भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग- 2
सन् 1913 में पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र और पहली बोलती हुई
फिल्म आलम आरा के सन् 1931 में रिलीज होने के बाद भारतीय सिनेमा ने पीछे मुड़कर नहीं
देखा। सन् 1913 से 1980 तक के सफर में देश की राजनीति, समाज, शिक्षा, कृषि, संस्कृति और जीवन-स्तर में कई बदलाव आए। इन बदलावों को कई
तरीकों से रुपहले परदे पर उतारते हुए भारतीय सिनेमा हर आम और खास दर्शक का बखूबी
मनोरंजन करता रहा। अस्सी का दशक आते-आते फिल्मी विधा बदलने लगी। सत्तर के दशक के
एंग्री यंगमैन के रचयिता सलीम-जावेद की जोड़ी टूट चुकी थी और सदी के महानायक अमिताभ
का सितारा भी बुझ रहा था। मर्द, शहंशाह और जादूगर जैसी फिल्में ज्यादा कामयाब नहीं रहीं।
अमिताभ बच्चन के अलावा राजेश खन्ना, राजकुमार, सुनील दत्त जैसे दिग्गज अभिनेताओं की फिल्में इस दौरान आईं, मगर ज्यादा चर्चित नहीं रहीं। अच्छे हीरो और हीरोइनों का
पारिवारिक फिल्मों में एकछत्र राज था। उन्हें देखने के लिए देश के सिनेमाघरों में
दर्शकों की अपार भीड़ होती थी। एक ओर हिंदी सिनेमा का नया स्वाद चखने के लिए जनता
बेकरार थी और दूसरी तरफ सन् 1982 में रंगीन टेलीविजन का देश में आगमन हुआ। ऐसे में सिनेमा
प्रेमियों ने सिनेमाघरों को रविवार तक ही सीमित कर दिया। फिर भी फिल्म निर्माता
शांत नहीं थे, इनका
प्रयोग जारी रहा। नए-नए आविष्कारों ने घिसे-पिटे डांस की जगह डिस्को डांस का
प्रचलन ला दिया, जिसके
आधार पर एक्शन फिल्में तैयार की जाने लगीं। इस दशक में नए नायकों और नायिकाओं का
फिल्म जगत में आगमन हुआ। सन् 1981 में रिलीज हुई सलमान खान की फिल्म मैंने प्यार किया
ब्लॉकबस्टर साबित हुई। 1986 में सुभाष घई की फिल्म कर्मा को जबरदस्त कामयाबी मिली। 1987 में शेखर कपूर एक अलग फिल्म मिस्टर इंडिया लेकर आए, जिसमें श्रीदेवी और अनिल कपूर लीड रोल में थे। 1988 में आमिर खान और जूही चावला की फिल्म कयामत से कयामत तक भी
खूब चर्चित रही। नक्सली दुनिया को छोड़कर फिल्मों में आए डांसिंग स्टार मिथुन
चक्रवर्ती ने लोगों पर ऐसा असर छोड़ा कि लोग उनके जैसे बाल कटवाने लगे, उनके जैसे कपड़े पहनने लगे। फिल्म एक दो तीन में माधुरी दीक्षित
और मिथुन चक्रवर्ती की जोड़ी दर्शकों की पसंद बन गई। फिल्म राजा बाबू में गोविंदा
का जादू चल गया, वहीं
पारिवारिक फिल्मों में जितेंद्र, श्रीदेवी, जयाप्रदा, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल की भूमिका सराहनीय रही। वर्ष 1991 में प्रदर्शित सौदागर से दिलीप कुमार और राजकुमार का 32 साल बाद आमना सामना हुआ। इस फिल्म में राजकुमार के बोले
जबरदस्त संवाद दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन
जाते हैं,
मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते हैं आज भी सिने
प्रेमियों के दिमाग में गूँजता रहता है। इसी फिल्म से मनीषा कोईराला और विवेक
मुशरान इलू इलू करते नजर आए। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म परिंदा भी बहुत
चर्चित रही। दशक के अंत में आमिर खान, सलमान खान और शाहरूख खान जैसे सितारे उभरे। इस तिकड़ी ने
हिंदी सिनेमा को चार चांद लगा दिए। ये सितारे हर अदा में नाचे, इनका जादू सिनेमा प्रेमियों के सिर चढ़कर बोला। बप्पी लहरी
की धुनों ने फिल्मों में नई जान डाली। सन् 1973 में यशराज फिल्म्स के माध्यम से निर्माण और निर्देशन की
शुरुआत करने वाले यश चोपड़ा ने 1989 में चाँदनी फिल्म
के माध्यम से फिल्मों में रोमांस की नई इबारत लिखी। यश चोपड़ा को हिंदी फिल्मों में
रोमांस के नए-नए अंदाज पेश करने के लिए जाना जाता है। इनके साथ ही खलनायकों की बात
करें तो अजीत, प्राण, अमजद खान, अमरीश पुरी, गुलशन ग्रोवर, शक्ति कपूर, रंजीत आदि ने विलेन की भूमिका निभाकर अपने अभिनय का लोहा
मनवाया। वहीं विश्व सुंदरियों ने अपनी प्रतिभा सिनेमा जगत में उड़ेलने में कसर नहीं
छोड़ी।अस्सी के दशक की बड़ी विशेषता सार्थक सिनेमा या नए सिनेमा आंदोलन की स्थापना
है। इस दशक में दर्शकों के लिए सिनेमा में समाज और समय के सच्चे और खरे यथार्थ को
देखने का अवसर मिला। मनोरंजनप्रिय दर्शकों को यह भले ही अटपटा लगा हो, मगर इससे प्रभावित बुद्धिजीवी दर्शकों का एक नया वर्ग तैयार
हुआ,
और इन फिल्मों को स्वीकार किया जाने लगा। श्याम बेनेगल ने
मंथन भूमिका, निशान्त, जुनून और त्रिकाल जैसी विविध विषयों का समेटती हुई अच्छी
फिल्में दर्शकों को दीं। सन् 1973 में आंध्र प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी श्याम
बेनेगल की फिल्म अंकुर ने समांतर भारतीय
सिनेमा आंदोलन की शुरुआत की। श्याम बेनेगल मशहूर फिल्म निर्देशक गुरुदत्त के भतीजे
थे। आगे चलकर वे भारतीय सिनेमा के प्रभावशाली निर्देशक के रूप में स्थापित हुए। प्रकाश
झा की दामुल, अपर्णा
सेन की 36 चौरंगी लेन, रमेश शर्मा की नई दिल्ली टाईम्स, केतन मेहता की मिर्चमसाला, गुलजार की इजाजत, मुजफ्फ़र अली की उमराव जान, तपन सिन्हा की आज का रॉबिनहुड और महेश भट्ट की पहली फिल्म
अर्थ आदि नए रुझान की फिल्में थीं। युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म
सलाम बॉम्बे के लिए 1989 में केन्स में गोल्डन कैमरा अवार्ड जीता। इसके साथ ही डाकू, कैबरे नृत्यों, मारधाड, पेडों के आगे पीछे गाना गाते हीरो-हीरोईन से उबे दर्शकों का
जायका बदलने लगा। नब्बे के दशक में संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का दौर चला, लेकिन गानों में पहले जैसा स्वाद नहीं था। ऐसा ही हाल
सिनेमा का भी हुआ। हिंदी सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय बनाने के प्रयास में बिना सिर
पैर की फिल्में बनने लगीं। सन् 1990 में आई महेश भट्ट की फिल्म आशिकी में समाज की उपेक्षा से आहत नायक और नायिका
एक-दूसरे के करीब आते हैं और अपना जीवन अपने अनुसार जीने के लिए संघर्ष करते हैं।
सन्1993 में आई 1942 ए लव स्टोरी भी
इसी तासीर की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक बन गई।1993 से 2002 के दशक में हिन्दुस्तान बहुत तेज़ी से बदल रहा था। उदारीकरण
ने देश के बाजारों को बदला और बाजार ने सिनेमा को। हिन्दी सिनेमा विदेशों में बसे
भारतीयों तक पहुँचा। राजश्री की हम आपके हैं कौन में बसा संयुक्त परिवार के प्रति
मोह तथा 1995 में आई यश चोपड़ा की दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे में भारत
की यादों में तड़पता एनआरआई विदेशों तक हिंदी फिल्मकथा की पहुँच का बखान करता है।
उसके बाद सन् 1997 में
यश चोपड़ा की दिल तो पागल है आई। इस दौर के उभरते सितारे शाहरूख खान एक ओर डर, बाज़ीगर और अंजाम के हिंसक प्रतिनायक की भूमिका में दिखे, वहीं दूसरी ओर कभी हाँ कभी ना, राजू बन गया जेंटलमैन और चमत्कार जैसी फिल्मों में एक
साधारण-से लड़के जैसे नजर आए। अपने समय के महानायकों दिलीप कुमार, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की तरह वे भी सिनेमा के लिए
बाहरी थे। फिल्मी खानदानों से अलग हटकर उन्होने अपनी मेहनत से अपने लिए जमीन तैयार
की थी।इस दशक में यथार्थवादी फिल्मों की दृष्टि से द्रोहकाल, परिन्दा, दीक्षा, माया मेमसाब, रूदाली, लेकिन, तमन्ना, बैंडिट क्वीन आदि उल्लेखनीय नाम हैं। क्षेत्रीय भाषाओं की
फिल्में भी इस दौर में पीछे नहीं थीं। अंजलि, रोजा और बॉम्बे दक्षिण भारत की ऐसी फिल्में हैं, जो अपनी लोकप्रियता को साथ लेकर हिंदी में डब हुईं।नई सदी में सिनेमा का नया दौर आया। रामगोपाल वर्मा ने इसका ढंग बदला तो मणि
रत्नम ने इसकी चाल। दिल चाहता है और सत्या जैसी फिल्में अपने दौर की कल्ट क्लासिक बनीं
और उन्होंने अपने आगे सिनेमा की नई धाराएं शुरू कीं। नई सदी के फिल्मकार मायानगरी
के लिए एकदम बाहरी थे और उन्होंने अपनी प्रतिभा के बलबूते इस उद्योग में पैठ बनाई।
तकनीक ने सिनेमा को ज्यादा आसान बनाया और सिनेमा बड़े परदे से निकलकर आम आदमी के
ड्राइंगरूम में आ गया। इसी बीच मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर आए और उनके साथ सिनेमा का
दर्शक बदला, विषय
भी बदले। अब सिनेमा में गाँव नहीं थे। यह स्याह शहरों की कथाएं थीं जिन्हें ब्लैक
फ़्राइडे में अनुराग कश्यप ने, मकबूल में विशाल भारद्वाज ने और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में
सुधीर मिश्र ने बड़े अदब से सुनाया। ऋतिक रोशन, रणबीर कपूर नई सदी के नायक हुए। सलमान खान और आमिर खान ने
नए समय में फिर से स्टारडम का शिखर देखा। लेकिन इन नायकों की सफलता के पीछे उनका
अभिनय कौशल नहीं, बल्कि नए-नए निर्माता-निर्देशकों की मेहनत और बेहतरीन पटकथाएँ थीं। इन पटकथाओं
में कहीं गाँव थे तो कहीं शहर थे। कहीं देश की ज्वलंत समस्याएँ थीं तो कहीं पर
समाज का बदलता स्वरूप था। इस दौर के सफल निर्माता-निर्देशकों में राजकुमार हिरानी, अभिनव कश्यप, इम्तियाज़ अली, प्रियदर्शन, प्रकाश झा आदि रहे, जिनके काम की ईमानदारी इन महानायकों की सफलताओं में बोलती
रही।सन् 2001 में आई लगान ने अपने समय में काफी धूम मचाई और ऑस्कर
पुरस्कार पाने की दौड़ में भी शामिल हुई। सन् 2002 में आई फिल्म ओम जय जगदीश से अनुपम खेर ने निर्देशन की
शुरुआत की। तीन भाइयों के बीच के भावनात्मक संबंधों को बड़े कलात्मक ढंग से बताती
इस फिल्म के साथ ही वहीदा रहमान की 11 वर्षों के बाद फिल्मों में वापसी हुई। प्रकाश झा की फिल्म
गंगाजल एक ईमानदार पुलिसवाले की भ्रष्ट व्यवस्था के साथ संघर्ष की कहानी लेकर आई।
इस फिल्म की कहानी 1979-80 में बिहार के भागलपुर में घटित एक सत्य घटना आंखफोड़वा कांड
से प्रेरित थी। इसी तरह सन् 2001 में एस. शंकर के निर्देशन में आई अनिल कपूर की फिल्म नायक
में एक दिन का मुख्यमंत्री राजनीति, भ्रष्टाचार और अपराध के गठजोड़ को प्रकट किया गया। सन् 2003 में आई रवि चोपड़ा की फिल्म बागबान उन माता-पिता के दुखद बुढ़ापे की कथा कहती है, जो अपने बच्चों के ऊपर बोझ बन जाते हैं। यह फिल्म उस आधुनिक
समाज का सच्चा आइना दिखाती है, जहाँ परिवार की मर्यादा पर आधुनिकता भारी पड़ रही है। सन् 2003 में रिलीज हुई फिल्म कोई मिल गया के माध्यम से राकेश रोशन
ने अपने बेटे रितिक रोशन के कैरियर को संभालने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर धरती के बाहर भी जीवन होने की संभावनाओं को
ऐसे रोचक ढंग से उठाया कि लोगों के जेहन में अनेक विचार उठने लगे। सन् 1857 की क्रांति के महानायक को रुपहले परदे में उतारने का
प्रयास केतन मेहता ने अपनी फिल्म मंगल पाण्डे
में किया। यह फिल्म सन् 2005 में रिलीज हुई। रोमांच, मनोरंजन, कलात्मकता, हकीकत और नसीहत से भरी फिल्में देने वाले प्रियदर्शन की सन्
2004 में रिलीज हुई फिल्म हलचल का अगला क्रम मालामाल वीकली, भूलभुलैया और दे
दनादन में आगे बढ़ता है। सन् 2007 में आई फिल्म गाँधी, माई फ़ादर में निर्माता अनिल कपूर और निर्देशक फिरोज अब्बास
नकवी ने महात्मा गाँधी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी के रिश्तों की तल्खी को सच्चाई
के साथ पेश करने की कोशिश की। सन् 2007 में आमिर खान की फिल्म तारे ज़मीन पर महत्त्वाकांक्षी माँ-बाप की उम्मीदों के पहाड़
तले दबकर घुटते एक ऐसे बच्चे की कहानी बयाँ करती है, जिसे अपने समय और समाज में आसानी से खोज लेना कठिन नहीं है।
इस फिल्म को 2008 का
सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार मिला है और दिल्ली सरकार ने इसे करमुक्त घोषित किया
है। ऐसी ही एक फिल्म पा है। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने अभिषेक बच्चन के बेटे का
किरदार निभाया है। बाल्की द्वारा निर्देशित यह फिल्म प्रोजोरिया नामक बीमारी से
पीड़ित 12 साल के बच्चे की कहानी बयाँ करती है।लीक से हटकर समाज में घटने वाली घटनाओं को रुपहले परदे पर उतारने के लिए मशहूर
श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्ज्नपुर
में सज्जनपुर ऐसा गाँव है, जो भारत के किसी खाँटी गाँव का सच्चा नक्शा उतारकर हमारे
सामने रख देता है। इस गाँव में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते लोग हैं, विधवा विवाह, अशिक्षा और अंधविश्वास जैसी सामाजिक समस्याएँ हैं। वोट
हासिल करने के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले नेता हैं और गांव के इकलौते पढ़े-लिखे
महादेव के रूप में ऐसा सामान्य व्यक्ति भी है, जो अपनी प्रेमिका कमला को चाहते हुए भी जब अपना नहीं बना
पाता तो उसकी खुशियों के लिए अपनी जमीन बेच देता है।सन् 2008 में रिलीज हुई नीरज पांडे द्वारा निर्देशित फिल्म ए
वेडनसडे में दोपहर दो बजे से लगाकर शाम छह
बजे तक की कथा है, मगर दर्शकों को कई दिनों तक सोचने को मजबूर कर देती है। आतंकवाद से त्रस्त आम
आदमी की असहाय स्थिति और उसकी ताकत, दोनों ही फिल्म में ऐसी शिद्दत के साथ प्रकट होती हैं कि
देखते ही बनता है। गंभीर विषयों के लिए चर्चित निर्देशक राजकुमार संतोषी ने अंदाज़
अपना अपना बनाकर साबित कर दिया था कि वे
हास्य पर भी अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं और लंबे अरसे बाद सन् 2009 में अपनी नयी फिल्म अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी के साथ उन्होने फिल्म जगत् को एक और स्वस्थ
हास्य फिल्म दी।लाइफ एक रेस है, तेज़ नहीं भागोगे तो कोई तुम्हें कुचलकर आगे निकल जाएगा और कामयाब नहीं, काबिल बनो, जैसे नसीहत भरे संवाद लेकर आई राजकुमार हिरानी की फिल्म 3 ईडियट्स भारतीय शिक्षा प्रणाली की कमियों और उसकी वजह से विद्यार्थियों
के किताबी कीड़ा बन जाने की भयावह स्थितियों को उजागर करती है। पढ़ाई की रॅट्टामार
शैली पर व्यंग्य करती फिल्म साल 2009 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनी। अंग्रेजी उपन्यासकार चेतन भगत
के आईआईटी पर आधारित उपन्यास 5 पॉइंट सम वन से मिलती-जुलती होने की वजह से यह विवादों में भी रही। सन् 2010 में निर्माता आमिर खान और निर्देशक अनुषा रिजवी के
प्रयासों से आई फिल्म पीपली लाइव को श्याम बेनेगल की फिल्म वेलडन अब्बा के आगे की कथा कहा जा सकता है। इन दोनों
फिल्मों में भारत के धुर ग्रामीण समाज की विवशताओं को दिखाने का प्रयास किया गया
है। कर्ज के कारण मरने को मजबूर किसान नत्था की खबर को सनसनीखेज बनाने में जुटे
मीडिया की संवेदनहीनता को भी फिल्म में शिद्दत के साथ प्रकट किया गया है। सन् 2010 में आई निर्देशक हबीब फ़ैसल की फिल्म दो दूनी चार में
मजाकिया ढंग से प्रस्तुत की गई कहानी ऐसी लगती है, जैसे वह हमारी ही कहानी हो। फिल्म महानगरीय जीवन में एक
मध्यवर्गीय परिवार की परेशानियों और जोड़ तोड़ को बेहद वास्तविकता के साथ चित्रित
करती है। इसी तरह ईगल फिल्म्स के बैनर तले राजीव मेहरा की फिल्म चला मुसद्दी आफिस
आफिस घपलों-घोटालों और कार्यालयों में
व्याप्त भ्रष्टाचार को इस तरह प्रकट करती है कि सच्चाई और रुपहले परदे पर चलते
चित्रों के बीच कोई अंतर नहीं दिखता है। फिल्म का नायक मुसद्दीलाल अपनी बंद हुई
पेंशन पाने के लिए स्वयं को जिंदा साबित करने में लगा हुआ है।सन् 2010 में आई निर्माता अमिता पाठक और निर्देशक अश्विनी धीर की
फिल्म अतिथि तुम कब जाओगे की कहानी महानगरीय संस्कृति के कारण टूटते पारिवारिक
संबंधों की कड़वी हकीकत को शिद्दत के साथ बयाँ करती है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि
हम अपनी आने वाली पीढ़ी को संवेदनहीन होने की नसीहत देकर किस ओर ले जा रहे हैं। सुभाष
कपूर की फिल्म फँस गए रे ओबामा वैश्विक
मंदी के लोकल इफेक्ट को मजाकिया अंदाज में पेश करती है। अमिर खान की फिल्म तलाश और
दिल्ली बेल्ली, गौरी
शिंदे की फिल्म इंगलिश विंगलिश, सौरभ शुक्ल की फिल्म बर्फी, अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर, मिलन लुथुरिया की फिल्म द डर्टी पिक्चर, श्रीराम राघवन की फिल्म एजेंट विनोद, पंकज कपूर की फिल्म मौसम, प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण, अनुराग कश्यप की फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स और अजय सिन्हा की खाप आदि ऐसी फिल्में हैं, जो अपने अलग-अलग अंदाज लेकर आईं हैं और अपने ज्वलंत विषयों
के माध्यम से समाज को सोचने के लिए मजबूर कर देने की क्षमता रखती हैं। इस दौर में
जिस्म औरजन्नत आदि फिल्में भी आईं, मगर इनमें मानसिक विकृतियों को ही ज्यादा स्थान मिला।सत्तर-अस्सी के दशक तक हिंदी फिल्मों के साथ बेहतरीन गीतों का मेल हुआ करता
था। मशहूर शायरों, ग़ज़लकारों के बेहतरीन नगमे हुआ करते थे। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, मुकेश, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति और अनुराधा पोडवाल जैसे कई गायक-गायिकाओं
के मीठे सुर दर्शकों-श्रोताओं का मन मोह लेते थे। इनमें से कई यादगार नगमे अक्सर
लोगों की जुबाँ पर होते थे। हॉलीवुड की नकल करते हुए बॉलीवुड से फिल्मी नगमों की
वह पुरानी मिठास गायब होती चली गई। नई सदी में अशोक मिश्र, अमित मिश्र, प्रीतम चक्रवर्ती, अंजन अंकित, संजोय चौधरी, साजिद-वाजिद और शांतनु मोइत्रा जैसे गीतकारों के गीतों में
डिस्को-डांस की कान फोड़ने वाली थिरकन तो दिखी, मगर गीतों से मिलने वाली अजीब-सी तसल्ली नहीं मिली। हालाँकि
नई सदी के कुछ गीत यादगार भी बने।
दादासाहेब फाल्के के जमाने की मूक फिल्मों की शुरआती तकनीक से लगाकर आज के दौर
की थ्री डी तकनीक तक फिल्म निर्माण में कई उतार-चढ़ाव आए। आज फिल्में बनाना उतना
कठिन और मेहनत भरा काम नहीं रह गया। तकनीकी सुविधाएँ बढ़ने के बावजूद बॉक्स ऑफिस
में कई फिल्मों की लागत करोड़ों तक पहुँच जाती है। जो फिल्म जितनी महँगी होने लगी, वह उतनी ही ज्यादा कारगर मानी जाने लगी। इस तरह फिल्म
व्यवसाय भी भौतिकता की अपार चकाचौंध में खोता चला गया।इन सबके बावजूद साल भर में सर्वाधिक फिल्में बनाने में भारत अग्रणी है। हिंदी
के साथ ही भारत की अनेक भाषाओं-बोलियों में फिल्म व्यवसाय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी
को पूरी तरह से निभाते हुए लगातार आगे बढ़ रहा है। राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने
में भी फिल्म व्यवसाय का अमूल्य योगदान है। देश की विविध भाषाओं-बोलियों की
प्रसिद्ध फिल्मों की डबिंग ने सारे देश को एक सूत्र में जोडने का काम किया है।
इतना ही नहीं, विदेशों
तक भारतीय फिल्मों की गूँज सुनाई देती है। भारतीय फिल्मों को भले ही हॉलीवुड की
तरह सम्मान या बड़े-बड़े पुरस्कार नहीं मिले हों, फिर भी भारतीय फिल्मों के संस्थापक दादासाहब फाल्के से
लगाकर इक्कीसवीं सदी में भारत के दूरदराज क्षेत्रों से आने वाले नए-नवेले
निर्माता-निर्देशकों तक फिल्म व्यवसाय को समाज के हित में लगाने का जज्बा बरकरार
है। आने वाले समय में भारतीय फिल्में अपनी इस जिम्मेदारी को और भी अच्छे तरीके से
निभाएँगी,
ऐसी संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।
डॉ. राहुल मिश्र
(आकाशवाणी, लेह से प्रसारित)
(आकाशवाणी, लेह से प्रसारित)