Friday 2 June 2017

मड़फा दुर्ग : जहाँ कथाएँ आज भी जिंदा हैं




मड़फा दुर्ग : जहाँ कथाएँ आज भी जिंदा हैं

बुंदेलखंड का विंध्य अंचल अपने अतीत से ही अनेक पुरा-कथाओं और मिथकों का केंद्र रहा है। यहाँ कण-कण में ऐसी रोमांचकारी कथाएँ बसी हैं, जो आज भी लोगों को आश्चर्य में भी डाल देती हैं और अपने आकर्षण में जकड़ भी लेती हैं। बाँदा जनपद के कालंजर दुर्ग के माहात्म्य को जानने वाले इतना अवश्य जानते होंगे की शैव-साधना का यह केंद्र एक रात में ही बनकर तैयार हो गया था। देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा ने कालंजर के दुर्ग को एक रात में ही बना दिया था, ऐसी मान्यता है। कालंजर के साथ ही कालंजर के पूर्वोत्तर की ओर लगभग सोलह मील दूर मड़फा का दुर्ग भी उसी रात बनना शुरू हुआ था, जिस रात कालंजर का निर्माण हो रहा था। ऐसी मान्यता है कि विश्वकर्मा जी ने पहले कालंजर का दुर्ग बनाया और उसके तैयार हो जाने के बाद मड़फा के दुर्ग को बनाने का काम शुरू किया। रात बीत गई और मड़फा दुर्ग के पूरी तरह से नहीं बन पाने के कारण यह अधूरा ही रह गया। और वास्तव में यह दुर्ग कभी पूरी तरह से नहीं बन पाया। लोक-जीवन में जीवित यह कथा आज भी मड़फा की वीरानियों में गूँजती है। मड़फा दुर्ग का यह अधूरापन आज भी महसूस किया जा सकता है। इसकी वीरानियों में गुलज़ार होने की कसक आज भी महसूस होती है और इसी कारण बरबस ही लगता है कि यदि यह दुर्ग अधूरा न होता, तो शायद कालंजर से भी सुंदर, मोहक और आकर्षक होता। छत्रपति शिवाजी महाराज के शिवनेरी दुर्ग की भाँति अगम्य ऊँचाई में बना यह दुर्ग इतना समर्थ होता, कि कभी कोई आक्रांता इसे जीत नहीं पाता। वैसे भी इस दुर्ग को अजेय ही कहा जा सकता है, क्योंकि सन् 1780 में छछरिहा के युद्ध के पहले तक इस दुर्ग को जीतने में कोई सफल नहीं हो सका था। पन्ना के बघेल राजा हरिवंश राय और बाँदा के नवाब के बीच हुए छछरिहा के संग्राम के बाद यह दुर्ग अपना अस्तित्व खोता गया।
ऐसी मान्यता है कि महर्षि अर्थवर्ण का आश्रम मड़फा में ही था। महर्षि महाअर्थवर्ण को अथर्वा के नाम से भी जाना जाता है और उनके कारण ही चतुर्थ वेद के रूप में अथर्ववेद को जाना जाता है। महर्षि अथर्वा की पहचान महर्षि वेदव्यास के श्वसुर के रूप में, और इसी कारण मड़फा को वेदव्यास की ससुराल के रूप में भी जानते हैं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी पुस्तक ‘कृष्ण द्वैपायन व्यास’ में उल्लेख किया है कि एक बार महर्षि वेदव्यास अपनी माता सत्यवती से मिलने के लिए हस्तिनापुर (वर्तमान- ग्राम हस्तम, जनपद बाँदा) जा रहे थे। रास्ते में वाग्मती नदी (वर्तमान- बागे नदी, बदौसा, बाँदा) के पास कुछ अज्ञात लोगों ने उन्हें पकड़कर मारपीट शुरू कर दी, जिस कारण वेदव्यास बेहोश हो गए। वहाँ से गुजरते हुए महाअर्थर्वण के शिष्यों ने महर्षि व्यास की दयनीय दशा को देखा और उन्हें उठाकर महाअर्थवर्ण के आश्रम में ले आए। महाअर्थवर्ण की पुत्री वाटिका ने बड़ी लगन के साथ महर्षि व्यास की सेवा-सुश्रुषा की। बाद में महर्षि व्यास ने वाटिका से विवाह कर लिया और उनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे व्यासपुत्र सुखदेव के नाम से जाना जाता है।
अपनी जर्जर काया को आयुर्वेद की चिकित्सा के माध्यम से युवा कर लेने वाले महर्षि च्यवन का आश्रम भी मड़फा में था, ऐसी मान्यता है। चरक संहिता सहित आयुर्वेद की अनेक पुस्तकों के रचयिता और सुप्रसिद्ध वैद्य चरक ऋषि का आश्रम भी मड़फा में ही था। लोक-प्रचलित कथाओं और मिथकों का अनूठा संगम मड़फा में देखने को मिलता है। ऐसा माना जाता है कि माण्डव्य ऋषि के आश्रम से इस स्थान का नाम मड़फा पड़ा है। माण्डव्य ऋषि के आश्रम में कण्व ऋषि समेत अनेक ऋषि रहा करते थे। दुष्यंत और शकुंतला की पुरा-ऐतिहासिक गाथा के पुष्पन-पल्लवन का स्थान भी यही माना जाता है। दुष्यंत और शकुंतला की प्रेमकथा लोकजीवन से आश्रय पाकर आज भी कण-कण में गूँजती है। कण्व ऋषि की पालित पुत्री शकुंतला के पुत्र भरत ने मड़फा में ही शेर के दाँत गिने थे। राजा दुष्यंत के उत्तराधिकारी के रूप में अपने राज्य का विस्तार करके उसने ऐसे प्रतापी शासक का गौरव प्राप्त किया, जिसके नाम पर भरतखंड और भारतवर्ष को जाना जाता है। इस क्षेत्र के आसपास भरत के नाम से अनेक गाँव हैं, जो इस कथा के पुष्ट और सच होने को आश्रय प्रदान करते हैं। वेदव्यास के नाम से विकृत होकर बना वतर्मान का बदौसा और भरतकूप के निकट स्थित व्यासकुंड आदि के माध्यम से मड़फा परिक्षेत्र की पौराणिकता को प्रमाणित किया जा सकता है।

समुद्रतल से 1240 फीट ऊँचाई पर स्थित मड़फा के दुर्ग में गुप्तकालीन स्थापत्य के साथ ही चंदेलकालीन स्थापत्य की जर्जर उपस्थिति ही सही, मगर यह इस दुर्ग की प्राचीनता को, और साथ ही इसकी भव्यता को बखानती जरूर है। मड़फा के दुर्ग ने गुजरात से आए बघेलवंशी शासक व्याघ्रदेव को भी आकर्षित किया था। 1290 विक्रमी संवत् में व्याघ्रदेव ने यहाँ आकर मुकुंददेव चंद्रावत की कन्या सिंधुमती से विवाह किया और मड़फा दुर्ग बघेल शासकों के आधिपत्य में आ गया। वीरसिंह देव, वीरभान देव और रामचंद्र बघेल ने यहाँ पर शासन किया। बाद में बघेल शासकों ने अपनी राजघानी को रीवा स्थानांतरित कर दिया। इस तरह लगभग दो सौ वर्षों तक बघेलों के शासन की गवाही भी मड़फा दुर्ग के कण-कण में दिखती है। मड़फा के नजदीक ही गोंडरामपुर नामक एक गाँव है। यह गाँव गोंड शासकों की उपस्थिति को सँजोए हुए है। गोंड शासकों की वंशावली में रानी दुर्गावती का नाम भी आता है। मड़फा के दुर्ग ने रानी दुर्गावती की वीरता की गाथा को भी विस्मृत नहीं किया है।
मड़फा दुर्ग की जटिल संरचना का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहाँ पर बाहरी लोगों का आना आज भी उतना ही कठिन है, जितना कि पुराने जमाने में रहा होगा। इसी कारण अठारहवीं शताब्दी के मध्य में टीफेन्थलर नामक एक डच पादरी ही शायद सबसे पहले यहाँ पहुँचा होगा और उसने ही यहाँ के बारे में, यहाँ की भौगोलिक संरचना और यहाँ के ऐतिहासिक महत्त्व का वर्णन किया होगा, क्योंकि उसके पहले के किसी इतिहासकार ने इसका उल्लेख नहीं किया है। टीफेन्थलर लिखता है कि उस समय इसे मण्डेफा के नाम से जाना जाता था। सन् 1804 में कर्नल मेसलबैक ने रात्रि में यहाँ पर आक्रमण किया था, ताकि इस क्षेत्र को हिंसक खूँखार कब्जेदारों से खाली कराया जा सके। बाद में उसने भी इस क्षेत्र को छोड़ देना ही उचित समझा। तब से आज तक यह क्षेत्र कमोबेश उपेक्षित ही रहा है।
जनश्रुतियों में प्रचलित है कि यहाँ से गुजरते हुए एक जैन व्यापारी को अकूत संपदा प्राप्त हुई थी। इस धन का धर्मार्थ में उपयोग करते हुए मड़फा दुर्ग में उसने जैन मंदिरों का निर्माण कराया। दुर्ग में मठ की आकृति के एक ध्वंसावशेष के समीप ही जैन मंदिर भी बने हुए हैं। पंचरथ योजना के अनुरूप बने इन जैन मंदिरों का अधिकांश हिस्सा ध्वस्त हो चुका है और गर्भगृह में कोई मूर्ति भी नहीं है। गर्भगृह से दूर एक जैन तीर्थंकर की मूर्ति पद्मासन मुद्रा में है। शायद इस मूर्ति को गर्भगृह से निकालकर यहाँ रखा गया है। इस भग्न मूर्ति में तीन फीट लंबी और एक फीट चौड़ी पादपीठिका है, जिसमें शिलालेख है। संस्कृत में लिखे इस शिलालेख के अनुसार 1408 माघ सुदी 5 रविवार को मूर्ति प्रतिष्ठापित की गई है। इस शिलालेख के अनुसार छीतम ने अपने पिता गोसल और माता सलप्रण, अपने पितामह धने तथा मातामही तोण का नामोल्लेख किया है और गोसल के पुत्र छीतम ने इस मूर्ति की स्थापना कराई है। पादपीठ में अंकित शिलालेख के आधार पर इस मूर्ति को तेरहवीं शताब्दी का माना जा सकता है। मड़फा दुर्ग में लगभग दो मीटर ऊँची ऋषभनाथ की एक अन्य प्रतिमा भी है। यह प्रतिमा काफी हद तक सुरक्षित है, जबकि कई अन्य मूर्तियाँ भग्न स्थिति में हैं।
मड़फा में तांडव नृत्य करते शिव की दुर्लभ मूर्ति भी है। इसमें शिव अपने हाथों में विभिन्न प्रकार के शस्त्रास्त्र लिए हुए हैं। पादतल में एक राक्षस पड़ा हुआ है। नए मंदिर का निर्माण कराकर इस प्रतिमा को सुरक्षित करने का प्रयास स्थानीय लोगों द्वारा किया गया है। शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ श्रद्धालुओं का आगमन भी होता है। इस मंदिर से लगभग आठ सौ मीटर दूर एक आश्रम बना हुआ है। यहाँ पर जल-प्रबंधन का प्राचीन और दुर्लभ प्रयोग देखा जा सकता है। यहाँ पर चट्टान को काटकर एक कुंड जैसा बनाया गया है, जिसमें प्राकृतिक रूप से जल इकट्ठा होता रहता है और वर्षा नहीं होने पर भी इसमें जल उपलब्ध रहता है। इस जलकुंड के समीप एक कच्चा तालाब भी है। ऐसी मान्यता है कि इस तालाब में स्नान करने पर चर्मरोग नष्ट हो जाते हैं। जलकुंड और तालाब को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दुर्ग में पर्याप्त प्रबंध किए गए थे, ताकि युद्ध आदि की स्थिति में दुर्ग के अंदर संसाधनों की कमी न पड़े। चंदेलों के आठ प्रमुख दुर्ग में से एक मड़फा भी है और यहाँ मिलने वाले भग्नावशेष इस दुर्ग के अजेय होने की गवाही स्वयं ही दे देते हैं। इन भग्नावशेषों के साथ जुड़ी अनेक रोचक कथाएँ लोक-जीवन में कब से हैं, इनका अनुमान लगाना भी अपने आप में एक रोचक और रोमांचकारी खोज से कम नहीं होगा।
मड़फा दुर्ग के किस्से आज भी हैं, मगर ये किस्से किसी भरत के नहीं; माण्डव्य, अथर्वा, वेदव्यास, च्यवन और चरक जैसे ऋषियों-महर्षियों के नहीं, वरन् आतंक और दहशत के पर्याय दस्युओं और अपराधियों के हैं। इन किस्सों के पीछे मड़फा का ऐतिहासिक, भौगोलिक और पौराणिक महत्त्व छिप गया है। यहाँ रात की बात तो दूर, दिन में भी जाने से लोगों को डर लगता है। यहाँ वेदव्यास को उपचार के लिए ले जाने वाले महर्षि अथर्वा के शिष्यों की संततियाँ नहीं, बल्कि लूटने और यहाँ तक कि जीवन का भी हरण कर लेने वाले आधुनिक भारत के क्रूर आक्रांताओं का विचरण होता रहता है। मड़फा दुर्ग की अनेक दुर्लभ मूर्तियाँ धन के लालच की भेंट चढ़ गईं। धन के लालच में ही हाथी दरवाजा, मंदिरों के गर्भगृह और ऐतिहासिक निर्मितियाँ खोद डाली गईं। यहाँ के दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य को डकैतों और अपराधियों के छिपने के सुगम ठिकानों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। विकास के संकेत भी यहाँ देखे नहीं जा सकते। यह दुर्ग, जो एक समय में अजेय था, अजेय आज भी है, मगर विकास के लिए। आज भी मड़फा दुर्ग तक जाने के लिए पगडंडियाँ ही हैं, जो मानपुर, कुरहम या खमरिया गाँव से होकर जाती हैं। मड़फा दुर्ग की यह दयनीय त्रासदी है, जो अधूरेपन के अपने दर्द को देवताओं के अभियंता विश्वकर्मा के समय से आज तक बखान रही है। कालंजर का दुर्ग पर्यटन के विश्व-स्तरीय मानचित्र पर है, मगर मड़फा आज भी उपेक्षित है। मड़फा दुर्ग को आज की कथाओं से उबारकर अतीत की कथाओं तक ले जाने के लिए प्रयास अपेक्षित हैं और इन प्रयासों के लिए मड़फा का अजेय दुर्ग आज विजित होने की प्रत्याशा में कृशकाय होकर भी खड़ा है।
डॉ. राहुल मिश्र



(नगरपालिका परिषद्, हटा, जनपद- दमोह, मध्यप्रदेश द्वारा प्रकाशित और डॉ. एम.एम. पांडे द्वारा संपादित बुंदेली दरसन- 2017 में प्रकाशित)

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