प्राकृतिक
सौंदर्य और शौर्य से परिपूर्ण एक नगर
वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की नगरी झाँसी से मानिकपुर की ओर
जाने वाली सवारी गाड़ी के स्टेशन से रवाना होते ही अधिकांश यात्रियों के अंदर एक
नए इंतजार को उपजते देखा जा सकता है। यह इंतजार सफ़र खत्म होने का नहीं है। यह
इंतजार झाँसी के बाद आने वाले ओरछा स्टेशन से गाड़ी के आगे बढ़ते ही अपने चरम पर
पहुँच जाता है। बेतवा नदी के पुल पर दौड़ती गाड़ी से उपजने वाली तेज आवाजें
रेलगाड़ी के कोच में बरबस शुरू हो जाने वाली हलचलों को सुर दे देती हैं और बरुआ
सागर स्टेशन पर गाड़ी के खड़े होते न होते दौड़ शुरू हो जाती है। झाँसी से भले ही
भरपेट खाकर चले हों, मगर बीस-इक्कीस किलोमीटर के सफर में ही इतनी तगड़ी भूख उपज
जाना कि दौड़ लगानी पड़ जाए, स्वयं में रोमांचित कर देने वाला है। स्टेशन पर बने
चाय-पानी के स्टॉल में अच्छी-खासी भीड़ जमा हो जाती है। कोई पेड़े, तो कोई समोसे
और कोई सब्जी-पूड़ी खा रहा होता है, या फिर खरीदकर ले जा रहा होता है। प्लेटफार्म
पर सब्जीवालियों की लंबी कतार अलग आकर्षण रखती है। अदरख और कच्ची हल्दी से लगाकर
सभी किस्म की सब्जियाँ यहाँ पर उपलब्ध हैं। अमरूद और मूँगफली के देशी स्टॉल भी कम
नहीं होते हैं। विक्रेता महिलाओं की सुमधुर मिश्रित आवाजें गूँजती रहती हैं। अदरख
ले लो अदराख...., अमरूद ले लो ताजे-मीठे आमरूद....। लोग समय का सदुपयोग करते नजर
आते हैं। जल्दी-जल्दी सौदा पटाने और ढेर सारी सब्जियाँ खरीद लेने की होड़ नजर आती
है। रेलगाड़ी के रुकने से लगाकर उसके रवाना होने तक की अवधि में किसने कितनी सब्जी
खरीद ली, कितना जलपान कर लिया, जैसे विषय गाड़ी के रवाना होने के साथ ही क्षणिक
चर्चा के केंद्र में आ जाते हैं। लोगों के लिए अदरख और कच्ची हल्दी की खरीददारी
ज्यादा रोमांचकारी होती है; उसी तरह, जैसे बरुआ सागर के पेड़े खाकर मानो संसार के
सर्वोत्कृष्ट मिष्ठान्न को उदरस्थ कर लेने की सफलता से सुख की अनुभूति होती है। पुराने
तरीके की बनी स्टेशन की इमारत और सारा स्टेशन परिसर गाड़ी के आगमन के साथ ही
भागमभाग और चहल-पहल से भर जाता है। मानिकपुर की ओर से आने वाले रेलयात्रियों के
साथ भी यही सब घटता है। रेलगाड़ी जाने के बाद स्टेशन में कैसी उदासियाँ पसरती
होंगी और दूसरी गाड़ी के आने के इंतजार की घड़ियाँ कैसे गिनी जाती होंगी, इसकी
केवल कल्पना ही की जा सकती है। दूसरे छोटे स्टेशनों से इतर बरुआ सागर स्टेशन पर
कुछ अलग ही परिवेश बन जाता है, इस कारण कल्पनाओं को उड़ान भरने के लिए पंख मिल
जाते हैं। स्टेशन के बाहर इस कस्बे का जीवन कैसा होगा, कई बार मन में प्रश्न उपजते
हैं। आखिर इस छोटे-से कस्बे में सागर कहाँ से आ गया? अगर सागर है भी, तो कैसा है?
लगता है कि जिसने बरुआ नदी में बने बाँध को सागर नाम दिया होगा, उसने शायद सागर
देखा ही नहीं होगा, इसीलिए उस विशालकाय ताल को सागर मान लिया। ऐसा भी हो सकता है
कि बुंदेलखंड की पथरीली जमीन पर, जहाँ जल का संकट अपना विकराल रूप दिखाने में पीछे
नहीं रहता, वहाँ जल-प्रबंधन के ऐसे वृहदाकार निर्माण के प्रति आस्था ने सागर नाम
दे दिया हो।
बरुआ सागर कस्बे का नाम बेतवा नदी की सहायक बरुआ नदी पर बने बाँध या वृहदाकार तालनुमा सागर के कारण पड़ा है। बरुआ सागर ताल का क्षेत्रफल लगभग एक हजार एकड़ का है। बुंदेला शासकों द्वारा स्थापित धार्मिक-ऐतिहासिक नगरी ओरछा के प्रतापी शासक राजा उदित सिंह ने सन् 1705 से 1735 के मध्य इस ताल का निर्माण कराया था। इस ताल के निर्माण का शिल्प भी अद्बुत है। आम जनता के लिए ताल का उपयोग सहज और सुलभ हो सके, इस हेतु तालाब में घुमावदार सीढ़ियाँ बनी हैं। ताल पर बना चौड़ा तटबंध पुल का काम भी करता है। ताल में जल-प्रबंधन के साथ ही जल के उच्च स्तर पर पहुँचने पर जल निकास की व्यवस्था भी है। लगभग नब्बे वर्ष पूर्व भीषण बाढ़ ने जल निकासी व्यवस्था को नष्ट कर दिया था, फिर भी यह ताल यहाँ के लोगों के लिए उपयोगी है। खेती के लिए जल संसाधन की उपलब्धता के कारण यहाँ पर खेतों में खूब हरियाली नजर आती है। केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित केन-बेतवा गठजोड़ परियोजना में बरुआ सागर ताल भी शामिल है और इस परियोजना के माध्यम से ताल तक जल पहुँचाने की योजना है।
बरुआ सागर के किनारे पर ऊँची समतल पहाड़ी पर किला भी है। इस
किले का निर्माण भी ओरछा के राजा उदित सिंह द्वारा 1689 से 1736 के मध्य कराया गया
था। किले की प्राचीर से बरुआ सागर का सुंदर नजारा और चारों तरफ पसरी हुई हरियाली
बरबस ही मन को मोह लेती है। यहाँ की अनूठी प्राकृतिक सुंदरता और पठारी भूमि में
पसरे धरती के सौंदर्य से अभिभूत होकर ही शायद बुंदेला शासकों ने इस किले को अपना
ग्रीष्मकालीन किला बना लिया था। गर्मी के दिनों में वे यहीं पर प्रवास करते थे।
संभवतः इसी कारण आज भी बरुआ सागर को बुंदेलखंड की शिमला नगरी भी कहा जाता है। बुंदेला
शासकों के यहाँ आने के पहले इस इलाके में आबादी नहीं रही होगी, या बहुत कम संख्या
में रही होगी, इस कारण बुंदेला शासकों को किले और ताल के निर्माण कार्य के लिए
ओरछा से कामगारों को लाना पड़ा होगा। लगभग 47 वर्षों तक यहाँ पर चले निर्माण कार्य
के पूर्ण हो जाने के बाद कामगारों के परिवार यहीं पर बस गए। इसी कारण यहाँ बसे
अधिकांश लोग उन कामगारों के वंशज हैं, जो बरुआ सागर और किले के निर्माण हेतु यहाँ
लाए गए थे। इनके पास इसी कारण बरुआ सागर से जुड़ी तमाम लोक-प्रचलित कथाएँ भी हैं।
बरुआ सागर की आबादी से लगभग ढाई किलोमीटर पहले एक ऊँचे टीले
पर लगभग पाँच-छह फीट ऊँची चहारदीवारी के अंदर लाल बलुए पत्थरों से निर्मित लगभग
पैंसठ फीट ऊँचा मंदिर है। इसे जरा का मठ (जरकी मठ) के रूप में जाना जाता है। लोक
मान्यताएँ इस मंदिर को भाई-बहन का मंदिर मानती हैं। ऐसी कथा प्रचलित है कि बहन के
जिद करने पर भाई ने इस मंदिर को एक रात में बनाकर तैयार कर दिया था। इस मंदिर में
शिव-पार्वती की मूर्तियाँ हैं। यह मंदिर चंदेलकालीन है और चंदेलों के मांडलिक
प्रतिहार शासकों द्वारा इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। अपने स्थापत्य के कारण
यह मठ ऐतिहासिक महत्त्व का है। पूर्वाभिमुख मठ में गर्भगृह, फिर अंतराल और फिर
मुखमंडप है। मुखमंडल भग्नावस्था में है, जबकि मुख्य मंदिर के उत्तर-पश्चिम और
दक्षिण-पश्चिम दिशाओं में स्थित भग्न छोटे मंदिरों से अनुमान लगाया जा सकता है कि
मुख्य मंदिर के चारों ओर चार छोटे-छोटे मंदिर रहे होंगे। मंदिर की ऊँचाई या विमान के
साथ ही चार छोटे-छोटे मंदिरों से अनुमान लगाया जा सकता है कि मंदिर पंचायतन शैली
का है। मंदिर का गर्भगृह आयताकार है। आयताकार चौक प्रायः शेषशायी विष्णु या
सप्तमातृका के मंदिरों में होती हैं। शेषशायी विष्णु की मूर्ति यहाँ नहीं है, मगर
मंदिर के नाम से स्पष्ट होता है कि यह मंदिर शक्ति-साधना का केंद्र रहा होगा। श्री
महाकाली अष्टोत्तर सहस्रनामावली में श्लोक है-
विद्याधरी वसुमती यक्षिणी योगिनी जरा ।
राक्षसी
डाकिनी वेदमयी वेदविभूषणा ।।26।।
महाकाली का एक नाम जरा भी है, इस तरह शाक्त-साधना के साथ इस
मंदिर के संबंध का प्रमाण मिलता है। मंदिर का प्रवेश द्वार सुसज्जित है। इसमें चार
पंक्तियों में नर्तकियों, अष्ट दिग्पालों, वाराहियों और द्वारपालों के साथ ही
ब्रह्मा, विष्णु, महेश,नरसिम्हा, लक्ष्मी-नारायण, सूर्य की प्रस्तर पर उत्कीर्ण
मूर्तियाँ हैं। द्वार के दोनों और गंगा और यमुना की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के शिखर
का एक तिहाई हिस्सा टूटा हुआ है, जिसका जीर्णोद्धार कराया गया प्रतीत होता है।
संभवतः बरुआ सागर और किले के निर्माण के दौरान बुंदेला शासकों ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार
कराया होगा। बरुआ सागर के समीप ही घुघुआ मठ भी है। यह मठ भी चंदेलकालीन है और
पत्थरों पर उकेरी गई सुंदर नक्काशी को यहाँ पर भी देखा जा सकता है। इस मठ में चार
दरवाजे हैं। तीन दरवाजों पर गणेश की प्रतिमाएँ हैं और चौथे दरवाजे पर दुर्गा की
प्रतिमा है। यह मंदिर शैव-साधना का केंद्र रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है।
स्थापत्य की इन बेजोड़ निर्मितियों के अतिरिक्त बरुआ सागर
में प्राकृतिक निर्मितियाँ भी हैं। इनमें स्वर्गाश्रम प्रपात प्रमुख है। 1985 के
आसपास इस स्थान पर चण्डी स्वामी शरणानंद जी सरस्वती द्वारा एक आश्रम का निर्माण
कराया गया था। तब से यह स्थान पर्यटकों के लिए ही नहीं, वरन् श्रद्धालुओं के लिए
आकर्षण का केंद्र बन गया। चारों तरफ फैली हरियाली, विभिन्न प्रकार के वृक्ष और
उनकी शीतल छाया में कल-कल निनाद करता प्रपात का औषधियुक्त जल तन और मन, दोनों को
सुख देता है। इस प्रपात के निकट तीन कुंड हैं, जिनमें इसका जल संग्रहीत होता है।
प्रपात का जल गंधकयुक्त होने के कारण औषधीय गुणों से युक्त है और अनेक व्याधियों
के उपचार हेतु लोग इस जल का उपयोग करते हैं। आश्रम के निकट ही हनुमान गुफा नामक एक
प्राकृतिक निर्मिति है, जिसमें हनुमान जी की मशक स्वरूप प्रतिमा विराजमान है। यहाँ
पर विभिन्न पर्वों में श्रद्धालुओं का आगमन होता रहता है। गर्मी की ऋतु में यहाँ
पर पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। दूर्वा का विशाल उद्यान भी लोगों को अपनी ओर
आकर्षित करता है।
बरुआ सागर, घुघुआ मठ, जरा का मठ और स्वर्गाश्रम प्रपात
बुंदेले और मराठों के संघर्ष के गवाह भी हैं। सन् 1744 में यहाँ पर बुंदेले और
मराठों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था, जिसमें रानोजी सिंधिया के पुत्र और महाराजा
माधोजी सिंधिया के अग्रज ज्योति भाऊ शहीद हुए थे। युद्ध के समापन के बाद पेशवा ने
आदेश दिया था कि बरुआ सागर से वसूली जाने वाली लगान से दस हजार सालान का भुगतान
शहीद ज्योति भाऊ की पत्नी को किया जाए। आश्चर्यजनक तरीके से यह भुगतान एक सौ
ग्यारह वर्षों तक ग्वालियर दरबार को होता रहा। ज्योति भाऊ की बेवा के गुजर जाने के
बाद यह रकम उनके परिवार के दूसरे लोगों को मिलती रही। सन् 1855 में, जब झाँसी पर
अंग्रेजों का कब्जा हो गया, तब अंग्रेज हुक्मरानों ने इसे रोकने की कार्यवाही की।
अंग्रेजों ने आदेश जारी किया कि अधिकार के रूप में इस धनराशि का पाने का हक
ग्वालियर घराने को नहीं है, बशर्ते कृपापूर्वक इसका भुगतान किया जा सकता है। लगभग
एक सौ ग्यारह वर्षों तक बरुआ सागर की लगान से ग्वालियर दरबार अपनी जेबें भरता रहा।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके पति गंगाधर राव को भी
बरुआ सागर से बहुत लगाव रहा है। गंगाधर राव तो अकसर अपना समय यहीं पर गुजारा करते
थे। गंगाधर राव के निधन के उपरांत झाँसी का राज्य राजनीतिक अस्थिरता से घिर गया।
इसका लाभ उठाकर ओरछा के प्रधानमंत्री नाथे खाँ ने बरुआ सागर पर कब्जा करने की
कोशिश की। उसने बरुआ सागर पर कब्जा भी कर लिया और आगे बढ़कर झाँसी के किले को भी
घेर लिया। बाद में रानी झाँसी की सूझबूझ और पराक्रम के कारण नाथे खाँ को वहाँ से
भागना पड़ा। रानी झाँसी ने अपने पिता मोरोपंत तांबे के नेतृत्व में चार सौ सैनिकों
की फौज भेजकर बरुआ सागर को फिर से अपने कब्जे में ले लिया। जिस समय रानी झाँसी
अंग्रेजों से संघर्ष कर रही थीं, उस समय बरुआ सागर के आसपास के इलाके में डाकू
कुँवर सागर सिंह का आतंक हुआ करता था। वह रानी झाँसी के पराक्रम से इतना प्रभावित
हुआ, कि अपने सारे साथियों के साथ रानी झाँसी की फौज में शामिल हो गया। उन दिनों
बरुआ सागर क्रांति की ज्वाला से धधक रहा था। अंग्रेजों को जितना खतरा झाँसी में
महसूस होता था, उससे कम खतरा बरुआ सागर में महसूस नहीं होता था। इसी कारण
अंग्रेजों की तमाम गुप्तचर एजेंसियाँ यहाँ पर सक्रिय रहती थीं। प्रथम स्वाधीनता
संग्राम से लगाकर देश की आजादी तक बरुआ सागर स्वतंत्रता सेनानियों का गढ़ रहा। जिस
समय देश के विभिन्न हिस्सों में छापाखानों में समाचारपत्र छपा करते थे और
स्वतंत्रता सेनानियों के पास भेजे जाते थे, उस समय बरुआ सागर में रातों-रात
हस्तलिखित समाचार पत्र तैयार किए जाते थे और रातों-रात ही उनका वितरण आसपास के
इलाकों में, शहरों में किया जाता था। वितरण करने वाले स्वाधीनता सेनानी रात में पत्र
लेकर निकलते थे और सुबह होने के पहले ही पत्र बाँटकर वापस आ जाते थे। बरुआ सागर से
चलने वाली इस क्रांतिकारी गतिविधि ने अंग्रेजों की नींद उड़ा रखी थी। इस काम को
करने वाले सेनानियों को तलाश पाना अंग्रेजों के लिए बहुत कठिन था। अंग्रेजों के
गुप्तचर बरुआ सागर में अपना डेरा डाले ही रहते, और क्रंतिकारी अपना काम बखूबी कर
ले जाते। अनेक अंग्रेज अधिकारियों ने अपने संस्मरणों में बरुआ सागर का इसी कारण
खूब जिक्र किया है।
जाने-माने रंगकर्मी, नाट्य-समीक्षक, समालोचक, पत्रकार, कवि,
अनुवादक और शिक्षक पद्मश्री नेमिचंद्र जैन का बचपन बरुआ सागर में ही गुजरा है।
वृंदावनलाल वर्मा की रचनाओं में बरुआ सागर का सौंदर्य निखरता है। और भी तमाम कवि,
साहित्यकार, इतिहासकार; चाहे वे विदेशी हों, या देशी हों, बरुआ सागर उनके लिए
रोमांच से भरा रहा है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता और यहाँ के कण-कण में बसी अतीत
की गाथाएँ उन्हें अपनी खींचती रही हैं।
बरुआ सागर के स्टेशन में रेलगाड़ी के आते ही अचानक बढ़ जाने
वाली चहल-पहल ही केवल इसकी पहचान नहीं है। यहाँ की अनूठी प्राकृतिक सुंदरता, यहाँ
की ऐतिहासिक विरासत न केवल शासकों को; वरन् जिज्ञासुओं को, श्रद्धालुओं और पर्यटकों
को आकर्षित करती रही है। यह अलग बात है कि शिमला जैसे बहुचर्चित और महँगे शहर के
आकर्षण में हम अपने बुंदेलखंड के शिमला से भी खूबसूरत इलाके को विस्मृत कर बैठे
हों।
बरुआ
सागर के स्टेशन में सब्जियाँ, मूँगफली और अमरूद बेचती महिलाएँ आत्मसम्मान के साथ
जीने का यत्न करती नजर आती हैं। रानी झाँसी ने प्रण किया था कि अपने जीते जी अपनी
झाँसी नहीं दूँगी। उनका आत्मसम्मान, उनका आत्मगौरव, उनका पराक्रम, उनका शौर्य यहाँ
कण-कण में, जल की हर-एक बूँद में आज भी बसता है। इसलिए गरीबी और जीवन जीने की विकट
जद्दोजहद ने यहाँ की महिलाओं को लाचार-बेबस नहीं बनाया है। यहाँ से गुजरने वाले
यात्रियों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि महिलाएँ सिर पर वजनी टोकरी उठाए सुबह से देर
शाम तक गाड़ियों में भाग-भागकर सब्जियाँ, मूँगफली बेचती क्यों नजर आती हैं? यह इस
धरती का गुण-धर्म है, यहाँ की पहचान है। अपने अतीत के गौरव से गर्वोन्नत बरुआ सागर
से गुजरते हुए इस पुण्यश्लोका धरा को प्रणाम कर लेने का मन होता है।
डॉ. राहुल मिश्र
(बुंदेली दरसन- 2016, अंक-09, प्रकाशक- नगरपालिका परिषद, हटा, जिला- दमोह, संपादक- डॉ. एम.एम. पाण्डे)
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