Thursday, 11 December 2014

एक देश और मरे हुए लोग : मन को मापने की कविताई

पुस्तक-समीक्षा

एक देश और मरे हुए लोग : मन को मापने की कविताई
अपने परिवेश के यथार्थ को उसके समग्र यथार्थ के साथ देखना और अभिव्यक्त करना आज के दौर की कविताओं का मुख्य लक्ष्य है। यह कविताकारों के लिए चुनौती भी है। यथार्थ को, समय के सत्य को व्यक्त करने के कारण आज की कविता में कथ्य की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण हो गई है। कविता का कथ्य और उसमें निहित चिंतन की प्रभावोत्पादकता को पाठकीय चेतना के उद्वेलन साथ एकाकार कर पाना कवि-कर्म की विलक्षणता के चरम पर स्थापित होता है। इसके लिए कवि का मात्र कवि होना पर्याप्त नहीं होता है। कवि-हृदय भावुक होकर सामयिक यथार्थ को अपने सृजन के माध्यम से शब्दों में पिरो सके, यह भी संभव नहीं है। सामयिक यथार्थ को समग्रता के साथ, पूर्णता के साथ और सत्य की चरमावस्था के साथ अभिव्यक्त कर पाने की जिजीविषा को लेकर आज की कविता संघर्ष कर रही है। कविता के इस संघर्ष की सार्थकता विरले कवियों के सर्जन में ही देखने को मिलती है। भावुक हृदय के साथ अपने परिवेश के समग्र यथार्थ को देखते हुए और साथ ही उसमें जीते और उसे भोगते हुए चिंतन-पटल पर उसके बारीक से बारीक पक्ष को उकेरने की चेष्टा करते हुए अपने कवि-कर्म और कवि-धर्म को निबाहने की चेष्टा करने वाले कवि ही कविता के संघर्ष के वर्तमान से साम्य स्थापित कर पाते हैं। ऐसे ही विरले कवियों में एक नाम है, विमलेश त्रिपाठी का। युवा-कवि विमलेश त्रिपाठी के लगभग सभी काव्य-संग्रहों में कविता के संघर्ष का वर्तमान कदम-दर-कदम अपनी सार्थकता को खोजता प्रतीत होता है। विमलेश त्रिपाठी का हाल ही में प्रकाशित काव्य-संग्रह एक देश और मरे हुए लोग इसी की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।
समीक्ष्य कृति में पाँच उपशीर्षकों के अंतर्गत सैंतालिस कविताएँ संकलित हैं। पहले खंड- इस तरह मैं, में कवि अपने कवि-कर्म की तासीर को प्रकट करता है। समीक्ष्य कृति का पहला उपशीर्षक ही कविता के सृजन-संघर्ष को अपने परिचय में प्रकट कर देता है-
एक श द साझा करने में/ करनी पड़ती सदियों की यात्राएं/ और मैं हूं कि लाख कोशिश के बाद भी/ वह कर नहीं पाता ।।
इस कठिन समय में/ बोलना और लिखना/ सबसे ज्यादा दुष्कर होता जाता मेरे लिए ।।
कवि के विचारों का दबाव एक ओर उसे लिखने को प्रेरित करता है तो दूसरी ओर अनुभूति की गहनता लिखने और बोलने की प्रक्रिया को दुष्कर बना देती है। इसके बीच समीक्ष्य कृति की पहली कविता- एक गांव हूं, गाँव से भावनात्मक लगाव प्रकट करती है। एक बूढ़ा हाँफता गांव भौतिकता और विकास के आगमन को अपने अंदर महसूस करता है। कवि बूढ़े हाँफते गांव को अपने अंदर महसूस करता है। अनुभूति का यह जुड़ाव रोते हुए पेड़, रोती बँसवारी और रोती हुई पगडंडी के जरिए गाँव की सच्ची तसवीर को, गाँव के साथ भावनात्मक संलग्नता शब्दों में प्रकट कर देता है। कहीं जाऊंगा नहीं, कविता में मुंडेर पर रोज आकर बैठने वाली चिड़िया में गाँव की उस विरहिणी नवयौवना का अक्स उभर आता है, जिसका कोई अपना बिछड़ गया है। निर्मल हृदय और कोमल मन वाले पंछियों के लिए जिस तरह यह दुनिया माफिक नहीं रह गई, उस तरह की वेदना कवि महसूस करता है, अपने लिए भी। यह वही शहर, बदलते शहरों के जरिए घटती मानवीय संवेदना को, सिमटते मानवीय मूल्यों को और संबंधों की गरमाहट के शीतल होते जाने की दुःखद-दारुण स्थितियों को प्रकट करती कविता है। कला की दुनिया का अस्तित्व भौतिकता के पीछे भागते लोगों की नजरों में कैसा है, उसे कवि ने न केवल स्वीकार किया है, वरन् बेईमान और बेशरम के रूप में बुद्धिमान की नई परिभाषा के बीच मूर्ख बने रहकर कला की दुनिया को बचाने के लिए मूर्खता का वरण कर लिया है। कवि की यह स्वीकार्यता न रोको कोई, कविता के माध्यम से एक कदम आगे बढ़ते हुए शब्द के सर्जकों की वास्तविकता को, उनके वर्तमान को साझा करती है-
कलम बंद करो/ मंच से उतरो/ चलो इस देश की अंधेरी गलियों में/ सुनो उस आदमी की बात/ उसको भी बोलने का मौका दो कोई ।। (न रोको कोई, पृ. 16)
आदमी और जिंदा रहूँगा मैं, कविताओं में गर्व और विश्वास के ढहते-गिरते जाने की त्रासदी के बीच नायकत्व का दर्जा छोड़कर आदमी और मात्र आदमी बनने का संघर्ष एक ओर है तो दूसरी ओर इस संघर्ष के सफल परिणति तक पहुँचने की राह में आने वाली बाधाओं से, वैचारिक संक्रमण से और अन्याय-अराजकता से जूझने का माद्दा भी है। संघर्ष में सच, विश्वास और आत्मगौरव अपनी पूरी शक्ति से प्रतिरोध करता है तो नकारात्मक शक्तियाँ हर बार सच को पराजित करने के प्रयास में गहरी निराशा में डूबती चली जाती हैं। उनकी क्रूरता क्रमशः बढ़ती जाती है और सच हर बार झूठ को पराजित करता जाता है। मैं एक पेड़, कविता में कवि पेड़ से गिरते, धूल में मिलते पत्तों और फिर नए पत्तों के आने के माध्यम से रचनात्मकता की नियति को बयाँ करता है। पेड़ का गिरना रचनाधर्मी की दुखद परिणति को प्रकट करता है, जिस पर उग आने वाली शानदार इमारत रचनाधर्मिता पर हावी होती भौतिक प्रगति की मानसिकता को बयाँ करती है। पेड़ से कहता हूँ, खिड़की पर फदगुदिया, धरती को बचाने के लिए और जीने की लालसा, कविताओं में प्रकृति के साथ भावनात्मक जुड़ाव के बीच मानव और मानवेतर संबंधों की अनेक अनगढ़ परिभाषाएँ यक्साँ हैं।
इस तरह मैं, कविता में कवि अपने मन के भावों को सामयिक स्थितियों के साथ इस तरह एकाकार करता है कि मानवता, मानव-मूल्यों और मानव के बीच कोई भेद नहीं रह जाता है। कवि लिखता है-
इस तरह मैं आदमी एक/ इस कठिन समय का/ जिंदा रहता अपने से इतर बहुत सारी चीजों के बीच/ अशेष...।। (इस तरह मैं, पृ. 26)
इसी कविता में कवि-कर्म के वर्तमान में झाँककर आदमियत को कवि से बड़ा साबित करने का प्रयास भी अपने अनूठे ढंग से होता है-
कविता और कविता के बाहर एक गुमनाम कवि की तरह/ लड़ता हुआ समय के तीखे पहाड़ों गहरी-अंधी खाइयों से/ और इसी बीच कविताएं बनती जातीं असंख्य/ सफेद कागज पर काले-काले अक्षर दौड़ते निरुद्देश्य/ सचमुच का कोई आदमी नहीं बनता दिखता ।। (इस तरह मैं, पृ. 27)
मानसिकता के विकृत होते जाने के बीच एक अनछुआ पक्ष अपने सामयिक यथार्थ के साथ प्रकट होता है। शहरों और गाँवों के बीच की बढ़ती खाई और गाँवों में घटते संसाधन विकृतियों की, व्यवस्था की विद्रूपताओं की नई परिभाषा रचते हैं। गाँवों के वीरान होते जाने और रोजगार के लिए गाँवों के लोगों के शहरों की ओर भागते जाने की दुखद स्थितियों के बीच कवि अपने गाँव को याद कर लेता है-
गांव में अब रह गए हैं सिरफ पागल और बूढ़े/ स्त्रियां गांव के चौखट पर परदेशियों के आने का अंदेशा लिए/ जवान सब चले गए दिल्ली सूरत मुंबई कोलकाता/ जंतसार की जगह गूंजता है मोबाइल का रिंगटोन ।। (इस तरह मैं, पृ. 28)
संग्रह का दूसरा खंड है- बिना नाम की नदियां। इस खंड में आधी दुनिया के विविध रंग, उनके सुख-दुख और उनकी अनुभूतियाँ प्रकट होतीं हैं। बहनें, मां के लिए, अगर भेजना, आजी की खोई हुई तस्वीर मिलने पर, उस लड़की की हंसी, होस्टल की लड़कियां और एक स्त्री के लिए, कविताओं में कवि ने महिलाओं के जीवन को, उनके संसार को उस शिद्दत के साथ साझा किया है, जिसे महसूस कर पाना सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। कवि का अनुभूत यथार्थ ऐसी आस्था और श्रद्धा का सृजन करता है, जिसको शब्दों में व्यक्त कर पाना भी कठिन हो जाता है। कवि केवल इतना ही कह पाता है कि-
फिर कहता हूं/ कर्जदार हूं मैं तुम्हारा/ कि कैसे चुकाऊंगा यह कर्ज/ नहीं जानता ।।
हां! फिलहाल यही करूंगा/ कि कल तड़के घर से निकलूंगा/ जाऊंगा उस औरत के घर/ जो मेरे दो बच्चे की मां है/ और पहली बार/ निरखूंगा उसे एक बच्चे की नजर से ।। (उस लड़की की हँसी, पृ. 46)
कभी माँ, कभी आजी, कभी बहन, कभी पत्नी, तो कभी अल्हड़ खिलखिलाती शोख लड़कियाँ-छात्राएँ ऐसी नदियों की तरह से होती हैं, जिनके प्रवाह में जीवन की गति निहित होती है, फिर भी उनका अपना वजूद, उनकी अपनी सोच, अपनी अनुभूतियाँ क्या वहाँ होती हैं? हर समय उन्हें पुरुषों के आश्रित रहना पड़ता है, ये नदियाँ बिना नाम की ही रह जातीं हैं। ऐसी बिना नाम की नदियों की अनुभूति का प्रवाह पाठकों की वैचारिकता को उद्वेलित कर देता है।
संग्रह का तीसरा खंड- दुख-सुख का संगीत, ऐसे संगीत को सुनने के लिए विवश कर देता है, जिसमें दुख और सुख के सुर-ताल होते हैं। जिसे सुन पाना आज के भाग-दौड़ भरे जीवन में सहज नहीं होता। अपने अंदर झाँककर देख पाना, यांत्रिक जीवन को जीते-भोगते हुए एक व्यक्ति के रूप में स्वयं को महसूस कर पाना बहुत कठिन है। इस कठिन दौर के बीच खुद का विश्लेषण संग्रह के इस खंड में बहुत बारीकी से देखने को मिलता है। बहुत समय पहले और बाद की नींद में सपना, शीर्षक कविता में अतीत की सुखद यादों का स्मरण वर्तमान के एकाकी, भौतिकतावादी, व्यस्त जीवन की जटिलताओं के बीच ऐसे अवसाद का सृजन कर देता है, जिसे सामान्यतः महसूस करना कठिन ही होता है। इसी तरह का भाव सपने कविता में भी प्रकट होता है-
बहुत जमाने पहले बारिश के पानी से भीगते/ जेब में नौकरी की अर्जियां थे/ दफ्तर की सीढ़ियों पर बेमन/ दौड़ते एक जोड़ी जूते/ सामान्य अध्ययन की मोटी किताब के पन्ने में छुपे/ एक लड़की के लिखे/ आखिरी खत के कांपते शब्द थे/ धुंधलाए से ।। (सपने, पृ. 57)
बहुत जमाने पहले की बारिश, ओझा बाबा को याद करते हुए, तुम्हें ईद मुबारक हो सैफूदीन, अंकुर के लिए, जीवन का शोकगीत, घर, हम बचे रहेंगे और आखिरी बार, कविताओं में मन के भावों के विविध रंग, जीवन की गति के बीच मानस-पटल पर उभरती पुरानी यादों के धुंधलाए-से चित्र और इन सबके साथ वर्तमान यांत्रिक जीवन की भाग-दौड़ में अतीत के सुखों के छूट जाने का दुख प्रकट होता है। अतीत और वर्तमान को चिंतन की धारा में गूँथकर बजने वाला सुख-दुख का संगीत चेतना को अंदर तक झकझोर देता है।
संग्रह का चौथा खंड है- कविता नहीं। इस खंड में क से कवि मैं, महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं, नकार, कविता नहीं, क्या करोगे मेरा, तीसरा, बचा सका अगर और जब वह दिन कविताएँ हैं। इस खंड की कविताओं के परिचय में कवि शुरुआत में ही बता देता है कि-
हर दिन/ एक श द लिखने के पहले/ चलता हूं एक कदम
सोचता हूं/  इस तरह एक दिन/ पहुंच जाऊंगा
जहां पहुंचे नहीं हैं अब तक
मेरे श द ।।
वास्तव में, साहित्य के सर्जन का वर्तमान अत्यंत जटिल है। सामयिक यथार्थ को समग्रता के साथ, उसके साथ पूरा न्याय करते हुए अभिव्यक्त कर पाना अत्यंत कठिन है। मध्ययुगीन विरुदावलियों, भक्ति-धाराओं और चारण प्रवृत्तियों से इतर आज की कविता में जब समय का क्रूर यथार्थ उभरकर सामने आता है, तब कविता नहीं रह जाती। वह तो समय का दस्तावेज बन जाती है। ऐसी अभिव्यक्ति के लिए कवि को महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं/ बोलना और चलना होता है चार नहीं तो दो कदम ही/ आदमी की तरह आदमी के लिए ।। (महज लिखनी नहीं होती हैं कविताएं, पृ. 78)
कवि-कर्म की सार्थकता तो आदमी की तरह आदमी को देखने में ही है। इससे अलग हटकर कवि-कर्म अपना रास्ता भटक जाता है। संग्रह की कविता- जब वह दिन, में भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त हुए हैं। कवि जब अपने कवि-कर्म की ईमानदारी से च्युत हो जाता है, तब उसके द्वारा रचे हुए शब्दों की कड़ी कविता का रूप नहीं ले पाती है। तब उसके पास सबकुछ होता है, बस कविता नहीं होती है।
संग्रह का अंतिम खंड है- एक देश और मरे हुए लोग। इस खंड की कविताओं में व्यक्ति से लगाकर समाज तक की विविध मनोवृत्तियाँ देखने को मिलतीं हैं। इस खंड की कविताओं का परिचय सर्जन की जटिल पीड़ा को समेटे हुए है। व्यक्ति से लगाकर समाज तक की मनोवृत्ति को शब्द देते हुए कवि उस असहनीय पीड़ा को सहता-भोगता है और उसका अंत मर जाने में ही होता है। समय और समाज के कटु यथार्थ की ऐसी तीक्ष्ण अभिव्यक्ति पाठकीय चेतना को अंदर तक झकझोर देती है।
इस खंड में गालियां, एक पागल आदमी की चिट्ठी, पानी, आम आदमी की कविता तथा एक देश और मरे हुए लोग, शीर्षक कविताएँ हैं। सभी लंबी कविताएँ हैं। जटिल समय में सरल लोगों की, सीधे अर्थों में कहें तो आदमी की नजर से देखी जाने वाली दुनिया की मानसिकता का स्याह पक्ष लगभग सभी कविताओं में इस तरह प्रकट होता है कि पाठक यह सोचने को विवश हो जाता है कि क्या वास्तव में हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं?
संग्रह की शीर्षक कविता- एक देश और मरे हुए लोग, कविता-कथा है। कविता की शुरुआत भंते जी को एक ऐसे देश की कथा सुनाने से होती है, जिसमें हकीकत कथा की तरह लगती है और कथा हकीकत की तरह लगती है। इस लंबी कविता के अलग-अलग पड़ाव परत-दर-परत उस हकीकत को, उस मानसिकता को उघाड़ते चले जाते हैं, जिसका सुनना, जिसे जज्ब कर पाना और जिसके बीच जीने की मजबूरी को ढोना सरल नहीं रह जाता। इन सबके बीच एक साहित्यिक की सच्ची भूमिका के निर्वहन की नैतिक जिम्मेदारी को निभाता कवि कह उठता है-
कविता से हीन इस समय में/ शब्दों से हीन इस समय में/ मूल्यों से हीन इस समय में/ क्या कविता और दुख के साथ ही रहना है/ एक लंबी कविता है यह देश/ और दुखों का एक लंबा आख्यान यह लोकतंत्र ।। (एक देश और मरे हुए लोग, पृ. 151-152)
समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ समय के सत्य और वर्तमान के यथार्थ से सरोकार रखते हुए अतीत से वर्तमान तक को स्वयं में जज्ब किए हुए हैं। हर-एक कविता समय के कठघरे में खड़े देश को और देश के मरे हुए लोगों को उनके गुनाह सुनाती हुई नजर आती है। अपने परिवेश को बारीकी से देख पाना और उसे अभिव्यक्त कर पाना स्वयं में असाध्य, दुष्कर कार्य है। उससे भी ज्यादा जटिल और असंभव की पराकाष्ठा तक कठिन है, परिवेश के यथार्थ के पीछे की मानसिकता की परख कर पाना, उसे अभिव्यक्त कर पाना। समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ इसी कारण उत्कृष्टतम हैं। कविताओं के सृजन के माध्यम से कवि ने अपने परिवेश के यथार्थ में निहित मानसिकता का बारीक, सटीक, समग्र और सार्थक प्रस्तुतीकरण किया है।
एक भौगोलिक दायरे के अंदर रहने वाले लोग, एक व्यवस्था से संचालित होने वाले लोग, एक डंडे से हाँके जाने वाले लोग अपनी चेतना को, अपनी समझ को और अपनी मानसिकता को इस हद तक मार चुके हैं, इस कदर परमुखापेक्षी हो चुके हैं और सोचने-विचारने की अपनी शक्ति को इस तरह से खो चुके हैं कि जीते हुए भी वे जी नहीं रहे हैं। सामयिक यथार्थ के साथ जुड़े इस तथ्य पर गहनता के साथ, शिद्दत के साथ विचार करने को विवश कर देने के कारण समीक्ष्य कृति का शीर्षक अपनी सार्थकता को प्रमाणित कर देता है।
समीक्ष्य कृति में फदगुदिया, गीत-गँवनई, झुलनी, नथिया, जंतसार, सिनरैनी, मेहीनी, चटकल, भगुआ, चैती, कजरी और सरेह जैसे शब्द कवि के गाँव के साथ जुड़ाव को ही नहीं प्रकट करते, वरन् कविता की आदमियत वाली तासीर को जिंदा रखने की कोशिश करते नजर आते हैं, जो आज की कविता के प्रसंग से छिटकती जा रही है। शहरों के यांत्रिक जीवन के बीच, शहरों की भौतिकता के बीच, भौतिक जगत् के अभावों के बीच, भौतिकता के स्थापित प्रतिमानों से दूर गाँवों के सहज-सरल और इसी कारण दुर्लभ जीवन का स्वाद (मीठा या तीखा ?) आज की कविता के लिए सुलभ नहीं रह गया है। कवि ने कविता के वर्तमान की रिक्तता को भरने की भरसक और प्रायः सफल कोशिश अपनी कृति में की है।
समग्रतः, समीक्ष्य कृति को केवल अच्छी और सुंदर कविताओं के संग्रह के दायरे में रखकर देखा जाना संभव नहीं है। समीक्ष्य कृति बूँद से लगाकर सागर तक, व्यक्ति से लगाकर समाज तक मन और मानसिकता को जाँचने-परखने का पैमाना बन जाती है। देश, काल और समाज की मानसिकता को जानने के लिए जरूरी दस्तावेज के रूप में, कवि-कर्म और कवि-धर्म के निर्वहन हेतु जटिल, असाध्य संघर्ष की चेतना के स्तंभ के रूप में और मानवतावादी, मूल्य आधारित सर्जना के प्रयासों के एक आयाम के रूप में समीक्ष्य कृति अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, इस कारण पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है।
समीक्ष्य कृति- एक देश और मरे हुए लोग, विमलेश त्रिपाठी, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण- 2013, मूल्य- 99/- 
डॉ. राहुल मिश्र
(नूतनवाग्धारा, संयुक्तांक- 18-19, वर्ष- 7, सितंबर-2014 अंक में प्रकाशित)

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