Thursday 2 January 2020

फूलबाग नौचौक में बैठे राजा राम...




फूलबाग नौचौक में बैठे राजा राम...

मधुकरशाह महाराज की रानी कुँवरि गणेश ।
अवधपुरी से ओरछा लाई अवध नरेश ।।
सात धार सरजू बहै नगर ओरछा धाम ।
फूल बाग नौचौक में बैठे राजा राम ।।
तुंगारैन प्रसिद्ध है नीर भरे भरपूर ।
वेत्रवती गंगा बहै पातक हरै जरूर ।।
राजा अवध नरेश को सिंहासन दरबार ।
सह समाज विराजे, लिए ढाल तलवार ।।
आकाश में पूर्ण चंद्रमा की दूधिया चमक से आलोकित रामराजा मंदिर का प्रांगण.... चारों ओर जगमग करती रौशनियों को बीच तमाम भक्तगण संध्या आरती गा रहे हैं। कुछ भक्तगण दीपक हाथों में लिए रामराजा सरकार की आरती उतार रहे हैं, तो कुछ भक्तगण पुष्पदल को हाथों में लिए आरती की भाँति उतार रहे हैं। करतल ध्वनि के साथ भी कुछ रामराजा सरकार की आरती में सम्मिलित हैं। उधर रामराजा सरकार राजसी मुद्रा में विराजमान हैं; सह समाज, यानि माता जानकी, भ्राता लक्ष्मण और हनुमान के साथ। रामराजा का दरबार लगा हुआ है। द्वार पर रामराजा की ओर मुँह किये हुए सिपाही तैनात है, शस्त्र-सलामी की मुद्रा में....। रामराजा सरकार की आरती में सम्मिलित होने के लिए एकत्रित सारा जनसमूह भक्तिभाव से भरा हुआ है। सारा वातावरण भक्तिमय हो गया है। आरती के पूर्ण होते ही दरवाजे पर खड़ा सिपाही सलामी शस्त्र की अगली कार्यवाही करता है। उसके द्वारा सलामी देने के बाद रामराजा सरकार का दरबार आम लोगों के दर्शनार्थ खुल जाता है।
आज का रामराजा मंदिर अपने अतीत में रानी कुँवरि गणेशी का महल हुआ करता था। रानी कुँवरि गणेशी बुंदेले राजवंश की दूसरी पीढ़ी में आने वाले राजा मधुकरशाह की ब्याहता थीं। ओरछा राज्य में जितना मान-सम्मान राजा मधुकरशाह को प्राप्त था, उतना ही मान रानी कुँवरि गणेशी जू को मिलता था। आज भी बुंदेलखंड की जनता के बीच ये कमल जू राजा कमलापति रानी के रूप में ख्याति पाते हैं। राजा मधुकरशाह जूदेव के पिता राजा रुद्रप्रताप सिंह गढ़कुंडार से ओरछा आए थे। उस समय वेत्रवती या बेतवा नदी के किनारे इस पूरे इलाके में भयंकर जंगल था। वैसे यह क्षेत्र अपने अतीत के साथ ही धर्म-अध्यात्म-साधना के लिए प्रसिद्ध रहा है। आज के ‘तुंगारैन’, यानि ओरछा के वन-प्रांतर का पुराना नाम ‘तुंगारण्य’ था। बेतवा नदी के किनारे-किनारे फैले घने जंगल में तुंग ऋषि का आश्रम था, ऐसी मान्यता है। कहा जाता है, कि राजा रुद्रप्रताप सिंह शिकार खेलते-खेलते तुंग ऋषि के आश्रम में पहुँच गए। बाद में तुंग ऋषि की प्रेरणा से उन्होंने ओरछा में नगर बसाने का प्रण लिया। वैसे पौराणिक प्रसंगों में उल्लेख मिलता है, कि तुंगक नाम के एक पवित्र वन में दधीचिपुत्र सारस्वत ने अपने शिष्यों को वेद पढ़ाए थे। क्या पता, यह तुंगक वन या तुंगारण्य वही हो...।
कुल मिलाकर राजा रुद्रप्रताप सिंह को बेतवा के किनारे का यह भूभाग, विंध्य की तलहटी का यह क्षेत्र इतना भा गया, कि उन्होंने अपने वंशजों के लिए विक्रम संवत् 1588 की बैशाख शुक्ल पंद्रहवीं तिथि को ओरछा महल का शिलान्यास कर दिया। दुर्योग ऐसा रहा, कि उनके समय में निर्माणकार्य शुरू ही हो पाया था, और उनका देहांत हो गया। इसके बाद उनके पुत्र राजा भारतीचंद्र ने ओरछा राजमहल के निर्माणकार्य को पूरा कराया।
ओरछा दुर्ग के ठीक सामने फूलबाग था, जहाँ राजा भारतीचंद्र ने रनिवास के रूप में नौचौका महल बनवाया। इस महल को यह नाम भी नौ कमरों के कारण मिला। यह महल ओरछा के किले की लगभग हर खिड़की से दिखाई देता है। बुंदेली स्थापत्यकला के इस अनूठे प्रतीक के आबाद होते-होते राजा भारतीचंद्र भी इस दुनिया से चल बसे।
राजा भारतीचंद्र के अनुज मधुकरशाह जू देव को संवत् 1611 में ओरछा की राजगद्दी मिली। उन्होंने आसपास के तमाम जागीरदारों को इकट्ठा करके ओरछा राज्य की विधिवत् स्थापना की। राजा मधुकरशाह के समय दिल्ली में हुमायूँ का शासन था। मुगलों के कई आक्रमणों का उन्होंने मुँहतोड़ जवाब दिया। हुमायूँ और अकबर, दोनों ही राजा मधुकरशाह को अपने कब्जे में नहीं ले पाए। राजा मधुकरशाह जितने वीर थे, उतने ही सौंदर्यप्रेमी और कलाप्रेमी भी थे। उन्होंने ओरछा दुर्ग का विस्तार किया और साथ ही नौचौका महल को व्यवस्थित कराने के बाद अपनी ज्येष्ठ रानी कुँवरि गणेशी जू को सौंप दिया। इस तरह आज का रामराजा मंदिर अपने अतीत में रानी कुँवरि गणेशी का निवास-स्थान बना था।
रानी कुँवरि गणेशी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की थीं। वे श्रीराम की उपासक थीं। राजा मधुकरशाह भी वैष्णवभक्त थे। वे कृष्ण के उपासक थे और राधावल्लभ संप्रदाय में उनकी विशेष आस्था थी। इस कारण वे जुगुलकिशोर जी के मंदिर में कृष्ण की सखी बनकर नृत्यगान किया करते थे। एक छोर पर राजा मधुकरशाह की कृष्णभक्ति थी, तो दूसरे छोर पर रानी कुँवरि गणेशी की रामभक्ति थी। हालाँकि दोनों की आस्थाएँ एक-दूसरे से टकराती नहीं थीं, लेकिन एक दिन बात बिगड़ ही गई। रानी ने कहा, कि आप सखी बनकर मंदिर में नृत्य करते हैं। मंदिर में तमाम लोग आते हैं। उन्हें रोका भी नहीं जा सकता। आप नारी रूप धारण करके प्रजा के सामने नृत्य करने में लीन हो जाते हैं। इससे राजकीय सम्मान और मर्यादा का उल्लंघन होता है। प्रजा पर भी इसका अच्छा असर नहीं पड़ता होगा। राजा मधुकरशाह को रानी की बात चुभ गई। इस पर राजा मधुकरशाह ने कृष्ण की सोलह कलाओं का वर्णन किया, तो रानी ने राम के मर्यादापुरुषोत्तम रूप की दुहाई दी। कुल मिलाकर दो भक्तों का भक्तिभाव आपसी टकराव का कारण बन गया।
नौचौका महल भी उस दिन दो भक्तों की रार-तकरार का साक्षी बना होगा, जिसने इतिहास के पन्नों में अमिट रेख खींच दी। राजा मधुकरशाह ने रानी कुँवरि गणेशी से वृंदावन चलने को कहा। रानी ने अयोध्या चलने की जिद मचाई। राजा मधुकरशाह ने बड़े गुस्से में कहा, कि- “जौ रामजी की एँसई भगत हौ सो अपुने राम को साथई लेके आईयो। नोंई हमखों आपुनो मुँह ना दिखाईयो।” रानी ने भी गुस्से में कहा, कि- “अगर मैं रामजी को अपने साथ न ला पाई, तो मैं लौटकर नहीं आऊँगी, अपना मुँह भी आपको नहीं दिखाऊँगी।” राजपरिवार के गुरु गोस्वामी हरिराम व्यास भी इनके झगड़े को सुलझा नहीं पाए। उन्होंने रानीजू को बहुत समझाया, मगर रानीजू नहीं मानीं। राजा मधुकरशाह भी अपनी जिद पर अड़े रहे। आखिरकार राजा साहब ने वृंदावन का रास्ता पकड़ लिया, और रानी कुँवरि गणेशी अयोध्या की तरफ चल पड़ीं। यह ऐतिहासिक घटना आज भी लोककंठों में जीती है-
रामभक्त बुंदेलवंश में हो गई ऐसी छत्रानी, नगर ओरछा की रानी ।
मधुकरशाह बुंदेलवंश में राजा भये ऐसे दानी, नगर ओरछा रजधानी ।।
राजा बोल उठे कर हाँसी, भारी प्रेम बान की गाँसी ।
कैसी भक्तिन हो गई रानी, लौटियो बिठा गोद सुखरासी ।।
रानी बोली पतिव्रता मैं, पति की सत्य करौ वानी, नगर ओरछा की रानी ।.....
राजा मधुकरशाह तो वृंदावन पहुँच गए, और अपने लाड़लीलाल मदनमोहन जुगुलकिशोरजू की भक्ति में रम गए, लेकिन रानी कुँवरि गणेशी के लिए अयोध्या पहुँचने के बाद जीवन-मरण का संकट ही आ गया था। विक्रम संवत् 1630 की आषाढ़ शुक्ल 12वीं तिथि को रानी कुँवरि गणेशी ने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया था। अयोध्या पहुँचने के बाद वे किस मुँह से ओरछा को वापस लौटेंगी, यह चिंता रानी को सताने लगी। वे सरयू नदी के किनारे बैठकर रामनाम स्मरण करने लगीं। उनकी साधना दिनों-दिन कठिन से कठिनतम होती गई, लेकिन राजा साहब के वचन को पूरा करने का रास्ता उन्हें नहीं सूझा। अंततः रानी कुँवरि ने तय किया, कि वे सरयू में अपने प्राण त्याग देंगी। कहा जाता है, कि ऐसा विचार करके उन्होंने तीन बार सरयू में छलाँग लगाई, लेकिन हर बार वे किनारे पर आ जाती थीं। चौथी बार जब उन्होंने सरयू में छलाँग लगाई, तो उनकी गोद में श्रीराम का विग्रह आ गया।
लोकजीवन में प्रचलित इस घटना के साथ जुड़ी कथा में प्रसंग आता है, कि रानी कुँवरि गणेशी ने रामलला से ओरछा चलने को कहा। रामलला ने कहा, कि मैं अयोध्या छोड़कर ओरछा कैसे चला जाऊँ? मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ मेरा परिवार है। सीता, लक्ष्मण और हनुमान हैं। आप तो मुझ अकेले को ही लेने आईं थीं। रानी ने कहा, कि आप पूरे परिवार सहित चलिये। राम ने पूछा, आप मुझे ओरछा क्यों ले जाना चाहती हैं? रानी ने कहा- हम आपको ओरछा का राजपाट सौंपना चाहते हैं। राम ने कहा, कि हम ओरछा तो चल देंगे, किंतु हमारी पहली शर्त यह है, कि हम पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करेंगे। दूसरी शर्त है, कि हम दिन में ओरछा में रहेंगे और रात्रि में अयोध्या आ जाएँगे। तीसरी शर्त यह है, कि ओरछा की सीमा में हमें जिस स्थान पर बैठा दिया जाएगा, हम वहाँ से किसी दूसरे स्थान पर नहीं जाएँगे। रानी ने कहा, कि हमें आपकी सभी शर्तें स्वीकार हैं।विक्रम संवत् 1630 की श्रावण शुक्ल पंचमी को हुई इस घटना की खबर न केवल अयोध्या में, बल्कि ओरछा तक फैल गई। राजा मधुकरशाह भी रानी कुँवरि के भक्तिभाव से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने तुरंत ही एक विशाल मंदिर का निर्माण ओरछा में शुरू करा दिया। राजा साहब की इच्छा थी, कि मंदिर ऐसे स्थान पर बने, कि राजमहल से सीधे दर्शन किये जा सकें। इसके साथ ही मंदिर का स्थापत्य एकदम अनूठा और अद्वितीय हो। इसके लिए राजा मधुकरशाह ने बुंदेला स्थापत्य के साथ ही नागर, द्राविड़ और मामल्य स्थापत्य शैली के कलाकारों को आमंत्रित किया और इन शैलियों के मिले-जुले रूप के साथ भव्य मंदिर के निर्माण का काम शुरू हो गया। आज रामराजा मंदिर के बगल में जिस भव्य चतुर्भुज मंदिर को हम देखते हैं, यह वही मंदिर था, जो रामराजा के लिए राजा मधुकरशाह ने बड़ी आस्था और भक्ति के साथ बनवाया था।
दूसरी तरफ रानी कुँवरि गणेशी अयोध्या से श्रीराम के विग्रह को लेकर चलीं। शर्त के अनुसार उन्हें पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करनी थी, और दिन में ही पैदल यात्रा करनी थी। इस कारण रानी को ओरछा पहुँचने में लगभग 08 माह, 27 दिन का समय लग गया। इतनी अवधि में बहुत तेजी के साथ काम करते-करते भी मंदिर का निर्माण पूरा नहीं हो पाया। पूरी तरह से मंदिर तैयार हो जाए, तब तक रामराजा को नौचौका महल में ही विश्राम कराया जाए, ऐसा विचार करके रानी उन्हें अपने साथ अपने नौचौका महल में ले गईं। रानीजू ने अपने आराध्य श्रीराम को भोजन कराने के लिए रसोईघर में बैठा दिया। इसके बाद तो रामराजा वहाँ से उठे ही नहीं। आज जिस स्थान पर रामराजा विराजमान हैं, वह रनिवास का रसोईघर हुआ करता था। मंदिर बनकर तैयार हो जाने के बाद भी रामराजा उस स्थान से नहीं हिले। वहीं पर उनका ओरछा के राजा के रूप में राज्याभिषेक भी हुआ। ओरछा ही नहीं, समूचे बुंदेलखंड में यह सारी घटना लोकजीवन में रच-बस गई।
लोग आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा के भाव से गाते हैं-
“मधुकरशाह नरेश की रानी कुँवरि गणेश, पुक्खन-पुक्खन लाई हैं ओरछे अवध नरेश ।”
“बैठे जिनकी गोद में मोद मान विश्वेश, कौशल्या सानी भईं रानी कुँवरि गणेश ।”
जनआस्था रानी गणेश कुँवरि को माता कौशल्या का, और राजा मधुकरशाह को राजा दशरथ का अवतार बना देती है। श्रीराम के जीवन में पुष्य नक्षत्र का विशेष योग रहा है। उन्होंने इसी नक्षत्र में अपना कमल रूपी नयन शिव को अर्पित किया था, ऐसा भी माना जाता है। इस कारण पुष्य नक्षत्र को बहुत पुनीत-पावन माना जाता है। इसी कारण ओरछा के लिए पुष्य नक्षत्र धार्मिक पर्व के समान महत्त्व-माहात्म्य रखता है।
रामराजा ओरछा के राजा हैं, इस कारण उनका वैभव भी राजसी है। इस मंदिर में श्रीराम का विग्रह अन्य राममंदिरों से अलग है, क्योंकि यहाँ राम राजसी मुद्रा में बैठे हुए हैं। उनकी आरती का समय भी एकदम निश्चित है, जिसे किसी भी दशा में बदला नहीं जा सकता। पिछले लगभग साढ़े चार सौ वर्षों से घड़ी की सुई देखकर इतने नियमित तरीके से रामराजा सरकार की आरती होती है, कि आरती के समय से आप अपनी घड़ी मिला सकते हैं। रामराजा सरकार ओरछा के राजा हैं, इस कारण ओरछा की सीमा के अंदर अन्य किसी को भी सलामी नहीं दी जाती है, भले ही वह अतिविशिष्ट पदधारी व्यक्ति क्यों न हो। सन् 1887 ई. के बाद लगभग समूचा बुंदेलखंड ‘यूनियन जैक’ के अधीन आ गया था। इसके साथ ही ओरछा राज्य को 17 तोपों की सलामी का अधिकार दिया गया था। यह सलामी भी ओरछा के किसी राजा को नहीं, बल्कि रामराजा सरकार को ही मिलती थी। आजादी के बाद राज्यों-रियासतों के भारत संघ में विलय के बाद राजवंशों को मिलने वाली सलामी समाप्त हो गई थी, लेकिन ओरछा राज्य में रामराजा को सलामी आज भी दी जाती है।
बुंदेलखंड के लोगों को आज भी इस बात का गर्व है, कि अयोध्या ने श्रीराम को वनवासी बना दिया, लेकिन हमने उन्हें राजपाट दिया है। आज भी लोग बड़े गर्व के साथ गाते हैं-
“अवध की रानी ने तो वनवासी बनाए राम, पर मधुकर की रानी ने रामराजा बनाए हैं ।”
यह गर्व का भाव लोकगीतों और लोककथाओं में ही नहीं, बल्कि बुंदेलखंड के चरित्र में, रानी कुँवरि गणेशी-महाराजा मधुकरशाह के व्यक्तित्व और कृतित्व में भी रचा-बसा हुआ है। जिस समय देश के बड़े हिस्से में मुगलों का शासन था; उस समय असुरक्षा, आतंक, अन्याय, अत्याचार और अराजकता से भरे माहौल में देश की निरीह जनता का नेतृत्व करने के स्थान पर, उसे मार्गदर्शन देने की जगह राजशक्ति या राजे-रजवाड़े आपसी कलह और अंतर्द्वंद्व से जूझ रहे थे। हिंदी साहित्य का भक्तियुग (संवत् 1375 से संवत् 1700 विक्रमी तक) अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभा रहा था। भक्तकवि जनता को राह दिखाने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे जटिल समय में, जबकि तमाम राजाओं-राजपरिवारों के लिए स्वयं के अहं की तुष्टि और व्यक्तिगत स्वार्थ ही महत्त्वपूर्ण हो गए थे, उस समय एकमात्र ओरछा राज्य का राजपरिवार ही ऐसा था, जिसने राम को राजा बनाकर समाज को नीति-नैतिकता और आदर्शों पर चलने का रास्ता दिखाया था। जटिल, विषम और संघर्षपूर्ण स्थितियों के बीच महाराजा मधुकरशाह अपने आत्मसम्मान और आत्मगौरव के साथ डटकर खड़े हुए थे। उनको मिली टीकमशाह की उपाधि इसकी साक्षी है।
ओरछा राजमहल में एक धुँधला-सा भित्तिचित्र आज भी राजा मधुकरशाह की वीरता और उनके आत्मसम्मान की गौरवगाथा कहता है। इस चित्र में अकबर का दरबार लगा हुआ है। आसपास कुछ कुत्ते जीभ निकाले हुए खड़े हैं, और उनके बीच में महाराजा मधुकरशाह अपनी तलवार निकाले हुए तनकर खड़े हैं। कहा जाता है, कि अकबर ने एक बार यह राजाज्ञा निकाली, कि उसके दरबार में कोई भी दरबारी-सामंत तिलक लगाकर, माला पहनकर नहीं आएगा। राजा मधुकरशाह ने बुंदेलखंड के राजाओं-सामंतो से कहा, कि वे अपमानित करने वाली इस राजाज्ञा का बहिष्कार करें। सभी ने इसके लिए सहमति तो दे दी, लेकिन वे डर के कारण सूने माथे के साथ दरबार में पहुँच गए। दूसरी तरफ राजा मधुकरशाह नाक की नोक से माथे तक लंबा तिलक लगाकर पहुँचे। अकबर के द्वारा अवमानना का कारण पूछने पर वे तलवार निकालकर खड़े हो गए। उनकी निर्भीकता और साहस को देखकर दूसरे राजा और सामंत भी राजा मधुकरशाह के समर्थन में खड़े  हो गए। स्थिति को बदलते देख अकबर ने कहा, कि आपके धर्मपालन और आपकी निर्भीकता को देखकर मैं बहुत प्रभावित हूँ। तब से राजा मधुकरशाह को टीकमशाह की उपाधि मिल गई और बुंदेलखंड में मदुकरशाही तिलक का नया चलन भी शुरू हो गया। टीकमगढ़ नगर के अस्तित्व में आने की कहानी भी इसी प्रसंग से जुड़ी हुई है।
मुगलों के लिए बुंदेला शासकों को कब्जे में लेना आसान नहीं था। इस कारण वे मजबूरी में मैत्री-भाव रखते थे, और अंदर ही अंदर ईर्ष्या का भाव रखते थे। महाराजा मधुकरशाह और उनके पुत्र राजा वीरसिंह जू देव के शासनकाल में ओरछा राज्य को अपने कब्जे में लेना मुगलों के लिए संभव नहीं रहा। जिस समय शाहजहाँ आगरा की गद्दी पर बैठा, उस समय राजा वीर सिंह के पुत्र जुझार सिंह ओरछा के राजा थे। जुझार सिंह की स्वतंत्रता शाहजहाँ की आँखों में खटकती थी, लेकिन जुझार सिंह को जीत पाना उसके लिए संभव नहीं था। इसलिए उसने छल-छद्म का सहारा लिया। राजा जुझार सिंह के अनुज दिमान हरदौल बहुत वीर और पराक्रमी थे। उन्होंने अपने विश्वस्त सैनिकों की बुंदेली सेना बना रखी थी, जो हर समय उनके साथ रहती थी, और मुगलों के हर आक्रमण का मुँहतोड़ जवाब देती थी। राजा जुझार सिंह अकसर ओरछा से बाहर रहते थे। इसका लाभ उठाकर उनके दोगले सरदार हिदायत खाँ ने दिमान हरदौल और रानी चंपावती के बीच देवर-भाभी के पवित्र संबंध पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। राजा जुझार सिंह हिदायत खाँ की चाल को समझ नहीं पाए और अपनी रानी चंपावती से सतीत्व की परीक्षा देने के लिए दिमान हरदौल को विष पिलाने की जिद पर अड़ गए। रानी चंपावती ने बहुत समझाया, लेकिन राजा जुझार सिंह टस से मर नहीं हुए। अंततः दिमान हरदौल ने विषपान करके मर्यादा, नैतिकता की अनूठी मिसाल कायम की।
दिमान हरदौल के व्यक्तित्व ने बुंदेलखंड के लोकजीवन में ऐसी अमिट छाप छोड़ी, कि आज भी उनके नाम के चबूतरे हर गाँव में मिलते हैं। पवित्र संबंधों की दुहाई देने के लिए, मर्यादित-संयमित-वीरत्व से पूर्ण जीवन को स्मरण करने के लिए शादी-विवाह-शुभकार्यों का पहला निमंत्रण भी दिमान हरदौल को दिया जाता है। दिमान हरदौल का बैठका रामराजा मंदिर के बाईं ओर है। लोग उनको स्मरण करते हुए आज भी गाते हैं- “बुंदेला देसा के हो, लाला प्यारे भले हैं लछारेओ ना।” बुंदेलखंड के प्यारे लाला हरदौल को कभी न भुलाने, कभी ना छोड़ने की बात करते ये ‘हरदौल के गीत’ ओरछा ही नहीं, सारे बुंदेलखंड की अनूठी पहचान गढ़ते हैं।
चतुर्भुज मंदिर, रामराजा सरकार का नौचौका महल, और हरदौल का बैठका एक क्रम के साथ ओरछा नगरी में स्थापित हैं। विशालकाय-भव्य चतुर्भुज मंदिर को छोड़कर रानी कुँवरि गणेशी के महल में विराजने वाले रामराजा देवत्व को तजकर नरश्रेष्ठ के रूप में मर्यादा-नैतिकता-आदर्श जीवन की पराकाष्ठा को लेकर नौचौका महल में विराजते हैं। राजा के रूप में प्रतिष्ठित मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का सामान्य मानव के रूप में, हमारे अपने जैसे लोगों के बीच में मर्यादित-संस्कारित, नीति-नैतिकतापूर्ण, वीरत्व-नायकत्व से विभूषित जीवन का उत्कृष्ट साक्ष्य हरदौल के रूप में उपस्थित होता है। इस कारण हरदौल बैठका जीवंत तीर्थ की प्रतिष्ठा को पाता है। यही सब मिलकर ओरछा के, समूचे बुंदेलखंड के चरित्र को गढ़ता है। इसी कारण ओरछा के कण-कण में तीर्थ रमता है, बसता है। ओरछा निवासी राकेश अयाची जी  के शब्दों में-
मधुकरशाह श्रेष्ठ राजा थे कुँवरि गणेशी रानी ।
राजा रामचंद्र की प्रतिमा जिनकी अमर निशानी ।।
देवतुल्य हरदौल लला थे सच्चे प्रेम पुजारी ।
जिनके कारण पूजा होती घर-घर आज तुम्हारी ।।
किसी देव से निम्न नहीं है कण-कण पूज्य तुम्हारा ।
धन्य-धन्य है श्रेष्ठ ओरछे, शत-शत नमन हमारा ।।

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी, अमृतसर, पंजाब द्वारा प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिकी- बरोह के जून, 2019 अंक में प्रकाशित, संपादक- डॉ. शुभदर्शन)
डॉ. राहुल मिश्र

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