश के विभिन्न स्थानों में स्थापित रहे, जो संप्रति हिमालयी परिक्षेत्र में ही प्राप्त हैं, और पूजे जाते हैं।

गुरु पद्मसंभव के साथ जहोर राज्य की कथा भी जुड़ी हुई है। ऐसा कहा जाता है, कि जहोर राज्य में राजा अर्षधर के शासनकाल में गुरु पद्मसंभव का जाना हुआ। राजा अर्षधर की पुत्री मंदारवा (मंधर्वा गंधर्वपुष्पा) अपनी सोलह वर्ष की श्रीआयु में समस्त साधना-चिन्हों, एवं लक्षणों से युक्त थी। गुरु पद्मसंभव ने राजकुमारी मंदारवा को अपनी आध्यात्मिक साधना एवं तंत्र सिद्धि के लिए मुद्रा (स्त्री-शक्ति) के रूप में सहचारिणी बनाया। वे दोनों पोतलक पर्वत में स्थित एक दिव्य गुफा में अमिताभ की उपासना के लिए गए। वहाँ हठयोग की साधना करते हुए उन्हें अमिताभ के दर्शन मिले। अमिताभ ने स्वयं उनके सिर पर अमृत कलश रखकर उनको वज्रशक्ति से संपन्न किया। अमिताभ ने गुरु पद्मसंभव को हेवज्र और उनकी शक्ति मंदारवा को वज्रवाराही के रूप में अधिष्ठित किया। इस प्रकार तंत्र-साधन में निष्णात् गुरु पद्मसंभव वज्रगुरु के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए।

महायान परंपरा में चार संप्रदाय हैं- निङ्मा, साक्य, कार्ग्युद और गेलुग। इसमें निङ्मा संप्रदाय को सबसे पुराना माना जाता है। निङ्मा संप्रदाय में गुरु पद्मसंभव को विशेष स्थान प्राप्त है। निङ्मा संप्रदाय के मठों में गुरु पद्मसंभव की मूर्ति रौद्र रूप में प्रतिष्ठित होती है। इस संप्रदाय के दीक्षित भक्तजनों के द्वारा गुरु पद्मसंभव को गुरु रिनपोछे का नाम दिया गया है। गुरु रिनपोछे के रूप में आचार्य पद्मसंभव की प्रतिष्ठा लद्दाख में भी है।

गुरु पद्मसंभव तिब्बत से लद्दाख आए, और गिलगित-बल्टिस्थान तक अपने धर्मप्रचार को बढ़ाया। ऐसा कहा जाता है, कि लेह के निमो गाँव के निकट एक ऊँची पहाड़ी पर एक राक्षसी रहती थी, जिसने गुरु पद्मसंभव का पीछा कर लिया। गुरु पद्मसंभव एक चट्टान के पीछे छिप गए। जब वह राक्षसी आगे निकल गई, तो गुरु पद्मसंभव ने उसे पकड़ लिया और समीप की एक पहाड़ी पर उसे हमेशा रहने के लिए कहा। कहा जाता है, कि रात के समय आज भी वहाँ से रोने की आवाजें आती हैं। जिस चट्टान के पीछे गुरु पद्मसंभव छिपे थे, उस चट्टान पर गुरु पद्मसंभव की छाप अंकित हो गई। इस पवित्र चट्टान की पूजा बड़े विधान के साथ की जाती रही है। वर्तमान में यह गुरुद्वारा पत्थर साहिब के रूप में जानी जाती है। यह लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर लेह से लगभग 40 किमी दूर स्थित है। ऐसा माना जाता है, कि यही घटना गुरु नानक के साथ हुई थी, जब वे अपनी एक यात्रा में आए हुए थे। गुरु नानक से जुड़ा गुरुद्वारा दातून साहिब लेह के मुख्य बाजार में स्थित है।

गुरुद्वारा पत्थर साहिब को निङ्मा संप्रदाय के आस्थावान जनों के साथ ही सिख धर्मानुयायी भी पूजते हैं। इस कारण इस गुरुद्वारा के साथ गुरु पद्मसंभव को लामा गुरु नाम मिला है। इन्हें नानक लामा भी कहा जाता है। यह पवित्र स्थल गुरु नानक और गुरु पद्मसंभव के साथ जुड़ा होने के कारण अद्भुत और अनूठा है। गुरु नानक भी अपनी उदासियों के माध्यम से देश-दुनिया के विभिन्न स्थानों की यात्रा करते हुए लोगों को सीख देते रहे, धर्म में प्रवृत्त करते रहे। इसी प्रकार गुरु पद्मसंभव ने भी अनेक स्थानों की यात्राएँ करके धर्मशासन स्थापित किया। आस्थावान लोगों के लिए इसी कारण दोनों गुरुओं के प्रति भक्ति का भाव देखा जा सकता है। एक अन्य रुचिकर प्रसंग यहाँ जोड़ देना समीचीन होगा, कि यह परंपरा लद्दाख से नीचे उतरकर अमृतसर में भी दिखाई दिया करती थी। नानक लामा या लामा गुरु के प्रति आस्थावान भक्तजन अपनी तीर्थयात्राओं में गुरुद्वारा श्री स्वर्ण मंदिर को भी जोड़कर रखते थे, और बड़ी आस्था के साथ स्वर्ण मंदिर के सरोवर में स्नान किया करते थे।

गुरु पद्मसंभव द्वारा जांस्कर घाटी में स्थित कनिका स्तूप के निकट सानी नामक महाश्मशान में अपना चमत्कार दिखाया गया था। इस स्थान पर उन्होंने जटिल तंत्र-साधना की थी। ऐसा माना जाता है, कि गुरु पद्मसंभव ने अपनी आठ लीलाओं में से एक- गुरु नीमा ओदसेर को सानी में दिखाया था। भोटी भाषा में नीमा सूर्य को कहा जाता है, और ओदसेर प्रकाश को कहा जाता है। इस प्रकार उनकी यह लीला सूर्य का प्रकाश बिखेरने के संदर्भ के साथ देखी जा सकती है। अधर्म के अंधकार का शमन करके निज धर्म का प्रकाश उनके द्वारा किया गया। सम्राट कनिष्क के द्वारा स्थापित स्तूप, जिसे कनिका स्तूप के रूप में जाना जाता है, यह सिद्ध करता है, कि इस क्षेत्र में सम्राट कनिष्क का शासन था। इसके निकट सानी नामक महाश्मशान में गुरु पद्मसंभव ने साधना करके दैत्यों, दानवों का दमन किया और डाकिनियों को धर्मोपदेश दिया। इसके बाद ही उनका गुह्य नाम खसपा लोदन पड़ा। यहाँ पर गुरु पद्मसंभव के पदचिन्ह अंकित हैं। उन्होंने दुष्ट आत्माओं का शमन करके धर्म के प्रकाश का विस्तार करने हेतु चारों दिशाओं में अपने चरण बढ़ाए, फलस्वरूप उनके पदचिन्ह चारों दिशाओं में अंकित हैं।

समग्रतः, लद्दाख अंचल के साथ ही लगभग पूरे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरु पद्मसंभव के विभिन्न चमत्कारों, साधनाओं, सिद्धियों और धर्म स्थापनाओं के चिन्ह मिलते हैं। विभिन्न धर्मगुरुओं, यथा- आचार्य शांतिरक्षित, आचार्य दिग्नाग, आचार्य दीपांकर श्रीज्ञान अतिशा, आचार्य वसुबंधु आदि विभिन्न महायान परंपरा के आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों के माध्यम से जहाँ एक ओर हिमालयी परिक्षेत्र में महायान बौद्ध परंपरा का विकास हुआ, वहीं दूसरी ओर गुरु पद्मसंभव की योग-साधनाएँ, तांत्रिक-क्रियाएँ, वज्रयानी अनुष्ठान और चमत्कारिक क्रियाएँ बहुत प्रभावी होकर महायान परंपरा का विकास करती हैं। गुरु पद्मसंभव का विराट व्यक्तित्व अलग-अलग रूपों में परिलक्षित होता है। गुरु पद्मसंभव इसी कारण द्वितीय बुद्ध के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।  सामान्य जनों के लिए, आस्थावान धर्मभीरुओं के लिए वे शांत रूप में प्रतिष्ठित हैं, तो अन्य के लिए उनका रौद्र रूप विधिवत् वज्र और त्रिशूल धारण किए हुए प्रतिष्ठित होता है। हिमालयी परिक्षेत्र में गुरु रिनपोछे के सिद्ध मंत्र की गूँज आज भी गुंजायमान होती है।

-राहुल मिश्र


(त्रिकुटा संकल्प, जम्मू के श्रावण, 2080, अगस्त-2023 के अंक में प्रकाशित)

Sunday, 1 January 2023

जी-20 की अध्यक्षता : नए भारत का वैश्विक-सूचकांक

 

जी-20 की अध्यक्षता : नए भारत का वैश्विक-सूचकांक


इस वर्ष (2022) के दिसंबर माह का पहला दिन भारत के लिए असीमित प्रसन्नता और गर्व का क्षण लेकर आया। जी-20, अर्थात् बीस देशों के समूह की अध्यक्षता का अवसर भारत को मिला है। वैसे तो विगत वर्ष दिसबंर माह में ही इसकी आधारशिला रख दी गई थी, जब भारत जी-20 ट्रोइका में सम्मिलित हुआ था। वर्ष भर बाद यह सुखद क्षण जब भारत के हिस्से में आया, तो भारत के अंदर ही नहीं, वैश्विक नेतृत्व की भारत की क्षमता को देखने-समझने वाले विश्व के अनेक देशों में इस प्रसन्नता की लहर को देखा गया है।

ग्रुप-20 विश्व के ऐसे बीस देशों का संगठन है, जिसमें महाद्वीपीय विविधता के साथ ही आर्थिक संपन्नता के स्तर पर विकसित और विकासशील देशों की विविधता भी है। यदि भारत के संदर्भ में कहें, तो भारत के सीमावर्ती-पड़ोस के संबंधों का भी बड़ा पक्ष इससे जुड़ा हुआ है। जी-20 में भारत का ऐसा पडोसी भी है, जिसके साथ संबंधों की बुनावट समय-समय पर जाँची-परखी जाती है। चीन की जी-20 में उपस्थिति भारत के संबंध में एक अलग आयाम गढ़ती है, एक अलग असर छोड़ती है। इसी कारण विगत वर्ष जी-20 ट्रोइका में भारत का नाम आते ही वैश्विक हलचल के साथ ही एशिया उपमहाद्वीप में भी बड़ी हलचल देखी गई थी। स्वाभाविक ही था, कि अपने पड़ोसी को वैश्विक मंच पर अध्यक्ष की आसंदी के निकट देखना भारत के स्वाभाविक विरोधियों को सहन नहीं हुआ होगा। कहना न होगा कि भारत की उत्तरी सीमा पर पूरब से लगाकर पश्चिम तक अराजकता व आतंक का समूचा परिवेश संभवतः इसी कारण गढ़ा गया होगा, कि भारत की ओर से किसी भी तरह की पहल करने पर विश्व मंच में भारत के विरुद्ध एक माहौल बनाया जाए, ताकि जी-20 की अध्यक्षता का अवसर भारत के हाथ से निकल जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका, और जी-20 ट्रोइका में सम्मिलित भारत को अध्यक्षता मिल गई।

जी-20 ट्रोइका में तीन देश होते हैं। तीन देशों का एक छोटा समूह होता है, जिसमें जी-20 के वर्तमान अध्यक्ष के साथ ही पूर्व अध्यक्ष और भावी अध्यक्ष होते हैं। दिसंबर 2021 में भारत के इस ट्रोइका में सम्मिलित होने के साथ ही इस वर्ष के लिए भारत की अध्यक्षता तय हो गई थी। इंडोनेशिया के बाली में संपन्न हुए सम्मेलन में भारत को अध्यक्षता के लिए नामित किया गया। इसके साथ ही भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री मोदी को अध्यक्ष देश के प्रतिनिधि के रूप में सेशन हैमर (लकड़ी का हथौड़ा) दिया गया। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो से अध्यक्षता के प्रतीक के रूप में लकड़ी के इस हथौड़े को बहुत गर्व के साथ ग्रहण करते और प्रदर्शित करते हुए भारत के सम्मान्य प्रधानमंत्री के चित्र सोशल नेटवर्किंग के पटलों पर खूब प्रसारित हुए थे। सारे विश्व में फैले भारतवंशियों के लिए भी यह बहुत गौरव और गर्व का क्षण था। यह लकड़ी का हथौड़ा उन बीस देशों के समूह की अध्यक्षता का प्रतीक है, जिनका सारी दुनिया में वर्चस्व और बोलबाला है।

जी-20 समूह को आर्थिक रूप से विश्व के सबसे ताकतवर समूह के रूप में जाना जाता है। इस समूह की दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में 85 प्रतिशत भागीदारी है। विश्व की कुल जीडीपी में से 80 प्रतिशत की भागीदारी जी-20 समूह के देशों की है। इसके साथ ही इस समूह की वैश्विक व्यापार में लगभग 75 प्रतिशत की भागीदारी है। विश्व की कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत जी-20 समूह के देशों में है। ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और अमरीका जैसे विकसित देशों के साथ ही सऊदी अरब, जापान और जर्मनी आदि देश इसके सदस्य हैं। भारत का पड़ोसी देश चीन भी इस समूह का सदस्य है। समूह के सदस्य देशों के माध्यम से ही समूह की वैश्विक स्तर पर स्थिति और इसके प्रभाव का आकलन किया जा सकता है। ऐसे प्रभावशाली और वैश्विक स्तर पर महत्त्वपूर्ण समूह की अध्यक्षता भारत के लिए कोई सामान्य बात नहीं है। यह भारत के वैश्विक प्रभाव और विश्व-स्तर पर भारत की स्वीकार्यता का एक मानदंड है, मापक है।

भारत को जी-20 की अध्यक्षता ऐसे विषम समय में मिली है, जबकि समूह के सदस्य देशों के मध्य संबंध बहुत सहज नहीं हैं। बाली शिखर सम्मेलन के ठीक पहले ही पौलैंड में मिसाइल गिरने के बाद नाटो देशों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया दी जा रही थी। दूसरी ओर जी-20 में ही यूक्रेन संकट के कारण सदस्य देश आपस में बँटे हुए थे। रूस और अमरीका के मध्य यूक्रेन को लेकर चल रही तनातनी का प्रभाव बाली शिखर सम्मेलन में भी दिख रहा था। दूसरी ओर कोविड-19 की विभीषिका के कारण वैश्विक मंदी और अन्य कारक भी प्रबल थे। ऐसी विषम स्थिति में अध्यक्ष का दायित्व स्वीकारना कोई सहज कार्य नहीं था। यह भारत की वैश्विक स्वीकार्यता का ऐसा क्षण था, कि भावी अध्यक्ष के रूप में भारत को सामने देख विश्व के महायोद्धाओं ने भी अपने रुख को नरम और सहज बनाया। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जब भारत के विजन, भारत की भावी कार्ययोजना के लिए संकल्पसूत्र को रखा गया, तो उसे सभी ने स्वीकार किया। प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर को वैश्विक स्तर पर भारत की वसुधैव कुटुंबकम् की परंपरा के अनुरूप निर्वहन करने का स्पष्ट संदेश दिया है। उनका कहना, कि भारत इसे ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ की तरह लेकर चलेगा, समूह के सभी देशों के लिए भारत की अध्यक्षता में जी-20 की आगामी कार्ययोजना को निर्धारित करने हेतु एक नियामक निर्णय के तौर पर स्वीकार्य हुआ।

जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत का कार्यभार सँभालना निःसंदेह विषम स्थितियों में हुआ है। एक ओर रूस-यूक्रेन विवाद में सभी सदस्य देश आपस में बँटे हुए हैं, तो दूसरी ओर चीन के ताइवान पर आक्रामक रवैये के कारण अमरीका सहित यूरोपीय देशों की अपनी नाराजगी है। दूसरी तरफ भारत के साथ भी चीन के संबंध सहज नहीं हैं। चीन और भारत की तनातनी के लिए विगत तीन वर्ष बहुत चर्चित रहे हैं, जब भारतीय सीमा में चीन की घुसपैठ का मुँहतोड़ उत्तर भारतीय सेना द्वारा दिया गया। गालवान, दौलतबेग ओल्डी, गोगरा हाट-स्प्रिंग आदि स्थानों में भारत के प्रबल प्रतिरोध और भारतीय सेना की सक्रिय कार्यवाही के बाद चीन के राष्ट्रपति का बाली में भारत के प्रधानमंत्री मोदी के साथ पहली बार आमना-सामना हुआ था। सूत्र बताते हैं, कि दोनों के मध्य कोई बात नहीं हुई। मिलने पर गर्मजोशी के स्थान पर मात्र औपचारिकता थी। ऐसी दशा में चीन के लिए भारत का नेतृत्व स्वीकारना कितना जटिल और कठिन होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। यह भले ही भारतवासियों के लिए गर्व की बात हो, लेकिन उससे कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण भी है। ऐसी विपरीत और विषम स्थितियों में न केवल अध्यक्षीय दायित्व को सँभालना, वरन् कुशलतापूर्वक इस दायित्व को निभाना भारत के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के कौशल को प्रदर्शित करता है।

रूस और यूक्रेन विवाद पर भारत की निरपेक्षता और समूह के सदस्य देशों को युद्ध व अशांति-अस्थिरता के स्थान पर रचनात्मक और विकासात्मक अवधारणा को आत्मसात् करने का भारत का संदेश समूह के देशों ने स्वीकारा है। यह भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि भी है, और विश्व-स्तर पर भारत के नेतृत्व-कौशल का मानक भी है। विश्व की कुल जनसंख्या की 60 प्रतिशत भागीदारी यदि जी-20 समूह के लिए बड़ा जनबल है, तो दूसरी ओर इस विशाल जनसंख्या के साथ चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। वैश्विक आर्थिक मंदी, रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण की चुनौतियों से निबटने के लिए सकारात्मक कार्ययोजना बनाना, उसे क्रियान्वित करने के लिए उपयुक्त परिवेश बनाना समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत की प्राथमिकताओं में है। जलवायु परिवर्तन का संकट, पर्यावरण-पारिस्थितिकी असंतुलन के साथ ही शांति व सुरक्षा की चुनौतियों को भारत ने जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में अपनी प्राथमिकताओं में रखा है।

जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत की भूमिका निष्पक्षता के साथ रचनात्मकता और सकारात्मकता को बढ़ावा देने के रूप में होगी, यह संदेश भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री द्वारा बाली में अपने संबोधन में दिया गया है। कोविड-19 महामारी के ‘दुनिया में कहर’ के बाद जिस सकारात्मकता के साथ विकास की ओर अग्रसर होने की अपेक्षा जी-20 के नवनियुक्त अध्यक्ष से की जा रही थी, उसे समूह के देशों के साथ ही विश्व-मंच ने अनुभूत किया है। इसी कारण भारत के प्रति विश्व-मंच की धारणा बदली है। भारत में नेतृत्व के कौशल को देखा जा रहा है। भारत की बात को अब विश्व गंभीरता के साथ सुनता भी है, और गुनता भी है। जी-20 जैसे महत्त्वपूर्ण मंच की अध्यक्षता और भारत में शिखर सम्मेलन के साथ ही अनेक शिखर वार्ताओं, बैठकों और चर्चाओं से एक सार्थक और सकारात्मक विश्व-दृष्टि की कामना न केवल जी-20 समूह के देशों को है, वरन् समूचे वैश्विक समाज को भी है।

भारत के विभिन्न प्रांतों में उनकी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान को एक वैश्विक मंच देने के उद्देश्य के साथ देश भर में जगह-जगह जी-20 समूह की बैठकें कराने के लिए योजनाएँ बन रहीं हैं, और अमल में भी लाई जाने लगीं हैं। भले ही विपक्ष के लिए विरोध के अवसर मिलते रहें, लेकिन भारतीय राजनीतिक नेतृत्व ने विधिवत् लोकतांत्रिक प्रक्रिया और देश के इस गौरवपूर्ण अवसर के लिए सभी की सहभागिता को सुनिश्चित किया है। सभी को साथ लेकर इसकी योजनाएँ बन रहीं हैं। भारत को विश्व-पटल पर एक नई पहचान इस अवसर के साथ मिल रही है। इसका लाभ भारत की अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा।

समग्रतः, जी-20 समूह की अध्यक्षता का यह अवसर भारत के लिए उस वैश्विक सूचकांक की तरह है, जिसमें विश्वगुरु के रूप में उभरते भारत की छवि झलकती है, जिसमें भारत के गौरवपूर्ण अतीत के दर्शन होते हैं, जिसमें तकनीकी व नवाचार में नए कीर्तिमान स्थापित करता भारतदेश है, जिसमें कोविड-19 महामारी की विकरालता के दंश को अपने कुशल प्रबंधन से परास्त करके वैश्विक पटल पर उभरता हमारा भारत है। यह नए भारत का वैश्विक सूचकांक है, जिसमें जी-20 की अध्यक्षता के बहाने शीर्ष पर लहराता तिरंगा दिखता है, नया भारत दिखता है।
-राहुल मिश्र
(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के दिसंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)

Saturday, 19 March 2022

यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद

 



यथार्थ के धरातल पर प्रगतिवाद

प्रगति का साधारण अर्थ है- आगे बढ़ना। जो साहित्य जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक हो, वही प्रगतिशील साहित्य है। इस दृष्टि से विचार करेंगे तो तुलसीदास सबसे बड़े प्रगतिशील लेखक प्रमाणित होते हैं। भारतेंदु बाबू और द्विवेदी युग के लेखक, मुख्यतः मैथिलीशरण गुप्त भी प्रगतिशील लेखक हैं। परंतु आज का प्रगतिवादी इनमें से किसी को भी प्रगतिशील नहीं मानेगा- ये सभी तो उसके अनुसार प्रगतिक्रियावादी लेखक हैं। अतः प्रगति का अर्थ आगे बढ़ना अवश्य है, परंतु एक विशेष ढंग से, एक विशेष दिशा में। उसकी एक विशिष्ट परिभाषा है। इस परिभाषा का आधार है- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद।1

सच्ची बात तो यह है कि हमारे अधिकांश साहित्यकार, जो प्रगतिवादी वर्ग के नेता माने जाते हैं, स्वयं किसी पूँजीपति से कम नहीं हैं। पहाड़ियों के वैभवपूर्ण वातावरण में बैठकर निश्चिंतता से मजदूरों के दुःख-दर्द के गीत लिखे जा सकते हैं, किंतु उनमें अनुभूति की सजीवता आ जाय, यह आवश्यक नहीं। फलतः प्रगतिवादी  साहित्य हमारे हृदय को बहुत कम स्पर्श करता है।2

हिंदी के जाने-माने समीक्षक-आलोचक डॉ. नगेंद्र और हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्येतिहासकार डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त के उक्त कथनों के माध्यम से हिंदी साहित्य के प्रगतिवाद को जाना-समझा जा सकता है। प्रगतिवाद अपने सीधे-सरल अर्थों में भले ही प्रगति की विचारधारा का पोषण करने के अर्थ को व्याख्यायित करता हो, किंतु हिंदी साहित्य में जिस रूढ़ और विशिष्ट अर्थों से संपृक्त प्रगतिवाद की चर्चा की जाती है, वह प्रगति के सीधे और सरल स्वरूप से पूर्णतः भिन्न है। इसी कारण प्रगतिवाद के सामान्य, सीधे और सरल अर्थ को ग्रहण कर लेने पर उसी प्रकार की स्थिति का जन्म हो जाता है, जैसी कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत के साथ बन गई थी, जैसी कि प्रेमचंद के साथ बनी थी। डॉ. नगेंद्र अपने निबंध- ‘प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य’ में लिखते हैं-

हिंदी में प्रगतिवाद का आदिग्रंथ ‘गोदान’ है। परंतु गांधीजी में आस्था रखने वाले प्रेमचंद को शुद्ध प्रगतिवादी शायद न माना जा सके। वे मानववाद के आगे नहीं जा सके। प्रगतिवाद की रूपरेखा पिछले दो-तीन वर्षों से ही बननी आरंभ हुई है। यह एक विचित्र संयोग है कि हिंदी में प्रगतिवाद का भी सबसे पहला लेखक- जिसने उसे गौरव दिया- यही व्यक्ति है, जो छायावाद का भी एक प्रमुख प्रवर्तक था। मेरा आशय कवि पंत से है।

इस वर्ग के कवि-लेखकों में केवल एक ही प्रवृत्ति सर्व-सामान्य है- क्रांति। शुद्ध प्रगतिवादी दृष्टिकोण तो शायद पंत और नये कवियों में नरेंद्र ने ही ग्रहण किया है। और सच तो पंत और नरेंद्र में भी यह बुद्धि की प्रेरणा, संस्कार अभी उनके पीछे को ही दौड़ रहे हैं। शेष लेखक-कवि तो अंशतः ही प्रगतिशील हैं।3

अपने इस लेख के उपरोक्त संदर्भ में नगेंद्र एक टिप्पणी (फुटनोट) भी लिखते हैं- परंतु अब इन दोनों (सुमित्रानंदन पंत और नरेंद्र शर्मा) को भी प्रगतिवादी पार्टी के चीफ व्हिप डॉक्टर रामविलास शर्मा ने पार्टी से निकाल दिया है।4 यह टिप्पणी सिद्ध करती है, कि जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की पक्षधरता प्रगतिवाद का एक प्रमुख आयाम कहा जाता है, वह सैद्धांतिक रूप से यहाँ दिखाई नहीं पड़ता है। यहाँ सुमित्रानंदन पंत की ‘युगवाणी’ में संकलित कविता ‘चींटी’ के एक अंश को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं-

निद्रा, भय, मैथुनाहार / -ये पशु लिप्साएँ चार- / हुईं तुम्हें सर्वस्व-सार? /

धिक् मैथुन आहार यंत्र! / क्या इन्हीं बालुका भीतों पर / रचने जाते हो भव्य, अमर / तुम जन समाज का नव्य तंत्र? / मिली यही मानव में क्षमता? / पशु, पक्षी, पुष्पों से समता? / मानवता पशुता समान है? / प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है? /

बाह्य नहीं आंतरिक साम्य / जीवों से मानव को प्रकाम्य! / मानव को आदर्श चाहिए, / संस्कृति, आत्मोत्कर्ष चाहिए, /

बाह्य विधान उसे हैं बंधन, / यदि न साम्य उनमें अंतरतम- / मूल्य न उनका चींटी के सम, / वे हैं जड़, चींटी है चेतन! / जीवित चींटी, जीवन वाहक, / मानव जीवन का वर नायक, / वह स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक!/5

यहाँ पंत ने जिस प्रकार प्रगतिवाद की संकीर्ण वैचारिकता पर तीखी चोट की है, उसे देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी तीखी आलोचना को पचा पाना प्रगतिवादियों के लिए सहज नहीं रहा होगा। इसी प्रकार प्रेमचंद के प्रगतिवादियों से संबंध को व्याख्यायित करना होगा। सज्जाद ज़हीर के प्रयासों से लंदन में सन् 1935 में स्थापित होने वाला प्रगतिशील लेखक संघ भारत पहुँचता है। भारत के अनेक साहित्यकारों- जैनेंद्र, गंगानाथ झा, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सच्चिदानंद सिन्हा, शिवदान सिंह चौहान, नरेंद्र शर्मा, हसरत मोहानी, जोश मलिहाबादी और डॉ. अब्दुल हक़ सहित रवींद्रनाथ ठाकुर और प्रेमचंद इस समूह के संपर्क में आए। प्रारंभ में सज्जाद ज़हीर का कहना था, कि यह समूह भारतीय अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव-प्रेम, उसकी यथार्थप्रियता और उसके सौंदर्यतत्त्व लेने के पक्ष में है।6  इस प्रकार प्रगतिवाद की एकदम अलग और प्रायः सर्वस्वीकृत विचारधारा को लेकर प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन 09-10 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन के सभापति प्रेमचंद थे। यहाँ उल्लेखनीय है कि दो बैलों की कथा, पूस की रात, आत्माराम, स्वत्व रक्षा, अधिकार चिंता, नागपूजा, पूर्व संस्कार, सैलानी बंदर, मुक्तिधन, और ऐसी ही तमाम कहानियों के साथ ही उपन्यासों में प्रेमचंद जितने पशु-पक्षियों के प्रति सहृदय प्रतीत होते हैं, उतना ही लगाव और आकर्षण भारत के ग्राम्य जीवन और भारतीय संस्कृति के प्रतीकों के लिए प्रकट होता है। ऐसी अद्भुत, विलक्षण और कालजयी रचनाएँ करने वाले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ की विचारधारा से जुड़कर भारतीय संस्कृति और भारतीयता के प्रतीकों को विस्मृत कर बैठें होंगे, यह स्वीकार करना असंभव है। उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन से पूर्व प्रेमचंद का इस विचारधारा के साथ कोई जुड़ाव नहीं था और इस अधिवेशन के लगभग छह माह बाद ही प्रेमचंद का असामयिक निधन हो गया। कहना न होगा, कि प्रेमचंद की सभी रचनाओं को अपने अनुरूप प्रस्तुत करते हुए प्रगतिवाद के झंडाबरदारों ने प्रेमचंद को अपने खेमे का साहित्यकार घोषित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। यह क्रम आज भी देखा जा सकता है, जबकि वास्तविकता यह है कि यदि प्रेमचंद जीवित होते, तो उन्हें भी पंत और नरेंद्र शर्मा की तरह प्रगतिवादी पार्टी से कब का निष्कासित कर दिया गया होता, या फिर वे जैनेंद्र और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की तरह स्वयं ही अलग हो गए होते। इसी प्रकार रवींद्रनाथ ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के कोलकाता अधिवेशन (सन् 1938) की अध्यक्षता की थी। टैगोर का साहित्य, उनकी संगीत-साधना और उनका जीवन किसी भी प्रकार से प्रगतिवाद की विचारधारा से मेल खाने वाला प्रतीत नहीं होता। इसी कारण कालांतर में रवींद्रनाथ ठाकुर भी प्रगतिवाद के खेमे से बाहर हो गए। इस संदर्भ में डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त लिखते हैं-

वस्तुतः मुंशी प्रेमचंद और गुरुदेव टैगोर- दोनों ने ही प्रगतिशीलता को एक व्यापक एवं उदात्त रूप में ही ग्रहण किया था, जबकि परवर्ती साहित्यकारों ने इसे मार्क्सवाद की संकीर्ण सीमाओं में अवरुद्ध करके इसे ‘प्रगतिशीलता’ से ‘प्रगतिवाद’ का रूप दे दिया। प्रगतिशीलता जहाँ किसी वाद-विशेष की सूचक नहीं है। कोई भी विचार, जो समाज की प्रगति में सहायक होता है, ‘प्रगतिशील’ कहा जा सकता है, जबकि ‘प्रगतिवाद’ का अर्थ विशुद्ध मार्क्सवादी विचारों से लिया जाता है। इसीलिए ‘प्रगतिवाद’ की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, वही साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिवाद है।7

रूस की जारशाही को नष्ट करके मार्क्स का जीवन-दर्शन सारी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर चुका था। इस आकर्षण ने लंदन से होते हुए भारत में पदार्पण किया। भारत की सनातन परंपरा, जो अतीत के अनेक उतार-चढ़ावों को देखते-भोगते और विषम परिस्थितियों से जूझते हुए अखंड-अक्षुण्ण बनी हुई थी, उसमें सेध लगाने के लिए जिस प्रकार प्रगतिवाद अर्थात् मार्क्सवाद को ‘प्रगतिशीलता’ के आवरण में छिपाकर प्रस्तुत किया गया, उसने अवश्य ही अनेक बुद्धिजीवियों-साहित्यसेवियों को भ्रमित किया, परंतु भ्रम की यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रह सकी। इस अवधि में ‘प्रगतिवाद’ ने अवश्य ही ऐसा वर्ग तैयार कर लिया था, जो क्रांति की बात करके, द्वंद्वांत्मक भौतिकवाद की बात करके अपना वर्ग तैयार करने के प्रयास में सक्रियता के साथ लगा हुआ था। इसी के फलस्वरूप अवसर का लाभ उठाते हुए ऐसे साहित्यकारों को अपने खेमे में दिखाने का प्रयास ‘प्रगतिवाद’ की धारा के लोग करने लगे, जिनके साहित्य का उल्लेख करके, जिनके स्वयं के प्रभाव का वर्णन करके ‘प्रगतिवाद’ की ओर सामान्य जन को, आम पाठकों को आकर्षित किया जा सके।

यह स्थिति राजनीति के क्षेत्र में भी बनने लगी थी। यहाँ उल्लेख करना होगा, कि इसके लिए सीधा और सरल-सा रास्ता कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) में ही बन गया था। इस अधिवेशन के अध्यक्षीय उद्बोधन में जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं को साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी घोषित करते हुए कहा- मैं तो साम्यवादी और प्रजातंत्रवादी हूँ।8 उनके द्वारा ‘साम्यवाद’ शब्द किस अर्थ में प्रयोग किया गया है, इसे जाने बगैर पंडित नेहरू के (अंध) अनुयायियों ने साम्यवाद को, और फिर कालांतर में ‘प्रगतिवाद’ को अपना लिया। राजनीति के राजपथ में बिना प्रयास के, बिना किसी संघर्ष के उन ‘क्रांतिकारियों’ ने स्थान पा लिया था, जिन्हें अनेक सुख-सविधाओं के बीच पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों जैसे जीवन को जीते हुए सर्वहारा वर्ग की पीड़ाओं और चिंताओं को कलमबद्ध करने में महारथ हासिल थी। देश के तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दल में साम्यवादियों की यह घुसपैठ कभी आलोचना का विषय नहीं बन सकी। यह अत्यंत रोचक तथ्य है कि कांग्रेस की अपनी नीतियों के निर्धारण में भी इनकी दखल होती रही और इसे स्वीकार किया जाता रहा।

भारतीय समाज-जीवन में धर्म और आस्था का विशिष्ट महत्त्व रहा है। आध्यात्मिकता के बिना भारतीय समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इसके एकदम विपरीत है। इस कारण भारतीय समाज में अपना स्थान बनाने हेतु यह भी आवश्यक था, कि भारतीय आध्यात्मिकता, धर्म-साधना और आस्थावान जीवन-पद्धति को तोड़ा जाए। इस कारण राजनीति और साहित्य में अपनी घुसपैठ से उत्साहित होकर ‘प्रगतिवाद’ या ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ या ‘मार्क्सवाद’ ने धर्म में घुसपैठ का रास्ता खोजना शुरू किया। बौद्धधर्म के अनात्मवाद, अनीश्वरवाद और विज्ञानवाद ने इस रास्ते को सरल बना दिया। भगवान बुद्ध द्वारा जिन बातों को अव्याकृत कहा गया था। जिन बातों पर वे मौन रहे थे, उन्हीं को आधार बनाकर यह प्रचारित-प्रसारित किया जाने लगा, कि बौद्धमत अतीत का, और मार्क्सवाद वर्तमान का जीवन-दर्शन है। इस कारण बौद्ध धर्म को अंगीकार करना ही श्रेयस्कर होगा। यह भी प्रचारित किया गया, कि बौद्ध धर्म ही वास्तव में ऐसा धर्म है, जो सर्वहारा समाज के कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकता है। इसी कारण ‘नव बौद्ध’ का विचार समाज में न केवल प्रचलित हुआ, वरन् राजनीतिक हथकंडे के रूप में प्रयोग किए जाने का माध्यम भी बन गया। इसी कारण हजारों वर्षों की उपेक्षा और तिरस्कार की दुहाई दे-देकर राजनीति की रोटियाँ सेंकीं गईं। हजारों-लाखों का समूह बनाकर लोग धर्म-परिवर्तन करने लगे।

इस प्रकार साहित्य, राजनीति और धर्म के क्षेत्र में परजीवी की भाँति सक्रिय होकर भारतीय समाज और संस्कृति पर कुठाराघात करने का श्रेय द्वंद्वात्मक भौतिकवाद या प्रगतिवाद या मार्क्सवाद को जाता है। प्रगतिवादी कविताओं में अनल-गान, अनिल-गान, विप्लव-गान और क्रांति-आह्वान के ऐसे अनेक स्वर उभरने लगे थे, कि मानों सारा देश अनेक बुराइयों-विकृतियों से भर गया है और इस क्रांति-गान से एकदम बदल ही जाएगा। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए परजीवी बनकर रह जाने वाली यह क्रांति की धारा धीरे-धीरे अपने पथ से भटकती चली गई और इसी कारण सबसे पहले साहित्य में इसका स्थान हाशिये पर सिमटकर रह गया। सन् 1950 तक आते-आते यह क्रांति-धारा, यह विप्लव-धारा अपने अवसान की ओर चल पड़ी। राजनीति में स्वयं कभी अपना स्थान नहीं पाकर भी इस धारा के लोग सत्ता के सुख का स्वाद चखते रहे और सत्ता के केंद्र तक अपनी पकड़ बनाए रखने वाले ये परजीवी अपनी विकृत मानसिकता के परिणामस्वरूप अपनी जीवनदायिनी सत्ता-शक्ति को भी ले डूबे। आज धर्म के क्षेत्र में भी इस परजीवी और विकृत-कुत्सित मानसिकता को जाना-समझा जा रहा है और वहाँ भी शुद्धि-परिष्कार का क्रम चल पड़ा है। भारतीय समाज-जीवन के संदर्भों में अप्रासंगिक और अस्वीकार्य इस परजीवी वैचारिकता के अवसान का साक्ष्य बना आज का समय देख रहा है कि सनातन भारतीय परंपरा को तोड़ने वाले, भारतीय समाज की सहकार और सद्भाव वाली संस्कृति को विकृत करने की सोच रखने वाले तत्त्व किस प्रकार बहिष्कृत होते हैं।

संदर्भ-

1.       डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ. त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 877,

2.       डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ. 143,

3.       डॉ. नगेंद्र, प्रगतिवाद और हिंदी साहित्य, साहित्यिक निबंध, संपा. डॉ. त्रिभुवन सिंह, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1976, पृ. 882-883,

4.       वही, पृ. 883,

5.       सुमित्रानंदन पंत, चींटी, युगवाणी, हिंदी कविता डॉट कॉम,

6.       अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ, हिंदी विकीपीडिया डॉट आर्ग.,

7.       डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त, समाजपरक यथार्थवादी (प्रगतिवादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, खंड-2, लोकभारती प्रका. इलाहाबाद, सं. 2010, पृ. 125,

8.       वही, पृ. 128।

(अखिल भारतीय साहित्य परिषद की पत्रिका साहित्य परिक्रमा के जनवरी-मार्च, 2022 अंक में प्रकाशित)

-डॉ. राहुल मिश्र