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Wednesday 8 January 2020

बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यात्रा-कथा (एक गिरमिटिया की गौरवगाथा)


बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यात्रा-कथा
(एक गिरमिटिया की गौरवगाथा)
अगर यह पता चले, कि रामलीला देखने का शौक भी किसी के लिए मुसीबत का सबब बन सकता है, और रामलीला देखने के लिए जाना ही किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसी ‘रामलीला’ का रूप ले सकता है, कि चौदह वर्षों के बजाय जीवन-भर का वनवास मिल जाए, तो सुनकर निश्चित तौर पर अजीब लगेगा। इसके बाद अगर पता चले, कि यह वनवास उस व्यक्ति के लिए संकट का लंबा समय लेकर जरूर आया, मगर संकटों-विपत्तियों से भरे कालखंड ने उस व्यक्ति को ऐसी बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी, जिसने कालांतर में उस व्यक्ति को एक देश का जनकवि ही नहीं राष्ट्रकवि बना दिया, तो बेशक आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहेगा। इस तमाम बातों के साथ ही अगर यह कह दें, कि वह महान व्यक्ति अपने बुंदेलखंड का बाँका नौजवान था, तब क्या कहेंगे? शायद जुबाँ पर शब्द नहीं आ पाएँगे, केवल और केवल गर्व की अनुभूति होगी...निःशब्द रहकर....।
बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यह यात्रा-कथा उसी गर्वानुभूति की ओर ले जाने वाली है, जिसमें बुंदेलखंड का एक बाँका नौजवान तमाम मुश्किलों-कष्टों को सहते हुए, संघर्ष करते हुए न केवल अपना नाम रोशन करता है, वरन् समूचे बुंदेलखंड का गौरव बढ़ाता है। निश्चित तौर पर उसके संघर्ष के पीछे, उसकी जिजीविषा के पीछे बुंदेलखंड के पानीदार पानी और जुझारू जमीन के तमाम गुणों ने अपना असर दिखाया था।
यहाँ जिस बाँके बुंदेलखंडी नौजवान की सूरीनाम पहुँचने और वहाँ के क्रांतिकारी जनकवि बनने यात्रा-कथा है, उसने अपने जीवन के संघर्षों को, साथ ही अपने गिरमिटिया साथियों के संघर्षों को डायरी में उकेरा, जिसने बाद में आत्मकथा का रूप ले लिया। संघर्ष के कठिन समय में लिखी गई उनकी डायरी के अस्त-व्यस्त पन्नों को समेटकर जुटाई गई जानकारी और उनकी दो पुस्तकों से एक व्यक्ति का ही नहीं, एक युग का, एक देश का अतीत परत-दर-परत खुलता है। उनकी दैनंदिनी के पन्नों को समेटकर सन् 2005 में ‘आटोबायोग्राफी ऑफ एन इंडेंचर्ड लेबर- मुंशी रहमान खान’ नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ था।
मुंशी रहमान खान अपने बारे में परिचय देते हुए अपनी कृति- ज्ञान प्रकाश में लिखते हैं-
कमिश्नरी इलाहाबाद में जिला हमीरपुर नाम ।
बिंवार थाना है, मेरा मुकाम भरखरी ग्राम ।।
सिद्ध निद्धि वसु भूमि की वर्ष ईस्वी पाय ।
मास शत्रु तिथि तेरहवीं डच-गैयाना आय ।।
गिरमिट काटी पाँच वर्ष की, कोठी रूस्तम लोस्त ।
सर्दार रहेउँ वहँ बीस वर्ष लों, लीचे मनयर होर्स्त ।।
अग्नि व्योम इक खंड भुईं ईस्वी आय ।
मास वर्ग तिथि तेरहवीं गिरमिट बीती भाय ।।
खेत का नंबर चार है, देइक फेल्त मम ग्राम ।
सुरिनाम देश में वास है, रहमानखान निज नाम ।।
मुंशी रहमान खान ने अपने बारे में लगभग सारी बातें इन पंक्तियों में बता दीं, किंतु उनका सूरीनाम तक का सफर इतना भी सरल नहीं था। मोहम्मद खान के पुत्र मुंशी रहमान खान का जन्म हमीरपुर जिले के बिंवार थाना में आने वाले भरखरी गाँव में सन् 1874 ई. को हुआ था। मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे एक सरकारी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए थे। बचपन से ही जिज्ञासु और कलाप्रेमी मुंशी रहमान खान को रामलीलाओं से बड़ा लगाव था। संभवतः इसी कारण वे अध्यापन-कार्य से बचने वाले समय का सदुपयोग रामलीला आदि देखने में किया करते थे।
सन् 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम के बाद बुंदेलखंड अंचल में भी अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था, और वर्तमान बुंदेलखंड का हमीरपुर जनपद संयुक्तप्रांत के अंतर्गत आ गया था। हमीरपुर से लगा हुआ कानपुर नगर बड़े व्यावसायिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था और अंग्रेजों के लिए बड़ा व्यावसायिक केंद्र था। दूसरी तरफ, कानपुर का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी रहा है। सचेंडी के राजा हिंदू सिंह ने कानपुर में रामलीलाओं के मंचन की शुरुआत सन् 1774 ई. में की थी। इसके बाद कानपुर के अलग-अलग इलाकों, जैसे- जाजमऊ, परेड, गोविंदनगर, पाल्हेपुर (सरसौल) आदि की रामलीलाओं के कारण कानपुर की अपनी प्रसिद्धि रही है। रामलीला के अंतर्गत आने वाली धनुषयज्ञ की लीला का जन्म ही बुंदेलखंड में हुआ था, जो कालांतर में कानपुर तक प्रसिद्ध हुई। इन कारणों से तमाम लीलाप्रेमियों के लिए कानपुर जाकर रामलीला देखना अनूठे शग़ल की तरह होता था। मुंशी रहमान खान भी इसी शौक के कारण कानपुर पहुँच गए। कानपुर में उनकी मुलाकात दो अंग्रेज दलालों से हुई, जो कानपुर और बुंदेलखंड के आसपास के इलाकों से किसानों-कामगारों को दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में कामगार मजदूर के तौर पर ले जाते थे।
कानपुर, मद्रास, कलकत्ता और बंबई; चार ऐसे बड़े केंद्र थे, जहाँ आसपास के ऐसे किसानों-मजदूरों को पकड़कर ले जाया जाता था, जो प्रायः लगान नहीं चुका पाते थे। हालाँकि मुंशी रहमान खान के सामने ऐसा संकट नहीं था, किंतु वे भी अंग्रेज दलालों के झाँसे में आ गए और गिरमिटिया मजदूर के रूप में उन्हें सूरीनाम भेजने का बंदोबस्त कर दिया गया। वस्तुतः, गिरमिटिया शब्द अंग्रेजी के ‘एग्रीमेंट’ से विकृत होकर बना है। ‘एग्रीमेंट’ या करार के तहत विदेश भेजे जाने वाले मजदूर ही ‘एग्रीमेंटिया’ और फिर गिरमिटिया बन गए थे।
सन् 1898 ई. में 24 वर्ष की आयु में मुंशी रहमान खान को गिरमिटिया मजदूर के तौर पर कानपुर से कलकत्ता, और फिर सूरीनाम के लिए जहाज से रवाना किया गया। दक्षिण अमेरिका के उत्तर में स्थित सूरीनाम अंग्रेजों का उपनिवेश था, जिसमें बड़ी संख्या में गिरमिटिया मजदूरों को अंग्रेजों ने बसाया था। भारत से सूरीनाम तक की जहाज की यात्रा भी बहुत कष्टसाध्य और लंबी होती थी। इस यात्रा में कई मजदूर रास्ते में ही दम तोड़ देते थे। इन विषम स्थितियों के बीच जब मुंशी रहमान खान ने समुद्री यात्रा शुरू की, तब उन्होंने दो बातें अच्छी तरह से समझ ली थीं। पहली यह, कि अब वे शायद कभी लौटकर नहीं आ सकेंगे, और दूसरी यह, कि उनके साथ जहाज में सवार अनपढ़-असहाय गिरमिटिया मजदूरों के कल्याण के लिए भी उन्हें समर्पित होना पड़ेगा।
समूचे मध्य भारत के लिए श्रीरामचरितमानस के प्रति ऐसे आदर्श और पवित्र ग्रंथ की मान्यता रही है, जो विपत्ति के समय रास्ता दिखा सकता था। आज भी ऐसा ही माना जाता है। इसी कारण पढ़े-लिखे, और साथ ही अनपढ़ों के पास भी मानस की प्रति जरूर होती थी। बुंदेलखंड के गाँवों में आज भी तमाम ऐसे लोग मिल जाएँगे, जिनको मानस कंठस्थ है। गिरमिटिया मजदूरों के लिए भी परदेश में, आपद-विपद में मानस का ही सहारा था। संकट केवल इतना था, कि मानस की पुस्तक साथ में होते हुए भी उसे पढ़ पाना जहाज में सवार अनपढ़ गिरमिटिया मजदूरों के लिए संभव नहीं था। जहाज में मुंशी रहमान खान के अलावा कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था। अपने सहयात्रियों को संबल-साहस देने के लिए मुंशी रहमान खान ने रामायण का पाठ करना शुरू कर दिया। वे नियमित रूप से ऐसा करते, और मानस को सुनकर गिरमिटिया मजदूरों को संकट से जूझने की नई ताकत मिलती थी।
सूरीनाम पहुँचने के बाद भी यह क्रम निरंतर चलता रहा, और इसी कारण मुंशी रहमान खान को  ‘कथावाचक’ की उपाधि मिल गई। सरकारी स्कूल में शिक्षक होने के कारण उन्हें ‘मुंशीजी’ कहा जाता था। कहीं-कहीं ऐसा भी बताया जाता है, कि वे सरकारी शिक्षक नहीं थे। वे गिरमिटिया मजदूरों के बच्चों को पढ़ाया करते थे, इस कारण लोग उन्हें सम्मान से ‘मुंशीजी’ कहने लगे थे। कारण चाहे जो भी रहे हों, किंतु उन्होंने अपनी नैतिक जिम्मेदारी को बहुत अच्छी तरह से निभाया। मुंशी रहमान खान को उर्दू लिखना नहीं आता था, इस कारण उन्होंने नागरी लिपि में ही रचनाएँ कीं। उन्होंने देशी भाषा में, और साथ ही दोहा-चौपाई छंदों में रचनाएँ कीं। इस कारण उनकी रचनाएँ सूरीनाम में रहने वाले गिरमिटिया मजदूरों के बीच बहुत प्रसिद्ध हुईं। इन रचनाओं में अकसर नीति-नैतिकता की शिक्षाएँ भी होती थीं। भारत से सूरीनाम पहुँचने वाले गिरमिटिया मजदूरों में सभी जातियों के लोग थे। उनमें हिंदू भी थे, और मुस्लिम भी थे। परदेस में सभी एक रहें, मिल-जुलकर रहें और अंग्रेजों के अन्याय-अत्याचार से संघर्ष हेतु एकजुट रहें, इस पर भी मुंशी रहमान खान ने बहुत जोर दिया, और रचनाएँ कीं। इसी कारण वे सूरीनाम में जनकवि के रूप में विख्यात हो गए। एक बानगी के तौर पर उनके द्वारा रचित चंद पंक्तियाँ-
दुई जाति भारत से आये । हिंदू मुसलमान कहलाये ।।
रही प्रीति दोनहुँ में भारी । जस दुइ बंधु एक महतारी ।।
सब बिधि भूपति कीन्हि भलाई । दुःख अरु विपति में भयो सहाई ।।
हिलमिल कर निशि वासर रहते । नहिं अनभल कोइ किसी का करते ।।
बाढ़ी अस दोनहुँ में प्रीति । मिल गये दाल भात की रीति ।।
खान पियन सब साथै होवै । नहीं विघ्न कोई कारज होवै ।।
सब बिधि करें सत्य व्यवहारा । जस पद होय करें सत्कारा ।।
मुंशी रहमान खान ने सूरीनाम में पाँच वर्षों तक गिरमिटिया मजदूर के रूप में काम किया, बाद में उनकी लोकप्रियता और उनकी काबिलियत को देखते हुए अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें मजदूरों के एक समूह का सरदार बना दिया। पहले गिरमिटिया मजदूर के तौर पर, और उसके बाद बीस वर्षों तक मजदूरों के सरदार के तौर पर वे अपने काम को करने के साथ ही सारे समूह को एकसाथ जोड़े रखने के लिए लगातार काम करते रहे। इस दौरान उनकी लेखनी भी नहीं रुकी। इसी के परिणामस्वरूप उनकी दोनों पुस्तकें- दोहा शिक्षावली और ज्ञान प्रकाश, क्रमशः सन् 1953 और 1954 ई. में तैयार हो गई थीं। उन दिनों सूरीनाम में हिंदी की पुस्तकों की छपाई भी बहुत कठिन रही होगी। इन पुस्तकों की छपाई आदि के संबंध में अधिक जानकारी तो नहीं मिलती, किंतु मुंशी रहमान खान द्वारा ‘ज्ञान प्रकाश’ में दिए गए विवरण से पता चलता है, कि उनकी ख्याति तत्कालीन राजपरिवार तक पहुँच चुकी थी, और रानी युलियान द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया गया था-
लेतरकेंदख स्वर्ण पद दीन्ह क्वीन युलियान ।
अजरु अमर दंपत्ति रहैं, प्रिंस देंय भगवान ।।
स्वर्ण पदक दूजो दियो मिल सन्नुतुल जमात ।
यह बरकत है दान की, की विद्या खैरात ।।
मुंशी रहमान खान ने इन दोनों सम्मानों का विस्तृत वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है। उनकी तीसरी पुस्तक का नाम है- जीवन प्रकाश, जो उनकी आत्मकथा है। इस पुस्तक में चार खंड हैं। इसके पहले खंड में उन्होंने अपने गाँव और अपने परिवार का परिचय देते हुए भारत की साझी संस्कृति को बड़े रोचक तरीके से लिखा है। इस खंड में ही उन्होंने सूरीनाम तक की अपनी यात्रा और वहाँ गिरमिटिया मजदूरों के जीवन का विशद वर्णन किया है। दूसरे खंड में उन्होंने सूरीनाम में अपने काम के बारे में बताया है। इस खंड में उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों से हुए झगड़ों के बारे में, अंग्रेजों द्वारा उन्हें मजदूरों का सरदार बनाए जाने के बारे में और साथ ही अपने जीवन-संघर्षों के बारे में बताया है। तीसरे खंड में उनके विविध संस्मरण हैं, जिनमें सूरीनाम के बदलते हालात भी हैं, देश-दुनिया के तमाम बदलावों की बातें भी हैं, सूरीनाम में सशक्त-सक्षम होते गिरमिटिया मजदूरों की जिंदगी भी है, और साथ ही भारत में चलते स्वाधीनता आंदोलन की झलक भी है। सन् 1931 में सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में सूरीनाम नदी के किनारे डिजवेल्ड इलाके में उन्होंने अपना मकान बनवाया, जहाँ वे अपने पाँच बेटों के साथ रहने लगे। उनकी आत्मकथा के चौथे खंड में बदलते सूरीनाम की दुःखद तस्वीर यक्साँ है। इसमें धर्म और जाति के नाम पर शुरू होने वाले झगड़े हैं, जो मुंशी रहमान खान के लिए बहुत कष्टप्रद दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि उन्होंने सदैव जाति-धर्म के झगड़ों को दूर करके एकता की बात कही, मेल-मिलाप की बात कही। उनके लिए राम और कृष्ण का भारत सदैव पूज्य रहा। उनके लिए सभी भारतवंशी एक माँ की संतान की तरह रहे। इस कारण बाद के वर्षों में बदलती स्थितियों के कारण उन्हें बहुत कष्ट हुआ, जो उनकी आत्मकथा के चौथे हिस्से में खुलकर उभरता है।
भारत में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन की खबरें भी मुंशी रहमान खान तक पहुँचती रहती थीं। अपने वतन से हजारों किलोमीटर दूर, एक तरह से कालापानी की सजा भोगते हुए भी उनके लिए अपने वतन के प्रति लगाव था। वे भारतदेश को आजाद देखना चाहते थे। भारत की आजादी की लड़ाई दुनिया के दूसरे उपनिवेशों के लिए प्रेरणा का स्रोत थी। मुंशी रहमान खान की कविताओं में इसी कारण भारत की आजादी की लड़ाई की झलक दिखाई पड़ती है, देश के स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के प्रति आस्था और सम्मान का भाव दिखाई देता है। इस सबके बीच वे अपनी बुंदेली बोली-बानी को भी नहीं भूल पाते हैं। उनकी दूसरी रचनाओं से कहीं अधिक बुंदेली की मिठास आजादी से संबंधित रचनाओं में उभरती है। एक बानगी-
नौरोजी, मिस्टर गोखले, गंगाधर आजाद,
मोतीलाल, पति, मालवी इनकी रही मर्याद,
इनकी रही मर्याद, बीज इनहीं कर बोयो,
भारत लह्यो स्वराज नाम गिरमिट का खोयो,
कहें रहमान कार्य शूरन के कीन्ह साज बिनु फौजी,
मुहम्मद, शौकत अली अरु चंद्र बोस, नौरोजी ।।
इन पंक्तियों में जहाँ एक ओर भारत की आजादी के आंदोलन के महानायकों का विवरण मिलता है, वहीं इन सेनानियों से प्रेरणा लेकर अपने देश को आजाद कराने का संदेश भी मुखर होता है। मुंशी रहमान खान सूरीनाम के गिरमिटिया मजदूरों को बड़ी सरलता और सादगी के साथ संदेश देते हैं, कि अब सूरीनाम ही हमारा वतन है। हमें इसको भी आजाद कराना है, और इसे आजादी दिलाने के लिए हमें भारत के स्वाधीनता सेनानियों से सीख लेकर गिरमिट या ‘एग्रीमेंट’ की दासता से मुक्त होना है।
सन् 1972 ई. में 98 साल की श्रीआयु पूरी करके मुंशी रहमान खान ने सूरीनाम में अपनी जीवन-लीला समाप्त की। वे भले ही सूरीनाम की आजादी नहीं देख पाए हों, किंतु उनके प्रयास निरर्थक नहीं गए। सूरीनाम की धरती पर अपने कदम रखने के बाद से ही जिस महामना ने सदैव लोगों को जोड़ने का, एकजुट होने का संदेश दिया; जिसने सदैव नीति-नैतिकता की शिक्षा दी, पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया, और फिर दुनिया में बदलते हालात के अनुरूप बदलते हुए सूरीनाम की आजादी की अलख जगाई, उसके प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की आस्थाएँ आज भी देखी जा सकती हैं। उन्हें सूरीनाम का राष्ट्रकवि माना जाता है। ऐसे महामना का संबंध जब बुंदेलखंड से जुड़ता है, तो असीमित-अपरिमित गर्व की अनुभूति होती है।
मुंशी रहमान खान अगर चाहते, तो पाँच साल का ‘एग्रीमेंट’ पूरा करके, गिरमिटिया का तमगा उतारकर अपने देश आ सकते थे, किंतु तमाम दूसरे गिरमिटिया मजदूरों की तरह वे नहीं आए। उन्होंने सूरीनाम को ही अपना देश मान लिया, वहाँ अपना परिवार बसाया। इतना ही नहीं भारतीय संस्कृति को, बुंदेलखंड की संघर्षशील-कर्मठ-जुझारू धरती के गुणों को सूरीनाम में अपने निर्वासित साथियों के बीच पुष्पित-पल्लवित किया। इस कारण मुंशी रहमान खान भारतीय संस्कृति के, बुंदेलखंड की तहजीब के संवाहक हैं; सांस्कृतिक दूत हैं। मुंशी रहमान खान की तीसरी पीढ़ी सहित अनेक गिरमिटिया मजदूरों की तीसरी-चौथी पीढ़ी आज सूरीनाम में फल-फूल रही है, और जिस आजादी को अनुभूत कर रही है, उसमें बहुत बड़ा योगदान बुंदेलखंड के इस बाँके नौजवान का है। हमें गर्व है, कि हमारी उर्वर बुंदेली धरा ने ऐसा हीरा उपजाया है।
(बुंदेली दरसन- 2019, बसारी, छतरपुर. मध्यप्रदेश में प्रकाशित)
राहुल मिश्र

Thursday 2 January 2020

फूलबाग नौचौक में बैठे राजा राम...




फूलबाग नौचौक में बैठे राजा राम...

मधुकरशाह महाराज की रानी कुँवरि गणेश ।
अवधपुरी से ओरछा लाई अवध नरेश ।।
सात धार सरजू बहै नगर ओरछा धाम ।
फूल बाग नौचौक में बैठे राजा राम ।।
तुंगारैन प्रसिद्ध है नीर भरे भरपूर ।
वेत्रवती गंगा बहै पातक हरै जरूर ।।
राजा अवध नरेश को सिंहासन दरबार ।
सह समाज विराजे, लिए ढाल तलवार ।।
आकाश में पूर्ण चंद्रमा की दूधिया चमक से आलोकित रामराजा मंदिर का प्रांगण.... चारों ओर जगमग करती रौशनियों को बीच तमाम भक्तगण संध्या आरती गा रहे हैं। कुछ भक्तगण दीपक हाथों में लिए रामराजा सरकार की आरती उतार रहे हैं, तो कुछ भक्तगण पुष्पदल को हाथों में लिए आरती की भाँति उतार रहे हैं। करतल ध्वनि के साथ भी कुछ रामराजा सरकार की आरती में सम्मिलित हैं। उधर रामराजा सरकार राजसी मुद्रा में विराजमान हैं; सह समाज, यानि माता जानकी, भ्राता लक्ष्मण और हनुमान के साथ। रामराजा का दरबार लगा हुआ है। द्वार पर रामराजा की ओर मुँह किये हुए सिपाही तैनात है, शस्त्र-सलामी की मुद्रा में....। रामराजा सरकार की आरती में सम्मिलित होने के लिए एकत्रित सारा जनसमूह भक्तिभाव से भरा हुआ है। सारा वातावरण भक्तिमय हो गया है। आरती के पूर्ण होते ही दरवाजे पर खड़ा सिपाही सलामी शस्त्र की अगली कार्यवाही करता है। उसके द्वारा सलामी देने के बाद रामराजा सरकार का दरबार आम लोगों के दर्शनार्थ खुल जाता है।
आज का रामराजा मंदिर अपने अतीत में रानी कुँवरि गणेशी का महल हुआ करता था। रानी कुँवरि गणेशी बुंदेले राजवंश की दूसरी पीढ़ी में आने वाले राजा मधुकरशाह की ब्याहता थीं। ओरछा राज्य में जितना मान-सम्मान राजा मधुकरशाह को प्राप्त था, उतना ही मान रानी कुँवरि गणेशी जू को मिलता था। आज भी बुंदेलखंड की जनता के बीच ये कमल जू राजा कमलापति रानी के रूप में ख्याति पाते हैं। राजा मधुकरशाह जूदेव के पिता राजा रुद्रप्रताप सिंह गढ़कुंडार से ओरछा आए थे। उस समय वेत्रवती या बेतवा नदी के किनारे इस पूरे इलाके में भयंकर जंगल था। वैसे यह क्षेत्र अपने अतीत के साथ ही धर्म-अध्यात्म-साधना के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज के ‘तुंगारैन’, यानि ओरछा के वन-प्रांतर का पुराना नाम ‘तुंगारण्य’ था। बेतवा नदी के किनारे-किनारे फैले घने जंगल में तुंग ऋषि का आश्रम था, ऐसी मान्यता है। कहा जाता है, कि राजा रुद्रप्रताप सिंह शिकार खेलते-खेलते तुंग ऋषि के आश्रम में पहुँच गए। बाद में तुंग ऋषि की प्रेरणा से उन्होंने ओरछा में नगर बसाने का प्रण लिया। वैसे पौराणिक प्रसंगों में उल्लेख मिलता है, कि तुंगक नाम के एक पवित्र वन में दधीचिपुत्र सारस्वत ने अपने शिष्यों को वेद पढ़ाए थे। क्या पता, यह तुंगक वन या तुंगारण्य वही हो...।
कुल मिलाकर राजा रुद्रप्रताप सिंह को बेतवा के किनारे का यह भूभाग, विंध्य की तलहटी का यह क्षेत्र इतना भा गया, कि उन्होंने अपने वंशजों के लिए विक्रम संवत् 1588 की बैशाख शुक्ल पंद्रहवीं तिथि को ओरछा महल का शिलान्यास कर दिया। दुर्योग ऐसा रहा, कि उनके समय में निर्माणकार्य शुरू ही हो पाया था, और उनका देहांत हो गया। इसके बाद उनके पुत्र राजा भारतीचंद्र ने ओरछा राजमहल के निर्माणकार्य को पूरा कराया।
ओरछा दुर्ग के ठीक सामने फूलबाग था, जहाँ राजा भारतीचंद्र ने रनिवास के रूप में नौचौका महल बनवाया। इस महल को यह नाम भी नौ कमरों के कारण मिला। यह महल ओरछा के किले की लगभग हर खिड़की से दिखाई देता है। बुंदेली स्थापत्यकला के इस अनूठे प्रतीक के आबाद होते-होते राजा भारतीचंद्र भी इस दुनिया से चल बसे।
राजा भारतीचंद्र के अनुज मधुकरशाह जू देव को संवत् 1611 में ओरछा की राजगद्दी मिली। उन्होंने आसपास के तमाम जागीरदारों को इकट्ठा करके ओरछा राज्य की विधिवत् स्थापना की। राजा मधुकरशाह के समय दिल्ली में हुमायूँ का शासन था। मुगलों के कई आक्रमणों का उन्होंने मुँहतोड़ जवाब दिया। हुमायूँ और अकबर, दोनों ही राजा मधुकरशाह को अपने कब्जे में नहीं ले पाए। राजा मधुकरशाह जितने वीर थे, उतने ही सौंदर्यप्रेमी और कलाप्रेमी भी थे। उन्होंने ओरछा दुर्ग का विस्तार किया और साथ ही नौचौका महल को व्यवस्थित कराने के बाद अपनी ज्येष्ठ रानी कुँवरि गणेशी जू को सौंप दिया। इस तरह आज का रामराजा मंदिर अपने अतीत में रानी कुँवरि गणेशी का निवास-स्थान बना था।
रानी कुँवरि गणेशी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की थीं। वे श्रीराम की उपासक थीं। राजा मधुकरशाह भी वैष्णवभक्त थे। वे कृष्ण के उपासक थे और राधावल्लभ संप्रदाय में उनकी विशेष आस्था थी। इस कारण वे जुगुलकिशोर जी के मंदिर में कृष्ण की सखी बनकर नृत्यगान किया करते थे। एक छोर पर राजा मधुकरशाह की कृष्णभक्ति थी, तो दूसरे छोर पर रानी कुँवरि गणेशी की रामभक्ति थी। हालाँकि दोनों की आस्थाएँ एक-दूसरे से टकराती नहीं थीं, लेकिन एक दिन बात बिगड़ ही गई। रानी ने कहा, कि आप सखी बनकर मंदिर में नृत्य करते हैं। मंदिर में तमाम लोग आते हैं। उन्हें रोका भी नहीं जा सकता। आप नारी रूप धारण करके प्रजा के सामने नृत्य करने में लीन हो जाते हैं। इससे राजकीय सम्मान और मर्यादा का उल्लंघन होता है। प्रजा पर भी इसका अच्छा असर नहीं पड़ता होगा। राजा मधुकरशाह को रानी की बात चुभ गई। इस पर राजा मधुकरशाह ने कृष्ण की सोलह कलाओं का वर्णन किया, तो रानी ने राम के मर्यादापुरुषोत्तम रूप की दुहाई दी। कुल मिलाकर दो भक्तों का भक्तिभाव आपसी टकराव का कारण बन गया।
नौचौका महल भी उस दिन दो भक्तों की रार-तकरार का साक्षी बना होगा, जिसने इतिहास के पन्नों में अमिट रेख खींच दी। राजा मधुकरशाह ने रानी कुँवरि गणेशी से वृंदावन चलने को कहा। रानी ने अयोध्या चलने की जिद मचाई। राजा मधुकरशाह ने बड़े गुस्से में कहा, कि- “जौ रामजी की एँसई भगत हौ सो अपुने राम को साथई लेके आईयो। नोंई हमखों आपुनो मुँह ना दिखाईयो।” रानी ने भी गुस्से में कहा, कि- “अगर मैं रामजी को अपने साथ न ला पाई, तो मैं लौटकर नहीं आऊँगी, अपना मुँह भी आपको नहीं दिखाऊँगी।” राजपरिवार के गुरु गोस्वामी हरिराम व्यास भी इनके झगड़े को सुलझा नहीं पाए। उन्होंने रानीजू को बहुत समझाया, मगर रानीजू नहीं मानीं। राजा मधुकरशाह भी अपनी जिद पर अड़े रहे। आखिरकार राजा साहब ने वृंदावन का रास्ता पकड़ लिया, और रानी कुँवरि गणेशी अयोध्या की तरफ चल पड़ीं। यह ऐतिहासिक घटना आज भी लोककंठों में जीती है-
रामभक्त बुंदेलवंश में हो गई ऐसी छत्रानी, नगर ओरछा की रानी ।
मधुकरशाह बुंदेलवंश में राजा भये ऐसे दानी, नगर ओरछा रजधानी ।।
राजा बोल उठे कर हाँसी, भारी प्रेम बान की गाँसी ।
कैसी भक्तिन हो गई रानी, लौटियो बिठा गोद सुखरासी ।।
रानी बोली पतिव्रता मैं, पति की सत्य करौ वानी, नगर ओरछा की रानी ।.....
राजा मधुकरशाह तो वृंदावन पहुँच गए, और अपने लाड़लीलाल मदनमोहन जुगुलकिशोरजू की भक्ति में रम गए, लेकिन रानी कुँवरि गणेशी के लिए अयोध्या पहुँचने के बाद जीवन-मरण का संकट ही आ गया था। विक्रम संवत् 1630 की आषाढ़ शुक्ल 12वीं तिथि को रानी कुँवरि गणेशी ने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया था। अयोध्या पहुँचने के बाद वे किस मुँह से ओरछा को वापस लौटेंगी, यह चिंता रानी को सताने लगी। वे सरयू नदी के किनारे बैठकर रामनाम स्मरण करने लगीं। उनकी साधना दिनों-दिन कठिन से कठिनतम होती गई, लेकिन राजा साहब के वचन को पूरा करने का रास्ता उन्हें नहीं सूझा। अंततः रानी कुँवरि ने तय किया, कि वे सरयू में अपने प्राण त्याग देंगी। कहा जाता है, कि ऐसा विचार करके उन्होंने तीन बार सरयू में छलाँग लगाई, लेकिन हर बार वे किनारे पर आ जाती थीं। चौथी बार जब उन्होंने सरयू में छलाँग लगाई, तो उनकी गोद में श्रीराम का विग्रह आ गया।
लोकजीवन में प्रचलित इस घटना के साथ जुड़ी कथा में प्रसंग आता है, कि रानी कुँवरि गणेशी ने रामलला से ओरछा चलने को कहा। रामलला ने कहा, कि मैं अयोध्या छोड़कर ओरछा कैसे चला जाऊँ? मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ मेरा परिवार है। सीता, लक्ष्मण और हनुमान हैं। आप तो मुझ अकेले को ही लेने आईं थीं। रानी ने कहा, कि आप पूरे परिवार सहित चलिये। राम ने पूछा, आप मुझे ओरछा क्यों ले जाना चाहती हैं? रानी ने कहा- हम आपको ओरछा का राजपाट सौंपना चाहते हैं। राम ने कहा, कि हम ओरछा तो चल देंगे, किंतु हमारी पहली शर्त यह है, कि हम पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करेंगे। दूसरी शर्त है, कि हम दिन में ओरछा में रहेंगे और रात्रि में अयोध्या आ जाएँगे। तीसरी शर्त यह है, कि ओरछा की सीमा में हमें जिस स्थान पर बैठा दिया जाएगा, हम वहाँ से किसी दूसरे स्थान पर नहीं जाएँगे। रानी ने कहा, कि हमें आपकी सभी शर्तें स्वीकार हैं।विक्रम संवत् 1630 की श्रावण शुक्ल पंचमी को हुई इस घटना की खबर न केवल अयोध्या में, बल्कि ओरछा तक फैल गई। राजा मधुकरशाह भी रानी कुँवरि के भक्तिभाव से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने तुरंत ही एक विशाल मंदिर का निर्माण ओरछा में शुरू करा दिया। राजा साहब की इच्छा थी, कि मंदिर ऐसे स्थान पर बने, कि राजमहल से सीधे दर्शन किये जा सकें। इसके साथ ही मंदिर का स्थापत्य एकदम अनूठा और अद्वितीय हो। इसके लिए राजा मधुकरशाह ने बुंदेला स्थापत्य के साथ ही नागर, द्राविड़ और मामल्य स्थापत्य शैली के कलाकारों को आमंत्रित किया और इन शैलियों के मिले-जुले रूप के साथ भव्य मंदिर के निर्माण का काम शुरू हो गया। आज रामराजा मंदिर के बगल में जिस भव्य चतुर्भुज मंदिर को हम देखते हैं, यह वही मंदिर था, जो रामराजा के लिए राजा मधुकरशाह ने बड़ी आस्था और भक्ति के साथ बनवाया था।
दूसरी तरफ रानी कुँवरि गणेशी अयोध्या से श्रीराम के विग्रह को लेकर चलीं। शर्त के अनुसार उन्हें पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करनी थी, और दिन में ही पैदल यात्रा करनी थी। इस कारण रानी को ओरछा पहुँचने में लगभग 08 माह, 27 दिन का समय लग गया। इतनी अवधि में बहुत तेजी के साथ काम करते-करते भी मंदिर का निर्माण पूरा नहीं हो पाया। पूरी तरह से मंदिर तैयार हो जाए, तब तक रामराजा को नौचौका महल में ही विश्राम कराया जाए, ऐसा विचार करके रानी उन्हें अपने साथ अपने नौचौका महल में ले गईं। रानीजू ने अपने आराध्य श्रीराम को भोजन कराने के लिए रसोईघर में बैठा दिया। इसके बाद तो रामराजा वहाँ से उठे ही नहीं। आज जिस स्थान पर रामराजा विराजमान हैं, वह रनिवास का रसोईघर हुआ करता था। मंदिर बनकर तैयार हो जाने के बाद भी रामराजा उस स्थान से नहीं हिले। वहीं पर उनका ओरछा के राजा के रूप में राज्याभिषेक भी हुआ। ओरछा ही नहीं, समूचे बुंदेलखंड में यह सारी घटना लोकजीवन में रच-बस गई।
लोग आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा के भाव से गाते हैं-
“मधुकरशाह नरेश की रानी कुँवरि गणेश, पुक्खन-पुक्खन लाई हैं ओरछे अवध नरेश ।”
“बैठे जिनकी गोद में मोद मान विश्वेश, कौशल्या सानी भईं रानी कुँवरि गणेश ।”
जनआस्था रानी गणेश कुँवरि को माता कौशल्या का, और राजा मधुकरशाह को राजा दशरथ का अवतार बना देती है। श्रीराम के जीवन में पुष्य नक्षत्र का विशेष योग रहा है। उन्होंने इसी नक्षत्र में अपना कमल रूपी नयन शिव को अर्पित किया था, ऐसा भी माना जाता है। इस कारण पुष्य नक्षत्र को बहुत पुनीत-पावन माना जाता है। इसी कारण ओरछा के लिए पुष्य नक्षत्र धार्मिक पर्व के समान महत्त्व-माहात्म्य रखता है।
रामराजा ओरछा के राजा हैं, इस कारण उनका वैभव भी राजसी है। इस मंदिर में श्रीराम का विग्रह अन्य राममंदिरों से अलग है, क्योंकि यहाँ राम राजसी मुद्रा में बैठे हुए हैं। उनकी आरती का समय भी एकदम निश्चित है, जिसे किसी भी दशा में बदला नहीं जा सकता। पिछले लगभग साढ़े चार सौ वर्षों से घड़ी की सुई देखकर इतने नियमित तरीके से रामराजा सरकार की आरती होती है, कि आरती के समय से आप अपनी घड़ी मिला सकते हैं। रामराजा सरकार ओरछा के राजा हैं, इस कारण ओरछा की सीमा के अंदर अन्य किसी को भी सलामी नहीं दी जाती है, भले ही वह अतिविशिष्ट पदधारी व्यक्ति क्यों न हो। सन् 1887 ई. के बाद लगभग समूचा बुंदेलखंड ‘यूनियन जैक’ के अधीन आ गया था। इसके साथ ही ओरछा राज्य को 17 तोपों की सलामी का अधिकार दिया गया था। यह सलामी भी ओरछा के किसी राजा को नहीं, बल्कि रामराजा सरकार को ही मिलती थी। आजादी के बाद राज्यों-रियासतों के भारत संघ में विलय के बाद राजवंशों को मिलने वाली सलामी समाप्त हो गई थी, लेकिन ओरछा राज्य में रामराजा को सलामी आज भी दी जाती है।
बुंदेलखंड के लोगों को आज भी इस बात का गर्व है, कि अयोध्या ने श्रीराम को वनवासी बना दिया, लेकिन हमने उन्हें राजपाट दिया है। आज भी लोग बड़े गर्व के साथ गाते हैं-
“अवध की रानी ने तो वनवासी बनाए राम, पर मधुकर की रानी ने रामराजा बनाए हैं ।”
यह गर्व का भाव लोकगीतों और लोककथाओं में ही नहीं, बल्कि बुंदेलखंड के चरित्र में, रानी कुँवरि गणेशी-महाराजा मधुकरशाह के व्यक्तित्व और कृतित्व में भी रचा-बसा हुआ है। जिस समय देश के बड़े हिस्से में मुगलों का शासन था; उस समय असुरक्षा, आतंक, अन्याय, अत्याचार और अराजकता से भरे माहौल में देश की निरीह जनता का नेतृत्व करने के स्थान पर, उसे मार्गदर्शन देने की जगह राजशक्ति या राजे-रजवाड़े आपसी कलह और अंतर्द्वंद्व से जूझ रहे थे। हिंदी साहित्य का भक्तियुग (संवत् 1375 से संवत् 1700 विक्रमी तक) अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभा रहा था। भक्तकवि जनता को राह दिखाने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे जटिल समय में, जबकि तमाम राजाओं-राजपरिवारों के लिए स्वयं के अहं की तुष्टि और व्यक्तिगत स्वार्थ ही महत्त्वपूर्ण हो गए थे, उस समय एकमात्र ओरछा राज्य का राजपरिवार ही ऐसा था, जिसने राम को राजा बनाकर समाज को नीति-नैतिकता और आदर्शों पर चलने का रास्ता दिखाया था। जटिल, विषम और संघर्षपूर्ण स्थितियों के बीच महाराजा मधुकरशाह अपने आत्मसम्मान और आत्मगौरव के साथ डटकर खड़े हुए थे। उनको मिली टीकमशाह की उपाधि इसकी साक्षी है।
ओरछा राजमहल में एक धुँधला-सा भित्तिचित्र आज भी राजा मधुकरशाह की वीरता और उनके आत्मसम्मान की गौरवगाथा कहता है। इस चित्र में अकबर का दरबार लगा हुआ है। आसपास कुछ कुत्ते जीभ निकाले हुए खड़े हैं, और उनके बीच में महाराजा मधुकरशाह अपनी तलवार निकाले हुए तनकर खड़े हैं। कहा जाता है, कि अकबर ने एक बार यह राजाज्ञा निकाली, कि उसके दरबार में कोई भी दरबारी-सामंत तिलक लगाकर, माला पहनकर नहीं आएगा। राजा मधुकरशाह ने बुंदेलखंड के राजाओं-सामंतो से कहा, कि वे अपमानित करने वाली इस राजाज्ञा का बहिष्कार करें। सभी ने इसके लिए सहमति तो दे दी, लेकिन वे डर के कारण सूने माथे के साथ दरबार में पहुँच गए। दूसरी तरफ राजा मधुकरशाह नाक की नोक से माथे तक लंबा तिलक लगाकर पहुँचे। अकबर के द्वारा अवमानना का कारण पूछने पर वे तलवार निकालकर खड़े हो गए। उनकी निर्भीकता और साहस को देखकर दूसरे राजा और सामंत भी राजा मधुकरशाह के समर्थन में खड़े  हो गए। स्थिति को बदलते देख अकबर ने कहा, कि आपके धर्मपालन और आपकी निर्भीकता को देखकर मैं बहुत प्रभावित हूँ। तब से राजा मधुकरशाह को टीकमशाह की उपाधि मिल गई और बुंदेलखंड में मदुकरशाही तिलक का नया चलन भी शुरू हो गया। टीकमगढ़ नगर के अस्तित्व में आने की कहानी भी इसी प्रसंग से जुड़ी हुई है।
मुगलों के लिए बुंदेला शासकों को कब्जे में लेना आसान नहीं था। इस कारण वे मजबूरी में मैत्री-भाव रखते थे, और अंदर ही अंदर ईर्ष्या का भाव रखते थे। महाराजा मधुकरशाह और उनके पुत्र राजा वीरसिंह जू देव के शासनकाल में ओरछा राज्य को अपने कब्जे में लेना मुगलों के लिए संभव नहीं रहा। जिस समय शाहजहाँ आगरा की गद्दी पर बैठा, उस समय राजा वीर सिंह के पुत्र जुझार सिंह ओरछा के राजा थे। जुझार सिंह की स्वतंत्रता शाहजहाँ की आँखों में खटकती थी, लेकिन जुझार सिंह को जीत पाना उसके लिए संभव नहीं था। इसलिए उसने छल-छद्म का सहारा लिया। राजा जुझार सिंह के अनुज दिमान हरदौल बहुत वीर और पराक्रमी थे। उन्होंने अपने विश्वस्त सैनिकों की बुंदेली सेना बना रखी थी, जो हर समय उनके साथ रहती थी, और मुगलों के हर आक्रमण का मुँहतोड़ जवाब देती थी। राजा जुझार सिंह अकसर ओरछा से बाहर रहते थे। इसका लाभ उठाकर उनके दोगले सरदार हिदायत खाँ ने दिमान हरदौल और रानी चंपावती के बीच देवर-भाभी के पवित्र संबंध पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। राजा जुझार सिंह हिदायत खाँ की चाल को समझ नहीं पाए और अपनी रानी चंपावती से सतीत्व की परीक्षा देने के लिए दिमान हरदौल को विष पिलाने की जिद पर अड़ गए। रानी चंपावती ने बहुत समझाया, लेकिन राजा जुझार सिंह टस से मर नहीं हुए। अंततः दिमान हरदौल ने विषपान करके मर्यादा, नैतिकता की अनूठी मिसाल कायम की।
दिमान हरदौल के व्यक्तित्व ने बुंदेलखंड के लोकजीवन में ऐसी अमिट छाप छोड़ी, कि आज भी उनके नाम के चबूतरे हर गाँव में मिलते हैं। पवित्र संबंधों की दुहाई देने के लिए, मर्यादित-संयमित-वीरत्व से पूर्ण जीवन को स्मरण करने के लिए शादी-विवाह-शुभकार्यों का पहला निमंत्रण भी दिमान हरदौल को दिया जाता है। दिमान हरदौल का बैठका रामराजा मंदिर के बाईं ओर है। लोग उनको स्मरण करते हुए आज भी गाते हैं- “बुंदेला देसा के हो, लाला प्यारे भले हैं लछारेओ ना।” बुंदेलखंड के प्यारे लाला हरदौल को कभी न भुलाने, कभी ना छोड़ने की बात करते ये ‘हरदौल के गीत’ ओरछा ही नहीं, सारे बुंदेलखंड की अनूठी पहचान गढ़ते हैं।
चतुर्भुज मंदिर, रामराजा सरकार का नौचौका महल, और हरदौल का बैठका एक क्रम के साथ ओरछा नगरी में स्थापित हैं। विशालकाय-भव्य चतुर्भुज मंदिर को छोड़कर रानी कुँवरि गणेशी के महल में विराजने वाले रामराजा देवत्व को तजकर नरश्रेष्ठ के रूप में मर्यादा-नैतिकता-आदर्श जीवन की पराकाष्ठा को लेकर नौचौका महल में विराजते हैं। राजा के रूप में प्रतिष्ठित मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का सामान्य मानव के रूप में, हमारे अपने जैसे लोगों के बीच में मर्यादित-संस्कारित, नीति-नैतिकतापूर्ण, वीरत्व-नायकत्व से विभूषित जीवन का उत्कृष्ट साक्ष्य हरदौल के रूप में उपस्थित होता है। इस कारण हरदौल बैठका जीवंत तीर्थ की प्रतिष्ठा को पाता है। यही सब मिलकर ओरछा के, समूचे बुंदेलखंड के चरित्र को गढ़ता है। इसी कारण ओरछा के कण-कण में तीर्थ रमता है, बसता है। ओरछा निवासी राकेश अयाची जी  के शब्दों में-
मधुकरशाह श्रेष्ठ राजा थे कुँवरि गणेशी रानी ।
राजा रामचंद्र की प्रतिमा जिनकी अमर निशानी ।।
देवतुल्य हरदौल लला थे सच्चे प्रेम पुजारी ।
जिनके कारण पूजा होती घर-घर आज तुम्हारी ।।
किसी देव से निम्न नहीं है कण-कण पूज्य तुम्हारा ।
धन्य-धन्य है श्रेष्ठ ओरछे, शत-शत नमन हमारा ।।

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी, अमृतसर, पंजाब द्वारा प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिकी- बरोह के जून, 2019 अंक में प्रकाशित, संपादक- डॉ. शुभदर्शन)
डॉ. राहुल मिश्र

Friday 2 June 2017

मड़फा दुर्ग : जहाँ कथाएँ आज भी जिंदा हैं




मड़फा दुर्ग : जहाँ कथाएँ आज भी जिंदा हैं

बुंदेलखंड का विंध्य अंचल अपने अतीत से ही अनेक पुरा-कथाओं और मिथकों का केंद्र रहा है। यहाँ कण-कण में ऐसी रोमांचकारी कथाएँ बसी हैं, जो आज भी लोगों को आश्चर्य में भी डाल देती हैं और अपने आकर्षण में जकड़ भी लेती हैं। बाँदा जनपद के कालंजर दुर्ग के माहात्म्य को जानने वाले इतना अवश्य जानते होंगे की शैव-साधना का यह केंद्र एक रात में ही बनकर तैयार हो गया था। देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा ने कालंजर के दुर्ग को एक रात में ही बना दिया था, ऐसी मान्यता है। कालंजर के साथ ही कालंजर के पूर्वोत्तर की ओर लगभग सोलह मील दूर मड़फा का दुर्ग भी उसी रात बनना शुरू हुआ था, जिस रात कालंजर का निर्माण हो रहा था। ऐसी मान्यता है कि विश्वकर्मा जी ने पहले कालंजर का दुर्ग बनाया और उसके तैयार हो जाने के बाद मड़फा के दुर्ग को बनाने का काम शुरू किया। रात बीत गई और मड़फा दुर्ग के पूरी तरह से नहीं बन पाने के कारण यह अधूरा ही रह गया। और वास्तव में यह दुर्ग कभी पूरी तरह से नहीं बन पाया। लोक-जीवन में जीवित यह कथा आज भी मड़फा की वीरानियों में गूँजती है। मड़फा दुर्ग का यह अधूरापन आज भी महसूस किया जा सकता है। इसकी वीरानियों में गुलज़ार होने की कसक आज भी महसूस होती है और इसी कारण बरबस ही लगता है कि यदि यह दुर्ग अधूरा न होता, तो शायद कालंजर से भी सुंदर, मोहक और आकर्षक होता। छत्रपति शिवाजी महाराज के शिवनेरी दुर्ग की भाँति अगम्य ऊँचाई में बना यह दुर्ग इतना समर्थ होता, कि कभी कोई आक्रांता इसे जीत नहीं पाता। वैसे भी इस दुर्ग को अजेय ही कहा जा सकता है, क्योंकि सन् 1780 में छछरिहा के युद्ध के पहले तक इस दुर्ग को जीतने में कोई सफल नहीं हो सका था। पन्ना के बघेल राजा हरिवंश राय और बाँदा के नवाब के बीच हुए छछरिहा के संग्राम के बाद यह दुर्ग अपना अस्तित्व खोता गया।
ऐसी मान्यता है कि महर्षि अर्थवर्ण का आश्रम मड़फा में ही था। महर्षि महाअर्थवर्ण को अथर्वा के नाम से भी जाना जाता है और उनके कारण ही चतुर्थ वेद के रूप में अथर्ववेद को जाना जाता है। महर्षि अथर्वा की पहचान महर्षि वेदव्यास के श्वसुर के रूप में, और इसी कारण मड़फा को वेदव्यास की ससुराल के रूप में भी जानते हैं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी पुस्तक ‘कृष्ण द्वैपायन व्यास’ में उल्लेख किया है कि एक बार महर्षि वेदव्यास अपनी माता सत्यवती से मिलने के लिए हस्तिनापुर (वर्तमान- ग्राम हस्तम, जनपद बाँदा) जा रहे थे। रास्ते में वाग्मती नदी (वर्तमान- बागे नदी, बदौसा, बाँदा) के पास कुछ अज्ञात लोगों ने उन्हें पकड़कर मारपीट शुरू कर दी, जिस कारण वेदव्यास बेहोश हो गए। वहाँ से गुजरते हुए महाअर्थर्वण के शिष्यों ने महर्षि व्यास की दयनीय दशा को देखा और उन्हें उठाकर महाअर्थवर्ण के आश्रम में ले आए। महाअर्थवर्ण की पुत्री वाटिका ने बड़ी लगन के साथ महर्षि व्यास की सेवा-सुश्रुषा की। बाद में महर्षि व्यास ने वाटिका से विवाह कर लिया और उनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे व्यासपुत्र सुखदेव के नाम से जाना जाता है।
अपनी जर्जर काया को आयुर्वेद की चिकित्सा के माध्यम से युवा कर लेने वाले महर्षि च्यवन का आश्रम भी मड़फा में था, ऐसी मान्यता है। चरक संहिता सहित आयुर्वेद की अनेक पुस्तकों के रचयिता और सुप्रसिद्ध वैद्य चरक ऋषि का आश्रम भी मड़फा में ही था। लोक-प्रचलित कथाओं और मिथकों का अनूठा संगम मड़फा में देखने को मिलता है। ऐसा माना जाता है कि माण्डव्य ऋषि के आश्रम से इस स्थान का नाम मड़फा पड़ा है। माण्डव्य ऋषि के आश्रम में कण्व ऋषि समेत अनेक ऋषि रहा करते थे। दुष्यंत और शकुंतला की पुरा-ऐतिहासिक गाथा के पुष्पन-पल्लवन का स्थान भी यही माना जाता है। दुष्यंत और शकुंतला की प्रेमकथा लोकजीवन से आश्रय पाकर आज भी कण-कण में गूँजती है। कण्व ऋषि की पालित पुत्री शकुंतला के पुत्र भरत ने मड़फा में ही शेर के दाँत गिने थे। राजा दुष्यंत के उत्तराधिकारी के रूप में अपने राज्य का विस्तार करके उसने ऐसे प्रतापी शासक का गौरव प्राप्त किया, जिसके नाम पर भरतखंड और भारतवर्ष को जाना जाता है। इस क्षेत्र के आसपास भरत के नाम से अनेक गाँव हैं, जो इस कथा के पुष्ट और सच होने को आश्रय प्रदान करते हैं। वेदव्यास के नाम से विकृत होकर बना वतर्मान का बदौसा और भरतकूप के निकट स्थित व्यासकुंड आदि के माध्यम से मड़फा परिक्षेत्र की पौराणिकता को प्रमाणित किया जा सकता है।

समुद्रतल से 1240 फीट ऊँचाई पर स्थित मड़फा के दुर्ग में गुप्तकालीन स्थापत्य के साथ ही चंदेलकालीन स्थापत्य की जर्जर उपस्थिति ही सही, मगर यह इस दुर्ग की प्राचीनता को, और साथ ही इसकी भव्यता को बखानती जरूर है। मड़फा के दुर्ग ने गुजरात से आए बघेलवंशी शासक व्याघ्रदेव को भी आकर्षित किया था। 1290 विक्रमी संवत् में व्याघ्रदेव ने यहाँ आकर मुकुंददेव चंद्रावत की कन्या सिंधुमती से विवाह किया और मड़फा दुर्ग बघेल शासकों के आधिपत्य में आ गया। वीरसिंह देव, वीरभान देव और रामचंद्र बघेल ने यहाँ पर शासन किया। बाद में बघेल शासकों ने अपनी राजघानी को रीवा स्थानांतरित कर दिया। इस तरह लगभग दो सौ वर्षों तक बघेलों के शासन की गवाही भी मड़फा दुर्ग के कण-कण में दिखती है। मड़फा के नजदीक ही गोंडरामपुर नामक एक गाँव है। यह गाँव गोंड शासकों की उपस्थिति को सँजोए हुए है। गोंड शासकों की वंशावली में रानी दुर्गावती का नाम भी आता है। मड़फा के दुर्ग ने रानी दुर्गावती की वीरता की गाथा को भी विस्मृत नहीं किया है।
मड़फा दुर्ग की जटिल संरचना का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहाँ पर बाहरी लोगों का आना आज भी उतना ही कठिन है, जितना कि पुराने जमाने में रहा होगा। इसी कारण अठारहवीं शताब्दी के मध्य में टीफेन्थलर नामक एक डच पादरी ही शायद सबसे पहले यहाँ पहुँचा होगा और उसने ही यहाँ के बारे में, यहाँ की भौगोलिक संरचना और यहाँ के ऐतिहासिक महत्त्व का वर्णन किया होगा, क्योंकि उसके पहले के किसी इतिहासकार ने इसका उल्लेख नहीं किया है। टीफेन्थलर लिखता है कि उस समय इसे मण्डेफा के नाम से जाना जाता था। सन् 1804 में कर्नल मेसलबैक ने रात्रि में यहाँ पर आक्रमण किया था, ताकि इस क्षेत्र को हिंसक खूँखार कब्जेदारों से खाली कराया जा सके। बाद में उसने भी इस क्षेत्र को छोड़ देना ही उचित समझा। तब से आज तक यह क्षेत्र कमोबेश उपेक्षित ही रहा है।
जनश्रुतियों में प्रचलित है कि यहाँ से गुजरते हुए एक जैन व्यापारी को अकूत संपदा प्राप्त हुई थी। इस धन का धर्मार्थ में उपयोग करते हुए मड़फा दुर्ग में उसने जैन मंदिरों का निर्माण कराया। दुर्ग में मठ की आकृति के एक ध्वंसावशेष के समीप ही जैन मंदिर भी बने हुए हैं। पंचरथ योजना के अनुरूप बने इन जैन मंदिरों का अधिकांश हिस्सा ध्वस्त हो चुका है और गर्भगृह में कोई मूर्ति भी नहीं है। गर्भगृह से दूर एक जैन तीर्थंकर की मूर्ति पद्मासन मुद्रा में है। शायद इस मूर्ति को गर्भगृह से निकालकर यहाँ रखा गया है। इस भग्न मूर्ति में तीन फीट लंबी और एक फीट चौड़ी पादपीठिका है, जिसमें शिलालेख है। संस्कृत में लिखे इस शिलालेख के अनुसार 1408 माघ सुदी 5 रविवार को मूर्ति प्रतिष्ठापित की गई है। इस शिलालेख के अनुसार छीतम ने अपने पिता गोसल और माता सलप्रण, अपने पितामह धने तथा मातामही तोण का नामोल्लेख किया है और गोसल के पुत्र छीतम ने इस मूर्ति की स्थापना कराई है। पादपीठ में अंकित शिलालेख के आधार पर इस मूर्ति को तेरहवीं शताब्दी का माना जा सकता है। मड़फा दुर्ग में लगभग दो मीटर ऊँची ऋषभनाथ की एक अन्य प्रतिमा भी है। यह प्रतिमा काफी हद तक सुरक्षित है, जबकि कई अन्य मूर्तियाँ भग्न स्थिति में हैं।
मड़फा में तांडव नृत्य करते शिव की दुर्लभ मूर्ति भी है। इसमें शिव अपने हाथों में विभिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्र लिए हुए हैं। पादतल में एक राक्षस पड़ा हुआ है। नए मंदिर का निर्माण कराकर इस प्रतिमा को सुरक्षित करने का प्रयास स्थानीय लोगों द्वारा किया गया है। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ श्रद्धालुओं का आगमन भी होता है। इस मंदिर से लगभग आठ सौ मीटर दूर एक आश्रम बना हुआ है। यहाँ पर जल-प्रबंधन का प्राचीन और दुर्लभ प्रयोग देखा जा सकता है। यहाँ पर चट्टान को काटकर एक कुंड जैसा बनाया गया है, जिसमें प्राकृतिक रूप से जल इकट्ठा होता रहता है और वर्षा नहीं होने पर भी इसमें जल उपलब्ध रहता है। इस जलकुंड के समीप एक कच्चा तालाब भी है। ऐसी मान्यता है कि इस तालाब में स्नान करने पर चर्मरोग नष्ट हो जाते हैं। जलकुंड और तालाब को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दुर्ग में पर्याप्त प्रबंध किए गए थे, ताकि युद्ध आदि की स्थिति में दुर्ग के अंदर संसाधनों की कमी न पड़े। चंदेलों के आठ प्रमुख दुर्ग में से एक मड़फा भी है और यहाँ मिलने वाले भग्नावशेष इस दुर्ग के अजेय होने की गवाही स्वयं ही दे देते हैं। इन भग्नावशेषों के साथ जुड़ी अनेक रोचक कथाएँ लोक-जीवन में कब से हैं, इनका अनुमान लगाना भी अपने आप में एक रोचक और रोमांचकारी खोज से कम नहीं होगा।
मड़फा दुर्ग के किस्से आज भी हैं, मगर ये किस्से किसी भरत के नहीं; माण्डव्य, अथर्वा, वेदव्यास, च्यवन और चरक जैसे ऋषियों-महर्षियों के नहीं, वरन् आतंक और दहशत के पर्याय दस्युओं और अपराधियों के हैं। इन किस्सों के पीछे मड़फा का ऐतिहासिक, भौगोलिक और पौराणिक महत्त्व छिप गया है। यहाँ रात की बात तो दूर, दिन में भी जाने से लोगों को डर लगता है। यहाँ वेदव्यास को उपचार के लिए ले जाने वाले महर्षि अथर्वा के शिष्यों की संततियाँ नहीं, बल्कि लूटने और यहाँ तक कि जीवन का भी हरण कर लेने वाले आधुनिक भारत के क्रूर आक्रांताओं का विचरण होता रहता है। मड़फा दुर्ग की अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ धन के लालच की भेंट चढ़ गईं। धन के लालच में ही हाथी दरवाजा, मंदिरों के गर्भगृह और ऐतिहासिक निर्मितियाँ खोद डाली गईं। यहाँ के दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य को डकैतों और अपराधियों के छिपने के सुगम ठिकानों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। विकास के संकेत भी यहाँ देखे नहीं जा सकते। यह दुर्ग, जो एक समय में अजेय था, अजेय आज भी है, मगर विकास के लिए। आज भी मड़फा दुर्ग तक जाने के लिए पगडंडियाँ ही हैं, जो मानपुर, कुरहम या खमरिया गाँव से होकर जाती हैं। मड़फा दुर्ग की यह दयनीय त्रासदी है, जो अधूरेपन के अपने दर्द को देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा के समय से आज तक बखान रही है। कालंजर का दुर्ग पर्यटन के विश्व-स्तरीय मानचित्र पर है, मगर मड़फा आज भी उपेक्षित है। मड़फा दुर्ग को आज की कथाओं से उबारकर अतीत की कथाओं तक ले जाने के लिए प्रयास अपेक्षित हैं और इन प्रयासों के लिए मड़फा का अजेय दुर्ग आज विजित होने की प्रत्याशा में कृशकाय होकर भी खड़ा है।
डॉ. राहुल मिश्र



(नगरपालिका परिषद्, हटा, जनपद- दमोह, मध्यप्रदेश द्वारा प्रकाशित और डॉ. एम.एम. पांडे द्वारा संपादित बुंदेली दरसन- 2017 में प्रकाशित)

Monday 16 January 2017

बरवा सागर




बरुआ सागर
प्राकृतिक सौंदर्य और शौर्य से परिपूर्ण एक नगर


वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की नगरी झाँसी से मानिकपुर की ओर जाने वाली सवारी गाड़ी के स्टेशन से रवाना होते ही अधिकांश यात्रियों के अंदर एक नए इंतजार को उपजते देखा जा सकता है। यह इंतजार सफ़र खत्म होने का नहीं है। यह इंतजार झाँसी के बाद आने वाले ओरछा स्टेशन से गाड़ी के आगे बढ़ते ही अपने चरम पर पहुँच जाता है। बेतवा नदी के पुल पर दौड़ती गाड़ी से उपजने वाली तेज आवाजें रेलगाड़ी के कोच में बरबस शुरू हो जाने वाली हलचलों को सुर दे देती हैं और बरुआ सागर स्टेशन पर गाड़ी के खड़े होते न होते दौड़ शुरू हो जाती है। झाँसी से भले ही भरपेट खाकर चले हों, मगर बीस-इक्कीस किलोमीटर के सफर में ही इतनी तगड़ी भूख उपज जाना कि दौड़ लगानी पड़ जाए, स्वयं में रोमांचित कर देने वाला है। स्टेशन पर बने चाय-पानी के स्टॉल में अच्छी-खासी भीड़ जमा हो जाती है। कोई पेड़े, तो कोई समोसे और कोई सब्जी-पूड़ी खा रहा होता है, या फिर खरीदकर ले जा रहा होता है। प्लेटफार्म पर सब्जीवालियों की लंबी कतार अलग आकर्षण रखती है। अदरख और कच्ची हल्दी से लगाकर सभी किस्म की सब्जियाँ यहाँ पर उपलब्ध हैं। अमरूद और मूँगफली के देशी स्टॉल भी कम नहीं होते हैं। विक्रेता महिलाओं की सुमधुर मिश्रित आवाजें गूँजती रहती हैं। अदरख ले लो अदराख...., अमरूद ले लो ताजे-मीठे आमरूद....। लोग समय का सदुपयोग करते नजर आते हैं। जल्दी-जल्दी सौदा पटाने और ढेर सारी सब्जियाँ खरीद लेने की होड़ नजर आती है। रेलगाड़ी के रुकने से लगाकर उसके रवाना होने तक की अवधि में किसने कितनी सब्जी खरीद ली, कितना जलपान कर लिया, जैसे विषय गाड़ी के रवाना होने के साथ ही क्षणिक चर्चा के केंद्र में आ जाते हैं। लोगों के लिए अदरख और कच्ची हल्दी की खरीददारी ज्यादा रोमांचकारी होती है; उसी तरह, जैसे बरुआ सागर के पेड़े खाकर मानो संसार के सर्वोत्कृष्ट मिष्ठान्न को उदरस्थ कर लेने की सफलता से सुख की अनुभूति होती है। पुराने तरीके की बनी स्टेशन की इमारत और सारा स्टेशन परिसर गाड़ी के आगमन के साथ ही भागमभाग और चहल-पहल से भर जाता है। मानिकपुर की ओर से आने वाले रेलयात्रियों के साथ भी यही सब घटता है। रेलगाड़ी जाने के बाद स्टेशन में कैसी उदासियाँ पसरती होंगी और दूसरी गाड़ी के आने के इंतजार की घड़ियाँ कैसे गिनी जाती होंगी, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। दूसरे छोटे स्टेशनों से इतर बरुआ सागर स्टेशन पर कुछ अलग ही परिवेश बन जाता है, इस कारण कल्पनाओं को उड़ान भरने के लिए पंख मिल जाते हैं। स्टेशन के बाहर इस कस्बे का जीवन कैसा होगा, कई बार मन में प्रश्न उपजते हैं। आखिर इस छोटे-से कस्बे में सागर कहाँ से आ गया? अगर सागर है भी, तो कैसा है? लगता है कि जिसने बरुआ नदी में बने बाँध को सागर नाम दिया होगा, उसने शायद सागर देखा ही नहीं होगा, इसीलिए उस विशालकाय ताल को सागर मान लिया। ऐसा भी हो सकता है कि बुंदेलखंड की पथरीली जमीन पर, जहाँ जल का संकट अपना विकराल रूप दिखाने में पीछे नहीं रहता, वहाँ जल-प्रबंधन के ऐसे वृहदाकार निर्माण के प्रति आस्था ने सागर नाम दे दिया हो।

बरुआ सागर कस्बे का नाम बेतवा नदी की सहायक बरुआ नदी पर बने बाँध या वृहदाकार तालनुमा सागर के कारण पड़ा है। बरुआ सागर ताल का क्षेत्रफल लगभग एक हजार एकड़ का है। बुंदेला शासकों द्वारा स्थापित धार्मिक-ऐतिहासिक नगरी ओरछा के प्रतापी शासक राजा उदित सिंह ने सन् 1705 से 1735 के मध्य इस ताल का निर्माण कराया था। इस ताल के निर्माण का शिल्प भी अद्बुत है। आम जनता के लिए ताल का उपयोग सहज और सुलभ हो सके, इस हेतु तालाब में घुमावदार सीढ़ियाँ बनी हैं। ताल पर बना चौड़ा तटबंध पुल का काम भी करता है। ताल में जल-प्रबंधन के साथ ही जल के उच्च स्तर पर पहुँचने पर जल निकास की व्यवस्था भी है। लगभग नब्बे वर्ष पूर्व भीषण बाढ़ ने जल निकासी व्यवस्था को नष्ट कर दिया था, फिर भी यह ताल यहाँ के लोगों के लिए उपयोगी है। खेती के लिए जल संसाधन की उपलब्धता के कारण यहाँ पर खेतों में खूब हरियाली नजर आती है। केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित केन-बेतवा गठजोड़ परियोजना में बरुआ सागर ताल भी शामिल है और इस परियोजना के माध्यम से ताल तक जल पहुँचाने की योजना है।
बरुआ सागर के किनारे पर ऊँची समतल पहाड़ी पर किला भी है। इस किले का निर्माण भी ओरछा के राजा उदित सिंह द्वारा 1689 से 1736 के मध्य कराया गया था। किले की प्राचीर से बरुआ सागर का सुंदर नजारा और चारों तरफ पसरी हुई हरियाली बरबस ही मन को मोह लेती है। यहाँ की अनूठी प्राकृतिक सुंदरता और पठारी भूमि में पसरे धरती के सौंदर्य से अभिभूत होकर ही शायद बुंदेला शासकों ने इस किले को अपना ग्रीष्मकालीन किला बना लिया था। गर्मी के दिनों में वे यहीं पर प्रवास करते थे। संभवतः इसी कारण आज भी बरुआ सागर को बुंदेलखंड की शिमला नगरी भी कहा जाता है। बुंदेला शासकों के यहाँ आने के पहले इस इलाके में आबादी नहीं रही होगी, या बहुत कम संख्या में रही होगी, इस कारण बुंदेला शासकों को किले और ताल के निर्माण कार्य के लिए ओरछा से कामगारों को लाना पड़ा होगा। लगभग 47 वर्षों तक यहाँ पर चले निर्माण कार्य के पूर्ण हो जाने के बाद कामगारों के परिवार यहीं पर बस गए। इसी कारण यहाँ बसे अधिकांश लोग उन कामगारों के वंशज हैं, जो बरुआ सागर और किले के निर्माण हेतु यहाँ लाए गए थे। इनके पास इसी कारण बरुआ सागर से जुड़ी तमाम लोक-प्रचलित कथाएँ भी हैं।
बरुआ सागर की आबादी से लगभग ढाई किलोमीटर पहले एक ऊँचे टीले पर लगभग पाँच-छह फीट ऊँची चहारदीवारी के अंदर लाल बलुए पत्थरों से निर्मित लगभग पैंसठ फीट ऊँचा मंदिर है। इसे जरा का मठ (जरकी मठ) के रूप में जाना जाता है। लोक मान्यताएँ इस मंदिर को भाई-बहन का मंदिर मानती हैं। ऐसी कथा प्रचलित है कि बहन के जिद करने पर भाई ने इस मंदिर को एक रात में बनाकर तैयार कर दिया था। इस मंदिर में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ हैं। यह मंदिर चंदेलकालीन है और चंदेलों के मांडलिक प्रतिहार शासकों द्वारा इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। अपने स्थापत्य के कारण यह मठ ऐतिहासिक महत्त्व का है। पूर्वाभिमुख मठ में गर्भगृह, फिर अंतराल और फिर मुखमंडप है। मुखमंडल भग्नावस्था में है, जबकि मुख्य मंदिर के उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम दिशाओं में स्थित भग्न छोटे मंदिरों से अनुमान लगाया जा सकता है कि मुख्य मंदिर के चारों ओर चार छोटे-छोटे मंदिर रहे होंगे। मंदिर की ऊँचाई या विमान के साथ ही चार छोटे-छोटे मंदिरों से अनुमान लगाया जा सकता है कि मंदिर पंचायतन शैली का है। मंदिर का गर्भगृह आयताकार है। आयताकार चौक प्रायः शेषशायी विष्णु या सप्तमातृका के मंदिरों में होती हैं। शेषशायी विष्णु की मूर्ति यहाँ नहीं है, मगर मंदिर के नाम से स्पष्ट होता है कि यह मंदिर शक्ति-साधना का केंद्र रहा होगा। श्री महाकाली अष्टोत्तर सहस्रनामावली में श्लोक है-
विद्याधरी वसुमती यक्षिणी योगिनी जरा ।
राक्षसी  डाकिनी  वेदमयी  वेदविभूषणा ।।26।।
महाकाली का एक नाम जरा भी है, इस तरह शाक्त-साधना के साथ इस मंदिर के संबंध का प्रमाण मिलता है। मंदिर का प्रवेश द्वार सुसज्जित है। इसमें चार पंक्तियों में नर्तकियों, अष्ट दिग्पालों, वाराहियों और द्वारपालों के साथ ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश,नरसिम्हा, लक्ष्मी-नारायण, सूर्य की प्रस्तर पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ हैं। द्वार के दोनों और गंगा और यमुना की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के शिखर का एक तिहाई हिस्सा टूटा हुआ है, जिसका जीर्णोद्धार कराया गया प्रतीत होता है। संभवतः बरुआ सागर और किले के निर्माण के दौरान बुंदेला शासकों ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया होगा। बरुआ सागर के समीप ही घुघुआ मठ भी है। यह मठ भी चंदेलकालीन है और पत्थरों पर उकेरी गई सुंदर नक्काशी को यहाँ पर भी देखा जा सकता है। इस मठ में चार दरवाजे हैं। तीन दरवाजों पर गणेश की प्रतिमाएँ हैं और चौथे दरवाजे पर दुर्गा की प्रतिमा है। यह मंदिर शैव-साधना का केंद्र रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है।
स्थापत्य की इन बेजोड़ निर्मितियों के अतिरिक्त बरुआ सागर में प्राकृतिक निर्मितियाँ भी हैं। इनमें स्वर्गाश्रम प्रपात प्रमुख है। 1985 के आसपास इस स्थान पर चण्डी स्वामी शरणानंद जी सरस्वती द्वारा एक आश्रम का निर्माण कराया गया था। तब से यह स्थान पर्यटकों के लिए ही नहीं, वरन् श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया। चारों तरफ फैली हरियाली, विभिन्न प्रकार के वृक्ष और उनकी शीतल छाया में कल-कल निनाद करता प्रपात का औषधियुक्त जल तन और मन, दोनों को सुख देता है। इस प्रपात के निकट तीन कुंड हैं, जिनमें इसका जल संग्रहीत होता है। प्रपात का जल गंधकयुक्त होने के कारण औषधीय गुणों से युक्त है और अनेक व्याधियों के उपचार हेतु लोग इस जल का उपयोग करते हैं। आश्रम के निकट ही हनुमान गुफा नामक एक प्राकृतिक निर्मिति है, जिसमें हनुमान जी की मशक स्वरूप प्रतिमा विराजमान है। यहाँ पर विभिन्न पर्वों में श्रद्धालुओं का आगमन होता रहता है। गर्मी की ऋतु में यहाँ पर पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। दूर्वा का विशाल उद्यान भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
बरुआ सागर, घुघुआ मठ, जरा का मठ और स्वर्गाश्रम प्रपात बुंदेले और मराठों के संघर्ष के गवाह भी हैं। सन् 1744 में यहाँ पर बुंदेले और मराठों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था, जिसमें रानोजी सिंधिया के पुत्र और महाराजा माधोजी सिंधिया के अग्रज ज्योति भाऊ शहीद हुए थे। युद्ध के समापन के बाद पेशवा ने आदेश दिया था कि बरुआ सागर से वसूली जाने वाली लगान से दस हजार सालान का भुगतान शहीद ज्योति भाऊ की पत्नी को किया जाए। आश्चर्यजनक तरीके से यह भुगतान एक सौ ग्यारह वर्षों तक ग्वालियर दरबार को होता रहा। ज्योति भाऊ की बेवा के गुजर जाने के बाद यह रकम उनके परिवार के दूसरे लोगों को मिलती रही। सन् 1855 में, जब झाँसी पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया, तब अंग्रेज हुक्मरानों ने इसे रोकने की कार्यवाही की। अंग्रेजों ने आदेश जारी किया कि अधिकार के रूप में इस धनराशि का पाने का हक ग्वालियर घराने को नहीं है, बशर्ते कृपापूर्वक इसका भुगतान किया जा सकता है। लगभग एक सौ ग्यारह वर्षों तक बरुआ सागर की लगान से ग्वालियर दरबार अपनी जेबें भरता रहा।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके पति गंगाधर राव को भी बरुआ सागर से बहुत लगाव रहा है। गंगाधर राव तो अकसर अपना समय यहीं पर गुजारा करते थे। गंगाधर राव के निधन के उपरांत झाँसी का राज्य राजनीतिक अस्थिरता से घिर गया। इसका लाभ उठाकर ओरछा के प्रधानमंत्री नाथे खाँ ने बरुआ सागर पर कब्जा करने की कोशिश की। उसने बरुआ सागर पर कब्जा भी कर लिया और आगे बढ़कर झाँसी के किले को भी घेर लिया। बाद में रानी झाँसी की सूझबूझ और पराक्रम के कारण नाथे खाँ को वहाँ से भागना पड़ा। रानी झाँसी ने अपने पिता मोरोपंत तांबे के नेतृत्व में चार सौ सैनिकों की फौज भेजकर बरुआ सागर को फिर से अपने कब्जे में ले लिया। जिस समय रानी झाँसी अंग्रेजों से संघर्ष कर रही थीं, उस समय बरुआ सागर के आसपास के इलाके में डाकू कुँवर सागर सिंह का आतंक हुआ करता था। वह रानी झाँसी के पराक्रम से इतना प्रभावित हुआ, कि अपने सारे साथियों के साथ रानी झाँसी की फौज में शामिल हो गया। उन दिनों बरुआ सागर क्रांति की ज्वाला से धधक रहा था। अंग्रेजों को जितना खतरा झाँसी में महसूस होता था, उससे कम खतरा बरुआ सागर में महसूस नहीं होता था। इसी कारण अंग्रेजों की तमाम गुप्तचर एजेंसियाँ यहाँ पर सक्रिय रहती थीं। प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लगाकर देश की आजादी तक बरुआ सागर स्वतंत्रता सेनानियों का गढ़ रहा। जिस समय देश के विभिन्न हिस्सों में छापाखानों में समाचारपत्र छपा करते थे और स्वतंत्रता सेनानियों के पास भेजे जाते थे, उस समय बरुआ सागर में रातों-रात हस्तलिखित समाचार पत्र तैयार किए जाते थे और रातों-रात ही उनका वितरण आसपास के इलाकों में, शहरों में किया जाता था। वितरण करने वाले स्वाधीनता सेनानी रात में पत्र लेकर निकलते थे और सुबह होने के पहले ही पत्र बाँटकर वापस आ जाते थे। बरुआ सागर से चलने वाली इस क्रांतिकारी गतिविधि ने अंग्रेजों की नींद उड़ा रखी थी। इस काम को करने वाले सेनानियों को तलाश पाना अंग्रेजों के लिए बहुत कठिन था। अंग्रेजों के गुप्तचर बरुआ सागर में अपना डेरा डाले ही रहते, और क्रंतिकारी अपना काम बखूबी कर ले जाते। अनेक अंग्रेज अधिकारियों ने अपने संस्मरणों में बरुआ सागर का इसी कारण खूब जिक्र किया है।
जाने-माने रंगकर्मी, नाट्य-समीक्षक, समालोचक, पत्रकार, कवि, अनुवादक और शिक्षक पद्मश्री नेमिचंद्र जैन का बचपन बरुआ सागर में ही गुजरा है। वृंदावनलाल वर्मा की रचनाओं में बरुआ सागर का सौंदर्य निखरता है। और भी तमाम कवि, साहित्यकार, इतिहासकार; चाहे वे विदेशी हों, या देशी हों, बरुआ सागर उनके लिए रोमांच से भरा रहा है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता और यहाँ के कण-कण में बसी अतीत की गाथाएँ उन्हें अपनी खींचती रही हैं।
बरुआ सागर के स्टेशन में रेलगाड़ी के आते ही अचानक बढ़ जाने वाली चहल-पहल ही केवल इसकी पहचान नहीं है। यहाँ की अनूठी प्राकृतिक सुंदरता, यहाँ की ऐतिहासिक विरासत न केवल शासकों को; वरन् जिज्ञासुओं को, श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करती रही है। यह अलग बात है कि शिमला जैसे बहुचर्चित और महँगे शहर के आकर्षण में हम अपने बुंदेलखंड के शिमला से भी खूबसूरत इलाके को विस्मृत कर बैठे हों।
बरुआ सागर के स्टेशन में सब्जियाँ, मूँगफली और अमरूद बेचती महिलाएँ आत्मसम्मान के साथ जीने का यत्न करती नजर आती हैं। रानी झाँसी ने प्रण किया था कि अपने जीते जी अपनी झाँसी नहीं दूँगी। उनका आत्मसम्मान, उनका आत्मगौरव, उनका पराक्रम, उनका शौर्य यहाँ कण-कण में, जल की हर-एक बूँद में आज भी बसता है। इसलिए गरीबी और जीवन जीने की विकट जद्दोजहद ने यहाँ की महिलाओं को लाचार-बेबस नहीं बनाया है। यहाँ से गुजरने वाले यात्रियों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि महिलाएँ सिर पर वजनी टोकरी उठाए सुबह से देर शाम तक गाड़ियों में भाग-भागकर सब्जियाँ, मूँगफली बेचती क्यों नजर आती हैं? यह इस धरती का गुण-धर्म है, यहाँ की पहचान है। अपने अतीत के गौरव से गर्वोन्नत बरुआ सागर से गुजरते हुए इस पुण्यश्लोका धरा को प्रणाम कर लेने का मन होता है। 



डॉ. राहुल मिश्र 

(बुंदेली दरसन- 2016, अंक-09, प्रकाशक- नगरपालिका परिषद, हटा, जिला- दमोह, संपादक- डॉ. एम.एम. पाण्डे)