Thursday 2 May 2024

नंदी की कौन सुने....

 


नंदी की कौन सुने....

काशी का बाबा विश्वनाथ तीर्थक्षेत्र....। युगयुगीन प्रवाहित भागीरथी के तट पर अनंतकाल से जीवंत-जागृत काशी। काशी के अधिपति बाबा विश्वनाथ का स्थान, स्वयंभू विश्वेश्वर महादेव, और उनके सामने विराजमान नंदी...। अनेक पीढ़ियों ने इस दिव्य दर्शन को पाकर अपने जीवन को धन्य किया। आराधना-पूजा करके अपनी मनोकामनाओं को पूरा होते देखा। यह गौरवपूर्ण अतीत, यह आध्यात्मिक परंपरा, भक्ति की प्रवाहित धारा कब आक्रांताओं के आक्रमणों की भेंट चढ़ी, यह इतिहास का विषय है। इतिहास की पुस्तकों की सच की गहराई का स्तर अतीत की विभीषिका को आँकने का माध्यम अवश्य हो सकता है, किंतु प्रत्यक्ष का प्रमाण अतुलनीय होता है। इसी कारण विश्वेश्वर के नंदी की चर्चा आजकल खूब हो रही है।

हमारा बचपन आँखों के सामने घूम रहा है। हमारे पुराने समय में साधुओं का दल नंदी राजा को लेकर गाँव-गाँव घूमता था। नंदी राजा के आते ही मानों गाँव-जवार में हलचल-सी आ जाती। लोग नंदी राजा के लिए सीधा-पिसान लेकर आ जाते। बड़ी आस्था के साथ पाँव छूते। बड़ी सुंदर-सी झूल पीठ पर डाले, जिसमें कौड़ियों-सीपियों की कढ़ाई होती, तेल से चमचमाते हुए सींग, गठीली देहयष्टि, स्वयं में मगन नंदी राजा लोगों के लिए अनेक आशाएँ लेकर आते, सुनहरे सपनों के पंख लेकर आते...। इसी कारण नंदी राजा को भेंट-चढ़ावा देकर अपना-अपना भविष्य पूछने का क्रम चालू हो जाता। किसी को हाँ में सिर हिलाकर, तो किसी को ना में सिर हिलाकर नंदी राजा भविष्य बताते। लोग आस्था में नतमस्तक होकर नंदी राजा के माध्यम से औढरदानी महादेव तक अपना संदेश भिजवाते।

लोकजीवन इन्हीं बातों से सँवरता है। आस्था की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ नहीं गढ़ता..., घास-फूस की झोपड़ियों में ही प्रसन्न हो लेता है। शिवालयों में स्थापित नंदी के कान में धीमे से कुछ कहती बूढ़ी माई को देखकर, किसी परीक्षार्थी बच्चे को नंदी के कान में फुसफुसाते देखकर ऐसा ही लगता है। मानों वे नंदी के कान में अपनी याचना सुनाकर स्वयं को मुक्त कर लेते हैं। एक भरोसा अपने अंदर पा जाते हैं, कि गर्भगृह में महादेव से तो कह ही आए हैं, मगर कहीं व्यस्तता के बीच हमारी याचना पर ध्यान न दे पाएँ, तो नंदी राजा उन्हें अवश्य स्मरण करा देंगे। नंदी राजा इसी कारण लोक के अधिक निकट होते हैं। आस्थावान भक्तगण अनेक प्रकार से नंदी की आराधना करते हैं, क्योंकि औढरदानी को स्मरण कराने वाले वे ही हैं। संभावना जहाँ सिमट जाएँ, वहाँ फिर से भरोसा जगा देने वाले नंदी राजा ही हैं।

नंदी राजा भी अपने आराध्य महादेव के भक्तों को खूब पहचानते हैं। वे अपने प्रति आस्था रखने वाले शिवभक्तों को निराश नहीं करते। इन दिनों जिन नंदी की बात चल रही है, उन्हीं से जुड़ा एक प्रसंग महाराष्ट्र में बहुत प्रचलित है। कहते हैं, कि संत ज्ञानदेव जनाबाई के साथ काशी आए थे। ‘पंडित से पंडित मिले भईं-भईं पूछै बात....’ वाले न्याय से काशी के पंडितों ने संत ज्ञानेश्वर से शास्त्रार्थ चालू किया, फिर परीक्षा लेने लगे.....। जरा विश्वनाथ जी के नंदी को चारा खिलाकर दिखाओ, तो जानें...। अभी तक तो बहुत सारी कहानियाँ फैला रखीं हैं। संत ज्ञानेश्वर चिंता में पड़ गए, अब आखिर क्या करें? वे तो संत हैं, जो बातें उनके बारे में चमत्कार की तरह प्रचलित-प्रचारित हैं, उन बातों को उन्होंने स्वयं तो नहीं फैलाया है। उनके आस्थावान अनुयायियों ने कहा, तो वे क्या करें..। अब यहाँ काशी के पंडित प्रत्यक्ष प्रमाण माँगने पर अड़े हुए हैं। संत ज्ञानेश्वर की चिंता गुरु निवृत्तिनाथ से छिपी नहीं थी। संत ज्ञानेश्वर कातर भाव से गुरु निवृत्तिनाथ की ओर देखते हैं, दो आँसू टपक पड़ते हैं। निवृत्तिनाथ कहते हैं, कि नंदी भूखा दिखता है, घास खिला दो...। लोग दौड़कर घास ले आते हैं, और यह क्या... संत ज्ञानेश्वर ने जैसे ही विनत् भाव से चारे का गट्ठर नंदी राजा के आगे किया, वे स्वयं ही मुँह उठाकर चारा खाने लगे। निवृत्तिनाथ, संत नामदेव, जनाबाई और अनेक भक्तों ने नंदी को चारा खिलाया।

यह कथा आज भी महाराष्ट्र से काशी आने वाले भक्तों को भक्ति के भाव में डुबो देती है। उन्हें आज भी नंदी राजा चारा खाने के लिए गरदन मोड़े हुए बैठे दिखाई देते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे पंढरपुर में विठोबा कमर पर दोनों हाथ रखे हुए ईंट पर खड़े दिखाई देते हैं। पंढरपुर में महावैष्णव भक्तराज पुंडलीक अपने माता-पिता की सेवा में अनवरत् लगे रहते थे। ऐसे मातृ-पितृभक्त के दर्शन करने विष्णु के अवतार विट्ठल आते हैं। पुंडलीक से मिलने के लिए कहते हैं। पुंडलीक एक ईंट फेंककर उनसे कहते हैं, कि इसमें बैठकर प्रतीक्षा करें, वे माता-पिता का काम पूरा करके, सेवा-टहल करके मिलने आएँगे। विट्ठल उस ईंट पर खड़े होते हैं, कमर में हाथ रखकर... कुछ इस तरह से, कि मुझे कब तक प्रतीक्षा करनी होगी? भगवान अपने भक्त की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अद्भुत हैं पंढरीनाथ.., कब से अपने भक्त की प्रतीक्षा में खड़े हैं।

आस्था और विश्वास का जैसा संयोग पंढरपुर में है, वैसा ही तो काशी में है, काशी के अधिपति विश्वेश्वर महादेव के प्रिय भक्त नंदी के साथ जुड़ा है। संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, माता जनाबाई आदि अनेक भक्तों-संतों-आस्थावानों के तीर्थक्षेत्र में आते रहने का विधान उसी आस्था व विश्वास की अनंत गाथा को दोहराता है। अनगिनत भक्त अपनी भावनाओं को सहेजकर काशी के बाबा के दर्शन को आते हैं, नंदी राजा के दर्शन को आते हैं..... और अपनी मनोकामनाओं को, अपनी चिंताओं को नंदी राजा के कान में बताकर इस भरोसे के साथ लौटते हैं, कि उनकी मनोकामनाएँ पूरी होंगी, उनके दुःख और चिंताएँ दूर होंगी। बाबा पर भरोसा जो है, वह कभी टूटता भी नहीं है, आस्था के भाव को सदैव दृढ़ करता जाता है।

बाबा विश्वनाथ के भक्त महंत पन्ना ने जब देखा, कि आक्रांताओं-आततायियों की नीयत उनके आराध्य विश्वेश्वर महादेव को अपवित्र करने की है, और तीर्थक्षेत्र भी सुरक्षित नहीं बचा है तब वे भी नंदी के कान में अपनी पीड़ा और अपनी मनोकामना कहकर विश्वेश्वर महादेव के विग्रह को लेकर, शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी में कूद जाते हैं। महंत पन्ना के मन में असीम विश्वास उसी लोक-आस्था का एक अंश दिखता है, जो औढरदानी अविनाशी शिव तक बात पहुँचाने वाले नंदी राजा से अपने भरोसे को जोड़ती है। काशी तीर्थक्षेत्र के परिसर में विश्वेश्वर महादेव के अनन्य भक्त नंदी राजा ने एक वह समय भी देखा, जब आस्थावान भक्तों की भीड़ उनसे अपने दुःख-दर्द कह जाती, अपनी मनोकामनाएँ कह जाती थी। बाद में वह समय भी देखा, जब आततायियों ने अपनी कुत्सित भावनाओं से, आक्रमण और आतंक से सबकुछ तहस-नहस कर डाला। विश्वेश्वर महादेव भक्त पन्ना के साथ ज्ञानवापी कुएँ में भले ही डूब गए हों, लेकिन नंदी राजा अविचल रहे। समय के साक्ष्यों को सहेजते हुए प्रतीक्षारत रहे। नंदी राजा तो सबकी सुनते रहे, महादेव तक सबकी बात पहुँचाते रहे, मगर नंदी की कौन सुने...। नंदी अपनी वेदना किससे कहें। यह प्रश्न समय की गति के साथ, काल के घूमते चक्र के साथ घूमता ही रहा... तिरता-उतराता ही रहा। कितनी पीढ़ियों ने प्रश्न के उत्तर खोजने के यत्न किए। कितने कुचक्र रचे गए, कितनी चालें चली गईं, कैसे ताने-बाने बुने गए... यह सब नियति ने देखा है। इतिहास ने स्वयं में यह सब समेटा है। ऐसी विकट विषमता के लंबे काल में न तो नंदी ने अपनी प्रतीक्षा छोड़ी, ओर न ही महाकाल के भक्तों ने अपनी आस्था व विश्वास को छोड़ा।

समय किस तरह करवट बदलता है, यह आज के समय में दिखाई दे रहा है। नंदी की वर्षों की साधना पूरी होती दिख रही है। नंदी की प्रतीक्षा पूरी हुई...., ऐसा चारों ओर सुनाई देने लगा है। शिवभक्तों की आस्था, उनका भरोसा दृढ़ हुआ है। औढरदानी विश्वेश्वर महादेव अपने भक्तों की प्रतीक्षा में पथराई आँखों में प्रसन्नता की चमक भर रहे हैं। शिव के प्रिय गण नंदी राजा भी अपनी प्रतीक्षा को पूरा होते देख रहे हैं। युगों-युगों से शिवभक्तों की याचनाओं को महादेव तक पहुँचाने वाले नंदी की याचना भी शिव ने सुनी है। इतने वर्षों में अनेक विषमताओं को देखने के लिए विवश नंदी राजा की आँखों से प्रसन्नता के अश्रु बरबस ही बह उठे हैं, ऐसा अनुभूत होता है। यह अनुभूति चितेरों की तूलिकाओं से भी उतरती है। सोशल मीडिया के अनेक पटलों पर घूमते चित्र यही तो बता रहे हैं।

नंदी शिव के भवन के द्वारपाल हैं, कैलास के द्वारपाल हैं। वे बल और शक्ति के प्रतीक भी हैं। वे कर्मठता और संपन्नता के प्रतीक भी हैं। नंदी लोक की आस्थाओं में रचे-बसे हैं। यह कोई आज की बात नहीं, यह कोई आज के भारत की बात नहीं...। दुनिया की अनेक सभ्यताओं में नंदी बसे हैं, समाए हैं। सिंधु घाटी की प्राचीनतम् सभ्यता के साथ ही बेबीलोन, सुमेरु और असीरिया की सभ्यताएँ नंदी के प्रति आस्था को व्यक्त करती हैं। नंदी सनातन की अविरल परंपरा के संवाहक हैं। नंदी केवल लोकजीवन में ही नहीं, धर्म और अध्यात्म की उच्चतम् स्थितियों में भी प्रतिष्ठित हैं। नंदी भारतीय जनजीवन की सुंदर झाँकी गढ़ते हैं। नंदी की प्रतीक्षा सनातन भारतीय जीवन की प्रतीक्षा है। नंदी का उद्घोष भारत की भारतीयता का उद्घोष है।

नंदी शिव के हैं, शिव की सवारी हैं। धेनुएँ, गउएँ कान्हा की हैं, ब्रजक्षेत्र जितना कान्हा की गउओं के रँभाने से सँवरता है, उतना ही नंदियों की हुँकार से गूँजता है। कान्हा के अधरों पर वंशी है, गीत है, संगीत है...। शिव के चरणों में भी तो लय है, ताल है, तांडव है। गीत-संगीत-नृत्य समानधर्मा हैं, लोक की चिंताओं का शमन करने वाले, लोक का रंजन करने वाले हैं। शिव और पार्वती लोकरंजक भी हैं, लोकरक्षक भी...। शिव-पार्वती के लिए लोकरक्षक राम की बाललीला आकर्षक होती है। राम लंका विजय के पहले शिव को पूजते हैं, रामेश्वरम् में...। कान्हा और राम एक ही तो हैं, और शिव इन दोनों से जुड़े हैं। लोक की आस्था, लोक का जीवन इन्हीं जुड़ावों के साथ संलग्न है, अभिन्न भी है। राम की अयोध्या नगरी में सरजू जी का जल यदि निर्मल होता है, तो काशी की गंगा और ब्रज की यमुना भी अपने निर्मल जल के आनंद में लोक को डुबो देना चाहती हैं। नंदी तो लोक की बात कहने वाले हैं, लोक के उद्धारक आशुतोष से..., हर महेश्वर रुद्र से.... सत्य और सुंदर को सहेजने वाले शिव से...। नंदी की प्रतीक्षा लोक के हितार्थ गरल का पान कर लेने वाले हर महेश्वर रुद्र, नीलकंठ महादेव के पुनः लोकहितार्थ जागृत होने के लिए है, भक्तों और आस्थावानों की आशाओं-कामनाओं-याचनाओं की पूर्ति के लिए है, और यह सब नंदी की प्रतीक्षा की पूर्णता के साथ सहज सुलभ दिखता है।

-राहुल मिश्र

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ, आषाढ़-सावन ,2079, जुलाई-2022 के अंक में प्रकाशित)





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